Wednesday, 17 April 2019

पूजा के समय मंत्र बोलना जरूरी क्यों होता है? हिन्दू धर्म में पूजा करने को बहुत महत्व दिया जाता है। छोटे या बड़े किसी भी तरह के उत्सव या आयोजन के प्रारंभ से पहले पूजा या अनुष्ठान जरूर किया जाता है। पूजा या अनुष्ठान चाहे किसी भी देवता का हो बिना मंत्र जप के पूरा नहीं होता है। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि पूजन के समय मंत्र जप क्यों किया जाता है? दरअसल मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है। जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।

वीर बेताल साधना यह साधना रात्रि कालीन है स्थान एकांत होना चाहिए ! मंगलबार को यह साधना संपन की जा सकती है ! घर के अतिरिक्त इसे किसी प्राचीन एवं एकांत शिव मंदिर मे या तलब के किनारे निर्जन तट पर की जा सकती है ! पहनने के बस्त्र आसन और सामने विछाने के आसन सभी गहरे काले रंग के होने चाहिए ! साधना के बीच मे उठना माना है ! इसके लिए वीर बेताल यन्त्र और वीर बेताल माला का होना जरूरी है ! यन्त्र को साधक अपने सामने बिछे काले बस्त्र पर किसी ताम्र पात्र मे रख कर स्नान कराये और फिर पोछ कर पुनः उसी पात्र मे स्थापित कर दे ! सिन्दूर और चावल से पूजन करे और निम्न ध्यान उच्चारित करें !! फुं फुं फुल्लार शब्दो वसति फणिर्जायते यस्य कण्ठे डिम डिम डिन्नाति डिन्नम डमरू यस्य पाणों प्रकम्पम! तक तक तन्दाती तन्दात धीर्गति धीर्गति व्योमवार्मि सकल भय हरो भैरवो सः न पायात !! इसके बाद माला से १५ माला मंत्र जप करें यह ५ दिन की साधना है ! !! ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं वीर सिद्धिम दर्शय दर्शय फट !! साधना के बाद सामग्री नदी मे या शिव मंदिर मे विसर्जित कर दें साधना का काल और स्थान बदलना नहीं चाहिए

कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ ‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें। प्राण-प्रतिष्ठा विधि सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ। अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र को रखें। रजत-पत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा ‘यन्त्र लिखें। पहले यन्त्र की रेखाएँ बनाएँ। रेखाएँ बनाकर बीच में ॐ लिखें। फिर मध्य में क्रमानुसार 7, 2, 3 व 8 लिखें। इसके बाद पहले खाने में 1, दूसरे में 9, तीसरे में 10, चैथे में 14, छठे में 6, सावें में 5, आठवें में 11 नवें में 4 लिखें। फिर यन्त्र के ऊपरी भाग पर ‘ॐ ऐं ॐ’ लिखें। तब यन्त्र की निचली तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। यन्त्र के उत्तर तरफ ‘ॐ श्रीं ॐ’ तथा दक्षिण की तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। प्राण-प्रतिष्ठा अब ‘यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे ‘यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े - “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।” ‘यन्त्र’ पूजन इसके बाद ‘रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर ‘यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ ‘समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा- 1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें- पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।। अब ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा- ।।शिव उवाच।। श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।। न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।। कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।। मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्। पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।। मन्त्र – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।। नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1 नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि। जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2 ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका। क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3 चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी। विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4 धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5 ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6 ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7 अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव। आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8 म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः। सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9 ।।फल श्रुति।। इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।। यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।। फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें- यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च। तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।। प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े- एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि। सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।। अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।। अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा- अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।। आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।। मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि ! यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।। अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्। या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।। सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके ! इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।। अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्। तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि ! कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे ! गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि ! गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।।

एक सरल प्रयोग यह प्रयोग किसी भी शत्रु दुयारा किए अभिचार जैसे अगर किसी शत्रु ने किसी पर तंत्र यंत्र मांत्रिक प्रयोग कर दिया है तो उस से निजात पाने के लिए यह एक अनुभूत प्रयोग है !तंत्र किसी भी व्यक्ति के जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर देता है !और तरह तरह के अज्ञात वाधाए उस व्यक्ति के जीवन की दिशा ही बदल देते है !व्यक्ति इस से छुटकारा पाने के लिए कथित तांत्रिक लोगो के पास धके खाता है और आराम के नाम पे उसे ठगा जाता है !और वह अपना समय और पैसा दोनों गवा बैठता है !इस मंत्र को ग्रहण के दिन 108 वार जप कर सिद्ध कर ले माला कोई भी ले ले काले हकीक की बेहतर है और हो सके तो 5 माला कर ले नहीं तो 108 वार भी चल जाएगा !प्रयोग के वक़्त जब किसी के दुयारा किए प्रयोग को नष्ट करना हो तो एक शराब की प्याली और बतासे ले किसी चोराहे पे चले जाए जो निर्जन हो तो जायदा उचित है !बतासे और शराब की पियाली रख कर 21 वार मंत्र पढे और वहाँ से 7 कंकर उठा ले उन में से 4 कंकर चारो दिशायों में फेक दे और शेष तीन अपने पास ले आए जिस को वाधा हो एक एक कंकर पे 7 वार मंत्र पढ़ उसके शरीर से tuch करे मतलव छूया दे और इस प्रकार तीनों कंकर 7 -7 वार मंत्र पढ़ छूयाए और उन्हे दक्षिण दिशा की तरफ अपनी हद के बाहर फेक दे इस तरह उस पे किया गया प्रयोग का असर समापत हो जाएगा ! साबर मंत्र – ॐ उलटंत देव पलतंट काया उतर आवे बच्चा गुरु ने बुलाया बेग सत्यनाम आदेश गुरु का !!

स्वर्णप्रभा यक्षिणी, स्वर्णप्रभा नाम जहाँ सुमरों तहाँ हाज़िर होवे , स्वर्णप्रभा भवानी कारज सिद्ध करे, जो मेरी बुलाई हाज़िर ना होवे तो, महादेव जी - माँ गौरी की आन, महाराजा राजाधिराज कुबेर की आन, जो मेरा कारज सिद्ध ना करे तो, लोना चमारी की कुंडी भंगी के नरक कुण्ड में पडे, रूद्र के नेत्रों से अग्नि की ज्वाला कहरे, लटा टूट भूमि पर परे, शब्द साँचा पिण्ड कांचा, फुरो मंत्र गुरु गोरखनाथ वाचा, सत्यनाम आदेश गुरु को.

सिद्धि के लक्षण मंत्र सिद्धि होने से साधक में जो लक्षण प्रकट होते हैं उनके विषय में शास्त्रकारोंने कहा है- “हृदये ग्रन्थि भेदश्च सर्व्वाय व वर्द्धनम्। आनन्दा श्रुणि पुलको देहावेशः कुलेश्वरी॥ गद्गदोक्तश्च सहसा जायते नात्रसंशयः॥” (तंत्र सार) अर्थात्- “जप के समय हृदय ग्रन्थि भेद, समस्तअवयवों की वृद्धि, देहावेश और गदगद कण्ठ भाषण आदि भक्ति के चिन्ह प्रकट होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। और भी अनेक प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं।”मंत्र के सिद्ध होने का सबसे मुख्य लक्षण तोयही है कि साधक के मनोरथ की पूर्ति हो जाय। साधक की जिस समय जो अभिलाषा हो वह तुरंत पूर्ण होती दिखलाई दे तो समझ लेना चाहिये किमंत्र सिद्धि हुई है। मंत्र के सिद्ध होने से मृत्यु भय का निराकरण, देवता दर्शन, देवता के साथ वार्तालाप, मंत्र की भयंकर शब्द सुनाई पड़ना आदि लक्षण भी दिखलाई पड़ते हैं।“सकृदुच्चरितेऽप्येवं मंत्रे चैतन्य संयुते। दृष्यन्ते प्रत्यया यत्र पारपर्य्य तदुच्यते॥(तंत्रसार)“ अर्थात्- “चैतन्य को संयुक्त करके मंत्र का एक बार उच्चारण करने से ही ऊपर बतलाये भावोंका विकास हो जाता है।”जिस साधक को मंत्र की सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है वह देवता का दर्शन कर सकता है, मृत्यु का निवारण कर सकता है, परकाया प्रवेश कर सकता है, चाहे जिस स्थान में प्रवेश कर सकता है, आकाश मार्ग में उड़ सकता है, खेचरी देवियों के साथ मिलकर उनकी बातचीत सुन सकता है। ऐसा साधक पृथ्वी के अनेक स्तरों को भेद कर भूमि के नीचे के पदार्थों को देख सकता है। ऐसे महापुरुष की कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाती है, उसे वाहन, भूषण आदि समस्त सामग्री प्राप्त होने लगती हैं और वह बहुत समय तक जीवित रह सकता है। वह राजा और अधिकारी वर्ग को प्रभावित कर सकता है और सब तरह के चमत्कारी कार्य करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे सत्पुरुष की दृष्टि पड़ते ही अनेक प्रकार की व्याधियाँ और विषों का निवारण हो जाता है। वह सर्व शास्त्रों में पारंगत होकर चार प्रकार का पाण्डित्य प्राप्त करता है। वह विषय भोग के प्रति वैराग्य धारण करके केवल मुक्ति की ही कामना करता है। उसमें सर्व प्रकार की परित्याग की भावना और सबको वश में करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह अष्टाँग योग का अभ्यास कर सकता है, विषय भोग की इच्छा से दूर रहता है, सर्व प्राणियों के प्रति दया रखता है और सर्वज्ञता की शक्ति को प्राप्त करता है। सब प्रकार का साँसारिक वैभव, पारिवारिक सुख और लोक में यश उसे मंत्र-सिद्धि की प्रथम अवस्था में ही प्राप्त हो जाते हैं।तात्पर्य यह है कि योग सिद्धि और मंत्र सिद्धि में कोई भेद नहीं हैं, दोनों प्रकार के साधनों का उद्देश्य एक ही है, केवल साधन मार्ग में अन्तर रहता है। वास्तव में जो साधक जिस किसी विधि से मंत्र की पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो उसके प्रभाव से वह स्वयं शिव तुल्य हो जाता है। कहा हैं- “सिद्ध मन्त्रस्तु यः साक्षात् स शिवो नात्र संशय।” मंत्र साधक को शास्त्र में बतलाई किसी भी पद्धति का अवलम्बन करके मंत्र सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये और जीवन्मुक्त होकर शिव सायुज्य अथवा निर्माण मुक्ति प्राप्त करना अपना लक्ष्य रखना चाहिये। युगावतार भगवान रामकृष्ण परमहंस ने ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली थी, उन्होंने अपने अनुभव या अन्य साधकों को बतलाया था- “कलियुग में मंत्र जप अथवा अपने किसी इष्ट देव का जप करने से सब प्रकार की इच्छायें पूर्ण होती हैं। एकाग्र चित्त, मन और प्राण को एक करके जप करना चाहिये, इष्ट देव के नाम रूपी मंत्र का जप करते-करते समुद्र में डूब जाओ, बस तुम भव सागर से पार हो जाओगे।

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र १॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।” विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए। २॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।” विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए। ३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।” विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

श्रीबगलाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् ।। श्रीनारद उवाच ।। भगवन्, देव-देवेश ! सृष्टि-स्थिति-लयात्मकम् । शतमष्टोत्तरं नाम्नां, बगलाया वदाधुना ।। ।। श्रीभगवानुवाच ।। श्रृणु वत्स ! प्रवक्ष्यामि, नाम्नामष्टोत्तरं शतम् । पीताम्बर्या महा-देव्याः, स्तोत्रं पाप-प्रणाशनम् ।। यस्य प्रपठनात् सद्यो, वादी मूको भवेत् क्षणात् । रिपूणां स्तम्भनं गाति, सत्यं सत्यं चदाम्यहम् ।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरायाः शतमष्टोत्तरं नाम्नां स्तोत्रस्य, श्रीसदा-शिव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीपीताम्बरा देवता, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगः । ऋष्यादिन्यासः- श्रीसदा-शिव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीपीताम्बरा देवतायै नमः हृदि, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । ।।अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र ।। ॐ बगला विष्णु-वनिता, विष्णु-शंकर-भामिनी । बहुला वेद-माता च, महा-विष्णु-प्रसूरपि ।।1।। महा-मत्स्या महा-कूर्मा, महा-वाराह-रूपिणी । नरसिंह-प्रिया रम्या, वामना वटु-रूपिणी ।।2।। जामदग्न्य-स्वरूपा च, रामा राम-प्रपूजिता । कृष्णा कपर्दिनी कृत्या, कलहा कल-कारिणी ।।3।। बुद्धि-रूपा बुद्ध-भार्या, बौद्ध-पाखण्ड-खण्डिनी । कल्कि-रूपा कलि-हरा, कलि-दुर्गति-नाशिनी ।।4।। कोटि-सूर्य-प्रतिकाशा, कोटि-कन्दर्प-मोहिनी । केवला कठिना काली, कला कैवल्य-दायिनी ।।5।। केशवी केशवाराध्या, किशोरी केशव-स्तुता । रूद्र-रूपा रूद्र-मूर्ति, रूद्राणी रूद्र-देवता ।।6।। नक्षत्र-रूपा नक्षत्रा, नक्षत्रेश-प्रपूजिता । नक्षत्रेश-प्रिया नित्या, नक्षत्र-पति-वन्दिता ।।7।। नागिनी नाग-जननि, नाग-राज-प्रवन्दिता । नागेश्वरी नाग-कन्या, नागरी च नगात्मजा ।।8।। नगाधिराज-तनया, नग-राज-प्रपूजिता । नवीन नीरदा पीता, श्यामा सौन्दर्य-कारिणी ।।9।। रक्ता नीला घना शुभ्रा, श्वेता सौभाग्य-दायिनी । सुन्दरी सौभगा सौम्या, स्वर्णभा स्वर्गति-प्रदा ।।10।। रिपु-त्रास-करी रेखा, शत्रु-संहार-कारिणी । भामिनी च तथा माया, स्तम्भिनी मोहिनी शुभा।।12।। राग-द्वेष-करी रात्रि, रौरव-ध्वसं-कारिणी । यक्षिणी सिद्ध-निवहा सिद्धेशा सिद्धि-रूपिणी ।।13।। लंका-पति-ध्वसं-करी, लंकेश-रिपु-वन्दिता । लंका-नाथ – कुल-हरा, महा-रावण-हारिणी ।।14।। देव-दानव-सिद्धौघ-पूजिता परमेश्वरी । पराणु-रूपा परमा, पर-तन्त्र-विनाशिनी ।।15।। वरदा वरदाऽऽराध्या, वर-दान-परायणा । वर-देश-प्रिया वीरा, वीर-भूषण-भूषिता ।।16।। वसुदा बहुदा वाणी, ब्रह्म-रूपा वरानना । बलदा पीत-वसना, पीत-भूषण-भूषिता ।।17।। पीत-पुष्प-प्रिया पीत-हारा पीत-स्वरूपिणी । शुभं ते कथितं विप्र ! नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।।18।। ।।फल-श्रुति।। यः पठेद् पाठयेद् वापि, श्रृणुयाद् ना समाहितः । तस्य शत्रुः क्षयं सद्यो, याति वै नात्र संशयः ।। प्रभात-काले प्रयतो मनुष्यः, पठेत् सु-भक्त्या परिचिन्त्य पीताम् । द्रुतं भवेत् तस्य समस्त-वृद्धिर्विनाशमायाति च तस्य शत्रुः ।। ।। श्रीविष्णु-यामले श्रीनारद-विष्णु-सम्वादे। श्रीबगलाऽष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्रं ।।

श्री काली सहस्त्राक्षरी ॐ क्रीं क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीँ क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं स्वाहा शुचिजाया महापिशाचिनी दुष्टचित्तनिवारिणी क्रीँ कामेश्वरी वीँ हं वाराहिके ह्रीँ महामाये खं खः क्रोघाघिपे श्रीमहालक्ष्यै सर्वहृदय रञ्जनी वाग्वादिनीविधे त्रिपुरे हंस्त्रिँ हसकहलह्रीँ हस्त्रैँ ॐ ह्रीँ क्लीँ मे स्वाहा ॐ ॐ ह्रीँ ईं स्वाहा दक्षिण कालिके क्रीँ हूं ह्रीँ स्वाहा खड्गमुण्डधरे कुरुकुल्ले तारे ॐ. ह्रीँ नमः भयोन्मादिनी भयं मम हन हन पच पच मथ मथ फ्रेँ विमोहिनी सर्वदुष्टान् मोहय मोहय हयग्रीवे सिँहवाहिनी सिँहस्थे अश्वारुढे अश्वमुरिप विद्राविणी विद्रावय मम शत्रून मां हिँसितुमुघतास्तान् ग्रस ग्रस महानीले वलाकिनी नीलपताके क्रेँ क्रीँ क्रेँ कामे संक्षोभिणी उच्छिष्टचाण्डालिके सर्वजगव्दशमानय वशमानय मातग्ङिनी उच्छिष्टचाण्डालिनी मातग्ङिनी सर्वशंकरी नमः स्वाहा विस्फारिणी कपालधरे घोरे घोरनादिनी भूर शत्रून् विनाशिनी उन्मादिनी रोँ रोँ रोँ रीँ ह्रीँ श्रीँ हसौः सौँ वद वद क्लीँ क्लीँ क्लीँ क्रीँ क्रीँ क्रीँ कति कति स्वाहा काहि काहि कालिके शम्वरघातिनी कामेश्वरी कामिके ह्रं ह्रं क्रीँ स्वाहा हृदयाहये ॐ ह्रीँ क्रीँ मे स्वाहा ठः ठः ठः क्रीँ ह्रं ह्रीँ चामुण्डे हृदयजनाभि असूनवग्रस ग्रस दुष्टजनान् अमून शंखिनी क्षतजचर्चितस्तने उन्नस्तने विष्टंभकारिणि विघाधिके श्मशानवासिनी कलय कलय विकलय विकलय कालग्राहिके सिँहे दक्षिणकालिके अनिरुद्दये ब्रूहि ब्रूहि जगच्चित्रिरे चमत्कारिणी हं कालिके करालिके घोरे कह कह तडागे तोये गहने कानने शत्रुपक्षे शरीरे मर्दिनि पाहि पाहि अम्बिके तुभ्यं कल विकलायै बलप्रमथनायै योगमार्ग गच्छ गच्छ निदर्शिके देहिनि दर्शनं देहि देहि मर्दिनि महिषमर्दिन्यै स्वाहा रिपुन्दर्शने दर्शय दर्शय सिँहपूरप्रवेशिनि वीरकारिणि क्रीँ क्रीँ क्रीँ हूं हूं ह्रीँ ह्रीँ फट् स्वाहा शक्तिरुपायै रोँ वा गणपायै रोँ रोँ रोँ व्यामोहिनि यन्त्रनिकेमहाकायायै प्रकटवदनायै लोलजिह्वायै मुण्डमालिनि महाकालरसिकायै नमो नमः ब्रम्हरन्ध्रमेदिन्यै नमो नमः शत्रुविग्रहकलहान् त्रिपुरभोगिन्यै विषज्वालामालिनी तन्त्रनिके मेधप्रभे शवावतंसे हंसिके कालि कपालिनि कुल्ले कुरुकुल्ले चैतन्यप्रभेप्रज्ञे तु साम्राज्ञि ज्ञान ह्रीँ ह्रीँ रक्ष रक्ष ज्वाला प्रचण्ड चण्डिकेयं शक्तिमार्तण्डभैरवि विप्रचित्तिके विरोधिनि आकर्णय आकर्णय पिशिते पिशितप्रिये नमो नमः खः खः खः मर्दय मर्दय शत्रून् ठः ठः ठः कालिकायै नमो नमः ब्राम्हयै नमो नमः माहेश्वर्यै नमो नमः कौमार्यै नमो नमः वैष्णव्यै नमो नमः वाराह्यै नमो नमः इन्द्राण्यै नमो नमः चामुण्डायै नमो नमः अपराजितायै नमो नमः नारसिँहिकायै नमो नमः कालि महाकालिके अनिरुध्दके सरस्वति फट् स्वाहा पाहि पाहि ललाटं भल्लाटनी अस्त्रीकले जीववहे वाचं रक्ष रक्ष परविधा क्षोभय क्षोभय आकृष्य आकृष्य कट कट महामोहिनिके चीरसिध्दके कृष्णरुपिणी अंजनसिद्धके स्तम्भिनि मोहिनि मोक्षमार्गानि दर्शय दर्शय स्वाहा ।। इस काली सहस्त्राक्षरी का नित्य पाठ करने से ऐश्वर्य,मोक्ष,सुख,समृद्धि,एवं शत्रुविजय प्राप्त होता है ।।

मंत्र आपका मित्र है साथ गुरू मंत्र तुम एक दोस्त देता है. एक मित्र प्रकाश और निर्वाह के लिए सूर्य के चारों ओर घूमने पृथ्वी की तरह होना चाहिए. प्रकाश अंधकार dispels और लोगों को शांति मिल जाए. तुम भी दुनिया पर ले सकते हैं लेकिन आप अपने खुद के बच्चों से हार रहे हैं. यह इसलिए होता है क्योंकि आप दोस्त बन गए हैं अपने बच्चों को. और अधिक ध्यान में एकाग्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने खुद के आचरण का अवलोकन है, यह सच पूजा है. एक मंत्र एक या शब्दों के शब्द श्रृंखला है. कौन फर्म के उद्देश्य से एक आदमी हो जाता है. तुम तुम मंदिरों में जाने के लिए देवताओं के सामने भीख माँगती हूँ. वह उन्हें दे, क्योंकि तुम अपने आप को खो दिया है सकते हैं शक्ति नहीं माद्दा वरशिप?. शक्ति है कि आप एक के लिए एक अच्छा इंसान होना स्थिति में डालता है पूजा. आपके आचरण में संतुलित रहें. असंतुलन तुम्हारे लिए अच्छा है कि नहीं, यह आपके परिवार के लिए. तुम एक और एक ग्यारह हो जाते हैं, दो नहीं के बराबर होती है एक से अधिक एक चाहिए. एक आध्यात्मिक आंदोलन संगठन और एक संगठन का संचालन करने के आकार का है. अच्छा समय और परिस्थितियों, सिद्धांतों क्या पालन करने के लिए और दूसरों के साथ सौदा कैसे सावधानी से विचार किया जाना चाहिए का मूल्यांकन. खुद वे गुमराह शास्त्रों करेगा के लिए अपने सिर के साथ भरने के लिए और तुम्हें एक बेकार जीवन जीने मत करो. एक हीन भावना का विकास करना. हम मंदिरों और तीर्थ स्थानों पर ऐसा करने से हम अलग भगवान के द्वारा बनाई गई करने के लिए देवता की पूजा के रूप में आदमी ने कल्पना पुरुषों धक्का में, पर जाएँ. इस दुरुपयोग लेकिन कुछ भी नहीं है. पत्थर का चिह्न आप बस तय की. और 'निष्क्रिय. जिस दिन तुम्हें पता है कि आप देवता हैं और उस आइकन अपने मन की धारणा है, आप और चिह्न एक भी बात बन जाएगी. दिन तुम परमेश्वर की सच्चाई का एहसास होगा, आप के लिए चिह्न पूजा संघर्ष और तुम अपने आप को करीब लाने में सफल हो जाएगा. तुम एक स्थिति में जहाँ आप बुरी बातें करने के लिए प्रेरित किया जाएगा में होगा. तुम परमात्मा होना चाहता हूँ. अंदर आप देख सकते हैं और भगवान के संतों और महात्मा साथ चैट करेंगे. आप को भगवान के पास रहते हैं, जबकि आप अपने काम में व्यस्त हो सकेंगे. तो फिर पैसे और सामग्री की पूजा आवश्यक नहीं होगा. जब से तुम अपने आप को अलग कर देना होगा, संतों और महात्मा चीजें है कि तुम कहना चाहिए बताओ कि तुम नहीं. वे तुम्हारा सबसे अच्छा प्रस्ताव नहीं लग रही है और करने की कोशिश करने के लिए आप का दोहन नहीं. जो लोग महलों और देशों में जो सामग्री अर्थ में ही कर रहे हैं का निर्माण करने के लिए, संतों और महात्मा नहीं कहना क्या किया जाना चाहिए. इन इमारतों को लूट लिया जाता है और अंततः इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया. झोपड़ियों के रहने वालों को इस तरह से नष्ट नहीं कर रहे हैं. साधु हम जो झोपड़ियों में रहते हैं. हम स्मृति सदा भी जब हम मर चुका है और चले गए हैं. जो लोग हमें का पालन करें हमारे जीवन का रास्ता स्वेच्छा से नेतृत्व करेंगे. जब मैं जीविका का कोई साधन के बिना था मैं खाने के लिए भीख माँगती हूँ और एक झोपड़ी में रहते थे. मैं खुद के साथ अंतरंग महसूस करने के लिए और अन्य दृष्टिकोण नहीं सीखा. अरे हाँ, अगर दूसरों को भी एक साथ नहीं रखा है, उन्हें प्यार करती हूँ. और प्रेम में कोई नियम या सीमाओं को जानता है. भगवान के द्वारा बनाई गई पुरुषों की ओर हमारा रवैया निर्दोष होना चाहिए. हम, हमारे जीवन के हर पल में, बाहर चाहिए अकुलीन भावनाओं को ब्लॉक. हम के लिए सोचा और कार्रवाई की पवित्रता को विकसित करने, और खुद हमारे आचरण में प्रतिबिंबित की जरूरत है. बच्चे बाहर हमारे सांसारिक वस्तुओं डाल सकते हैं, लेकिन हम उन पर सही नहीं डालना आचरण कर सकते हैं. यह कुछ है कि वे खुद को विकसित किया है. और इस के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. वे भुगतना होगा. हम माल कि अच्छा असीम भक्ति, विश्वास, ज्ञान हैं ही, गुरु, हमारी संस्कृति और हमारे राष्ट्र की समृद्धि की सेवा. कम प्रवृत्ति है कि हम है के कारण, हम हमारी मदद करने में हम इन वस्तुओं में लाए देने में असमर्थ थे. इन एकत्रित हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. और 'हमारी विरासत. यदि हम अपने आप को दूसरों के लिए उपयोगी बनाने में असमर्थ रहे हैं, हमें कम से कम अपने आप के लिए उपयोगी हो. रहें सतर्क, देखो अगर तुम गलत दिशा में है या गलत कंपनियों ने भाग लिया अगर जा रहे हैं. यदि आप से परहेज किया है क्या आप अपने आप को एक एहसान किया है. पवित्रता यह है. मैं एक बार मेरे गुरू से पूछा क्या यह पवित्रता बनाया गया था. उन्होंने कहा कि यह किताबी ज्ञान की बात नहीं थी. पवित्रता अभ्यास ही है. किताबें अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र हैं. व्यावहारिक बातें जीवन में होती हैं. यह संभव है कि आप में से कुछ पसंद नहीं आया कि मैंने क्या कहा. सब कुछ है कि मैंने कहा कि मैं अपने गुरू से उधार लिया है. उसने मुझे दी सलाह है कि मैं अब समझ शुरू कर दिया. मुझे आशा है कि आप सुझाव मैंने तुम्हें दिया था या मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकते समझा है.

अथर्वशीर्ष की परम्परा में ‘गणपति अथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्त्व है। प्रायः प्रत्येक मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के अनन्तर प्रार्थना रुप में इसके पाठ की परम्परा है। यह भगवान् गणपति का वैदिक-स्तवन है। इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। ।। श्री गणपत्यथर्वशीर्ष ।। ।। शान्ति पाठ ।। ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम् ॐ शांतिः । शांतिः ।। शांतिः।।। ।। उपनिषत् ।। ।।हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ।। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ।। १।। ऋतं वच्मि (वदिष्यामि)।। सत्यं वच्मि (वदिष्यामि)।। २।। अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ।।३। ।त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।। सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ।। ५।। त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारः स्थिथोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ।। ६।। गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्।अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहितासंधिः। सैषा गणेशविद्या। गणकऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ।। ७।। एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ।। ८।। एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ।। रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ।। रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ।। रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ।। भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ।। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ।। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ।। ९।। नमो व्रातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय । विघ्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ।। १०।। एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ।। स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। स सर्वतः सुखमेधते ।। स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते ।। स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ।। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।। सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ।। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ।। इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् ।। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ।। ११।। अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति ।। चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति । स यशोवान् भवति ।। इत्यथर्वणवाक्यम् ।। ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति ।। १२ यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ।। स मेधावान् भवति ।। यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ।। यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते ।। १३।। अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।। सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति ।। महाविघ्नात्प्रमुच्यते ।। महादोषात्प्रमुच्यते ।। महापापात् प्रमुच्यते ।। स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ।। य एवं वेद इत्युपनिषत् ।। १४।। ॐ सहनाववतु ।। सहनौभुनक्तु ।। सह वीर्यं करवावहै ।। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।। ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ शांतिः । शांतिः ।। शांतिः ।। ।। श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं ।।...

|| राम लक्ष्मण सीता स्तुति || जय श्री हनुमान..! ======================== जय श्री राम ! शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् | रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् | सीता माता की जय ! नमामि चन्द्रनिलयां सीतां चन्द्रनिभाननां ॥ आल्हादरूपिणीम् सिद्धिं शिवाम् शिवकरीं सतीम् ॥ नमामि विश्वजननीम् रामचन्द्रेष्टवल्लभां ॥ सीतां सर्वानवद्यान्गीम् भजामि सततं हृदा ॥ जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥ ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥ जय श्री लक्ष्मण ! बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता।। रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका।। सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।। सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।। सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।। जय श्री हनुमान..! अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् | सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि | संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !! मंगल भवन अमंगल हारी| द्रबहु सुदसरथ अजिर बिहारी | दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !! राम सिया राम सिया राम जय जय राम! राम सिया राम सिया राम जय जय राम! —

भगवती काली की कृपा-प्राप्ति का मन्त्र चमत्कारी महा-काली सिद्ध अनुभूत मन्त्र “ॐ सत् नाम गुरु का आदेश। काली-काली महा-काली, युग आद्य-काली, छाया काली, छूं मांस काली। चलाए चले, बुलाई आए, इति विनिआस। गुरु गोरखनाथ के मन भावे। काली सुमरुँ, काली जपूँ, काली डिगराऊ को मैं खाऊँ। जो माता काली कृपा करे, मेरे सब कष्टों का भञ्जन करे।” सामग्रीः लाल वस्त्र व आसन, घी, पीतल का दिया, जौ, काले तिल, शक्कर, चावल, सात छोटी हाँड़ी-चूड़ी, सिन्दूर, मेंहदी, पान, लौंग, सात मिठाइयाँ, बिन्दी, चार मुँह का दिया। विधिः उक्त मन्त्र का सवा लाख जप ४० या ४१ दिनों में करे। पहले उक्त मन्त्र को कण्ठस्थ कर ले। शुभ समय पर जप शुरु करे। गुरु-शुक्र अस्त न हों। दैनिक ‘सन्ध्या-वन्दन’ के अतिरिक्त अन्य किसी मन्त्र का जप ४० दिनों तक न करे। भोजन में दो रोटियाँ १० या ११ बजे दिन के समय ले। ३ बजे के पश्चात् खाना-पीना बन्द कर दे। रात्रि ९ बजे पूजा आरम्भ करे। पूजा का कमरा अलग हो और पूजा के सामान के अतिरिक्त कोई सामान वहाँ न हो। प्रथम दिन, कमरा कच्चा हो, तो गोबर का लेपन करे। पक्का है, तो पानी से धो लें। आसन पर बैठने से पूर्व स्नान नित्य करे। सिर में कंघी न करे। माँ की सुन्दर मूर्ति रखे और धूप-दीप जलाए। जहाँ पर बैठे, चाकू या जल से सुरक्षा-मन्त्र पढ़कर रेखा बनाए। पूजा का सब सामान ‘सुरक्षा-रेखा’ के अन्दर होना चाहिए। सर्वप्रथम गुरु-गणेश-वन्दना कर १ माला (१०८) मन्त्रों से हवन कर। हवन के पश्चात् जप शुरु करे। जप-समाप्ति पर जप से जो रेखा-बन्धन किया था, उसे खोल दे। रात्रि में थोड़ी मात्रा में दूध-चाय ले सकते हैं। जप के सात दिन बाद एक हाँड़ी लेकर पूर्व-लिखित सामान (सात मिठाई, चूड़ी इत्यादि) उसमें डाले। ऊपर ढक्कन रखकर, उसके ऊपर चार मुख का दिया जला कर, सांय समय जो आपके निकट हो नदी, नहर या चलता पानी में हँड़िया को नमस्कार कर बहा दे। लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखें। ३१ दिनों तक धूप-दीप-जप करने के पश्चात् ७ दिनों तक एक बूँद रक्त जप के अन्त में पृथ्वी पर टपका दे और ३९वें दिन जिह्वा का रक्त दे। मन्त्र सिद्ध होने पर इच्छित वरदान प्राप्त करे। सावधानियाँ- प्रथम दिन जप से पूर्व हण्डी को जल में सायं समय छोड़े और एक-एक सपताह बाद उसी प्रकार उसी समय सायं उसी स्थान पर, यह हाँड़ी छोड़ी जाएगी। जप के एक दिन बाद दूसरी हाँड़ी छोड़ने के पश्चात् भूत-प्रेत साधक को हर समय घेरे रहेंगे। जप के समय कार के बाहर काली के साक्षात् दर्शन होंगे। साधक जप में लगा रहे, घबराए नहीं। वे सब कार के अन्दर प्रविष्ट नहीं होंगे। मकान में आग लगती भी दिखाई देगी, परन्तु आसन से न उठे। ४० से ४२वें दिन माँ वर देगी। भविष्य-दर्शन व होनहार घटनाएँ तो सात दिन जप के बाद ही ज्ञात होने लगेंगी। एक साथी या गुरु कमरे के बाहर नित्य रहना चाहिए। साधक निर्भीक व आत्म-बलवाला होना चाहिए।

संकट-निवारक काली-मन्त्र “काली काली, महा-काली। इन्द्र की पुत्री, ब्रह्मा की साली। चाबे पान, बजावे थाली। जा बैठी, पीपल की डाली। भूत-प्रेत, मढ़ी मसान। जिन्न को जन्नाद बाँध ले जानी। तेरा वार न जाय खाली। चले मन्त्र, फुरो वाचा। मेरे गुरु का शब्द साचा। देख रे महा-बली, तेरे मन्त्र का तमाशा। दुहाई गुरु गोरखनाथ की।” सामग्रीः माँ काली का फोटो, एक लोटा जल, एक चाकू, नीबू, सिन्दूर, बकरे की कलेजी, कपूर की ६ टिकियाँ, लगा हुआ पान, लाल चन्दन की माला, लाल रंग के पूल, ६ मिट्टी की सराई, मद्य। विधिः पहले स्थान-शुद्धि, भूत-शुद्धि कर गुरु-स्मरण करे। एक चौकी पर देवी की फोटो रखकर, धूप-दीप कर, पञ्चोपचार करे। एक लोटा जल अपने पास रखे। लोटे पर चाकू रखे। देवी को पान अर्पण कर, प्रार्थना करे- हे माँ! मैं अबोध बालक तेरी पूजा कर रहा हूँ। पूजा में जो त्रुटि हों, उन्हें क्षमा करें।’ यह प्रार्थना अन्त में और प्रयोग के समय भी करें। अब छः अङ्गारी रखे। एक देवी के सामने व पाँच उसके आगे। ११ माला प्रातः ११ माला रात्रि ९ बजे के पश्चात् जप करे। जप के बाद सराही में अङ्गारी करे व अङ्गारी पर कलेजी रखकर कपूर की टिक्की रखे। पहले माँ काली को बलि दे। फिर पाँच बली गणों को दे। माँ के लिए जो घी का दिया जलाए, उससे ही कपूर को जलाए और मद्य की धार निर्भय होकर दे। बलि केवल मंगलवार को करे। दूसरे दिनों में केवल जप करे। होली-दिवाली-ग्रहण में या अमावस्या को मन्त्र को जागृत करता रहे। कुल ४० दिन का प्रयोग है। भूत-प्रेत-पिशाच-जिन्न, नजर-टोना-टोटका झाड़ने के लिए धागा बनाकर दे। इस मन्त्र का प्रयोग करने वालों के शत्रु स्वयं नष्ट हो जाते हैं।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र “डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।” विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

समस्त तन्त्र शक्ति के नाश के लिए मारण प्रयोगों को नष्ट करने के लिए कृत्याद्रोह नाम के तन्त्र उन्मूलन के लिए इस प्रयोग को किया जाता है I इससे तन्त्र के छ: प्रकार के अभिचार कर्मों का नाश होकर रक्षा की प्राप्ति होती है I मन्त्र : ॐ नमो भगवते पशुपतये ॐ नमो भूताधिपतये ॐ नमो खड्गरावण लं लं विहर विहर सर सर नृत्य नृत्य व्यसनं भस्मार्चित शरीराय घण्टा कपाल- मालाधराय व्याघ्रचर्मपरिधानाय शशांककृतशेखराय कृष्णसर्प यज्ञोपवीतिने चल चल बल बल अतिवर्तिकपालिने जहि जहि भुतान् नाशय नाशय मण्डलाय फट् फट् रुद्राद्कुशें शमय शमय प्रवेशय प्रवेशय आवेणय आवेणय रक्षांसि धराधिपति रुद्रो ज्ञापयति स्वाहा I शत्रुओं के प्रयोगों के द्वारा जो लम्बे समय से तरह- तरह के कष्ट झेलते आ रहे हैं और किसी प्रकार भी इससे मुक्ति नहीं मिल पा रही हो तो इस प्रयोग को अवश्य सम्पन्न करें I त्रिलोक विजयी रावण इसी मन्त्र के बल पर ही महारूद्र को प्रसन्न करके उस युग के तन्त्र- मन्त्र वेत्ता, ऋषि- मुनियों का भी सम्राट बना I

उच्छिष्ट गणपति प्रयोग प्रयोग करने में अत्यन्त सरल, शीघ्र फल को प्रदान करने वाला, अन्न और धन की वृद्धि के लिए, वशीकरण को प्रदान करने वाला भगवान गणेश जी का ये दिव्य तांत्रिक प्रयोग है I इसी सिद्धि के बल पर प्राचीन काल में साधु लोग थोड़े से प्रसाद से पूरे गांव को भरपेट भोजन करवा देते थे I इसकी साधना करते हुए मुह को जूठा रखा जाता है I विनियोग : ॐ अस्य श्रीउच्छिष्ट गणपति मंत्रस्य कंकोल ऋषि:, विराट छन्द : उच्छिष्टगणपति देवता सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: I मन्त्र : ॐ गं हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा I अगर किसी पर तामसी कृत्या प्रयोग हुआ हो तो उच्छिष्ट गणपति शत्रु की गन्दी क्रियाओं को नष्ट करके रक्षा करते हैं I यदि आप भी तन्त्र द्वारा परेशान हैं तो संस्था के तान्त्रिकों द्वारा यह तांत्रिक साधना सम्पन्न करवा सकते हैं I

यदि नजर लगी हो तो - यदि एक स्वस्थ्य व्यक्ति अचानक अस्वस्थ्य हो जायें और उस पर चिकित्सा का प्रभाव नहीं हो रहा है तो समझना चाहिए कि उक्त व्यक्ति नजरदोष से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में एक साबूत नींबू के उपर काली स्याही से 307 लिख दें और उस व्यक्ति के उपर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को चार भागों में इस प्रकार से काटें कि वह नीचें से जुड़े रहें। और फिर उसी नींबू को घर से बाहर किसी निर्जन स्थान पा फेंक दें। यह उपाय करने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र ही स्वस्थ्य हो जायेगा।यदि नजर लगी हो तो - इसके अलावा नज़र उतारने के लिए एक रोटी बनाएं और इसे एक तरफ से ही सेकें, दूसरी तरफ से कच्ची छोड़ दें। इसके सेके हुए भाग पर तेल या घी लगाकर और उस पर लाल मिर्च और नमक की दो- तीन डली रखकर नजर लगे व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतार कर किसी चौराहे पर रख आएं। यदि नजर लगी हो तो- जिन व्यक्तियों को नजर अधिक लगती है, इन्हें सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन अन्यथा मंगलवार और शनिवार को श्री हनुमान जी के मंदिर में जाकर उनके चरणों से थोड़ा सा सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए ऐसा करने से नजर दोष से बचाव हो जाता है. यदि नजर लगी हो तो - जब कभी किसी छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो, वह दूध उलटने लगता है और दूध पीना बन्द कर देता है, ऐसे में परिवार के लोग चिंतित और परेशान हो जाते है। ऐसी स्थिति में एक बेदाग नींबू लें और उसको बीच में आधा काट दें तथा कटे वाले भाग में थोड़े काले तिल के कुछ दाने दबा दें। और फिर उपर से काला धागा लपेट दें। अब उसी नींबू को बालक पर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को घर से दूर किसी निर्जन स्थान पर फेंक दें। इस उपाय से शीघ्र ही लाभ मिलेगा।यदि नजर लगी हो तो -एक साफ रुमाल पर हनुमानजी के पांव का सिंदूर लगाएं और इस रुमाल पर दस ग्राम काले तिल, दस ग्राम काले उड़द, एक लोहे की कील, तीन साबूत लाल मिर्च लेकर उसकी पोटली बना लें। जिस व्यक्ति को नजर लगी हो उसके सिरहाने यह पोटली रख दें। चौबीस घंटे के बाद यह पोटली किसी नदी या बहते हुए जल में बहा दें। ऐसा करने से जल्द ही बुरी नज़र से प्रभावित व्यक्ति ठीक हो जायेगा| यदि बच्चे को नजर लगी हो और वह दूध नहीं पी रहा हो तो थोड़ा दूध एक कटोरी में लेकर बच्चे के ऊपर से सात बार उतार कर काले कुत्ते को पिला दें। बच्चा दूध पीने लगेगा। यदि नजर लगी हो तो - नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर फिटकरी का टुकड़ा सिर से पांव तक सात बार उतारें। ध्यान रखें हर बार सिर से पांव तक ले जाकर तलुवे छुआकर फिर सिर से घुमाना शुरु करें। इस फिटकरी के टुकड़े को कण्डे की आग पर डाल दें। जैसे- जैसे वह फिटकरी आग में जलती जायेगी वैसे- वैसे बुरी नजर उतरती जायेगी| यदि नजर लगी हो तो - राई के कुछ दाने, नमक की सात डली और सात साबुत डंठल वाली लाल सूखी मिर्च बाएं हाथ की मुट्ठी में लेकर नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर सिर से पांव तक सात बार उतारा करें और जलते हुए चूल्हे में झोंक दें। यह टोटका अनटोका करें। ध्यान रहे यह कार्य सिर्फ मंगलवार और रविवार को ही करें क्योंकि इस दिन यह अचूक रहता है| यदि नजर लगी हो तो - मिर्च, राई व नमक को पीड़ित व्यक्ति के सिर से वार कर आग में जला दें। चंद्रमा जब राहु से पीड़ित होता है तब नजर लगती है। मिर्च मंगल का, राई शनि का और नमक राहु का प्रतीक है। इन तीनों को आग (मंगल का प्रतीक) में डालने से नजर दोष दूर हो जाता है। यदि इन तीनों को जलाने पर तीखी गंध न आए तो नजर दोष समझना चाहिए। यदि आए तो अन्य उपाय करने चाहिए। टोटका तीन-यदि आपके बच्चे को नजर लग गई है और हर वक्त परेशान व बीमार रहता है तो लाल साबुत मिर्च को बच्चे के ऊपर से तीन बार वार कर जलती आग में डालने से नजर उतर जाएगी और मिर्च का धचका भी नहीं लगेगा।

अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर किसी ने अभिचार कर दिया है, अथवा भूत, प्रेत आदि उपरी बाधा से पीड़ित है, तो अपने क्षेत्र के प्रसिद्द श्री हनुमान मंदिर में सिन्दूर का चोला चढाना चाहिए ऐसा पांच बार करें. सारी बाधाए एकदम समाप्त होने लगेंगी. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर अभिचार कर्म किये जाने की आशंका हो, तो शनिवार को दोपहर में किसी एकांत चौराहे पर नींबू काटकर उसके चार फांक कर ले और उसमे सिन्दूर डाल कर उसे चारों दिशाओं में फेंक दे. ऐसा करने से आपके शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जायगा. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- शनिवार के दिन एक जालदार जटा वाला नारियल ले और बहते जल में काले वस्त्र में लपेटकर 100 ग्राम काले तिल,जो,उरद की दाल एक कील के साथ शनिवार को प्रवाहित कर दें। शनि, राहु,केतु जनित या कोई और ऊपरी बाधा होगी तो उतर जाएगी। अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो-मंगलवार को एक नारियल सवा मीटर लाल वस्त्र में लपेटकर अपने ऊपर से साथ बार उतार कर हनुमान जी के चरणों में रख दें। किसी भी प्रकार की बाधा, नज़र दोष,ज्वर होगा उतर जाएगा।

क्या है पीपल के 11 पत्तों का राज शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के अनुसार माता सीता द्वारा पवनपुत्र हनुमानजी को अमरता का वरदान दिया गया है। इसी वरदान के प्रभाव से पवनपुत्र अष्टचिरंजीवी में शामिल हैं। कलयुग में हनुमानजी भक्तों की सभी मनोकामनाएं तुरंत ही पूर्ण करते हैं।यहां जानिए पीपल के 11 पत्तों का 1 चमत्कारी उपाय, जो हनुमानजी की प्रतिमा के सामने करना है। इस उपाय से आपकी सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और आप मालामाल हो सकते हैं… बजरंगबली को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के उपाय बताए गए हैं। श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमानजी की कृपा प्राप्त होते ही भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। पैसों से जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई रोग हो तो वह भी नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में कोई ग्रह दोष हो तो पवनपुत्र की पूजा से वह भी दूर हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति पैसों की तंगी का सामना करना रहा है तो उसे प्रति मंगलवार और शनिवार यह उपाय अपनाना चाहिए। निश्चित ही व्यक्ति की सभी समस्याएं धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं और व्यक्ति मालामाल हो सकता है। उपाय इस प्रकार है- सप्ताह के प्रति मंगलवार और शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में उठें। इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर किसी पीपल के पेड़ से 11 पत्ते तोड़ लें। ध्यान रखें पत्ते पूरे होने चाहिए, कहीं से टूटे या खंडित नहीं होने चाहिए। इन 11 पत्तों पर स्वच्छ जल में कुमकुम या अष्टगंध या चंदन मिलाकर श्रीराम का नाम लिखें। नाम लिखते समय हनुमान चालिसा का पाठ करें। इसके बाद श्रीराम नाम लिखे हुए इन पत्तों की एक माला बनाएं। पीपल के पत्तों की माला को किसी भी हनुमानजी के मंदिर जाकर वहां बजरंगबली को अर्पित करें। इस प्रकार यह उपाय हर मंगलवार और शनिवार को करते रहें। कुछ समय में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। ध्यान रखें उपाय करने वाला भक्त किसी भी प्रकार के अधार्मिक कार्य न करें। अन्यथा इस उपाय का प्रभाव समाप्त हो जाएगा और उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहें।

सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं| ‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है :- ॐ गं गणपतये नमः। सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः।। ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह रक्षा कुरू कुरू नमः।। ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि। ॐ नमो मणिभद्रे। जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दिर्घारिष्ट-विनाशाय नाना प्रकार भोग प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वरिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः। ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय। रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादष-क्षयान् रांगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भंजय-भंजय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन हन, दह दह, पच पच, मथ मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन हन, पा-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा।। ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं। ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः। हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः। डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः। ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः। सर्व प्रकार बाधा शमनमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू फट्। श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा।। शीघ्रमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा।। शारिका भेदा महामाया पूर्णं आयुः कुरू। हेमवती मूलं रक्षा कुरू। चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु कफ पित्त रक्षां कुरू। मन्त्र तन्त्र यन्त्र कवच ग्रह पीडा नडतर, पूर्व जन्म दोष नडतर, यस्य जन्म दोष नडतर, मातृदोष नडतर, पितृ दोष नडतर, मारण मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तम्भन उन्मूलनं भूत प्रेत पिशाच जात जादू टोना शमनं कुरू। सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका देव्यै गल विस्फोटकायै विक्षिप्त शमनं महान् ज्वर क्षयं कुरू स्वाहा।। सर्व सामग्री भोगं सप्त दिवसं देहि देहि, रक्षां कुरू क्षण क्षण अरिष्ट निवारणं, दिवस प्रति दिवस दुःख हरणं मंगल करणं कार्य सिद्धिं कुरू कुरू। हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः। हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र तारा नव ग्रह शेषनाग पृथ्वी देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट निवारणं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु भगवान् मम अपराध क्षमा कुरू कुरू, सर्व विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा देवी रूद्राणी सहिता, रूद्र देवता काल भैरव सह, बटुक भैरवाय, हनुमान सह मकर ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व दोषक्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न विनाशाय मम शुभ मांगलिक कार्य सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।। एष विद्या माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं। शम क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वाश्च बलि दानवाः।। य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना। तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि गतं विषं।। अन्य दृष्टि विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम्। संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः।। सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः। द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।। किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व सौभाग्य सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत्।। ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि। शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत मयो भवेत्।। नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया। भोज पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन मयेन च।। इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व रक्षा करोतु मे। पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः।। विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः। सर्वशत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम्।।

अचूक टोटके (शीघ्र विवाह के उपाय ,विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर) समय पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की इच्छा के कारण माता-पिता व भावी वर-वधू भी चाहते है कि अनुकुल समय पर ही विवाह हो जायें. कुण्डली में विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर विवाह की बात बार-बार प्रयास करने पर भी कहीं बनती नहीं है. इस प्रकार की स्थिति होने पर शीघ्र विवाह के उपाय करने हितकारी रहते है. उपाय करने से शीघ्र विवाह के मार्ग बनते है. तथा विवाह के मार्ग की बाधाएं दूर होती है. उपाय करते समय ध्यान में रखने योग्य बातें :- 1. किसी भी उपाय को करते समय, व्यक्ति के मन में यही विचार होना चाहिए, कि वह जो भी उपाय कर रहा है, वह ईश्वरीय कृ्पा से अवश्य ही शुभ फल देगा. 2. सभी उपाय पूर्णत: सात्विक है तथा इनसे किसी के अहित करने का विचार नहीं है. 3. उपाय करते समय उपाय पर होने वाले व्ययों को लेकर चिन्तित नहीं होना चाहिए. 4. उपाय से संबन्धित गोपनीयता रखना हितकारी होता है. आईये शीघ्र विवाह के उपायों को समझने का प्रयास करें 1. हल्दी के प्रयोग से उपाय विवाह योग लोगों को शीघ्र विवाह के लिये प्रत्येक गुरुवार को नहाने वाले पानी में एक चुटकी हल्दी डालकर स्नान करना चाहिए. भोजन में केसर का सेवन करने से विवाह शीघ्र होने की संभावनाएं बनती है. 2. पीला वस्त्र धारण करना ऎसे व्यक्ति को सदैव शरीर पर कोई भी एक पीला वस्त्र धारण करके रखना चाहिए. 3. वृ्द्धो का सम्मान करना उपाय करने वाले व्यक्ति को कभी भी अपने से बडों व वृ्द्धों का अपमान नहीं करना चाहिए. 4. गाय को रोटी देना जिन व्यक्तियों को शीघ्र विवाह की कामना हों उन्हें गुरुवार को गाय को दो आटे के पेडे पर थोडी हल्दी लगाकर खिलाना चाहिए. तथा इसके साथ ही थोडा सा गुड व चने की पीली दाल का भोग गाय को लगाना शुभ होता है. 5. शीघ्र विवाह प्रयोग इसके अलावा शीघ्र विवाह के लिये एक प्रयोग भी किया जा सकता है. यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार को किया जाता है. इस प्रयोग में गुरुवार की शाम को पांच प्रकार की मिठाई, हरी ईलायची का जोडा तथा शुद्ध घी के दीपक के साथ जल अर्पित करना चाहिये. यह प्रयोग लगातार तीन गुरुवार को करना चाहिए. 6. केले के वृ्क्ष की पूजा गुरुवार को केले के वृ्क्ष के सामने गुरु के 108 नामों का उच्चारण करने के साथ शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए. अथा जल भी अर्पित करना चाहिए. 7. सूखे नारियल से उपाय एक अन्य उपाय के रुप में सोमवार की रात्रि के 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता, इस उपाय के लिये जल भी ग्रहण नहीं किया जाता. इस उपाय को करने के लिये अगले दिन मंगलवार को प्रात: सूर्योदय काल में एक सूखा नारियल लें, सूखे नारियल में चाकू की सहायता से एक इंच लम्बा छेद किया जाता है. अब इस छेद में 300 ग्राम बूरा (चीनी पाऊडर) तथा 11 रुपये का पंचमेवा मिलाकर नारियल को भर दिया जाता है. यह कार्य करने के बाद इस नारियल को पीपल के पेड के नीचे गड्डा करके दबा देना. इसके बाद गड्डे को मिट्टी से भर देना है. तथा कोई पत्थर भी उसके ऊपर रख देना चाहिए. यह क्रिया लगातार 7 मंगलवार करने से व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है. यह ध्यान रखना है कि सोमवार की रात 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं करना है.

1-अगर किसी का विवाह कुण्डली के मांगलिक योग के कारण नहीं हो पा रहा है, तो ऎसे व्यक्ति को मंगल वार के दिन चण्डिका स्तोत्र का पाठ मंगलवार के दिन तथा शनिवार के दिन सुन्दर काण्ड का पाठ करना चाहिए. इससे भी विवाह के मार्ग की बाधाओं में कमी होती है. 2-जिन व्यक्तियों को मंगली दोष है, अथवा मंगल दोष के कारण विवाह में विलम्ब अथवा दाम्पत्य सुख में कमी का अनुभव हो रहा हो, तो उन्हें शुक्ल पक्ष के मंगलवार को श्री हनुमान जी पर सिन्दूर चढ़ाना चाहिए. यह प्रयोग नौ बार करे, तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी. 9. छुआरे सिरहाने रख कर सोना यह उपाय उन व्यक्तियों को करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की विवाह की आयु हो चुकी है. परन्तु विवाह संपन्न होने में बाधा आ रही है. इस उपाय को करने के लिये शुक्रवार की रात्रि में आठ छुआरे जल में उबाल कर जल के साथ ही अपने सोने वाले स्थान पर सिरहाने रख कर सोयें तथा शनिवार को प्रात: स्नान करने के बाद किसी भी बहते जल में इन्हें प्रवाहित कर दें. चाहे कोई प्रयोग कितना भी छोटा या बड़ा हो पर यदि वह आपके जीवन को आरामदायक बनाने में सहयोगी सा होता हैं तो उसे निश्चय ही जीवन में स्थान देना चाहिए .

।। अथ श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्कवचम् ।। ।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। ईश्वर उवाच।। अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वाङ्ग-सुन्दरी । यत्कृतं देवदेवेशि ध्यानं हनुमतः परम् ।। १।। पञ्चवक्त्र महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम् । बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थ सिद्धिदम् ।। २।। पूर्वं तु वानरं वक्त्र कोटिसूर्यसमप्रणम् । दंष्ट्राकरालवदनं भ्रकुटी कुटिलेक्षणम् ।। ३।। अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् । अत्युग्र तेजवपुषं भीषणं भयनाशनम् ।। ४।। पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वज्रतुण्डं महाबलम् । सर्वनागप्रशमनं विषभुतादिकृतन्तनम् ।। ५।। उत्तरं सौकर वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम् । पातालसिद्धिवेतालज्वररोगादि कृन्तनम् ।। ६।। ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम् । खङ्ग त्रिशूल खट्वाङ्गं पाशमंकुशपर्वतम् ।। ७।। मुष्टिद्रुमगदाभिन्दिपालज्ञानेनसंयुतम् । एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ।। ८।। प्रेतासनोपविष्टं त सर्वाभरणभूषितम् । दिव्यमालाम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।। ९।। सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम् ।। १०।। पञ्चास्यमच्युतमनेक विचित्रवर्णं चक्रं सुशङ्खविधृतं कपिराजवर्यम् । पीताम्बरादिमुकुटैरुपशोभिताङ्गं पिङ्गाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि ।। ११।। मर्कटेशं महोत्साहं सर्वशोक-विनाशनम् । शत्रुं संहर मां रक्ष श्रियं दापयमे हरिम् ।। १२।। हरिमर्कटमर्कटमन्त्रमिमं परिलिख्यति भूमितले । यदि नश्यति शत्रु-कुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामकरः ।। १३।। ॐ हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा । नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखे सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखे करालवदनाय नर-सिंहाय सकल भूत-प्रेत-प्रमथनाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविषहराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखे आदि-वराहाय सकलसम्पतकराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवाय सकलजनवशीकरणाय स्वाहा । ।। अथ न्यासध्यानादिकम् । दशांश तर्पणं कुर्यात् ।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य रामचन्द्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, ममसकलभयविनाशार्थे जपे विनियोगः । ॐ हं हनुमानिति बीजम्, ॐ वायुदेवता इति शक्तिः, ॐ अञ्जनीसूनुरिति कीलकम्, श्रीरामचन्द्रप्रसादसिद्धयर्थं हनुमत्कवच मन्त्र जपे विनियोगः । कर-न्यासः- ॐ हं हनुमान् अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ वायुदेवता तर्जनीभ्यां नमः, ॐ अञ्जनी-सुताय मध्यमाभ्यां नमः, ॐ रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः, ॐ श्री हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ रुद्र-मूर्तये करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ हं हनुमान् हृदयाय नमः, ॐ वायुदेवता शिरसे स्वाहा, ॐ अञ्जनी-सुताय शिखायै वषट्, ॐ रामदूताय कवचाय हुम्, ॐ श्री हनुमते नेत्र-त्रयाय विषट्, ॐ रुद्र-मूर्तये अस्त्राय फट् । ।। ध्यानम् ।। श्रीरामचन्द्र-दूताय आञ्जनेयाय वायु-सुताय महा-बलाय सीता-दुःख-निवारणाय लङ्कोपदहनाय महाबल-प्रचण्डाय फाल्गुन-सखाय कोलाहल-सकल-ब्रह्माण्ड-विश्वरुपाय सप्तसमुद्रनीरालङ्घिताय पिङ्लनयनामित-विक्रमाय सूर्य-बिम्ब-फल-सेवनाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीवनीनां निरालङ्कृताय अङ्गद-लक्ष्मण-महाकपि-सैन्य-प्राण-निर्वाहकाय दशकण्ठविध्वंसनाय रामेष्टाय महाफाल्गुन-सखाय सीता-समेत-श्रीरामचन्द्र-वर-प्रसादकाय षट्-प्रयोगागम-पञ्चमुखी-हनुमन्-मन्त्र-जपे विनियोगः । ॐ ह्रीं हरिमर्कटाय वं वं वं वं वं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं फट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय हुं हुं हुं हुं हुं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय खें खें खें खें खें मारणाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तम्भनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय लुं लुं लुं लुं लुं आकर्षितसकलसम्पत्कराय स्वाहा । ॐ ह्रीं ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्र-मूर्तये पञ्चमुखी हनुमन्ताय सकलजन-निरालङ्करणाय उच्चाटनं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं ठं ठं ठं ठं ठं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखीहनुमते परयंत्र-परतंत्र-परमंत्र-उच्चाटनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं स्वाहा । इति दिग्बंध: ।। ॐ ह्रीं पूर्व-कपिमुखाय पंच-मुखी-हनुमते टं टं टं टं टं सकल-शत्रु-संहारणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं दक्षिण-मुखे पंच-मुखी-हनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ॐ हां हां हां हां हां सकल-भूत-प्रेत-दमनाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं पश्चि।ममुखे वीर-गरुडाय पंचमुखीहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहरणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं उत्तरमुखे आदि-वराहाय लं लं लं लं लं सिंह-नील-कंठ-मूर्तये पंचमुखी-हनुमते अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय रामेष्टाय फाल्गुन-सखाय सीताशोकदुःखनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय दशग्रीवहरणाय रामचंद्रपादुकाय पञ्चमुखीवीरहनुमते नमः ।। भूतप्रेतपिशाच ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीअन्तरिक्षग्रहपरयंत्रपरतंत्रपरमंत्रसर्वग्रहोच्चाटनाय सकलशत्रुसंहारणाय पञ्चमुखीहनुमन् सकलवशीकरणाय सकललोकोपकारणाय पञ्चमुखीहनुमान् वरप्रसादकाय महासर्वरक्षाय जं जं जं जं जं स्वाहा ।। एवं पठित्वा य इदं कवचं नित्यं प्रपठेत्प्रयतो नरः । एकवारं पठेत्स्त्रोतं सर्वशत्रुनिवारणम् ।।१५।। द्विवारं च पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् । त्रिवारं तु पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं प्रभुम् ।।१६।। चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् ।। पञ्चवारं पठेन्नित्यं पञ्चाननवशीकरम् ।।१७।। षड्वारं च पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । सप्तवारं पठेन्नित्यमिष्टकामार्थसिद्धिदम् ।।१८।। अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । नववारं पठेन्नित्यं राजभोगमवाप्नुयात् ।।१९।। दशवारं च प्रजपेत्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । त्रिसप्तनववारं च राजभोगं च संबवेत् ।।२०।। द्विसप्तदशवारं तु त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । एकादशं जपित्वा तु सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ।।२१।। ।। इति सुदर्शनसंहितायां श्रीरामचन्द्रसीताप्रोक्तं श्रीपञ्चमुखीहनुमत्कत्वचं सम्पूर्णम् ।।.

यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ। पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं। योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा? इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।

साधना-सूत्र • गुह्य तन्त्रोपासना और इसकी सफलता इसकी गोपनीयता में निहित है । अत: इसके सूत्रों और सफलताओं को गोपनीय रखना ही श्रेयस्कर है । इन्हें प्रकट करने से सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं । • इस रहस्यमयी उपासना को गुरु-निर्देश तथा गुरु-संरक्षा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए । • इस उपासना का आधार शरीर-तन्त्र है, क्योंकि शक्ति-सम्पन्न ईश्वर आनन्दमय है और आनन्द का निवास शरीर में है । • शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संयम ही गुह्य तन्त्रोपासना में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है । • सृजन-शक्ति, आत्म-शक्ति और वैभव-शक्ति — तीनों की उपलब्धि का स्रोत योनि-देवी ही हैं । अत: जिस घर में योनिस्वरूपा मातृ-शक्ति अप्रसन्न रहती है; वहाँ अभाव, दुर्बलता और दरिद्रता का स्थायी निवास होता है । लिङ्गाष्टकम् ब्रह्ममुरारि-सुरार्चित -लिङ्गं निर्मल-भासित-शोभित-लिङ्गम् । जन्मज-दुःख-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।१।। देवमुनि-प्रवरार्चित-लिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् । रावणदर्प-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।२।। सर्वसुगन्धि - सुलेपित-लिङ्गं बुद्धिविवर्धन-कारण-लिङ्गम् । सिद्धसुरा-ऽसुरवन्दित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।३।। कनक-महामणि-भूषित-लिङ्गं फणिपति-वेष्टित-शोभितलिङ्गम् । दक्ष-सुयज्ञ-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।४।। कुंकुम-चन्दनलेपितलिङ्गं पंकज-हार-सुशोभित-लिङ्गम् । सञ्चित-पाप-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।५।। देवगणार्चित-सेवित-लिङ्गं भावैर्भक्तिभिरैव च लिङ्गम् । दिनकरकोटि-प्रभाकर-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।६।। अष्टदलोपरि-वेष्टित-लिङ्गं सर्वसमुद्भव-कारण-लिङ्गम् । अष्टदरिद्र-विनाशित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।७।। सुरगुरु-सुरवर-पूजित-लिङ्गं सुर-वन-पुष्प-सदार्चित लिङ्गम् । परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।८।। लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं य: पठैच्छिव - सन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।९।।

तन्त्र की गुह्य-उपासनाएँ सनातन धर्म में आगम (तंत्र) और निगम (वेद)– ये दोनों ही मार्ग ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि कराने वाले माने गये हैं । दोनों ही मार्ग अनादि परम्परा-प्राप्त हैं । किन्तु, कलियुग में आगम-मार्ग को अपनाये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती; क्योंकि आगम तो सार्वर्विणक है, जबकि निगम त्रैवर्णिक यानी केवल द्विजातियों के लिए है । कहा गया है– कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भव: । द्वापरे तु पुराणोक्त कलौवागम सम्भव: ।। अर्थात् , सतयुग में वैदिक आचार, त्रेतायुग में स्मृतिग्रन्थों में उपदिष्ट आचार, द्वापरयुग में पुराणोक्त आचार तथा कलियुग में तंत्रोक्त आचार मान्य हैं । आगम-शास्त्रों की उत्पत्ति भगवान शिव से हुई है । भगवान शिव ने अपने पाँचों मुखों (सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान) के द्वारा भगवती जगदम्बा पार्वती को तन्त्र-विद्या के जो उपदेश दिये– वही पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और ऊध्र्व नामक पाँच आम्नाय तन्त्रों के नाम से प्रचलित हुए । ये ‘पंच-तन्त्र’ भगवान श्रीमन्नारायण वासुदेव को भी मान्य हैं– आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ । मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।। तन्त्र के मुख्यत: ६४ भेद माने गये हैं । इन सभी का आविर्भाव भगवान शिव से ही हुआ है । कुछ विद्वान् ६४ योगिनियों को तन्त्र के इन ६४ भेदों का आधार मानते हैं । तन्त्र-सिद्धि की परम्परा में कतिपय साधना-पद्धतियाँ बड़ी रहस्यमयी हैं, जिन्हें प्रकट करना निषिद्ध माना गया है । इनके रहस्य को समझ पाना साधारण साधक के वश की बात नहीं है, बल्कि इससे उसके पथभ्रष्ट हो जाने की आशंका ही बनी रहती है । इन गुप्त एवं रहस्यमयी तन्त्र-साधना-पद्धतियों में दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्त, कौलाचार आदि को उत्तरोत्तर उत्तम फलदायी माना गया है । किन्तु, इनकी अनेकरूपता के कारण साधकों को श्रेष्ठ गुरु के निर्देश के बिना इन साधनाओं को नहीं करना चाहिए । योग और मोक्ष– साधकों के जीवन के ये दो मुख्य उद्देश्य होते हैं । जिन साधकों में योग की भावना प्रबल होती है, वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकते । क्योंकि उनका मन भोग में लिप्त रहेगा, भले ही बाह्य रूप से वे विरक्त क्यों न हो जायँ । ऐसे साधकों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए । किन्तु, भोग में डूबकर उसके रहस्य को जाने बिना उससे विरक्ति होना सम्भव नहीं है । भोगों की नश्वरता और उनके अल्पस्थायित्व को समझे बिना उनसे निवृृत्ति और विरक्ति हो पाना नितान्त असम्भव है । अत: भोग में भी भक्ति-भाव आ जाय– इसके लिए ‘देव’ और ‘देवी’ के भाव को हृदय में स्थापित करते हुए– ‘पूजा ते विषयोपभोगरचना’– की भावना के अनुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके आध्यात्मिक और आधिदैविक भाव की ओर अग्रसर होना ही इन गुह्य साधनाओं का परम लक्ष्य है । बलपूर्वक मन को वैराग्य में लगाने का विपरीत प्रभाव हो सकता है । अत: गुरु के निर्देशानुसार मर्यादित विषयोपभोग करते हुए मन्त्र-जप, ध्यान, पूजा, योग आदि का अभ्यास करते रहना चाहिए । इस प्रकार के अभ्यास से साधक को आत्मानंद की अनुभूति और आत्मज्ञान की सहसा उपलब्धि हो जाती है । क्योंकि सत्-चित्-आनन्द– ये तीन ब्रह्म के स्वरूप हैं, जो वास्तव में एक ही हैं । जहाँ भी आनन्द की अनुभूति है, वह ब्रह्म का ही रूप है–भले ही वह पूर्णरूप से स्पुâरित न हो । पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द– दोनों में अनन्तता और क्षणिकत्व का ही भेद है । निस्सन्देह बाह्य विषयानन्द तम है– मृत्यु है, किन्तु उसकी अनुभूति करनी पड़ती है । उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व और नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता;क्योंकि विषय स्वाभाविक रूप से रमणीय तो होते ही हैं । इसीलिए वामाचारी तन्त्र-साधकों की मान्यता है कि– आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । इस तथ्य को जानने के बाद ही तन्त्राचार्यों ने नग्न-ध्यान, योनि-पूजा, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा और बङ्काौली जैसी गुह्य-साधना-पद्धतियों को स्वीकार किया है । सर्वप्रथम बौद्ध तान्त्रिकों की बङ्कायान शाखा द्वारा चीनाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में इन गोपनीय साधनाओं को प्रकट किया गया । बाद में शाक्त-सम्प्रदाय के आचार्योें ने भी इन गुप्त साधनाओं का प्रकाश किया । फलस्वरूप पंच-मकार-साधना और वामाचार का प्रचलन हुआ । जगत के माता-पिता शिव-पार्वती के एकान्तिक संयोग और सत्संग के माध्यम से उद्भूत इन रहस्यमयी गुह्य साधनाओं का स्वरूप कालान्तर में विषयी और पाखण्डी लोगों की व्यभिचार-वृत्ति और काम-लोलुपता के कारण विकृत होता चला गया और तन्त्र की रहस्यमयी शक्तियों से अनभिज्ञ विलासी लोगों ने इसे कामोपभोग का माध्यम बना डाला और साधना की आड़ में अपनी दैहिक वासना की तृप्ति करने में लग गये । किन्तु, यह बात साधकों का अनुभवजन्य सत्य है कि यदि काम-ऊर्जा का और काम-भाव का सही-सही प्रयोग किया जाय तो इससे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति व ब्रह्म-साक्षात्कार सम्भव है । वास्तव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को संस्कारों में परिवर्तित करके, उनकी दिशा बदलकर उनके माध्यम से भगवत्प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति सहजता से की जा सकती है । ये प्रयोग त्याग, तपस्या, यज्ञानुष्ठान आदि की अपेक्षा ज्यादा आसान हैं, क्योंकि ये मानव की सहज वृत्तियों के अनुवूâल हैं ।

वाममार्गी तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है । देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है । भगवान से हमें यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तार्विâक एवं स्वाभाविक सत्य है । देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है– वस्त्र । वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है । इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा एवं बङ्काौली आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं । किन्तु, ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों,तभी फलदायी होती हैं । यहाँ हम तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा प्रकाश डालना चाहते हैं । अन्य गुह्य-साधनाओं पर चर्चा किसी अन्य पुस्तक या आलेख में करेंगे । दुर्गा सप्तशती में कहा गया है– ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ । अर्थात् , जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है, अन्यथा निर्जीव है । तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है । बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी । तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है, पूजनीय है । ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’– इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है । रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’कहते आये हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में उसे देवी का स्वरूप मानते हुए, पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है । तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी को हेय नहीं माना गया है । भैरवी-चक्र-पूजा में सम्मिलित साधक/साधिका की योग्यता के विषय में ‘निर्वाण-तंत्र’में उल्लेख है– नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना । परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा: ।। शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता: । निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता: ।। सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्त एवात्राधिकारिण: ।। अर्थात्, चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है । जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता । जो ब्रह्म के उपासक हैं, जो ब्रह्म को जानते हैं, जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं, जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्तचित्त हैं, जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं, जो दयावान् हैं, जो प्रण पर दृढ़ रहने वाले हैं, जो सच्चे संकल्प वाले हैं, जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं– वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं । भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आणविक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है । भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है । प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन पुâट की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में टकटकी लगाते हुए गुरु-मन्त्र का जप करते हैं । निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव ऊध्र्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र- दल का भेदन करता है । इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । इस बीच गुरु-मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए । कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए । गुरु-कृपा और गुरु-निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं । भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है । समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है । यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए । युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथासंभव विलम्ब से और एकसाथ सम्पन्न हो । अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है । भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि । चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देश-काल, तथा फल-प्राप्ति में अन्तर आ जाता है । भैरवी चक्र-पूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह-भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं । विंâतु, चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिए । भैरवी-चक्र-पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है । जैसे बिजली के दो तारों– फेस और न्यूटल– के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम-ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है । तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है– शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तäयावेशावसानिकम् । यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ।। अर्थात्, शक्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है । सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है ।

भैरवी-साधना सिद्ध होे जाने पर साधक को ब्रह्माण्ड में गूँज रहे दिव्य मंत्र सुनायी पड़ने लगते हैं, दिव्य प्रकाश दिखने लगता है तथा साधक के मन में दीर्घ अवधि तक काम-वासना जागृत नहीं होती । साथ ही उसका मन शान्त व स्थिर हो जाता है तथा उसके चेहरे पर एक अलौकिक आभा झलकने लगती है । प्रत्येक साधना में कोई-न-कोई कठिनाई अवश्य होती है । भैरवी-साधना में भी जो सबसे बड़ी कठिनाई है– वह है अपने आप को काबू में रखना तथा साधक व साधिका का एक साथ स्खलित होना। निश्चय ही गुरु-कृपा और निरन्तर के अभ्यास से यह सम्भव हो पाता है । भैरवी-साधना प्रकारान्तर से शिव-शक्ति की आराधना ही है । शुद्ध और समर्पित भाव से, गुरु-आज्ञानुसार साधक यदि इसको आत्मसात् करें तो जीवन के परम लक्ष्य– ब्रह्मानंद की उपलब्धि उनके लिए सहज सम्भव हो जाती है । किन्तु, कलिकाल के कराल-विकराल जंजाल में फंसे हुए मानव के लिए भैरवी-साधना के रहस्य को समझ पाना अति दुष्कर है । यंत्रवत् दिनचर्या व्यतीत करने वाले तथा भोगों की लालसा में रोगों को पालने वाले आधुनिक जीवन-शैली के दास भला इस दैवीय साधना के परिणामों से वैâसे लाभान्वित हो सकते हैं ? इसके लिए शास्त्र और गुरु-निष्ठा के साथ-साथ गहन आत्मविश्वास भी आवश्यक है । प्रस्तुत कुंजिका में उल्लिखित स्तोत्र एवं सहस्रनाम के नित्य-पाठ से साधक की निष्ठा निरंतर पुष्ट होती जाती है और उसके ह्य्दय में आत्मस्वरूप का प्रकाश जागृत होने लगता है । साधना-पथ पर आरूढ़ होने के लिए यही तो चाहिए !

Tuesday, 16 April 2019

जय श्री राम सभी समस्याओ के समाधान मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र- द्वारा उपलब्ध है हमारे यहाँ सभी प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु अनुष्ठान किये जाते है तथा मन्त्र सिद्ध कवच और व्यापार व्रद्धि यन्त्र - कुबेरदेवता- यन्त्र- शत्रुनाशक यन्त्र- बालरक्षा यन्त्र- शत्रु द्वारा अभिचार नाशक यन्त्र- कायॅसिदधि दायक यन्त्र- बंधीदुकान खोलने का यन्त्र- विवाह बाधा यन्त्र-और वशीकरणयन्त्र- धन व्रद्धि यन्त्र - तैयार किये जाते है। आपकी समस्या का समाधान किया-कराया, प्रेम-विवाह, व्यापार, गृहक्लेश, दुश्मन से छुटकारा, वशीकरण, खुशहाल एवं प्रसन्नचित रहें, गृहक्लेश, व्यापारिक समस्या,विवाह में रुकावट, ऋण होना, ऊपरी समस्या, कुण्डली दोष, पति-पत्नी अनबन, दुश्मनों से छुटकारा, आपके जीवन की हर मुस्किल समस्याओ का समाधान किया जायेगा – पुत्र श्री ज्योतिर्विद पण्डित टीकाराम बहुगुणा । मै केवल जन्मकुण्डली देखकर ही आप की सम्सयाओ का समाधान कर सकता हुँ । अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र तन्त्र -के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे ।.-- क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । ---- संपर्क सूत्र---9760924411

श्रीबगला कीलक-स्तोत्रम्. श्रीबगला कीलक-स्तोत्रम्. ह्लीं ह्लीं ह्लींकार-वाणे, रिपुदल-दलने, घोर-गम्भीर-नादे ! ज्रीं ह्रीं ह्रींकार-रुपे, मुनि-गण-नमिते, सिद्धिदे, शुभ्र-देहे ! भ्रों भ्रों भ्रोंकार-नादे, निखिल-रिपु-घटा-त्रोटने, लग्न-चित्ते ! मातर्मातर्नमस्ते सकल-भय-हरे ! नौमि पीताम्बरे ! त्वाम् ।। १ क्रौं क्रौं क्रौमीश-रुपे, अरि-कुल-हनने, देह-कीले, कपाले ! हस्रौं हस्रौं-सवरुपे, सम-रस-निरते, दिव्य-रुपे, स्वरुपे ! ज्रौं ज्रौं ज्रौं जात-रुपे, जहि जहि दुरितं जम्भ-रुपे, प्रभावे ! कालि, कंकाल-रुपे, अरि-जन-दलने देहि सिद्धिं परां मे ।। २ हस्रां हस्रीं च हस्रैं, त्रिभुवन-विदिते, चण्ड-मार्तण्ड-चण्डे ! ऐं क्लीं सौं कौल-विधे, सतत-शम-परे ! नौमि पीत-स्वरुपे ! द्रौं द्रौं द्रौं दुष्ट-चित्ताऽऽदलन-परिणते, बाहु-युग्म-त्वदीये ! ब्रह्मास्त्रे, ब्रह्म-रुपे, रिपु-दल-हनने, ख्यात-दिव्य-प्रभावे ।। ३ ठं ठं ठंकार-वेशे, ज्वलन-प्रतिकृति-ज्वाला-माला-स्वरुपे ! धां धां धां धारयन्तीं रिपु-कुल-रसनां मुद्गरं वज्र-पाशम् । डां डां डां डाकिन्याद्यैर्डिमक-डिम-डिमं डमरुं वादयन्तीम् ।। ४ मातर्मातर्नमस्ते प्रबल-खल-जनं पीडयन्तीं भजामि । वाणीं सिद्धि-करे ! सभा-विशद-मध्ये वेद-शास्त्रार्थदे ! मातः श्रीबगले, परात्पर-तरे ! वादे विवादे जयम् । देहि त्वं शरणागतोऽस्मि विमले, देवि प्रचण्डोद्धृते ! मांगल्यं वसुधासु देहि सततं सर्व-स्वरुपे, शिवे ! ।। ५ निखिल-मुनि-निषेव्यं, स्तम्भनं सर्व-शत्रोः । शम-परमिहं नित्यं, ज्ञानिनां हार्द-रुपम् । अहरहर-निशायां, यः पठेद् देवि ! कीलम् । स भवति परमेशि ! वादिनामग्र-गण्यः ।। "वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा" !! श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो के माध्यम से उपाय जानना और आपकी शादी नही हो रही है। व्यवसाय मे सफलता नही मिल रही है! नोकरी मे सफलता नही मिल रही है। और आप शत्रु से परेशान है। ओर आपके कामो मे अडचन आ रही है । और आपको धन सम्बंधी परेशानी है । और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पण्डित टीकाराम बहुगुणा । मै केवल जन्मकुण्डली देखकर ही आप की सम्सयाओ का समाधान कर सकता हुँ । अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे ।.-- क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । ---- संपर्क सूत्र---9760924411

मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है। कैसे करें कालभैरव का पूजन : - काल भैरवाष्टमी के दिन मंदिर जाकर भैरवजी के दर्शन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। उनकी प्रिय वस्तुओं में काले तिल, उड़द, नींबू, नारियल, अकौआ के पुष्प, कड़वा तेल, सुगंधित धूप, पुए, मदिरा, कड़वे तेल से बने पकवान दान किए जा सकते हैं। शुक्रवार को भैरवाष्टमी पड़ने के कारण इस दिन उन्हें जलेबी एवं तले पापड़ या उड़द के पकौड़े का भोग लगाने से जीवन के हर संकट दूर होकर मनुष्य का सुखमय जीवन व्यतीत होता है। कालभैरव के पूजन-अर्चन से सभी प्रकार के अनिष्टों का निवारण होता है तथा रोग, शोक, दुखः, दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। कालभैरव के पूजन में उनकी प्रिय वस्तुएं अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। भैरवजी के दर्शन-पूजन से सकंट व शत्रु बाधा का निवारण होता है। दसों दिशाओं के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है तथा पुत्र की प्राप्ति होती है। इस दिन भैरवजी के वाहन श्वान को गुड़ खिलाने का विशेष महत्व है। "वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा" !! श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो के माध्यम से उपाय जानना और आपकी शादी नही हो रही है। व्यवसाय मे सफलता नही मिल रही है! नोकरी मे सफलता नही मिल रही है। और आप शत्रु से परेशान है। ओर आपके कामो मे अडचन आ रही है । और आपको धन सम्बंधी परेशानी है । और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पण्डित टीकाराम बहुगुणा । मै केवल जन्मकुण्डली देखकर ही आप की सम्सयाओ का समाधान कर सकता हुँ । अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे ।.-- क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । ---- संपर्क सूत्र---9760924411

रोजगार प्राप्ति उपाय मंगलवार को अथवा रात्रिकाल में निम्नलिखित मन्त्र का अकीक की माला से 108 बार जप करें । इसके बाद नित्य इसी मन्त्र का स्नान करने के बाद 11 बार जप करें । इसके प्रभाव से अतिशीघ्र ही आपको मनोनुकूल रोजगार की प्राप्ति होगी । यह मन्त्र माँ भवानी को प्रसन्न करता है, अतः जप के दौरान अपने सम्मुख उनका चित्र भी रखें । ” ॐ हर त्रिपुरहर भवानी बाला राजा मोहिनी सर्व शत्रु । विंध्यवासिनी मम चिन्तित फलं देहि देहि भुवनेश्वरी स्वाहl जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

महाकाली सबंधित पूर्ण काल ज्ञान के लिए निकटत्तम भविष्य को जानने के लिए एक सामान्य विधान इस रूप से है जो की व्यक्ति को भविष्य के ज़रोखे मे जांक कर देखने के लिए शक्ति प्रदान करता है किसीभी शुभदिन से यह साधना शुरू की जा सकती है । इसमें महाकाली का विग्रह या चित्र अपने सामने स्थापित करे और रात्री काल मे उसका सामान्य पूजन कर के निम्न मंत्र की २१ माला २१ दिन तक करे । यानि रोज 21 माला प्रतिदिन जाप करना हे । मंत्र :- काली कंकाली प्रत्यक्ष क्रीं क्रीं क्रीं हूं साधना काल मे लोहबान का धुप व् घी का दीपक जलते रहना चाहिए । यह जाप रुद्राक्ष या काली हकीक माला से किया जा सकता है । साधना के कुछ दिनों मे साधको को कई मधुर अनुभव हो सकते है. जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

देह रक्षा की मंत्र निम्न मन्त्रो को किसी भी शनिवार या मंगलवार को हनुमान जी विषयक नियमो का पालन करके तथा व्रत रख कर 1000 जप करके इनको सिद्ध कर ले फिर 3 या 7 बार पढकर अपने शरीर पर फूंक मारे व दोनों हाथो को पुरे शरीर पर फेरें | इससे आपकी रक्षा होगी कोई भी शक्ति आप को नुकसान नही पहुंचाएगी | 1 .||ॐ नमः वज्र का कोठा जिसमे पिण्ड हमारा पैठा ईश्वर कुंजी, ब्रह्मा का ताला मेरे आठो याम का यती हनुमन्त रखवाला || 2. || उत्तर बांधो, दक्खिन बांधो, बांधो मरी मसानी डायन भूत के गुण बांधो, बांधो कुल परिवार नाटक बांधो, चाटक बांधो, बांधो भुइयां बैताल नजर गुजर देह बांधो, राम दुहाई फेरों || 3. || जल बांधो, थल बांधो, बांधो अपनी काया सात सौ योगिनी बांधो, बांधो जगत की माया दुहाई कामरू कामाक्षा नैना योगिनी की || जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

देवी मंत्र द्वारा वशीकरण वशीकरण का सामान्य और सरल अर्थ है- किसी को प्रभावित करना, आकर्षित करना या वश में करना। जीवन में ऐसे कई मोके आते हैं जब इंसान को ऐसे ही किसी उपाय की जरूरत पड़ती है। किसी रूठें हुए को मनाना हो या किसी अपने के अनियंत्रित होने पर उसे फिर से अपने नियंत्रण में लाना हो,तब ऐसे ही किसी उपाय की सहायता ली जा सकती है। वशीकरण के लिये यंत्र, तंत्र, और मंत्र तीनों ही प्रकार के प्रयोग किये जा सकते हैं। यहां हम ऐसे ही एक अचूक मंत्र का प्रयोग बता रहे हैं। यह मंत्र दुर्गा सप्तशती का अनुभव सिद्ध मंत्र है। यह मंत्र तथा कुछ निर्देश इस प्रकार हैं- ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती ही सा। बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति ।। यह एक अनुभवसिद्ध अचूक मंत्र है। इसका प्रयोग करने से पूर्व भगवती त्रिपुर सुन्दरी मां महामाया का एकाग्रता पूर्वक ध्यान करें। ध्यान के पश्चात पूर्ण श्रृद्धा-भक्ति से पंचोपचार से पूजा कर संतान भाव से मां के समक्ष अपना मनोरथ व्यक्त कर दें। वशीकरण सम्बंधी प्रयोगों में लाल रंग का विशेष महत्व होता है अत: प्रयोग के दोरान यथा सम्भव लाल रंग का ही प्रयोग करें। मंत्र का प्रयोग अधार्मिक तथा अनैतिक उद्देश्य के लिये करना सर्वथा वर्जित है। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

सर्व सिद्दी कारक भैरव मंत्र ॐ गुरु जी काल भैरव काली लट हाथ फारसी साथ नगरी करूँ प्रवेश नगरी को करो बकरी राजा को करो बिलाई जो कोई मेरा जोग भंग करे बाबा क्रिशन नाथ की दुहाई | मंत्र विधान के लिये हमसे सम्पकॅ करे । श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

शरीर बांधने का मंत्र || ॐ वज्र का सीकड़ ! वज्र का किवाड़ ! वज्र बंधे दसो द्वार ! वज्र का सीकड़ से पी बोल ! गहे दोष हाथ न लगे ! आगे वज्र किवाड़ भैरो बाबा ! पसारी चौसठ योगिनी रक्षा कारी ! सब दिशा रक्षक भूतनाथ !दुहाई इश्वर , महादेव, गौरा पारवती की ! दुहाई माता काली की || पूजन में बैठ रहे हों तो अपने चरों ओर घेरा बना लें . इससे सुरक्षा रहेगी । मंत्र विधान के लिये हमसे सम्पकॅ करे । श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

प्रत्येक महाविद्या अपने साधक को किसी शक्ति विशेष का वरदान प्रदान करती हैं जिस प्रकार माँ तारा “शब्दशक्ति रहस्य” प्रदान करती हैं उसी प्रकार छिन्नमस्ता “प्राणशक्ति रहस्य” से साधक का जीवन सराबोर करती हैं | इस प्राणशक्ति के रहस्य को समझने के बाद माँ छिन्नमस्ता के आशीर्वाद से साधक ना सिर्फ सुषुम्ना पथ पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है अपितु उस सुप्त पथ को जाग्रत कर पूर्ण रूपेण चैतन्यता भी प्रदान कर देता है | वस्तुतः प्राणशक्ति को सिद्धजन तीन रूपों में जानते हैं,किन्तु हम उसमे से मात्र महाप्राण की ही बात करेंगे |महाप्राण-परा सृष्टि, अपरा सृष्टि और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिस प्राणशक्ति की चैतन्यता से व्याप्त है,प्राण की अतिउच्चावस्था जो की विशुद्धतम अवस्था कहलाती है और जिस रूप में प्राण की सम्पूर्ण शक्तियां निहित होती हैं,ऐसे प्राण महाप्राण कहलाते हैं,जब इसका समावेश सुषुम्ना से हो जाता है तो चारित्रिक शुद्धता के साथ साथ आत्मतत्व की भी प्राप्ति हो जाती है और साधक के पवन नेत्र जाग्रत हो जाते हैं ,जिससे साधक को लिंग नहीं अपितु आत्मतत्व के दर्शन ही होते हैं और ऐसे में वो “श्यामा साधना” जैसी दुरूह साधना को भी सहज ही बिना किसी चित्त विकार के पार कर लेता है | अर्थात इन प्राण रहस्यों को पूरी तरह से समझ लेने पर साधक छिन्नमस्ता रहस्य को सहज ही आत्मसात कर लेता है |छिन्नमस्ता देवी के कटे हुए मस्तक से निकल रही तीन रक्त धाराएँ प्रतीक हैं रुद्रग्रंथी,विष्णुग्रंथी और ब्रह्म्ग्रंथी के छिन्न होने की | अर्थात छिन्नमस्ता साधना का पूर्ण आलंबन लेने पर साधक सृजन,पालन और संहार के चक्र से बहुत ऊपर उठ जाता है,मैंने पहले ही आपको इंगित किया है की जैसे ही सुषुम्ना अपने पथ पर पूर्ण चैतन्यता के साथ इन तीनों ग्रंथियों का भेदन करती है तो मात्र पूर्ण विशुद्ध सोम तत्व ही प्राणशक्तियों के सहयोग से ७२,००० नाड़ियों में प्रसारित होने लगता है,तब निर्जरा देह, प्राणों का खेचरत्व और अदृश्य तत्व की प्राप्ति सहज ही हो जाती है |याद रखिये ना तो आपको चंद्र नाड़ी इड़ा पूर्णत्व दे सकती है और ना ही सूर्य नाड़ी पिंगला पूर्णत्व दे सकती है, क्यूंकि लाख प्रयास पर भी ये आपस में संयोग नहीं कर पति है,क्यूंकि इनकी दिशा और गुण धर्म में ही अंतर होता है किन्तु,मेरु दंड से होते हुए मात्र सुषुम्ना ही मूलाधार से होते हुए समस्त चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार को भेदित करती है | और छिन्नमस्ता साधना से ही ये पथ ना सिर्फ दृढ़ होता है अपितु एक आवरण से सुषुम्ना सूत्र रक्षित भी हो जाता है |याद रखिये हमारे मेरु दंड के जितने मोती हैं वे सभी विभिन्न योनियों की वासना से युक्त होते हैं,और साधना काल या सामान्य जीवन में सुषुम्ना में संचारित उर्जा जब इन मोतियों से टकराती है तो वो उर्जा विकृत होकर उस मोती में दमित योनी की वासना को आपकी मानसिकता पर हावी कर देती है फलस्वरूप व्यक्ति कामविह्वल हो जाता है और मात्र अतृप्त काम कुंठा ही मनो मष्तिष्क पर अपना डेरा जमा लेती है और जो धीरे धीरे व्यक्ति का व्यक्तिव बन जाती है |किन्तु छिन्नमस्ता साधना से जब सुषुम्ना सूत्र कवचित हो जाता है तो मूलाधार में व्याप्त उर्जा या शक्ति उस सूत्र का आश्रय लेकर बिना किसी भटकाव के सहस्त्रार से योग कर लेती है और इस प्रकार बिना कमोद्वेग के दिव्य मैथुन की क्रिया पूर्ण हो जाती है,जहाँ मात्र निर्मलत्व ही रह जाता है और खुल जाते हैं सभी महाविद्याओं के मंडल में प्रवेश का मार्ग भी जिसके द्वारा सभी महाविद्याओं को सहज ही पूरी तरह सिद्ध किया जा सकता है |“ जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

कामिया सिन्दूर-मोहन मन्त्र “हथेली में हनुमन्त बसै, भैरु बसे कपार। नरसिंह की मोहिनी, मोहे सब संसार। मोहन रे मोहन्ता वीर, सब वीरन में तेरा सीर। सबकी नजर बाँध दे, तेल सिन्दूर चढ़ाऊँ तुझे। तेल सिन्दूर कहाँ से आया ? कैलास-पर्वत से आया। कौन लाया, अञ्जनी का हनुमन्त, गौरी का गनेश लाया। काला, गोरा, तोतला-तीनों बसे कपार। बिन्दा तेल सिन्दूर का, दुश्मन गया पाताल। दुहाई कमिया सिन्दूर की, हमें देख शीतल हो जाए। सत्य नाम, आदेश गुरु की। सत् गुरु, सत् कबीर। विधि- आसाम के ‘काम-रुप कामाख्या, क्षेत्र में ‘कामीया-सिन्दूर’ पाया जाता है। इसे प्राप्त कर लगातार सात रविवार तक उक्त मन्त्र का १०८ बार जप करें। इससे मन्त्र सिद्ध हो जाएगा। प्रयोग के समय ‘कामिया सिन्दूर’ पर ७ बार उक्त मन्त्र पढ़कर अपने माथे पर टीका लगाए। ‘टीका’ लगाकर जहाँ जाएँगे, सभी वशीभूत होंगे जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

ब्रह्मचार्य सिद्धि . जिसने अपने काे साध लिया उसने सब साध लिया. शास्त्र कहता है- ‘मरणं विन्दुपातेन जीवनं विन्दुधारणात्” अर्थात् वीर्य का पात करना ही मृत्यु और वीर्य धारण करना ही जीवन है।भगवान शंकर कहते हैं-न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मर्च्यं तपोत्तमम्।ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु से देवो न तु मानुषः॥ अर्थात्- ब्रह्मचर्य से बढ़कर और कोई तप नहीं है। ऊर्ध्वरेता (जिसका वीर्य मस्तिष्क आदि द्वारा उच्च कार्यों में व्यय होता है।) पुरुष मनुष्य नहीं प्रत्यक्ष देवता है।समुद्र तरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तिता।संसार तरणे तद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम्॥अर्थात् जिस प्रकार समुद्र को पार करने का नौका उत्तम उपाय है, उसी प्रकार इस संसार से पार होने का उत्कृष्ट साधन ब्रह्मचर्य ही है।ये तपश्चतपस्यन्त कौमाराः ब्रह्मचारिणः। विद्यावेद ब्रत स्नाता दुर्गाण्यपि तरन्ति ते॥अर्थात्- जो ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य रूपी तपस्या करते हैं और उत्तम विद्या एवं ज्ञान से अपने को पवित्र बना लेते हैं, वे संसार की समस्त दुर्गम कठिनाइयों को पार कर जाते हैं।सिद्धे बिन्दौ महायत्ने किन सिद्धयति भूतले। यस्य प्रसादान्महिमाममाप्ये तादृशो भवेत्॥अर्थात्- महान परिश्रम पूर्वक वीर्य का साधना करने वाले ब्रह्मचारी के लिए इस पृथ्वी पर भला किस कार्य में सफलता नहीं मिलती? ब्रह्मचर्य के प्रताप से मनुष्य मेरे (ईश्वर के) तुल्य हो जाता है।‘ब्रह्मचर्य परं तपः।’ब्रह्मचर्य ही सबसे श्रेष्ठ तपश्चर्या है। “एकतश्चतुरो वेदाः ब्रह्मचर्य तथैकतः।”अर्थात्- एक तरफ चारों वेदों का फल और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य का फल, दोनों में ब्रह्मचर्य का फल ही विशेष है।

सिद्ध शूलिनी दुर्गा-स्तुति दुःख दुशासन पत चीर हाथ ले, मो सँग करत अँधेर । कपटी कुटिल मैं दास तिहारो, तुझे सुनाऊँ टेर ।। मैय्या॰ ।।१ बुद्धि चकित थकित भए गाता, तुम ही भवानी मम दुःख-त्राता । चरण शरण तव छाँड़ि कित जाऊँ, सब जीवन दुःख निवेड़ ।।मैय्या॰ ।।२ भक्ति-हीन शक्ति के नैना, तुझ बिन तड़पत हैं दिन-रैना । लाज तिहारे हाथ सौंप दइ, दे दर्शन चढ़ शेर ।।मैय्या॰ ।।३ विधिः- उपर्युक्त रचना “शूलिनी-दुर्गा” की स्तुति है । विशेष सङ्कट-काल में भक्ति-पूर्वक सतत गायन करते रहने से तीन रात्रि में ‘संकट’ नष्ट होते है । भगवती षोडशी (श्री श्रीविद्या) का ध्यान कर, इस स्तुति की तीन आवृत्ति करते हुए स्तवन करने पर सद्यः ‘अर्थ-प्राप्ति’ ३ घण्टे में होती है । एक वर्ष तक नियमित रुप से इस स्तुति का गायन करने पर, माँ स्वयं स्वप्न में ‘मन्त्र-दीक्षा’ प्रदान करती है । ‘नव-रात्र’ में नित्य मध्य-रात्रि में श्रद्धा-पूर्वक इस स्तुति की १६ आवृत्ति गायन करने से ५ रात्रि के अन्दर स्वप्न में ‘माँ’ का साक्षात्कार होता है । प्रातः एवं सायं-काल नित्य नियमित रुप से भक्ति-पूर्वक ‘भैरवी-रागिनी’ में इस स्तुति का गायन करने से ‘आत्म-साक्षात्कार’ होता है ।...

॥ कालीकवचम् ॥ भैरव् उवाच - कालिका या महाविद्या कथिता भुवि दुर्लभा । तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां कुरु ॥ १ ॥ कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया । यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि तदा तनुं ॥ २ ॥ श्रीदेव्युवाच - शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात् प्रकाशितं । न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं महत् ॥ ३ ॥ कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी । विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४ ॥ काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च कपालिनी । कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला तथोत्तरे ॥ ५ ॥ विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु चक्षुषी । उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ चोग्रप्रभा मता ॥ ६ ॥ वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं सदा । घना ग्रीवां सदा पातु बलाका बाहुयुग्मकं ॥ ७ ॥ मात्रा पातु करद्वन्द्वं वक्षोमुद्रा सदावतु । मिता पातु स्तनद्वन्द्वं योनिमण्डलदेवता ॥ ८ ॥ ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं नारायणी तथा । ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु लिञ्गकं ॥ ९ ॥ कौमारी च कटीं पातु तथैव जानुयुग्मकं । अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु चाञ्गुलीन् ॥ १० ॥ सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था देवतावतु । रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्ज्जितं कवचेन तु ॥ ११ ॥ तत्सर्व्वं रक्ष मे देवि कालिके घोरदक्षिणे । ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी स्वयं वपुः ॥ १२ ॥ हिंस्रेभ्यः सर्व्वदा पातु साधकञ्च जलाधिकात् । दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे सदावतु ॥ १३ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देवदक्षिणां । न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ १४ ॥ कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव गच्छति । तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं विद्यते क्वचित् ॥ १५ ॥ इति कालीकुलसर्व्वस्वे कालीकवचं समाप्तम् ॥

…|| पंचमुखी हनुमान कवच || श्री गणेशाय नम: | ओम अस्य श्रीपंचमुख हनुम्त्कवचमंत्रस्य ब्रह्मा रूषि:| गायत्री छंद्:| पंचमुख विराट हनुमान देवता| र्हींह बीजम्| श्रीं शक्ति:| क्रौ कीलकम्| क्रूं कवचम्| क्रै अस्त्राय फ़ट्| इति दिग्बंध्:| श्री गरूड उवाच्|| अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि| श्रुणु सर्वांगसुंदर| यत्कृतं देवदेवेन ध्यानं हनुमत्: प्रियम्||१|| पंचकक्त्रं महाभीमं त्रिपंचनयनैर्युतम्| बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिध्दिदम्||२|| पूर्वतु वानरं वक्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम्| दंष्ट्राकरालवदनं भ्रुकुटीकुटिलेक्षणम्||३|| अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम्| अत्युग्रतेजोवपुष्पंभीषणम भयनाशनम्||४|| पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वक्रतुण्डं महाबलम्| सर्वनागप्रशमनं विषभूतादिकृन्तनम्||५|| उत्तरं सौकरं वक्त्रं कृष्णं दिप्तं नभोपमम्| पातालसिंहवेतालज्वररोगादिकृन्तनम्| ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम्| येन वक्त्रेण विप्रेन्द्र तारकाख्यमं महासुरम्||७|| जघानशरणं तस्यात्सर्वशत्रुहरं परम्| ध्यात्वा पंचमुखं रुद्रं हनुमन्तं दयानिधिम्||८|| खड्गं त्रिशुलं खट्वांगं पाशमंकुशपर्वतम्| मुष्टिं कौमोदकीं वृक्षं धारयन्तं कमण्डलुं||९|| भिन्दिपालं ज्ञानमुद्रा दशभिर्मुनिपुंगवम्| एतान्यायुधजालानि धारयन्तं भजाम्यहम्||१०|| प्रेतासनोपविष्टं तं सर्वाभरण्भुषितम्| दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानु लेपनम सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम्||११|| पंचास्यमच्युतमनेकविचित्रवर्णवक्त्रं शशांकशिखरं कपिराजवर्यम्| पीताम्बरादिमुकुटै रूप शोभितांगं पिंगाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि||१२|| मर्कतेशं महोत्राहं सर्वशत्रुहरं परम्| शत्रुं संहर मां रक्ष श्री मन्नपदमुध्दर||१३|| ओम हरिमर्कट मर्केत मंत्रमिदं परिलिख्यति लिख्यति वामतले| यदि नश्यति नश्यति शत्रुकुलं यदि मुंच्यति मुंच्यति वामलता||१४|| ओम हरिमर्कटाय स्वाहा ओम नमो भगवते पंचवदनाय पूर्वकपिमुखाय सकलशत्रुसंहारकाय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखाय करालवदनाय नरसिंहाय सकलभूतप्रमथनाय स्वाया| ओम नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखाय गरूडाननाय सकलविषहराय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखाय आदिवराहाय सकलसंपत्कराय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय उर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय सकलजनवशकराय स्वाहा| ||ओम श्रीपंचमुखहनुमंताय आंजनेयाय नमो नम:||

हिन्दू धर्म में अनेक देवी देवताओं की मान्यता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन प्रधान देवता हैं। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती देवियाँ एवं इन्द्र, गणेश, वरुण, मरुत, अर्यमा, सूर्य, चन्द्र, भौम, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि, अग्नि, प्रजापति आदि देवताओं का स्थान है। गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियाँ, गोवर्धन, चित्रकूट, विन्ध्याचल आदि पर्वत, तुलसी, पीपल आदि वृक्ष, गौ, बैल आदि पशु, गरुण, नीलकण्ठ आदि पक्षी, सर्प आदि कीड़े भी देवता कोटि में गिने जाते हैं। भूत, प्रेतों से कुछ ऊँची श्रेणी के देवता भैरव, क्षेत्रपाल, यज्ञ, ब्रह्मराक्षस, बैतास, कूष्मांडा, पीर, वली, औलिया आदि हैं। फिर ग्राम्य देवता और भूत, प्रेत, मसान, चुड़ैल आदि हैं। राम, कृष्ण, नृसिंह, बाराह, वामन आदि अवतारों को भी देवताओं की कोटि में गिना जा सकता है। इन देवताओं की संख्या तैंतीस कोटि बताई जाती है। कोटि के शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं (1.) श्रेणी (2.) करोड़। तेतीस प्रकार के, तेतीस जाती के ये देवता हैं। जाति, श्रेणी या कोटि शब्द बहुवचन का बोधक है। इससे समझा जाता है कि हर कोटि में अनेकों देव होंगे और तेतीस कोटियों-श्रेणियों के देव तो सब मिलकर बहुत बड़ी संख्या में होंगे। कोटि शब्द का दूसरा अर्थ ‘करोड़’ है। उससे तैंतीस करोड़ देवताओं के अस्तित्व का पता चलता है। जो हो यह तो मानना ही पड़ेगा कि हिन्दू धर्म में देवों की बहुत बड़ी संख्या मानी जाती है। वेदों में भी तीस से ऊपर देवताओं का वर्णन मिलता है। देवताओं की इतनी बड़ी संख्या एक सत्य शोधक को बड़ी उलझन में डाल देती है। वह सोचता है कि इतने अगणित देवताओं के अस्तित्व का क्या तो प्रमाण है, और क्या उपयोग? इन देवताओं में अनेकों की तो ईश्वर से समता है। इस प्रकार ‘बहु ईश्वरवाद’ उपज खड़ा होता है। संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्म ‘एक ईश्वरवाद’ को मानते हैं। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी अनेकों अभिवचन एक ईश्वर होने के समर्थन में भरे पड़े हैं। फिर यह अनेक ईश्वर कैसे? ईश्वर की ईश्वरता में साझेदारी का होना कुछ बुद्धि संगत प्रतीत नहीं होता। अनेक देवताओं का अपनी अपनी मर्जी से मनुष्यों पर शासन करना, शाप, वरदान देना, सजायता या विघ्न उपस्थित करना एक प्रकार से ईश्वरीय जगत की अराजकता है। कर्म फल के अविचल सिद्धान्त की परवा न करके भेट पूजा से प्रसन्न अप्रसन्न होकर शाप वरदान देने वाले देवता लोग एक प्रकार से ईश्वरीय शासक में चोर बाजार, घूसखोरी, डाकेजनी एवं अनाचार उत्पन्न करते हैं। इस अवाञ्छनीय स्थिति को सामने देखकर किसी भी सत्य शोधक का सिर चकराने लगता है। वह समझ नहीं पाता कि आखिर वह सब है क्या प्रपंच? देवता वाद पर सूक्ष्म रूप से विचार करने से प्रतीत होता है कि एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियों के नाम अलग अलग हैं और उन नामों को ही देवता कहते हैं। जैसे सूर्य की किरणों में सात रंग हैं उन रंगों के हरा, पीला, लाल, नीला आदि अलग अलग नाम हैं। हरी किरणें, अल्ट्रा वायलेट किरणों, एक्स किरणें, बिल्डन किरणें आदि अनेकों प्रकार की किरणें हैं उनके कार्य और गुण अलग अलग होने के कारण उनके नाम भी अलग अलग हैं उनसे पर भी वे एक ही सूर्य की अंश हैं। अनेक किरणें होने पर भी सूर्य एक ही रहता है। इसी प्रकार एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियाँ अपने गुण कर्म के अनुसार विविध देव नामों से पुकारी जाती हैं। मूलतः ईश्वर तो एक ही है। एक मात्र ईश्वर ही इस सृष्टि का निर्माता, पालन कर्ता और नाश करने वाला है। उस ईश्वर की जो शक्ति निर्माण एवं उत्पत्ति करती है उसे ब्रह्मा, जो पालन, विकास एवं शासन करती है वह विष्णु, जो जीर्णता, अवनति एवं संहार करती हैं उसे शंकर कहते हैं। दुष्टों को दण्ड देने वाली दुर्गा, सिद्धिदाता गणेश, ज्ञान दाता सरस्वती, श्री समृद्धि प्रदान करने वाली लक्ष्मी, जल बरसाने वाली इन्द्र, इसी प्रकार हनुमान आदि समझने चाहिये। जैसे एक ही मनुष्य के विविध अंगों को हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि कहते हैं, इसी प्रकार ईश्वरीय सूक्ष्म शक्तियों के उनके गुणों के अनुसार विविध नाम हैं वही देवता हैं। कैवल्योपनिषद् कार ऋषि का कथन है- ‘स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्। स इन्द्रस्स कालानिस्स चन्द्रमाः।’ अर्थात् वह परमात्मा ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शिव, अक्षर, स्वराट्, इन्द्र, काल, अग्नि और चन्द्रमा है। इसी प्रकार ऋग्वेद मं0 1 सू0 164 मं0 46 में कहा गया है कि- ‘इन्द्र मित्रं वरुणमश्माहुरथों दिव्यस्य सुपर्णो गरुत्मान्। एवं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्रि यमं मातरिश्वान माहु।’ अर्थात् विद्वान् लोग ईश्वर को ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, गरुत्मान्, दिव्य, सुपर्ण, यम, मातरिश्वा नाम से पुकारते हैं। उस एक ईश्वर को ही अनेक नामों से कहते हैं। इनसे प्रगट होता है कि देवताओं का पृथक् पृथक् अस्तित्व नहीं है, ईश्वर का उसका गुणों के अनुसार देव वाची नामकरण किया है। जैसे-अग्नि-तेजस्वी। प्रजापति-प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र-ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा-बनाने वाला। विष्णु-व्यापक। रुद्र-भयंकर। शिव-कल्याण करने वाला। मातरिश्वा-अत्यन्त बलवान। वायु-गतिवान। आदित्य-अविनाशी। मित्र-मित्रता रखने वाला। वरुण-ग्रहण करने योग्य। अर्यमा-न्यायवान्। सविता-उत्पादक। कुबेर-व्यापक। वसु-सब में बसने वाला। चन्द्र-आनन्द देने वाला मंगल-कल्याणकारी। बुध-ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति-समस्त ब्रह्माँडों का स्वामी। शुक्र-पवित्र। शनिश्चर-सहज में प्राप्त होने वाला। राहु-निर्लिप्त। केतु-निर्दोष। निरंजन-कामना रहित। गणेश-प्रजा का स्वामी। धर्मराज-धर्म का स्वामी। यम-फलदाता। काल- समय रूप। शेष-उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर-कल्याण करने वाला। इसी प्रकार अन्य देवों के नामों का अर्थ ढूँढ़ा जाय तो वह परमात्मा का ही बोध कराता है। अब यह प्रश्न उठता है कि इन देवताओं की विविध प्रकार की आकृतियाँ क्यों हैं? आकृतियों की आवश्यकता किसी बात की कल्पना करने या स्मरण रखने के लिये आवश्यक है। किसी बात का विचार या ध्यान करने के लिये मस्तिष्क में एक आकृति अवश्य ही बनानी पड़ती है। यदि कोई मस्तिष्क इस प्रकार के मानसिक रोग से ग्रस्त हो कि मन में आकृतियों का चिन्तन न कर सके तो निश्चय ही वह किसी प्रकार का विचार भी न कर सकेगा। जो कीड़े मकोड़े आकृतियों की कल्पना नहीं कर पाते उनके मन में किसी प्रकार के भाव भी उत्पन्न नहीं होते। ईश्वर एवं उसकी शक्तियों के सम्बन्ध में विचार करने के लिये मनःलोक में स्वतः किसी न किसी प्रकार की आकृति उत्पन्न होती है। इन अदृश्य कारणों से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म आकृतियों का दिव्य दृष्टि से अवलोकन करने वाले योगी जनों ने उन ईश्वरीय शक्तियों की-देवी देवताओं की-आकृतियाँ निर्मित की हैं। चीन और जापान देश की भाषा लिपि में जो अक्षर हैं वे पेड़, पशु, पक्षी आदि की आकृति के आधार पर बनाये गये हैं। उन भाषाओं के निर्माताओं का आधार यह था कि जिस वस्तु को पुकारने के लिये जो शब्द प्रयोग होता था, उस शब्द को उस वस्तु की आकृति का बना दिया। इस प्रणाली में धीरे-धीरे विकास करके एक व्यवस्थित लिपि बना ली गई। देवनागरी लिपि का अक्षर विज्ञान शब्द की सूक्ष्म आकृतियों पर निर्भर है। किसी शब्द का उच्चारण होते ही आकाश में एक आकृति बनती है, उस आकृति को दिव्य दृष्टि से देखकर योगी जनों ने देवनागरी लिपि का निर्माण किया है। शरीर के मर्मस्थलों में जो सूक्ष्म ग्रन्थियाँ है उनके भीतरी रूप को देखकर षट्चक्रों का सिद्धान्त निर्धारित किया गया है। जो आधार चीनी भाषा की लिपि का है, जो आधार देवनागरी लिपि के अक्षरों का है, जो आधार षट्चक्रों की आकृति का है, उस आधार पर ही देवताओं की आकृतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जिन ईश्वरीय शक्तियों के स्पर्श से मनुष्य के अन्तः करण में जैसे संवेदन उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म शरीर की जैसी मुद्रा बनती है, उसी के आधार पर देवताओं की आकृतियाँ बना दी गई हैं। संहार पतन एवं नाश होते देख कर मनुष्य के मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न होता है इसलिये शंकरजी का रूप वैरागी जैसा है। किसी चीज का उत्पादन होने पर वयोवृद्धों के समान हर मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है, इसलिये ब्रह्माजी वृद्ध के रूप में हैं। चार वेद या चार दिशाएं ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। पूर्णता प्रौढ़ता की अवस्था में मनुष्य रूपवान, सशक्त, सपत्नीक एवं विलास प्रिय होता है, सहस्रों सर्प सी विपरीत परिस्थितियाँ भी उस प्रौढ़ के अनुकूल बन जाती हैं। शेष शय्या शायी विष्णु के चित्र में हम इसी भाव की झाँकी देखते हैं। लक्ष्मी बड़ी सुन्दर और कमनीय लगती हैं उनका रूप वैसा ही है। ज्ञान में बुद्धि में सौम्यता एवं पवित्रता है, सरस्वती की मूर्ति को हम वैसी ही देखते हैं। क्रोध आने पर हमारी अन्तरात्मा विकराल रूप धारण करती है, उस विकरालता की आकृति ही दुर्गा है। विषय वासनाओं की मधुर मधुर अग्नि सुलगाने वाला देवता पुष्प वाणधारी कामदेव है। ज्ञान का देवता गणेश हाथी के समान गंभीर है, उसका पेट ओछा नहीं जिसमें कोई बात ठहरे नहीं, उसके बड़े पेट में अनेकों बातें पड़ी रहती हैं और बिना उचित अवसर आये प्रकट नहीं होती। “जिसके पास अकल होगी वह लड्डू खायेगा” इस कहावत को हम गणेश जी के साथ चरितार्थ होता देखते हैं। उनकी नाक लम्बी है अर्थात् प्रतिष्ठा ऊंची है। ईश्वर की ज्ञान शक्ति का महत्व दिव्य दर्शी कवि ने गणेश के रूप में निर्मित कर दिया है। इसी प्रकार अनेकों देवों की आकृतियाँ विभिन्न कारणों से निर्मित की गई हैं। तेतीस कोटि के देवता माने जायं तो अनेकों क्षेत्र में काम करने वाली शक्तियाँ तेतीस हो सकती हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, धार्मिक, आर्थिक, पारिवारिक, वैज्ञानिक भौगोलिक आदि क्षेत्रों की श्रेणियों की गणना की जाय तो उनकी संख्या तेतीस से कम न होगी। उन कोटियों में परमात्मा की विविध शक्तियाँ काम करती हैं वे देव ही तो हैं। दूसरी बात यह है कि जिस समय देवतावाद का सिद्धान्त प्रयुक्त हुआ उस समय भारतवर्ष की जन संख्या 33 कोटि-तेतीस करोड़ थी। इस पुण्य भारत भूमि पर निवास करने वाले सभी लोगों के आचरण और विचार देवोपम थे। संसार भर में वे भू-सुर (पृथ्वी के देवता) कहकर पुकारे जाते थे। तीसरी बात यह है कि हर मनुष्य के अन्तःकरण में रहने वाला देवता अपने ढंग का आप ही होता है। जैसे किन्हीं दो व्यक्तियों की शक्ल सूरत आपस में पूर्ण रूप से नहीं मिलती वैसे ही सब मनुष्यों के अन्तःकरण भी एक से नहीं होते उनमें कुछ न कुछ अन्तर रहता ही है। इस भेद के कारण हर मनुष्य का विचार, विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा के द्वारा बना हुआ अन्तःकरण रूपी देवता पृथक्-2 है। इस प्रकार तेतीस कोटि मनुष्यों के देवता भी तेतीस कोटि ही होते हैं। देवताओं की आकृतियाँ चित्रों के रूप में और मूर्तियों के रूप में हम देखते हैं। कागज पर अंकित किये गये चित्र अस्थायी होते हैं। पर पाषाण एवं धातुओं की मूर्तियाँ चिरस्थायी होती हैं। साधना विज्ञान के आचार्यों का अभिमत है कि ईश्वर की जिस शक्ति को अपने में अभिप्रेत करना हो उसका विचार, चिन्तन, ध्यान और धारण करना चाहिये। विचार शक्ति का चुम्बकत्व ही मनुष्य के पास एक ऐसा अस्त्र है जो अदृश्य लोक की सूक्ष्म शक्तियों को खींच कर लाता है। धनवान बनने के लिये धन का चिन्तन और विद्वान बनने के लिये विद्या का चिंतन आवश्यक है। संसार का जो भी मनुष्य जिस विषय में आगे बढ़ा है, पारंगत हुआ है, उसमें उसने एकाग्रता और आस्था उत्पन्न की है। इसका एक आध्यात्मिक उपाय यह है कि ईश्वर की उस शक्ति का चिन्तन किया जाय। चिन्तन के लिये आकृति की आवश्यकता है उस आकृति की मूर्ति या चित्र के आधार पर हमारी कल्पना आसानी से ग्रहण कर सकती है। इस साधन की सुविधा के लिये मूर्तियों का आविर्भाव हुआ है। धनवान बनने के लिये सबसे पहले धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेमभाव होना चाहिये। बिना इसके धन कमाने की योजना अधूरी और असफल रहेगी। क्योंकि पूरी दिलचस्पी और रुचि के बिना कोई कार्य पूरी सफलता तक नहीं पहुँच सकता। धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, विश्वास, आशा पाने के लिये आध्यात्मिक शास्त्र के अनुसार मार्ग यह है कि ईश्वर की धन शक्ति को-लक्ष्मी जी को-अपने मानस लोक में प्रमुख स्थान दिया जाय। चूँकि ईश्वर की धन शक्ति का रूप दिव्यदर्शियों ने लक्ष्मी जी जैसा निर्धारित किया है अतएव लक्ष्मी जी की आकृति गुण कर्म स्वभाव युक्त उनकी छाया मन में धारण की जाती है। इस ध्यान साधना में मूर्ति बड़ी सहायक होती है। लक्ष्मी जी की मूर्ति की उपासना करने से मानस लोक में धन के भाव उत्पन्न होते हैं और वे भाव ही अभीष्ट सफलता तक ले पहुँचते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी जी की उपासना से श्री वृद्धि होने में सहायता मिलती है। यही बात गणेश, शिव, विष्णु, हनुमान, दुर्गा आदि देवताओं के संबन्ध में है। इष्ट देव चुनने का उद्देश्य भी यही है जीवन लक्ष नियुक्त करने को ही आध्यात्मिक भाषा में इष्ट देव चुनना कहा जाता है। अखाड़ों में, व्यायामशालाओं में, हनुमान जी की मूर्तियां दिखती हैं। व्यापारी लोग लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं। साधु संन्यासी शिवजी का इष्ट रखते हैं। गृहस्थ लोग, विष्णु (राम, कृष्ण आदि अवतार) को भजते हैं। शक्ति के इच्छुक दुर्गा को पूजते हैं। स्थूल दृष्टि से देखने में यह देवता अनेकों मालूम पड़ते हैं, उपासकों की साधना में अन्तर दिखाई देता है पर वास्तव में कोई अन्तर है नहीं। मान लीजिये माता के कई बालक हैं एक बालक रोटी खाने के लिये रसोई घर में बैठा है, दूसरा धुले कपड़ों की माँग करता हुआ कपड़ों के बक्स के पास खड़ा है, तीसरा पैसे लेने के लिए माता का बटुआ टटोल रहा है, चौथा गोदी में चढ़ने के लिये मचल रहा है। बालकों की आकाँक्षाएं भिन्न हैं वे माता के उसी गुण पर सारा ध्यान लगाये बैठे हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है। गोदी के लिये मचलने वाले बालक के लिये माता एक मुलायम पालना, या बढ़िया घोड़ा है। पैसे चाहने वाले बालक के लिए वह एक चलती फिरती बैंक है, भोजन के इच्छुक के लिये वह एक हलवाई है, कपड़े चाहने वाले के लिये वह घरेलू दर्जी या धोबी है। चारों बालक अपनी इच्छा के अनुसार माता को पृथक-2 दृष्टि से देखते हैं, उससे पृथक-2 आशा करते हैं फिर भी माता एक ही है। यही बात विभिन्न देव पूजकों के बारे में कही जा सकती है। वस्तुतः इस विश्व में एक ही सत्ता हैं-परमात्मा एक ही है। उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, तो भी मनुष्य अपने विचार एवं साधना की दृष्टि से उसकी शक्तियों को प्रथक-2 देवताओं के रूप में मान लेता है।

श्रीसूक्तम् आनन्दकर्दम चिक्लीत जातवेद - ऋषि श्री देवता , १ - ३ अनुष्टुप् ४ प्रस्तारपंक्ति ५ - ६ त्रिष्टुप् और १५ प्रस्तारपंक्ति छन्द हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् । चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥ हे अग्निदेव । सुवर्ण के समान वर्णवाली , हरिणी के से रूपवाली , सोने - चाँदी की मालाओं वाली , चन्द्रमा के से प्रकाशवाली , स्वर्णमयी लक्ष्मीजी का आप मेरे कल्याणार्थ आह्वान करें । तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥ हे शास्त्रयोने । आप कभी अलग न होने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे हितार्थ आह्वान करें जिनके आने पर मै स्वर्ण , गौ , घोडे एवं बान्धव प्राप्त करूँ । अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् । श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥ आगे घोडों , वाली , मध्य में रथवाली और हाथियों के चिग्घाढ से सबको प्रबुद्ध करने वाली क्रीडा करती हुई लक्ष्मी जी का मैं आह्वान करता हूँ । वे लक्ष्मी देवी मुझे अपनाएं । कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥ चिन्मयी , मन्दहास वाली , सुवर्ण जैसे आवरणवाली , दयामयी , ज्योति रूपा , स्वयं तृप्त एवं जनों को तृप्त करती हुई , कमल पर बैठी कमल के वर्णवाली उन लक्ष्मी जी का मैं यहाँ आह्वान करता हूँ । चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदारम् । तां पद्मनेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ॥५॥ मैं चन्द्रमा से आह्लादवाली , अत्यधिक कान्ति वाली , लोक में यश के प्रतापवाली , देवताओं से सेविता उन उदार हृदया लक्ष्मी जी की शरण प्राप्त करता हूँ । हे देवि । मैं तुम्हारी शरण ग्रहण करता हूँ ताकि मेरी दरिद्रता का नाश हो । आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्व : । तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मी : ॥६॥ सूर्य से तेजवाली देवि । मंगलकारी बिल्व वृक्ष तुम्हारे तप से उत्पन्न हुआ है उसके फल अपने प्रभाव से मेरे अज्ञान का , विघ्नों का और दैत्य का नाश करें । उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सहा । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु में ॥७॥ हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथ कीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र में पैदा हुआ हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें । क्षुप्तिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिञ्च सर्वान्निर्णुद में गृहात् ॥८॥ भूख - प्यास से मलीन हुई , और लक्ष्मी जी की अग्रजा अलक्ष्मी का मैं नाश करता हूँ । अनैश्वर्य और अभाव इन सबको मेरे घर से दूर करो । गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥ मैं सम्पूर्ण प्राणियों की अधीश्वरी उन लक्ष्मी जी का यहाँ आह्वान करता हूँ जो गन्धमयी टुर्निवारा , नित्य सम्पन्न एवं उपले आदि से भरी - पुरी हैं । मनस : काममाकूतिं वाच : सत्यमशीमहि । पशूना रूपमन्नस्य मयि श्री : श्रयतां यश : ॥१०॥ हमें मन की कामनाओं का संकल्प , वाणी का सत्य तथा अन्न और पशुओं का स्वत्व प्राप्त हो । यश और श्री मुझ में निवास करें । कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम । श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥ श्री जी कर्दम को पाकर पुत्रवती हैं । हे कर्दम । आप मेरे यहाँ उत्पन्न हों और कमलों की मालावाली माँ श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं । आप : सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥ हे चिक्लीत । आप मेरे घर में निवास करें । मेरे यहाँ जल से स्नेह युक्त पदार्थों का सृजन हो । और आप अपनी माता श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं । आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम् । चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥ हे जातवेद । आप स्नेहमयी , पुष्टिकारिणी , पुष्टिरूपा , पीतवर्णा , कमल मालिनी , आह्लादिनी , सुवर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें । आर्द्रां यष्करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् । सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥ हे जातवेद । आप स्नेहमयी , यश बढाने वाली , पूजनीया , सुन्दर वर्णवाली , स्वर्ण मालिनी , तेजोमयी और स्वर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें । तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतिं गावो दास्योऽश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् ॥१५॥ हे जातवेद । स्थिर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें जिनके आने पर मैं सुवर्ण , समृद्धि , गाएं , दासियाँ , घोडे और जन प्राप्त करूँ । य : शुचि : प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् । सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम : सततं जपेत् ॥१६॥ जिसे श्री जी की इच्छा हो वह पवित्र और संयत होकर प्रतिदिन घीं से हवन करें और श्रीसुक्त की पन्द्रह ऋचाओं का निरन्तर जप करें ।

गायत्री मन्त्र गायत्री मन्त्र १ . ॐ तत् पुरुषाय विद्महे , वक्र तुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात । ( गणेश गायत्री ) २ . ॐ नारायणाय विद्महे , वासुदेवाय धीमही तन्नो विष्णु प्रचोदयात् । ( विष्णु गायत्री ) ३ . ॐ तत् पुरुषाय विद्महे , महादेवाय धीमहि तन्नौ रुद्र प्रचोदयात् । ( शिव गायत्री ) ४ . ॐ दाशरथाय विद्महे , सीता वल्लभायै धीमहि तन्नौ राम : प्रचोदयात् । ( राम गायत्री ) ५ . ॐ जनक नन्दनी विद्महे भूमिजाय धीमहि तन्नौ सीता प्रचोदयात् । ( सीता गायत्री ) ६ . ॐ रामदूताय विद्महे , कपि राजाय धीमहि तन्नौ हनुमान प्रचोदयात् । ( हनुमत गायत्री ) ७ . ॐ अंजनी सुताय विद्महे वायु पुत्राय धीमहि तन्नौ हनुमत् प्रचोदयात् । ( हनुमान गायत्री ) ८ . ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नौ कृष्ण प्रचोदयात् । ( कृष्ण गायत्री ) ९ . ॐ वृष भानुजाय विद्महे , कृष्ण प्रियायी धीमहि तन्नौ राधा प्रचोदयात् । ( राधा गायत्री ) १० . ॐ दाशरथाय विद्महे उर्मिला प्रियाये धीमही तन्नो लक्ष्मण प्रचोदयात् । ( लक्ष्मण गायत्री ) ११ . ॐ भागीरथाय विद्महे ब्रह्म पुत्री धीमहि तन्नौ गंगा प्रचोदयात् । ( गंगा गायत्री ) १२ . ॐ कात्यायीनीच विद्महे कन्या कुमारीय धीमहि तन्नौ दूर्गा प्रचोदयात् । ( दुर्गा गायत्री ) १३ . ॐ महादेवीञ्च विद्महे , विष्णु प्रियायी धीमहि तन्नौ लक्ष्मी प्रचोदयात् । १४ . ॐ पाञ्च जन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नौ शंख प्रचोदयात् । ( शंख गायत्री ) ॐ नमस्ते वास्तु पुरुष : भू शय्या भिरत् प्रभोमम् गृहे धन धान्यादि समृद्धिकुरु सर्वदा । १५ . ॐ भुजगेशाय विद्महे सर्प राजाय धीमहि तन्नौ वास्तो प्रचोदयात् ॥

मोती शंख मोती शंख एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति का शंख माना जाता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार यह शंख बहुत ही चमत्कारी होता है। दिखने में बहुत ही सुंदर होता है। मोती जैसी चमकीली आभा के कारण इसे मोती शंख कहते हैं। जिस प्रकार पूजन शंख को विष्णु और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी स्वरुप माना जाता है। उसी प्रकार मोती शंख को सौभाग्य लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। - गृह कलह नाश और घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के लिए इसे एक ताम्बे के पात्र में जल भरकर उसके बीचों बीच घर के ईशान कोण या ब्रह्मस्थल में स्थापित करे। - यदि गुरु पुष्य योग में मोती शंख को कारखाने में स्थापित किया जाए तो कारखाने में तेजी से आर्थिक उन्नति होती है। - मोती शंख में जल भरकर लक्ष्मी के चित्र के साथ रखा जाए तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है। - किसी शुभ नक्षत्र या दीपावली में मोती शंख को घर में स्थापित कर रोज श्री महालक्ष्मै नम: 108 बार बोलकर 1-1 चावल का दाना शंख में भरते रहें। इस प्रकार 11 दिन तक करें। बाद में शंख और चावल एक लाल कपड़े की पोटली बनाकर तिजोरी या रूपये गहने आदि रखने के स्थान पर रख दें। यह प्रयोग करने से आर्थिक तंगी समाप्त हो जाती है। - अक्षय तृतीया पर एक लाल कपड़े में मोती शंख , गोमती चक्र, लघु नारियल, पीली कौड़ी और चाँदी के सिक्के का माँ लक्ष्मी के सामने पूजन कर 21 पाठ श्री सूक्त का करे और पोटली बना कर मन्दिर में स्थापित कर दें। पोटली खोले बिना नित्य ऊपर से ही धूप दीप करें। थोड़े ही दिनों में आर्थिक समस्या समाप्त होने लगेगी। - यदि व्यापार में घाटा हो रहा है तो एक मोती शंख धन स्थान पर रखने से व्यापार में वृद्धि होती है। - रात्रि में इसमें जल भरकर रख दें और सुबह उससे चेहरे पर मसाज करने से चेहरे के दाग धब्बे खत्म हो जाते हैं और चेहरा कांतियुक्त हो जाता है। - देशी चिकित्सा पद्धति में इससे नाद करने से फेफड़े और हृदय रोग में लाभ होना बताया गया है। - अन्नभण्डार में स्थापित करने पर वो सदैव परिपूर्ण रहता है। - इसमें बीज भरकर पूजा कर अगले दिन खेत में बोने से फसल अछि होती है। ऐसा भी एक प्रयोग सामने आया है। - रोगी व्यक्ति को इसमें रखा जल पिलाने से वो शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•

शत्रुओं से छुटकारा पाने हेतु एक लघु प्रयोग:- ऐसे ही लोगों से पीछा छुड़ाने का एक प्रयोग दे रहा हूँ। जो स्वयं भी कई बार कर चूका हूँ और दूसरों से भी सफलता पूर्वक करवा चूका हूँ। एक बार से ही शत्रु शांत हो जाता है और परेशान करना छोड़ देता है पर यदि जल्दी न सुधरे तो पांच बार तक प्रयोग कर सकते हैं। इसके लिए किसी भी मंगलवार या शनिवार को भैरवजी के मंदिर जाएँ और उनके सामने एक आटे का चौमुखा दीपक जलाएं। दीपक की बत्तियों को रोली से लाल रंग लें। फिर शत्रु या शत्रुओं को याद करते हुए एक चुटकी पीली सरसों दीपक में डाल दें। फिर निम्न श्लोक से उनका ध्यान कर 21बार निम्न मन्त्र का जप करते हुए एक चुटकी काले उड़द के दाने दिए में डाले। फिर एक चुटकी लाल सिंदूर दिए के तेल के ऊपर इस तरह डालें जैसे शत्रु के मुंह पर डाल रहे हों। फिर 5 लौंग ले प्रत्येक पर 21 21 जप करते हुए शत्रुओं का नाम याद कर एक एक कर दिए में ऐसे डालें जैसे तेल में नहीं किसी ठोस चीज़ में गाड़ रहे हों। इसमें लौंग के फूल वाला हिस्सा ऊपर रहेगा। फिर इनसे छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करते हुए प्रणाम कर घर लौट आएं। ध्यान :- ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तम शशिश्कलधरम मुण्डमालं महेशम्। दिग्वस्त्रं पिंगकेशं डमरुमथ सृणिं खडगपाशाभयानि।। नागं घण्टाकपालं करसरसिरुहै र्बिभ्रतं भीमद्रष्टम। दिव्यकल्पम त्रिनेत्रं मणिमयविलसद किंकिणी नुपुराढ्यम।। मन्त्र:- ॐ ह्रीं भैरवाय वं वं वं ह्रां क्ष्रौं नमः। यदि भैरव मन्दिर न हो तो शनि मन्दिर में भी ये प्रयोग कर सकते हैं। दोनों न हों तो पूरी क्रिया घर में दक्षिण मुखी बैठ कर भैरव जी के चित्र के समक्श पूजन कर उनके लें और दीपक मध्य रात्रि में किसी चौराहे पर रख आएं। चौराहे पर भी ये प्रयोग कर सकते हैं। परन्तु याद रहे चौराहे पर करेंगे तो कोई देखे न वरना कोई टोक सकता है जादू टोना करने वाला भी समझ सकता है। चौराहें पर करें तो चुपचाप बिना पीछे देखे घर लौट आएं हाथ मुंह धोकर ही किसी से बात करें। यदि एक बार में शत्रु पूर्णतः शांत न हो तो 5 बार तक एक एक हफ्ते बाद कर सकते हैं। उक्त प्रयोग शत्रु के उच्चाटन हेतु भी कर सकते हैं पर उसमे बत्ती मदार के कपास की बनेगी और दीपक शत्रु के मुख्य द्वार के सामने जलाना होगा। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•

अष्ट लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र सदगुरू की क़पा से अष्टमलक्ष्मी (अदि लक्ष्मी,धान्य लक्ष्मी, धन लक्ष्मी,धैर्य लक्ष्मी,गज्ज लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी ,विद्या लक्ष्मी,विजय लक्ष्मी) प्राप्ते हो जाती है ....रोज यह मंत्र बोलकर अष्ट लक्ष्मीध का आव्हालन कर सकें तो गुरूकृपा से यह सहज में प्राप्तस हो जाती है - सिद्धि बुद्धि प्रदे देवि भुक्ति मुक्ति प्रदायिनि | मंत्रपूर्ते सदा देवि महालक्ष्मी नमोस्तुनते || नमस्तेूस्तुल महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते | शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मीु नमोस्तुेते || ॐ श्रीमहालक्ष्यै‍ेवि नम: ॐ श्रीमहालक्ष्यै‍ेवि नम: गुरूक़पा से सब प्रकार की लक्ष्मी‍ सुख शांति आदि की प्राप्ति होती है । जहां गुरूकृपा, वहां ये स्वषयं आ जाती है । तुम्ह़री कृपा में सुख घनेरे । उनकी कृपा में सुख ही सुख है । जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•

पूजा या मंत्र जाप कहाँ करे .. पूजा या मंत्र जाप के लिए हमारे वेदों में और शिव पूरण में कहा गया है की -- १- घर में पूजा या जाप करने से १ गुना फल मिलता है . २- गाय या गौशाला के पास करने से सौ गुना फल मिलता है . ३-पवित्र वन ,बगीचे तीर्थ स्थान में करने से हजार गुना फल मिलता है . ४- पर्वत पर दस हजार गुना फल मिलता है . ५- पवित्र नदियों के तट पर करने से कई लाख गुना फल मिलता है . ६-देवालय में करने से करोड़ गुना फल मिलता है . ७- शिव मंदिर में पूजा-पाठ करने से अनंत गुना फल मिलता है . जय भोलेनाथ -- हर हर महादेव.. जय श्री राम ......................... जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र प्रस्तुत 'विचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र' दिव्य प्रभाव से परिपूर्ण है। इससे सभी प्रकार की बाधा, पीड़ा, दुःख का निवारण हो जाता है। शत्रु-विजय हेतु यह अनुपम अमोघ शस्त्र है। पहले प्रतिदिन इस माला मन्त्र के ११०० पाठ १० दिनों तक कर, दशांश गुग्गुल से 'हवन' करके सिद्ध कर ले। फिर आवश्यकतानुसार एक बार पाठ करने पर 'श्रीहनुमानजी' रक्षा करते हैं। सामान्य लोग प्रतिदिन केवल ११ बार पाठ करके ही अपनी कामना की पूर्ति कर सकते हैं। विनियोग, ऋष्यादि-न्यास, षडंग-न्यास, ध्यान का पाठ पहली और अन्तिम आवृत्ति में करे। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्माला-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषिः। अनुष्टुप छन्दः। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवता। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगः। ऋष्यादि-न्यासः- श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवतायै नमः हृदि। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे। षडङ्ग-न्यासः- ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः (हृदयाय नमः)। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा)। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्)। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः (कवचाय हुं)। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः (नेत्र-त्रयाय वौषट्)। ॐ ह्रः करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट्)। ध्यानः- वामे करे वैर-वहं वहन्तम्, शैलं परे श्रृखला-मालयाढ्यम्। दधानमाध्मातमु्ग्र-वर्णम्, भजे ज्वलत्-कुण्डलमाञ्नेयम्।। माला-मन्त्रः- "ॐ नमो भगवते, विचित्र-वीर-हनुमते, प्रलय-कालानल-प्रभा-ज्वलत्-प्रताप-वज्र-देहाय, अञ्जनी-गर्भ-सम्भूताय, प्रकट-विक्रम-वीर-दैत्य-दानव-यक्ष-राक्षस-ग्रह-बन्धनाय, भूत-ग्रह, प्रेत-ग्रह, पिशाच-ग्रह, शाकिनी-ग्रह, डाकिनी-ग्रह ,काकिनी-ग्रह ,कामिनी-ग्रह ,ब्रह्म-ग्रह, ब्रह्मराक्षस-ग्रह, चोर-ग्रह बन्धनाय, एहि एहि, आगच्छागच्छ, आवेशयावेशय, मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय, स्फुट स्फुट, प्रस्फुट प्रस्फुट, सत्यं कथय कथय, व्याघ्र-मुखं बन्धय बन्धय, सर्प-मुखं बन्धय बन्धय, राज-मुखं बन्धय बन्धय, सभा-मुखं बन्धय बन्धय, शत्रु-मुखं बन्धय बन्धय, सर्व-मुखं बन्धय बन्धय, लंका-प्रासाद-भञ्जक। सर्व-जनं मे वशमानय, श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सर्वानाकर्षयाकर्षय, शत्रून् मर्दय मर्दय, मारय मारय, चूर्णय चूर्णय, खे खे श्रीरामचन्द्राज्ञया प्रज्ञया मम कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु, मम शत्रून् भस्मी कुरु कुरु स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् श्रीविचित्र-वीर-हनुमते। मम सर्व-शत्रून् भस्मी-कुरु कुरु, हन हन, हुं फट् स्वाहा।।" (प्रति-दिनमेकादश-वारं जपेत्। पूर्व-न्यास-ध्यान-पूर्वकं निवेदयेत्) जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

माँ काली का आशीर्वाद ॐ कालिका खड्ग खप्पर लिए थाड़ी ज्योत तेरी है निराली पीती भर भर रक्त पियाली करे भक्तो की रखवाली ना करे रक्षा तो महाबली भैरव की दुहाई।। किसी विशेष पर्व , तिथि ,नक्षत्र , योग वाले दिन इस मंत्र को माँ काली के मंदिर मैं या उनके चित्र के सामने विधिवत पंचोपचार पूजन करके मन्त्र को 1008 की संख्या मैं जाप करें। ये माँ भगवती काली का रक्षा कवच है। घर से निकलते समय इस मंत्र को पड़ते हुए 3 बार अपनी छाती पर फूँक मारें। दसो दिशाओ से रक्षा होगी। और माँ काली की आसिम कृपा के पात्र बनोगे। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

ॐ श्री गुरवे नमः ‘ ॐ जेते हनुमंत रामदूत चलो वेग चलो लोहे की गदा, वज्र का लंगोट, पान का बीड़ा, तले सिंदूर की पूजा, हंहकार पवनपुत्र कालंचचक्र हस्त कुबेरखिलुं मरामसान खिलुं भैरव खिलुं अक्षखिलुं वक्षखिलुं मेरे पे करे घाव छाती फट् फट् मर जाये देव चल पृथ्वीखिलुं साडे वारे जात की बात को खिलुं मेघ को खिलुं नव कौड़ी नाग को खिलुं येहि येहि आगच्छ आगच्छ शत्रुमुख बंधना खिलुं सर्व-मुखबंधनाम् खिलुं काकणी कामानी मुखग्रह-बंधना खिलुं कुरु कुरु स्वाहा ।’ जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

भूतबाधा निवारण का गंडा अगर आप भूत बाधा से पीड़ित हैं तो निम्न प्रकार से तैयार किया गया गंडा इससे मुक्ति दिलाएगा : रविवार के दिन स्नान कर के तुलसी के आठ पत्ते, आठ काली मिर्च और सहदेवी की जड़ एकत्रित कर लें। इन तीनों वस्तुओं को काले कच्चे सूत में बाँधकर गंडा तैयार करें। गंडे को गले में धारण कर लें। किसी परिचित को भूतबाधा से मुक्ति दिलाना : रविवार के दिन सफेद सूत और काले धतूरे का गंडा बना लें। अब इसे पीड़ित व्यक्ति की दायीं बाँह में बाँध दें, वह भूत-प्रेत की बाधा से मुक्त हो जाएगा। वायव्य आत्माओं से मुक्ति का गंडा : काले सूत के द्वारा सफेद घुंघुची की जड़ अथवा काले धतुरे की जड़ का गंडा बनाएँ। इस गंडे को दाएँ हाथ में बाँधें। अपकी समस्त वायव्य आत्माओं से ग्रस्त पीड़ा दूर हो जाएगी। यह प्रयोग किसी भी दिन किया जा सकता है। शनिवार को अगर किया जाए तो अधिक फलदायी होता है।

तलिस्मान का मतलब होता है भाग्यवर्धक वस्तुयें। जिस प्रकार से प्रकृति ने बीमारियां प्रदान की है,उसी प्रकार से प्रकृति ने बीमारियों के निवारण के लिये दवाइयां भी प्रदान की हैं। उसी प्रकार से प्रकृति ने दुर्भाग्य पैदा किया है तो सौभाग्य को देने के लिये संसार में वस्तुयें और जीवों की भी रचना की है। बीमारियों का पता जैसे एक डाक्टर अपनी विद्या के अनुसार लगा लिया करता है उसी प्रकार से दुर्भाग्य का पता एक ज्योतिषी अपनी विद्या के द्वारा पता कर लेता है,डाक्टर को सांइस ने भौतिक द्रष्टा होने के कारण डिग्री दी है लेकिन ज्योतिष को भौतिक द्र्ष्टा नही होने के कारण डिग्री नही दी है,ज्योतिष का ज्ञान केवल व्यवहारिक ज्ञान होता है,जिस प्रकार से मनुष्य ने अपनी प्रकृति को प्राचीन काल से लेकर आज तक के समय में बदल लिया है,उसी प्रकार से ज्योतिष ने अपना रूप भी मनुष्य के अनुसार बदल लिया है।

१. पीली सरसों, गुग्गल, लोबान व गौघृत इन सबको मिलाकर इनकी धूप बना लें व सूर्यास्त के 1 घंटे भीतर उपले जलाकर उसमें डाल दें। ऐसा २१ दिन तक करें व इसका धुआं पूरे घर में करें। इससे नकारात्मक शक्तियां दूर भागती हैं। २. जावित्री, गायत्री व केसर लाकर उनको कूटकर गुग्गल मिलाकर धूप बनाकर सुबह शाम २१ दिन तक घर में जलाएं। धीरे-धीरे तांत्रिक अभिकर्म समाप्त होगा। ३. गऊ, लोचन व तगर थोड़ी सी मात्रा में लाकर लाल कपड़े में बांधकर अपने घर में पूजा स्थान में रख दें। शिव कृपा से तमाम टोने-टोटके का असर समाप्त हो जाएगा। ४. घर में साफ सफाई रखें व पीपल के पत्ते से ७ दिन तक घर में गौमूत्र के छींटे मारें व तत्पश्चात् शुद्ध गुग्गल का धूप जला दें। ५. कई बार ऐसा होता है कि शत्रु आपकी सफलता व तरक्की से चिढ़कर तांत्रिकों द्वारा अभिचार कर्म करा देता है। इससे व्यवसाय बाधा एवं गृह क्लेश होता है अतः इसके दुष्प्रभाव से बचने हेतु सवा 1 किलो काले उड़द, सवा 1 किलो कोयला को सवा 1 मीटर काले कपड़े में बांधकर अपने ऊपर से २१ बार घुमाकर शनिवार के दिन बहते जल में विसर्जित करें व मन में हनुमान जी का ध्यान करें। ऐसा लगातार ७ शनिवार करें। तांत्रिक अभिकर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा। ६. यदि आपको ऐसा लग रहा हो कि कोई आपको मारना चाहता है तो पपीते के २१ बीज लेकर शिव मंदिर जाएं व शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाकर धूप बत्ती करें तथा शिवलिंग के निकट बैठकर पपीते के बीज अपने सामने रखें। अपना नाम, गौत्र उच्चारित करके भगवान् शिव से अपनी रक्षा की गुहार करें व एक माला महामृत्युंजय मंत्र की जपें तथा बीजों को एकत्रित कर तांबे के ताबीज में भरकर गले में धारण कर लें। ७. शत्रु अनावश्यक परेशान कर रहा हो तो नींबू को ४ भागों में काटकर चौराहे पर खड़े होकर अपने इष्ट देव का ध्यान करते हुए चारों दिशाओं में एक-एक भाग को फेंक दें व घर आकर अपने हाथ-पांव धो लें। तांत्रिक अभिकर्म से छुटकारा मिलेगा।

ब्रह्म विद्या को जाने बिना कोई भी विद्या मे पारंगत नही हो पाता है,तालू और नाक के स्वर से जो शक्ति का निरूपण अक्षर के अन्दर किया जाता है वही ब्रह्मविद्या का रूप है। बीजाक्षरों को पढते समय बिन्दु का प्रक्षेपण करने से वह ब्रह्मविद्या का रूप बन जाता है.ब्रह्मविद्या का नियमित उच्चारण अगर एक मंदबुद्धि से भी करवाया जाये तो वह भी विद्या में उसी तरह से पारंगत हो जाता है जैसे महाकवि कालिदास जी विद्या में पारंगत हुये थे। गणेशजी के नाम के साथ ब्रह्मविद्या का उच्चारण ऊँ गं गणपतये नम: का जाप करते वक्त "गं" अक्षर मे सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का निरूपण हो जाता है,गं बीजाक्षर को लगातार जपने से तालू के अन्दर और नाक के अन्दर जमा मल का विनास होता है और बुद्धि की ओर ले जाने वाली शिरायें और धमनियां अपना रास्ता मस्तिष्क की तरफ़ खोल देतीं है,आंख नाक कान और ग्रहण करने वाली शिरायें अपना काम करना शुरु कर देतीं है और बुद्धि का विकास होने लगता है. ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।

श्री कार्तवीर्यार्जुन दर्पण-प्रयोग घर से भागे हुए व्यक्ति के बारे में यदि पता न चल रहा हो, तब उसकी स्थिति व परिस्थिति जानने के लिए यह प्रयोग किया जा सकता है । वैसे तो इस प्रयोग के द्वारा चोरी गई वस्तुओम तथा उनके चोरों का भी ज्ञान पाया जा सकता है, परन्तु क्योंकि प्रयोग मँहगा तथा श्रम-साध्य है, अतः अत्यन्त जटिल परिस्थिति में ही, जब और कोई उपाय काम न आए, तभी इस ‘दर्पण-प्रयोग’ को करना चाहिए । १॰ शुभ मुहूर्त में, शुद्ध स्थानम में, शुद्ध होकर बैठ जाएँ (प्रयोग स्थान निर्वात, पर्याप्त खुला, हवादार, रोशन-दान, झरोखा आदि से युक्त होना चाहिए, ताकि ‘दीपक’ बुझे नहीं तथा दीपकों का धुँआ बाहर निकलता रहे ।) विधि-पूर्वक इच्छित कार्य की सफलता हेतु सङ्कल्प एवं श्रीगणपत्यादि पूजन करें । २॰ साधक मध्य-भाग में बैठे । अपने सामने काँसे / ताँबे की थाली / कटोरे में तैल भर कर रखे । दूसरा सहायक व्यक्ति, साधक के चारों तरफ गोल घेरे की आकृति में, एक हजार मिट्टी के बने ‘दीपक’, इस प्रकार रखे कि सभी दीपकों के मुख साधक की तरफ रहें । साधक का स्वयं का मुख, ‘उत्तर-दिशा’ की तरफ होगा तथा उसके दाहिने हाथ ‘प्रधान-दीपक’ रहेगा – ताकि ‘प्रधान-दीपक’ का मुख ‘पश्चिम’ की ओर रहे । ३॰ साधक के वस्त्र, सहायक के वस्त्र, पूजा-सामग्री – सभी लाल होनी चाहिए । लाल चन्दन या गहरे लाल मूँगे की माला, सरसों के तेल में रोली मिली बत्तियों की रुई या तो लाल रँगी या मोली-निर्मित होनी चाहिए । कमरे की दीवार या परदे लाल रंग के हो, तो अच्छा रहेगा । ‘दीपक’ मिट्टी के तथा लाल रंग के अतिरिक्त अन्य किसी रंग का दाग / धब्बा नहीं होना चाहिए । दीपकों को दूर-दूर रखें ताकि यदि किसी दीपक में तेल कम हो जाए, तो उसमें तेल डालने कि लिए या बत्ती ऊँची करने के लिए सहयोगी व्यक्ति के आने-जाने के लिए पर्याप्त स्थान रहे । बत्तियाँ बड़ी प्रयोग करे, क्योंकि दूसरी बत्ती प्रयोग नहीं की जा सकती है । ४॰ सभी ‘दीपक’ जलाकर निम्न मन्त्र का दस सहस्र जप करें - “ॐ नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्व-दुष्टान्तकाय तपोबल-पराक्रम-परिपालित-सप्त-द्वीपाय, सर्व-राजन्य-चूडामणये, सर्व-शक्ति-मते, सहस्र-बाहवे हुं फट् (मम) अभिलषितं दर्शय-दर्शय स्वाहा ।” ५॰ जब तक दस सहस्र जप पूरे न हो जाए, तब तक ‘आसन’ से उठें नहीं । न कोई दीपक बुझने दें । मन व सभी इन्द्रियाँ ‘जप-काल′ में एकाग्र रखें । विशेषः- १॰ यदि भागे हुए व्यक्ति का चित्र ‘प्रयोग’ स्थान पर रख सकें, तो अच्छा रहेगा । २॰ यदि साधक को लगे कि ‘मन्त्र’ बड़ा है तथा एकासन पर पूरा जप सम्भव नहीं है, तो सहयोगी रखे जा सकते हैं । सहयोगी एक या कई हो, परन्तु सच्चरित्र व शुद्ध उच्चारण करने वाले होने चाहिए । सहयोगियों के वस्त्रादि का विधान साधक की तरह ही रहेगा । ३॰ ‘जप’ पूरा होने पर, अभिलषित व्यक्ति की हालत व स्थान आदि सामने रखे हुए तैल में प्रत्यक्ष चित्र के समान स्पष्ट हो जाते हैं । ४॰ प्रयोग को दिग्-दर्शन मानें, केवल पढ़ कर उपयोग में न लें, किसी विद्वान के मार्ग-दर्शन में ही उपयोग करें ।...

यदि आपके लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी आपके सामान की बिक्री निरन्तर घटती जा रही हो, तो बिक्री में वृद्धि हेतु किसी भी मास के शुक्ल पक्ष के गुरुवार के दिन से निम्नलिखित क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए - व्यापार स्थल अथवा दुकान के मुख्य द्वार के एक कोने को गंगाजल से धोकर स्वच्छ कर लें । इसके उपरान्त हल्दी से स्वस्तिक बनाकर उस पर चने की दाल और गुड़ थोड़ी मात्रा में रख दें । इसके बाद आप उस स्वस्तिक को बार-बार नहीं देखें । इस प्रकार प्रत्येक गुरुवार को यह क्रिया सम्पन्न करने से बिक्री में अवश्य ही वृद्धि होती है । इस प्रक्रिया को कम-से-कम 11 गुरुवार तक अवश्य करें ।

यदि कोई शत्रु आपसी जलन या द्वेष, व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण आप पर तंत्र-मंत्र का कोई प्रयोग करके आपके व्यवसाय में बाधा डाल रहा हो, तो ईसे में नीचे लिखे सरल शाबर मंत्र का प्रयोग करके आप अपनी तथा अपने व्यवसाय की रक्षा कर सकते हैं । सर्वप्रथम इस मंत्र की दस माला जपकर हवन करें । मंत्र सिद्ध हो जाने पर रविवार या मंगलवार की रात इसका प्रयोग करें । मंत्रः- “उलटत वेद पलटत काया, जाओ बच्चा तुम्हें गुरु ने बुलाया, सत नाम आदेश गुरु का ।” रविवार या मंगलवार की रात को 11 बजे के बाद घर से निकलकर चौराहे की ओर जाएँ, अपने साथ थोड़ी-सी शराब लेते जाएँ । मार्ग में सात कंकड़ उठाते जाएँ । चौराहे पर पहुँचकर एक कंकड़ पूर्व दिशा की ओर फेंकते हुए उपर्युक्त मंत्र पढ़ें, फिर एक दक्षिण, फिर क्रमशः पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे तथा सातवीं कंकड़ चौराहे के बीच रखकर उस शराब चढ़ा दें । यह सब करते समय निरन्तर उक्त मन्त्र का उच्चारण करते रहें । फिर पीछे पलट कर सीधे बिना किसी से बोले और बिना पीछे मुड़कर देखे अपने घर वापस आ जाएँ । घर पर पहले से द्वार के बाहर पानी रखे रहें । उसी पानी से हाथ-पैर धोकर कुछ जल अपने ऊपर छिड़क कर, तब अन्दर जाएँ । एक बात का अवश्य ध्यान रखें कि आते-जाते समय आपके घर का कोई सदस्य आपके सामने न पड़े और चौराहे से लौटते समय यदि आपको कोई बुलाए या कोई आवाज सुनाई दे, तब भी मुड़कर न देखें ।

श्रीसुदर्शन-चक्र-विद्या १॰ रोग, बाधा-निवारक प्रयोग अपने सामने भगवान् विष्णु या भगवान् कृष्ण या भगवान् दत्तात्रेय की मूर्ति रखे। यथा-शक्ति मूर्ति का पूजन करे। पहले से तैयार व सिद्ध ‘श्रीसुदर्शन-चक्र’ का पूजन करे। पूजन में गो-घृत का दीपक, सुन्धित धूप, श्वेत पदार्थों का नैवेद्य (दूध-शक्कर, दूध-भात, दही-भात, खीर आदि) तथा पुष्प चढ़ाए। पूजन के बाद प्रार्थना करे। बाधा, रोग-निवारण हेतु विधिवत् संकल्प कर जल छोड़े। फिर पहले से तैयार सिद्ध किए हुए ‘श्रीसुदर्शन-चक्र’ को किसी विद्युत-पंखे के ब्लेड्स निकालकर रॉड में चक्र को स्क्रू द्वारा पक्का किया जा सकता है। अब इस ‘चक्र’ लगे पंखे को चालू करके उसके सामने ताँबे या चाँदी के पात्र में गंगा-जल रखे। पात्र में रखे गंगा-जल के ऊपर हाथ रखकर ‘श्रीसुदर्शन-चक्र-माला-मन्त्र‘ को १ या ३ या ११ या १८ बार पढ़े। पढ़ने के बाद पंखे को बन्द करे और सुदर्शन-चक्र द्वारा अभिमन्त्रित जल को काँच की बोतल में भर-कर पवित्र स्थान में सुरक्षित रखे। इस जल को अभिचार-बाधा, पिशाच-बाधा या असाध्य बाधा से ग्रस्त व्यक्ति को तीन दिन आचमन-स्वरुप देने से बाधाएँ नष्ट होंगी। अधिक दिन प्रयोग करने पर पक्षाघात, धनुर्वात (टिटेनस) के रोग भी दूर हो सकते हैं। अभीमन्त्रित जल के मण्डल (वृत्त) में रोगी को रखने से भी बाधाएँ नष्ट होती है। उक्त प्रकार से ‘सुदर्शन-चक्र-माला-मन्त्र’ द्वारा औषधियों को भी अभिमन्त्रित किया जा सकता है। इससे रोगी को शीघ्र लाभ होता है। विभूति को अभिमन्त्रित कर बाधा-ग्रस्त व्यक्ति को अपने पास रखने हेतु दिया जा सकता है। इससे अभिचार-प्रयोगों का प्रभाव पूर्णतया नष्ट हो जाता है। अभिमन्त्रित जल का प्रोक्षण (मार्जन) अन्न, वस्त्र, खाद्य-पदार्थ आदि पर करने से उनके दोष भी दूर होते हैं। अभिचार-पीडित व्यक्ति को उक्त प्रकार से अभिमन्त्रित जल से क्रोध-पूर्वक प्रताडित करने से अभिचार तुरन्त दूर होता है।रक्षा-प्रयोग यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक बीमार हो या बाह्य-बाधा, अभिचार-प्रयोग आदि द्वारा विशेषतया पीड़ित हो, तो उसके लिए निम्न प्रकार से ‘रक्षा-प्रयोग’ करना चाहिए। ‘प्रयोग’ हेतु शुभ दिन, शुभ मुहूर्त आदि देखने की आवश्यकता नहीं है। प्रयोग ब्राह्म-मुहूर्त में प्रारम्भ करे। स्नान आदि से पवित्र होकर पहले ‘विनियोग’ आदि सहित ‘श्रीसुदर्शन-चक्र’ का पूजन करे। ‘विनियोग’ में, जिस व्यक्ति के लिए प्रयोग करना है, उसके नाम सहित रक्षा या संकट मुक्ति हेतु कहे। पूजन के बाद ‘श्रीसुदर्शन चक्र’ को दाहिने हाथ में लेकर अथवा उस पर दाहिना हाथ रखकर ‘श्रीसुदर्शन-चक्र-माला-मन्त्र’ का १८ बार जप करे। प्रत्येक जप के बाद – श्रीसुदर्शन-चक्र-मन्त्रः ‘अमुक’ व्यक्ति-रक्षार्थे सम्पूर्णम्’ कहे। जप के बाद चक्र को पूजा-स्थान में ही भगवान् विष्णु, भगवान् कृष्ण या भगवान् दत्तात्रेय की मूर्ति या चित्र के नीचे रखे। चक्र तीन दिन तक वहीं रखे। यदि कुछ अनुभव-परिणाम पहले दिन से दिखने लगे, तो भी प्रयोग तीन दिन तक करे। संकट-मुक्ति के बाद व्यक्ति की शक्ति के अनुसार ‘चक्र’ का पूजन करे। पूजन का प्रसाद सभी व्यक्ति ग्रहण कर सकते हैं।

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिभुवन महालक्ष्म्यै अस्मांक दारिद् र्य नाशय प्रचुर धन देहि देहि क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ ।

नवार्ण मंत्र की साधना के बारे में कुछ आवश्यक बाते ... • जप समर्पण योनी मुद्रा से कर तो कहीं ज्यादा अच्छा होगा . • नवरात्री के समाप्ति पर कुमारी कन्यायो को भोजन जरुर कराये . • मंत्र जप के दौरान आपकी माला किसी भी कपडे में ढंकी जरुर रहे , मतलब सामने न दिखे • जप काल में माला यदि टूट जाये तो गुरुमंत्र का जप करते हुए फिर से उसे पिरो ले .. व्यर्थ की आशंका मन में न लाये • ठीक कुछ ऐसा ही अगर कभी गलती से सामने जल रहा दिया यदि बुझ जाए तो . • सारी प्रक्रिया के शुरू और अंत में सद्गुरुदेब का कवच जिसे हम निखिल कवच या निखिलेश्वरानंद कवच के नाम से जानते हैं उसका पाठ जरुर करे यह आपकी सधान्त्मक उर्जा की क्षरण करने से रोकता हैं • हर दिन एक बार सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ जरुर करें और इस स्त्रोत के एक बार के पाठ के बाद एक माला नवार्ण मंत्र की जरुर करे . • सुगन्धित अगरबत्ती का प्रयोग कर सकते हैं तो अवश्य करें. • नवार्ण मंत्र में ओं शब्द न लगाये . • जब आहुति दे रहे हो तो स्वाहा का उच्चारण जरुर करे .हवन की भस्म भी पवित्र होती हैं इससे झाड़ने से या तिलक लगाने से अनेको समस्याए स्वतः ही दूर हो जाति हैं . • ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे भूमि शयन यदि कर सकते हैं तो अवश्य करे . • मंत्र जप करने से पहले माला को अपने माथे से अवश्य स्पर्श करा लेना चाहिए .. • माला यन्त्र अदि को जानवरों के संपर्क से बचाना चाहिए . • नवरात्री काल का हर क्षण हर पल बहुत ही पवित्र हैं तो हर पल का उपयोग किया जा सकता हैं . पर यदि मंत्र जप रात्रि काल में हो तो बहुत ही अच्छा होगा . • ये सरल से नियम हैं इनका पालन करे और ज्यादा से ज्यादा आपको लाभ मिले ……….

इसके अलावा कइ अन्य पदार्थ भी शिवलिंग पर चढाये जाते हैं, जिनमें से कुछ के विषय में निम्नानुसार मान्यतायें हैं:- सहस्राभिषेक एक हजार कनेर के पुष्प चढाने से रोगमुक्ति होती है । एक हजार धतूरे के पुष्प चढाने से पुत्रप्रदायक माना गया है । एक हजार आक या मदार के पुष्प चढाने से प्रताप या प्रसिद्धि बढती है । एक हजार चमेली के पुष्प चढाने से वाहन सुख प्राप्त होता है । एक हजार अलसी के पुष्प चढाने से विष्णुभक्ति व विष्णुकृपा प्राप्त होती है । एक हजार जूही के पुष्प चढाने से समृद्धि प्राप्त होती है । एक हजार सरसों के फूल चढाने से शत्रु की पराजय होती है । लक्षाभिषेक एक लाख बेलपत्र चढाने से कुबेरवत संपत्ति मिलती है । एक लाख कमलपुष्प चढाने से लक्ष्मी प्राप्ति होती है । एक लाख आक या मदार के पत्ते चढाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है । एक लाख अक्षत या बिना टूटे चावल चढाने से लक्ष्मी प्राप्ति होती है । एक लाख उडद के दाने चढाने से स्वास्थ्य लाभ होता है । एक लाख दूब चढाने से आयुवृद्धि होती है । एक लाख तुलसीदल चढाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है । एक लाख पीले सरसों के दाने चढाने से शत्रु का विनाश होता है ।

आपकी समस्याएं- - क्या आप अपने जीवन से तंग आ चुके हैं? - क्या आप धन की कमी से परेशान हैं? - क्या आप पारिवारिक कलह से झुंझलाहट व क्रोध में रहते हैं। - आप बच्चों की शादी से संकट में हैं? - क्या आप कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाकर थक चुके हैं? - क्या आपके ऊपर या परिजनों पर बुरी नजर लगी है? - क्या आप हमेशा भाग्य को दोष देते रहते हैं? - क्या आपका व्यापार-धंधा, उद्योग ठप है? - क्या आपको नौकरी में प्रमोशन नहीं मिल रहा? - क्या आप किसी को अपने वश में करना चाहते हैं? - क्या आपकी जमीन, जायदाद जबरन हड़प ली है? - क्या आप कोई नई नौकरी की तलाश में हैं? - क्या आप एक अच्छा इंसान बनना चाहते हैं? - क्या आपको मकान बनवाने में कई अड़चनें आ रही हैं? - क्या आप अपनी धर्मपत्नी से परेशान हैं? - क्या आप अपने पति की बुरी आदतें सुधारना चाहती हैं? - क्या आपका बच्चा/बच्ची गुम हो गया है और सब प्रयासों के बावजूद वह नहीं मिल रहा है। - क्या आप लव-मैरिज करना चाहते हैं? - क्या आप अपनी सास को सुधारना चाहती हैं? - क्या आपका कहना आपके बच्चे नहीं मानते? - क्या आप अपने बच्चों को परीक्षा में अच्छे नंबर दिलाना चाहते हैं? - क्या आप बार-बार दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं? - क्या आपके घर में बार-बार दुर्घटनाएं घटित हो रही हैं? …

मनोकामना पूर्ति के अचूक गुप्त उपाय हर मनुष्य की कुछ मनोकामनाएं होती है। कुछ लोग इन मनोकामनाओं को बता देते हैं तो कुछ नहीं बताते। चाहते सभी हैं कि किसी भी तरह उनकी मनोकामना पूरी हो जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। यदि आप चाहते हैं कि आपकी सोची हर मुराद पूरी हो जाए तो नीचे लिखे प्रयोग करें। इन टोटकों को करने से आपकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगी। उपाय—- - तुलसी के पौधे को प्रतिदिन जल चढ़ाएं तथा गाय के घी का दीपक लगाएं। - रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्रीगणेश की प्रतिमा बनाएं फिर उन्हें खीर का भोग लगाएं। लाल कनेर के फूल तथा चंदन आदि के उनकी पूजा करें। तत्पश्चात गणेशजी के बीज मंत्र (ऊँ गं) के अंत में नम: शब्द जोड़कर 108 बार जप करें। - सुबह गौरी-शंकर रुद्राक्ष शिवजी के मंदिर में चढ़ाएं। - सुबह बेल पत्र (बिल्ब) पर सफेद चंदन की बिंदी लगाकर मनोरथ बोलकर शिवलिंग पर अर्पित करें। - बड़ के पत्ते पर मनोकामना लिखकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोरथ पूर्ति होती है। मनोकामना किसी भी भाषा में लिख सकते हैं। - नए सूती लाल कपड़े में जटावाला नारियल बांधकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। इन प्रयोगों को करने से आपकी सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूरी हो जाएंगी। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..

देवस्तुति......................................................................................................... ॐ विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् | अनेकरूपं दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम् || || उन विष्णु को हम वंदन करते हैं जो अजेय हैं , महाविष्णु हैं , महेश्वर है , सभीके स्वामी हैं , जो असुरों के संहार कर्ता हैं , जिनके अनेक स्वरूप हैं और जो पुरुषोत्तम हैं !

भोज पत्र यंत्रों के जब प्रयोग सामने आते हैं तो एक सामान्य साधक का यह सोचना स्वाभाविक हैं की इन्हें बनाया कैसे जाये . दूसरा यह भोज पत्र क्या हैं , क्या इसमें भी कुछ गुणवत्ता देखना जरुरी हैं . भोज पत्र पर यंत्र बनाना कहीं ज्यादा उचित माना गया हैं .यु तो काल अवधि को दृष्टिगत रखते हुए चांदी ताम्बे और स्वर्ण पर भी निर्माण देखने में आया गया हैं कतिपय विशष्ट यंत्रो के साथ यदि धातुओं से जुडी हुयी कुछ विशष्ट ता हैं तो यह अलग बात हैं क्योंकि हर धातु का अपना एक अलग ही गुण हैं जो मानव को प्रभावित भी करता हैं हैं कुछ धातुये अलग तत्व को तो कुछ अलग तत्वों की प्रतिनिधि होती हैं , यहाँ तत्व से तात्पर्य सत रज तम से हैं . और किसके लिए किस प्रकार की व्यवस्था हैं यह तो कोई योग्य ही सामने रख सकता हैं, क्योंकि अगर यह विज्ञानं हैं तो सारे कार्य कलाप में एक निश्चित परिणाम की प्राप्ति के लिए एक निश्चित तरीका भी तो उपयोग होगा. भोज पत्र एक वृक्ष का नाम हैं और इसकी छाल ही भोज पत्र के नाम से बिकती हैं यह एक और भूरे रंग की तो दूसरी और सफ़ेद रंग की होती हैं भूरे रंग को ही लाल कह कर बाजार में उपलब्ध कराया जाता हैं ., ध्यान रहे भोज पत्र की यह छाल जिस पर यह यन्त्र बनाया जाना हैं वह साफ़ सुथरा और टुटा फूटा न हो .और इसको बाजार से ले आये साथ ही यह तो एक कागज़ की तरह का होता हैं तो जितना बड़ा यन्त्र हो उस आकार का इसको काट कर टुकड़ा लेना चाहिए. यंत्र के प्रयोग जिनमे यंत्रो को धारण करने का निर्देश होता हैं उन्हें सामन्यतः भोज पत्र में ही बना कर फिर बाज़ार में मिल रहे विभिन्न ताबीजो के अनुसार से उनके अंदर भर कर प्रयोग करना चाहिए .ताबीज की धातु भी यदि निर्देशित हो तो उसका पालन करे या फिर जो भी धातु या त्रि धातु का आपको ठीक लगे उसका उपयोग करे .. जितना अच्छा और उच्च कोटि का भोज पत्र होगा उतना ही अच्छा हैंहाँ यदि निर्देशित हो तो आप इन यंत्रो को अच्छे से मधवा भी सकते हैं .इन यंत्रो के निर्माण के लिए महा पर्व ही नहीं बल्कि कोई भी शुभ समय लिया जा सकता हैं और इस बात की जानकारी तो आप सदगुरुदेव द्वारा रचित “काल निर्णय “ नाम के ग्रथ से जान सकतेहैं फिर भी यह भी नहीं हो पा रहा हो हर दिन दिन के १२ बजे एक महूर्त होता हैं जिसे अभिजीत महूर्त कहते हैं उस समय भी उपयोग कर सकते हैं , हलाकि जैसा निर्देशित किया गया हो उस यंत्र के निर्माण प्रक्रिया के बारे में वैसा किया भी जाना चहिये . और जब यन्त्र का निर्माण हो जाये तो अब उसकी पूजन कैसे करना हैं यह भी एक आवश्यक बात हैं क्योंकि जा की रही भावना जैसी ..

गोमती चक्र : कुछ विशेष उपाए : - १. दुश्मन तंग कर रहे हों तो तीन गोमती चक्रों पर दुश्मन के नाम लिख कर जमीन में गाड दें . दुश्मन परास्त हो जाएंगे. २. व्योपार बदने के लिए दो गोमती चक्र लाल कपडे में बाँध कर चौखट पे इस तरह से लटका दें कि ग्राहक उसके नीचे से गुजरें , इस से ग्राहक ज्यादा आयेंगे. ३. सरकार की तरफ से सम्मान हासिल करने के लिए और अटके काम पूरे करने के लिए दो गोमती चक्र किसी ब्राह्मण को दान कर दें. ४. बार बार गर्भपात हो रह हो तो दो गोमती चक्र लाल कपडे में बाँध कर कमर से बाँध दें. ५. यदि प्रमोशन नही हो रही तो एक गोमती चक्र शिव मन्दिर में चढ़ा दें. ६. दुर्भाग्य दूर करने के लिए तीन गोमती चक्रों का चूर्ण बनाकर घर के आगे बिखेर दें . ७.पुत्र प्राप्ति के लिए पांच गोमती चक्र लेकर किसी तालाब या नदी में प्रवाह करें, मन्त्र पढ़ते हुए - हिली हिली मिलि मिलि चिली चिली हुक ८. पति पत्नी का झगडा ख़तम करने के लिए तीन गोमती चक्र हलूं बलजाद कह्कर घर के दक्षिण में फेंकें . ९ कचहरी जाते समय एक गोमती चक्र घर के बहर रख कर अपना पहला कदम उस पर राख कर जाएँ.गोमती चक्र : कुछ विशेष उपाए : - १. दुश्मन तंग कर रहे हों तो तीन गोमती चक्रों पर दुश्मन के नाम लिख कर जमीन में गाड दें . दुश्मन परास्त हो जाएंगे. २. व्योपार बदने के लिए दो गोमती चक्र लाल कपडे में बाँध कर चौखट पे इस तरह से लटका दें कि ग्राहक उसके नीचे से गुजरें , इस से ग्राहक ज्यादा आयेंगे. ३. सरकार की तरफ से सम्मान हासिल करने के लिए और अटके काम पूरे करने के लिए दो गोमती चक्र किसी ब्राह्मण को दान कर दें. ४. बार बार गर्भपात हो रह हो तो दो गोमती चक्र लाल कपडे में बाँध कर कमर से बाँध दें. ५. यदि प्रमोशन नही हो रही तो एक गोमती चक्र शिव मन्दिर में चढ़ा दें. ६. दुर्भाग्य दूर करने के लिए तीन गोमती चक्रों का चूर्ण बनाकर घर के आगे बिखेर दें . ७.पुत्र प्राप्ति के लिए पांच गोमती चक्र लेकर किसी तालाब या नदी में प्रवाह करें, मन्त्र पढ़ते हुए - हिली हिली मिलि मिलि चिली चिली हुक ८. पति पत्नी का झगडा ख़तम करने के लिए तीन गोमती चक्र हलूं बलजाद कह्कर घर के दक्षिण में फेंकें . ९ कचहरी जाते समय एक गोमती चक्र घर के बहर रख कर अपना पहला कदम उस पर राख कर जाएँ.

व्यापार वृधि के लिए यदि परिश्रम के पश्चात् भी कारोबार ठप्प हो, या धन आकर खर्च हो जाता हो तो यह टोटका काम में लें। किसी गुरू पुष्य योग और शुभ चन्द्रमा के दिन प्रात: हरे रंग के कपड़े की छोटी थैली तैयार करें। श्री गणेश के चित्र अथवा मूर्ति के आगे “संकटनाशन गणेश स्तोत्र´´ के 11 पाठ करें। तत्पश्चात् इस थैली में 7 मूंग, 10 ग्राम साबुत धनिया, एक पंचमुखी रूद्राक्ष, एक चांदी का रूपया या 2 सुपारी, 2 हल्दी की गांठ रख कर दाहिने मुख के गणेश जी को शुद्ध घी के मोदक का भोग लगाएं। फिर यह थैली तिजोरी या कैश बॉक्स में रख दें। गरीबों और ब्राह्मणों को दान करते रहे। आर्थिक स्थिति में शीघ्र सुधार आएगा। 1 साल बाद नयी थैली बना कर बदलते रहें।

किसी शनिवार को, यदि उस दिन `सर्वार्थ सिद्धि योग’ हो तो अति उत्तम सांयकाल अपनी लम्बाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप लें। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़ें। उसे स्वच्छ जल से धोकर पोंछ लें। तब पत्ते पर अपनी कामना रुपी नापा हुआ लाल रेशमी सूत लपेट दें और पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएँ दूर होती हैं और कामनाओं की पूर्ति होती है।

जिन व्यक्तियों को लाख प्रयत्न करने पर भी स्वयं का मकान न बन पा रहा हो, वे इस टोटके को अपनाएं। प्रत्येक शुक्रवार को नियम से किसी भूखे को भोजन कराएं और रविवार के दिन गाय को गुड़ खिलाएं। ऐसा नियमित करने से अपनी अचल सम्पति बनेगी या पैतृक सम्पति प्राप्त होगी। अगर सम्भव हो तो प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् निम्न मंत्र का जाप करें। “ॐ पद्मावती पद्म कुशी वज्रवज्रांपुशी प्रतिब भवंति भवंति।।´´

सोमवार के दिन एक रूमाल, 5 गुलाब के फूल, 1 चांदी का पत्ता, थोड़े से चावल तथा थोड़ा सा गुड़ लें। फिर किसी विष्णुण्लक्ष्मी जी के मिन्दर में जा कर मूर्त्ति के सामने रूमाल रख कर शेष वस्तुओं को हाथ में लेकर 21 बार गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए बारी-बारी इन वस्तुओं को उसमें डालते रहें। फिर इनको इकट्ठा कर के कहें की `मेरी परेशानियां दूर हो जाएं तथा मेरा कर्जा उतर जाए´। यह क्रिया आगामी 7 सोमवार और करें। कर्जा जल्दी उतर जाएगा तथा परेशानियां भी दूर हो जाएंगी।

सर्वप्रथम 5 लाल गुलाब के पूर्ण खिले हुए फूल लें। इसके पश्चात् डेढ़ मीटर सफेद कपड़ा ले कर अपने सामने बिछा लें। इन पांचों गुलाब के फुलों को उसमें, गायत्री मंत्र 21 बार पढ़ते हुए बांध दें। अब स्वयं जा कर इन्हें जल में प्रवाहित कर दें। भगवान ने चाहा तो जल्दी ही कर्ज से मुक्ति प्राप्त होगी।

घर में बार-बार धन हानि हो रही हो तों वीरवार को घर के मुख्य द्वार पर गुलाल छिड़क कर गुलाल पर शुद्ध घी का दोमुखी (दो मुख वाला) दीपक जलाना चाहिए। दीपक जलाते समय मन ही मन यह कामना करनी चाहिए की `भविष्य में घर में धन हानि का सामना न करना पड़े´। जब दीपक शांत हो जाए तो उसे बहते हुए पानी में बहा देना चाहिए।

नए कारोबार की शुरुआत के लिए नया कारोबार, नई दुकान या कोई भी नया कार्य करने से पूर्व मिट्टी के पांच पात्र लें जिसमें सवाकिलो सामान आ जाएं। प्रत्येक पात्र में सवा किलो सफेद तिल, सवा किलो पीली सरसों, सवा किलो उड़द, सवा किलो जौ, सवा किलो साबुत मूंग भर दें। मिट्टी के ढक्कन से ढंक कर सभी पात्र को लाल कपड़े से मुंह बांध दें और अपने व्यावसायकि स्थल पर इन पांचों कलश को रख दें। वर्ष भर यह कलश अपनी दुकान में रखें। ग्राहकों का आगमन बड़ी सरलता से बढ़ेगा और कारोबारी समस्या का निवारण भी होगा। एक वर्ष के बाद इन संपूर्ण पात्रों को अपने ऊपर से 11 बार उसार कर बहते पानी में प्रवाह कर दें। और नये पात्र भरकर रख दें।

कुछ लक्षणों को देखते ही व्यक्ति के मन में आषंका उत्पन्न हो जाती है कि उसका कार्य पूर्ण नहीं होगा। कार्य की अपूर्णता को दर्षाने वाले ऐसे ही कुछ लक्षणों को हम अपषकुन मान लेते हैं। अपशकुनों के बारे में हमारे यहां काफी कुछ लिखा गया है, और उधर पष्चिम में सिग्मंड फ्रॉयड समेत अनेक लेखकों-मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी लिखा है। यहां पाठकों के लाभार्थ घरेलू उपयोग की कुछ वस्तुओं, विभिन्न जीव-जंतुओं, पक्षियों आदि से जुड़े कुछ अपषकुनों का विवरण प्रस्तुत है। झाड़ू का अपषकुन • नए घर में पुराना झाड़ू ले जाना अषुभ होता है। • उलटा झाडू रखना अपषकुन माना जाता है। • अंधेरा होने के बाद घर में झाड़ू लगाना अषुभ होता है। इससे घर में दरिद्रता आती है। • झाड़ू पर पैर रखना अपषकुन माना जाता है। इसका अर्थ घर की लक्ष्मी को ठोकर मारना है। • यदि कोई छोटा बच्चा अचानक झाड़+ू लगाने लगे तो अनचाहे मेहमान घर में आते हैं। • किसी के बाहर जाते ही तुरंत झाड़ू लगाना अषुभ होता है। दूध का अपषकुन • दूध का बिखर जाना अषुभ होता है। • बच्चों का दूध पीते ही घर से बाहर जाना अपषकुन माना जाता है। • स्वप्न में दूध दिखाई देना अशुभ माना जाता है। इस स्वप्न से स्त्री संतानवती होती है। पशुओं का अपषकुन • किसी कार्य या यात्रा पर जाते समय कुत्ता बैठा हुआ हो और वह आप को देख कर चौंके, तो विन हो। • किसी कार्य पर जाते समय घर से बाहर कुत्ता शरीर खुजलाता हुआ दिखाई दे तो कार्य में असफलता मिलेगी या बाधा उपस्थित होगी। • यदि आपका पालतू कुत्ता आप के वाहन के भीतर बार-बार भौंके तो कोई अनहोनी घटना अथवा वाहन दुर्घटना हो सकती है। • यदि कीचड़ से सना और कानों को फड़फड़ाता हुआ दिखाई दे तो यह संकट उत्पन्न होने का संकेत है। • आपस में लड़ते हुए कुत्ते दिख जाएं तो व्यक्ति का किसी से झगड़ा हो सकता है। • शाम के समय एक से अधिक कुत्ते पूर्व की ओर अभिमुख होकर क्रंदन करें तो उस नगर या गांव में भयंकर संकट उपस्थित होता है। • कुत्ता मकान की दीवार खोदे तो चोर भय होता है। • यदि कुत्ता घर के व्यक्ति से लिपटे अथवा अकारण भौंके तो बंधन का भय उत्पन्न करता है। • चारपाई के ऊपर चढ़ कर अकारण भौंके तो चारपाई के स्वामी को बाधाओं तथा संकटों का सामना करना पड़ता है। • कुत्ते का जलती हुई लकड़ी लेकर सामने आना मृत्यु भय अथवा भयानक कष्ट का सूचक है। • पषुओं के बांधने के स्थान को खोदे तो पषु चोरी होने का योग बने।

अपषकुनों से मुक्ति तथा बचाव के उपाय विभिन्न अपशकुनों से ग्रस्त लोगों को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए। यदि काले पक्षी, कौवा, चमगादड़ आदि के अपषकुन से प्रभावित हों तो अपने इष्टदेव का ध्यान करें या अपनी राषि के अधिपति देवता के मंत्र का जप करें तथा धर्मस्थल पर तिल के तेल का दान करें। अपषकुनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए धर्म स्थान पर प्रसाद चढ़ाकर बांट दें। छींक के दुष्प्रभाव से बचने के लिए निम्नोक्त मंत्र का जप करें तथा चुटकी बजाएं। क्क राम राम रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम जपेत्‌ तुल्यम्‌ राम नाम वरानने॥ अषुभ स्वप्न के दुष्प्रभाव को समाप्त करने के लिए महामद्यमृत्युंजय के निम्नलिखित मंत्र का जप करें। क्क ह्रौं जूं सः क्क भूर्भुवः स्वः क्क त्रयम्बकम्‌ यजामहे सुगन्धिम्‌ पुच्च्िटवर्(नम्‌ उर्वारूकमिव बन्धनान्‌ मृत्योर्मुक्षीयमाऽमृतात क्क स्वः भुवः भूः क्क सः जूं ह्रौं॥क्क॥ श्री विष्णु सहस्रनाम पाठ भी सभी अपषकुनों के प्रभाव को समाप्त करता है। सर्प के कारण अषुभ स्थिति पैदा हो तो जय राजा जन्मेजय का जप २१ बार करें। रात को निम्नोक्त मंत्र का ११ बार जप कर सोएं, सभी अनिष्टों से भुक्ति मिलेगी। बंदे नव घनष्याम पीत कौषेय वाससम्‌। सानन्दं सुंदरं शुद्धं श्री कृष्ण प्रकृते परम्‌॥

भारतीय समाज में नजर लगना और लगाना एक बहु प्रचलित शब्द है। लगभग प्रत्येक परिवार में नजर दोष निवारण के उपाय किए जाते हैं। घरेलू महिलाओं का मानना है कि बच्चों को नजर अधिक लगती है। बच्चा यदि दूध पीना बंद कर दे तो भी यही कहा जाता है कि भला चंगा था, अचानक नजर लग गई। लेकिन क्या नजर सिर्फ बच्चों को ही लगती है? नहीं। यदि ऐसा ही हो तो फिर लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि मेरे काम धंधे को नजर लग गई। नया कपड़ा, जेवर आदि कट-फट जाएं, तो भी यही कहा जाता है कि किसी की नजर ल्रग गई। लोग अक्सर पूछते हैं कि नजर लगती कैसे है? इसके लक्षण क्या हैं? नजर लगने पर उससे मुक्ति के क्या उपाय किए जाएं? लोगों की इसी जिज्ञासा को ध्यान में रखकर यहां नजर के लक्षण, कारण और निवारण के उपाय का विवरण प्रस्तुत है। नजर के लक्षण नजर से प्रभावित लोगों का कुछ भी करने को मन नहीं करता। वे बेचैन और बुझे-बुझे-से रहते है। बीमार नहीं होने के बावजूद शिथिल रहते हैं। उनकी मानसिक स्थिति अजीब-सी रहती है, उनके मन में अजीब-अजीब से विचार आते रहते हैं। वे खाने के प्रति अनिच्छा जाहिर करते हैं। बच्चे प्रतिक्रिया व्यक्त न कर पाने के कारण रोने रोने लगते हैं। कामकाजी लोग काम करना भूल जाते हैं और अनर्गल बातें सोचने लगते हैं। इस स्थिति से बचाव के लिए वे चिकित्सा भीं करवाना नहीं चाहते। विद्यार्थियों का मन पढ़ाई से उचट जाता है। नौकरीपेशा लोग सुनते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। इस प्रकार नजर दोष के अनेकानेक लक्षण हो सकते हैं। नजर किसे लगती है? नजर सभी प्राणियों, मानव निर्मित सभी चीजों आदि को लग सकती है। नजर देवी देवताओं को भी लगती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान शिव और पार्वती के विवाह के समय सुनयना ने शिव की नजर उतारी थी। कब लगती है नजर? कोई व्यक्ति जब अपने सामने के किसी व्यक्ति अथवा उसकी किसी वस्तु को ईर्ष्यावश देखे और फिर देखता ही रह जाए, तो उसकी नजर उस व्यक्ति अथवा उसकी वस्तु को तुरत लग जाती है। ऐसी नजर उतारने हेतु विशेष प्रयत्न करना पड़ता है अन्यथा नुकसान की संभावना प्रबल हो जाती है। नजर किस की लग सकती है? किसी व्यक्ति विशेष को अपनी ही नजर लग सकती है। ऐसा तब होता है जब वह स्वयं ही अपने बारे में अच्छे या बुरे विचारव्यक्त करता है अथवा बार-बार दर्पण देखता है। उससे ईर्ष्या करने वालों, उससे प्रेम करने वालों और उसके साथ काम करने वालों की नजर भी उसे लग सकती है। यहां तक की किसी अनजान व्यक्ति, किसी जानवर या किसी पक्षी की नजर भी उसे लग सकती है। नजर की पहचान क्या है? नजर से प्रभावित व्यक्ति की निचली पलक, जिस पर हल्के रोएंदार बाल होते हैं, फूल सी जाती है। वास्तव में यही नजर की सही पहचान है। किंतु, इसकी सही पहचान कोई पारखी ही कर सकता है। नजर दोष का वैज्ञानिक आधार क्या है? कभी-कभी हमारे रोमकूप बंद हो जाते हैं। ऐसे में हमारा शरीर किसी भी बाहरी क्रिया को ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। उसे हवा, सर्दी और गर्मी की अनुभूति नहीं हो पाती। रोमकूपों के बंद होने के फलस्वरूप व्यक्ति के शरीर का भतरी तापमान भीतर में ही समाहित रहता है और बाहरी वातावरण का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे उसके शरीर में पांच तत्वों का संतुलन बिगड़ने लगता है और शरीर में आइरन की मात्रा बढ़ जाती है। यही आइरन रोमकूपों से न निकलने के कारण आंखों से निकलने की चेष्टा करता है, जिसके फलस्वरूप आंखें की निचली पलक फूल या सूज जाती है। बंद रोमकूपों को खोलने के लिए अनेकानेक विधियों से उतारा किया जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु में आकर्षण शक्ति होती है अर्थात प्रत्येक वस्तु वातावरण से स्वयं कुछ न कुछ ग्रहण करती है। आमतौर पर नजर उतारने के लिए उन्हीं वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, जिनकी ग्रहण करने की क्षमता तीव्र होती है। उदाहरण के लिए, किसी पात्र में सरसों का तेल भरकर उसे खुला छोड़ दें, तो पाएंगें कि वातावरण के साफ व स्वच्छ होने के बावजूद उस तेल पर अनेकानेक छोटे-छोटे कण चिपक जाते हैं। ये कण तेल की आकर्षण शक्ति से प्रभावित होकर चिपकते हैं। तेल की तरह ही नीबू, लाल मिर्च, कपूर, फिटकरी, मोर के पंख, बूंदी के लड्डू तथा ऐसी अन्य अनेकानेक वस्तुओं की अपनी-अपनी आकर्षण शक्ति होती है, जिनका प्रयोग नजर उतारने में किया जाता है। इस तरह उक्त तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि नजर का अपना वैज्ञानिक आधार है। ऊपरी हवाओं से बचाव के कुछ अनुभूत प्रयोग लहसुन के तेल में हींग मिलाकर दो बूंद नाक में डालने, नीम के पत्ते, हींग, सरसों, बच व सांप की केंचुली की धूनी देने तथा रविवार को काले धतूरे की जड़ हाथ में बांधने से ऊपरी बाधा दूर होती है। इसके अतिरिक्त गंगाजल में तुलसी के पत्ते व काली मिर्च पीसकर घर में छिड़कने, गायत्री मंत्र के (सुबह की अपेक्षा संध्या समय किया गया गायत्री मंत्र का जप अधिक लाभकारी होता है) जप, हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, राम रक्षा कवच या रामवचन कवच के पाठ से नजर दोष से शीघ्र मुक्ति मिलती है। साथ ही, पेरीडॉट, संग सुलेमानी, क्राइसो लाइट, कार्नेलियन जेट, साइट्रीन, क्राइसो प्रेज जैसे रत्न धारण करने से भी लाभ मिलता है। उतारा : उतारा शब्द का तात्पर्य व्यक्ति विशेष पर हावी बुरी हवा अथवा बुरी आत्मा, नजर आदि के प्रभाव को उतारने से है। उतारे आमतौर पर मिठाइयों द्वारा किए जाते हैं, क्योंकि मिठाइयों की ओर ये श्ीाघ्र आकर्षित होते हैं। उतारा करने की विधि : उतारे की वस्तु सीधे हाथ में लेकर नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति के सिर से पैर की ओर सात अथवा ग्यारह बार घुमाई जाती है। इससे वह बुरी आत्मा उस वस्तु में आ जाती है। उतारा की क्रिया करने के बाद वह वस्तु किसी चौराहे, निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दी जाती है और व्यक्ति ठीक हो जाता है। किस दिन किस मिठाई से उतारा करना चाहिए, इसका विवरण यहां प्रस्तुत है। रविवार को तबक अथवा सूखे फलयुक्त बर्फी से उतारा करना चाहिए। सोमवार को बर्फी से उतारा करके बर्फी गाय को खिला दें। मंगलवार को मोती चूर के लड्डू से उतार कर लड्डू कुत्ते को खिला दें। बुधवार को इमरती से उतारा करें व उसे कुत्ते को खिला दें। गुरुवार को सायं काल एक दोने में अथवा कागज पर पांच मिठाइयां रखकर उतारा करें। उतारे के बाद उसमें छोटी इलायची रखें व धूपबत्ती जलाकर किसी पीपल के वृक्ष के नीचे पश्चिम दिशा में रखकर घर वापस जाएं। ध्यान रहे, वापस जाते समय पीछे मुड़कर न देखें और घर आकर हाथ और पैर धोकर व कुल्ला करके ही अन्य कार्य करें।शुक्रवार को मोती चूर के लड्डू से उतारा कर लड्डू कुत्ते को खिला दें या किसी चौराहे पर रख दें। शनिवार को उतारा करना हो तो इमरती या बूंदी का लड्डू प्रयोग में लाएं व उतारे के बाद उसे कुत्ते को खिला दें। इसके अतिरिक्त रविवार को सहदेई की जड़, तुलसी के आठ पत्ते और आठ काली मिर्च किसी कपड़े में बांधकर काले धागे से गले में बांधने से ऊपरी हवाएं सताना बंद कर देती हैं। नजर उतारने अथवा उतारा आदि करने के लिए कपूर, बूंदी का लड्डू, इमरती, बर्फी, कड़वे तेल की रूई की बाती, जायफल, उबले चावल, बूरा, राई, नमक, काली सरसों, पीली सरसों मेहंदी, काले तिल, सिंदूर, रोली, हनुमान जी को चढ़ाए जाने वाले सिंदूर, नींबू, उबले अंडे, गुग्गुल, शराब, दही, फल, फूल, मिठाइयों, लाल मिर्च, झाडू, मोर छाल, लौंग, नीम के पत्तों की धूनी आदि का प्रयोग किया जाता है। स्थायी व दीर्घकालीन लाभ के लिए संध्या के समय गायत्री मंत्र का जप और जप के दशांश का हवन करना चाहिए। हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, भगवान शिव की उपासना व उनके मूल मंत्र का जप, महामृत्युंजय मंत्र का जप, मां दुर्गा और मां काली की उपासना करें। स्नान के पश्चात्‌ तांबे के लोटे से सूर्य को जल का अर्य दें। पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा स्वयं करें अथवा किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से सुनें। संध्या के समय घर में दीपक जलाएं, प्रतिदिन गंगाजल छिड़कें और नियमित रूप से गुग्गुल की धूनी दें। प्रतिदिन शुद्ध आसन पर बैठकर सुंदर कांड का पाठ करें। किसी के द्वारा दिया गया सेव व केला न खाएं। रात्रि बारह से चार बजे के बीच कभी स्नान न करें। बीमारी से मुक्ति के लिए नीबू से उतारा करके उसमें एक सुई आर-पार चुभो कर पूजा स्थल पर रख दें और सूखने पर फेंक दें। यदि रोग फिर भी दूर न हो, तो रोगी की चारपाई से एक बाण निकालकर रोगी के सिर से पैर तक छुआते हुए उसे सरसों के तेल में अच्छी तरह भिगोकर बराबर कर लें व लटकाकर जला दें और फिर राख पानी में बहा दें। उतारा आदि करने के पश्चात भलीभांति कुल्ला अवश्य करें। इस तरह, किसी व्यक्ति पर पड़ने वाली किसी अन्य व्यक्ति की नजर उसके जीवन को तबाह कर सकती है। नजर दोष का उक्त लक्षण दिखते ही ऊपर वर्णित सरल व सहज उपायों का प्रयोग कर उसे दोषमुक्त किया जा सकता है।

हम जहां रहते हैं वहां कई ऐसी शक्तियां होती हैं, जो हमें दिखाई नहीं देतीं किंतु बहुधा हम पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं जिससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो उठता है और हम दिशाहीन हो जाते हैं। इन अदृश्य शक्तियों को ही आम जन ऊपरी बाधाओं की संज्ञा देते हैं। भारतीय ज्योतिष में ऐसे कतिपय योगों का उल्लेख है जिनके घटित होने की स्थिति में ये शक्तियां शक्रिय हो उठती हैं और उन योगों के जातकों के जीवन पर अपना प्रतिकूल प्रभाव डाल देती हैं। यहां ऊपरी बाधाओं के कुछ ऐसे ही प्रमुख योगों तथा उनसे बचाव के उपायों का उल्लेख प्रस्तुत है। • लग्न में राहु तथा चंद्र और त्रिकोण में मंगल व शनि हों, तो जातक को प्रेत प्रदत्त पीड़ा होती है। • चंद्र पाप ग्रह से दृष्ट हो, शनि सप्तम में हो तथा कोई शुभ ग्रह चर राशि में हो, तो भूत से पीड़ा होती है। • शनि तथा राहु लग्न में हो, तो जातक को भूत सताता है। • लग्नेश या चंद्र से युक्त राहु लग्न में हो, तो प्रेत योग होता है। • यदि दशम भाव का स्वामी आठवें या एकादश भाव में हो और संबंधित भाव के स्वामी से दृष्ट हो, तो उस स्थिति में भी प्रेत योग होता है। • उक्त योगों के जातकों के आचरण और व्यवहार में बदलाव आने लगता है। ऐसे में उन योगों के दुष्प्रभावों से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए। • संकट निवारण हेतु पान, पुष्प, फल, हल्दी, पायस एवं इलाइची के हवन से दुर्गासप्तशती के बारहवें अध्याय के तेरहवें श्लोक सर्वाबाधा........न संशयः मंत्र से संपुटित नवचंडी प्रयोग कराएं। • दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक का पाठ करते हुए पलाश की समिधा से घृत और सीलाभिष की आहुति दें, कष्टों से रक्षा होगी। • शक्ति तथा सफलता की प्राप्ति हेतुग्यारहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक सृष्टि स्थिति विनाशानां......का उच्चारण करते हुए घी की आहुतियां दें। • शत्रु शमन हेतु सरसों, काली मिर्च, दालचीनी तथा जायफल की हवि देकर अध्याय के उनचालीसवें श्लोक का संपुटित प्रयोग तथा हवन कराएं। कुछ अन्य उपाय • महामृत्युंजय मंत्र का विधिवत्‌ अनुष्ठान कराएं। जप के पश्चात्‌ हवन अवश्य कराएं। • महाकाली या भद्रकाली माता के मंत्रानुष्ठान कराएं और कार्यस्थल या घर पर हवन कराएं। • गुग्गुल का धूप देते हुए हनुमान चालीस तथा बजरंग बाण का पाठ करें। • उग्र देवी या देवता के मंदिर में नियमित श्रमदान करें, सेवाएं दें तथा साफ सफाई करें। • यदि घर के छोटे बच्चे पीड़ित हों, तो मोर पंख को पूरा जलाकर उसकी राख बना लें और उस राख से बच्चे को नियमित रूप से तिलक लगाएं तथा थोड़ी-सी राख चटा दें।

घर की महिलाएं यदि किसी समस्या या बाधा से पीड़ित हों, तो निम्नलिखित प्रयोग करें। सवा पाव मेहंदी के तीन पैकेट (लगभग सौ ग्राम प्रति पैकेट) बनाएं और तीनों पैकेट लेकर काली मंदिर या शस्त्र धारण किए हुए किसी देवी की मूर्ति वाले मंदिर में जाएं। वहां दक्षिणा, पत्र, पुष्प, फल, मिठाई, सिंदूर तथा वस्त्र के साथ मेहंदी के उक्त तीनों पैकेट चढ़ा दें। फिर भगवती से कष्ट निवारण की प्रार्थना करें और एक फल तथा मेहंदी के दो पैकेट वापस लेकर कुछ धन के साथ किसी भिखारिन या अपने घर के आसपास सफाई करने वाली को दें। फिर उससे मेहंदी का एक पैकेट वापस ले लें और उसे घोलकर पीड़ित महिला के हाथों एवं पैरों में लगा दें। पीड़िता की पीड़ा मेहंदी के रंग उतरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। व्यापार स्थल पर किसी भी प्रकार की समस्या हो, तो वहां श्वेतार्क गणपति तथा एकाक्षी श्रीफल की स्थापना करें। फिर नियमित रूप से धूप, दीप आदि से पूजा करें तथा सप्ताह में एक बार मिठाई का भोग लगाकर प्रसाद यथासंभव अधिक से अधिक लोगों को बांटें। भोग नित्य प्रति भी लगा सकते हैं। कामण प्रयोगों से होने वाले दुष्प्रभावों से बचने के लिए दक्षिणावर्ती शंखों के जोड़े की स्थापना करें तथा इनमें जल भर कर सर्वत्र छिड़कते रहें।

क्या हैं बंधन और उनके उपाय? बंधन अर्थात् बांधना। जिस प्रकार रस्सी से बांध देने से व्यक्ति असहाय हो कर कुछ कर नहीं पाता, उसी प्रकार किसी व्यक्ति, घर, परिवार, व्यापार आदि को तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अदृश्य रूप से बांध दिया जाए तो उसकी प्रगति रुक जाती है और घर परिवार की सुख शांति बाधित हो जाती है। ये बंधन क्या हैं और इनसे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है जानने केलिए पढ़िए यह आलेख... मानव अति संवेदनशील प्राणी है। प्रकृति और भगवान हर कदम पर हमारी मदद करते हैं। आवश्यकता हमें सजग रहने की है। हम अपनी दिनचर्या में अपने आस-पास होने वाली घटनाओं पर नजर रखें और मनन करें। यहां बंधन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। किसी के घर में ८-१० माह का छोटा बच्चा है। वह अपनी सहज बाल हरकतों से सारे परिवार का मन मोह रहा है। वह खुश है, किलकारियां मार रहा है। अचानक वह सुस्त या निढाल हो जाता है। उसकी हंसी बंद हो जाती है। वह बिना कारण के रोना शुरू कर देता है, दूध पीना छोड़ देता है। बस रोता और चिड़चिड़ाता ही रहता है। हमारे मन में अनायास ही प्रश्न आएगा कि ऐसा क्यों हुआ? किसी व्यवसायी की फैक्ट्री या व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है। लोग उसके व्यापार की तरक्की का उदाहरण देते हैं। अचानक उसके व्यापार में नित नई परेशानियां आने लगती हैं। मशीन और मजदूर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जो फैक्ट्री कल तक फायदे में थी, अचानक घाटे की स्थिति में आ जाती है। व्यवसायी की फैक्ट्री उसे कमा कर देने के स्थान पर उसे खाने लग गई। हम सोचेंगे ही कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी परिवार का सबसे जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति, जो उस परिवार का तारणहार है, समस्त परिवार की धुरी उस व्यक्ति के आस-पास ही घूम रही है, अचानक बिना किसी कारण के उखड़ जाता है। बिना कारण के घर में अनावश्यक कलह करना शुरू कर देता है। कल तक की उसकी सारी समझदारी और जिम्मेदारी पता नहीं कहां चली जाती है। वह परिवार की चिंता बन जाता है। आखिर ऐसा क्यों हो गया?

कार्यालय बंधन के लक्षण • कार्यालय बराबर नहीं जाना। • साथियों से अनावश्यक तकरार। • कार्यालय में मन नहीं लगना। • कार्यालय और घर के रास्ते में शरीर में भारीपन व दर्द की शिकायत होना। • कार्यालय में बिना गलती के भी अपमानित होना। घर-परिवार में बाधा के लक्षण • परिवार में अशांति और कलह। • बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना। • आर्थिक परेशानियां। • योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन। • विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना। • परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो। • घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना। • इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना। • भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना। • पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना। व्यक्ति विशेष का बंधन • हर कार्य में विफलता। • हर कदम पर अपमान। • दिल और दिमाग का काम नहीं करना। • घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना। • शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना। • हमें मानना होगा कि भगवान दयालु है। हम सोते हैं पर हमारा भगवान जागता रहता है। वह हमारी रक्षा करता है। जाग्रत अवस्था में तो वह उपर्युक्त लक्षणों द्वारा हमें बाधाओं आदि का ज्ञान करवाता ही है, निद्रावस्था में भी स्वप्न के माध्यम से संकेत प्रदान कर हमारी मदद करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम होश व मानसिक संतुलन बनाए रखें। हम किसी भी प्रतिकूल स्थिति में अपने विवेक व अपने इष्ट की आस्था को न खोएं, क्योंकि विवेक से बड़ा कोई साथी और भगवान से बड़ा कोई मददगार नहीं है। इन बाधाओं के निवारण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं। उपाय : पूजा एवं भोजन के समय कलह की स्थिति बनने पर घर के पूजा स्थल की नियमित सफाई करें और मंदिर में नियमित दीप जलाकर पूजा करें। एक मुट्ठी नमक पूजा स्थल से वार कर बाहर फेंकें, पूजा नियमित होनी चाहिए। o इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें। o स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें। o गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें। o इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें। o जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें। o कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें। o घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें। o हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें। व्यक्तिगत बाधा निवारण के लिए o व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें और उसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा। o हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा। o अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं। o गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें। o यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें। o बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें। o पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है।

कोई परिवार संपन्न है। बच्चे ऐश्वर्यवान, विद्यावान व सर्वगुण संपन्न हैं। उनकीसज्जनता का उदाहरण सारा समाज देता है। बच्चे शादी के योग्य हो गए हैं, फिर भी उनकी शादी में अनावश्यक रुकावटें आने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है? आपके पड़ोस के एक परिवार में पति-पत्नी में अथाह प्रेम है। दोनों एक दूसरे के लिए पूर्ण समर्पित हैं। आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हैं। अचानक उनमें कटुता व तनाव उत्पन्न हो जाता है। जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के लिए पूर्ण सम्मान रखते थे, आज उनमें झगड़ा हो गया है। स्थिति तलाक की आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? हमारे घर के पास हरा भरा फल-फूलों से लदा पेड़ है। पक्षी उसमें चहचहा रहे हैं। इस वृक्ष से हमें अच्छी छाया और हवा मिल रही है। अचानक वह पेड़ बिना किसी कारण के जड़ से ही सूख जाता है। निश्चय ही हमें भय की अनुभूति होगी और मन में यह प्रश्न उठेगा कि ऐसा क्यों हुआ? हमें अक्सर बहुत से ऐसे प्रसंग मिल जाएंगे जो हमारी और हमारे आसपास की व्यवस्था को झकझोर रहे होंगे, जिनमें क्यों'' की स्थिति उत्पन्न होगी। विज्ञान ने एक नियम प्रतिपादित किया है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें निश्चय ही मनन करना होगा कि उपर्युक्त घटनाएं जो हमारे आसपास घटित हो रही हैं, वे किन क्रियाओं की प्रतिक्रियाएं हैं? हमें यह भी मानना होगा कि विज्ञान की एक निश्चित सीमा है। अगर हम परावैज्ञानिक आधार पर इन घटनाओं को विस्तृत रूप से देखें तो हम निश्चय ही यह सोचने पर विवश होंगे कि कहीं यह बंधन या स्तंभन की परिणति तो नहीं है ! यह आवश्यक नहीं है कि यह किसी तांत्रिक अभिचार के कारण हो रहा हो। यह स्थिति हमारी कमजोर ग्रह स्थितियों व गण के कारण भी उत्पन्न हो जाया करती है। हम भिन्न श्रेणियों के अंतर्गत इसका विश्लेषण कर सकते हैं। इनके अलग-अलग लक्षण हैं। इन लक्षणों और उनके निवारण का संक्षेप में वर्णन यहां प्रस्तुत है। कार्यक्षेत्र का बंधन, स्तंभन या रूकावटें दुकान/फैक्ट्री/कार्यस्थल की बाधाओं के लक्षण • किसी दुकान या फैक्ट्री के मालिक का दुकान या फैक्ट्री में मन नहीं लगना। • ग्राहकों की संख्या में कमी आना। • आए हुए ग्राहकों से मालिक का अनावश्यक तर्क-वितर्क-कुतर्क और कलह करना। • श्रमिकों व मशीनरी से संबंधित परेशानियां। • मालिक को दुकान में अनावश्यक शारीरिक व मानसिक भारीपन रहना। • दुकान या फैक्ट्री जाने की इच्छा न करना। • तालेबंदी की नौबत आना। • दुकान ही मालिक को खाने लगे और अंत में दुकान बेचने पर भी नहीं बिके।

क्या हैं बंधन और उनके उपाय? बंधन अर्थात् बांधना। जिस प्रकार रस्सी से बांध देने से व्यक्ति असहाय हो कर कुछ कर नहीं पाता, उसी प्रकार किसी व्यक्ति, घर, परिवार, व्यापार आदि को तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अदृश्य रूप से बांध दिया जाए तो उसकी प्रगति रुक जाती है और घर परिवार की सुख शांति बाधित हो जाती है। ये बंधन क्या हैं और इनसे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है जानने केलिए पढ़िए यह आलेख... मानव अति संवेदनशील प्राणी है। प्रकृति और भगवान हर कदम पर हमारी मदद करते हैं। आवश्यकता हमें सजग रहने की है। हम अपनी दिनचर्या में अपने आस-पास होने वाली घटनाओं पर नजर रखें और मनन करें। यहां बंधन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। किसी के घर में ८-१० माह का छोटा बच्चा है। वह अपनी सहज बाल हरकतों से सारे परिवार का मन मोह रहा है। वह खुश है, किलकारियां मार रहा है। अचानक वह सुस्त या निढाल हो जाता है। उसकी हंसी बंद हो जाती है। वह बिना कारण के रोना शुरू कर देता है, दूध पीना छोड़ देता है। बस रोता और चिड़चिड़ाता ही रहता है। हमारे मन में अनायास ही प्रश्न आएगा कि ऐसा क्यों हुआ? किसी व्यवसायी की फैक्ट्री या व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है। लोग उसके व्यापार की तरक्की का उदाहरण देते हैं। अचानक उसके व्यापार में नित नई परेशानियां आने लगती हैं। मशीन और मजदूर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जो फैक्ट्री कल तक फायदे में थी, अचानक घाटे की स्थिति में आ जाती है। व्यवसायी की फैक्ट्री उसे कमा कर देने के स्थान पर उसे खाने लग गई। हम सोचेंगे ही कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी परिवार का सबसे जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति, जो उस परिवार का तारणहार है, समस्त परिवार की धुरी उस व्यक्ति के आस-पास ही घूम रही है, अचानक बिना किसी कारण के उखड़ जाता है। बिना कारण के घर में अनावश्यक कलह करना शुरू कर देता है। कल तक की उसकी सारी समझदारी और जिम्मेदारी पता नहीं कहां चली जाती है। वह परिवार की चिंता बन जाता है। आखिर ऐसा क्यों हो गया?

सकल ज्वर शूल ग्रहबाधा नाशक आरोग्यदायक = धूमावती मालामंत्र ये मालामंत्र का अतिशीघ्र परिणाम दिखता है .ये मालामंत्र नाड़ीपर भूलकर भी नहीं बोलना चाहिए | बाधिक के घरपे कुछ अन्न खाया हो तो उसके दोष का तत्काल निवारण , बाहर की अशुभ शक्ति से होनेवाले बाधा से निवारण , जन्म कुंडली की अशुभ गोचर योग से होनेवाली पीड़ा का निवारण , अकारण अस्वस्थ मन:स्थिति निवारण , डोक्टर की गलती की वजह से शरीर को होनेवाली विषमय अगर क्लेशदायक पीड़ा का निवारण , सर्व प्रकार के ताप का निवारण , डोक्टर के समझ के बाहर के रोगों का निवारण , शत्रुभय से अस्वस्थ मानसिकता का निवारण , अगर व्याधि बड़ी हो तो दिन में 3 बार भी आप (सुबह-शाम-रात के समय) ये अभिमंत्रित जल दे सकते है . इस मालामंत्र के अभिमंत्रित जल से इतने सारे लाभ होते है है | कितने दिन ये अभिमंत्रितजल प्राशन करने का ? => वैसे तो इसकी को मर्यादा नहीं है , किसी किसी को 2 -3 दिन में फायदा होता है | अगर समस्या बड़ी हो तो 1 -2 महीने लग सकते है | लेकिन एक बात का ध्यान दे , की इस मालामंत्र के अभिमंत्रित जल से समस्या का निवारण होता ही है 100 % | शरीर में अगर कोई जगह पर कोई व्याधि हो रोग हो, तो उस जगह पर अपना राईट साइड का हाथ रखके माला मंत्र का 4 से 5 बार जाप करनेपर तत्क्षण आराम मिलता ही है | विशेष सूचना : अभिमंत्रित जल उस व्यक्ति को तत्क्षण दे | और इसका पाठ करने से "निखिलेश्वरानंद कवच" का पाठ जरुर करले | विधि : पूर्वाभिमुख बैठके ,आगे का संकल्प एक बार बोलके "देवदत्तस्य " के जगह पर जिसके लिए आप प्रयोग कर रहे है, उसका नाम षष्ठी प्रत्यय लगाकर उच्चारण करे .. Example के लिए अगर किसीका नाम सचिन है तो "सचिनस्य " उच्चारण करे | अगर स्वत: के जाप लिए करना हो तो "देवदत्तस्य " के जगह पर "मम" उच्चारण करे | आगे किसी लकड़ी के बजोट पर अपने सामने ताम्बे का फुलपात्र रखकर राईट साइड के हाथ की तर्जनी ,मध्यमा ,अनामिका (अंगुष्ट और करांगुली को छोड़कर ) को ताम्बे के फुलपात्र में निचे तक डुबाकर मालामंत्र का 11 बार जोरसे और स्पष्ट उच्चारण करे | संकल्प : ॐ नमो भगवती शत्रु संहारिणी सर्वरोगप्रशमिनी सकलरिपु धन-धान्यक्षयं कुरु कुरु धूमावतीश्वरी शरभशालुव पक्षिराजप्रिये अमृत कलश वरदाभय कमल कराम्बुजे जगत्क्षोभिनी "देवदत्तस्य " शरीरे वर्त्तमान वर्तीष्यमान सकलरोगं मोचय-मोचय समस्त भूतं नाशय नाशय सर्व उन्माद शमनं कुरु कुरु स्वाहा | | मूल पाठ |

…(गों जोगिन मन्त्र) आगारी जो गुरु यागे | जोगिन गुरु डणड बतियाँ | करिया बलईयाँ | री जोगन मुख अनरिता | गायति रही रतियाँ | गो जोगिन चल इन अकेलियाँ | गो मारो है तालियाँ | गो जोगिन बाँधऊँ नजरियाँ | गो जोगिन आ पहियाँ | ना आये तो दोहाई मइया बनिता की | दोहाई सलिमा पैगम्बर की | दोहाई सलाई छु | विधि :- इस मन्त्र को शुक्रवार की रात्रि में रात भर जपें और सावधन रहे | धुप-दीप जलता रहे | चमेली की पुष्प माला भी रखे और जैसे ही गों जोगिन दर्शन दे तो यह माला उसे पहना दें | और बोलोगे वो काम करेगी | जिस काम की आज्ञा दो गे वो काम करेगी | केवल आच्हे काम करेगी | बुरे काम में हानि ही देगी | इस काम को सोच विचार कर करना | कियो की सोचना आप के वाश में है |

बीज मन्त्रों के रहस्या-- शास्त्रों में अनेकों बीज मन्त्र कहे हैं, आइये बीज मन्त्रों का रहस्य जाने! १--क्रीं--इसमें चार वर्ण हैं! [क,र,ई,अनुसार] क--काली, र--ब्रह्मा, ईकार--दुःखहरण! अर्थ--ब्रह्म-शक्ति-संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करे! २--श्रीं----चार स्वर व्यंजन---[श, र, ई, अनुसार]=श--महालक्ष्मी, र-धन-ऐश्वर्य, ई-- तुष्टि, अनुस्वार-- दुःखहरण! अर्थ---धन- ऐश्वर्य सम्पति, तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लाष्मी मेरे दुखों का नाश कर! ३--ह्रौं---[ह्र, औ, अनुसार] ह्र-शिव, औ-सदाशिव, अनुस्वार--दुःख हरण! अर्थ--शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे दुखों का हरण करें! ४--दूँ ---[ द, ऊ, अनुस्वार]--द- दुर्गा, ऊ--रक्षा, अनुस्वार करना! अर्थ-- माँ दुर्गे मेरी रक्षा करो! यह दुर्गा बीज है! ५--ह्रीं --यह शक्ति बीज अथवा माया बीज है! [ह,र,ई,नाद, बिंदु,]---ह-शिव, र-प्रकृति,ई--महामाया, नाद-विश्वमाता, बिंदु-दुःख हर्ता! अर्थ--शिवयुक्त विश्वमाता मेरे दुखों का हरण करे! ६--ऐं--[ऐ, अनुस्वार]-- ऐ- सरस्वती, अनुस्वार-दुःखहरण! अर्थ--- हे सरस्वती मेरे दुखों का अर्थात अविद्या का नाश कर! ७--क्लीं-- इसे काम बीज कहते हैं![क, ल,ई अनुस्वार]--क--कृष्ण अथवा काम,ल--इंद्र,ई--तुष्टि भाव, अनुस्वार-सुख दाता! कामदेव रूप श्री कृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य दें! ८--गं--यह गणपति बीज है![ग, अनुस्वार] ग-गणेश, अनुस्वार-दुःखहरता! अर्थ-- श्री गणेश मेरे विघ्नों को दुखों को दूर करें! ९--हूँ--[ ह, ऊ, अनुस्वार]--ह--शिव, ऊ-- भैरव, अनुस्वार-- दुःखहरता] यह कूर्च बीज है! अर्थ--असुर-सहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें! १०--ग्लौं--[ग,ल,औ,बिंदु]--ग-गणेश, ल--व्यापक रूप, आय--तेज, बिंदु-दुखहरण! अर्थात--व्यापक रूप विघ्नहर्ता गणेश अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें! ११--स्त्रीं--[स,त,र,ई,बिंदु]--स--दुर्गा, त--तारण, र--मुक्ति, ई--महामाया, बिंदु--दुःखहरण! अर्थात--दुर्गा मुक्तिदाता, दुःखहर्ता,, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करें! १२--क्षौं--[क्ष,र,औ,बिंदु] क्ष--नरीसिंह, र--ब्रह्मा, औ--ऊर्ध्व, बिंदु--दुःख-हरण! अर्थात--ऊर्ध्व केशी ब्रह्मस्वरूप नरसिंह भगवान मेरे दुखों कू दूर कर! १३--वं--[व्, बिंदु]--व्--अमृत, बिंदु- दुःखहरता! [इसी प्रकार के कई बीज मन्त्र हैं] [शं-शंकर, फरौं--हनुमत, दं-विष्णु बीज, हं-आकाश बीज,यं अग्नि बीज, रं-जल बीज, लं- पृथ्वी

भूत-प्रेत बाँधने के मन्त्र (१) “बडका ताल के पेड़ माँ बँधाय जञ्जीरा । खाले माँ बाजे झाँझ-मँजीरा और बाजे तबला निशान । भाग-भाग रे भूत – मसान, पहुँचत है पञ्च-मुखा हनुमान । मोर फूँकें, मोर गुरू के फूँकें । गौरा महा-देव के फूँकें । जा रे, भूत बँधा जा । (२) “ऐठक बाँधो । बैठक बाँधो । आठ हाथ की भुइया बाँधो । बाँधो सकल शरीर । भूत आवे, भूत बाँधो । प्रेत आवे, प्रेत बाँधो । मरी मसान, चटिया बाँधो । मटिया आवे, मटिया बाँधो । बाँध देहे, फाँद देहे । लोहे की डोरी, शब्द का बन्धन । काकर बाँधे, गुरू के बाँधे । गुरू कौन ? महा-देव-पार्वती के बाँधे । जा रे, भूत बँधा जा ।” (३) “जल बाँधो, जलाजल बाँधो । जल के बाँधो पीरा । नौ नागर के राजा बाँधो, सोन के बाँधो जजीरा । भूत-प्रेत मसान बाँधो, बाँधो अपन शरीरा । काकर बाँधे, मोर गुरू के बाँधे । गुरू कौन ? गौरा-पार्वती के बाँधे । जा रे, भूत बँधा जा । दुहाई सतनाम कबीरदास जी की !” विधि – उक्त मन्त्रों को पहले १०८ बार ‘जप’ कर सिद्ध कर ले । ‘प्रयोग’ के समय सात बार भभूत पर पढ़कर फूंक मारे । इससे भूत-प्रेत आदि बँध जाते हैं ।

व्यापार बंधन मुक्ति का मन्त्र कभी-कभी अचानक ही व्यवसाय चौपट होता हुआ प्रतीत होता है। सम्भव है धन्धे को बरकत तन्त्र मन्त्र से बाँध दी गई हो। अगर ऐसा हो तो इस मन्त्र का प्रयोग किया जाना चाहिए। तुरंत लाभ मिलने लग जाता है। मन्त्रः- ”ओम नमो आदेश गुरू को वावन वार चौसठ सातऊ कलवा पांचऊ वड़वा जिन्न भूत परीत देव दानव दुष्ट मुष्ठ मैली मशाण इन्हीं को कील कील नजर दीठ मूँठ टोना टारे लोना चमारी गाजे या धन्धे दुकान की बरकत को बन्धन न छुड़ावे तो माता हिंगलाज की दुहाई।” विधिः- नवरात्रि में एक हजार जप से उक्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है। मन्त्र सिद्धि के समय धूप जलाना चाहिए। मन्त्र सिद्धि के बाद बालकों और कन्याओं को भोजन कराना चाहिए। बँधी हुई दुकान में पाँच नीबुओं को इस मन्त्र से 21 बार अभिमन्त्रित कर एक सूत्र में पिरो कर दुकान में टाँगना चाहिए। सरसों के कुछ दानों पर 21 बार मन्त्र पढ़कर दुकान में डालें।

भूतादि भगाने का अनुभूत मन्त्र “ॐ गुरु जी ! काला भैरू क्या करे ? मरा मसान सेवे । मरा मसान से के क्या करे ? लाग को – लपट को, काचे को – कलवे को । झाँप को – झपट को, भूत को – प्रेत को ! जिन्द को – डाकन को, ताल को – बेताल को । पेट की पीड़ा, माथे की मथवा- ३६ रोग को दफा करे श्रीनाथ जी का चकरु घेर घाले । हनूमान का पर्चा । छोड़ डङ्कनी पूत पराया । शब्द साँचा, पिण्ड काचा । चलो ईश्वर वाचा । चलो मन्त्र, ईश्वर वाचा ।” विधि :- उक्त मन्त्र महात्मा लक्ष्मण गिरि का बताया हुआ है ।

गुरु-स्थापना-मन्त्र :- साधना प्रारम्भ के पहले एक पाँच बत्ती- वाला दीपक जला कर निम्न मन्त्र को सात बार पढ़ें – “गुरू दिन गुरू बाती, गुरू सहे सारी राती । वासतीक दीवना बार के, गुरू के उतारौं आरती ।।” शरीर-रक्षा-मन्त्र :- “ॐ नमो आदेश शुरू का । जय हनुमान, वीर महान । मै करथ हौं तोला प्रनाम, भूत-प्रेत-मरी मसान । भाग जाय, तोर सुन के नाम । मोर शरीर के रक्ष्या करिबे, नहीं तो सीता मैया के सय्या पर पग ला धरबे ! मोर फूकें । मोर गुरू के फूकें, गुरू कौन ? गौरा- महा-देव के फूकें । जा रे शरीर बँधा जा ।” विधि – उक्त मन्त्र को ग्यारह बार पढ़कर, अपने चारों ओर एक गोल घेरा बना लें । इससे साधना में सभी विघ्नों से साधक की रक्षा होती है ।

धन प्राप्ति के सामान्य टोटके ... आज के युग में सबसे महवपूर्ण कार्य धनप्राप्ति है|कई लोग ऐसे हैं की अज्ञात कारणों से उनके धन प्राप्ति में कोई न कोई रोड़ा अटकता ही रहता है|नीचे कुछ टोटके बताये जा रहें हैं जो धन प्राप्ति में महतवपूर्ण है|जिस स्थान पर इन टोटकों का पालन होता हैं उस स्थान पर माँ लक्ष्मी अपना स्थाई वास बनाती है| • जिस घर में नियमित रूप से अथवा प्रत्येक शुक्रवार को श्रीसूक्त अथवा श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ होता है वहां माँ लक्ष्मी का स्थाई वास होता है| • पर्त्येक सप्ताह घर में फर्श पर पोचा लगते समय थोडा सा समुंदरी नमक मिला लिया करें ऐसा करने से घर में होने वाले झगरे कम होते हैं|इसके अतिरिक्त यह भी लाभ मिलता है आपको नहीं मालूम की आपके घर में आने वाला अतिथि n कहाँ से आया है,तथा उसके मन में आपके प्रति क्या विचार है,नमक मिले पानी से पोचा लगाने से सारी नकारात्मक उर्जा समाप्त हो जाती है| • प्रात: उठ कर गृह लक्ष्मी यदि मुख्य द्वार पर एक गिलास अथवा लोटा जल डाले तो माँ लक्ष्मी के आने का मार्ग प्रशस्त होता है| • यदि आप चाहतें हैंकि घर में सुख शांति बनी रहे तथा आप आर्थिक रूप से समर्थ रहें तो प्रत्येक अमावस्या को अपने घर की पूर्ण सफाई करवा दें|जितना भी फ़ालतू सामान इकठा हुआ हो उसे क्बारी को बेच दें अथवा बाहर फेंक दें ,सफाई के बाद पांच अगरबती घर के मंदिर में लगायें|

शक्ति पात्र शक्ति पात्र साधक जब ही हो पाता है जब वह स्वयम के अन्दर इतनी उर्जा एकत्रित कर लेता है की शक्ति को सुन य महसूस कर सके । वो पात्रता थोड़े ध्यान से आ जाती है । जिससे मन और दिमाग ठहर जाता है उस अवस्था में आप जब किसी शक्ति का आवाहन करते है तो फिर प्रश्न भी करते है उसके बाद यदि उरजा अधिक है तो पूर्ण रूप से शक्ति के दर्शन होते है अन्यथा किसी परछाई का आभास होता है और मन में जवाब आता है य दिमाग में । जैसे हम खुद तो नही बोल रहे मगर वो हम नही शक्ति ही होती है ।

पूजा का कमरा घर में क्यों होता है ? घरो में पूजा के कमरे का अपना महत्त्व है. हर घर में पूजा का कमरा होता है जहाँ पर दीपक लगा कर भगवान की पूजा की जाती है, ध्यान लगाया जाता है या पाठ किया जाता है. भगवान चूँकि पुरी श्रष्टि के रचियेता है और इस हिसाब से घर के असली मालिक भी भगवान ही हुए. भगवान का कमरा ये भावः दर्शाता है की प्रभु इस घर के मालिक है और घर में रहने वाले लोग भगवान की दी हुई जमीन पर इस घर में रहते है. ये भावः हमें झूठा अभिमान और स्वत्वबोध से दूर रखता है. आदर्श स्तिथि में मनुष्य को ये मानना चाहिए की भगवान ही घर के मालिक है और मनुष्य केवल उस घर का कार्यवाहक प्रभारी है. एक अन्य भावः ये भी है की ईश्वर सर्वव्यापी है और घर में भी हमारे साथ रहता है इसलिए घर में एक कमरा प्रभु का है. जिस तरह घर में प्रत्येक कार्य के लिए अलग अलग कक्ष होते है, जैसे आराम के लिए शयनकक्ष, खाना बनाने के लिए रसोईघर, मेहमानों के लिए ड्राइंग रूम या आगंतुक कक्ष ठीक उसी प्रकार हमारे आध्यात्म के लिए भगवान का कमरा होता है जहाँ पर बैठ कर ध्यान पूजा पाठ और जप किया जा सकता है.

।। ॐ ।। श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटूकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् । वीरान् द्व्यष्टचतुष्कषष्टिनवकं वीरावलीपन्चकम् श्रीमन्मालिनीमन्त्रराजसहीतं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ।। श्रीगुरुदेव , परम गुरुदेव , और परात्पर गुरुदेव स्वरुप श्रीनाथादी तीन गुरुदेव , गणपति , कामरुप , पूर्णगिरि जालंदर तीन पीठ , मन्थानादी आठ भैरव , सिद्धोंका समुदाय , विरंची , चक्र , स्कंद आदी तीन बटूक , प्रकाश और विमर्श ( शिव और शक्ति ) दो चरण , योन्यंम्बादी दूती , अग्निमण्डल , सूर्यमण्डल , सोममण्डल आदी मण्डल , दस वीर (भैरव ) , चौसठ योगिनी , सर्वसंशोधिनी आदी नौ मुद्रा , ब्रम्हा विष्णू रुद्र ईश्वर और सदाशिव आदी पंच वीर , "अ" से "क्ष" पर्यंत इक्यावन मात्राओंसे युक्त मालिनी मन्त्र - इन सब तत्वोंसे युक्त जो गुरु का मण्डल है , अर्थात जो श्रीगुरु की राजसभा है , उसे मै नमन करता हुं ।

कार्य सिद्धि यन्त्र नवरात्र, होली, दीपावली, ग्रहणकाल या पुष्य नक्षत्र वाले दिन शुभ एवं अनुकूल मुहूर्त में ताम्रपत्र पर बने हुए यंत्र को पंचामृत से स्नान करवाकर शुद्ध कर लें। तत्पश्चात् यंत्र को शिवलिंग की जलहरी के नीचे इस तरह रखें कि शिवलिंग पर जल एवं दूध चढ़ाने के दौरान चढा हुआ जल व दूध इस यंत्र के ऊपर गिरता रहे। शिवलिंग पर जल व दूध चढ़ाते रहें तथा “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र को गहरी सांस से बोलते रहें। ऐसा प्रतिदिन १० मिनट तक करें। किसी महत्त्वपूर्ण कार्य पर प्रस्थान करते समय उक्त यंत्र को अपनी जेब में रखकर ले जावें। यह अत्यन्त प्रभावकारी क्रिया है अतः इसकी निरन्तरता बनाये रखने से शुभ परिणाम आते हैं।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥ ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ विनियोगः- ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुध-कौशिक ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । श्रीसीतारामचंद्रो देवता । सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगः ॥ ऋष्यादि-न्यासः- बुध-कौशिक ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छंदसे नमः मुखे । श्रीसीता-रामचंद्रो देवतायै नमः हृदि । सीता शक्तये नमः नाभौ । श्रीमद् हनुमान कीलकाय नमः पादयो ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥ ॥ अथ ध्यानम् ॥ ध्यायेदाजानु-बाहुं धृत-शर-धनुषं बद्ध-पद्मासनस्थम् । पीतं वासो वसानं नव-कमल-दल-स्पर्धि-नेत्रं प्रसन्नम् । वामांकारूढ-सीता-मुख-कमल-मिलल्लोचनं नीरदाभम् । नानालंकार-दीप्तं दधतमुरु-जटामंडनं रामचंद्रम्॥ ॥इति ध्यानम्॥ ॥मूल-पाठ॥ चरितं रघुनाथस्य शत-कोटि प्रविस्तरम् । एकैकमक्षरं पुंसां, महापातकनाशनम् ॥ १॥ ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं, रामं राजीव-लोचनम् । जानकी-लक्ष्मणोपेतं, जटा-मुकुट-मण्डितम् ॥ २॥ सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं नक्तं चरान्तकम् । स्व-लीलया जगत्-त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥ ३॥ रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः, पापघ्नीं सर्व-कामदाम् । शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥ कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वामित्रप्रियः श्रुती । घ्राणं पातु मख-त्राता, मुखं सौमित्रि-वत्सलः ॥ ५॥ जिह्वां विद्या-निधिः पातु, कण्ठं भरत-वंदितः । स्कंधौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेश-कार्मुकः ॥ ६॥ करौ सीता-पतिः पातु, हृदयं जामदग्न्य-जित् । मध्यं पातु खर-ध्वंसी, नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥ सुग्रीवेशः कटी पातु, सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । ऊरू रघूत्तमः पातु, रक्षः-कुल-विनाश-कृत् ॥ ८॥ जानुनी सेतुकृत्पातु, जंघे दशमुखान्तकः । पादौ बिभीषण-श्रीदः, पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ ९॥ एतां राम-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । स चिरायुः सुखी पुत्री, विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥ पाताल-भूतल-व्योम-चारिणश्छद्म-चारिणः । न द्रष्टुमपि शक्तासे, रक्षितं राम-नामभिः ॥ ११॥ रामेति राम-भद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् । नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥ जगज्जैत्रैक-मन्त्रेण राम-नाम्नाऽभिरक्षितम् । यः कंठे धारयेत्-तस्य करस्थाः सर्व-सिद्धयः ॥ १३॥ वज्र-पंजर-नामेदं, यो रामकवचं स्मरेत् । अव्याहताज्ञः सर्वत्र, लभते जय-मंगलम् ॥ १४॥ आदिष्ट-वान् यथा स्वप्ने राम-रक्षामिमां हरः । तथा लिखित-वान् प्रातः, प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥ आरामः कल्प-वृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिरामस्त्रि-लोकानां, रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥ तरुणौ रूप-संपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुंडरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥ फल-मूलाशिनौ दान्तौ, तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८॥ शरण्यौ सर्व-सत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्व-धनुष्मताम् । रक्षः कुल-निहंतारौ, त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥ आत्त-सज्ज-धनुषाविशु-स्पृशावक्षयाशुग-निषंग-संगिनौ । रक्षणाय मम राम-लक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥ सन्नद्धः कवची खड्गी चाप-बाण-धरो युवा । गच्छन्मनोरथोऽस्माकं, रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥ रामो दाशरथिः शूरो, लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णा, कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥ वेदान्त-वेद्यो यज्ञेशः, पुराण-पुरुषोत्तमः । जानकी-वल्लभः श्रीमानप्रमेय-पराक्रमः ॥ २३॥ इत्येतानि जपन्नित्यं, मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । अश्वमेधाधिकं पुण्यं, संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥ रामं दुर्वा-दल-श्यामं, पद्माक्षं पीत-वाससम् । स्तुवंति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥ रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । राजेंद्रं सत्य-सन्धं दशरथ-तनयं श्यामलं शांत-मूर्तम् । वंदे लोकाभिरामं रघु-कुल-तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥ रामाय राम-भद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥ श्रीराम राम रघुनंदन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रण-कर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥ श्रीरामचंद्र-चरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥ माता रामो मत्पिता रामचंद्रः । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः । सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥ दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य, वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघु-नंदनम् ॥ ३१॥ लोकाभिरामं रण-रंग-धीरम्, राजीव-नेत्रं रघु-वंश-नाथम् । कारुण्य-रूपं करुणाकरं तम्, श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥ मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धि-मतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यम्, श्रीराम-दूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥ कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविता-शाखां वंदे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥ ३४॥ आपदां अपहर्तारं, दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥ भर्जनं भव-बीजानां अर्जनं सुख-सम्पदाम् । तर्जनं यम-दूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥ रामो राज-मणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचर-चमू रामाय तस्मै नमः । रामान्नास्ति परायणं पर-तरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् । रामे चित्त-लयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥ राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥ इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

कुल देवता/देवी के संबंध में व्याप्त विसंगतियों का निदान--- सामान्यतः प्रत्येक सनातन हिन्दु परिवार में कुल देवता/देवी के नामों के संबंधों में व्याप्त विसंगतियों एवं विवादों का सबसे पहले निदान आवश्य है । जैसे कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''खजूरी वाली माताजी'' हैं, कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''ईट वाली माताजी'' हैं । कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''कैला देवी'' हैं। कोई कहता है ''नैनोद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि, ''पावागढ वाली देवी'' है। कोई कहता है कि, ''बगावद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''मैडता वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''जीन वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''सती वाली माता'' है । इसी प्रकार कुल देवता के संबंध में कोई कहता है कि हमारे कुल देवता ''खेडे वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि, ''काले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''हिसार वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''गुडगाँव वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''सालासर वाले बालाजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खाटू श्यामजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खप्पर वाले देवता'' हैं

चौसठ योगिनी और उनका जीवन में योगदान स्त्री पुरुष की सहभागिनी है,पुरुष का जन्म सकारात्मकता के लिये और स्त्री का जन्म नकारात्मकता को प्रकट करने के लिये किया जाता है। स्त्री का रूप धरती के समान है और पुरुष का रूप उस धरती पर फ़सल पैदा करने वाले किसान के समान है। स्त्रियों की शक्ति को विश्लेषण करने के लिये चौसठ योगिनी की प्रकृति को समझना जरूरी है। पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है और स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है। योगिनी की पूजा का कारण शक्ति की समस्त भावनाओं को मानसिक धारणा में समाहित करना और उनका विभिन्न अवसरों पर प्रकट करना और प्रयोग करना माना जाता है,बिना शक्ति को समझे और बिना शक्ति की उपासना किये यानी उसके प्रयोग को करने के बाद मिलने वाले फ़लों को बिना समझे शक्ति को केवल एक ही शक्ति समझना निराट दुर्बुद्धि ही मानी जायेगी,और यह काम उसी प्रकार से समझा जायेगा,जैसे एक ही विद्या का सभी कारणों में प्रयोग करना। दिव्ययोग की दिव्ययोगिनी :- योग शब्द से बनी योगिनी का मूल्य शक्ति के रूप में समय के लिये प्रतिपादित है,एक दिन और एक रात में 1440 मिनट होते है,और एक योग की योगिनी का समय 22.5 मिनट का होता है,सूर्योदय से 22.5 मिनट तक इस योग की योगिनी का रूप प्रकट होता है,यह जीवन में जन्म के समय,साल के शुरु के दिन में महिने शुरु के दिन में और दिन के शुरु में माना जाता है,इस योग की योगिनी का रूप दिव्य योग की दिव्य योगिनी के रूप में जाना जाता है,इस योगिनी के समय में जो भी समय उत्पन्न होता है वह समय सम्पूर्ण जीवन,वर्ष महिना और दिन के लिये प्रकट रूप से अपनी योग्यता को प्रकट करता है। उदयति मिहिरो विदलित तिमिरो नामक कथन के अनुसार इस योग में उत्पन्न व्यक्ति समय वस्तु नकारात्मकता को समाप्त करने के लिये योगकारक माने जाते है,इस योग में अगर किसी का जन्म होता है तो वह चाहे कितने ही गरीब परिवार में जन्म ले लेकिन अपनी योग्यता और इस योगिनी की शक्ति से अपने बाहुबल से गरीबी को अमीरी में पैदा कर देता है,इस योगिनी के समय काल के लिये कोई भी समय अकाट्य होता है। महायोग की महायोगिनी :- यह योगिनी रूपी शक्ति का रूप अपनी शक्ति से महानता के लिये माना जाता है,अगर कोई व्यक्ति इस महायोगिनी के सानिध्य में जन्म लेता है,और इस योग में जन्मी शक्ति का साथ लेकर चलता है तो वह अपने को महान बनाने के लिये उत्तम माना जाता है। सिद्ध योग की सिद्धयोगिनी:- इस योग में उत्पन्न वस्तु और व्यक्ति का साथ लेने से सिद्ध योगिनी नामक शक्ति का साथ हो जाता है,और कार्य शिक्षा और वस्तु या व्यक्ति के विश्लेषण करने के लिये उत्तम माना जाता है। महेश्वर की माहेश्वरी महाईश्वर के रूप में जन्म होता है विद्या और साधनाओं में स्थान मिलता है. पिशाच की पिशाचिनी बहता हुआ खून देखकर खुश होना और खून बहाने में रत रहना. डंक की डांकिनी बात में कार्य में व्यवहार में चुभने वाली स्थिति पैदा करना. कालधूम की कालरात्रि भ्रम की स्थिति में और अधिक भ्रम पैदा करना. निशाचर की निशाचरी रात के समय विचरण करने और कार्य करने की शक्ति देना छुपकर कार्य करना. कंकाल की कंकाली शरीर से उग्र रहना और हमेशा गुस्से से रहना,न खुद सही रहना और न रहने देना. रौद्र की रौद्री मारपीट और उत्पात करने की शक्ति समाहित करना अपने अहम को जिन्दा रखना. हुँकार की हुँकारिनी बात को अभिमान से पूर्ण रखना,अपनी उपस्थिति का आवाज से बोध करवाना. ऊर्ध्वकेश की ऊर्ध्वकेशिनी खडे बाल और चालाकी के काम करना. विरूपक्ष की विरूपक्षिनी आसपास के व्यवहार को बिगाडने में दक्ष होना. शुष्कांग की शुष्कांगिनी सूखे अंगों से युक्त मरियल जैसा रूप लेकर दया का पात्र बनना. नरभोजी की नरभोजिनी मनसा वाचा कर्मणा जिससे जुडना उसे सभी तरह चूसते रहना. फ़टकार की फ़टकारिणी बात बात में उत्तेजना में आना और आदेश देने में दुरुस्त होना. वीरभद्र की वीरभद्रिनी सहायता के कामों में आगे रहना और दूसरे की सहायता के लिये तत्पर रहना. धूम्राक्ष की धूम्राक्षिणी हमेशा अपनी औकात को छुपाना और जान पहिचान वालों के लिये मुशीबत बनना. कलह की कलहप्रिय सुबह से शाम तक किसी न किसी बात पर क्लेश करते रहना. रक्ताक्ष की रक्ताक्षिणी केवल खून खराबे पर विश्वास रखना. राक्षस की राक्षसी अमानवीय कार्यों को करते रहना और दया धर्म रीति नीति का भाव नही रखना. घोर की घोरणी गन्दे माहौल में रहना और दैनिक क्रियाओं से दूर रहना. विश्वरूप की विश्वरूपिणी अपनी पहिचान को अपनी कला कौशल से संसार में फ़ैलाते रहना. भयंकर की भयंकरी अपनी उपस्थिति को भयावह रूप में प्रस्तुत करना और डराने में कुशल होना. कामक्ष की कामाक्षी हमेशा संभोग की इच्छा रखना और मर्यादा का ख्याल नही रखना. उग्रचामुण्ड की उग्रचामुण्डी शांति में अशांति को फ़ैलाना और एक दूसरे को लडाकर दूर से मजे लेना. भीषण की भीषणी. किसी भी भयानक कार्य को करने लग जाना और बहादुरी का परिचय देना. त्रिपुरान्तक की त्रिपुरान्तकी भूत प्रेत वाली विद्याओं में निपुण होना और इन्ही कारको में व्यस्त रहना. वीरकुमार की वीरकुमारी निडर होकर अपने कार्यों को करना मान मर्यादा के लिये जीवन जीना. चण्ड की चण्डी चालाकी से अपने कार्य करना और स्वार्थ की पूर्ति के लिये कोई भी बुरा कर जाना. वाराह की वाराही पूरे परिवार के सभी कार्यों को करना संसार हित में जीवन बिताना. मुण्ड की मुण्डधारिणी जनशक्ति पर विश्वास रखना और संतान पैदा करने में अग्रणी रहना. भैरव की भैरवी तामसी भोजन में अपने मन को लगाना और सहायता करने के लिये तत्पर रहना. हस्त की हस्तिनी हमेशा भारी कार्य करना और शरीर को पनपाते रहना. क्रोध की क्रोधदुर्मुख्ययी क्रोध करने में आगे रहना लेकिन किसी का बुरा नही करना. प्रेतवाहन की प्रेतवाहिनी जन्म से लेकर बुराइयों को लेकर चलना और पीछे से कुछ नही कहना. खटवांग खटवांगदीर्घलम्बो- ्ठयी जन्म से ही विकृत रूप में जन्म लेना और संतान को इसी प्रकार से जन्म देना. मलित की मालती मन्त्रयोगी की मन्त्रयोगिनी अस्थि की अस्थिरूपिणी चक्र की चक्रिणी ग्राह की ग्राहिणी भुवनेश्वर की भुवनेश्वरी कण्टक की कण्टिकिनी कारक की कारकी शुभ्र की शुभ्रणी कर्म की क्रिया दूत की दूती कराल की कराली शंख की शंखिनी पद्म की पद्मिनी क्षीर की क्षीरिणी असन्ध असिन्धनी प्रहर की प्रहारिणी लक्ष की लक्ष्मी काम की कामिनी लोल की लोलिनी काक की काकद्रिष्टि अधोमुख की अधोमुखी धूर्जट की धूर्जटी मलिन की मालिनी घोर की घोरिणी कपाल की कपाली विष की विषभोजिनी

तंत्र, पराशक्ति है। यह कठिन साधना से पाई जाती है। कई लोग लंबे समय तक तंत्र साधना करते हैं लेकिन वे सफल नहीं हो पाते। ऐसा क्यों? दरअसल तंत्र साधना के समय कई बातों का ध्यान रखना होता है, तभी यह क्रियाएं सफल होती हैं, सिद्ध होती हैं। अगर हम इनका ध्यान नहीं रखेंगे तो यह वैसा फल नहीं देंगी, जैसे की उम्मीद हो। रखें इन बातों का ध्यान :- - कोशिश करें, हमेशा सत्य बोलें। - जो भी सिद्धि प्राप्त करना हो, उसका प्रयोग किसी को नुकसान पहुंचाने में न हो। - सिद्धि जिस कार्य के लिए की जा रही हो, उसका प्रयोग केवल उसी में हो। - इसका प्रयोग अनुचित लाभ उठाने में न करें। - मन में कोई दुर्भावना, दुषित विचार आदि न लाएं। - मन में कोई भय नहीं होना चाहिए। - सिद्धि का प्रचार न किया जाए। - अपने पूजा करने के स्थान, समय की गोपनीयता रखी जाए।...................

आकर्षण एवं वशीकरण के प्रबल सूर्य मन्त्र १॰ “ॐ नमो भगवते श्रीसूर्याय ह्रीं सहस्त्र-किरणाय ऐं अतुल-बल-पराक्रमाय नव-ग्रह-दश-दिक्-पाल-लक्ष्मी-देव-वाय, धर्म-कर्म-सहितायै ‘अमुक’ नाथय नाथय, मोहय मोहय, आकर्षय आकर्षय, दासानुदासं कुरु-कुरु, वश कुरु-कुरु स्वाहा।” विधि- सुर्यदेव का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का १०८ बार जप प्रतिदिन ९ दिन तक करने से ‘आकर्षण’ का कार्य सफल होता है। २॰ “ऐं पिन्स्थां कलीं काम-पिशाचिनी शिघ्रं ‘अमुक’ ग्राह्य ग्राह्य, कामेन मम रुपेण वश्वैः विदारय विदारय, द्रावय द्रावय, प्रेम-पाशे बन्धय बन्धय, ॐ श्रीं फट्।” विधि- उक्त मन्त्र को पहले पर्व, शुभ समय में २०००० जप कर सिद्ध कर लें। प्रयोग के समय ‘साध्य’ के नाम का स्मरण करते हुए प्रतिदिन १०८ बार मन्त्र जपने से ‘वशीकरण’ हो जाता है।

* कार्य में सफलता के लिए अमावस्या के दिन पीले कपड़े का त्रिकोना झंडा बना कर विष्णु भगवान के मंदिर के ऊपर लगवा दें, कार्य सिद्ध होगा। * कारोबार में हानि हो रही हो अथवा ग्राहकों का आना कम हो गया हो, तो समझें कि किसी ने आपके कारोबार को बांध दिया है। इस बाधा से मुक्ति के लिए दुकान या कारखाने के पूजन स्थल में शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को अमृत सिद्ध या सिद्ध योग में श्री धनदा यंत्र स्थापित करें। फिर नियमित रूप से केवल धूप देकर उनके दर्शन करें, कारोबार में लाभ होने लगेगा। * गृह कलह से मुक्ति हेतु परिवार में पैसे की वजह से कलह रहता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख में पांच कौड़ियां रखकर उसे चावल से भरी चांदी की कटोरी पर घर में स्थापित करें। यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार को या दीपावली के अवसर पर करें, लाभ अवश्य होगा। * क्रोध पर नियंत्रण हेतु यदि घर के किसी व्यक्ति को बात-बात पर गुस्सा आता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख को साफ कर उसमें जल भरकर उसे पिला दें। यदि परिवार में पुरुष सदस्यों के कारण आपस में तनाव रहता हो, तो पूर्णिमा के दिन कदंब वृक्ष की सात अखंड पत्तों वाली डाली लाकर घर में रखें। अगली पूर्णिमा को पुरानी डाली कदंब वृक्ष के पास छोड़ आएं और नई डाली लाकर रखें। यह क्रिया इसी तरह करते रहें, तनाव कम होगा। * मकान खाली कराने हेतु शनिवार की शाम को भोजपत्र पर लाल चंदन से किरायेदार का नाम लिखकर शहद में डुबो दें। संभव हो, तो यह क्रिया शनिश्चरी अमावस्या को करें। कुछ ही दिनों में किरायेदार घर खाली कर देगा। ध्यान रहे, यह क्रिया करते समय कोई टोके नहीं। * बिक्री बढ़ाने हेतु ग्यारह गोमती चक्र और तीन लघु नारियलों की यथाविधि पूजा कर उन्हें पीले वस्त्र में बांधकर बुधवार या शुक्रवार को अपने दरवाजे पर लटकाएं तथा हर पूर्णिमा को धूप दीप जलाएं। यह क्रिया निष्ठापूर्वक नियमित रूप से करें, ग्राहकों की संख्या में वृद्धि होगी और बिक्री बढ़ेगी।

अगर आपको किसी विशेष काम से जाना है, तो नीले रंग का धागा ले कर घर से निकलें। घर से जो तीसरा खंभा पड़े, उस पर, अपना काम कह कर, नीले रंग का धागा बांध दें। काम होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। हल्दी की ७ साबुत गांठें, ७ गुड़ की डलियां, एक रुपये का सिक्का किसी पीले कपड़े में बांध कर, रेलवे लाइन के पार फेंक दें। फेंकते समय कहें काम दे, तो काम होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। * धन के लिए एक हंडियां में सवा किलो हरी साबुत मूंग दाल या मूंगी, दूसरी में सवा किलो डलिया वाला नमक भर दें। यह दो हंडियां घर में कहीं रख दें। यह क्रिया बुधवार को करें। घर में धन आना शुरू हो जाएगा। * मिर्गी के रोग को दूर करने के लिए अगर गधे के दाहिने पैर का नाखून अंगूठी में धारण करें, तो मिर्गी की बीमारी दूर हो जाती है। * भूत-प्रेत और जादू-टोना से बचने के लिए मोर पंख को अगर ताबीज में भर के बच्चे के गले में डाल दें, तो उसे भूत-प्रेत और जादू-टोने की पीड़ा नहीं रहती। * परीक्षा में सफलता हेतु गणेश रुद्राक्ष धारण करें। बुधवार को गणेश जी के मंदिर में जाकर दर्शन करें और मूंग के लड्डुओं का भोग लगाकर सफलता की प्रार्थना करें। * पदोन्नति हेतु शुक्ल पक्ष के सोमवार को सिद्ध योग में तीन गोमती चक्र चांदी के तार में एक साथ बांधें और उन्हें हर समय अपने साथ रखें, पदोन्नति के साथ-साथ व्यवसाय में भी लाभ होगा। * मुकदमे में विजय हेतु पांच गोमती चक्र जेब में रखकर कोर्ट में जाया करें, मुकदमे में निर्णय आपके पक्ष में होगा। * पढ़ाई में एकाग्रता हेतु शुक्ल पक्ष के पहले रविवार को इमली के २२ पत्ते ले आएं और उनमें से ११ पत्ते सूर्य देव को ¬ सूर्याय नमः कहते हुए अर्पित करें। शेष ११ पत्तों को अपनी किताबों में रख लें, पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी।

ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो अघोरघोरेतरेभ्यः । सर्वतः शर्वः सर्वेभ्यो नमस्ते रुद्र रूपेभ्यः ॥ सभी धर्मों में पूजा स्थान श्मशानों या मरघटी से जुड़े हैं, क्योंकि केवल मृत्यु के प्रति सजगता ही वैराग्य ला सकती है, मनुष्य के ज्ञान में स्थित कर सकती है। भारतीय पुराणों के अनुसार शिव का वास कैलाश पर्वत है और साथ ही श्मशान भूमि भी। कैलास का अर्थ है ‘जहां केवल उत्सव है’ और श्मशान का अर्थ है ‘जहां केवल शून्य है’ तो दिव्यता शून्यता में भी है और उत्सव में भी। आपसे(मनुष्य) ही शून्य है, आपसे(मनुष्य) ही उत्सव है। अघोर जो संसार की किसी भी वस्तु को घोर यानी विभत्स नहीं मानते। श्मशान में ही शिव का वास होता है। अघोर मूर्दों में भगवान ढूंढते हैं। अघोर न किसी वस्तु से घृणा करते हैं और न ही प्रेम। अघोर का मानना होता है कि वे लोग जो दुनियादारी और गलत कार्यों के लिए तंत्र साधना करते है अतं में उनका अहित होता है। महिशानाम परो देवों महिमानम परास्तुति.. अघोरानाम परो मंत्रो नास्ति तत्वों गुरु परम.. काल भी जिससे घबराता है, ऐसे महाकाल और महाकाली के चरणों में मै साष्टांग प्रणाम करता हूं। जिससे कई जन्मों जन्मांतर के पाप स्वतः नष्ट हो जाते है .. हर हर महादेव .जय महाकाल .............अघोरी हूँ महादेव अघोरी ............हरी ॐ .....हरी ॐ अघोर और अघोरी के बारे में, समाज में अजीबो-गरीब धारणा है. धारणा क्या, बल्कि ग़लतफ़हमी है. ये ग़लतफ़हमी कई वज़हों से है! अघोर का साफ़ मतलब है अ+घोर ! यानी, जो कठिन ना हो. सरल हो, सहज हो. पर तमाम लोगों ने इसे इतना घोर बना दिया कि, अब इसे भय का पर्याय माना जाने लगा है. किसी भी जगह का सही आकलन, उस जगह के केंद्रबिंदु पर जा कर ही मुमकिन है. पर अघोर के केंद्र बिंदु पर जाने से पहले, थोड़ी सी चर्चा अघोर के बारे में कर ली जाए तो बेहतर होगा. अघोर, एक अवस्था है, संभवतः , आध्यात्मिकता का सर्वोच्च शिखर ! जहां बिरले ही पहुँच पाते हैं. अरबों-खरबों में कोई एक ! इस पद पर पहुँचाने के बाद, रिद्धी-सिद्धी और चमत्कार का कोई मतलब नहीं रह जाता. इन सब बाधाओं को पार कर ही, एक योगी अघोर के पद पर पहुँचता है. और उस अवस्था में रिद्धी-सिद्धी, चमत्कार उसकी वाणियों में ही समा जाते हैं. इच्छा मात्र से ही हर पल-हर मनचाही चीज़ हो जाती है. अघोर की अवस्था में आते ही, योगी *शिवत्व* के रूप में हो जाता है. जहां कुछ भी नामुकिन नहीं है. ये अघोर का असली रूप है. ,,,,,,,,,,,.हरी ॐ .....हरी ॐ मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है। तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं। यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि। यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।

त्रिकाल-दर्शक गौरी-शिव मन्त्र विनियोगः- अनयोः शक्ति-शिव-मन्त्रयोः श्री दक्षिणामूर्ति ऋषिः, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दसी, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवते, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगः। ऋष्यादि-न्यासः- श्री दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसि, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दोभ्यां नमः मुखे, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवताभ्यां नमः हृदि, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। कर-न्यास (अंग-न्यास)ः- ऐं अंगुष्ठभ्यां नमः (हृदयाय नमः), ऐं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा), ऐं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्), ऐं अनामिकाभ्यां हुं (कवचाय हुं), ऐं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् (नेत्र त्रयाय वौषट्), ऐं करतल-करपृष्ठाभ्यां फट् (अस्त्राय फट्)। ध्यानः- उद्यानस्यैक-वृक्षाधः, परे हैमवते द्विज- क्रीडन्तीं भूषितां गौरीं, शुक्ल-वस्त्रां शुचि-स्मिताम्। देव-दारु-वने तत्र, ध्यान-स्तिमित-लोचनम्।। चतुर्भुजं त्रि-नेत्रं च, जटिलं चन्द्र-शेखरम्। शुक्ल-वर्णं महा-देवं, ध्याये परममीश्वरम्।। मानस पूजनः- लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं समर्पयामि नमः। हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं समर्पयामि नमः। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं घ्रापयामि नमः। रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं दर्शयामि नमः। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि नमः। शं शक्ति-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि नमः। शक्ति-शिवात्मक मन्त्रः- “ॐ ऐं गौरि, वद वद गिरि परमैश्वर्य-सिद्ध्यर्थं ऐं। सर्वज्ञ-नाथ, पार्वती-पते, सर्व-लोक-गुरो, शिव, शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि। पालय, ज्ञानं प्रदापय।” इस ‘शक्ति-शिवात्मक मन्त्र’ के पुरश्चरण की आवश्यकता नहीं है। केवल जप से ही अभीष्ट सिद्धि होती है। अतः यथाशक्ति प्रतिदिन जप कर जप फल देवता को समर्पित कर देना चाहिए।

* दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं श्री भैरव जानिए श्री भैरव की अद्भुत महिमा श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं- 1. असितांग भैरव, 2. चंड भैरव, 3. रूरू भैरव, 4. क्रोध भैरव, 5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाल भैरव, 7. भीषण भैरव 8. संहार भैरव। क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है। श्री भैरव से काल भी भयभीत रहता है अत: उनका एक रूप 'काल भैरव' के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें "आमर्दक" कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार, मंगलवार या बुधवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी। भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है। भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगानालाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है। भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है। खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे। भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है। एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।

श्री हनुमान के इन बारह नामों का ध्यान श्री हनुमान को देवताओं से मिले चिरंजीव होने के वरदान से इन बारह नामों का ध्यान मृत्यु भय और संकटनाशक माने गए हैं। इन बारह नामों का ध्यान करना मनोबल और इच्छाशक्ति को बढ़ाने वाला होता है - - हनुमान – जो अहं यानि मान से रहित हो। - अंजनीसुत – माता अंजनी के पुत्र। - वायुपुत्र – मारूति या पवन पुत्र। - महाबली – अतुलनीय बल के स्वामी। - रामेष्ट – जिनके इष्ट भगवान श्री राम हैं। - फाल्गुन सखा – अर्जुन के मित्र। - पिगांक्ष – जिनके लाल नेत्र हैं, जो वीरता को प्रगट करते हैं। - अमित विक्रम – शौर्य और अथाह बल वाले देवता। - उदधिक्रमण – सागर को उछल कर पार करने वाले। - सीता शोक विनाशक – माता सीता का शोक हरने वाले। - लक्ष्मण प्राणदाता – लक्ष्मण के प्राण बचाने वाले। - दशग्रीव दर्पहा – परम शक्तिशाली दशानन यानि रावण का दर्प यानि दंभ चूर करने वाले। मान्यता है कि इन नामों के स्मरण से विपरीत हालात में भी कोई व्यक्ति हनुमान की भांति ही जुझारू बन मुश्किल घड़ी को काट देता है।

काली के विभिन्न भेद काली के अलद-अलग तंत्रों में अनेक भेद हैं । कुछ पूर्व में बतलाये गये हैं । अन्यच्च आठ भेद इस प्रकार हैं - १॰ संहार-काली, २॰ दक्षिण-काली, ३॰ भद्र-काली, ४॰ गुह्य-काली, ५॰ महा-काली, ६॰ वीर-काली, ७॰ उग्र-काली तथा ८॰ चण्ड-काली । ‘कालिका-पुराण’ में उल्लेख हैं कि आदि-सृष्टि में भगवती ने महिषासुर को “उग्र-चण्डी” रुप से मारा एवं द्वितीयसृष्टि में ‘उग्र-चण्डी’ ही “महा-काली” अथवा महामाया कहलाई । योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी । भुजैः षोडशभिर्युक्ताः इसी का नाम “भद्रकाली” भी है । भगवती कात्यायनी ‘दशभुजा’ वाली दुर्गा है, उसी को “उग्र-काली” कहा है । कालिकापुराणे – कात्यायनीमुग्रकाली दुर्गामिति तु तांविदुः । “संहार-काली” की चार भुजाएँ हैं यही ‘धूम्र-लोचन’ का वध करने वाली हैं । “वीर-काली” अष्ट-भुजा हैं, इन्होंने ही चण्ड का विनाश किया “भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वमौ नमः” इसी ‘वीर-काली’ विषय में दुर्गा-सप्तशती में कहा हैं । “चण्ड-काली” की बत्तीस भुजाएँ हैं एवं शुम्भ का वध किया था । यथा – चण्डकाली तु या प्रोक्ता द्वात्रिंशद् भुज शोभिता । समयाचार रहस्य में उपरोक्त स्वरुपों से सम्बन्धित अन्य स्वरुप भेदों का वर्णन किया है । संहार-काली – १॰ प्रत्यंगिरा, २॰ भवानी, ३॰ वाग्वादिनी, ४॰ शिवा, ५॰ भेदों से युक्त भैरवी, ६॰ योगिनी, ७॰ शाकिनी, ८॰ चण्डिका, ९॰ रक्तचामुण्डा से सभी संहार-कालिका के भेद स्वरुप हैं । संहार कालिका का महामंत्र १२५ वर्ण का ‘मुण्ड-माला तंत्र’ में लिखा हैं, जो प्रबल-शत्रु-नाशक हैं । दक्षिण-कालिका -कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं । भद्र-काली - वारुणी, वामनी, राक्षसी, रावणी, आग्नेयी, महामारी, घुर्घुरी, सिंहवक्त्रा, भुजंगी, गारुडी, आसुरी-दुर्गा ये सभी भद्र-काली के विभिन्न रुप हैं । श्मशान-काली – भेदों से युक्त मातंगी, सिद्धकाली, धूमावती, आर्द्रपटी चामुण्डा, नीला, नीलसरस्वती, घर्मटी, भर्कटी, उन्मुखी तथा हंसी ये सभी श्मशान-कालिका के भेद रुप हैं । महा-काली - महामाया, वैष्णवी, नारसिंही, वाराही, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, इत्यादि अष्ट-शक्तियाँ, भेदों से युक्त-धारा, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि सब नदियाँ महाकाली का स्वरुप हैं । उग्र-काली - शूलिनी, जय-दुर्गा, महिषमर्दिनी दुर्गा, शैल-पुत्री इत्यादि नव-दुर्गाएँ, भ्रामरी, शाकम्भरी, बंध-मोक्षणिका ये सब उग्रकाली के विभिन्न नाम रुप हैं । वीर-काली -श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, रक्त-दंतिका, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, षोडशी की एवं काली की षोडश नित्यायें, कालरात्ति, वशीनी, बगलामुखी ये सभी वीरकाली ये सभी वीरकाली के नाम भेद रुप हैं ।.................................

श्री बटुक भैरव अपराध क्षमा पन स्तोत्र ॐ गुरोः सेवा व्याकत्वा गुरुबचन शकतोपि न भवे भवत्पुजा – ध्यानाज्ज्प हवन –यागा दिरहित : ! त्व्दर्चा- निर्माणे क्वचिदपि न यत्नं च कृतवान , जग ज्जाल-ग्रस्तों झटितिकुरु हादर मायि विभो !! 1 !! प्रभु दुर्गा सुनो ! तव शरणतां सोयधिगतवान , कृपालों ! दुखार्त: कमपि भवदन्नयं प्रकथये ! सुहृत ! सम्पतेयहं सरल –विरल साधक जन , स्तवदन्य: क्स्त्राता भव-दहन –दाहं शमयति !!2!! वदान्यों मन्यसत्वं विविध जनपालों वभसि वै , दयालुर्दी नर्तान भवजलधिपारम गमयसि ! अतस्त्वतो याचे नति- नियमतोयकिञ्च्नधन , सदा भूयात भावः पदनलिनयोस्ते तिमिरहा !!3!! अजापूर्वो विप्रो मिलपदपरो योयतिपतितो , महामूर्खों दुष्टो वृजननिरत: पामरनृप: ! असत्पाना सक्त्तो यवन युवती व्रातरमण, प्रभा वातत्वन्नान्म: परमपदवी सोप्याधिगत !!4!! द्यां दीर्घाम दीने बटुक ! कुरु विश्वम्भर मयी, न चन्यस्संत्राता परम शिव मां पलाया विभो ! महाशचर्याम प्राप्तस्त्व सरलदृष्टच्या विरहित: , कृपापूर्णेनेत्रे: कजदल निर्भेमा खचयतात !!5!! सहस्ये किं हंसो नहि तपति दीनं जनचयम, घनान्ते किं चंर्दोंयसमकर- निपातो भुवितले! कृपादृष्टे स्तेहं भयहर भिवों किं विरहितों, जले वा हमर्ये वा घनरस- निपातो न विषम!!6!! त्रिमूर्तित्वं गीतों हरिहर- विधात्मकगुणो ! निराकारा: शुद्ध: परतरपर: सोयप्यविषय: , द्या रूपं शान्तम मुनिगननुतं भक्तदायितं !!7!! तपोयोगं संख्यम यम-नियम –चेत: प्रयजनं, न कौलाचर्चा-चक्रम हरिहरविधिनां प्रियतरम! न जाने ते भक्तिम परममुनिमार्गाम मधु विधि, तथाप्येषा वाणी परिरटति नित्यं तव यश :!!8!! न मे कांक्षा धर्मे न वसुनिच्ये राज्य निवहे: , न मे स्त्रीणा भोगे सखि-सुत-कटुम्बेषु न च मे! यदा यद्द्द भाव्यं भवतु भगवन पूर्वसकृतान , ममैत्तू प्रथर्यम तव विमल- भक्ति: प्रभवतात!!9!! कियांस्तेस्मदभार: पतित पतिता स्तारयासि भो, मद्न्य: क: पापी ययन बिमुख पाठ रहित :! दृढ़ो मे विश्वासस्तव नियति रुद्धार विषय:, सदा स्याद विश्र्म्भ: कवचिदपि मृषा माँ च भवतात!!10!! भवदभावादभिन्नो व्यसन- निरत: को मदपरो , मदान्ध: पाप आत्मा बटुक !शिव ! ते नाम रहित ! उदरात्मन बन्धो नहि तवकतुल्य: कालुपहा , पुनः संचिन्त्यैवं कुरु हृदि यथेच्छसि तथा !!11!! जपान्ते स्नानांते हमुषसि च निशिथे जपति यो , महा सौख्यं देवी वितरति नु तस्मै प्रमुदित:! अहोरात्रम पाशर्वे परिवसति भकतानु गमनों , वयोन्ते संहृष्ट: परिनियति भकतानस्व भुवनम !!12!!

श्री बटुक भैरव साधना – श्री बटुक भैरव जी दुर्गा के पुत्र कहे जाते है !पहली पोस्ट में भैरव चरित्र्म में मैंने बटुक भैरव की उतपति के वारे विस्तार पूर्वक बायता था ! जहां श्री बटुक भैरव की साधना पोस्ट कर रहा हु ! बटुक भैरव जी साधक की हर साधना में रक्षा करते है और इस आज के भय म्ये वातावर्ण में भी साधक के साथ साये की तरह रहते हुये उसे पूर्ण सुरक्षा देते है !इस लिए यह आज के युग में भय मुक्त जीवन के लिए अवशक साधना है ! भैरव जी दरिद्रता विनाशक है अंत साधक की दरिद्रता को दूर करते हुये उसे पूर्ण वैवभ युक्त जीवन प्रदान करते है ! व्ही उसे अन्य रोगो से भी बचाते है ! इस लिए इस साधना से सभी साधको को लाभ उठाना चाहिए ! विधि – इस साधना को किसी भी मंगल वार जा मंगल वर पड़ने वाली अष्टमी को करना बेहतर है ! इस के लिए पहले से श्री बटुक भैरव यंत्र व मूँगे की जा हकीक की माला गुरुधाम से मँगवा ले हकीक माला काले हकीक की ले सकते है और साधक को लाल वस्त्र जा काले वस्त्र धारण कर दक्षिण दिशा की और मुख कर बैठना है सहमने श्री बटुक भैरव जी का चित्र फ्रेम करा के रख ले एक बेजोट पे लाल रंग का वस्त्र विषा कर चित्र के साहमने ही एक पलेट में स्वास्तिक बना कर श्री बटुक भैरव यंत्र की साथपन करे और गुरु चित्र भी पास में रखे पहले गुरु पूजन कर आज्ञा ले और संकल्प करे की मैं अपने मन के भय से मुक्ति पाते हुये पूर्ण सिमृद्धि पूर्ण जीवन प्राप्ति के लिए यह साधना करना चाहता हु ! हे सद्गुरुदेव मुझे साधना में पूर्णा दे ! और यंत्र का पूजन सिंदूर लाल फूल से करे पंचो उपचार पूजन कर सकते है भोग के लिए लड्डू स्मर्पित करे ! यंत्र के पास ही थोरे ऊरद की ढेरी लगा के उस ऊपर तेल का दिया लगा दे दिये का भी पूजन करे और फिर गुरु मंत्र का दो माला मंत्र जप करे और निम्न श्री बटुक भैरव जी के मूल मंत्र का 11 माला जाप करे ऐसा 21 दिन करे इस से भैरव जी प्रतक्ष दर्शन जा बिबात्मक दर्शन देंगे हर मंगल वर को भोग किसी कुते को खिला दे और नया भोग रख दे ! मंत्र – ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्ष्रौं क्ष्रौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा !! इस तरह इस मूल मंत्र के जप के बाद श्री बटुक भैरव- अपराध – क्षमापन स्तोत्र का पाठ करे ! कोई भी भैरव साधना जा दुर्गा शप्तशती के पाठ के बाद जदी क्षमापन स्तोत्र का पाठ कर लिया जाए तो सिद्धि का फल अवश्य मिलता है ! इस साधना को शाम 7 से 10 वजे के बीच कभी भी कर सकते है

मंत्रों की जानकारी एवं निर्देश---- 1. यदि शाबर मंत्रों को छोड़ दें तो मुख्यत: दो प्रकार के मंत्र है- वैदिक मंत्र और तांत्रिक मंत्र। जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्‍ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। तत्पश्चात मंत्र का जप और उसके अर्घ्य की भावना करनी चाहिए। ध्यान रहे, अर्घ्य बिना जप निरर्थक रहता है। 2. मंत्र के भेद क्रमश: तनि माने गए हैं। 1. वाचिक जप 2. मानस जप और 3. उपाशु जप। वाचिक जप- जप करने वाला ऊँचे-ऊँचे स्वर से स्पष्‍ट मंत्रों को उच्चारण करके बोलता है, तो वह वाचिक जप कहलाता है। उपांशु जप- जप करने वालों की जिस जप में केवल जीभ हिलती है या बिल्कुल धीमी गति में जप किया जाता है जिसका श्रवण दूसरा नहीं कर पाता वह उपांशु जप कहलाता है। मानस जप- यह सिद्धि का सबसे उच्च जप कहलाता है। जप करने वाला मंत्र एवं उसके शब्दों के अर्थ को एवं एक पद से दूसरे पद को मन ही मन चिंतन करता है वह मानस जप कहलाता है। इस जप में वाचक के दंत, होंठ कुछ भी नहीं हिलते है। अभिचार कर्म के लिए वाचिक रीति से मंत्र को जपना चाहिए। शां‍‍‍ति एवं पुष्‍टि कर्म के लिए उपांशु और मोक्ष पाने के लिए मानस रीति से मंत्र जपना चाहिए। 3. मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र- साधक के बारे में यह बात किसी को पता न चले कि वो किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है। यदि मंत्र के समय कोई पास में है तो मानसिक जप करना चाहिए। 4. सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण के समय (ग्रहण आरंभ से समाप्ति तक) किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभदायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए। और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैसे तो यह सत्य है कि प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है परंतु ग्रहण काल में जप करने से कई सौ गुना अधिक फल मिलता है। विशेष : नदी में जप हमेशा नाभि तक जल में रहकर ही करना चाहिए।..

इन टोटकों से होगी मनोकामना पूरी तंत्र विज्ञान मे कुछ ऐसे टोटके हैं जिन्हे अपनाकर आप निश्चित ही अपनी सारी मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकते हैं। यदि आप चाहते हैं आपकी हर एक मनोकामना पूरी हो तो आपकी राशि के अनुसार नीचे लिखें टोटको को पूरी श्रद्धा से अपनाएं निश्चित ही आपकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। मेष- ग्यारह हनुमान जी को सिन्दूर का चोला चढ़ाएं या वर्ष में एक बार हनुमान जी के किसी मन्दिर में रामध्वजा लगवाएं। वृषभ- ग्यारह शुक्रवार लक्ष्मीजी या देवी के मन्दिर में खुशबु वाली अगरबत्ती चढ़ाएं और खीर का प्रसाद बांटे। मिथुन- रोज कुछ भी खाने से पूर्व इलायची और तुलसीदल गणपति के स्मरण के साथ सेवन करें।कर्क- भगवान शिव को हर सोमवार को मीठा दूध चढ़ाएं। सिंह- जल में रोली और शहद मिलाकर रोज सूर्यदेव को तांबे के लोटे से अघ्र्य दें। कन्या- २१ बुधवार गणेश जी को दूर्वा, गुड़ व साबुत मूंग चढाएं। तुला- शुभ कार्य के लिए निकलने से पहले तुलसी के दर्शन करें और उसका एक पत्ता खाकर निकलें। वृश्चिक- किसी भी महत्वपूर्ण कार्य के लिए निकलने से पूर्व हनुमान जी को पान का बीड़ा चढ़ाएं। धनु- सूर्यदशा की ओर मुख करते हुए नित्य नाभि और मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं। मकर- हर शनिवार को उठते समय सबसे पहले खेजड़ी या पीपल के पेड़ पर जल चढाएं। कुंभ- सात शनिवार दक्षिणामुखी हनुमान जी की परिक्रमा करें। अंत में गुड़ चने का प्रसाद चढ़ाकर हनुमान चालिसा का पाठ करें। मीन- सात गुरुवार छोटी कन्याओं को गुड़ और भीगे चनों का प्रसाद बांटे।

महामृत्युंजय मंत्र शिव का महामृत्यंजय रूप पीड़ा और दु:खों से मुक्त कर सुख और आनंद देने वाला माना गया है। शिव के इस कल्याणकारी रूप की भक्ति और साधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप को बहुत ही शुभ और सिद्ध माना गया है। पुराणों में इसे मृत संजीवनी मंत्र बताया गया है। इस मंत्र के असर और शक्ति का महत्व दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने महर्षि दधीचि को बताया था।धार्मिक मान्यताओं में महामृत्युंजय मंत्र ऐसा सिद्ध मंत्र जिसके जप या उच्चारण मात्र से ही कड़ी से बड़ी विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है। यह मंत्र न केवल अकाल मौत और मृत्यु भय से बचाता है। बल्कि इसके जप मात्र से कुंटुब की भी रोगों और और शत्रुओं से रक्षा भी होती है। दौलत, वैभव, मान-सम्मान भी इस मंत्र के प्रभाव मिल जाता है।शिव उपासना के विशेष दिन सोमवार, प्रदोष, अष्टमी, चतुर्दशी पर शिव पूजा के साथ इस मंत्र का जप बहुत ही सिद्ध माना जाता है। महामृत्युंजय का यह सिद्ध मंत्र इस प्रकार है - ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।। इस मंत्र के जप की अलग-अलग प्रयोजन के लिए नियत संख्या बताई गई है। जिसे किसी विद्वान ब्राह्मण से विधि-विधान, हवन और ब्रह्मभोज के साथ कराया जाना शास्त्रों के मुताबिक सुनिश्चित फल देता है। ........................

कर्ण - पिशाचनी साधना प्रयोग इस मंत्र को गुप्त त्रिकालदर्शी मंत्र भी कहा जाता हैं .इस मंत्र के साधक को किसी भी व्यक्ति को देखते ही उसके जीवन की सूक्ष्म से सुक्ष्म घटना का ज्ञान हो जाता हैं . उसके विषय में विचार करते ही उसकी समस्त गतिविधियों एवं क्रिया कलापो का ज्ञान हो जाता हैं . कर्ण - पिशाचनी - साधना वैदिक विधि से भी सम्पन्न की जताई हैं , और तांत्रिक विधि से भी अनुष्ठानित की जाती हैं . यंहा वैदिक विधि द्वारा सम्पन्न की जाने वाली साधना का प्रयोग दिया जा रहा हैं . मंत्र """" ॐ लिंग सर्वनाम शक्ति भगवती कर्ण - पिशाचनी रुपी सच चण्ड सच मम वचन दे स्वाहा """""" विधि :- किसी भी नवरात्री में या शुभ नक्षत्र योग तिथि में भूति - शुद्धि , स्थान - शुद्धि , गुरु स्मरण , गणेश - पूजन , नवग्रह पूजन , से पूर्व एक चौकी पर लाल कपडा बिछाये . उस पर तांबे का एक लोटा या कलश - स्थापना करें . कलश पर पानी वाला नारियल रखे . कलश के चारो ओर पान , सुपारी , सिंदूर , व २ लड्डू रखे . कलश - पूजन करके साष्टांग प्रणाम करें . इसके बाद कंधे पर लाल कपडा रखकर उपरोक्त मंत्र का जाप करें . जाप पूर्ण होने पर पहले सामग्री से , फिर खीर से , और अंत में त्रिमधु से होम करें . इसके उपरांत क्षमा - याचना कर साक्षात देवी के रुपी कलश को भूमि पर लेटकर दंडवत प्रणाम करें . अनुष्ठान के दिनों में ब्रम्हचर्य का पालन एवं एकांत वास करें . सदाचरण करते हुए सभी नियमो का पालन करें . झूठ - फरेब - अत्याचार , बेईमानी से दूर रहें . समय :- नवरात्र यदि ग्रहण काल में आरम्भ करे तो स्पर्श काल से , १५ मिनट पूर्व , आरम्भ करके मोक्ष के १५ मिनट बाद तक करें . ग्रहण काल में नदी के किनारे अथवा शमशान में जाप करें . आवश्यक समस्त सामग्री अपने पास रखे . सामग्री :- एक यन्त्र और एक माला जो प्राण - प्रतिष्ठा युक्त , मंत्र सिद्धि चैतन्य हो , पान , सुपारी , लौंग , सिंदूर , नारियल , अगर - ज्योति , लाल वस्त्र , जल का लोटा , लाल चन्दन की माला , जाप करने के लिए और दो लड्डू . जाप - संख्या : - एक लाख हवन - सामग्री : - सफ़ेद चन्दन का चुरा , लाल चन्दन का चुरा , लोबान , गुग्गल , प्रत्येक ३०० ग्राम , कपूर लगभग १०० ग्राम , बादाम गिरी ५० ग्राम ,काजू ५० ग्राम , अखरोट गिरी ५० ग्राम , गोल ५० ग्राम , छुहारे ५० ग्राम , मिश्री का कुजा १ , . इन सभी को बारीक़ कर के मिला ले . इसमे घी भी मिलाए . फिर खीर बनाये , चावल काम दूध जड़ा रखें . खीर में ५ मेवे डाले , देशी घी , शहद , व चीनी भी डाले . विशेष :- जाप करने के उपरांत १०००० मंत्रो से हवन करें . हवन के दशांश का तर्पण , उसके दशांश का यानि एक माला से मार्जन , और उसके बाद १० कन्याओ एवं एक बटुक को भोजन करा कर अपने गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त करें . नोट : - उपरोक्त साधना के लिए गुरु - दीक्षा आवश्यक हैं . अन्यथा प्रयास असफल रहता हैं

पंचांगुली साधना... पंचांगुली साधना....यह साधना किसी भी समय से प्रारम्भ की जा सकती है, परन्तु साधकको चाहिए कि वह पूर्ण विधि विधान के साथ इस साधना को सम्पन्नकरेँ, मन्त्र जप तीर्थ भूमि, गंगा-यमुना संगम, नदी-तीर, पर्वत,गुफा, या किसी मन्दिर मे की जा सकती है, साधक चाहे तो साधना केलिए घर के एकांत कमरे का उपयोग भी कर सकते हैँ ।इस साधना मेँ यन्त्र आवश्यक है, शुभ दिन शुद्ध , समय मेसाधना स्थान को स्वच्छ पानी से धो ले, कच्चा आंगन हो तो लीप लेँ ,तत्पश्चात लकडी के एक समचौरस पट्टे पर श्वेत वस्त्र धो करबिछा देँ, और उस पर चावलोँ से यन्त्र का निर्माण करेँचावलोँ को अलग-अलग 5 रंगो मे रंग देँ , यन्त्र को सुघडता से सही रुपमेँ बनावे यन्त्र की बनावट मे जरा सी भी गलती सारे परिश्रम को व्यर्थकर देती है ।तत्पश्चात यन्त्र के मध्य ताम्र कलश स्थापित करेँ और उस पर लालवस्त्र आच्छादित कर ऊपर नारियल रखेँ और फिर उस परपंचागुली देवी की मूर्ति स्थापित करे इसके बाद पूर्ण षोडसोपचार से 9दिन तक पूजन करेँ और नित्य पंचागुली मन्त्र का जप तरेँ ।सर्व प्रथम मुख शोधन कर पंचागुली मन्त्र चैतन्य करेँ ,पंचांगुली की साधना मेँ मन्त्र चैतन्य ' ई ' है अतः मन्त्र के प्रारम्भऔर अन्त मे ' ई ' सम्पुट देने से मंत्र चैतन्य हो जाता है ।मन्त्र चैतन्य के बाद योनि-मुद्रा का अनुष्ठान किया जाय यदि योनि-मुद्रा अनुष्ठान का ज्ञान न हो तो भूत लिपि - विधान करना चाहिए ।इसके बाद यन्त्र पूजा कर पंचांगुली ध्यान करेँ ।पंचांगुली ध्यान-पंचांगुली महादेवीँ श्री सोमन्धर शासने ।अधिष्ठात्री करस्यासौ शक्तिः श्री त्रिदशोशितुः ।।पंचांगुली देवी के सामने यह ध्यान करके पंचांगुली मन्त्र का जपकरना चाहिए - पंचांगुली मन्त्र - ॐ नमो पंचागुली पंचांगुली परशरी माता मयंगल वशीकरणी लोहमयदडमणिनी चौसठ काम विहंडनी रणमध्ये राउलमध्ये शत्रुमध्येदीपानमध्ये भूतमध्ये प्रेतमध्ये पिशाचमध्ये झोटिगमध्ये डाकिनिमध्येशाखिनीमध्ये यक्षिणीमध्ये दोषणिमध्ये गुणिमध्ये गारुडीमध्येविनारिमध्ये दोषमध्ये दोषशरणमध्ये दुष्टमध्ये घोर कष्ट मुझ ऊपरबुरो जो कोई करे करावे जडे जडावे चिन्ते चिन्तावे तस माथेश्री माता पंचांगुली देवी ताणो वज्र निर्घार पडे ॐ ठं ठं ठं स्वाहा ।वस्तुतः यह साधना लम्बी और श्रम साध्य है, प्रारम्भ मेगणपति पूजन, संकल्प, न्यास , यन्त्र-पूजा , प्रथम वरण पूजा ,द्वतिया, तृतिया , चतुर्थ, पंचम, षष्ठम् सप्तम, अष्टम औरनवमावरण के बाद भूतीपसंहार करके यन्त्र से प्राण-प्रतिष्ठाकरनी चाहिए ।इसके बाद पंचागुली देवी को संजीवनी बनाने के लिए ध्यान ,अन्तर्मातृका न्यास , कर न्यास, बहिर्मातृका न्यास करनी चाहिए ,यद्यपि इन सारी विधि को लिखा जाय तो लगभग 40-50 पृष्ठो मेआयेगी , यहां मेरा उद्देश्य आप सब को मात्र इस साधना से परिचितकराना है । देश के श्रेष्ठ साधको का मत है कि यदि साधक ये सारे क्रियाकलाप नकरके केवल घर मे मन्त्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त पंचांगुली यन्त्रतथा चित्र स्थापित कर उसके सामने नित्य पंचांगुली मंत्र 21 बार जपकरें तो कुछ समय बाद स्वतः पंचांगुली साधना सिद्ध हो जाती है ।सामान्य साधक को लम्बे चौडे जटिल विधि विधान मे न पड कर अपनेघर मे पंचांगुली देवी का चित्र स्थापना चाहिए और प्रातः स्नान कर गुरुमंत्र जप कर पंचांगुली मन्त्र का 21 बार उच्चारण करना चाहिए ।कुछ समय बाद मन्त्र सिद्ध हो जाता है और यह साधना सिद्ध करसाधक सफल भविष्यदृष्टा बन जाता है , साधक मेजितनि उज्जवला और पवित्रता होती है उसी के अनुसार उसे फलमिलता है ।वर्तमान समय मे यह श्रैष्ठतम और प्रभावपूर्ण मानी जाती हैतथा प्रत्येक मन्त्र मर्मज्ञ और तांत्रिक साधक इस बात को स्वीकारकरते है कि वर्तमान समय मे यह साधना अचूक फलदायक है । इस साधना में कार्तिक माह के हस्त नक्षत्र का ज्यादा महत्व है क्योंकि ये हस्तरेखा और भविष्य दर्शन से जुडी है। ज्यादा उचित ये रहेगा की गुरु के सानिंध्य में साधना करें ये।

चौंसठ योगिनी नाम-स्तोत्रम् गजास्या सिंह-वक्त्रा च, गृध्रास्या काक-तुण्डिका । उष्ट्रा-स्याऽश्व-खर-ग्रीवा, वाराहास्या शिवानना ।। उलूकाक्षी घोर-रवा, मायूरी शरभानना । कोटराक्षी चाष्ट-वक्त्रा, कुब्जा च विकटानना ।। शुष्कोदरी ललज्जिह्वा, श्व-दंष्ट्रा वानरानना । ऋक्षाक्षी केकराक्षी च, बृहत्-तुण्डा सुराप्रिया ।। कपालहस्ता रक्ताक्षी च, शुकी श्येनी कपोतिका । पाशहस्ता दंडहस्ता, प्रचण्डा चण्डविक्रमा ।। शिशुघ्नी पाशहन्त्री च, काली रुधिर-पायिनी । वसापाना गर्भरक्षा, शवहस्ताऽऽन्त्रमालिका ।। ऋक्ष-केशी महा-कुक्षिर्नागास्या प्रेतपृष्ठका । दन्द-शूक-धरा क्रौञ्ची, मृग-श्रृंगा वृषानना ।। फाटितास्या धूम्रश्वासा, व्योमपादोर्ध्वदृष्टिका । तापिनी शोषिणी स्थूलघोणोष्ठा कोटरी तथा ।। विद्युल्लोला वलाकास्या, मार्जारी कटपूतना । अट्टहास्या च कामाक्षी, मृगाक्षी चेति ता मताः ।। ।। फल-श्रुति ।। चतुष्षष्टिस्तु योगिन्यः पूजिता नवरात्रके । दुष्ट-बाधां नाशयन्ति, गर्भ-बालादि-रक्षिकाः ।। न डाकिन्यो न शाकिन्यो, न कूष्माण्डा न राक्षसाः । तस्य पीड़ां प्रकुर्वन्ति, नामान्येतानि यः पठेत् ।। बलि-पूजोपहारैश्च, धूप-दीप-समर्पणैः । क्षिप्रं प्रसन्ना योगिन्यो, प्रयच्छेयुर्मनोरथान् ।। कृष्णा-चतुर्दशी-रात्रावुपवासी नरोत्तमः । प्रणवादि-चतुर्थ्यन्त-नामभिर्हवनं चरेत् ।। प्रत्येकं हवनं चासां, शतमष्टोत्तरं मतम् । स-सर्पिषा गुग्गुलुना, लघु-बदर-मानतः ।। साधक कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी को उपवास करे । रात्रि में गुग्गुल और घृत से विभक्ति युक्त प्रत्येक नाम के आगे प्रणव ॐ लगाकर, प्रत्येक नाम से १०८ आहुतियाँ अर्पित करे । पूरी तरह शुद्ध होकर, एकाग्र-मन से जो इन नामों का पाठ करता है, उसे डाकिनी, शाकिनी, कूष्माण्ड और राक्षस आदि किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती । धूप-दीपादि उपचारों सहित पूजन और बलि प्रदान करने से योगनियाँ शीघ्र प्रसन्न होकर सभी कामनाओं को पूरा करती है । हवन के लिये चौंसठ योगिनी नाम इस प्रकार है, प्रत्येक नाम के आदि में ‘ॐ’ तथा अन्त में स्वाहा लगाकर हवन करें - १॰ ॐ गजास्यै स्वाहा, २॰ सिंह-वक्त्रायै, ३॰ गृध्रास्यायै, ४॰ काक-तुण्डिकायै , ५॰ उष्ट्रास्यायै, ६॰ अश्व-खर-ग्रीवायै, ७॰ वाराहस्यायै, ८॰ शिवाननायै, ९॰ उलूकाक्ष्यै, १०॰ घोर-रवायै, ११॰ मायूर्यै, १२॰ शरभाननायै, १३॰ कोटराक्ष्यै, १४॰ अष्ट-वक्त्रायै, १५॰ कुब्जायै, १६॰ विकटाननायै, १७॰ शुष्कोदर्यै, १८॰ ललज्जिह्वायै, १९॰ श्व-दंष्ट्रायै, २०॰ वानराननायै, २१॰ ऋक्षाक्ष्यै, २२॰ केकराक्ष्यै, २३॰ बृहत्-तुण्डायै, २४॰ सुरा-प्रियायै, २५॰ कपाल-हस्तायै, २६॰ रक्ताक्ष्यै, २७॰ शुक्यै, २८॰ श्येन्यै, २९॰ कपोतिकायै, ३०॰ पाश-हस्तायै, ३१॰ दण्ड-हस्तायै, ३२॰ प्रचण्डायै, ३३॰ चण्ड-विक्रमायै, ३४॰ शिशुघ्न्यै, ३५॰ पाश-हन्त्र्यै, ३६॰ काल्यै, ३७॰ रुधिर-पायिन्यै, ३८॰ वसा-पानायै, ३९॰ गर्भ-भक्षायै, ४०॰ शव-हस्तायै, ४१॰ आन्त्र-मालिकायै, ४२॰ ऋक्ष-केश्यै, ४३॰ महा-कुक्ष्यै, ४४॰ नागास्यायै, ४५॰ प्रेत-पृष्ठकायै, ४६॰ दन्द-शूक-धरायै, ४७॰ क्रौञ्च्यै, ४८॰ मृग-श्रृंगायै, ४९॰ वृषाननायै, ५०॰ फाटितास्यायै, ५१॰ धूम्र-श्वासायै, ५२॰ व्योम-पादायै, ५३॰ ऊर्ध्व-दृष्टिकायै, ५४॰ तापिन्यै, ५५॰ शोषिण्यै, ५६॰ स्थूल-घोणोष्ठायै, ५७॰ कोटर्यै, ५८॰ विद्युल्लोलायै, ५९॰ बलाकास्यायै, ६०॰ मार्जार्यै, ६१॰ कट-पूतनायै, ६२॰ अट्टहास्यायै, ६३॰ कामाक्ष्यै, ६४॰ मृगाक्ष्यै ।

दुर्गा दूर हटायें दुर्भाग्य एक रोटी ले लें |इस रोटी को अपने ऊपर से 31 बार उतार लें। प्रत्येक बार उतारते समय इस मन्त्र का उच्चारण भी करें। मन्त्र इस प्रकार है- ऊँ दुर्भाग्यनाशिनी दुं दुर्गाय नमः। बाद में रोटी को कुत्‍ते को खिला दें अथवा बहते पानी में बहा दें। इस प्रयोग को दिन में किसी भी समय कर के प्रवाहित अथवा खिलाया जा सकता है | टोटके रविवार और मंगलवार को अधिक प्रभावी होते हैं अतः संभव हो तो इस क्रिया को इन दिनों में करें |.....

बीसा यंत्र का महत्व प्राचीन काल में तांत्रिक लोग एवं तंत्र से जुड़े वर्ग के लोग इस यंत्र का अत्यधिक उपयोग किया करते थे। बीसा यंत्र अनेक प्रकार के भंय को नष्ट करता है जैसे- चोर भंय, प्रेत भंय, शत्रु भय, रोग भय, दुर्घटना भय आदि। बीसा यंत्र को सम्मुख रखकर शुभ मुहूर्त में हनुमान चालीसा का एक सौ आठ पाठ करने से बीमार मनुष्यों को बीमारी से छुटकारा मिलता है। इस यंत्र के सम्मुख शक्ति का सावर मंत्र जप करने से मंत्र सिद्ध होता है और उसमें शक्ति जाग्रत होती है। इस यंत्र को प्रतिदिन धूप दीप आदि से पूजन करके सिरहाने रखने से बुरे स्वप्न से छुटकारा मिलता है।

महामृत्युंजय गायत्री संजीवनी मंत्र ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ त्रयंबकंयजामहे ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ *************************** इस मंत्र की आराधना निम्न रूप में की जिसके प्रभाव से वह देव-दानव युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए दानवों को सहज ही जीवित कर सकें || महामृत्युंजय मंत्र में 33 देवताओं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, 1 प्रजापति तथा 1 वषट तथा ऊँ की शक्तियां शामिल हैं वहीं गायत्री मंत्र प्राण ऊर्जा तथा आत्मशक्ति को चमत्कारिक रूप से बढ़ाने वाला मंत्र है || विधिवत रूप से संजीवनी मंत्र की साधना करने से इन दोनों मंत्रों के संयुक्त प्रभाव से व्यक्ति में कुछ ही समय में विलक्षण शक्तियां उत्पन्न हो जाती है || यदि वह नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करता रहे तो उसे अष्ट सिदि्धयां, नव निधियां मिलती हैं तथा मृत्यु के बाद उसका मोक्ष हो जाता है ||

भैरव जी की कृपा प्राप्ति हेतु एक दुर्लभ प्रयोग -- ..कुछ थोड़ी लॉन्ग-इलायची-सौंफ पीसकर एक सेर आटे में मिला ले ! पाव भर देशी खांड और ओउ उतना ही पानी मिला ले की जिससे आटा सुलभता से गुंथा जा सके ! इस गुंथे आटे से केवल एक ही रोटी बनानी है ! जब रोटी बन जाये तो उसमे कुछ सरसों का तेल चुपड़ दे ! इस रोटी के ठीक बीच में सिंदूर का एक टीका लगाये ! टीके से कुछ दूरी पर रोटी का एक गोलाकार टुकड़ा काटे -[यानि गोल टुकड़े के बीच में टीका आना चाहिए] ! अब इस गोलाकार टुकड़े को भी बीच में से काटकर-[निम्बू की तरह] दो भाग बना ले , किन्तु ऐसा काटे की एक भाग में टीका पूरा आना चाहिए ! अब इन टुकडो को फिर से जोड़ -मिलाकर रोटी के बीच में रख दे ! अब भैरव मंदिर जाकर भगवान को धूप-दीप दे ! रोटी के सभी भागो को भगवान के भोग हेतु अर्पित कीजिये और अपने किसी भी कार्य की सिद्धि हेतु प्रार्थना कीजिये ! अब टीका लगा हुवा टुकड़ा श्वान-[कुत्ता] को खिला दे , बचा हुवा आधा गोल टुकड़ा किसी कुए में फेंक दे ! शेष बची हुयी रोटी को भी टुकड़े करके श्वान को ही दे ,,, किन्तु एक टुकड़ा बचाकर अपने घर ले आये ! और घर में ही किसी सुरक्षित स्थान में रख दे ! इस क्रिया के फल स्वरूप प्रयोगकर्ता का असाध्य कार्य में सफलता सिद्ध होगी ! और उस पर भैरव जी की विशिष्ट कृपा बनी रहेगी ! प्रयोगकर्ता को चाहिए की अपने और अपने परिवार की प्रसन्नता -सुख समृद्धि हेतु ही ये प्रयोग करे------------ -किसी के अनिष्ट की कामना को ध्यान में कदापि भी न रखे !

स्वयं रक्षा शाबर मन्त्र साधना यह मंत्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में साधक की रक्षा करता है । कोई भी व्यक्ति इसे सिद्ध करके स्वयं को सुरक्षित कर सकता है । जिसने इसे सिद्ध कर लिया हो, ऐसा व्यक्ति कहीं भी जाए, उसको किसी प्रकार की शारीरिक हानि की आशंका नहीं रहेगी । केवल आततायी से सुरक्षा ही नहीं, बल्कि रोग-व्याधि से मुक्ति दिलाने में भी यह मंत्र अद्भुत प्रभाव दिखाता है । इसके अतिरिक्त किसी दूकान या मकान में प्रेत-बाधा, तांत्रिक-अभिचार प्रयोग, कुदृष्टि आदि कारणों से धन-धान्य, व्यवसाय आदि की वृद्धि न होकर सदैव हानिकारक स्थिति हो, ऐसी स्थिति में इस मंत्र का प्रयोग करने से उस द्थान के समस्त दोष-विघ्न और अभिशाप आदि दुष्प्रभाव समाप्त हो जाते हैं । मन्त्रः- “ॐ नमो आदेश गुरु को। ईश्वर वाचा अजपी बजरी बाड़ा, बज्जरी में बज्जरी बाँधा दसौं दुवार छवा और के घालो तो पलट बीर उसी को मारे । पहली चौकी गणपति, दूजी चौकी हनुमन्त, तिजी चौकी भैंरो, चौथी चौकी देत रक्षा करन को आवे श्री नरसिंह देवजी । शब्द साँचा पिण्ड काँचा, ऐ वचन गुरु गोरखनाथ का जुगोही जुग साँचा, फुरै मन्त्र ईशवरी वाचा ।” विधिः- इस मंत्र को मंत्रोक्त किसी भी एक देवता के मंदिर में या उसकी प्रतिमा के सम्मुख देवता का पूजन कर २१ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार जप कर सिद्ध करें । प्रयोगः- साधक कहीं भी जाए, रात को सोते समय इस मंत्र को पढ़कर अपने आसन के चारों ओर रेखा खींच दे या जल की पतली धारा से रेखा बना ले, फिर उसके भीतर निश्चित होकर बैठे अथवा सोयें । रोग व्याधि में इस मंत्र को पढ़ते हुए रोगी के शरीर पर हाथ फेरा जाए तो मात्र सात बार यह क्रिया करने से ही तत्काल वह व्यक्ति व्याधि से मुक्त हो जाता है । घर में जितने द्वार हो उतनी लोहे की कील लें । जितने कमरे हों, प्रति कमरा दस ग्राम के हिसाब से साबुत काले उड़द लें । थोड़ा-सा सिन्दूर तेल या घी में मिलाकर कीलों पर लगा लें । कीलों और उड़द पर 7-7 बार अलग-अलग मंत्र पढ़कर फूंक मारकर अभिमंत्रित कर लें । व्याधि-ग्रस्त घर के प्रत्येक कमरे या दुकान में जाकर मंत्र पढ़कर उड़द के दाने सब कमरे के चारों कोनों में तथा आँगन में बिखेर दें और द्वार पर कीलें ठोक दें । बालक या किसी व्यक्ति को नजर लग जाए, तो उसको सामने बिठाकर मोरपंख या लोहे की छुरी से मंत्र को सात बार पढ़ते हुए रोगी को झाड़ना चाहिए । यह क्रिया तीन दिन तक सुबह-शाम दोनों समय करें ।

बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र – || ह्लीं || इसे स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है । (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति, क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति । गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः, श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे । विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर ‘शाम्यति’ । बगलामुखी त्र्यक्षर मंत्र - || ॐ ह्लीं ॐ || बगलामुखी चतुरक्षर मन्त्र - || ॐ आं ह्लीं क्रों || (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य चतुरक्षर बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, आं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, आं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ॐ ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ॐ ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ॐ ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ॐ ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ॐ ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ॐ ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - कुटिलालक-संयुक्तां मदाघूर्णित-लोचनां, मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधराम् । सुवर्ण-कलश-प्रख्य-कठिन-स्तन-मण्डलां, आवर्त्त-विलसन्नाभिं सूक्ष्म-मध्यम-संयुताम् । रम्भोरु-पाद-पद्मां तां पीत-वस्त्र-समावृताम् ।। पुरश्चरण में चार लाख जप कर, मधूक-पुष्प-मिश्रित जल से दशांश तर्पण कर घृत-शर्करा-युक्त पायस से दशांश हवन ।

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय । त्र्यम्बक सदा-शिव ! नमस्ते-नमस्ते । ॐ ह्रीं ह्लीं लूं अः एं ऐं महा-घोरेशाय नमः । ह्रीं ॐ ह्रौं शं नमो भगवते सदा-शिवाय । सकल-तत्त्वात्मकाय, आनन्द-सन्दोहाय, सर्व-मन्त्र-स्वरूपाय, सर्व-यंत्राधिष्ठिताय, सर्व-तंत्र-प्रेरकाय, सर्व-तत्त्व-विदूराय,सर्-तत्त्वाधिष्ठिताय, ब्रह्म-रुद्रावतारिणे, नील-कण्ठाय, पार्वती-मनोहर-प्रियाय, महा-रुद्राय, सोम-सूर्याग्नि-लोचनाय, भस्मोद्-धूलित-विग्रहाय, अष्ट-गन्धादि-गन्धोप-शोभिताय, शेषाधिप-मुकुट-भूषिताय, महा-मणि-मुकुट-धारणाय, सर्पालंकाराय, माणिक्य-भूषणाय, सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल-रौद्रावताराय, दक्षाध्वर-ध्वंसकाय, महा-काल-भेदनाय, महा-कालाधि-कालोग्र-रुपाय, मूलाधारैक-निलयाय । तत्त्वातीताय, गंगा-धराय, महा-प्रपात-विष-भेदनाय, महा-प्रलयान्त-नृत्याधिष्ठिताय, सर्व-देवाधि-देवाय, षडाश्रयाय, सकल-वेदान्त-साराय, त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायकायानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्ख-कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-महा-नाग-कुल-भूषणाय, प्रणव-स्वरूपाय । ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, हां हीं हूं हैं हौं हः । चिदाकाशायाकाश-दिक्स्वरूपाय, ग्रह-नक्षत्रादि-सर्व-प्रपञ्च-मालिने, सकलाय, कलङ्क-रहिताय, सकल-लोकैक-कर्त्रे, सकल-लोकैक-भर्त्रे, सकल-लोकैक-संहर्त्रे, सकल-लोकैक-गुरवे, सकल-लोकैक-साक्षिणे, सकल-निगम-गुह्याय, सकल-वेदान्त-पारगाय, सकल-लोकैक-वर-प्रदाय, सकल-लोकैक-सर्वदाय, शर्मदाय, सकल-लोकैक-शंकराय । शशाङ्क-शेखराय, शाश्वत-निजावासाय, निराभासाय, निराभयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय, निरहङ्काराय, निरंकुशाय, निष्कलंकाय, निर्गुणाय, निष्कामाय, निरुपप्लवाय, निरवद्याय, निरन्तराय, निष्कारणाय, निरातङ्काय, निष्प्रपंचाय, निःसङ्गाय, निर्द्वन्द्वाय, निराधाराय, नीरागाय, निष्क्रोधाय, निर्मलाय, निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय, निस्तुलाय, निःसंशयाय, निरञ्जनाय, निरुपम-विभवाय, नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय, ॐ हसौं ॐ हसौः ह्रीम सौं क्षमलक्लीं क्षमलइस्फ्रिं ऐं क्लीं सौः क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः । परम-शान्त-स्वरूपाय, सोहं-तेजोरूपाय, हंस-तेजोमयाय, सच्चिदेकं ब्रह्म महा-मन्त्र-स्वरुपाय, श्रीं ह्रीं क्लीं नमो भगवते विश्व-गुरवे, स्मरण-मात्र-सन्तुष्टाय, महा-ज्ञान-प्रदाय, सच्चिदानन्दात्मने महा-योगिने सर्व-काम-फल-प्रदाय, भव-बन्ध-प्रमोचनाय, क्रों सकल-विभूतिदाय, क्रीं सर्व-विश्वाकर्षणाय । जय जय रुद्र, महा-रौद्र, वीर-भद्रावतार, महा-भैरव, काल-भैरव, कल्पान्त-भैरव, कपाल-माला-धर, खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-ब्रह्मास्त्र-पाशुपतास्त्रादि-महास्त्र-चक्रायुधाय । भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-विस्फारित ब्रह्माण्ड-मंडल नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्र-हार नागेन्द्र-वलय नागेन्द्र-चर्म-धर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्व-रूप विरूपाक्ष विश्वम्भर विश्वेश्वर वृषभ-वाहन वृष-विभूषण, विश्वतोमुख ! सर्वतो रक्ष रक्ष, ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्फुर स्फुर आवेशय आवेशय, मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय, प्रस्फुर प्रस्फुर । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय, चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय, विष-सर्प-भयं शमय शमय, चोरान् मारय मारय, मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय, मम क्रोधादि-सर्व-सूक्ष्म-तमात् स्थूल-तम-पर्यन्त-स्थितान् शत्रूनुच्चाटय, त्रिशूलेन विदारय विदारय, कुठारेण भिन्धि भिन्धि, खड्गेन छिन्धि छिन्धि, खट्वांगेन विपोथय विपोथय, मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय, वाणैः सन्ताडय सन्ताडय, रक्षांसि भीषय भीषय, अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय, कूष्माण्ड-वेताल-मारीच-गण-ब्रह्म-राक्षस-गणान् संत्रासय संत्रासय, सर्व-रोगादि-महा-भयान्ममाभयं कुरु कुरु, वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय, नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर, सञ्जीवय सञ्जीवय, क्षुत्-तृषा-ईर्ष्यादि-विकारेभ्यो मामाप्याययाप्यायय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय । मृत्युञ्जय त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते, शं ह्रीं ॐ ह्रों । विशेषः नित्य-पाठ ही फल-दायक

॥अथ योगिनीहृदयम्॥ श्रीदेव्युवाच देवदेव महदेव परिपूर्णप्रथामय । वामकेश्वरतन्त्रेऽस्मिन्नज्ञातर्थास्त्वनेकशः ।। १ ।। तांस्तानर्थानशेषेण वक्तुमर्हसि भैरव । श्रीभैरव उवाच शृणु देवि महागुह्यं योगिनिहृदयं परम् ।। २ ।। त्वत्प्रीत्या कथयाम्यद्य गोपनीयं विशेषतः । कर्णात्कर्णोर्पदेशेन सम्प्राप्तमवनीतलम् ।। ३ ।। न देयं परशिष्येभ्यो नास्तिकेभ्यो न चेश्वरि । न शुश्रूषालसानाञ्च नैवानर्थप्रदायिनाम् ।। ४ ।। परीक्षिताय दातव्यं वत्सरार्धोषिताय च । एतज्ज्ञात्वा वररोहे सद्यः खेचरतां व्रजेत् ।। ५ ।। चक्रसङ्केतको मन्त्रपूजासङ्केतकौ तथा । त्रिविधस्त्रिपुरादेव्याः सङ्केतः परमेश्वरि ।। ६ ।। यावदेतन्न जानाति सङ्केतत्रयमुत्तमम् । न तावत्रिपुराचक्रे परमाज्ञाधरो भवेत् ।। ७ ।। तच्छक्तिपञ्चकं सृष्ट्या लयेनाग्निचतुष्टयम् । पञ्चशक्तिचतुर्वह्निसंयोगाच्चक्रसम्भवः ।। ८ ।। एतच्चक्रावतारन्तु कथयामि तवानघे । यदा सा परमा शक्तिः स्वेच्छया विश्वरूपिणी ।। ९ ।। स्फुरत्तामात्मनः पश्येत्तदा चक्रस्य सम्भवः । शून्याकाराद्विसर्गान्ताद् बिन्दोः प्रस्पन्दसंविदः ।। १० ।। प्रकाशपरमार्थत्वात् स्फुरत्तालहरीयुतात् । प्रसृतं विश्वलहरीस्थानं मातृत्रयात्मकम् ।। ११ ।। बैन्दवं चक्रमेतस्य त्रिरूपत्वं पुनर्भवेत् । धर्माधर्मौ तथात्मानो मातृमेयौ तथा प्रमा ।। १२ ।। नवयोन्यात्मकं चक्रं चिदानन्दघनं महत् । चक्रं नवात्मकमिदं नवधा भिन्नमन्त्रकम् ।। १३ ।। बैन्दवासनसंरूढसंवर्तानलचित्कलम् । अम्बिकारूपमेवेदमष्टारस्थं स्वरावृतम् ।। १४ ।। नवत्रिकोणस्फुरितप्रभारूपदशारकम् । शक्त्यादिनवपर्यन्तदशार्णस्फूर्तिकारकम् ।। १५ ।। भूततन्मात्रदशकप्रकाशालम्बनत्वतः । द्विदशारस्फुरद्रूपं क्रोधीशादिदशारकम् ।। १६ ।। चतुश्चक्रप्रभारूपसंयुक्तपरिणामतः । चतुर्दशाररूपेण संवित्तिकरणात्मना ।। १७ ।। खेचर्यादिजयान्तार्णपरमार्थप्रथामयम् । एवं शक्त्यनलाकारस्फुरद्रौद्रीप्रभामयम् ।। १८ ।। ज्येष्टारूपचतुष्कोणं वामारूपभ्रमित्रयम् । चिदंशान्तस्त्रिकोणं च शान्त्यतिताष्टकोणकं ।। १९ ।। शान्त्यंशद्विदशारञ्च तथैव भुवनारकम् । विद्याकलाप्रमारूपदलाष्टकसमावृतम् ।। २० ।। प्रतिष्टावपुषा सृष्टस्फुरद्द्व्यष्टदलाम्बुजम् । निवृत्त्याकारविलसच्चतुस्ष्कोणविराजितम् ।। २१ ।। त्रैलोक्यमोहनाद्ये तु नवचक्रे सुरेश्वरि । नादो बिन्दुः कला ज्येष्टा रौद्रीई वामा तथा पुनः ।। २२ ।। विषघ्नीई दूतरी चैव सर्वानन्दा क्रमात् स्थिताः । निरंशौ नादबिन्दू च कला चेच्छास्वरूपकम् ।। २३ ।। ज्येष्टा ज्ञानं क्रिया शेषमित्येवं त्रितयात्मकम् । चक्रं कामकलारूपं प्रसारपर, मार्थतः ।। २४ ।। अकुले विषुसंज्ञे च शक्ते वह्नौ तथा पुनः । नाभावनाहते शुद्धे लम्बिकाग्रे भ्रुवोऽन्तरे ।। २५ ।। बिन्दौ तदर्धे रोधिन्यां नादे नादान्त एव च । शक्तौ पुनर्व्यापिकायां समनोन्मनि गोचरे ।। २६ ।। महाबिन्दौ पुनश्चैव त्रिधा चक्रं तु भावयेत् । आज्ञान्तं सकलं प्रोक्तं ततः सकलनिष्कलम् ।। २७ ।। उन्मन्यन्तं परे स्थाने निष्कलञ्च त्रिधा स्थितम् । दीपाकारोऽर्धमात्रश्च ललाटे वृत्त इष्यते ।। २८ ।। अर्धचन्द्रस्तथाकारः पादमात्रस्तदूर्ध्वके । ज्योत्स्नाकारा तदष्टांशा रोधिनी त्र्यस्रविग्रहा ।। २९ ।। बिन्दुद्वयान्तरे दण्डः शेवरूपो मणिप्रभः । कलांशो द्विगुणांशश्च नादान्तो विद्युदुज्ज्वलः ।। ३० ।। हलाकारस्तु सव्यस्थबिन्दुयुक्तो विराजते । शक्तिर्वामस्थबिन्दुद्यत्स्थिराकारा तथा पुनः ।। ३१ ।। व्यापिका बिन्दुविलसत्त्रिकोणाकारतां गता । बिन्दुद्वयान्तरालस्था ऋजुरेखामयी पुनः ।। ३२ ।। समना बिन्दुविलसदृजुरेखा तथोन्मना । शक्त्यादीनां वपुः स्फूर्जद्द्वादशादित्यसन्निभम् ।। ३३ ।। चतुःषष्टिस्तदूर्ध्वं तु द्विगुणं दिगुणं ततः । शक्त्यादीनां तु मात्रांशो मनोन्मन्यास्तथोन्मनी ।। ३४ ।। दैशकालानवच्छिन्नं तदूर्ध्वे परमं महत् । निसर्गसुन्दरं तत्तु परानन्दविघूर्णितम् ।। ३५ ।। आत्मनह स्फुरणं पश्येद्यदा सा परमा कला । अम्बिकारूपमापन्न परा वाक् ससुदीरिता ।। ३६ ।। बीजभावस्थितं विश्वं स्फुटीकर्तुं यदोन्मुखी ।। वामा विश्वस्य वमनादङ्कुशाकारतां गता ।। ३७ ।। इच्छाशक्तिस्तदा सेयं पश्यन्ती वपुषा स्थिता । ज्ञानशक्तिस्तथा ज्येष्टा मध्यमा वागुदीरिता ।। ३८ ।। ऋजुरेखामयी विश्वस्थितौइ प्रथितविग्रहा । तत्संहृतिदशायां तु बैन्दवं रूपमास्थिता ।। ३९ ।। प्रत्यावृत्तिक्रमेणैवं शृङ्गटवपुरुज्ज्वला । क्रियाशक्तिस्तु रौद्रीयं वैखरी विश्वविग्रहा ।। ४० ।। भासनाद्विश्वरूपस्य स्वरूपे बाह्यतोऽपि च । एताश्चतस्त्रः शक्त्यस्तु का पू जा ओ इति क्रमात् ।। ४१ ।। पीठाः कन्दे पदे रूपे रूपातीते क्रमात् स्थिताः । चतुरस्त्रं तथ बिन्दुषट्कयुक्तं च वृत्तकम् ।। ४२ ।। अर्धचन्द्रं त्रिकोणं च रूपाण्येषां क्रमेण तु । पीतो धूम्रस्तथा श्वेतो रक्तो रूपं च कीर्तितम् ।। ४३ ।। स्वयम्भुर्बाणलिङ्गं च इतरं च परं पुनः । पीठेष्वेतानि लिङ्गानि संस्थितानि वरानने ।। ४४ ।। हेमबन्धृककुसुमशरच्चन्द्रनिभानि तु । स्वावृतं त्रिकूटं च महालिङ्गं स्वयम्भुवम् ।। ४५ ।। कादितान्ता क्षरोपेतं बाणलिङ्गं त्रिकोणकम् । कदम्बगोलकाकारं थादिसान्ताक्षरावृतम् ।। ४६ ।। सूक्ष्मरूपं समस्तार्णवृतं परमलिङ्गकम् । बिन्दुरूपं परानन्दकन्दं नित्यपओदितम् ।। ४७ बीअत्रितययुक्तास्य सकस्य मनोः पुनः । एतानि वाच्यरूपाणि कुलकौलमयानि तु ।। ४८ ।। जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्यतुर्यरूपाण्यमूनि तु । अतितं तु परं तेजः स्वसंविदुदयात्मकम् ।। ४९ ।। स्वेच्छाविश्वमयोल्लेखखचितं विश्वरूपकम् । चैतन्यमात्मनो रूपं निसर्गानन्दसुन्दरम् ।। ५० ।। मेयमातृप्रमामानप्रसरैः संकुचत्प्रभम् । शृङ्गाटरूपमापन्नमिच्छाज्ञानक्रियात्मकम् ।। ५१ ।। विश्वाकारप्रथाधारनिजरूपशिवाश्रयम् । कामेश्वराङ्कपर्यङ्कनिविष्टमतिसुन्दरम् ।। ५२ ।। इच्छाशक्तिमयं पाशमङ्कुशं ज्ञनरूपिणम् । क्रियाशक्तिमये बाणधनुषी दधदुज्ज्वलम् ।। ५३ ।। आश्रयाश्रयिभेदेन अष्टधा भिन्नहेतिमत् । अष्टारचक्रसंरूढं नवचक्रासनस्थितम् ।। ५४ ।। एवंरूपं परं तेजः श्रीचक्रवपुषा स्थितम् । तदीयशक्तिनिकरस्फुरदूर्मिसमावृतम् ।। ५५ ।। चिदात्मभित्तौ विश्वस्य प्रकाशामर्शने यदा । करोति स्वेच्छया पूर्णविचिकीर्षासमन्विता ।। ५६ ।। क्रियाशक्तिस्तु विश्वस्य मोदनाद् द्रावणात्तथा । मुद्राख्या सा यदा संविदम्बिका त्रिकलामयी ।। ५७ ।। त्रिखण्डारूपमापन्ना सदा सन्निधिकारिणी । सर्वस्य चक्रराजस्य व्यापिका परिकीर्तित ।। ५८ ।। योनिप्राचुर्यतः सैषा सर्वसंक्षोभिका पुनः । वामाशक्तिप्रधानेयं द्वारचक्रे स्थिता भवेत् ।। ५९ ।। क्षुब्धाविश्वस्थिततिर्करी ज्येष्टाप्राचुर्यमाश्रिता । स्थूलनादकलारूपा सर्वानुग्रहकारिणी ।। ६० ।। सर्वाशपूरणाख्ये तु सैषा स्फुरितविग्रहा । ज्येष्टावामासमन्त्वेन सृष्टेः प्राधान्यमाश्रिता ।। ६१ ।। आकर्षिणी तु मुद्रेयं सर्वसंक्षोभिणी स्मृता । व्योमद्वयान्तरालस्थबिन्दुरूपा महेश्वरि ।। ६२ ।। शिवशक्त्यात्मसंश्लेषाद्दिव्याकेशकरी स्मृता चतुर्दशारचक्रस्था संविदानन्दविग्रहा ।। ६३ ।। बिन्द्वन्तरालविलसत्सूक्ष्म रेखाशिखामयी । ज्येष्टाशक्तिप्रधाना तु सर्वोन्मादनकारिणी ।। ६४ ।। दशारचक्रमास्थाय संस्थिता वीरवन्दिते । वामाशक्तिप्रधाना तु महाङ्कुशमयी पुनः ।। ६५ ।। तद्वद्विश्वं वमन्ती सा दिव्तीये तु दशारके । संस्थिता मोदनपरा मुद्रारूपत्वमास्थिता ।। ६६ ।। धर्माधर्मस्य संघट्टादुत्थिता वित्तीरूपिणी । विकल्पोत्थक्रियालोपरूपदोषविधातिनी ।। ६७ ।। विकल्परूपरोगाणां हारिणी खेचरी परा । सर्वरोगहराख्ये तु चक्रे संविन्मयी स्थिता ।। ६८ ।। शिवशक्तिसमाश्लेषस्फुरद्व्योमान्तरे पुनः । प्रकाशयति विश्वं सा सूक्ष्मरूपस्थित सदा ।। ६९ ।। बीजरूपा महामुद्रा सर्वसिद्धिमये स्थिता । सम्पूर्णस्य प्रकाशस्य लाभभूमिरियं पुनः ।। ७० ।। योनिमुद्रा कलारूपा सर्वानन्दमये स्थिता । क्रिया चैतन्यरूपत्वादेवं चक्रमयं स्थितम् ।। ७१ ।। इच्छारूपं परं तेजाः सर्वदा भावयेद् बुधः । त्रिधा च नवधा चैव चक्रसङ्केतकः पुनः ।। ७२ ।। वह्निनैकेन शक्तिभ्यां द्वाभ्यां चैकोऽप्रः पुनः । तैश्च वह्नित्रयेणापि शक्तीनां त्रितयेन च ।। ७३ ।। पद्मद्वयेन चान्यः स्याद भूगृहत्रितयेन च । पञ्चशक्ति चतुर्वह्निपद्मद्वयमहीत्रयम् ।। ७४ ।। परिपूर्णं महचक्रं तत्प्रकारः प्रदर्श्यते । तत्राद्यं नवयोनि स्यात् तेन द्विदशासंयुतम् ।। ७५ ।। मनुयोनि परं विद्यात् तृतीयं तदनन्तरम् । अष्टद्व्यष्टदलोपेतं चतुरस्रत्रयान्वितम् ।। ७६ ।। चक्रस्य त्रिप्रकारत्वं कथितं परमेश्वरि । सृष्टिःस्यान्नवयोन्यादिपृथ्व्यन्तं संहृति पुनः ।। ७७ ।। पृथ्व्यादिनवयोन्यन्तमिति शास्त्रस्य निर्णयः । एतत्समष्टिरूपं तु त्रिपुराचक्रमुच्यते ।। ७८ ।। यस्य विज्ञानमात्रेण त्रिपुराज्ञानवान् भवेत् । चक्रस्य नवधात्वं च कथयामि तव प्रिये ।। ७९ ।। आदिमं भूत्रयेण स्याद द्वितीयं षोडशारकम् । अन्यदष्टदलं प्रोक्तं मनुकोणमनन्तरम् ।। ८० ।। पञ्चमं दशकोणं स्यात् षष्टं चापि दशारकम् ।। सप्तमं वसुकोणं स्यान्मध्यत्र्यस्रमथाष्टमम् ।। ८१ ।। नवमं त्र्यस्रमध्यं स्यात् तेषां नामान्यतः शृणु । त्रैलोक्यमोहनं चक्रं सर्वाशापरिपूरकम् ।। ८२ ।। सर्वसंक्षोभणं गौरि सर्वासौभाग्यदायकम् । सर्वार्थसाधकं चक्रं सर्वरक्षाकरं परम् ।। ८३ ।। सर्वरोगहरं देवि सर्वसिद्धिमयं तथा । सर्वानन्दमयं चापि नवमं शृणु सुन्दरि ।। ८४ ।। अत्र पुज्या महादेवी महात्रिपुरसुन्दरी । परिपूर्णं महाचक्रमजरामरकारकम् ।। ८५ ।। एतमेव महाचक्रसङ्केतः परमेश्वरि । कथितस्त्रिपुरादेव्या जीवन्मुक्तिप्रवर्तकः ।। ८६ ।।

शरभ उपनिषद उपासना । शिवस्वरूप शरभावतार की उपासना करने से व्यक्ति को मनोवांच्छित शक्तियों की प्राप्ति होती है. भगवान रूद्र ही काम क्रोध को नष्ट करके विकारों का शमन करते हैं, रुद्र जिन्होंने ब्रह्मा का पांचवां सिर नष्ट करके उन्हें मुक्त किया. भगवान रुद्र को नमस्कार जो काल के भय को दूर करते हैं, जिनके भय से मृत्यु को भी भय लगता है, जिन्होंने विष को ग्रहण करके ब्रह्माण को जीवन दिया उन रूद्र को शत शत नमन है. भगवान शिव जिन्हें विष्णु भगवान ने पूजा और उनसे चक्र प्राप्त किया, जो समस्त दुखों को दूर करते हैं, जो आत्मा के रूप में प्राणियों के हृदय में समाए हुए हैं, वही सबसे बड़े हैं. रुद्र अपने हाथ में त्रिशूल थामे सभी को आशीर्वाद देते नजर आते हैं.

सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों? भारतीय देव परम्परा में गणेश आदिदेव हैं। हिन्दू धर्म में किसी भी शुभकार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी पूजा करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि- सिद्धि का स्वामी कहा जाता है। इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होती है व विघ्न का विनाश होता है। वे एकदन्त, विकट, लम्बोदर और विनायक है। वे शीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात् प्रणवरूप हैं। गणेश का अर्थ है- गणों का ईश। अर्थात् गणों का स्वामी। किसी पूजा, आराधना, अनुष्ठान व कार्य में गणेश जी के गण कोई बाधा न पहुंचाएं, इसलिए सर्वप्रथम गणेश पूजा करके उसकी कृपा प्राप्त की जाती है । प्रत्येक शुभकार्य के पूर्व "श्रीगणेशाय नम:" का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मन्त्र बोला जाता है – वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।। अर्थात् विशाल आकार और टेढ़ी सूण्ड वाले करोड़ों सूर्यों के समान तेज वाले हे! देव (गणेशजी), मेरे समस्त कार्यों को सदा विघ्नरहित पूर्ण करें। वेदों में भी गणेश की महत्ता व उनके विघ्नहर्ता स्वरूप की ब्रह्मरूप में स्तुति व आह्वान करते हुए कहा गया है --- गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कबीना मुपश्रवस्तमम्। ज्येष्ठरांज ब्रह्ममणस्पत आ न: श्रृण्वन्न् तिभि: सीदसादनम्।। -ऋग्वेद 2/23/1 गणेश जन आस्थाओं में अमूर्त रूप से जीवित थे, वह आस्थाओं से मूर्तियों में ढल गए। गजमुख, एकदन्त, लम्बोदर आदि नामों और आदिम समाजों के कुल लक्षणों से गणेश को जोड़कर जहाँ गुप्तों ने अपने साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं पूजकों को भी अपनी सीमा विस्तृत करने का अवसर मिला। गणेश सभी वर्गों की आस्थाओं का केन्द्र बन गए। एक प्रकार से देखा जाए तो गणेश व्यापक समाज और समुदाय को एकता के सूत्र में पिरोने का आधार बने, वहीं सभी धर्मों की आस्था का केन्द्र बिन्दु भी सिद्ध हुए। उनका मंगलकारी व विघ्नहर्ता रूप सभी वर्गों को भाया। इस विराट विस्तार ने ही गणेश को न केवल सम्पूर्ण भारत बल्कि विदेशों तक पूज्य बना दिया और अब तो विश्व का सम्भवतः ही ऐसा कोई कोना हो,जहाँ गणेश न हों। वेदों और पुराणों में सर्वत्र प्रथम पूजनीय गणपति बुद्धि, साहस और शक्ति के देवता के रूप में भी देखे जाते हैं। सिन्दूर वीरों का अलंकरण माना जाता है। गणेश, हनुमान और भैरव को इसलिए सिन्दूर चढ़ाया जाता है। गाणपत्य सम्प्रदाय के एकमात्र आराध्य के रूप में देश में गणेश की उपासना सदियों से प्रचलित है। आज भी गणपति मन्त्र उत्तर से दक्षिण तक सभी मांगलिक कार्यों मे बोले जाते हैं। नगर-नगर में गणेश मन्दिर हैं, जिनमें सिन्दूर, मोदक, दूर्वा और गन्ने चढ़ाए जाते हैं। सिन्दूर शौर्य के देवता के रूप में, मोदक तृप्ति और समृद्धि के देवता के रूप में तथा दूर्वा और गन्ना हाथी के शरीर वाले देवता के रूप में गणेश को प्रिय माना जाता है।

सिद्ध करने का तरीका रविवार के दिन एक किलो काले उडद अपने सामने रखकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक इस मंत्र का नियमित रूप से जप करने पर यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। जब यह मंत्र सिद्ध हो जाए तब उन काले उडदों को लेकर 21 दिन मंत्र पढकर दुकान में बिखेर देवें, इस प्रकार तीन रविवार तक करने पर दुकान की बिक्री दुगुनी-तिगुनी हो जाती है। यह निश्चित है। जैसा कि बताया गया है, शाबर मंत्र सरल भाषा में होते है और आज के अनास्था तथा वैज्ञानिक युग में विश्वास नहीं होता कि ये मंत्र इतने शक्तिशाली है और इन मंत्रों से कार्य सिद्ध किए जा सकते है। परंतु साधकों ने इन मंत्रों को सिद्ध किया है और पूरी तरह से लाभ उठाया है। आप भी चाहें तो इन सत्य को परख सकते है। धन प्राप्ति हेतु तांत्रिक मंत्र यह मंत्र महत्वपूर्ण है, इस मंत्र का जप अर्द्धरात्रि को किया जाता है। यह साधना 22 दिन की है और नित्य एक माला जप होना चाहिए। यदि शनिवार या रविवार में इस प्रयोग को प्रारम्भ किया जाए तो ज्यादा उचित रहता है। इसमें व्यक्ति को लाल वस्त्र पहनने चाहिए और पूजा में प्रयुक्त सभी समान को रंग लेना चाहिए। दीपावली के दिन भी इस मंत्र का प्रयोग किया जा सकता है और कहते हैं कि यदि दीपावली की रात्रि को इस मंत्र को 21 माला फेरें तो उसके व्यापार में उन्नति एवं आर्थिक सफलता प्राप्त होती है। मंत्र- ओम नमो पदमावती एद्मालये लक्ष्मीदायिनी वांछाभूत प्रेत बिन्ध्यवासिनी सर्व शत्रु संहारिणी दुर्जन मोहिनी ऋद्धि-सिद्ध वृद्धि कुरू कुरू स्वाहा। ओम क्लीं श्रीं पद्मावत्यै नम:। जब अनुष्ठान पूरा हो जाए तो साधक को चाहिए कि वह नित्य इसकी एक माला फेरे। ऎसा करने पर उसके आगे के जीवन में निरन्तर उन्नति होती रहती है। धन प्राप्ति का शाबर मंत्र नित्य प्रात: काल दन्त धावन करने के बाद इस मंत्र का 108 बार पाठ करने से व्यापार या किसी अनुकूल तरीके से धन प्राप्ति होती है। मंत्र- ओम ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मामगृहे धन पूरय चिन्ताम्तूरय स्वाहा।

दक्षिणा वर्ती गणेश उपासना ... भगवान गणेश के स्वरुप से भला कौन नहीं परिचित होगा..उनकी मधुर मुस्कान युक्त वरदायक छबि मानो हमारे हर मगलदायक कार्यों को अपना आशीर्वाद दे ही रही हैं .. और धन आये हमारे जीवन मे . उससे पहले कहीं ज्यदा आवश्यक हैं की उस धन का सदुपयोग करने लायक बुद्धि हो हमारे पास ..नहीं तो धन के जाने में कितना समय लगेगा . जब व्यक्ति के पास अनायास काफी धन आया पर वह उसे धन को रोकने के लिए भगवान गणपति की साधना उपासना से बढ़कर और कुछ भी नही हैं . और आजकल धन आगमन बना रहे इस हेतु दक्षिणा वर्ती शंख का तो घर घर में स्थापन हो गया हैं फिर वह चाहे छोटा या बड़ा ही शंख ही क्यों न हो.....और उचित प्राण प्रतिष्ठित दक्षिणा वर्ती शंख की महत्वता से तो सभी परिचित हैं ही . पर कहीं से आपको यदि दक्षिणावर्ती गणेश प्रतिमा मिल जाए तो आपके भाग्य का क्या कहना .. पर दक्षिणा वर्ती गणेश ..??? यह तो सुना ही नहीं .. यहाँ मतलब हैं भगवान गणेश की सूंड के घुमाव से हैं साधारणतः जो भी प्रतिमा उनकी प्राप्त होती हैं .उसमे उनकी सूंड का घुमाव सीधा होता हैं या उत्तर दिशा की ओर ..... पर किसी के भाग्य हैं जो उसे ऐसी प्रतिमा मिल जाए जिसमे उनकी सूंड का घुमाव उलटी दिशा में हो मतलब दक्षिण में . .तब बस उस प्रतिमा का स्थापन करे और जैसा भी और जो भी साधना भगवान गणेश की इस अद्भुत प्रतिमा के सामने करे ..उसे कई गुना लाभ मिलना चालू हो जायेंगे .. अनेको अपने देश के उच्च तंत्र साधको का कहना रहा हैं उन्होंने कई बार ऐसी प्रतिमा का निर्माण स्वयं कराया पर .हर बार जब भी दक्षिण दिशा की तरफ मुडी हुयि सूंड बनबाई गयी हर बार वह टूट ही गयी .. पर उन सभी का मानना यह भी हैं की हज़ारों लाखो में किसी किसी को ऐसी प्रतिमा का मिल जाना उसके परम भाग्य का प्रतीक हैं ..तो मित्रों देखिये शायद आपके घर में ही तो पहले से ऐसी प्रतिमा नहीं हैं,,अगर हैं तो विधि विधान से उसका पूजन कर अपन जीवन को यश लाभ युक्त बनाये .. या अभी तक कोई भी भगवान गणेश की प्रतिमा नहीं हैं तब खोज करे शायद ऐसा विग्रह आपको कहीं पर मिल ही जाए।

क्या आपके बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता? प्रत्येक अभिवावक की आकांक्षा होती है कि वह अपनी सन्तान को हर सम्भव साधन जुटाकर बेहतर से बेहतर शिक्षा उपलब्ध करा सके जिससे उसके व्यकितत्व में व्यापकता आये और वह स्वंय जीवनरूपी नैय्या का खेवनहार बनें। सारी सुविधायें होने के बावजूद भी जब बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता है एंव जो कुछ पढ़ते है, वह शीघ्र ही भूल जाते हैं या फिर अधिक परिश्रम करने के बावजूद भी परीक्षाफल सामान्य ही रहता है। ऐसी सिथतियों में वास्तु का सहयोग लेने से आश्चर्यचकित परिणाम सामने आते है। अध्ययन कक्ष में इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चों का पढ़ाई के प्रति रूझान बढ़े एंव मन एकाग्र होकर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हो सके। घर में अध्ययन कक्ष ईशान कोण अथवा पूर्व या उत्तर दिशा में बनवाना चाहिए। अध्ययन कक्ष शौचालय के निकट कदापि न बनवायें। पढ़ने की टेबल पूर्व या उत्तर दिशा में रखें तथा पढ़ते समय मुख उत्तर या पूर्व की दिशा में ही होना चाहिए। इन दिशाओं की ओर मुख करने से सकारात्मक उर्जा मिलती है जिससे स्मरण शकित बढ़ती है एंव बुद्धि का विकास होता है। पढ़ने वाली टेबल को दीवार से सटा कर न रखें। पढ़ते वक्त रीढ़ को हमेशा सीधा रखें। लेटकर या झुककर नहीं पढ़ना चाहिए। पढ़ने की सामग्री आखों से लगभग एक फीट की दूरी पर रखनी चाहिए। अध्ययन कक्ष में हल्के रंगों का प्रयोग करें। जैसे- हल्का पीला, गुलाबी, आसमानी, हल्का हरा आदि। राति्र को आधिक देर तक नहीं पढ़ना चाहिए क्योंकि इससे तनाव, चिड़चिड़ापन, क्रोध, दृषिट दोष, पेट रोग आदि समस्यायें होने की प्रबल आशंका रहती है। ब्रहममुहूर्त या प्रात:काल में 4 घन्टे अध्ययन करना राति्र के 10 घन्टे के बराबर होता है। क्योंकि प्रात:काल में स्वच्छ एंव सकारात्मक ऊर्जा संचरण होती है जिससे मन व तन दोनों स्वस्थ्य रहते हैं। अध्ययन कक्ष में किताबों की अलमारी को पूर्व या उत्तर दिशा में बनायें तथा उसकी सप्ताह में एक बार साफ-सफार्इ अवश्य करनी चाहिए। अलमारी में गणेश जी की फोटो लगाकर नित्य पूजा करनी चाहिए। बीएड, प्रशासनिक सेवा, रेलवे, आदि की तैयारी करने वाले छात्रो का अध्ययन कक्ष पूर्व दिशा में होना चाहिए। क्योंकि सूर्य सरकार एंव उच्च पद का कारक तथा पूर्व दिशा का स्वामी है। बीटेक, डाक्टरी, पत्रकारिता, ला, एमसीए, बीसीए आदि की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रो का अध्ययन कक्ष दक्षिण दिशा में होना चाहिए तथा पढ़ने वाली मेज आग्नेय कोण में रखनी चाहिए। क्योंकि मंगल अगिन कारक ग्रह है एंव दक्षिण दिशा का स्वामी है। एमबीए, एकाउन्ट, संगीत, गायन, और बैंक की आदि की तैयारी करने वाले छात्रों का अध्ययन कक्ष उत्तर दिशा में होना चाहिए क्योंकि बुध वाणी एंव गणित का संकेतक है एंव उत्तर दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। रिसर्च तथा गंभीर विषयों का अध्ययन करने वाले छात्रों का अध्ययन कक्ष पशिचम दिशा में होना चाहिए क्योंकि शनि एक खोजी एंव गंभीर ग्रह है तथा पशिचम दिशा का स्वामी है।

रोग एवं अपमृत्यु-निवारक प्रयोग ।। श्री अमृत-मृत्युञ्जय-मन्त्र प्रयोग ।। किसी प्राचीन शिवालय में जाकर गणेश जी की “ॐ गं गणपतये नमः” मन्त्र से षोडशोपचार पूजन करे । तदनन्तर “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र से महा-देव जी की पूजा कर हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़े - विनियोगः- ॐ अस्य श्री अमृत-मृत्युञ्जय-मन्त्रस्य श्री कहोल ऋषिः, विराट् छन्दः, अमृत-मृत्युञ्जय सदा-शिवो देवता, अमुक गोत्रोत्पन्न अमुकस्य-शर्मणो मम समस्त-रोग-निरसन-पूर्वकं अप-मृत्यु-निवारणार्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्री कहोल ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, अमृत-मृत्युञ्जय सदा-शिवो देवतायै नमः हृदि, मम समस्त-रोग-निरसन-पूर्वकं अप-मृत्यु-निवारणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । कर-न्यासः- ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः, जूं तर्जनीभ्यां नमः, सः मध्यमाभ्यां नमः, मां अनामिकाभ्यां नमः, पालय कनिष्ठिकाभ्यां नमः, पालय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । षडङ्ग-न्यासः- ॐ हृदयाय नमः, जूं शिरसे स्वाहा, सः शिखायै वषट्, मां कवचाय हुं, पालय नेत्र-त्रयाय वोषट्, पालय अस्त्राय फट् । ध्यानः- स्फुटित-नलिन-संस्थं, मौलि-बद्धेन्दु-रेखा-स्रवदमृत-रसार्द्र चन्द्र-वन्ह्यर्क-नेत्रम् । स्व-कर-लसित-मुद्रा-पाश-वेदाक्ष-मालं, स्फटिक-रजत-मुक्ता-गौरमीशं नमामि ।। मूल-मन्त्रः- “ॐ जूं सः मां पालय पालय ।” पुरश्चरणः- सवा लाख मन्त्र-जप के लिए पाँच हजार जप प्रतिदिन करना चाहिए । जप के बाद न्यास आदि करके पुनः ध्यान करे । फिर जल लेकर - ‘अनेन-मत् कृतेन जपेन श्री-अमृत-मृत्युञ्जयः प्रीयताम्’ कहकर जल छोड़ दे । जप का दशांश हवनादिक करे । ‘हवन’ हेतु ‘तिलाज्य’ में ‘गिलोय’ भी डालनी चाहिए । हवनादि न कर सकने पर ‘चतुर्गुणित जप’ करने से अनुष्ठान पूर्ण होता है एवं आरोग्यता मिलती है, अप-मृत्यु-निवारण होता है ।.....

.शत्रु नाशक प्रमाणिक प्रयोग शत्रु-बाधा निवारक ‘दारूण-सप्तक’ जब हिरण्यकश्यप को भगवान् नृसिंह ने अपनी गोद में रखकर अपने खर-तर नखों से उसके उदर को सर्वथा विदीर्ण कर चीर दिया और प्रह्लाद का दुःख दूर हो गया । तदनन्तर श्री भगवान् नृसिंह का वह क्रोध शान्त न हुआ, तब भगवान् विष्णु के आग्रह पर भगवान् रुद्र ने श्री शरभेश्वर (पक्षिराज, पक्षीन्द्र, पंखेश्वर) का रुप धारण कर, अपनी लौह के समान कठिन त्रोटी (चोंच) से, नृसिंह देव के ब्रह्म-रन्ध्र को विदीर्ण कर दिया, जिससे वे पुनः शान्त हो गए । संक्षिप्त अनुष्ठान विधि- स्वस्तिवाचन करके गुरु एवं गणपति पूजन करें। संकल्प करके श्री भैरव की पूजा करें- दक्षिण दिशा में मुख रखें। काले कम्बल का आसन प्रयुक्त करें। दो दीप रखें-एक घृत का देवता के दाँये और दूसरा सरसों के तेल का अथवा करंज का देवता के बाँये रखें। आकाश भैरव शरभ का चित्र मिल जाए तो सर्वोत्तम है, अन्यथा एक रक्तवर्ण वस्त्र पर गेहूँ की ढेरी लगाएँ, उस पर जल से पूर्ण ताम्र कलश रखें। उसपर श्रीफल रखकर शरभ भैरव का आवाहन, ध्यान एवं षोडशोपचार पूजन करे। नैवेद्य लगाएं और जप पाठ शुरु करें। इसके दो प्रकार के पाठ हैं- १॰ स्तोत्र पाठ, १०८ बार मन्त्र जप एवं पुनः स्तोत्र पाठ। २॰ १०८ बार मन्त्र जप, ७ बार स्तोत्र पाठ और पुनः १०८ बार मन्त्र जप। फल-श्रुति के अनुसार आदित्यवार से मंगलवार तक रात्रि में दस बार पढ़ने से शत्रु-बाधा दूर हो जाती है। हवन, तर्पण, मार्जन एवं ब्रह्मभोज दशांश क्रम से करें, संभव न हो तो इसके स्थान पर पाठ एवं जप अधिक संख्या में करें। निग्रह दारुण सप्तक स्तोत्र या शरभेश्वर स्तोत्र विनियोग- ॐ अस्य दारुण-सप्तक-महामन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषिः वृहती छन्सः श्री शरभो देवता ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः। ऋष्यादि-न्यास- श्रीसदाशिव ऋषये नमः शिरसि। वृहती छन्दसे नमः मुखे। श्रीशरभ-देवतायै नमः हृदि। ममाभिष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। ।। मूल स्तोत्र ।। कापोद्रेकाऽति वीर्यं निखिल-परिकरं तार-हार-प्रदीप्तम्। ज्वाला-मालाग्निदश्च स्मर-तनु-सकलं त्वामहं शालु-वेशं।। याचे त्वत्पाद्-पद्म-प्रणिहित-मनसं द्वेष्टि मां यः क्रियाभिः। तस्य प्राणावसानं कुरु शिव ! नियतं शूल-भिन्नस्य तूर्णम्।।१ शम्भो ! त्वद्धस्त-कुन्त-क्षत-रिपु-हृदयान्निस्स्त्रवल्लोहितौघम्। पीत्वा पीत्वाऽति-दर्पं दिशि-दिशि सततं त्वद्-गणाश्चण्ड-मुख्याः।। गर्ज्जन्ति क्षिप्र-वेगा निखिल-भय-हराः भीकराः खेल-लोलाः। सन्त्रस्त-ब्रह्म-देवा शरभ खग-पते ! त्राहि नः शालु-वेश ! ।।२ सर्वाद्यं सर्व-निष्ठं सकल-भय-हरं नानुरुप्यं शरण्यम्। याचेऽहं त्वाममोघं परिकर-सहितं द्वेष्टि योऽत्र स्थितं माम्।। श्रीशम्भो ! त्वत्-कराब्ज-स्थित-मुशल-हतास्तस्य वक्ष-स्थलस्थ- प्राणाः प्रेतेश-दूत-ग्रहण-परिभवाऽऽक्रोश-पूर्वं प्रयान्तु।।३ द्विष्मः क्षोण्यां वयं हि तव पद-कमल-ध्यान-निर्धूत-पापाः। कृत्याकृत्यैर्वियुक्ताः विहग-कुल-पते ! खेलया बद्ध-मूर्ते ! ।। तूर्णं त्वद्धस्त-पद्म-प्रधृत-परशुना खण्ड-खण्डी-कृताङ्गः। स द्वेष्टी यातु याम्यं पुरमति-कलुषं काल-पाशाग्र-बद्धः।।४ भीम ! श्रीशालुवेश ! प्रणत-भय-हर ! प्राण-हृद् दुर्मदानाम्। याचे-पञ्चास्य-गर्व-प्रशमन-विहित-स्वेच्छयाऽऽबद्ध-मूर्ते ! ।। त्वामेवाशु त्वदंघ्य्रष्टक-नख-विलसद्-ग्रीव-जिह्वोदरस्य। प्राणोत्क्राम-प्रयास-प्रकटित-हृदयस्यायुरल्पायतेऽस्य।।५ श्रीशूलं ते कराग्र-स्थित-मुशल-गदाऽऽवर्त-वाताभिघाता- पाताऽऽघातारि-यूथ-त्रिदश-रिपु-गणोद्भूत-रक्तच्छटार्द्रम्।। सन्दृष्ट्वाऽऽयोधने ज्यां निखिल-सुर-गणाश्चाशु नन्दन्तु नाना- भूता-वेताल-पुङ्गाः क्षतजमरि-गणस्याशु मत्तः पिवन्तु।।६ त्वद्दोर्दण्डाग्र-शुण्डा-घटित-विनमयच्चण्ड-कोदण्ड-युक्तै- र्वाणैर्दिव्यैरनेकैश्शिथिलित-वपुषः क्षीण-कोलाहलस्य।। तस्य प्राणावसानं परशिव ! भवतो हेति-राज-प्रभावै- स्तूर्णं पश्यामियो मां परि-हसति सदा त्वादि-मध्यान्त-हेतो।।७

!!अत्यंत दुर्लभ भैरव साबर मन्त्र साधना!! ॐ गुरु जी सत नाम आदेश आदि पुरुष को ! काला भैरूं, गोरा भैरूं, भैरूं रंग बिरंगा !! शिव गौरां को जब जब ध्याऊं, भैरूं आवे पास पूरण होय मनसा वाचा पूरण होय आस लक्ष्मी ल्यावे घर आंगन में, जिव्हा विराजे सुर की देवी ,खोल घडा दे दड़ा !! काला भैरूं खप्पर राखे,गौरा झांझर पांव लाल भैरूं,पीला भैरूं,पगां लगावे गाँव दशों दिशाओं में पञ्च पञ्च भैरूं !! पहरा लगावे आप !दोनों भैरूं मेरे संग में चालें बम बम करते जाप !! बावन भैरव मेरे सहाय हो गुरु रूप से ,धर्म रूप से,सत्य रूप से, मर्यादा रूप से, देव रूप से, शंकर रूप से, माता पिता रूप से, लक्ष्मी रूप से,सम्मान सिद्धि रूप से, स्व कल्याण जन कल्याण हेतु सहाय हो, श्री शिव गौरां पुत्र भैरव !! शब्द सांचा पिंड कांचा चलो मंत्र ईश्वरो वाचा प्रयोग व् साधना विधि सिद्धि की द्रष्टि से इस मन्त्र का विधि विधान अलग है, परन्तु साधारण रूप में मात्र 11 बार रोज जपने की आज्ञा है ! श्री शिव पुत्र भैरव आपकी सहायत करेंगे !चार लड्डू बूंदी के ,मन्त्र बोलकर 7 रविवार को काले कुत्ते को खिलाएं !! सर्व-कार्य सिद्ध करने वाला यह मंत्र अत्यन्त गुप्त और अत्यन्त प्रभावी है । इस मंत्र से केवल परोपकार के कार्य करने चाहिये २॰ उक्त मन्त्र का अनुष्ठान शनि या रविवार से प्रारम्भ करना चाहिए । एक पत्थर का तीन कोने वाला टुकड़ा लेकर उसे एकान्त में स्थापितबी करें । उसके ऊपर तेल-सिन्दूर का लेप करें । पान और नारियल भेंट में चढ़ाए । नित्य सरसों के तेल का दीपक जलाए । दीपक अखण्ड रहे, तो अधिक उत्तम फल होगा । मन्त्र को नित्य २७ बार जपे । चालिस दिन तक जप करें । इस प्रकार उक्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है । नित्य जप के बाद छार, छबीला, कपूर, केसर और लौंग की आहुति देनी चाहिए । भोग में बाकला, बाटी रखनी चाहिए । जब भैरव दर्शन दें, तो डरें नहीं, भक्ति-पूर्वक प्रणाम करें और उड़द के बने पकौड़े, बेसन के लड्डू तथा गुड़ मिला कर दूध बलि में अर्पित करें । मन्त्र में वर्णित सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।

जय श्रीराम आज आपके लिये यह हनुमत महा मंत्र देरहे है जिसके नियमित 21 बार सुवह पुजन के बाद चमेली की तेल का दीपक जलाकर पाठ करनेसे सभी समस्या पितृ दोष तथा रुके काम बनते जायेगे..... ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय वायु सुताय अञ्जनी गर्भ सम्भुताय अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन तत्पराय धवली कृत जगत् त्रितयाया ज्वलदग्नि सूर्यकोटी समप्रभाय प्रकट पराक्रमाय आक्रान्त दिग् मण्डलाय यशोवितानाय यशोऽलंकृताय शोभिताननाय महा सामर्थ्याय महा तेज पुञ्ज:विराजमानाय श्रीराम भक्ति तत्पराय श्रिराम लक्ष्मणानन्द कारकाय कपिसैन्य प्राकाराय सुग्रीव सौख्य कारणाय सुग्रीव साहाय्य कारणाय ब्रह्मास्त्र ब्रह्म शक्ति ग्रसनाय लक्ष्मण शक्ति भेद निबारणाय शल्य लिशल्यौषधि समानयनाय बालोदित भानु मण्डल ग्रसनाय अक्षयकुमार छेदनाय वन रक्षाकर समूह विभञ्जनाय द्रोण पर्वतोत्पाटनाय स्वामि वचन सम्पादितार्जुन संयुग संग्रामाय गम्भिर शव्दोदयाय दक्षिणाशा मार्तण्डाय मेरूपर्वत पीठिकार्चनाय दावानल कालाग्नी रूद्राय समुद्र लङ्घनाय सीताऽऽश्वासनाय सीता रक्षकाय राक्षसी सङ्घ विदारणाय अशोकबन विदारणाय लङ्कापुरी दहनाय दश ग्रीव शिर:कृन्त्तकाय कुम्भकर्णादि वधकारणाय बालि निबर्हण कारणाय मेघनादहोम विध्वंसनाय इन्द्रजीत वध कारणाय सर्व शास्त्र पारङ्गताय सर्व ग्रह विनाशकाय सर्व ज्वर हराय सर्व भय निवारणाय सर्व कष्ट निवारणाय सर्वापत्ती निवारणाय सर्व दुष्टादि निबर्हणाय सर्व शत्रुच्छेदनाय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी ध्वंसकाय सर्वकार्य साधकाय प्राणीमात्र रक्षकाय रामदुताय स्वाहा॥

दस महाविद्या रहस्य तंत्र के क्षेत्र में सबसे प्रभावी हैं दस महाविद्या। उनके नाम हैं-काली, तारा, षोडषी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला। गुण और प्रकृति के कारण इन सारी महाविद्याओं को दो कुल-कालीकुल और श्रीकुल में बांटा जाता है। साधकों का अपनी रूचि और भक्ति के अनुसार किसी एक कुल की साधना में अग्रसर हों। ब्रह्मांड की सारी शक्तियों की स्रोत यही दस महाविद्या हैं। इन्हें शक्ति भी कहा जाता है। मान्यता है कि शक्ति के बिना देवाधिदेव शिव भी शव के समान हो जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति भी इन्हीं में निहित हैं। सिक्के का दूसरी पहलू यह भी है कि शक्ति की पूजा शिव के बिना अधूरी मानी जाती है। इसी तरह शक्ति के विष्णु रूप में भी दस अवतार माने गए हैं। किसी भी महाविद्या के पूजन के समय उनकी दाईं ओर शिव का पूजन ज्यादा कल्याणकारी होता है। अनुष्ठान या विशेष पूजन के समय इसे अनिवार्य मानना चाहिए। उनका विवरण निम्न है-------- महाविद्या--------------शिव के रूप 1-काली------------------- महाकाल 2-तारा-------------------- अक्षोभ्य 3-षोडषी------------------ कामेश्वर 4-भुवनेश्वरी--------------- त्रयम्बक 5-त्रिपुर भैरवी------------ दक्षिणा मूर्ति 6-छिन्नमस्ता------------ क्रोध भैरव 7-धूमावती--------------- चूंकि विधवा रूपिणी हैं, अत: शिव नहीं हैं 8-बगला----------------- मृत्युंजय 9-मातंगी---------------- मातंग 10-कमला--------------- विष्णु रूप दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं-- महाविद्या----------- विष्णु के अवतार 1-काली--------------------कृष्ण 2-तारा---------------------मत्स्य 3-षोडषी--------------------परशुराम 4-भुवनेश्वरी----------------वामन 5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम 6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह 7-धूमावती-----------------वाराह 8-बगला---------------------कूर्म 9-मातंगी--------------------राम 10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है। दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।

अप्सरा साधना के नियम ================== अप्सराये अत्यंत सुंदर और जवान होती हैं. उनको सुंदरता और शक्ति विरासत में मिली है. वह गुलाब का इत्र और चमेली आदि की गंध पसंद करती हैं। तुमको उसके शरीर से बहुत प्रकार की खुशबू आती महसूस कर सकते हैं. यह गन्ध किसी भी पुरुष को आकर्षित कर सकती हैं। वह चुस्त कपड़े पहनना के साथ साथ अधिक गहने पहना पसंद करती है. इनके खुले-लंबे बाल होते है। वह हमेशा एक 16-17 साल की लड़की की तरह दिखती है। दरअसल, वह बहुत ही सीधी होती है। वह हमेशा उसके साधक को समर्पित रहती है। वह साधक को कभी धोखा नहीं देती हैं। इस साधना के दौरान अनुभव हो सकता है, कि वह साधना पूरी होने से पहले दिखाई दे। अगर ऐसा होता है, तो अनदेखा कर दें। आपको अपने मंत्र जाप पूरा करना चाहिए जैसा कि आप इसे नियमित रूप से करते थे। कोई जल्दबाजी ना करे जितने दिन की साधना बताई हैं उतने दिन पुरी करनी चाहिए। काम भाव पर नियंत्रण रखे। वासना का साधना मे कोई स्थान नहीं होता हैं। अप्सरा परीक्षण भी ले सकती हैं। जब सुंदर अप्सरा आती है तो साधक सोचता है, कि मेरी साधना पूर्ण हो गया है। लेकिन जब तक वो विवश ना हो जाये तब तक साधना जारी रखनी चाहिए। कई साधक इस मोड़ पर, अप्सरा के साथ यौन कल्पना लग जाते है। यौन भावनाओं से बचें, यह साधना ख़राब करती हैं। जब संकल्प के अनुसार मंत्र जाप समाप्त हो और वो आपसे अनुरोध करें तो आप उसे गुलाब के फूल और कुछ इत्र दे। उसे दूध का बनी मिठाई पान आदि भेंट दे। उससे वचन ले ले की वह जीवन-भर आपके वश में रहेगी। वो कभी आपको छोड़ कर नहीं जाएगी और आपक कहा मानेगी। जब तक कोई वचन न दे तब तक उस पर विश्वास नही किया जा सकता क्योंकि वचन देने से पहले तक वो स्वयं ही चाहती हैं कि साधक की साधना भंग हो जाये। किसी भी साधना मैं सबसे महत्वपुर्ण भाग उसके नियम हैं. सामान्यता सभी साधना में एक जैसे नियम होते हैं. परतुं मैं यहाँ पर विशेष तौर पर यक्षिणी और अप्सरा साधना में प्रयोग होने वाले नियम का उल्लेख कर रहा हूँ । 1. ब्रह्मचये : सभी साधना मैं ब्रह्मचरी रहना परम जरुरी होता हैं. सेक्स के बारे में सोचना, करना, किसी स्त्री के बारे में विचारना, सम्भोग, मन की अपवित्रा, गन्दे चित्र देखना आदि सब मना हैं, अगर कुछ विचारना हैं तो केवल अपने ईष्ट को, आप सदैव यह सोचे कि वो सुन्दर सी अलंकार युक्त अप्सरा या देवी आपके पास ही मौजुद हैं और आपको देख रही हैं. और उसके शरीर में से ग़ुलाब जैसी या अष्टगन्ध की खुशबू आ रही हैं । साकार रुप मैं उसकी कल्पना करते रहो. 2. भूमि शयन : केवल जमीन पर ही अपने सभी काम करें. जमीन पर एक वस्त्र बिछा सकते हैं और बिछना भी चाहिए 3. भोजन : मांस, शराब, अन्डा, नशे, तम्बाकू, लहसुन, प्याज आदि सभी का प्रयोग मना हैं. केवल सात्विक भोजन ही करें. 4. वस्त्र : वस्त्रो में उन्ही रंग का चुनाव करें जो देवता पसन्द करता हो.( आसन, पहनने और देवता को देने के लिये) (सफेद या पीला अप्सरा के लिये) 5. क्या करना हैं :- नित्य स्नान, नित्य गुरु सेवा, मौन, नित्य दान, जप में ध्यान- विश्वास, रोज पुजा करना आदि अनिवार्य हैं. और जप से कम से कम दो-तीन घंटे पहले भोजन करना चाहिए 6. क्या ना करें :- जप का समय ना बद्ले, क्रोध मत करो, अपना आसन किसी को प्रयोग मत करने दो, खाना खाते समय और सोकर जागते समय जप ना करें. बासी खाना ना खाये, चमडे का प्रयोग ना करना, साधना के अनुभव साधना के दोरान किसी को मत बताना (गुरु को छोडकर) 7. मंत्र जप के समय कृपा करके नींद्, आलस्य, उबासी, छींक, थूकना, डरना, लिंग को हाथ लगाना, बक्वास, सेल फोन को पास रखना, जप को पहले दिन निधारित संख्या से कम-ज्यादा जपना, गा-गा कर जपना, धीमे-धीमे जपना, बहुत् तेज-तेज जपना, सिर हिलाते रहना, स्वयं हिलते रहना, मंत्र को भुल जाना( पहले से याद नहीं किया तो भुल जाना ), हाथ-पैंर फैलाकर जप करना, पिछ्ले दिन के गन्दे वस्त्र पहनकर मंत्र जप करना, यह सब कार्य मना हैं (हर मंत्र की एक मुल ध्वनि होती हैं अगर मुल ध्वनि- लय में मंत्र जपा तो मज़ा ही जायेगा, मंत्र सिद्धि बहुत जल्द प्राप्त हो सकती हैं जो केवल गुरु से सिखी जा सकती हैं ) 8. यादि आपको सिद्धि करनी हैं तो श्री शिव शंकर भगवान के कथन को कभी ना भुलना कि “जिस साधक की जिव्हा परान्न (दुसरे का भोजन) से जल गयी हो, जिसका मन में परस्त्री (अपनी पत्नि के अलावा कोई भी) हो और जिसे किसी से प्रतिशोध लेना हो उसे भला केसै सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं” 9. एक सबसे महत्वपुर्ण कि आप जिस अप्सरा की साधना उसके बारे में यह ना सोचे कि वो आयेगी और आपसे सेक्स करेंगी क्योंकि वासना का किसी भी साधना में कोई स्थान नहीं हैं । बाद कि बातें बाद पर छोड दे । क्योंकि सेक्स में उर्जा नीचे (मुलाधार) की ओर चलती हैं जबकि साधना में उर्जा ऊपर (सहस्त्रार) की ओर चलती हैं 10. किसी भी स्त्री वर्ग से केवल माँ, बहन, प्रेमिका और पत्नी का सम्बन्ध हो सकता हैं । यही सम्बन्ध साधक का अप्सरा या देवी से होता हैं। 11.यह सब वाक सिद्ध होती हैं । किसी के नसिब में अगर कोई चीज़ ना हो तब भी देने का समर्थ रखती हैं । इनसे सदैव आदर से बात करनी चाहिए।.........................

तांत्रिक मायाजाल वापिस करने का मंत्र ========================== मंत्र ------ एक ठो सरसों ,सौला राई | मोरो पटवल को रोजाई | खाय खाय पड़े भार | जे करै ते मरै उलट विद्या ताहि पर परे | शब्द साँचा ,पिंड काँचा | हनुमान का मंत्र साँचा | फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा | -- यदि किसी के ऊपर किसी ने तांत्रिक अभिचार कर दिया हो और बार बार करता हो तो थोड़ी सी राई ,सरसों और नमक मिलाकर रख ले |इसके बाद इस मंत्र का जप करते हुए सात बार रोगी को उतारा करे और फिर जलती हुई भट्ठी में यह सामग्री झटके से झोक दे तो सारा मायाजाल वापस चला जायेगा |.........................

क्या हैं बंधन ,कैसे बचें इससे ===================== बंधन अर्थात्‌ बांधना। जिस प्रकार रस्सी से बांध देने से व्यक्ति असहाय हो कर कुछ कर नहीं पाता, उसी प्रकार किसी व्यक्ति, घर, परिवार, व्यापार आदि को तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अदृश्य रूप से बांध दिया जाए तो उसकी प्रगति रुक जाती है और घर परिवार की सुख शांति बाधित हो जाती है। ये बंधन क्या हैं और इनसे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है जानने केलिए पढ़िए यह आलेख... मानव अति संवेदनशील प्राणी है। प्रकृति और भगवान हर कदम पर हमारी मदद करते हैं। आवश्यकता हमें सजग रहने की है। हम अपनी दिनचर्या में अपने आस-पास होने वाली घटनाओं पर नजर रखें और मनन करें। यहां बंधन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। किसी के घर में ८-१० माह का छोटा बच्चा है। वह अपनी सहज बाल हरकतों से सारे परिवार का मन मोह रहा है। वह खुश है, किलकारियां मार रहा है। अचानक वह सुस्त या निढाल हो जाता है। उसकी हंसी बंद हो जाती है। वह बिना कारण के रोना शुरू कर देता है, दूध पीना छोड़ देता है। बस रोता और चिड़चिड़ाता ही रहता है। हमारे मन में अनायास ही प्रश्न आएगा कि ऐसा क्यों हुआ? किसी व्यवसायी की फैक्ट्री या व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है। लोग उसके व्यापार की तरक्की का उदाहरण देते हैं। अचानक उसके व्यापार में नित नई परेशानियां आने लगती हैं। मशीन और मजदूर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जो फैक्ट्री कल तक फायदे में थी, अचानक घाटे की स्थिति में आ जाती है। व्यवसायी की फैक्ट्री उसे कमा कर देने के स्थान पर उसे खाने लग गई। हम सोचेंगे ही कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी परिवार का सबसे जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति, जो उस परिवार का तारणहार है, समस्त परिवार की धुरी उस व्यक्ति के आस-पास ही घूम रही है, अचानक बिना किसी कारण के उखड़ जाता है। बिना कारण के घर में अनावश्यक कलह करना शुरू कर देता है। कल तक की उसकी सारी समझदारी और जिम्मेदारी पता नहीं कहां चली जाती है। वह परिवार की चिंता बन जाता है। आखिर ऐसा क्यों हो गया? कोई परिवार संपन्न है। बच्चे ऐश्वर्यवान, विद्यावान व सर्वगुण संपन्न हैं। उनकी सज्जनता का उदाहरण सारा समाज देता है। बच्चे शादी के योग्य हो गए हैं, फिर भी उनकी शादी में अनावश्यक रुकावटें आने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है? आपके पड़ोस के एक परिवार में पति-पत्नी में अथाह प्रेम है। दोनों एक दूसरे के लिए पूर्ण समर्पित हैं। आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हैं। अचानक उनमें कटुता व तनाव उत्पन्न हो जाता है। जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के लिए पूर्ण सम्मान रखते थे, आज उनमें झगड़ा हो गया है। स्थिति तलाक की आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? हमारे घर के पास हरा भरा फल-फूलों से लदा पेड़ है। पक्षी उसमें चहचहा रहे हैं। इस वृक्ष से हमें अच्छी छाया और हवा मिल रही है। अचानक वह पेड़ बिना किसी कारण के जड़ से ही सूख जाता है। निश्चय ही हमें भय की अनुभूति होगी और मन में यह प्रश्न उठेगा कि ऐसा क्यों हुआ? हमें अक्सर बहुत से ऐसे प्रसंग मिल जाएंगे जो हमारी और हमारे आसपास की व्यवस्था को झकझोर रहे होंगे, जिनमें 'क्यों'' की स्थिति उत्पन्न होगी। विज्ञान ने एक नियम प्रतिपादित किया है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें निश्चय ही मनन करना होगा कि उपर्युक्त घटनाएं जो हमारे आसपास घटित हो रही हैं, वे किन क्रियाओं की प्रतिक्रियाएं हैं? हमें यह भी मानना होगा कि विज्ञान की एक निश्चित सीमा है। अगर हम परावैज्ञानिक आधार पर इन घटनाओं को विस्तृत रूप से देखें तो हम निश्चय ही यह सोचने पर विवश होंगे कि कहीं यह बंधन या स्तंभन की परिणति तो नहीं है ! यह आवश्यक नहीं है कि यह किसी तांत्रिक अभिचार के कारण हो रहा हो। यह स्थिति हमारी कमजोर ग्रह स्थितियों व गण के कारण भी उत्पन्न हो जाया करती है। हम भिन्न श्रेणियों के अंतर्गत इसका विश्लेषण कर सकते हैं। इनके अलग-अलग लक्षण हैं। इन लक्षणों और उनके निवारण का संक्षेप में वर्णन यहां प्रस्तुत है। कार्यक्षेत्र का बंधन, स्तंभन या रूकावटें ------------------------------------------- दुकान/फैक्ट्री/कार्यस्थल की बाधाओं के लक्षण :- किसी दुकान या फैक्ट्री के मालिक का दुकान या फैक्ट्री में मन नहीं लगना। ग्राहकों की संख्या में कमी आना। आए हुए ग्राहकों से मालिक का अनावश्यक तर्क-वितर्क-कुतर्क और कलह करना। श्रमिकों व मशीनरी से संबंधित परेशानियां। मालिक को दुकान में अनावश्यक शारीरिक व मानसिक भारीपन रहना। दुकान या फैक्ट्री जाने की इच्छा न करना। तालेबंदी की नौबत आना। दुकान ही मालिक को खाने लगे और अंत में दुकान बेचने पर भी नहीं बिके। कार्यालय बंधन के लक्षण :- कार्यालय बराबर नहीं जाना। साथियों से अनावश्यक तकरार। कार्यालय में मन नहीं लगना। कार्यालय और घर के रास्ते में शरीर में भारीपन व दर्द की शिकायत होना। कार्यालय में बिना गलती के भी अपमानित होना। घर-परिवार में बाधा के लक्षण ---------------------------------- परिवार में अशांति और कलह। बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना। आर्थिक परेशानियां। योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन। विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना। परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो। घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना। इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना। भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना। पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना। व्यक्ति विशेष का बंधन ---------------------------- हर कार्य में विफलता। हर कदम पर अपमान। दिल और दिमाग का काम नहीं करना। घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना। शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना।सर का भारी रहना |घर बाहर हर स्थान पर उद्विग्नता |स्त्रियों की संतान न होना ,अपमान होना |संतान का गर्भ में ही क्षय अथवा गर्भ ही न ठहरना |आय होने पर भी पता न चलना की धन गया कहाँ |अनावश्यक शारीरिक कष्ट |मन चिडचिडा होना |निर्णयों का गलत होना |हानि और पराजय | हमें मानना होगा कि भगवान दयालु है। हम सोते हैं पर हमारा भगवान जागता रहता है। वह हमारी रक्षा करता है। जाग्रत अवस्था में तो वह उपर्युक्त लक्षणों द्वारा हमें बाधाओं आदि का ज्ञान करवाता ही है, निद्रावस्था में भी स्वप्न के माध्यम से संकेत प्रदान कर हमारी मदद करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम होश व मानसिक संतुलन बनाए रखें। हम किसी भी प्रतिकूल स्थिति में अपने विवेक व अपने इष्ट की आस्था को न खोएं, क्योंकि विवेक से बड़ा कोई साथी और भगवान से बड़ा कोई मददगार नहीं है। इन बाधाओं के निवारण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं। उपाय : ---------- पूजा एवं भोजन के समय कलह की स्थिति बनने पर घर के पूजा स्थल की नियमित सफाई करें और मंदिर में नियमित दीप जलाकर पूजा करें। एक मुट्ठी नमक पूजा स्थल से वार कर बाहर फेंकें, पूजा नियमित होनी चाहिए। इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें। स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें। गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें। इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें। जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें। कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें। घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें। हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें। व्यक्तिगत बाधा निवारण के लिए --------------------------------------- व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें और उसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा। हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा। अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं। गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर ॐ नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें। यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें। बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें। पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है। विशेष ===== उपरोक्त समस्त उपाय सामान्य उपाय और टोटके हैं जो टोटकों द्वारा उत्पन्न की गई बंधन को रोक अथवा हटा सकते हैं ,किन्तु यदि टोना अथवा अनुष्ठान करके बंधन किया गया है तो यह सामान्य टोटके उसे नहीं हटा सकते |आप विभिन्न टोटके कर चुके हों और लाभ न मिला हो तो किसी अच्छे और योग्य तांत्रिक से संपर्क करना चाहिए और उसके बताये उपाय करने चाहिए अथवा उसके द्वारा बंधन हटवाना चाहिए |साथ ही आपको बगलामुखी ,काली जैसी उग्र शक्तियों के यन्त्र कवच धारण करने चाहिए जिससे बंधन का प्रभाव रुके अथवा हटे |आपके शरीर को बंधन प्रभावित न करे और आप कम से कम किसी प्रभाव से मुक्त रहकर कार्य कर सके |घर का बंधना हटाने के लिए या प्रतिष्ठान का बंधन हटाने के लिए तो विशेष प्रयास ही करने होंगे |...................................

भगवान शिव से जुड़ी 12 रोचक बातें और उनके पिछे छिपे अर्थ =========================================== भगवान शिव जितने रहस्यमयी हैं, उनकी वेश-भूषा व उनसे जुड़े तथ्य उतने ही विचित्र हैं। शिव श्मशान में निवास करते हैं, गले में नाग धारण करते हैं, भांग व धतूरा ग्रहण करते हैं। आदि न जाने कितने रोचक तथ्य इनके साथ जुड़े हैं। आज हम आपको भगवान शिव से जुड़ी ऐसी ही रोचक बातें व इनमें छिपे लाइफ मैनेजमेंट के सूत्रों के बारे में बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं- 1- क्यों हैं भगवान शिव की तीन आंखें? धर्म ग्रंथों के अनुसार सभी देवताओं की दो आंखें हैं, लेकिन एकमात्र शिव ही ऐसे देवता हैं जिनकी तीन आंखें हैं। तीन आंखों वाला होने के कारण इन्हें त्रिनेत्रधारी भी कहते हैं। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो शिव का तीसरा नेत्र प्रतीकात्मक है। आंखों का काम होता है रास्ता दिखाना और रास्ते में आने वाली मुसीबतों से सावधान करना। जीवन में कई बार ऐसे संकट भी आ जाते हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पाते। ऐसे समय में विवेक और धैर्य ही एक सच्चे मार्गदर्शक के रूप में हमें सही-गलत की पहचान कराता है। यह विवेक अत:प्रेरणा के रूप में हमारे अंदर ही रहता है। बस ज़रुरत है उसे जगाने की। भगवान शिव का तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का स्थान है। यह आज्ञा चक्र ही विवेक बुद्धि का स्रोत है। यही हमें विपरीत परिस्थिति में सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है। 2- शिव अपने शरीर पर भस्म क्यों लगाते हैं? हमारे धर्म शास्त्रों में जहां सभी देवी-देवताओं को वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित बताया गया है वहीं भगवान शंकर को सिर्फ मृग चर्म (हिरण की खाल) लपेटे और भस्म लगाए बताया गया है। भस्म शिव का प्रमुख वस्त्र भी है क्योंकि शिव का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक कारण भी हैं। भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। 3- भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल क्यों? त्रिशूल भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र है। यदि त्रिशूल का प्रतीक चित्र देखें तो उसमें तीन नुकीले सिरे दिखते हैं। यूं तो यह अस्त्र संहार का प्रतीक है पर वास्तव में यह बहुत ही गूढ़ बात बताता है। संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां होती हैं- सत, रज और तम। सत मतलब सात्विक, रज मतलब सांसारिक और तम मतलब तामसी अर्थात निशाचरी प्रवृति। हर मनुष्य में ये तीनों प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी मात्रा में अंतर होता है। त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते हैं कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो। यह त्रिशूल तभी उठाया जाए जब कोई मुश्किल आए। तभी इन तीन गुणों का आवश्यकतानुसार उपयोग हो। 4- भगवान शिव ने क्यों पीया था जहर? देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण किया था। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथ कर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही निकलेंगे। यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कंठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पीना हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए। शिव द्वारा विष पीना यह भी सीख देता है कि यदि कोई बुराई पैदा हो रही हो तो हम उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने दें। 5- क्यों है भगवान शंकर का वाहन बैल? भगवान शंकर का वाहन नंदी यानी बैल है। बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है। वह शक्तिशाली होने के बावजूद शांत एवं भोला होता है। वैसे ही भगवान शिव भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुए भी परम शांत एवं इतने भोले हैं कि उनका एक नाम ही भोलेनाथ जगत में प्रसिद्ध है। भगवान शंकर ने जिस तरह काम को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता। उसका काम पर पूरा नियंत्रण होता है। साथ ही नंदी पुरुषार्थ का भी प्रतीक माना गया है। कड़ी मेहनत करने के बाद भी बैल कभी थकता नहीं है। वह लगातार अपने कर्म करते रहता है। इसका अर्थ है हमें भी सदैव अपना कर्म करते रहना चाहिए। कर्म करते रहने के कारण जिस तरह नंदी शिव को प्रिय है, उसी प्रकार हम भी भगवान शंकर की कृपा पा सकते हैं। 6- क्यों है भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा? भगवान शिव का एक नाम भालचंद्र भी प्रसिद्ध है। भालचंद्र का अर्थ है मस्तक पर चंद्रमा धारण करने वाला। चंद्रमा का स्वभाव शीतल होता है। चंद्रमा की किरणें भी शीतलता प्रदान करती हैं। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो भगवान शिव कहते हैं कि जीवन में कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न आ जाए, दिमाग हमेशा शांत ही रखना चाहिए। यदि दिमाग शांत रहेगा तो बड़ी से बड़ी समस्या का हल भी निकल आएगा। ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को मन का कारक ग्रह माना गया है। मन की प्रवृत्ति बहुत चंचल होती है। भगवान शिव का चंद्रमा को धारण करने का अर्थ है कि मन को सदैव अपने काबू में रखना चाहिए। जिसने मन पर नियंत्रण कर लिया, वह अपने जीवन में कठिन से कठिन लक्ष्य भी आसानी से पा लेता है। 7- भगवान शिव को क्यों कहते श्मशान का निवासी? भगवान शिव को वैसे तो परिवार का देवता कहा जाता है, लेकिन फिर भी श्मशान में निवास करते हैं। भगवान शिव के सांसारिक होते हुए भी श्मशान में निवास करने के पीछे लाइफ मैनेजमेंट का एक गूढ़ सूत्र छिपा है। संसार मोह-माया का प्रतीक है जबकि श्मशान वैराग्य का। भगवान शिव कहते हैं कि संसार में रहते हुए अपने कर्तव्य पूरे करो, लेकिन मोह-माया से दूर रहो। क्योंकि ये संसार तो नश्वर है। एक न एक दिन ये सबकुछ नष्ट होने वाला है। इसलिए संसार में रहते हुए भी किसी से मोह मत रखो और अपने कर्तव्य पूरे करते हुए वैरागी की तरह आचरण करो। 8- भगवान शिव गले में क्यों धारण करते हैं नाग? भगवान शिव जितने रहस्यमयी हैं, उनका वस्त्र व आभूषण भी उतने ही विचित्र हैं। सांसारिक लोग जिनसे दूर भागते हैं। भगवान शिव उसे ही अपने साथ रखते हैं। भगवान शिव एकमात्र ऐसे देवता हैं जो गले में नाग धारण करते हैं। देखा जाए तो नाग बहुत ही खतरनाक प्राणी है, लेकिन वह बिना कारण किसी को नहीं काटता। नाग पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपूर्ण जीव है। जाने-अंजाने में ये मनुष्यों की सहायता ही करता है। कुछ लोग डर कर या अपने निजी स्वार्थ के लिए नागों को मार देते हैं। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो भगवान शिव नाग को गले में धारण कर ये संदेश देते हैं कि जीवन चक्र में हर प्राणी का अपना विशेष योगदान है। इसलिए बिना वजह किसी प्राणी की हत्या न करें। भटकेगा तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाएगा। 9- भगवान शिव को क्यों चढ़ाते हैं भांग-धतूरा? भगवान शिव को भांग-धतूरा मुख्य रूप से चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान को भांग-धतूरा चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं। भांग व धतूरा नशीले पदार्थ हैं। आमजन इनका सेवन नशे के लिए करते हैं। लाइफ मैनेजमेंट के अनुसार भगवान शिव को भांग-धतूरा चढ़ाने का अर्थ है अपनी बुराइयों को भगवान को समर्पित करना। यानी अगर आप किसी प्रकार का नशा करते हैं तो इसे भगवान को अर्पित करे दें और भविष्य में कभी भी नशीले पदार्थों का सेवन न करने का संकल्प लें। ऐसा करने से भगवान की कृपा आप पर बनी रहेगी और जीवन सुखमय होगा। 10- भगवान शिव को क्यों चढ़ाते हैं बिल्व पत्र? शिवपुराण आदि ग्रंथों में भगवान शिव को बिल्व पत्र चढ़ाने का विशेष महत्व बताया गया है। 3 पत्तों वाला बिल्व पत्र ही शिव पूजन में उपयुक्त माना गया है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बिल्वपत्र के तीनों पत्ते कहीं से कटे-फटे न हो। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो बिल्व पत्र के ये तीन पत्ते चार पुरुषार्थों में से तीन का प्रतीक हैं- धर्म, अर्थ व काम। जब आप ये तीनों निस्वार्थ भाव से भगवान शिव को समर्पित कर देते हैं तो चौथा पुरुषार्थ यानी मोक्ष अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। 11- कैलाश पर्वत क्यों है भगवान शिव को प्रिय? शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पर्वतों पर आम लोग नहीं आते-जाते। सिद्ध पुरुष ही वहां तक पहुंच पाते हैं। भगवान शिव भी कैलाश पर्वत पर योग में लीन रहते हैं। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो पर्वत प्रतीक है एकांत व ऊंचाई का। यदि आप किसी प्रकार की सिद्धि पाना चाहते हैं तो इसके लिए आपको एकांत स्थान पर ही साधना करनी चाहिए। ऐसे स्थान पर साधना करने से आपका मन भटकेगा नहीं और साधना की उच्च अवस्था तक पहुंच जाएगा। 12- क्यों है भूत-प्रेत शिव के गण? शिव को संहार का देवता कहा गया है। अर्थात जब मनुष्य अपनी सभी मर्यादाओं को तोडऩे लगता है तब शिव उसका संहार कर देते हैं। जिन्हें अपने पाप कर्मों का फल भोगना बचा रहता है वे ही प्रेतयोनि को प्राप्त होते हैं। चूंकि शिव संहार के देवता हैं। इसलिए इनको दंड भी वे ही देते हैं। इसलिए शिव को भूत-प्रेतों का देवता भी कहा जाता है। दरअसल यह जो भूत-प्रेत है वह कुछ और नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। भगवान शिव का यह संदेश है कि हर तरह के जीव जिससे सब घृणा करते हैं या भय करते हैं वे भी शिव के समीप पहुंच सकते हैं |....................

भुवनेश्वरी दरिद्रता नाशक साधना ======================= ( ग्रहण काल का अचूक प्रयोग ) नाम से ही स्पष्ट है की ये साधना कितनी महत्वपूर्ण है,जिस पर माँ भुवनेश्वरी की कृपा हो जाये,वो कभी दरिद्र नहीं रह सकता,क्युकी माँ कभी अपनी संतान को दुखी नहीं देख सकती है।अतः ज्यादा न लिखते हुए विधान दे रहा हु। *********** ग्रहण काल में स्नान कर सफ़ेद वस्त्र धारण करे,और उत्तर की और मुख कर सफ़ेद आसन पर बैठ जाये।सामने ज़मीन पर सफ़ेद वस्त्र बिछाये और उस पर,अक्षत से बीज मंत्र " ह्रीं " लिखे और उस पर एक कोई भी रुद्राक्ष स्थापित करे,गुरु तथा गणेश पूजन संपन्न करे,अब रुद्राक्ष का सामान्य पूजन करे,तथा निम्न मंत्र को २१ बार पड़े और अक्षत अर्पण करते जाये,अक्षत भी २१ बार अर्पण करने होंगे। मंत्र : ||ॐ ह्रीं भुवनेश्वरी इहागच्छ इहतिष्ठ इहस्थापय मम सकल दरिद्रय नाशय नाशय ह्रीं ॐ|| अब पुनः रुद्राक्ष का सामान्य पूजन कर मिठाई का भोग लगाये,तील के तेल का दीपक लगाये।और बिना किसी माला के निम्न मंत्र का लगातार २ घंटे तक जाप करे,जाप करते वक़्त लगातार अक्षत रुद्राक्ष पर अर्पण करते रहे।साधना के बाद भोग स्वयं खा ले,और रुद्राक्ष को स्नान कराकर लाल धागे में पिरो ले और गले में धारण कर ले।और सारे अक्षत उसी वस्त्र में बांध कर कुछ दक्षिणा के साथ देवी मंदिर में रख आये और दरिद्रता नाश की प्रार्थना कर ले। मंत्र : ||हूं हूं ह्रीं ह्रीं दारिद्रय नाशिनी भुवनेश्वरी ह्रीं ह्रीं हूं हूं फट|| यह साधना अद्भूत है,अतः स्वयं कर अनुभव प्राप्त करे। सभी बीजाक्षरों मे मकार का उच्चारन होगा।..........

शाबर धूमावती साधना : ================= दस महाविद्याओं में माँ धूमावती का स्थान सातवां है और माँ के इस स्वरुप को बहुत ही उग्र माना जाता है ! माँ का यह स्वरुप अलक्ष्मी स्वरूपा कहलाता है किन्तु माँ अलक्ष्मी होते हुए भी लक्ष्मी है ! एक मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया तो उस यज्ञ में शिव जी को आमंत्रित नहीं किया ! माँ सती ने इसे शिव जी का अपमान समझा और अपने शरीर को अग्नि में जला कर स्वाहा कर लिया और उस अग्नि से जो धुआं उठा )उसने माँ धूमावती का रूप ले लिया ! इसी प्रकार माँ धूमावती की उत्पत्ति की अनेकों कथाएँ प्रचलित है जिनमे से कुछ पौराणिक है और कुछ लोक मान्यताओं पर आधारित है ! नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध योगी सिद्ध चर्पटनाथ जी माँ धूमावती के उपासक थे ! उन्होंने माँ धूमावती पर अनेकों ग्रन्थ रचे और अनेकों शाबर मन्त्रों की रचना भी की ! यहाँ मैं माँ धूमावती का एक प्रचलित शाबर मंत्र दे रहा हूँ जो बहुत ही शीघ्र प्रभाव देता है ! कोर्ट कचहरी आदि के पचड़े में फस जाने पर अथवा शत्रुओं से परेशान होने पर इस मंत्र का प्रयोग करे ! माँ धूमावती की उपासना से व्यक्ति अजय हो जाता है और उसके शत्रु उसे मूक होकर देखते रह जाते है ! || मंत्र || ॐ पाताल निरंजन निराकार आकाश मंडल धुन्धुकार आकाश दिशा से कौन आई कौन रथ कौन असवार थरै धरत्री थरै आकाश विधवा रूप लम्बे हाथ लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव डमरू बाजे भद्रकाली क्लेश कलह कालरात्रि डंका डंकिनी काल किट किटा हास्य करी जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाया जीया आकाश तेरा होये धुमावंतीपुरी में वास ना होती देवी ना देव तहाँ ना होती पूजा ना पाती तहाँ ना होती जात न जाती तब आये श्री शम्भु यती गुरु गोरक्षनाथ आप भई अतीत ॐ धूं: धूं: धूमावती फट स्वाहा ! || विधि || 41 दिन तक इस मंत्र की रोज रात को एक माला जाप करे ! तेल का दीपक जलाये और माँ को हलवा अर्पित करे ! इस मंत्र को भूल कर भी घर में ना जपे, जप केवल घर से बाहर करे ! मंत्र सिद्ध हो जायेगा ! || प्रयोग विधि १ || जब कोई शत्रु परेशान करे तो इस मंत्र का उजाड़ स्थान में 11 दिन इसी विधि से जप करे और प्रतिदिन जप के अंत में माता से प्रार्थना करे – “ हे माँ ! मेरे (अमुक) शत्रु के घर में निवास करो ! “ ऐसा करने से शत्रु के घर में बात बात पर कलह होना शुरू हो जाएगी और वह शत्रु उस कलह से परेशान होकर घर छोड़कर बहुत दुर चला जायेगा ! || प्रयोग विधि २ || शमशान में उगे हुए किसी आक के पेड़ के साबुत हरे पत्ते पर उसी आक के दूध से शत्रु का नाम लिखे और किसी दुसरे शमशान में बबूल का पेड़ ढूंढे और उसका एक कांटा तोड़ लायें ! फिर इस मंत्र को 108 बार बोल कर शत्रु के नाम पर चुभो दे ! ऐसा 5 दिन तक करे , आपका शत्रु तेज ज्वर से पीड़ित हो जायेगा और दो महीने तक इसी प्रकार दुखी रहेगा ! नोट – इस मंत्र के और भी घातक प्रयोग है जिनसे शत्रु के परिवार का नाश तक हो जाये ! किसी भी प्रकार के दुरूपयोग के डर से मैं यहाँ नहीं लिखना चाहता ! इस मंत्र का दुरूपयोग करने वाला स्वयं ही पाप का भागी होगा !कोई भी जप-अनुष्ठान करने से पूर्व मंत्र की शुद्धि जांचा लें ,विधि की जानकारी प्राप्त कर लें तभी प्रयास करें |गुरु की अनुमति बिना और सुरक्षा कवच बिना तो कदापि कोई साधना न करें |उग्र महाशक्तियां गलतियों को क्षमा नहीं करती कितना भी आप सोचें की यह तो माँ है |उलट परिणाम तुरत प्राप्त हो सकते हैं |अतः बिना सोचे समझे कोई कार्य न करें |पोस्ट का उद्देश्य मात्र जानकारी उपलब्ध करना है ,अनुष्ठान या प्रयोग करना नहीं |अतः कोई समस्या होने पर हम जिम्मेदार नहीं होंगे |................................

महाविद्या छिन्नमस्ता प्रयोग शोक ताप संताप होंगे छिन्न-भिन्न जीवन के परम सत्य की होगी प्राप्ति संसार का हर्रेक सुख आपकी मुट्ठी में होगा अपार सफलताओं के शिखर पर जा पहुंचेंगे आप जीवन मरण दोनों से हो जायेंगे पार "महाविद्या छिन्नमस्ता" एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था गुरु गोरक्षनाथ की सभी सिद्धियों का मूल भी देवी छिन्नमस्ता ही है देवी नें एक हाथ में अपना ही मस्तक पकड़ रखा हैं और दूसरे हाथ में खडग धारण किया है देवी के गले में मुंडों की माला है व दोनों और सहचरियां हैं देवी आयु, आकर्षण,धन,बुद्धि,रोगमुक्ति व शत्रुनाश करती है देवी छिन्नमस्ता मूलतया योग की अधिष्ठात्री देवी हैं जिन्हें ब्ज्रावैरोचिनी के नाम से भी जाना जाता है सृष्टि में रह कर मोह माया के बीच भी कैसे भोग करते हुये जीवन का पूरण आनन्द लेते हुये योगी हो मुक्त हो सकता है यही सामर्थ्य देवी के आशीर्वाद से मिलती है सम्पूरण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है स्तुति छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम, प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम, पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम, विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम, दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम, दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम, अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम, डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:, देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है महाविद्या छिन्मस्ता के मन्त्रों से होता है आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है- श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे- 1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है 2.बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है 3.सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है 4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है 5.कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है 6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है 7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"4" विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा चदएं दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम: देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र १)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा २)देवी रेणुका शबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें यन्त्र के पूजन की रीति है- पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं छिन्नमस्ता शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए- प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी, चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी, ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना, चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा, देदेवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र 1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें देवी मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें अखरो व अन्य फलों का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 2) देवी छिन्नमस्ता का धन प्रदाता मंत्र ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं वज्रवैरोचिनिये फट गुड, नारियल, केसर, कपूर व पान देवी को अर्पित करें शहद से हवन करें रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें 3) देवी छिन्नमस्ता का प्रेम प्रदाता मंत्र ॐ आं ह्रीं श्रीं वज्रवैरोचिनिये हुम देवी पूजा का कलश स्थापित करें देवी को सिन्दूर व लोंग इलायची समर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें किसी नदी के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है भगवे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं 4) देवी छिन्नमस्ता का सौभाग्य बर्धक मंत्र ॐ श्रीं श्रीं ऐं वज्रवैरोचिनिये स्वाहा देवी को मीठा पान व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें किसी ब्रिक्ष के नीचे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है संतरी रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं 5) देवी छिन्नमस्ता का ग्रहदोष नाशक मंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं वं वज्रवैरोचिनिये हुम देवी को पंचामृत व पुष्प अर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 4 माला का मंत्र जप करें मंदिर के गुम्बद के नीचे या प्राण प्रतिष्ठित मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है पीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें नारियल व तरबूज प्रसाद रूप में चढ़ाएं देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध- बिना "कबंध शिव" की पूजा के महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना न करें सन्यासियों व साधू संतों की निंदा बिलकुल न करें साधना के दौरान अपने भोजन आदि में हींग व काली मिर्च का प्रयोग न करें देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें सरसों के तेल का दीया न जलाएं

प्रथम महाविद्या काली (दस महाविद्या) दस महाविद्या में काली का स्थान पहला है। उनके बारे में सबसे ज्यादा ग्रंथ लिखे गए हैं। उनमें से अधिकतर लुप्त हो चुके हैं। उनकी महिमा निराली है। क्रोध में भरी एवं दुष्टों के संहार में करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली माता भक्तों पर हमेशा कृपा बरसाती रहती हैं। वह अपने साधक भक्तों को समय-समय पर अपनी उपस्थिति का आभास भी कराती रहती हैं। विभिन्न ग्रंथों में इनके कई नाम और भेद हैं जो विशिष्ट ज्ञान के लिए ही जरूरी है। सामान्य तौर पर इनके दो रूप ही अधिक प्रचलित हैं। वे श्यामा काली (दक्षिण काली) और सिद्धिकाली (गुह्य काली) जिन्हें काली नाम से भी पुकारा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, वरुण, कुबेर, यम,, महाकाल, चंद्र, राम, रावण, यम, राजा बलि, बालि, वासव, विवस्वान सरीखों ने इनकी उपासना कर शक्तियां अर्जित की हैं। इनके रूपों की तरह मंत्र भी अनेक हैं लेकिन सामान्य साधकों को उलझन से बचाने के लिए उनका जिक्र न कर सीधे मूल मंत्रों पर आता हूं। एकाक्षरी मंत्र-- क्रीं इसके ऋषि भैरव ऋषि, गायत्री छंद, दक्षिण काली देवी, कं बीज, ईं शक्ति: एवं रं कीलकं है। यह अत्यंत प्रभावी व कल्याणकारी मंत्र है। इसकी साधना से ही राजा विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई थी। शवरूढ़ां महाभीमां घोरद्रंष्ट्रां वरप्रदम् से ध्यान कर एक लाख जप कर दशांश हवन करें। करन्यास व हृदयादि न्यास-- ऊं क्रां, ऊं क्रीं, ऊं क्रूं, ऊं क्रैं, ऊं क्रौं, ऊं क्रं, ऊं क्र: से करन्यास व हृदयादि न्यास करें। द्वयक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं ऋषि भैरव, छंद गायत्री, बीज क्रीं, शक्ति स्वाहा, कीलकं हूं है। बाकी पूर्वोक्त तरीके से करें। काली पूजा प्रयोग काली पूजा के सभी मंत्रों में 22 अक्षर वाले मंत्र को सबसे प्रभावी माना गया है। अन्य मंत्रों के प्रयोग में इसी मंत्र के अनुरूप पूजाविधान और यंत्रार्चन किया जाता है। इसका प्रयोग बेहद उग्र और आज की स्थिति में थोड़ी कठिन है। अत: मैं सामान्य जानकारी तो दूंगा पर साथ ही सलाह भी है कि सामान्य साधक इसके कठिन प्रयोग से बचें। यदि तीव्र इच्छा हो और उसी क्षेत्र में आगे बढऩा चाहते हों तो योग्य गुरु के निर्देशन में इसे करें। बाइस अक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। विनियोग-- अस्य मंत्रस्य भैरव ऋषि:, उष्णिक् छंद:, दक्षिण कालिका देवता, ह्रीं बीजं, हूं शक्ति:, क्रीं कीलकं सर्वाभिष्ट सिद्धेयर्थे जपे विनियोग:। अंगन्यास-- ऊं कुरुकुल्लायै नम: मुखे, ऊं विरोधिन्यै नम: दक्षिण नासिकायां, ऊं विप्रचित्तायै नम: वाम नासिकायां, ऊं उग्रायै नम: दक्षिण नेत्रे, ऊं उग्रप्रभायै नम: वाम नेत्रे, ऊं दीप्तायै नम: दक्षिण कर्णे, ऊं नीलायै नम: वाम कर्णे, ऊं घनायै नम: नाभौ, ऊं बालाकायै नम: हृदये, ऊं मात्रायै नम: ललाटे, ऊं मुद्रायै नम: दक्षिण स्कंधे, ऊं मीतायै नम: वाम स्कंधे। इसके बाद बूतशुदिध आदि कर्म करें। ह्रीं बीज से प्राणायाम करें। ऋष्यादि न्यास-- भैरव ऋषिये नम: शिरसि, उष्णिक छंदसे नम: हृदि, दक्षिणकालिकायै नम: हृदये, ह्रीं बीजाय नम: गुह्ये, हूं शक्तये नम: पादयो:, क्रीं कीलकाय नम: नाभौ। विनियोगाय नम: सर्वांगे। षडंगन्यास-- ऊं क्रां हृदयाय नम:, ऊं क्रीं शिरसे स्वाहा, ऊं क्रूं शिखायै वषट्, ऊं क्रैं कवचाय हुं, ऊं क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ऊं क्र: अस्त्राय फट्। ध्यान चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुंडमाला विभूषिताम्, खडग च दक्षिणो पाणौ विभ्रतीन्दीवर-द्वयम्। द्यां लिखंती जटायैकां विभतीशिरसाद्वयीम्, मुंडमाला धरां शीर्षे ग्रीवायामय चापराम्।। वक्षसा नागहारं च विभ्रतीं रक्तलोचनां, कृष्ण वस्त्रधरां कट्यां व्याघ्राजिन समन्विताम्। वामपदं शव हृदि संस्थाप्य दक्षिण पदम्, विलसद् सिंह पृष्ठे तु लेलिहानासव पिबम्।। सट्टहासा महाघोरा रावै मुक्ता सुभीषणा।। विधि एवं फल-- सूने घर, निर्जन स्थान, वन, मंदिर (काली को हो तो श्रेष्ठ), नदी के किनारे एवं श्मशान में इस मंत्र के जप से विशेष और शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। 22 अक्षर मंत्र का दो लाख जप कर कनेर के फूलों से दशांश हवन करना चाहिए। काली की नियमित उपासना करने का मतलब यही होत है कि साधक उच्चकोटि का है और उसने पहले ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गौरी, गणेश, सूर्य और कुछ महाविद्या की उपासना कर ली है और अब वह साधना के चरम की ओर अग्रसर हो रहा है। कुछ कठिन प्रयोग-- जो साधक स्त्री की योनि को देखते हुए दस हजार जप करता है, वह ब़हस्पति के समान होकर लंबी आयु और काफी धन पाता है। बिखरे बालों के साथ नग्न होकर श्मशान में दस हजार जप करने से सभी कामनाएं सिद्ध होती हैं। हविष्यान्न का सेवन करता हुआ जप करे तो विद्या, लक्ष्मी एवं यंश को प्राप्त करेगा। गुह्यकाली के कुछ मंत्र 1-नवाक्षर-- क्रीं गुह्ये कालिका क्रीं स्वाहा। 2-चतुर्दशाक्षर मंत्र-- क्रौं हूं ह्रीं गुह्ये कालिके हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। 3-पंचदशाक्षर मंत्र-- हूं ह्रीं गुह्ये कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। ध्यान द्यायेन्नीलोत्पल श्यामामिन्द्र नील समुद्युतिम्। धनाधनतनु द्योतां स्निग्ध दूर्वादलद्युतिम्।। ज्ञानरश्मिच्छटा- टोप ज्योति मंडल मध्यगाम्। दशवक्त्रां गुह्य कालीं सप्त विंशति लोचनाम्।।

पीताम्बरा नाम से प्रसिद्ध, पीले रंग से सम्बंधित, पूर्ण स्तंभन शक्ति से युक्त, देवी बगलामुखी। बगलामुखी, दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'बगला' तथा दूसरा 'मुखी'। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और वक या वगुला पक्षी, जिस की क्षमता एक जगह पर अचल खड़े हो शिकार करना है, मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वो मनुष्य या शत्रु हो या कोई प्राकृतिक आपदा। देवी महाप्रलय जैसे महाविनाश को भी स्तंभित करने की क्षमता रखती हैं। देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं। स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनो लोको में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं। देवी, पीताम्बरा नाम से भी त्रि-भुवन में प्रसिद्ध है, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'पीत' तथा दूसरा 'अम्बरा', अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली। देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिया है, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती है तथा देवी को पीले वस्त्र ही प्रिय है, पीले फूलों की माला धारण करती है, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ हैं, जिन में से पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पिला रंग अत्यंत प्रिय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती है, उर्ध्वमना स्वरुप में देवी दो भुजाओ से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाये हैं। देवी बगलामुखी का सम्बन्ध अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तियों से हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध अलौकिक, पारलौकिक जादुई शक्तिओ से भी हैं, जिसे इंद्रजाल काहा जाता हैं। उच्चाटन, स्तम्भन, मारन जैसे घोर कृत्यों तथा इंद्रजाल विद्या, देवी की कृपा के बिना संपूर्ण नहीं हो पाते हैं। देवी ही समस्त प्रकार के ऋद्धि तथा सिद्धि प्रदान करने वाली है, विशेषकर, तीनो लोको में किसी को भी आकर्षित करने की शक्ति, वाक् शक्ति, स्तंभन शक्ति। देवी के भक्त अपने शत्रुओ को ही नहीं बल्कि तीनो लोको को वश करने में समर्थ होते हैं, विशेषकर झूठे अभियोग प्रकरणो में अपने आप को निर्दोष प्रतिपादित करने हेतु देवी की अराधना उत्तम मानी जाती हैं। किसी भी प्रकार के झूठे अभियोग (मुकदमा) में अपनी रक्षा हेतु देवी के शरणागत होना सबसे अच्छा साधन हैं। देवी ग्रह गोचर से उपस्थित समस्याओं का भी विनाश करने में समर्थ हैं। देवी का सम्बन्ध आकर्षण से भी हैं, काम वासनाओ से युक्त कार्यो में भी देवी आकर्षित करने हेतु विशेष बल प्रदान करती हैं। व्यष्टि रूप में शत्रुओ को नष्ट करने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार करने वाली देवी हैं बगलामुखी। देवी बगलामुखी के भैरव महा मृत्युंजय हैं। देवी शत्रुओ को पथ तथा बुद्धि भ्रष्ट कर, उन्हें हर प्रकार से स्तंभित करती हैं। देवी का भौतिक स्वरुप वर्णन देवी बगलामुखी, समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय द्वीप में अमूल्य रत्नो से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी त्रिनेत्रा हैं, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती है, पीले शारीरिक वर्ण की है, देवी ने पिला वस्त्र तथा पीले फूलो की माला धारण की हुई है, देवी के अन्य आभूषण भी पीले रंग के ही हैं तथा अमूल्य रत्नो से जड़ित हैं। देवी, विशेषकर चंपा फूलों, हल्दी के गाठों इत्यादि पीले रंग से सम्बंधित तत्वों की माला धारण करती हैं। देवी ने अपने बायें हाथ से शत्रु या दैत्य के जिव्हा को पकड़ कर खींच रखा है तथा दये हाथ से गदा उठाये हुए हैं, जो शत्रु को भय भीत कर रहे हैं। कई स्थानों में देवी ने मृत शरीर या शव को अपना आसन बना रखा हैं तथा शव पर ही आरूढ़ हैं तथा दैत्य या शत्रु के जिव्हा को पकड़ रखा हैं। देवी वचन या बोल-चाल से गलतियों तथा अशुद्धियों को निकल कर सही करती हैं। देवी पीताम्बरा या बगलामुखी मुखी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, सत्य युग में इस चराचर संपूर्ण जगत को नष्ट करने वाला भयानक वातक्षोम (तूफान, घोर अंधी) आया। समस्त प्राणिओ तथा स्थूल वस्तुओं के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा था तथा सब काल का ग्रास बनने जा रहे थे। संपूर्ण जगत पर संकट को ए हुआ देख, जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हो गए। तदनंतर, भगवान विष्णु सौराष्ट्र प्रान्त में गए तथा हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर, अपनी सहायतार्थ देवी श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी को प्रसन्न करने हेतु तप करने लगे। उस समय देवी श्री विद्या, सौराष्ट्र के एक हरिद्रा सरोवर में वास करती थी। भगवान विष्णु के तप से संतुष्ट हो देवी आद्या शक्ति, बगलामुखी स्वरूप में, भगवान विष्णु के सन्मुख अवतरित हुई तथा उनसे तप करने का कारण ज्ञात किया। तुरंत ही अपनी शक्तिओ का प्रयोग कर, देवी बगलामुखी ने विनाशकारी तूफान को शांत किया तथा इस सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा की। मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकार, कुल नक्षत्रों से युक्त वीर रात्रि कही जाती हैं इसी की अर्धरात्रि में श्री बगलामुखी देवी का आविर्भाव हुआ। देवी बगलामुखी के प्रादुर्भाव की दूसरी कथा, देवी धूमावती के प्रादुर्भाव के समय से सम्बंधित हैं। क्रोध में आ देवी पार्वती ने अपने पति शिव का ही भक्षण किया था। देवी पार्वती का वो उग्र स्वरूप जिसने अपने पति का भक्षण किया, वो बगलामुखी नाम की ही शक्ति थी तथा भक्षण पश्चात् देवी, धूमावती नाम से विख्यात हुई। देवी बगलामुखी से सम्बंधित अन्य तथ्य। कुब्जिका तंत्र के अनुसार, बगला नाम तीन अक्षरो से निर्मित है व, ग, ला। व अक्षर देवी वारुणी, ग अक्षर सिद्धिदा तथा ला अक्षर पृथ्वी को सम्बोधित करता हैं। देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु से सम्बंधित हैं परिणामस्वरूप देवी सत्व गुण से सम्पन्न तथा वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित हैं तथा इनकी साधन में पवित्रता का विशेष महत्व हैं। परन्तु कुछ अन्य परिस्थितिओं में देवी तामसी गुण से भी सम्बंधित है, आकर्षण, मारन तथा स्तंभन कर्म तामसी प्रवृति से सम्बंधित हैं क्योंकि इस तरह के कार्य दुसरो को हानि पहुँचने हेतु ही की जाती हैं। सर्वप्रथम देवी की आराधना भगवान ब्रह्मा ने की, पश्चात् ब्रह्मा जी ने बगला साधना का उपदेश सनकादिक मुनिओ को किया, सनत कुमार से प्रेरित हो देवर्षि नारद ने भी बगला देवी की साधना की। देवी के दूसरे उपासक स्वयं जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु हुए तथा तीसरे भगवान परशुराम। देवी का सम्बन्ध शव साधना, श्मशान इत्यादि से भी हैं। दैवीय प्रकोप शांत करने हेतु शांति कर्म में, धन-धान्य के लिये पौष्टिक कर्म में, वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने हेतु तथा शत्रु नाश के लिये आभिचारिक कर्म में देवी की शक्तिओ का प्रयोग किया जाता हैं। देवी का साधक भोग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त कर लेते हैं। बगलामुखी स्तोत्र के अनुसार देवी समस्त प्रकार के स्तंभन कार्यों हेतु प्रयोग में लायी जाती हैं जैसे, अगर शत्रु वादी हो तो गुंगा, छत्रपति हो तो रंक, दावानल या भीषण अग्नि कांड शांत करने हेतु, क्रोधी का क्रोध शांत करवाने हेतु, धावक को लंगड़ा बनाने हेतु, सर्व ज्ञाता को जड़ बनाने हेतु, गर्व युक्त के गर्व भंजन करने हेतु। सादहरण तौर पर व्यक्ति अच्छा या बुरा कैसा भी कर्म करे और अगर व्यक्ति विशेष की सु या कु ख्याति हो, निंदा चर्चा करने वाले या अहित कहने वाले उस के बनेंगे ही, ऐसे परिस्थिति में देवी बगलामुखी की कृपा ही समस्त निंदको, अहित कहने वालों के मुख या कार्य का स्तंभन करती हैं। कही तीव्र वर्षा हो रही हो या भीषण अग्नि कांड हो गया हो, देवी का साधक बड़ी ही सरलता से समस्त प्रकार के कांडो का स्तंभन कर सकता हैं। बामा ख्यपा ने अपने माता के श्राद्ध कर्म में इसी प्रकार तीव्र वृष्टि का स्तंभन किया था। साथ ही, उग्र विघ्नों को शांत करने वाली, दरिद्रता का नाश करने वाली, भूपतियों के गर्व का दमन, मृग जैसे चंचल चित्तवन वालो के चित्त का भी आकर्षण करने वाली, मृत्यु का भी मरण करने में समर्थ हैं देवी बगलामुखी। संक्षेप में देवी बगलामुखी से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : बगलामुखी। अन्य नाम : पीताम्बरा (सर्वाधिक जनमानस में प्रचलित नाम), श्री वगला। भैरव : मृत्युंजय। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : कूर्म अवतार। तिथि : वैशाख शुक्ल अष्टमी। कुल : श्री कुल। दिशा : उत्तर। स्वभाव : उग्र, राजसी गुण सम्पन्न। कार्य : स्तम्भन विद्या के रूप हैं देवी का प्रयोग किया जाता हैं। शारीरिक वर्ण : पिला।

जय गोरख नाथ का चेला की,,,,,जय गुरू गोरख योगी की जीवन मे दोस्त दुशमन दोनो मिलते है यह पयोग तब करे जब दुशमन शरीरिक या मानसिक परेशानी दे रहा हो यह एक शाबर मंत्र है इसे सिदॄ करने की अावशकता नही बस नेक मन से गुरू पर पूणॅ यकीन करके तीन दिवस की मंत्र जाप से यह कायॅ करने लगता है इसके प्रभाव से दुशमन दोस्त बन जाता है या कुछ उलटा कमँ करके मानसिक परेशानी दे रहा हो तो मन से दुशमनी भूल जाता है मंत्र :- असगंध का जोता गोरख नाथ का चेला, गुरू गोरख ने दाँव है खेला, अछतर बछतर तीर कमंदर, तीन मछंदर तीन कमंदर, पांच गुरू का पांच ही चेला, एक गोरख का यह सब खेला, शब्द सांचा पिन्ड कांचा फूरो मंत्र ईसवरो वाचा विधि:- इस मंत्र की विधि के लिए आप एक निम्बू ले एक दिया ले ले कोई माला की जरुरत नहीं है बस दक्षिण दिशा की और निम्बू रख के दिया निम्बू के सामने रख के इस मंत्र को 108 बार जाप करे जिस दुश्मन से मित्र बनाना है उसका नाम लेके 3 दिन मंत्र का 3 माला जाप करे 3 दिन 108 बार ही जाप करे आखिर में निम्बू और दिया किसी पीपल के पेड़ के निचे रख आये विधि पूरी हो गयी मानो

II माला चयन II तन्त्र सिद्धि के लिए शमशान में लागे हुए धतूरे की माला सर्वश्रेष्ठ होती है I सभी सिद्धियों के लिए, सभी मंत्रों के लिए रुद्राक्ष की माला प्रयोग कर सकते हैं I महालक्ष्मी की प्राप्ति के लिए कमलगट्टे की माला प्रयोग करनी चाहिए I पाप नाश के लिए कुशमूल की माला से जाप करना चाहिए I भक्ति की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए तुलसी की माला प्रयोग करनी चाहिए I वशीकरण से संबंधित कार्यों में मूंगे की माला से जाप करना चाहिए I पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रजीवा की माला से जाप करें I नौकरी की प्राप्ति के लिए लाल हकीक की माला से जाप करें I विद्या प्राप्ति के लिए स्फटिक माला से मन्त्र जपें I माला जाप करते वक्त सावधानियां माला के मनके एक जैसे होँ, छोटे- बड़े नहीं I माला में साधारणतया 108 मनके एक सुमेरु मिलाकर कुल 109 दानें होने चाहियें I माला का धागा शुरू से अंत तक एक ही होना चाहिए बीच में गांठ नहीं आनी चाहिए I सुमेरु को बाँधनें के लिए ढाई फेरों वाली ब्रह्म ग्रंथि का प्रयोग करना चाहिए न की साधारण गांठ का I रुद्राक्ष की माला को बनाते समय मुख से मुख और पुच्छ से पुच्छ मिलाने चाहियें तभी सिद्धि होती है I वशीकरण के कार्यों में लाल, शांति कार्यों में सफ़ेद, धन प्राप्ति के लिए पीले रेशमी सूत का प्रयोग करना चाहिए I अच्छी सिद्धि के लिए कुंवारी ब्राह्मण कन्या के हाथ से कता हुआ सूत प्रयोग करना चाहिए I भली प्रकार से बनी हुई माला को संस्कारित करना चाहिए तभी मन्त्र चैतन्य होकर मनोकामना को पूर्ण करते हैं I जाप करते हुए न तो माला को हिलाएं न स्वयं हिलें I मन्त्र जाप करते हुए आवाज न आएँ I माला फेरते समय इसे गौमुखी या वस्त्र के अन्दर रखें ताकि माला किसी को दिखे नहीं I माला को हमेशा शुद्ध जगह रखें और माला एवं आसन किसी से शेयर न करें I जाप करते वक्त इसे तर्जनी उंगली का (अंगूठे के साथ वाली) स्पर्श न होने देन I

मूल-मन्त्रः- “ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूं सः वं आपदुद्धारणाय अजामल-बद्धाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण- विद्वेषणाय श्रीं भैरवाय मम दारिद्र्य- महा- ।” भैरवाय नमः

। बगला उत्पत्ति ।। एक बार समुद्र में संशय नामक राक्षस ने बहुत बड़ा प्रलय मचाया, विष्णु उसका संहार नहीं कर सके तो उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप महा-त्रिपुर-सुन्दरी की आराधना की तो श्रीविद्या ने ही ‘बगला’ रुप में प्रकट होकर संशय राक्षस का वध किया । मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकर-कुल नक्षत्रों से युक्त वीर-रात्रि कही जाती है । इसी अर्द्ध-रात्रि में श्री बगला का आविर्भाव हुआ था । मकर-कुल नक्षत्र – भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण तथा उत्तर-भाद्रपद नक्षत्र है । बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है । वैदिक शब्द ‘वल्गा’ कहा है, जिसका अर्थ कृत्या सम्बन्ध है, जो बाद में अपभ्रंश होकर बगला नाम से प्रचारित हो गया । बगलामुखी शत्रु-संहारक विशेष है अतः इसके दक्षिणाम्नायी पश्चिमाम्नायी मंत्र अधिक मिलते हैं । नैऋत्य व पश्चिमाम्नायी मंत्र प्रबल संहारक व शत्रु को पीड़ा कारक होते हैं । इसलिये इसका प्रयोग करते समय व्यक्ति घबराते हैं । वास्तव में इसके प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिये । ऐसी बात नहीं है कि यह विद्या शत्रु-संहारक ही है, ध्यान योग में इससे विशेष सहयता मिलती है । यह विद्या प्राण-वायु व मन की चंचलता का स्तंभन कर ऊर्ध्व-गति देती है, इस विद्या के मंत्र के साथ ललितादि विद्याओं के कूट मंत्र मिलाकर भी साधना की जाती है । बगलामुखी मंत्रों के साथ ललिता, काली व लक्ष्मी मंत्रों से पुटित कर व पदभेद करके प्रयोग में लाये जा सकते हैं । इस विद्या के ऊर्ध्व-आम्नाय व उभय आम्नाय मंत्र भी हैं, जिनका ध्यान योग से ही विशेष सम्बन्ध रहता है । त्रिपुर सुन्दरी के कूट मन्त्रों के मिलाने से यह विद्या बगलासुन्दरी हो जाती है, जो शत्रु-नाश भी करती है तथा वैभव भी देती है । बगलामुखी की साधना :- बगलामुखी देवी की गणना दस महाविद्याओं में है तथा संयम-नियमपूर्वक बगलामुखी के पाठ-पूजा, मंत्र जाप, अनुष्ठान करने से उपासक को सर्वाभीष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है। शत्रु विनाश, मारण-मोहन, उच्चाटन, वशीकरण के लिए बगलामुखी से बढ़ कर कोई साधना नहीं है। मुकद्दमे में इच्छानुसार विजय प्राप्ति कराने में तो यह रामबाण है। बाहरी शत्रुओं की अपेक्षा आंतरिक शत्रु अधिक प्रबल एवं घातक होते हैं। अतः बगलामुखी साधना की, मानव कल्याण, सुख-समृद्धि हेतु, विशेष उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। यथेच्छ धन प्राप्ति, संतान प्राप्ति, रोग शांति, राजा को वश में करने हेतु कारागार (जेल) से मुक्ति, शत्रु पर विजय, मारण आदि प्रयोगों हेतु प्राचीन काल से ही बगलामुखी प्रयोग द्वारा लोगों की इच्छा पूर्ति होती रही है। आज भी राजनीतिज्ञगण इस महाविद्या की साधना करते हैं। चुनावों के दौरान प्रत्याशीगण मां का आशीर्वाद लेने उनके मंदिर अवश्य जाते हैं। भारतवर्ष में इस शक्ति के केवल तीन ही शक्ति पीठ हैं – 1)कामाख्या 2) हिमाचल में ज्वालामुखी से 22 किमी दूर वनखंडी नामक स्थान पर। और 3) दतिया में पीतांबरा पीठ महर्षि च्यवन ने इसी विद्या के प्रभाव से इन्द्र के वज्र को स्तम्भित कर दिया था । आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु श्रीमद्-गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने पर रेवा नदी का स्तम्भन इसी विद्या के प्रभाव से किया था । महामुनि निम्बार्क ने एक परिव्राजक को नीम के वृक्ष पर सूर्य के दर्शन इसी विद्या के प्रभाव से कराए थे । इसी विद्या के कारण ब्रह्मा जी सृष्टि की संरचना में सफल हुए । श्री बगला शक्ति कोई तामसिक शक्ति नहीं है, बल्कि आभिचारिक कृत्यों से रक्षा ही इसकी प्रधानता है । इस संसार में जितने भी तरह के दुःख और उत्पात हैं, उनसे रक्षा के लिए इसी शक्ति की उपासना करना श्रेष्ठ होता है । शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन संहिता के पाँचवें अध्याय की २३, २४ एवं २५वीं कण्डिकाओं में अभिचारकर्म की निवृत्ति में श्रीबगलामुखी को ही सर्वोत्तम बताया है । शत्रु विनाश के लिए जो कृत्या विशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उन्हें नष्ट करने वाली महा-शक्ति श्रीबगलामुखी ही है । त्रयीसिद्ध विद्याओं में आपका पहला स्थान है । आवश्यकता में शुचि-अशुचि अवस्था में भी इसके प्रयोग का सहारा लेना पड़े तो शुद्धमन से स्मरण करने पर भगवती सहायता करती है । लक्ष्मी-प्राप्ति व शत्रुनाश उभय कामना मंत्रों का प्रयोग भी सफलता से किया जा सकता है । देवी को वीर-रात्रि भी कहा जाता है, क्योंकि देवी स्वम् ब्रह्मास्त्र-रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र-महारुद्र तथा मृत्युञ्जय-महादेव कहा जाता है, इसीलिए देवी सिद्ध-विद्या कहा जाता है । विष्णु भगवान् श्री कूर्म हैं तथा ये मंगल ग्रह से सम्बन्धित मानी गयी हैं । शत्रु व राजकीय विवाद, मुकदमेबाजी में विद्या शीघ्र-सिद्धि-प्रदा है । शत्रु के द्वारा कृत्या अभिचार किया गया हो, प्रेतादिक उपद्रव हो, तो उक्त विद्या का प्रयोग करना चाहिये । ।। बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना ।। बगला उपासना व दश महाविद्याओं में मंत्र जाग्रति हेतु शापोद्धार मंत्र, सेतु, महासेतु, कुल्कुलादि मंत्र का जप करना जरुरी है । अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी व अन्य विषय साधकों के लिये आवश्यक है । नाम – बगलामुखी, पीताम्बरा, ब्रह्मास्त्र-विद्या । आम्नाय - मुख आम्नाय दक्षिणाम्नाय हैं इसके उत्तर, ऊर्ध्व व उभयाम्नाय मंत्र भी हैं । आचार - इस विद्या का वामाचार क्रम मुख्य है, दक्षिणाचार भी है । कुल - यह श्रीकुल की अंग-विद्या है । शिव - इस विद्या के त्र्यंबक शिव हैं । भैरव – आनन्द भैरव हैं । कई विद्वान आनन्द भैरव को प्रमुख शिव व त्र्यंबक को भैरव बताते हं । गणेश – इस विद्या के हरिद्रा-गणपति मुख्य गणेश हैं । स्वर्णाकर्षण भैरव का प्रयोग भी उपयुक्त है । यक्षिणी - विडालिका यक्षिणी का मेरु-तंत्र में विधान है । प्रयोग हेतु अंग-विद्यायें -मृत्युञ्जय, बटुक, आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, पार्जन्यास्त्र, संमोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, कुल्लुका, तारा स्वप्नेश्वरी, वाराही मंत्र की उपासना करनी चाहिये । कुल्लुका – “ॐ क्ष्रौं” अथवा “ॐ हूँ क्षौं” शिर में १० बार जप करना । सेतु - कण्ठ में १० बार “ह्रीं” मंत्र का जप करें । महासेतु – “स्त्रीं” इसका हृदय में १० बार जप करें । निर्वाण – हूं, ह्रीं श्रीं से संपुटित करे एवं मंत्र जप करें । दीपन पुरश्चरण आदि में “ईं” से सम्पुटित मंत्र का जप करें । जीवन – मूल मंत्र के अंत में ” ह्रीं ओं स्वाहा” १० बार जपे । नित्य आवश्यक नहीं है । मुख-शोधन - (दातून) करने के बाद “हं ह्रीं ऐं” जलसंकेत से जिह्वा पर अनामिका से लिखें एवं १० बार मंत्र जप करें । शापोद्धार – “ॐ ह्लीं बगले रुद्रशायं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा” १० बार जपे । उत्कीलन - “ॐ ह्लीं स्वाहा” मंत्र के आदि में १० बार जपे ।.... बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र – || ह्लीं || बगलामुखी त्र्यक्षर मंत्र - || ॐ ह्लीं ॐ || ‘’ ह्लीं ‘’ को स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है । (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति, क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति । गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः, श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे । विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर ‘शाम्यति’ । मंत्र महोदधि में बगलामुखी साधना के बारे में विस्तार से दिया हुआ है। साधना में सावधानियां बगलामुखी तंत्र के विषय में बतलाया गया है - बगलासर्वसिद्धिदा सर्वाकामना वाप्नुयात’ अर्थात बगलामुखी देवी का स्तवन पूजा करने वालों की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। ‘सत्ये काली च अर्थात बगला शक्ति को त्रिशक्तिरूपिणी माना गया है। वस्तुतः बगलामुखी की साधना में साधक भय से मुक्त हो जाता है। किंतु बगलामुखी की साधना में कुछ विशेष सावधानियां बरतना अनिवार्य है जो इस प्रकार हैं। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। साधना क्रम में स्त्री का स्पर्श या चर्चा नहीं करनी चाहिए। साधना डरपोक या बच्चों को नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक को कभी-कभी भयभीत भी करती हैं। अतः दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति वाले साधक ही साधना करें। साधना आरंभ करने से पूर्व गुरु का ध्यान और पूजा अनिवार्य है। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं। अतः साधना से पूर्व महामृत्यंजय का कम से कम एक माला जप अवश्य करें। वस्त्र, आसन आदि पीले होने चाहिए। साधना उत्तर की ओर मुंह कर के ही करें। मंत्र जप हल्दी की माला से करें। जप के बाद माला गले में धारण करें। ध्यान रखें, साधना कक्ष में कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न करे, न ही कोई माला का स्पर्श करे। साधना रात्रि के 8.00 से भोर 3.00 बजे के बीच ही करें। मंत्र जप की संख्या अपनी क्षमतानुसार निश्चित करें, फिर उससे न तो कम न ही अधिक जप करें। मंत्र जप 16 दिन में पूरा हो जाना चाहिए। मंत्र जप के लिए शुक्ल पक्ष या नवरात्रि सर्वश्रेष्ठ समय है। मंत्र जप से पहले संकल्प हेतु जल हाथ में लेकर अपनी इच्छा स्पष्ट रूप से बोल कर व्यक्त करें। साधना काल में इसकी चर्चा किसी से न करें। साधना काल में अपने बायीं ओर तेल का तथा अपने दायीं ओर घी का अखंड दीपक जलाएं। उपासना विधि :- किसी भी शुभ मुहूर्त में सोने, चांदी, या तांबे के पत्र पर मां बगलामुखी के यंत्र की रचना करें। यंत्र यथासंभव उभरे हुए रेखांकन में हो। इस यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर नियमित रूप से पूजा करें। इस यंत्र को रविपुष्य या गुरुपुष्य योग में मां बगलामुखी के चित्र के साथ स्थापित करें। फिर सब से पहले बगला माता का ध्यान कर विनियोग करें गणेशजी का पूजन, संकल्प , गुरुजी का पूजन , पंचदेवता पूजन, भैरव पूजन , भूतशुद्धि , कलशस्थापन प्राणप्रतिस्ठा , पीठमातृका न्यास , पीठपूजन करें | निम्न मंत्र पढ़कर विनियोग करें :- विनियोग मंत्र :- ॐ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषिः त्रिष्टुपछंदः श्री बगलामुखी देवता ह्लीं बीजं स्वाहा शक्तिः प्रणवः कीलकं ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।( दाएं हाथ में जल में जल लेकर मंत्र का उच्चारण करते हुए चित्र के आगे छोड़ दें )-- करन्यास :- ॐ ह्ल्रीम अगुष्ठाभ्यां नमः | बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः | वाचं मुखं पदं स्तंभय अनामिकाभ्यां नमः | जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः | बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः | षडअंगन्यास :- ॐ ह्ल्रीम हृदयाम नमः | बगलामुखी शिरसे स्वाहा | सर्वदुष्टानां शिखायै वषट् | वाचं मुखं पदं स्तम्भयं कवचाय हुंम | जिह्वां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् | बुद्धि विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्। ध्यान :- मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेद्यां | सिंहासनो परिगतां परिपीतवर्णाम् || पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी | देवी नजामि घृतमुद्गर वैरिजिहवाम्।। जिह्नाग्रमादाय करेण देवीं। वामेन शत्रून् परिपीडयंतीम् || गदाभिघातेन व दक्षिणेन। पीतांबराढ्यां द्विभुजां नमामि।। अब षोडशोपचार पूजन करने के बाद स्तोत्र , सहस्त्रनाम , बगलहृदय पाठ करें पश्चात उपरोक्त उद्धृत बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना एवं प्राणायाम करके 36 अक्षर का मूल मंत्र जप करे ( प्रतिदिन कम से कम 5000 मंत्र जप आवश्यक है ) 36 अक्षर का मंत्र - “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” इस अंतिम दिन दशांश हवन , ततदशांश तर्पण ततदशांश मार्जन ततदशांश ब्राह्मण भोजन भी करना आवश्यक है विशेष :- 1)माँ बगलामुखी का बीज ‘’ ह्लीं ‘’ है , परंतु इसमे अग्नि बीज का संयुक्त कर ‘’ ह्ल्रीम ‘’ का जप करने पर मंत्र और भी शक्ति प्रदान करता है | 2) माँ बगलामुखी दशमहाविद्या में से हैं अतः गुरुवर के सान्निध्य में ही साधना करें अन्यथा हानि की आशंका रहती है यदि शत्रु का प्रयोग या प्रेतोपद्रव भारी हो, तो मंत्र क्रम में निम्न विघ्न बन सकते हैं - १॰ जप नियम पूर्वक नहीं हो सकेंगे । २॰ मंत्र जप में समय अधिक लगेगा, जिह्वा भारी होने लगेगी । ३॰ मंत्र में जहाँ “जिह्वां कीलय” शब्द आता है, उस समय स्वयं की जिह्वा पर संबोधन भाव आने लगेगा, उससे स्वयं पर ही मंत्र का कुप्रभाव पड़ेगा । ४॰ ‘बुद्धिं विनाशय’ पर परिभाषा का अर्थ मन में स्वयं पर आने लगेगा । सावधानियाँ :- १॰ ऐसे समय में तारा मंत्र पुटित बगलामुखी मंत्र प्रयोग में लेवें, अथवा कालरात्रि देवी का मंत्र व काली अथवा प्रत्यंगिरा मंत्र पुटित करें । तथा कवच मंत्रों का स्मरण करें । सरस्वती विद्या का स्मरण करें अथवा गायत्री मंत्र साथ में करें । २॰ बगलामुखी मंत्र में “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” इस मंत्र में ‘सर्वदुष्टानां’ शब्द से आशय शत्रु को मानते हुए ध्यान-पूर्वक आगे का मंत्र पढ़ें । ३॰ यही संपूर्ण मंत्र जप समय ‘सर्वदुष्टानां’ की जगह काम, क्रोध, लोभादि शत्रु एवं विघ्नों का ध्यान करें तथा ‘वाचं मुखं …….. जिह्वां कीलय’ के समय देवी के बाँयें हाथ में शत्रु की जिह्वा है तथा ‘बुद्धिं विनाशय’ के समय देवी शत्रु को पाशबद्ध कर मुद्गर से उसके मस्तिष्क पर प्रहार कर रही है, ऐसी भावना करें । ४॰ बगलामुखी के अन्य उग्र-प्रयोग वडवामुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी, भानुमुखी, वृहद्-भानुमुखी, जातवेदमुखी इत्यादि तंत्र ग्रथों में वर्णित है । समय व परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करना चाहिये । ५॰ बगला प्रयोग के साथ भैरव, पक्षिराज, धूमावती विद्या का ज्ञान व प्रयोग करना चाहिये । ६॰ बगलामुखी उपासना पीले वस्त्र पहनकर, पीले आसन पर बैठकर करें । गंधार्चन में केसर व हल्दी का प्रयोग करें, स्वयं के पीला तिलक लगायें । दीप-वर्तिका पीली बनायें । पीत-पुष्प चढ़ायें, पीला नैवेद्य चढ़ावें । हल्दी से बनी हुई माला से जप करें । अभाव में रुद्राक्ष माला से जप करें | अन्य किसी माला से जप कभी न करें |

शरीर रक्षा शाबर मन्त्र ‘मन्त्र-विद्या’ का प्रयोग करने वाले को देहाती भाषा में ‘ओझा’ कहते हैं : ‘ओझा’ भी जब झाड़-फूँक ले लिए कहीं जाता है, तो घर से चलते समय या उस स्थान पर पहुँच कर सबसे पहले अपने शरीर की रक्षा के लिए शरीर-रक्षा का मन्त्र पढ़ लेता है, जिससे यदि उस स्थान पर भूत-प्रेतादि का उपद्रव हो, तो उसे हानि न पहुँचा सके । शरीर-रक्षा का ऐसा ही एक मन्त्र यहाँ उद्धृत है - ” उत्तर बाँधों, दक्खिन बाँधों, बाँधों मरी मसानी, डायन भूत के गुण बाँधों, बाँधों कुल परिवार, नाटक बाँधों, चाटक बाँधों, बाँधों भुइयाँ वैताल, नजर गुजर देह बाँधों, राम दुहाई फेरों ।” प्रयोग विधिः- उक्त मन्त्र को अधिक-से-अधिक संख्या में किसी पर्व-काल में जप लेने से वह सिद्ध हो जाता है । शरीर-रक्षा की आवश्यकता पड़े, तो सिद्ध मन्त्र का नौ बार उच्चारण करके हाथ की हथेली पर नौ बार फूँक मारे और हथेली को पूरे शरीर पर फिरा दें । इससे देह बँध जाएगी೦

श्री हनुमान के एक चमत्कारिक रूप पंचमुखी हनुमान के स्वरुप श्री हनुमान रूद्र के अवतार माने जाते हैं। आशुतोष यानि भगवान शिव का अवतार होने से उनके समान ही श्री हनुमान थोड़ी ही भक्ति से जल्दी ही हर कलह, दु:ख व पीड़ा को दूर कर मनोवांछित फल देने वाले माने जाते हैं। श्री हनुमान चरित्र गुण, शील, शक्ति, बुद्धि कर्म, समर्पण, भक्ति, निष्ठा, कर्तव्य जैसे आदर्शों से भरा है। इन गुणों के कारण ही भक्तों के ह्रदय में उनके प्रति गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है, जो श्री हनुमान को सबसे अधिक लोकप्रिय देवता बनाती है। श्री हनुमान के अनेक रूपों में साधना की जाती है। लोक परंपराओं में बाल हनुमान, भक्त हनुमान, वीर हनुमान, दास हनुमान, योगी हनुमान आदि प्रसिद्ध है। किंतु शास्त्रों में श्री हनुमान के एक चमत्कारिक रूप और चरित्र के बारे में लिखा गया है। वह है पंचमुखी हनुमान। धर्मग्रंथों में अनेक देवी-देवता एक से अधिक मुख वाले बताए गए हैं। किंतु पांच मुख वाले हनुमान की भक्ति न केवल लौकिक मान्यताओं में बल्कि धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है। जानते हैं पंचमुखी हनुमान के स्वरुप और उनसे मिलने वाले शुभ फलों को - पौराणिक कथा के अनुसार एक बार पांच मुंह वाले दैत्य ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पा लिया कि उसे अपने जैसे ही रूप वाले से मृत्यु प्राप्त हो। उसने जगत को भयंकर पीड़ा पहुंचाना शुरु किया। तब देवताओं की विनती पर श्री हनुमान से पांच मुखों वाले रूप में अवतार लेकर उस दैत्य का अंत कर दिया। श्री हनुमान के पांच मुख पांच दिशाओं में हैं। हर रूप एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी यानि तीन आंखों और दो भुजाओं वाला है। यह पांच मुख नरसिंह, गरुड, अश्व, वानर और वराह रूप है। पंचमुखी हनुमान का पूर्व दिशा में वानर मुख है, जो बहुत तेजस्वी है। जिसकी उपासना से विरोधी या दुश्मनों को हार मिलती है। पंचमुखी हनुमान का पश्चिमी मुख गरूड का है, जिसके दर्शन और भक्ति संकट और बाधाओं का नाश करती है। पंचमुखी हनुमान का उत्तर दिशा का मुख वराह रूप होता है, जिसकी सेवा-साधना अपार धन, दौलत, ऐश्वर्य, यश, लंबी आयु, स्वास्थ्य देती है। पंचमुखी हनुमान का दक्षिण दिशा का मुख भगवान नृसिंह का है। इस रूप की भक्ति से जिंदग़ी से हर चिंता, परेशानी और डर दूर हो जाता है। पंचमुखी हनुमान का पांचवा मुख आकाश की ओर दृष्टि वाला होता है। यह रूप अश्व यानि घोड़े के समान होता है। श्री हनुमान का यह करुणामय रूप होता है, जो हर मुसीबत में रक्षा करने वाला माना जाता है। पंचमुख हनुमान की साधना से जाने-अनजाने हुए सभी बुरे कर्म और विचारों के दोषों से छुटकारा मिलता है। वही धार्मिक रूप से ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों की कृपा भी प्राप्त होती है। इस तरह श्री हनुमान का यह अद्भुत रूप शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आध्यात्मिक आनंद और सुख देने वाला माना गया है। श्री हनुमान बल, बुद्धि और ज्ञान देने वाले देवता माने जाते हैं। श्री हनुमान की भक्ति और दर्शन कर्तव्य, समर्पण, ईश्वरीय प्रेम, स्नेह, परोपकार, वफादारी और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करते हैं। उनके विराट और पावन चरित्र के कारण ही उन्हें शास्त्रों में सकलगुणनिधान शब्द से पुकारा गया है।गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना हनुमान चालीसा में श्री हनुमान को माता सीता की कृपा से आठ सिद्धियों और नवनिधि प्राप्त करने और उसको भक्तों को देने का बल प्राप्त होने के बारे में लिखा है। यही कारण है कि हनुमान की भक्ति भक्त की सभी बुराईयों और दोषों को दूर कर गुण और बल देने वाली मानी गई है। जहां गुण और गुणी व्यक्ति होते हैं, वहां संकट भी दूर रहते हैं। ऐसा व्यक्ति व्यावहारिक रूप से हनुमान की तरह ही संकटमोचक माना जाता है। इसलिए जानते हैं कि आखिर माता सीता की कृपा से श्री हनुमान ने किन नौ निधि को पाया, जो हनुमान उपासना से भक्तों को भी मिलती है। यह निधियाँ वास्तव में शक्तियों का ही रूप है। पद्म निधि- इससे परिवार में सुख-समृद्धि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती रहती है। महापद्म निधि - इसके असर से खुशहाली सात पीढियो तक बनी रहती है। नील निधि - यह सफल कारोबार बनाती है। मुकुंद निधि - यह भौतिक सुखों को देती है। नन्द निधि- इसके प्रभाव से लम्बी उम्र और कामयाबी मिलती है। मकर निधि -यह निधि शस्त्र और युद्धकला में दक्ष बनाती है। कच्छप निधि-इस निधि के प्रभाव से दौलत और संपत्ति बनी रहती है। शंख निधि - इससे व्यक्ति अपार धनलाभ पाता है। खर्व निधि -इससे व्यक्ति को विरोधियों और कठिन समय पर विजय पाने की ताकत और दक्षता मिलती है। श्री हनुमान शिव के अवतार माने गए हैं। शास्त्रों के मुताबिक श्री हनुमान सर्वगुण, सिद्धि और बल के अधिपति देवता हैं। यही कारण है कि वह संकटमोचक कहलाते हैं। हर हिन्दू धर्मावलंबी विपत्तियों से रक्षा के लिए श्री हनुमान का स्मरण और उपासना जरूर करता है। श्री हनुमान की भक्ति और प्रसन्नता के लिए सबसे लोकप्रिय स्तुति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बनाई गई श्री हनुमान चालीसा है। इसी चालीसा में एक चौपाई आती है। जिसमें श्री हनुमान को आठ सिद्धियों को स्वामी बताया गया है।

श्री हनुमान सिद्धि के लिए मन्त्रः- “ॐ नमो देव लोक दिविख्या देवी, जहाँ बसे इस्माईल योगी । छप्पन भैरों, हनुमन्त वीर, भूत-प्रेत दैत्य को मार, भगावें । पराई माया ल्यावें । लाडू पेड़ा बरफी सेव सिंघाड़ा पाक बताशा मिश्री घेवर बालूसाई लोंग डोडा इलायची दाना तेल देवी काली के ऊपर । हनुमन्त गाजै ।। एती वस्तु मैं चाहि लाव, न लावे तो तैंतीस कोट देवता लावें । मिरची जावित्री जायफल हरड़े जंगी-हरड़े बादाम छुहारा मुखरें । रामवीर तो बतावैं बस्ती । लक्ष्मण वीर पकड़ावे हाथ । भूत-प्रेत के चलावें हाथ । हनुमन्त वीर को सब कोउ गावै । सौ कोसां का बस्ता लावे, न लावें तो एक लाख अस्सी हजार पीर-पैगम्बर लावें । शब्द सांचा, फुरे मन्त्र ईश्वरो वाचा ।” विधिः- इस मन्त्र का जप किसी निर्जन स्थान में, कोई अन्धा कुंआ के ऊपर बैठकर करें, सर्व-प्रथम वहां से शुद्ध मिट्टी लेकर उसमें लाल रंग या सिंदूर मिला कर हनुमान जी की प्रतिमा बनावें, फिर उस पर सिन्दूर का चोला चढ़ा कर मन्त्र में कही सामग्री उस प्रतिमा के समक्ष रख कर इस मन्त्र का २१ दिन तक प्रतिदिन रात्रि में २ माला जप करें, तो हनुमान जी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रुप में दर्शन देकर उसकी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण करते हैं ।

तंत्र -मन्त्र -टोटके > मानव हमेशा नईउर्जा के साथ जीना चाहता है | जिससे वह हमेशा प्रसन्न रह सखे |एवं उन्नति /उर्जा /नई उमंग के लिए स्वस्थ रहने की परम आवश्कता है \ प्रतेक विद्वान /डोक्टर बैध ने यही लिखा है स्वस्थ मानव बिना परेशानी के अपना मन किसी भी उदेश्य को पूर्ण करने मे लगा सकता है \ हमारे यहा कहावत है . पहला सुख निरोगी काया \ निरोगी काया को रखने के लिए अपनाये कुछ टोटके -क्योकि स्वस्थ शरीर मे ही एक स्वस्थ आत्मा निवास करती है \ ज्वर {बुखार }नाशक टोटका . यदि आपका ज्वर सरे उपाय कर लेने के बाद भी ठीक नही हो रहा है .तो प्रभु पवनपुत्र हनुमान जी केशरण मेजाय सूर्यास्त के बाद हनुमान जी के मंदिर मे जाकर प्रणाम करके उनके चरणों का सिंदूर ले आये \ फिर ये मन्त्र ७ बार पढ़कर मरीज के मस्तिक पर लगा दे . बुखार ठीक हो जायेगा . {२}सफेदआकडे {मदर }की जड़ को लाकर स्त्री की वाई एवं पुरुष की दाहिनी भुजा पर बांध दे . एक दिन छोर कर आने बाला बुखार ठीक हो जायेगा \ 1

अश्व (वाहन) नाल तंत्र : नाखून और तलवे की रक्षा के लिए लोग प्रायः घोड़े के पैर में लोहे की नाल जड़वा देते हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिदिन पक्की सड़कों पर दौड़ना पड़ता है। यह नाल भी बहुत प्रभावी होती है। दारिद्र्य निवारण के लिए इसका प्रयोग अनेक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है। घोड़े की नाल तभी प्रयोजनीय होती है, जब वह अपने आप घोड़े के पैर से उखड़कर गिरी हो और शनिवार के दिन किसी को प्राप्त हो। अन्य दिनों में मिली नाल प्रभावहीन मानी जाती है। शनिवार को अपने आप, राह चलते कहीं ऐसी नाल दिख जाए, भले ही वह घोड़े के पैर से कभी भी गिरी हो उसे प्रणाम करके ‘ॐ श्री शनिदेवाय नमः’ का उच्चारण करते हुए उठा लेना चाहिए। शनिवार को इस प्रकार प्राप्त नाल लाकर घर में न रखें, उसे बाहर ही कहीं सुरक्षित छिपा दें। दूसरे दिन रविवार को उसे लाकर सुनार के पास जाएँ और उसमें से एक टुकड़ा कटवाकर उसमें थोड़ा सा तांबा मिलवा दें। ऐसी मिश्रित धातु (लौह-ताम्र) की अंगूठी बनवाएँ और उस पर नगीने के स्थान पर ‘शिवमस्तु’ अंकित करा लें। इसके पश्चात्‌ उसे घर लाकर देव प्रतिमा की भाँति पूजें और पूजा की अलमारी में आसन पर प्रतिष्ठित कर दें। आसन का वस्त्र नीला होना चाहिए। एक सप्ताह बाद अगले शनिवार को शनिदेव का व्रत रखें। सन्ध्या समय पीपल के वृक्ष के नीचे शनिदेव की पूजा करें और तेल का दीपक जलाकर, शनि मंत्र ‘ॐ शं शनैश्चराय नमः’ का जाप करें। एक माला जाप पश्चात्‌ पुनः अंगूठी को उठाएँ और 7 बार यही मंत्र पढ़ते हुए पीपल की जड़ से स्पर्श कराकर उसे पहन लें। यह अंगूठी बीच की या बगल की (मध्यमा अथवा अनामिका) उँगली में पहननी चाहिए। उस दिन केवल एक बार संध्या को पूजनोपरांत भोजन करें और संभव हो तो प्रति शनिवार को व्रत रखकर पीपल के वृक्ष के नीचे शनिदेव की पूजा करते रहें। कम से कम सात शनिवारों तक ऐसा कर लिया जाए तो विशेष लाभ होता है। ऐसे व्यक्ति को यथासंभव नीले रंग के वस्त्र पहनने चाहिए और कुछ न हो सके तो नीला रूमाल य अंगोछा ही पास में रखा जा सकता है। इस अश्व नाल से बनी मुद्रिका को साक्षात्‌ शनिदेव की कृपा के रूप में समझना चाहिए। इसके धारक को बहुत थोड़े समय में ही धन-धान्य की सम्पन्नता प्राप्त हो जाती है। दरिद्रता का निवारण करके घर में वैभव-सम्पत्ति का संग्रह करने में यह अंगूठी चमत्कारिक प्रभाव दिखलाती है।

संतान गोपाल मन्त्र संतान के बिना गृहस्थ जीवन की खुशिययां अधूरी हो जाती हैं। धर्म के नजरिए से गृहस्थ जीवन की चार पुरूषार्थ में से एक काम की प्राप्ति में अहम भूमिका है। यही कारण है कि हर दंपत्ति संतान प्राप्ति की कामना करते हैं। आज के दौर में जहां पुत्रियां भी किसी भी क्षेत्र में पुत्रों से कम नहीं है। फिर भी अक्सर परंपराओं और धर्म से जुड़ी मान्यताओं के चलते हर कोई पुत्र कामना करता है। किंतु कभी-कभी यह देखा जाता है कि शारीरिक समस्या या किसी घटना के कारण संतान प्राप्ति में बाधाएं आती है, जो परिवार के माहौल में मायूसी और दु:ख पैदा करते हैं। शास्त्रों में संतान कामना को पूरा करने के ऐसे ही उपाय बताए गए हैं, जिनसे बिना किसी ज्यादा परेशानी या आर्थिक बोझ के मनचाही खुशियां मिलती हैं। यह उपाय है संतान गोपाल मन्त्र का जप। स्वस्थ्य, सुंदर संतान खासतौर पर पुत्र प्राप्ति के लिए यह मंत्र पति-पत्नी दोनों के द्वारा किया जाना बेहतर नतीजे देता है। पति-पत्नी दोनों सुबह स्नान कर पूरी पवित्रता के साथ इस मंत्र का जप तुलसी की माला से करें। इसके लिए घर के देवालय में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र की चन्दन, अक्षत, फूल, तुलसी दल और माखन का भोग लगाकर घी के दीप व कर्पूर से आरती करें। बालकृष्ण की मूर्ति विशेष रूप से श्रेष्ठ मानी जाती है। भगवान की पूजा के बाद या आरती के पहले इस संतान गोपाल मंत्र का जप करें - देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते। देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत: मंत्र जप के बाद भगवान से समर्पित भाव से निरोग, दीर्घजीवी, अच्छे चरित्रवाला, सेहतमंद पुत्र की कामना करें। यह मंत्र जप पति या पत्नी अकेले भी कर सकते हैं। धार्मिक मान्यताओं में इस मंत्र की 55 माला या यथाशक्ति जप के एक माह में चमत्कारिक फल मिलते हैं। .............

सफलता दिलाने वाले मंत्र हर व्यक्ति की तमन्ना होती है कि उसकी जि़दगी सुख और सफलताओं से भरी हो। किंतु कामयाबी की डगर जितनी कठिन होती है, उतना ही पेचीदा होता है उस सफलता को कायम रखना। वैसे तो शिखर पर बने रहने के लिए जरूरी है काबिलियत, जज्बा और लगातार चलते रहने की इच्छा शक्ति। किंतु सुख के साथ दु:ख भी जीवन का हिस्सा है, जो किसी न किसी रूप में जीवन की गति को बाधित करता ही है। इसलिए हर व्यक्ति ऐसे उपाय और तरीके अपनाना चाहता है, जो सरल और एक के बाद एक कामयाबी देने में कारगर हो। हिन्दू धर्म शास्त्रों में ज़िंदगी में आने वाली अनचाही परेशानियों, कष्ट, बाधाओं और संकट को दूर करने के लिए ऐसे देवताओं की उपासना के धार्मिक उपाय बताए हैं, जो न केवल मुश्किल हालात में भरपूर मानसिक शक्ति और शांति देते है, बल्कि उनका अचूक प्रभाव हर भय चिंता से मुक्त कर सफलताओं की बुलंदियों तक ले जाता है। यहां कुछ ऐसे देवताओं के मंत्र बताए जा रहें हैं। जिनको घर, कार्यालय, सफर में मन ही मन बोलना भी संकटमोचक माना गया है। इन मंत्रों को बोलने के अलावा यथासंभव समय निकालकर साथ ही बताई जा रही पूजा सामग्री संबंधित देवता को जरूर चढ़ाएं - शिव - पंचाक्षर मंत्र - नम: शिवाय, षडाक्षरी मंत्र ऊँ नम: शिवाय पूजा सामग्री - जल व बिल्वपत्र। श्री गणेश - ऊँ गं गणपतये नम: पूजा सामग्री - दूर्वा, सिंदूर विष्णु - ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय पूजा सामग्री - पीले फूल या वस्त्र महामृंत्युजय मंत्र - ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्द्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धानान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। पूजा सामग्री - दूध मिला जल, धतूरा। श्री हनुमान - ऊँ हं हनुमते नम: पूजा सामग्री - सिंदूर, गुड़-चना इन मंत्रों के जप के समय सामान्य पवित्रता का ध्यान रखें। जैसे घर में हो तो देवस्थान में बैठकर, कार्यालय में हो तो पैरों से जूते-चप्पल उतारकर इन मंत्र और देवताओं का ध्यान करें। इससे आप मानसिक बल पाएंगे, जो आपकी ऊर्जा को जरूर बढ़ाने वाले साबित होंगे। .......................

सर्व सिद्धिदायक हनुमान मन्त्र श्री हनुमान् जी का यह मंत्र समस्त प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए प्रयोग किया जाता है । मन्त्र सिद्ध करने के लिए हनुमान जी के मन्दिर में जाकर हनुमान जी की पंचोपचार पूजा करें और शुद्ध घृत का दीपक जलाकर भीगी हुई चने की दाल और गुड़ का प्रसाद लगाकर निम्न मंत्र का जप करें । कार्य सिद्ध ले लिए एक माला का जप प्रतिदिन ११ दिन तक करे और अंत में दशमांश हवन करें । “ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहान् भूत भविष्यद्-वर्तमानान् दूरस्थ समीपस्यान् छिंधि छिंधि भिंधि भिंधि सर्वकाल दुष्ट बुद्धानुच्चाट्योच्चाट्य परबलान् क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्याणि साधय साधय । ॐ नमो हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् । देहि ॐ शिव सिद्धि ॐ । ह्रां ॐ ह्रीं ॐ ह्रूं ॐ ह्रः स्वाहा ।” महावीर मंत्र ध्यान रामेष्टमित्रं जगदेकवीरं प्लवंगराजेन्द्रकृत प्रणामम् । सुमेरु श्टंगागमचिन्तयामाद्यं हृदि स्मेरहं हनुमंतमीड्यम् ।। हनुमान जी का उक्त ध्यान करके निम्न मंत्र का २२ हजार जप करके केले और आम के फलों से हवन करें । हवन करके २२ ब्रह्मचारियों को भोजन करा दें । इससे भगवान् महावीर प्रसन्नता-पूर्वक सिद्धि देते हैं । ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” हनुमन्मन्त्र (उदररोग नाशक मंत्र) “ॐ यो यो हनुमंत फलफलित धग्धगित आयुराषः परुडाह ।” उक्त मन्त्र को प्रतिदिन ११ बार पढ़ने से सब तरह के पेट के रोग शांत हो जाते हैं । हनुमान्माला मन्त्र श्री हनुमान जी के सम्मुख इस मंत्र के ५१ पाठ करें और भोजपत्र पर इस मंत्र को लिखकर पास में रखलें तो सर्व कार्यों में सिद्धि मिलती है । “ॐ वज्र-काय वज्र-तुण्ड कपिल-पिंगल ऊर्ध्व-केश महावीर सु-रक्त-मुख तडिज्जिह्व महा-रौद्र दंष्ट्रोत्कट कह-कह करालिने महा-दृढ़-प्रहारिन लंकेश्वर-वधाय महा-सेतु-बंध-महा-शैल-प्रवाह-गगने-चर एह्येहिं भगवन्महा-बल-पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घ-पुच्छेन वेष्टय वैरिणं भंजय भंजय हुँ फट् ।।” (१२५ अक्षर) हनुमद् मंत्र इस मन्त्र का नित्य प्रति १०८ बार जप करने से सिद्धि मिलती है - ” ॐ एं ह्रीं हनुमते रामदूताय लंका विध्वंसनपायांनीगर्भसंभूताय शकिनी डाकिनी विध्वंसनाय किलि किलि बुवुकरेण विभीषणाय हनुमद्देवाय ॐ ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्रां फट् स्वाहा ।” हनुमद् उपासना मन्त्र इस मन्त्र का पाठ ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके करना चाहिए । अष्टगंध से “ॐ हनुमते नमः” ये लिखकर हनुमान जी को सिन्दूर और चमेली का शुद्ध तेल केशर और लाल चन्दन का गंध लगायें । कमल, केवड़ा और सूर्यमुखी के फूलों से पूजन करें । इस प्रकार “देवशयनी एकादशी” से “देवोत्थनी एकादशी” तक नित्य पूजन करें । तुलसी-पत्र पर ‘राम-राम’ लिखकर भी चढ़ायें । इस प्रयोग से हनुमान जी प्रसन्न होकर अभीष्ट सिद्धि प्रदान करेंगे । ॐ श्री गुरवे नमः ‘ ॐ जेते हनुमंत रामदूत चलो वेग चलो लोहे की गदा, वज्र का लंगोट, पान का बीड़ा, तले सिंदूर की पूजा, हंहकार पवनपुत्र कालंचचक्र हस्त कुबेरखिलुं मरामसान खिलुं भैरव खिलुं अक्षखिलुं वक्षखिलुं मेरे पे करे घाव छाती फट् फट् मर जाये देव चल पृथ्वीखिलुं साडे वारे जात की बात को खिलुं मेघ को खिलुं नव कौड़ी नाग को खिलुं येहि येहि आगच्छ आगच्छ शत्रुमुख बंधना खिलुं सर्व-मुखबंधनाम् खिलुं काकणी कामानी मुखग्रह-बंधना खिलुं कुरु कुरु स्वाहा ।’ हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र ‍१- “ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि सर्वभूतानां डाकिनी शाकिनीनां सर्वविषयान आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय छेदय छेदय अपमृत्यु प्रभूतमृत्यु शोषय शोषय ज्वल प्रज्वल भूतमंडलपिशाचमंडल निरसनाय भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर माहेशऽवरज्वर छिंधि छिंधि भिन्दि भिन्दि अक्षि शूल कक्षि शूल शिरोभ्यंतर शूल गुल्म शूल पित्त शूल ब्रह्मराक्षस शूल प्रबल नागकुलविषंनिर्विषं कुरु कुरु स्वाहा ।” २- ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” इस मंत्र को २१ दिनों तक बारह हजार जप प्रतिदिन करें फिर दही, दूध और घी मिलाते हुए धान का दशांश आहुति दें । यह मंत्र सिद्ध होकर पूर्ण सफलता देता है । ३- “ॐ दक्षिणमुखाय पञ्चमुखहनुमते कराल वदनाय नरसिंहाय, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रै ह्रौं ह्रः सकल भूत-प्रेतदमनाय स्वाहा ।” (जप संख्या दस हजार, हवन अष्टगंध से) ४- “ॐ हरिमर्कट वामकरे परिमुञ्चति मुञ्चति श्रृंखलिकाम् ।” इस मन्त्र को दाँये हाथ पर बाँये हाथ से लिखकर मिटा दे और १०८ बार इसका जप करें प्रतिदिन २१ दिन तक । लाभ – बन्धन-मुक्ति । ५- “ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्धगिति आयुराष परुडाह ।” प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखकर इस मंत्र का २५ माला जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है । इस मंत्र के द्वारा पीलिया रोग को झाड़ा जा सकता है । ६- “ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ।” यह ११ अक्षरों वाला मंत्र अति फलदायी है, इसे ११ हजार की संख्या में प्रतिदिन जपना चाहिए । ७- ” ॐ ह्रां ह्रीं फट् देहि ॐ शिवं सिद्धि ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं स्वाहा ।” ८- ” ॐ सर्वदुष्ट ग्रह निवारणाय स्वाहा ।” ९- ” हं पवननन्दाय स्वाहा ।” १०- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ।” (१८ अक्षर) ११- “ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट् ।” (१२ अक्षर) १२- “ॐ नमो हनुमते मदन क्षोभं संहर संहर आत्मतत्त्वं प्रकाशय प्रकाशय हुं फट् स्वाहा ।” १३- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय अमुकस्य श्रृंखला त्रोटय त्रोटय बन्ध मोक्षं कुरु कुरु स्वाहा ।” १४- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ।” १५- “ॐ हनुमते नमः । अंजनी गर्भ-सम्भूतः कपीन्द्र सचिवोत्तम् । राम-प्रिय नमस्तुभ्यं, हनुमन् रक्ष सर्वदा । ॐ हनुमते नमः ।” १६- “ॐ हनुमते नमः । आपदाममपहर्तारं दातारं सर्व-सम्पदान् । लोकाभिरामः श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् । ॐ हनुमते नमः ।” १७- “ॐ हनुमते नमः । मर्कटेश महोत्साह सर्वशोक विनाशन । शत्रून् संहर मां रक्ष, श्रियं दापय मे प्रभो । ॐ हनुमते नमः ।” १८- ” ॐ हं पवननन्दाय स्वाहा ।” १९- “ॐ पूर्व-कपि-मुखाय पञ्च-मुख-हनुमते टं टं टं टं टं सकल शत्रु संहरणाय स्वाहा ।” २०- “ॐ पश्चिम-मुखाय-गरुडासनाय पंचमुखहनुमते नमः मं मं मं मं मं, सकल विषहराय स्वाहा ।” इस मन्त्र की जप संख्या १० हजार है, इसकी साधना दीपावली की अर्द्ध-रात्रि पर करनी चाहिए । यह मन्त्र विष निवारण में अत्यधिक सहायक है । २१- “ॐ उत्तरमुखाय आदि वराहाय लं लं लं लं लं सी हं सी हं नील-कण्ठ-मूर्तये लक्ष्मणप्राणदात्रे वीरहनुमते लंकोपदहनाय सकल सम्पत्ति-कराय पुत्र-पौत्रद्यभीष्ट-कराय ॐ नमः स्वाहा ।” इस मन्त्र का उपयोग महामारी, अमंगल एवं ग्रह-दोष निवारण के लिए है । २२- “ॐ नमो पंचवदनाय हनुमते ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्रमूर्तये सकललोक वशकराय वेदविद्या-स्वरुपिणे ॐ नमः स्वाहा ।” यह वशीकरण के लिए उपयोगी मन्त्र है । २३- “ॐ ह्रां ह्रीं ह्रैं हनुमते नमः ।” २४- “ॐ श्री महाञ्जनाय पवन-पुत्र-वेशयावेशय ॐ श्रीहनुमते फट् ।” यह २५ अक्षरों का मन्त्र है इसके ऋषि ब्रह्मा, छन्द गायत्री, देवता हनुमानजी, बीज श्री और शक्ति फट् बताई गई है । छः दीर्घ स्वरों से युक्त बीज से षडङ्गन्यास करने का विधान है । इस मन्त्र का ध्यान इस प्रकार है - आञ्जनेयं पाटलास्यं स्वर्णाद्रिसमविग्रहम् । परिजातद्रुमूलस्थं चिन्तयेत् साधकोत्तम् ।। (नारद पुराण ७५-१०२) इस प्रकार ध्यान करते हुए साधक को एक लाख जप करना चाहिए । तिल, शक्कर और घी से दशांश हवन करें और श्री हनुमान जी का पूजन करें । यह मंत्र ग्रह-दोष निवारण, भूत-प्रेत दोष निवारण में अत्यधिक उपयोगी है । 2.वशीकरण के लिए मन्त्र “जो कह रामु लखनु बैदेही । हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही ।।” मन्त्र की प्रयोग विधि और लाभ सूर्य-ग्रहण के पर्व काल के उत्तम समय पर पूरे पर्वकाल में ही इस मन्त्र को जपते रहें, तो यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है । इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ करके गोरोचन का टीका लगा लें । इस प्रकार करने से मन्त्र के प्रयोग से वशीकरण होता

नवग्रह शांतिदायक टोटके सूर्यः- १॰ सूर्यदेव के दोष के लिए खीर का भोजन बनाओ और रोजाना चींटी के बिलों पर रखकर आवो और केले को छील कर रखो । २॰ जब वापस आवो तभी गाय को खीर और केला खिलाओ । ३॰ जल और गाय का दूध मिलाकर सूर्यदेव को चढ़ावो। जब जल चढ़ाओ, तो इस तरह से कि सूर्य की किरणें उस गिरते हुए जल में से निकल कर आपके मस्तिष्क पर प्रवाहित हो । ४॰ जल से अर्घ्य देने के बाद जहाँ पर जल चढ़ाया है, वहाँ पर सवा मुट्ठी साबुत चावल चढ़ा देवें । चन्द्रमाः- १॰ पूर्णिमा के दिन गोला, बूरा तथा घी मिलाकर गाय को खिलायें । ५ पूर्णमासी तक गाय को खिलाना है । २॰ ५ पूर्णमासी तक केवल शुक्ल पक्ष में प्रत्येक १५ दिन गंगाजल तथा गाय का दूध चन्द्रमा उदय होने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य दें । अर्घ्य देते समय ऊपर दी गई विधि का इस्तेमाल करें । ३॰ जब चाँदनी रात हो, तब जल के किनारे जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को हाथ जोड़कर दस मिनट तक खड़ा रहे और फिर पानी में मीठा प्रसाद चढ़ा देवें, घी का दीपक प्रज्जवलित करें । उक्त प्रयोग घर में भी कर सकते हैं, पीतल के बर्तन में पानी भरकर छत पर रखकर या जहाँ भी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पानी में दिख सके वहीं पर यह कार्य कर सकते हैं । मंगलः- १॰ चावलों को उबालने के बाद बचे हुए माँड-पानी में उतना ही पानी तथा १०० ग्राम गुड़ मिलाकर गाय को खिलाओ । २॰ सवा महीने में जितने दिन होते हैं, उतने साबुत चावल पीले कपड़े में बाँध कर यह पोटली अपने साथ रखो । यह प्रयोग सवा महीने तक करना है । ३॰ मंगलवार के दिन हनुमान् जी के व्रत रखे । कम-से-कम पाँच मंगलवार तक । ४॰ किसी जंगल जहाँ बन्दर रहते हो, में सवा मीटर लाल कपड़ा बाँध कर आये, फिर रोजाना अथवा मंगलवार के दिन उस जंगल में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाये । बुधः- १॰ सवा मीटर सफेद कपड़े में हल्दी से २१ स्थान पर “ॐ” लिखें तथा उसे पीपल पर लटका दें । २॰ बुधवार के दिन थोड़े गेहूँ तथा चने दूध में डालकर पीपल पर चढ़ावें । ३॰ सोमवार से बुधवार तक हर सप्ताह कनैर के पेड़ पर दूध चढ़ावें । जिस दिन से शुरुआत करें उस दिन कनैर के पौधे की जड़ों में कलावा बाँधें । यह प्रयोग कम-से-कम पाँच सप्ताह करें । बृहस्पतिः- १॰ साँड को रोजाना सवा किलो ७ अनाज, सवा सौ ग्राम गुड़ सवा महीने तक खिलायें । २॰ हल्दी पाँच गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर पीपल के पेड़ पर बाँध दें तथा ३ गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर अपने साथ रखें । ३॰ बृहस्पतिवार के दिन भुने हुए चने बिना नमक के ग्यारह मन्दिरों के सामने बांटे । सुबह उठने के बाद घर से निकलते ही जो भी जीव सामने आये उसे ही खिलावें चाहे कोई जानवे हो या मनुष्य । शुक्रः- १॰ उड़द का पौधा घर में लगाकर उस पर सुबह के समय दूध चढ़ावें । प्रथम दिन संकल्प कर पौधे की जड़ में कलावा बाँधें । यह प्रयोग सवा दो महीने तक करना है । २॰ सवा दो महीने में जितने दिन होते है, उतने उड़द के दाने सफेद कपड़े में बाँधकर अपने पास रखें । ३॰ शुक्रवार के दिन पाँच गेंदा के फूल तथा सवा सौ उड़द पीपल की खोखर में रखें, कम-से-कम पाँच शुक्रवार तक । शनिः- १॰ सवा महिने तक प्रतिदिन तेली के घर बैल को गुड़ तथा तेल लगी रोटी खिलावें । राहूः- १॰ चन्दन की लकड़ी साथ में रखें । रोजाना सुबह उस चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर पानी में मिलाकर उस पानी को पियें । २॰ साबुत मूंग का खाने में अधिक सेवन करें । ३॰ साबुत गेहूं उबालकर मीठा डालकर कोड़ी मनुष्यों को खिलावें तथा सत्कार करके घर वापस आवें । केतुः- १॰ मिट्टी के घड़े का बराबर आधा-आधा करो । ध्यान रहे नीचे का हिस्सा काम में लेना है, वह समतल हो अर्थात् किनारे उपर-नीचे न हो । इसमें अब एक छोटा सा छेद करें तथा इस हिस्से को ऐसे स्थान पर जहाँ मनुष्य-पशु आदि का आवागमन न हो अर्थात् एकान्त में, जमीन में गड्ढा कर के गाड़ दें । ऊपर का हिस्सा खुला रखें । अब रोजाना सुबह अपने ऊपर से उबार कर सवा सौ ग्राम दूध उस घड़े के हिस्से में चढ़ावें । दूध चढ़ाने के बाद उससे अलग हो जावें तथा जाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखें ।.......

बंधी दूकान कैसे खोलें ? कभी-कभी देखने में आता है कि खूब चलती हुई दूकान भी एकदम से ठप्प हो जाती है । जहाँ पर ग्राहकों की भीड़ उमड़ती थी, वहाँ सन्नाटा पसरने लगता है । यदि किसी चलती हुई दुकान को कोई तांत्रिक बाँध दे, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, अतः इससे बचने के लिए निम्नलिखित प्रयोग करने चाहिए - १॰ दुकान में लोबान की धूप लगानी चाहिए । २॰ शनिवार के दिन दुकान के मुख्य द्वार पर बेदाग नींबू एवं सात हरी मिर्चें लटकानी चाहिए । ३॰ नागदमन के पौधे की जड़ लाकर इसे दुकान के बाहर लगा देना चाहिए । इससे बँधी हुई दुकान खुल जाती है । ४॰ दुकान के गल्ले में शुभ-मुहूर्त में श्री-फल लाल वस्त्र में लपेटकर रख देना चाहिए । ५॰ प्रतिदिन संध्या के समय दुकान में माता लक्ष्मी के सामने शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए । ६॰ दुकान अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान की दीवार पर शूकर-दंत इस प्रकार लगाना चाहिए कि वह दिखाई देता रहे । ७॰ व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा दुकान को नजर से बचाने के लिए काले-घोड़े की नाल को मुख्य द्वार की चौखट के ऊपर ठोकना चाहिए । ८॰ दुकान में मोरपंख की झाडू लेकर निम्नलिखित मंत्र के द्वारा सभी दिशाओं में झाड़ू को घुमाकर वस्तुओं को साफ करना चाहिए । मंत्रः- “ॐ ह्रीं ह्रीं क्रीं” ९॰ शुक्रवार के दिन माता लक्ष्मी के सम्मुख मोगरे अथवा चमेली के पुष्प अर्पित करने चाहिए । १०॰ यदि आपके व्यावसायिक प्रतिष्ठान में चूहे आदि जानवरों के बिल हों, तो उन्हें बंद करवाकर बुधवार के दिन गणपति को प्रसाद चढ़ाना चाहिए । ११॰ सोमवार के दिन अशोक वृक्ष के अखंडित पत्ते लाकर स्वच्छ जल से धोकर दुकान अथवा व्यापारिक प्रतिष्ठान के मुख्य द्वार पर टांगना चाहिए । सूती धागे को पीसी हल्दी में रंगकर उसमें अशोक के पत्तों को बाँधकर लटकाना चाहिए । १२॰ यदि आपको यह शंका हो कि किसी व्यक्ति ने आपके व्यवसाय को बाँध दिया है या उसकी नजर आपकी दुकान को लग गई है, तो उस व्यक्ति का नाम काली स्याही से भोज-पत्र पर लिखकर पीपल वृक्ष के पास भूमि खोदकर दबा देना चाहिए तथा इस प्रयोग को करते समय किसी अन्य व्यक्ति को नहीं बताना चाहिए । यदि पीपल वृक्ष निर्जन स्थान में हो, तो अधिक अनुकूलता रहेगी । १३॰ कच्चा सूत लेकर उसे शुद्ध केसर में रंगकर अपनी दुकान पर बाँध देना चाहिए । १४॰ हुदहुद पक्षी की कलंगी रविवार के दिन प्रातःकाल दुकान पर लाकर रखने से व्यवसाय को लगी नजर समाप्त होती है और व्यवसाय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । १५॰ कभी अचानक ही व्यवसाय में स्थिरता आ गई हो, तो निम्नलिखित मंत्र का प्रतिदिन ग्यारह माला जप करने से व्यवसाय में अपेक्षा के अनुरुप वृद्धि होती है । मंत्रः- “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो भगवती माहेश्वरी अन्नपूर्णा स्वाहा ।” १६॰ यदि कोई शत्रु आपसी जलन या द्वेष, व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण आप पर तंत्र-मंत्र का कोई प्रयोग करके आपके व्यवसाय में बाधा डाल रहा हो, तो ईसे में नीचे लिखे सरल शाबर मंत्र का प्रयोग करके आप अपनी तथा अपने व्यवसाय की रक्षा कर सकते हैं । सर्वप्रथम इस मंत्र की दस माला जपकर हवन करें । मंत्र सिद्ध हो जाने पर रविवार या मंगलवार की रात इसका प्रयोग करें । मंत्रः- “उलटत वेद पलटत काया, जाओ बच्चा तुम्हें गुरु ने बुलाया, सत नाम आदेश गुरु का ।” रविवार या मंगलवार की रात को 11 बजे के बाद घर से निकलकर चौराहे की ओर जाएँ, अपने साथ थोड़ी-सी शराब लेते जाएँ । मार्ग में सात कंकड़ उठाते जाएँ । चौराहे पर पहुँचकर एक कंकड़ पूर्व दिशा की ओर फेंकते हुए उपर्युक्त मंत्र पढ़ें, फिर एक दक्षिण, फिर क्रमशः पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे तथा सातवीं कंकड़ चौराहे के बीच रखकर उस शराब चढ़ा दें । यह सब करते समय निरन्तर उक्त मन्त्र का उच्चारण करते रहें । फिर पीछे पलट कर सीधे बिना किसी से बोले और बिना पीछे मुड़कर देखे अपने घर वापस आ जाएँ । घर पर पहले से द्वार के बाहर पानी रखे रहें । उसी पानी से हाथ-पैर धोकर कुछ जल अपने ऊपर छिड़क कर, तब अन्दर जाएँ । एक बात का अवश्य ध्यान रखें कि आते-जाते समय आपके घर का कोई सदस्य आपके सामने न पड़े और चौराहे से लौटते समय यदि आपको कोई बुलाए या कोई आवाज सुनाई दे, तब भी मुड़कर न देखें । १७॰ यदि आपके लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी आपके सामान की बिक्री निरन्तर घटती जा रही हो, तो बिक्री में वृद्धि हेतु किसी भी मास के शुक्ल पक्ष के गुरुवार के दिन से निम्नलिखित क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए - व्यापार स्थल अथवा दुकान के मुख्य द्वार के एक कोने को गंगाजल से धोकर स्वच्छ कर लें । इसके उपरान्त हल्दी से स्वस्तिक बनाकर उस पर चने की दाल और गुड़ थोड़ी मात्रा में रख दें । इसके बाद आप उस स्वस्तिक को बार-बार नहीं देखें । इस प्रकार प्रत्येक गुरुवार को यह क्रिया सम्पन्न करने से बिक्री में अवश्य ही वृद्धि होती है । इस प्रक्रिया को

श्री हनुमान अष्टादशाक्षर मन्त्र-प्रयोग मन्त्रः- “ॐ नमो हनुमते आवेशय आवेशय स्वाहा ।” विधिः- सबसे पहले हनुमान जी की एक मूर्त्ति रक्त-चन्दन से बनवाए । किसी शुभ मुहूर्त्त में उस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे रक्त-वस्त्रों से सु-शोभित करे । फिर रात्रि में स्वयं रक्त-वस्त्र धारण कर, रक्त आसन पर पूर्व की तरफ मुँह करके बैठे । हनुमान जी उक्त मूर्त्ति का पञ्चोपचार से पूजन करे । किसी नवीन पात्र में गुड़ के चूरे का नैवेद्य लगाए और नैवेद्य को मूर्ति के सम्मुख रखा रहने दे । घृत का ‘दीपक’ जलाकर, रुद्राक्ष की माला से उक्त ‘मन्त्र’ का नित्य ११०० जप करे और जप के बाद स्वयं भोजन कर, ‘जप’-स्थान पर रक्त-वस्त्र के बिछावन पर सो जाए । अगली रात्रि में जब पुनः पूजन कर नैवेद्य लगाए, तब पहले दिन के नैवेद्य को दूसरे पात्र में रख लें । इस प्रकार ११ दिन करे । १२वें दिन एकत्र हुआ ‘नैवेद्य’ किसी दुर्बल ब्राह्मण को दे दें अथवा पृथ्वी में गाड़ दे । ऐसा करने से हनुमान जी रात्रि में स्वप्न में दर्शन देकर सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सेते हैं । ‘प्रयोग’ को गुप्त-भाव से करना चाहिए ।...........................................

भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव शास्त्रों में भैरव के विभिन्न रुपों का उल्लेख मिलता है । तन्त्र में अष्ट भैरव तथा उनकी आठ शक्तियों का उल्लेख मिलता है । श्रीशंकराचार्य ने भी “प्रपञ्च-सार तन्त्र” में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं । सप्तविंशति रहस्य में सात भैरवों के नाम हैं । इसी ग्रन्थ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है । इसी में तीन वटुक-भैरवों का उल्लेख है । रुद्रायमल तन्त्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है । आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है । इनमें “बटुक-भैरव” सबसे सौम्य रुप है । “महा-काल-भैरव” मृत्यु के देवता हैं । “स्वर्णाकर्षण-भैरव” को धन-धान्य और सम्पत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तगो “बाल-भैरव” की आराधना बालक के रुप में की जाती है । सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही हरते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की । इनके अतिरिक्त तन्त्र साधना में भैरव के ये आठ रुप भी अधिक लोकप्रिय हैं - १॰ असितांग भैरव, २॰ रु-रु भैरव, ३॰ चण्ड भैरव, ४॰ क्रोधोन्मत्त भैरव, ५॰ भयंकर भैरव, ६॰ कपाली भैरव, ७॰ भीषण भैरव तथा संहार भैरव । भैरव की उत्पत्ति रुद्र के भैरवावतार की विवेचनाट शिव-पुराण में इस प्रकार है ” एक बार समस्त ऋषिगणों में परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई । वे परम-ब्रह्म को जानकर उसकी तपस्या करना चाहते थे । यह जिज्ञासा लेकर वे समस्त ऋषिगण देवलोक पहुँचे । वहाँ उन्होंने ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि हम सभी ऋषिगण उस परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से आपके पास आए हैं ।कृपा करके हमें बताइये कि वह कौन है, जिसकी तपस्या कर सकें ? इस पर ब्रह्मा जी ने स्वयं को ही इंगित करते हुए कहा, ” मैं ही वह परम-तत्त्व हूँ ।” ऋषिगण उनके इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए । तब यही प्रश्न लेकर वे क्षीर-सागर में भगवान् विष्णु के पास गए, परन्तु उन्होंने भी कहा वे ही परम-तत्त्व हैं, अतः उनकी आराधना करना श्रेष्ठ है, किन्तु उनके भी उत्तर से ऋषि-समूह सन्तुष्ट नहीं हो सका । अन्त में उन्होंने वेदों के पास जाने का निश्चय किया । वेदों के समक्ष जाकर उन्होंने यही जिज्ञासा प्रकट की कि हमें परम-तत्त्व के बारे में ज्ञान दीजिये । इस पर वेदों ने उत्तर दिया कि, “शिव ही परम-तत्त्व है । वे ही सर्वश्रेष्ठ और पूजन के योग्य हैं ।” यह उत्तर सुनकर ब्रह्मा और विष्णु ने वेदों की बात को अस्वीकार कर दिया । उसी समय वहाँ एक तेज-पुँज प्रकट हुआ और उसने धीरे-धीरे एक पुरुषाकृति को धारण कर लिया । यह देख ब्रह्मा का पँचम सिर क्रोधोन्मत्त हो उठा और उस आकृति से बोला, “पूर्वकाल में मेरे भाल से ही तुम उत्पन्न हुए हो, मैंने ही तुम्हारा नाम ‘रुद्र’ रखा था । तुम मेरे पुत्र हो, मेरी शरण में आओ ।” ब्रह्मा की इस गर्वोक्ति से वह तेज-पुँज रुपी शिव जी कुपित हो गए और उन्होंने एक अत्यन्त भीषण पुरुष को उत्पन्न कर उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “आप काल-राज हैं, क्योंकि काल की भाँति शोभित हैं । आप भैरव हैं, क्योंकि आप अत्यन्त भीषण हैं । आप काल-भैरव हैं, क्योंकि काल भी आपसे भयभीत होगा । आप आमर्दक हैं, क्योंकि आप दुष्टात्माओं का नाश करेंगे ।” शिव से वरदान प्राप्त करके श्रीभैरव ने अपने नखाग्र से ब्रह्मा के अपराधकर्त्ता पँचम सिर का विच्छेद कर दिया । लोक मर्यादा रक्षक शिवजी ने ब्रह्म-हत्या मुक्ति के लिए भैरव को कापालिक व्रत धारण करवाया और काशी में निवास करने की आज्ञा दे दी । श्रीबटुक के पटल में भगवान् शंकर ने कहा कि “हे पार्वति ! मैंने प्राणियों को सभी प्रकार के सुख देने वाले बटुकभैरव का रुप धारण किया है । अन्य देवता तो देर से कृपा करते हैं, किन्तु भैरव शीघ्र ही अपने साधकों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । उदाहरण के तौर पर भैरव का वाहन कुत्ता अपनी स्वामी-भक्ति के लिए प्रसिद्ध है । शारदा तिलक आदि तन्त्र ग्रन्थों में श्री बटुक भैरव के सात्त्विक, राजस, तामस तीनों ध्यान भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है । रुप उपासना भेद से उनका फल भी भिन्न हैं । सात्त्विक ध्यान अपमृत्यु-नाशक, आयु-आरोग्य-प्रद तथा मोक्ष-प्रद है । धर्म, अर्थ, काम के लिए राजस ध्यान है । कृत्या, भूतादि तथा शत्रु-शमन के लिए तामस ध्यान किया जाता है । तान्त्रिक पूजन में आनन्द भैरव और भैरवी का पूजन आवश्यक होता है । इनका ध्यान आदि पूजा पद्धतियों में वर्णित किया गया है । तन्त्र साधना में “मजूंघोष” की साधना का वर्णन है । ये भैरव के ही स्वरुप माने गए हैं । इनकी उपासना से स्मृति की वृद्धि और जड़ता का नाश होता है । भैरव पूजा में रखी जाने वाली सावधानियाँ १॰ भैरव साधना से नमोकामना पूर्ण होती है, अपनी मनोकामना संकल्प में बोलनी चाहिये । २॰ भैरव को नैवेद्य में मदिरा चढ़ानी चाहिए, यह सम्भव नहीं हो, तो मदिरा के स्थान पर दही-गुड़ मिलाकर अर्पित करें । ३॰ भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें । ४॰ भैरव मन्त्र का जप रुद्राक्ष माला से किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त काले हकीक की माला भी उपयुक्त है । ५॰ भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिये । ६॰ भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण कर लेना चाहिये । ७॰ भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार निर्धारित है । रविवार को खीर, सोमवार को लड्डू, मंगलवार को घी और गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को उड़द के पकौड़े अथवा जलेबी तथा तले हुए पापड़ आदि का भोग लगाया जाता है ।..................................

श्री तारा महाविद्या प्रयोग बड़े से बड़े दुखों का होगा नाश सृष्टि के सर्वोच्च ज्ञान की होगी प्राप्ति भोग और मोक्ष होंगे मुट्ठी में जीवन के हर क्षत्र में मिलेगी अपार सफलता दैहिक दैविक भौतिक तापों से तारेगी "सिद्धविद्या महातारा" सृष्टि की उत्तपत्ति से पहले घोर अन्धकार था, तब न तो कोई तत्व था न ही कोई शक्ति थी, केवल एक अन्धकार का साम्राज्य था, इस परलायाकाल के अन्धकार की देवी थी काली, उसी महाअधकार से एक प्रकाश का बिन्दु प्रकट हुआ जिसे तारा कहा गया, यही तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरुष की शक्ति है, ब्रहमांड में जितने धधकते पिंड हैं सभी की स्वामिनी उत्तपत्तिकर्त्री तारा ही हैं, जो सूर्य में प्रखर प्रकाश है उसे नीलग्रीव कहा जाता है, यही नील ग्रीवा माँ तारा हैं, सृष्टि उत्तपत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई, दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है, देवी के तीन प्रमुख रूप हैं १)उग्रतारा २)एकाजटा और ३)नील सरस्वती..........देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं १)परा २)परात्परा ३)अतीता ४)चित्परा ५)तत्परा ६)तदतीता ७)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है, देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये है देवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवान सृष्टि की उतपाती एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है स्तुति प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा, खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं, देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता देवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है महाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है- श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे 1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है 2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है 3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है। 4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है। देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्र महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"1" विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम: १)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट २)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट ३)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें यन्त्र के पूजन की रीति है- पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए- तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी, तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा, तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी, उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा, देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र 1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र ॐ त्रीम ह्रीं हुं नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 2) शत्रु नाशक मंत्र ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें गुड से हवन करें रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 3) जादू टोना नाशक मंत्र ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं कपूर से देवी की आरती करें रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें 4) लम्बी आयु का मंत्र ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट रोज सुबह पौधों को पानी दें रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 5) सुरक्षा कवच का मंत्र ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध- बिना "अक्षोभ ऋषि" की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारें देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें विशेष गुरु दीक्षा- तारा महाविद्या की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं महातारा दीक्षा नीलतारा दीक्षा उग्र तारा दीक्षा एकजटा दीक्षा ब्रह्माण्ड दीक्षा सिद्धाश्रम प्राप्ति दीक्षा हिमालय गमन दीक्षा महानीला दीक्षा कोष दीक्षा अपरा दीक्षा.................आदि में से कोई एक

गायत्री महाशक्ति का उपयोग दक्षिणमार्गी भी है और वाममार्गी भी । दक्षिण मार्ग, अर्थात् सीधा रास्ता शुभ लक्ष्य तक ले जाने वाला रास्ता । वाम मार्ग माने कठिन रास्ता-भयानक लक्ष्य तक ले पहुँचने वाला रास्ता ।

महावीर मंत्र ध्यान रामेष्टमित्रं जगदेकवीरं प्लवंगराजेन्द्रकृत प्रणामम् । सुमेरु श्टंगागमचिन्तयामाद्यं हृदि स्मेरहं हनुमंतमीड्यम् ।। हनुमान जी का उक्त ध्यान करके निम्न मंत्र का २२ हजार जप करके केले और आम के फलों से हवन करें । हवन करके २२ ब्रह्मचारियों को भोजन करा दें । इससे भगवान् महावीर प्रसन्नता-पूर्वक सिद्धि देते हैं । ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” हनुमन्मन्त्र (उदररोग नाशक मंत्र) “ॐ यो यो हनुमंत फलफलित धग्धगित आयुराषः परुडाह ।” उक्त मन्त्र को प्रतिदिन ११ बार पढ़ने से सब तरह के पेट के रोग शांत हो जाते हैं । हनुमान्माला मन्त्र श्री हनुमान जी के सम्मुख इस मंत्र के ५१ पाठ करें और भोजपत्र पर इस मंत्र को लिखकर पास में रखलें तो सर्व कार्यों में सिद्धि मिलती है । “ॐ वज्र-काय वज्र-तुण्ड कपिल-पिंगल ऊर्ध्व-केश महावीर सु-रक्त-मुख तडिज्जिह्व महा-रौद्र दंष्ट्रोत्कट कह-कह करालिने महा-दृढ़-प्रहारिन लंकेश्वर-वधाय महा-सेतु-बंध-महा-शैल-प्रवाह-गगने-चर एह्येहिं भगवन्महा-बल-पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घ-पुच्छेन वेष्टय वैरिणं भंजय भंजय हुँ फट् ।।” (१२५ अक्षर)

हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र १- “ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि सर्वभूतानां डाकिनी शाकिनीनां सर्वविषयान आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय छेदय छेदय अपमृत्यु प्रभूतमृत्यु शोषय शोषय ज्वल प्रज्वल भूतमंडलपिशाचमंडल निरसनाय भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर माहेशऽवरज्वर छिंधि छिंधि भिन्दि भिन्दि अक्षि शूल कक्षि शूल शिरोभ्यंतर शूल गुल्म शूल पित्त शूल ब्रह्मराक्षस शूल प्रबल नागकुलविषंनिर्विषं कुरु कुरु स्वाहा ।” २- ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” इस मंत्र को २१ दिनों तक बारह हजार जप प्रतिदिन करें फिर दही, दूध और घी मिलाते हुए धान का दशांश आहुति दें । यह मंत्र सिद्ध होकर पूर्ण सफलता देता है । ३- “ॐ दक्षिणमुखाय पञ्चमुखहनुमते कराल वदनाय नरसिंहाय, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रै ह्रौं ह्रः सकल भूत-प्रेतदमनाय स्वाहा ।” (जप संख्या दस हजार, हवन अष्टगंध से) ४- “ॐ हरिमर्कट वामकरे परिमुञ्चति मुञ्चति श्रृंखलिकाम् ।” इस मन्त्र को दाँये हाथ पर बाँये हाथ से लिखकर मिटा दे और १०८ बार इसका जप करें प्रतिदिन २१ दिन तक । लाभ – बन्धन-मुक्ति । ५- “ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्धगिति आयुराष परुडाह ।” प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखकर इस मंत्र का २५ माला जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है । इस मंत्र के द्वारा पीलिया रोग को झाड़ा जा सकता है । ६- “ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ।” यह ११ अक्षरों वाला मंत्र अति फलदायी है, इसे ११ हजार की संख्या में प्रतिदिन जपना चाहिए ।

धन प्राप्ति का शाबर मंत्र नित्य प्रात: काल दन्त धावन करने के बाद इस मंत्र का 108 बार पाठ करने से व्यापार या किसी अनुकूल तरीके से धन प्राप्ति होती है। मंत्र- ओम ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मामगृहे धन पूरय चिन्ताम्तूरय स्वाहा। चिपकाने हेतु मंत्र नीचे प्रदर्शित चार यंत्रों में से किसी भी एक मंत्र को कागज अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध अथवा केसर के घोल से लिखकर प्राण-प्रतिष्ठा और पूजा करने के बाद रूपए-पैसे रखने की तिजोरी अथवा जेवरों के डिब्बे में रखें। लक्ष्मी की कृपा आप पर बनी रहेगी। व्यापारी और उद्योगपति दीवाली पूजन के बाद दुकान या कार्यालय की दीवार पर सिन्दूर से और बही खातों के प्रथम पृष्ठ पर स्याही से कोई भी एक यंत्र बनाएं और फिर देखें इसका प्रताप। धन सम्पत्तिवर्द्धक यंत्र रवि पुष्य अथवा गुरू पुष्य के दिन भोजपत्र पर केसर की स्याही और अनार की कलम से निम्नांकित यंत्र लिखकर स्वर्ण के तावीज में रखें और गंगाजल आदि से पवित्र करके दाहिनी बाजू पर बांध लें। इसके प्रभाव से शारीरिक तथा आर्थिक क्षीणता समाप्त होकर, धन और स्वास्थ्य दोनों की वृद्धि होती है। इस तावीज को गले में धारण किया जा सकता है। धन सम्पदा प्रदायक दूसरा तावीज इस तांत्रिक यंत्र को अनार की कलम द्वारा अष्टगंध स्याही से भोजपत्र पर लिखें और चंदन, पुष्प, धूप-दीप से इसकी पूजा करें। पूजनोपरांत एक हजार बार मंत्र का जप करें। हवन-सामग्री में घी, चीनी, शहद, खीर और बेलपत्र आवश्यक हैं। यह प्रक्रिया किसी शुभ मुहूत्तü की शुक्ल द्वितीय को की जानी चाहिए। हवन आदि करने से यंत्र की शक्ति बढती है। तत्पश्चात् यंत्र को स्वर्ण या चांदी के तावीज में भरकर, लाल या काले धागे की सहायता से दाहिने बाजू या गले में धारण करें। इस तावीज का प्रभाव अचूक और चिरस्थायी होता है। धन प्रदायक लक्ष्मी बीसा तावीज उपर्युक्त यंत्र तावीज को रवि पुष्य नक्षत्र में अनार की कलम के द्वारा भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखें। पीला वस्त्र, पीला आसान एवं पीली माला का प्रयोग करें। पूरब की ओर मुंह रखें। धूप, दीप, फल-फूल और नैवेद्य से यंत्र की नित्य पूजा करें और निम्न मंत्र की एक माला जप करें। ओम श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्मै नम:। यह क्रम सवा दो महीने तक चालू रखें। फिर तिरसठवें दिन चांदी के एक पत्र पर यंत्र को बनाकर, उन बासठ यंत्रों को चांदी के पत्र वाले यंत्र के नीचे रखकर पूजा करें। अब बासठ यंत्रों में से एक यंत्र अपने पास रखें बाकी यंत्रों को आटे की गोलियों में रखकर नदी में बहा दें। जिस यंत्र को पास में रखा था, उसे सोने या चांदी के तावीज में डालकर गले में डालें या फिर बाजू मे

प्रकोप करने का मंत्र काल आए कराल आए अगिया मसान आए । मेरी पुकार पर भूत प्रेत जिन्न बेताल आए । काल जाये कराल जाये अगिया मसान जाये । भूत जाये प्रेत जाये जिन्न रहे जाए । जिन्न तू जिन्नात तू । कर मेरा एक कम तू । जा के अमुक के पास दिखा अपनी शक्ति का कमाल तू । हर ले उसकी ताकत बुद्धि पहाड़ बिस्तर तलेईया ताल। तुझे तेरे मालिक की कसम जो तू एसा ना करे तो दोजक की आग मे जले । २१ दिन रात ११ बजे समसान मे २१ रूद्राझ की माला जपनी है. भोग मीठा या तामसीक केसा भी ले सकते है.........................

हनुमान चालीसा का चमत्कार... मेरे पास कई लोग आते हें और कहते हें की में दिन में ७ हनुमान चालीसा का पाठ करता हू, कई लोग कहते हें में हर शनिवार और मंगलवार को २७ या १०८ बार हनुमान चालीसा करता हू परन्तु उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता.? तो मेने उनसे पूछा की आप किस प्रकार हनुमान चालीसा करते हें.? तो उन्होंने बताया की बस हम सिर्फ हनुमानजी के आगे दिया और धुप जला कर बैठ जाते हें और ज्यादा से ज्यादा आक के फूलो की माला चढाते हें और बाद में निश्चित संख्या में हनुमान चालीसा करते हें... फिर मेने उन लोगो से कहा आपने शायद रामायण या सुन्दरकाण्ड में पढ़ा होगा की हनुमानजी बचपन में बहुत शरारत करते थे तो ऋषि मुनियो ने उन्हें श्राप दिया था की जब तक आपको आपकी शक्तिओ को कोई (जागृत ) याद नहीं करवाएगा तब तक आप अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाएंगे – यही वजह से जब समुद्र को लांग कर श्री राम जी की मुद्रिका ले कर माँ सीता के पास जाना था तब ... कोन जायेगा ये सवाल था! तब श्री जामवंत जी ( रींछ पति ) ने श्री हनुमानजी की स्तुति कर उन्हें अपनी शक्तिया राम काज के लिए याद करवाई थी – ठीक उसी प्रकार हमें हमारे काज के लिए श्री हनुमाजी को स्तुति कर प्रसन्न कर उनकी शक्तिया याद करवानी चाहिए.! तब जाके वो आपकी पूजा अवश्य स्वीकार करेंगे. तो आपको भी हनुमान चालीसा करने से या हनुमानजी का कोई भी पूजन करने से पहले निन्म मंत्र स्तुति में दे रहा हू वो आपको कम से कम २७ बार अवश्य करना हें – देखे फिर चमत्कारिक फल की प्राप्ति अवश्य होगी... ( ध्यान रहे गलत कर्मो के लिए हनुमानजी किसी को सहाय नहीं करते) हरी ओम तत्सत ... स्तुति मन्त्र : कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, काचुप साधी रहेहु बलवाना! पवन तनय बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिज्ञान निधाना!! कवन सो काज कठिन जग माहि, जो नहीं होय तात तुम पाहि! साझा करें...!

मारुतिस्तोत्रम् श्रीगणेशाय नम: ॥ ॐ नमो भगवते विचित्रवीरहनुमते प्रलयकालानलप्रभाप्रज्वलनाय । प्रतापवज्रदेहाय । अंजनीगर्भसंभूताय । प्रकटविक्रमवीरदैत्यदानवयक्षरक्षोगणग्रहबंधनाय । भूतग्रहबंधनाय । प्रेतग्रहबंधनाय । पिशाचग्रहबंधनाय । शाकिनीडाकिनीग्रहबंधनाय । काकिनीकामिनीग्रहबंधनाय । ब्रह्मग्रहबंधनाय । ब्रह्मराक्षसग्रहबंधनाय । चोरग्रहबंधनाय । मारीग्रहबंधनाय । एहि एहि । आगच्छ आगच्छ । आवेशय आवेशय । मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय । स्फुर स्फुर । प्रस्फुर प्रस्फुर । सत्यं कथय । व्याघ्रमुखबंधन सर्पमुखबंधन राजमुखबंधन नारीमुखबंधन सभामुखबंधन शत्रुमुखबंधन सर्वमुखबंधन लंकाप्रासादभंजन । अमुकं मे वशमानय । क्लीं क्लीं क्लीं ह्रुीं श्रीं श्रीं राजानं वशमानय । श्रीं हृीं क्लीं स्त्रिय आकर्षय आकर्षय शत्रुन्मर्दय मर्दय मारय मारय चूर्णय चूर्णय खे खे श्रीरामचंद्राज्ञया मम कार्यसिद्धिं कुरु कुरु ॐ हृां हृीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् स्वाहा विचित्रवीर हनुमत् मम सर्वशत्रून् भस्मीकुरु कुरु । हन हन हुं फट् स्वाहा ॥ एकादशशतवारं जपित्वा सर्वशत्रून् वशमानयति नान्यथा इति ॥ इति श्रीमारुतिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

हिडिम्बा साधना तंत्र बाधा निवारण के लिए.... १.यह साधना होली की रात्रि को सम्पन्न करें यह एक दिवसीय प्रयोग है २.साधक रात्रि मे स्नान करके शुद्ध लील रंग के वस्त्र धारण करें और लाल रंग के आसन पर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बाठ जाये .. ३,अब अपने सामने बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछायें..उस पर गुरू चित्र को स्थापित करें और साथ में घी की एक दीपक को भी स्थापित करें.. ४.अब गुरू और गणेश जी का पूजन करें ..फिर दीपक को मॉं का स्वरूप मानकर दीपक का पूजन करें..धुप, पुष्प, अक्षत कुंकुम व नैवेद्य आदि से करें. ५.अब गुरू मंत्र की एक माला जप करें..फ्र निम्न मंत्र की "काली हकीक माला" से ११ माला जप करें... मंत्र ॐ श्रीं ह्लीं क्रीं तंत्र निवारण हिडिम्बयै नमः जप समाप्ति के बाद माला को जलती हुई होली में विसर्जित कर दें.. साधना के बाद साधक प्रतिदिन ५ मिनट तक मंत्र का जप कुछ दिनों तक करें....इस तरह से यह साधना पूर्ण होती है... और साधक पर किया हुआ तंत्र प्रयोग दूर हो जाता है.. और भविष्य में भी तंत्र बाधा से रक्षा होती है.. यह शीघ्र फल दाई साधना है अच्छी साधना है अगर आप करना चाहें तो अपने गुरु जी के मार्गदर्शन करें

शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र “शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है. _____________________________ प्रज्ञानं कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य- 1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म 2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं। (1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है) इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। (2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है। (3) ॐ तत्त्वमसि इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है। (4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है। अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।

श्री लिंग पुराण के अनुसार प्रथम सृष्टि का वर्णन सूतजी ने कहा – अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है. इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है. इसलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है. प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं. वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है परंतु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं. उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द आदि लक्षण हैं. जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है. यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से (10 इंद्रियां, एक मन) उत्पन्न होता है. यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं. सर्व प्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं. उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं. अत: उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिए. यथार्थ में कहा जाए तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं. क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं. किंतु शिवजी ही इसके असली बीज हैं. बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं. स्वभाव से ही परमात्मा हैं, वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है. पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है. शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है. वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है. वह पहले से तो अव्यक्त है. अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है. विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है. उसी माया को अजा कहते हैं. उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमश: रज, सत्, तथा तमोगुण की बहुत सी रचनाएं हैं. संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं. यह अजा (माया) शिव के आधीन है. सर्ग (सर्जन) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत् तत्व की सृष्टि होती है. उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है. अहंकार से तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) उत्पन्न हुई. इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा तथा स्पर्श से वात्य, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज (अग्नि), अग्नि से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है. पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात् जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है. तन्मात्रा से ही पंचभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिए. सात्विक अहंकार से पांच ज्ञानेंद्री, पांच कर्मेंद्री तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई. महत् से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया. उसमें जल के बबूले के समान पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई. वह भी भगवान रुद्र हैं तथा रुद्र ही भगवान विष्णु हैं. उसे अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है. यह अण्ड दशगुने जल से घिरा हुआ है, जल दशगुने वायु से, वायु दशगुने आकाश से घिरा हुआ है. आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है. आकाश महत् तत्व से तथा महत् तत्व प्रधान से व्याप्त है. अण्ड के सात आवरण बताए गए हैं. इसकी आत्मा कमलासन ब्रह्मा है. कोटि कोटि संख्या से युक्त कोटि कोटि ब्रह्मांड और उसमें चतुर्मुख ब्रह्मा, हरि तथा रुद्र अलग-अलग बताए गए हैं. प्रधान तत्व माया से रचे गए हैं. यह सभी शिव की सन्निधि में प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें आदि और अंत वाला कहा गया है. रचना, पालन और नाश के कर्ता महेश्वर शिवजी ही हैं. सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं. अत: क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं. वे ही प्रथम प्राणियों के कर्ता हैं, फिर पालन करने वाले भी वही हैं और पुन: संहार करने वाले भी वही हैं इसलिए महेश्वर देव ही ब्रह्मा के भी स्वामी हैं. वही शिव विष्णु रूप हैं, वही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा के बनाए इस ब्रह्मांड में जितने लोक हैं, ये सब परम पुरुष से अधिष्ठित हैं तथा ये सभी प्रकृति (माया) से रचे गए हैं. अत: यह प्रथम कही गई रचना परमात्मा शिव की अबुद्धि पूर्वक रचना शुभ है.

कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से….. देवाधिदेव भगवान भोलेनाथ की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है…रुद्राक्ष शब्द की विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है- रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:… शिव महापुराण की विद्येश्वरसंहिता तथा श्रीमद्देवीभागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं… उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे…और उनके उन्हीं अश्रुबिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए… रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है… रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं… चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं…ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए… भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहनना चाहिए… विशेषकर शैव मताबलाम्बियो के लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है…. जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टों का नाश करने में समर्थ होता है… जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है… गुंजाफल के समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है… रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है… विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं… सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं… जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा- फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है… जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है… जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है… रुद्राक्ष, तुलसी आदि दिव्य औषधियों की माला धारण करने के पीछे वैज्ञानिक मान्यता यह है कि होंठ व जीभ का प्रयोग कर उपांशु जप करने से साधक की कंठ-धमनियों को सामान्य से अधिक कार्य करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप कंठमाला, गलगंड आदि रोगों के होने की आशंका होती है। उसके बचाव के लिए गले में उपरोक्त माला पहनी जाती है। रुद्राक्ष अपने विभिन्न गुणों के कारण व्यक्ति को दिया गया ‘प्रकृति का अमूल्य उपहार है’ मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से निकले जलबिंदुओं से हुई है. अनेक धर्म ग्रंथों में रुद्राक्ष के महत्व को प्रकट किया गया है जिसके फलस्वरूप रुद्राक्ष का महत्व जग प्रकाशित है. रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसे धारण करके की गई पूजा हरिद्वार, काशी, गंगा जैसे तीर्थस्थलों के समान फल प्रदान करती है. रुद्राक्ष की माला द्वारा मंत्र उच्चारण करने से फल प्राप्ति की संभावना कई गुना बढ़ जाती है.इसे धारण करने से व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है. रुद्राक्ष की माला अष्टोत्तर शत अर्थात 108 रुद्राक्षों की या 52 रुद्राक्षों की होनी चाहिए अथवा सत्ताईस दाने की तो अवश्य हो इस संख्या में इन रुद्राक्ष मनकों को पहना विशेष फलदायी माना गया है. शिव भगवान का पूजन एवं मंत्र जाप रुद्राक्ष की माला से करना बहुत प्रभावी माना गया है तथा साथ ही साथ अलग-अलग रुद्राक्ष के दानों की माला से जाप या पूजन करने से विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति होती है.धारक को शिवलोक की प्राप्ति होती है, पुण्य मिलता है, ऐसी पद्मपुराण, शिव महापुराण आदि शास्त्रों में मान्यता है। शिवपुराण में कहा गया है : यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:। न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है। श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है : रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ कोई दूसरी वस्तु नहीं है। रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष… रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष धारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्… रुद्राक्ष-धारण करने से पहले उसके असली होने की जांच अवद्गय करवा लें। असली रुद्राक्ष ही धारण करें। खंडित, कांटों से रहित या कीड़े लगे हुए रुद्राक्ष धारण नहीं करें। जपादि कार्यों में छोटे और धारण करने में बड़े रुद्राक्षों का ही उपयोग करें। —————————————— कितनी हो माला में रुद्राक्ष की संख्या माला में रुद्राक्ष के मनकों की संख्या उसके महत्व का परिचय देती है. भिन्न-भिन्न संख्या मे पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने में सहायक होती है जो इस प्रकार है —–रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. ——रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है. इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है ——रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है. —— रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आय में वृद्धि होती है. —— रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए —– रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है. —– रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है. —– रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए. —— रुद्राक्ष के बारह दानों को मणिबंध में धारण करना शुभदायक होता है. —— रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. ——————————————————————- किस कार्य हेतु केसी माला धारण करें..??? तनाव से मुक्ति हेतु 100 दानों की, अच्छी सेहत एवं आरोग्य के लिए 140 दानों की, अर्थ प्राप्ति के लिए 62 दानों की तथा सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु 108 दानों की माला धारण करें। जप आदि कार्यों में 108 दानों की माला ही उपयोगी मानी गई है। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए 50 दानों की माला धारण करें। 26 दानों की माला मस्तक पर, 50 दानों की माला हृदय पर, 16 दानों की माला भुजा पर तथा 12 दानों की माला मणिबंध पर धारण करनी चाहिए। —————————————————- क्या महत्त्व हें रुद्राक्ष की माला का. रुद्राक्ष की माला को धारण करने पर इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है कि कितने रुद्राक्ष की माला धारण कि जाए. क्योंकि रुद्राक्ष माला में रुद्राक्षों की संख्या उसके प्रभाव को परिलक्षित करती है. रुद्राक्ष धारण करने से पापों का शमन होता है. आंवले के सामान वाले रुद्राक्ष को उत्तम माना गया है. सफेद रंग का रुद्राक्ष ब्राह्मण को, रक्त के रंग का रुद्राक्ष क्षत्रिय को, पीत वर्ण का वैश्य को और कृष्ण रंग का रुद्राक्ष शुद्र को धारण करना चाहिए. क्या नियम पालन करें जब करें रुद्राक्ष माला धारण..??? क्या सावधानियां रखनी चाहिए रुद्राक्ष माला पहनते समय..??? जिस रुद्राक्ष माला से जप करते हों, उसे धारण नहीं करें। इसी प्रकार जो माला धारण करें, उससे जप न करें। दूसरों के द्वारा उपयोग में लाए गए रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला को प्रयोग में न लाएं। रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त में ही धारण करना चाहिए – ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि वा। दर्द्गोषु पूर्णमसे च पूर्णेषु दिवसेषु च। रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैर्विमुच्यते॥ ग्रहण में, विषुव संक्रांति (मेषार्क तथा तुलार्क) के दिनों, कर्क और मकर संक्रांतियों के दिन, अमावस्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। मद्यं मांस च लसुनं पलाण्डुं द्गिाग्रमेव च। श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥ (रुद्राक्षजाबाल-17) रुद्राक्ष धारण करने वाले को यथासंभव मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, निसोडा और विड्वराह (ग्राम्यशूकर) का परित्याग करना चाहिए। सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के मनुष्य वर्ण, भेदादि के अनुसार विभिन्न प्रकर के रुद्राक्ष धारण करें। रुद्राक्ष को द्गिावलिंग अथवा द्गिाव- मूर्ति के चरणों से स्पर्द्गा कराकर धारण करें। रुद्राक्ष हमेद्गाा नाभि के ऊपर शरीर के विभिन्न अंगों (यथा कंठ, गले, मस्तक, बांह, भुजा) में धारण करें, यद्यपि शास्त्रों में विशेष परिस्थिति में विद्गोष सिद्धि हेतु कमर में भी रुद्राक्ष धारण करने का विधान है। रुद्राक्ष अंगूठी में कदापि धारण नहीं करें, अन्यथा भोजन-द्गाचादि क्रिया में इसकी पवित्रता खंडित हो जाएगी। रुद्राक्ष पहन कर किसी अंत्येष्टि-कर्म में अथवा प्रसूति-गृह में न जाएं। स्त्रियां मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण न करें। रुद्राक्ष धारण कर रात्रि शयन न करें। रुद्राक्ष में अंतर्गर्भित विद्युत तरंगें होती हैं जो शरीर में विद्गोष सकारात्मक और प्राणवान ऊर्जा का संचार करने में सक्षम होती हैं। इसी कारण रुद्राक्ष को प्रकृति की दिव्य औषधि कहा गया है। अतः रुद्राक्ष का वांछित लाभ लेने हेतु समय-समय पर इसकी साफ-सफाई का विद्गोष खयाल रखें। शुष्क होने पर इसे तेल में कुछ समय तक डुबाकर रखें। रुद्राक्ष स्वर्ण या रजत धातु में धारण करें। इन धातुओं के अभाव में इसे ऊनी या रेशमी धागे में भी धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को लहसुन, प्याज तथा नशीले भोज्य पदार्थों तथा मांसाहार का त्याग करना चाहिए. सक्रांति, अमावस, पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन रुद्राक्ष धारण करना शुभ माना जाता है. सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष को पहन सकते हैं. रुद्राक्ष का उपयोग करने से व्यक्ति भगवान शिव के आशीर्वाद को पाता है. व्यक्ति को दिव्य-ज्ञान की अनुभूति होती है. व्यक्ति को अपने गले में बत्तीस रुद्राक्ष, मस्तक पर चालीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में 6,6 रुद्राक्ष, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान शिव को पाता है. किस तरह धारण करें रुद्राक्ष माला को..??? अधिकतर रुद्राक्ष यद्यपि लाल धागे में धारण किए जाते हैं, किंतु एक मुखी रुद्राक्ष सफेद धागे, सात मुखी काले धागे और ग्यारह, बारह, तेरह मुखी तथा गौरी- शंकर रुद्राक्ष पीले धागे में भी धारण करने का विधान है। विधान है। अतः यह विधान किसी योग्य पंडित से संपन्न कराकर रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। ऐसा संभव नहीं होने की स्थिति में नीचे प्रस्तुत संक्षिप्त विधि से भी रुद्राक्ष की प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने के लिए शुभ मुहूर्त या दिन का चयन कर लेना चाहिए। इस हेतु सोमवार उत्तम है। धारण के एक दिन पूर्व संबंधित रुद्राक्ष को किसी सुगंधित अथवा सरसों के तेल में डुबाकर रखें। धारण करने के दिन उसे कुछ समय के लिए गाय के कच्चे दूध में रख कर पवित्र कर लें। फिर प्रातः काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का मन ही मन जप करते हुए रुद्राक्ष को पूजास्थल पर सामने रखें। फिर उसे पंचामृत (गाय का दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर) अथवा पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर) से अभिषिक्त कर गंगाजल से पवित्र करके अष्टगंध एवं केसर मिश्रित चंदन का लेप लगाकर धूप, दीप और पुष्प अर्पित कर विभिन्न शिव मंत्रों का जप करते हुए उसका संस्कार करें। तत्पश्चात संबद्ध रुद्राक्ष के शिव पुराण अथवा पद्म पुराण वर्णित या शास्त्रोक्त बीज मंत्र का 21, 11, 5 अथवा कम से कम 1 माला जप करें। फिर शिव पंचाक्षरी मंत्र नमः शिवाय अथवा शिव गायत्री मंत्र क्क तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् का 1 माला जप करके रुद्राक्ष-धारण करें। अंत में क्षमा प्रार्थना करें। रुद्राक्ष धारण के दिन उपवास करें अथवा सात्विक अल्पाहार लें। विद्गोष : उक्त क्रिया संभव नहीं हो, तो शुभ मुहूर्त या दिन में (विशेषकर सोमवार को) संबंधित रुद्राक्ष को कच्चे दूध, पंचगव्य, पंचामृत अथवा गंगाजल से पवित्र करके, अष्टगंध, केसर, चंदन, धूप, दीप, पुष्प आदि से उसकी पूजा कर शिव पंचाक्षरी अथवा शिव गायत्री मंत्र का जप करके पूर्ण श्रद्धा भाव से धारण करें। एक से चौदहमुखी रुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं- 1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:। निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है… रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए… इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है… रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्र का अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है… इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है.. रुद्राक्ष की माला श्रद्धापूर्वक विधि- विधानानुसार धारण करने से व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है। सांसारिक बाधाओं और दुखों से छुटकारा होता है। मस्तिष्क और हृदय को बल मिलता है। रक्तचाप संतुलित होता है। भूत-प्रेत की बाधा दूर होती है। मानसिक शांति मिलती है। शीत-पित्त रोग का शमन होता है। इसीलिए इतनी लाभकारी, पवित्र रुद्राक्ष की माला में भारतीय जन मानस की अनन्य श्रद्धा है। जो मनुष्य रुद्राक्ष की माला से मंत्रजाप करता है उसे दस गुणा फल प्राप्त होता है। अकाल मृत्यु का भय भी नहीं रहता है —————————————– शास्त्रों में एक से चौदह मुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है… इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है… एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है… इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है… एकदम गोल एकमुखीरुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है… एकमुखीरुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महा पाप तक भी नष्ट हो जाते हैं… समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है… भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है… दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें… इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथके साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है… इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है… दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है… तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है… इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है… विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है… चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है… नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योग का शमन होगा… कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं… पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है… कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं… सामान्यत:पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है… संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं…इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है… छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशक सिद्ध हुआ है…इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है… जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी… सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धक है… इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है… कुछ विद्वान सप्तमातृकाओं की सातमुखी रुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं… इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है… आठमुखी रुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूप होने से जीवन का रक्षक माना गया है… इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू- टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है… धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है… नौमुखी रुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है… इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है… शाक्तों (देवी के आराधकों) के लिये नौमुखी रुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है… इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है… दसमुखी रुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरि का स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है… इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है… ग्यारहमुखी रुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है… इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है… बारहमुखी रुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है… इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है… तेरहमुखी रुद्राक्ष विश्वेदेवों का स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है… कुछ साधक तेरहमुखी रुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं… चौदहमुखी रुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारक सिद्ध हुआ है… इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है… जन्म- जन्मान्तर के पापों का शमन होता है…

देवी धूमावती दस महाविद्याओं में सातवें स्थान में अवस्थित, भगवान शिव के विधवा स्वरूप में, कुरूप तथा अपवित्र देवी धूमावती। देवी धूमावती अकेली तथा स्व: नियंत्रक हें, देवी के स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हें तथा देवी विधवा हैं। दस महाविद्याओं में सातवे स्थान पर देवी अवस्थित है तथा उग्र स्वाभाव वाली अन्य देविओ के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात् उस स्थिति से हैं, जहा वो अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। देवी दरिद्रो, गरीबो के घरों में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से जानी जाती हैं। अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी कि ही बहन है, परन्तु इन के गुण तथा स्वाभाव पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त के प्रदोष काल से रात्रि में रहती है तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं या निवास करती हैं, अंधरे स्थानों में निवास करती हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वो शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामो में निऋति भी है, जिन का सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सडन, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से है जो जीवन में नकारात्मक भावनाओ को जन्म देता हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओ, सुख तथा समृद्धि का नाश कर देती है। देवी धूमावती धुऐ के स्वरूप में विद्यमान है तथा सती के भयंकर तथा उग्र स्वाभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी देवी का कोई संगी नहीं हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार, देवी आदि शक्ति ने एक बार प्रण किया, कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा वही मेरा पति होगा, मैं उसी से विवाह करुँगी। परन्तु ऐसा आज तक नहीं हो पाया, उन्हें युद्ध में कोई परास्त नहीं कर पाया, परिणामस्वरूप देवी अकेली हैं इन का कोई पति या स्वामी नहीं हैं। नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका तथा उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देविओ को अपने शरीर से प्रकट किया या उग्रता तथा भयंकरता देवी धूमावती ने ही प्रदान की। देवी की ध्वनि, हजारो गीदड़ो के एक साथ चिल्लाने जैसे हैं, जो महान भय दायक हैं। देवी ने स्वयं भगवान शिव को खा लिया था, देवी का सम्बन्ध भूख से भी हैं, देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी है परिणामस्वरूप देवी दुष्ट दैत्यों के मांस का भक्षण तक करती हैं, परन्तु सर्वदा भूखी या श्रुधा-ग्रस्त ही रहती हैं। देवी धूमावती, भगवान शिव के विधवा के रूप में विद्यमान हैं, अपने पति शिव को निगल जाने के कारन देवी विधवा हैं। देवी का भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करती हैं। इन्हें लक्ष्मी जी की ज्येष्ठ, ज्येष्ठा नाम से भी जाना जाता हैं जो स्वयं कई समस्याओं को उत्पन्न करती हैं। देवी धूमावती का भौतिक स्वरुप। देवी धूमावती का वास्तविक रूप धुऐ जैसा हैं तथा इसी स्वरूप में देवी विद्यमान हैं। शारीरिक स्वरूप से देवी; कुरूप, उबार खाबर या बेढ़ंग शरीर वाली, विचलित स्वाभाव वाली, लंबे कद वाली, तीन नेत्रों से युक्त तथा मैले वस्त्र धारण करने वाली हैं। देवी के दांत तथा नाक लम्बी कुरूप हैं, कान डरावने, लड़खड़ाते हुए हाथ-पैर, स्तन झूलते हुए प्रतीत होती हैं। देवी खुले बालो से युक्त, एक वृद्ध विधवा का रूप धारण की हुई हैं। अपने बायें हाथ में देवी ने सूप तथा दायें हाथ में मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण कर रखा हैं कही कही वो आशीर्वाद भी दे रही हैं। देवी का स्वाभाव अत्यंत अशिष्ट हैं तथा देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी-प्यासी हैं। देवी काले वर्ण की है तथा इन्होंने सर्पो, रुद्राक्षों को अपने आभूषण स्वरूप धारण कर रखा हैं। देवी श्मशान घाटो में मृत शरीर से निकले हुए स्वेत वस्त्रो को धारण करती हैं तथा श्मशान भूमि में ही निवास करती हैं, समाज से बहिष्कृत हैं। देवी कौवो द्वारा खीचते हुए रथ पर आरूढ़ हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः स्वेत वस्तुओं से ही हैं तथा लाल वर्ण से सम्बंधित वस्तुओं का पूर्णतः त्याग करती हैं। देवी धूमावती के उत्पत्ति से सम्बंधित कथा। देवी धूमावती के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो कथायें प्राप्त होती हैं। पहली प्रजापति दक्ष के यज्ञ से सम्बंधित हैं। भगवान शिव की पहली पत्नी सती के पिता, प्रजापति दक्ष ( जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे ), ने एक बृहस्पति श्रवा नाम के यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनो लोको से समस्त प्राणिओ को निमंत्रित किया। परन्तु दक्ष, भगवान शिव से घृणा करते थे तथा दक्ष ने भगवान शिव सहित उन से सम्बंधित किसी को भी, अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। देवी सती ने जब देखा की तीनो लोको से समस्त प्राणी उन के पिता जी के यज्ञ आयोजन में जा रहे है, उन्होंने अपने पति भगवान शिव ने अपने पिता के घर जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव दक्ष के व्यवहार से परिचित थे, उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की। परन्तु देवी सती नहीं मानी, अंततः भगवान शिव ने उन्हें अपने गणो के साथ जाने की अनुमति दे दी। सती अपने पिता दक्ष से उन के यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री सती को स्वामी सहित, खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी के अपमान से तिरस्कृत हो, सम्पूर्ण यजमानो के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुण्ड में दे दी तथा देवी की मृत्यु हो गई, तदनंतर यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया, सभी अत्यंत भयभीत हो गए। तब देवी सती, धुऐ के स्वरूप में यज्ञ कुण्ड से बहार निकली। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, अपने निवास स्थान कैलाश में बैठी हुई थी। देवी, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त थी (भूखी थी) तथा उन्होंने शिव जी से अपनी क्षुधा निवारण हेतु कुछ देने का निवेदन किया। भगवान शिव ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिया कहा, कुछ समय पश्चात् उन्होंने पुनः निवेदन किया। परन्तु शिव जी ने उन्हें कुछ प्रतीक्षा करने का पुनः आस्वासन दिया। बार बार भगवान शिव के इस तरह आस्वासन देने पर, देवी धैर्य खो क्रोधित हो गई तथा शिव जी को ही उठाकर निगल लिया। तदनंतर देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली तथा उन्हें धुऐ ने ढक लिया। भगवान शिव, देवी के शरीर से बहार आये तथा कहा, आपकी ये सुन्दर आकृति धुऐ से ढक जाने के कारन धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी। अपने पति भगवान शिव को खा लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हुई, देवी स्वामी हिना हैं। देवी धूमावती से सम्बंधित अन्य तथ्य। चुकी देवी ने क्रोध वश अपने ही पति को खा लिया, देवी का सम्बन्ध दुर्भाग्य, अपवित्र, बेडौल, कुरूप जैसे नकारात्मक तथ्यों से हैं। देवी श्मशान तथा अंधेरे स्थानों में निवास करने वाली है, समाज से बहिष्कृत है, (देवी से सम्बंधित चित्र घर में नहीं रखना चाहिए) अपवित्र स्थानों पर रहने वाली हैं। भगवान शिव ही धुऐ के रूप में देवी धूमावती में विद्यमान है तथा भगवान शिव से कलह करने के कारण देवी कलह प्रिया भी हैं। प्रत्येक कलहो में देवी के शक्ति ही उत्पात मचाती हैं। देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतिक स्वरूप है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी के आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं। देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध विजय, मारण, उच्चाटन इत्यादि कर्मों में की जाती हैं। देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा होते है। देवी प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग कर रहे कामनाओ का नाश कर देती हैं। आगम ग्रंथो के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं। संक्षेप में देवी धूमावती से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : धूमावती। अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया। भैरव : विधवा, कोई भैरव नहीं। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान मत्स्य अवतार। कुल : श्री कुल। दिशा : दक्षिण। स्वभाव : तामसी गुण सम्पन्न। कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुओ का विनाश करने वाली। शारीरिक वर्ण : काला।

ओम श्री कालभैरव तंत्र - सिध्दी कालभैरवाष्टकम् :---- देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥ फल श्रुति॥ कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ ॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् !!!!!!!!!!!!

साधना का क्षेत्र अत्यंत दुरुह तथा जटिल होता है. इसी लिये मार्गदर्शक के रूप में गुरु की अनिवार्यता स्वीकार की गई है. गुरु दीक्षा प्राप्त शिष्य को गुरु का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है।

मन्त्र : अफल अफल अफल दुश्मन के मुंह पर कुलफ मेरे हाँथ कुंजी रुपया तोर कर दुश्मन को जर कर और जब भी कभी अपने मुक़दमे के कारण आपको अदालत जाना हो .. आप विरोधी पक्ष की तरफ इस मन्त्र को 108 बार पढ़ कर फुक मार दे और .... उस दिन निश्चय ही आपका विरोधी पक्ष आपके विरोध में कुछ भी नहीं कर पायेगा. या कह पायेगा और यदि अपने केस से संबंधमे आपको कोई ने प्रार्थना पत्र लिख कर देना हो तो उस प्रार्थना .पत्र पर भी आप 108 बार इस मंत्र को पढ़ कर फूंक मार दे और आप पाएंगे की आप इन मुकदमो से जो आप पे केबल आपको परेशां करने केलिए आप पर लगाये गए हैं जल्द ही छुटकारा पा सकेंगे

निम्न मंत्र की २१ माला जाप करे. ॐ कालभैरव अमुक साधकानां रक्षय रक्षय भविष्यं दर्शय दर्शय हूं इसमें अमुक साधकानां की जगह स्वयं के नाम का उच्चारण करना चाहिए. भविष्य मे जब भी कोई समस्या या दुर्घटना होने वाली हो तो किसी न किसी रूप मे भगवान काल भैरव साधक को सूचना दे देते है. साधक अपने कार्यों को उस प्रकार से परावर्तित कर सकता है. यु तो भगवान भैरव साधक की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप मे मदद करते ही रहते है...

मंत्र ॐ चौकी हनुमत बीर की ,वाण ध्वजा फहराए | मारू मारू मारुत सूत, मुष्टिक शत्रु नसाय | मेरे इष्ट राम चन्द्र जी , अगुआ हनुमंत वीर | चौक सुदर्शन चक्र की , रक्षा करे शरीर | टोना ब्रह्म भूत प्रेत संग , डायन डाइ | सांप बिच्छू चोर बात ,सबकुछ निष्फल जाइ |

भगवान् आंजनेय से सम्बंधित या प्रयोग इन समस्त विपदा से आपकी रक्षा करता हैं ही मंत्र : हनुमान पहलवान , बारह वरस का जवान |मुख में वीरा हाँथ में कमान | लोहे की लाठ वज्र का कीला|जहँ बैठे हनुमान हठीला |बाल रे बाल राखो|सीस रे सीस रखो| आगे जोगिनी राखो| पाछे नरसिंह राखो | इनके पाछे मुह्मुदा वीर छल करे , कपट करे ,तिनकी कलक ,बहन बेटी पर परे | दोहाई महावीर स्वामी की | सामान्य नियम : • वस्त्र आसन दिशा का कोई प्रतिबंध तो नहीं हैं पर आप चाहे तो लाल रंग के उपयोग कर सकते हैं . • इस मंत्र से जप आप सुबह करे तो अच्छा हैं , • रुद्राक्ष माला का उपयोग आप जप कार्य के लिए कर सकते हैं . • जप संख्या केबल १०८ बार हैं ही , और इसके बाद आप जितनी आहुति हो इस मंत्र से हो सके करे .यदि गुगुल का प्रयोग करे तो उत्तम होगा . • भगवान् आंजनेय कृपा से आपके उपर से विपत्ति या दूर हो

ललाट पर तिलक का क्या महत्व है ? अक्सर मन में प्रश्न उठता है कि पूजा करते समय,या कोई धार्मिक कार्य करते समय तिलक क्यों लगाते है.कब,कैसे और किस प्रकार का चन्दन लगाना चाहिये. पूजा के समय तिलक लगाने का विशेष महत्व है और भगवान को स्नान करवाने के बाद उन्हें चन्दन का तिलक किया जाता है।पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है। भगवान को चंदन अर्पण भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता। मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्द्ेश्य से भी लगाया जाता है । चन्दन लगाने के प्रकार स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, शैव त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है, जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है। नारद पुराण में उल्लेख आया है- १.ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र, २. क्षत्रिय को त्रिपुण्ड, ३. वैश्य को अर्धचन्द्र, ४. शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये। योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है। १.ऊर्ध्वपुण्ड्र चन्दन - वैष्णव सम्प्रदायों का कलात्मक भाल तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र कहलाता है। चन्दन, गोपीचन्दन, हरिचन्दन या रोली से भृकुटि के मध्य में नासाग्र या नासामूल से ललाट पर केश पर्यन्त अंकित खड़ी दो रेखाएं ऊर्ध्वपुण्ड्र कही जाती हैं। | श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में - ऊर्ध्वपुण्ड्र राधिकाचरण चिन्ह् के रूप में धारण किया जाता है। इस सम्प्रदाय में गोस्वामी गण बिन्दु परम्परा तथा सेवक या विरक्तगण बाद परम्परा वाले माने जाते हैं। बिन्दु परम्परा वाले गोस्वामीगण लाल रोली के ऊर्ध्वपुण्ड्र के बीच में श्याम बिन्दु तथा सेवक या विरक्त त्यागी पीत या श्वेत बिन्दु धारण करते हैं। वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र के विषय में पुराणों में दो प्रकार की मान्यताएं मिलती हैं। नारद पुराण में - इसे विष्णु की गदा का द्योतक माना गया है. ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषद में - ऊर्ध्वपुण्ड्र को विष्णु के चरण पाद का प्रतीक बताकर विस्तार से इसकी व्याख्या की है। | वैष्णव साहित्य में- राम और कृष्ण को विष्णु का ही अवतार माना है। इसलिये विष्णु के चरणपादों को मध्ययुगीन वैष्णव मतावलम्बियों ने राम और कृष्ण के चरण पाद के रूप में ही ग्रहण किया है इस युग के भक्ति साहित्य के व्याख्याकार नाभादास भी इसी बात को स्वीकार करते हैं। अतः सम्पूर्ण वैष्णव भक्ति वाङ्गमय के इस सत्य को वैष्णव समाज विष्णु के युगल चरण तल की विभूति को ललाट पर धारण कर उसके करूणामय सौन्दर्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र के कलात्मक अंकन द्वारा मन, वचन तथा कर्म में उतारता है। पुराणों में - ऊर्ध्वपुण्ड्र की दक्षिण रेखा को विष्णु अवतार राम या कृष्ण के "दक्षिण चरण तल" का प्रतिबिम्ब माना गया है, जिसमें वज्र, अंकुश, अंबर, कमल, यव, अष्टकोण, ध्वजा, चक्र, स्वास्तिक तथा ऊर्ध्वरेख है. तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र की बायीं केश पर्यन्त रेखा विष्णु का "बायाँ चरण तल" है जो गोपद, शंख, जम्बूफल, कलश, सुधाकुण्ड, अर्धचन्द्र, षटकोण, मीन, बिन्दु, त्रिकोण तथा इन्द्रधनुष के मंगलकारी चिन्हों से युक्त है। इन मंगलकारी चिन्हों के धारण करने से वज्र से - बल तथा पाप संहार, अंकुश से - मनानिग्रह, अम्बर से - भय विनाश, कमल से - भक्ति, अष्टकोण से - अष्टसिद्धि, ध्वजा से - ऊर्ध्व गति, चक्र से - शत्रुदमन, स्वास्तिक से- कल्याण, ऊर्ध्वरेखा से - भवसागर तरण, पुरूष से - शक्ति और सात्त्विक गुणों की प्राप्ति, गोपद से - भक्ति, शंख से - विजय और बुद्धि से - पुरूषार्थ, त्रिकोण से - योग्य, अर्धचन्द्र से - शक्ति, इन्द्रधनुष से - मृत्यु भय निवारण होता है। 2. त्रिपुण्ड चन्दन - विष्णु उपासक वैष्णवों के समान ही शिव उपासक ललाट पर भस्म या केसर युक्त चन्दन द्वारा भौहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ तक भौहों का अन्त है उतना बड़ा त्रिपुण्ड और ठीक नाक के ऊपर लाल रोली का बिन्दु या तिलक धारण करते हैं। मध्यमा, अनामिका और तर्जनी से तीन रेखाएँ तथा बीच में रोली का अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। शिवपुराण में त्रिपुण्ड को योग और मोक्ष दायक बताया गया है। शिव साहित्य में त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं के नौ-नौ के क्रम में सत्ताईस देवता बताए गये हैं। वैष्णव द्वादय तिलक के समान ही त्रिपुण्ड धारण करने के लिये बत्तीस या सोलह अथवा शरीर के आठ अंगों में लगाने का आदेश है तथा स्थानों एवं अवयवों के देवों का अलग-अलग विवेचन किया गया है। शैव ग्रन्थों में विधिवत त्रिपुण्ड धारण कर रूद्राक्ष से महामृत्युजंय का जप करने वाले साधक के दर्शन को साक्षात रूद्र के दर्शन का फल बताया गया है। अप्रकाशिता उपनिषद के बहिवत्रयं तच्च जगत् त्रय, तच्च शक्तित्रर्य स्यात् द्वारा तीन अग्नि, तीन जगत और तीन शक्ति ज्ञान इच्छा और क्रिया का द्योतक बताकर कहा है कि जिसने त्रिपुण्ड धारण कर रखा है, उसे देवात् कोई देख ले तो वह सभी बाधाओं से विमुक्त हो जाता है। त्रिपुण्ड के बीच लाल तिलक या बिन्दु कारण तत्त्व बिन्दु माना जाता है। गणेश भक्त गाणपत्य अपनी भुजाओं पर गणेश के एक दाँत की तप्त मुद्रा दागते हैं तथा गणपति मुख की छाप लगाकर मस्तक पर लाल रोली या सिन्दूर का तिलक धारण कर गजवदन की उपासना करते हैं। चन्दन के प्रकार १. हरि चन्दन - पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है। २. गोपीचन्दन- गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है, जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था, जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है। इसी पुराण के पाताल खण्ड में कहा गया है कि गोपीचन्दन का तिलक धारण करने मात्र से ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक पवित्र हो जाता है। जिसे वैष्णव सम्प्रदाय में गोपी चन्दन के समान पवित्र माना गया है. स्कन्दपुराण में गोमती, गोकुल और गोपीचन्दन को पवित्र और दुर्लभ बताया गया है तथा कहा गया है कि जिसके घर में गोपीचन्दन की मृत्तिका विराजमान हैं, वहाँ श्रीकृष्ण सहित द्वारिकापुरी स्थित है। सामान्य तिलक का आकार धार्मिक तिलक के समान ही हमारे पारिवारिक या सामाजिक चर्या में तिलक इतना समाया हुआ है कि इसके अभाव में हमारा कोई भी मंगलमय कार्य हो ही नहीं सकता। इसका रूप या आकार दीपक की ज्याति, बाँस की पत्ती, कमल, कली, मछली या शंख के समान होना चाहिए। धर्म शास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार इसका आकार दो से दस अंगुल तक हो सकता है। तिलक से पूर्व ‘श्री’ स्वरूपा बिन्दी लगानी चाहिये उसके पश्चात् अंगुठे से विलोम भाव से तिलक लगाने का विधान है। अंगुठा दो बार फेरा जाता है। किस उँगली से लगाना चाहिये ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तिलक में "अंगुठे के प्रयोग से - शक्ति, मध्यमा के प्रयोग से - दीर्घायु, अनामिका के प्रयोग से- समृद्धि तथा तर्जनी से लगाने पर - मुक्ति प्राप्त होती है" तिलक विज्ञान विषयक समस्त ग्रन्थ तिलक अंकन में नाखून स्पर्श तथा लगे तिलक को पौंछना अनिष्टकारी बतलाते हैं। देवताओं पर केवल अनामिका से तिलक बिन्दु लगाया जाता है। तिलक की विधि सांस्कृतिक सौन्दर्य सहित जीवन की मंगल दृष्टि को मनुष्य के सर्वाधिक मूल्यवान् तथा ज्ञान विज्ञान के प्रमुख केन्द्र मस्तक पर अंकित करती है। तिलक के मध्य में चावल तिलक के मध्य में चावल लगाये जाते हैं। तिलक के चावल शिव के परिचायक हैं। शिव कल्याण के देवता हैं जिनका वर्ण शुक्ल है। लाल तिलक पर सफेद चावल धारण कर हम जीवन में शिव व शक्ति के साम्य का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इच्छा और क्रिया के साथ ज्ञान का समावेश हो। सफेद गोपी चन्दन तथा लाल बिन्दु इसी सत्य के साम्य का सूचक है। शव के मस्तक पर रोली तिलक के मध्य चावल नहीं लगाते, क्योंकि शव में शिव तत्त्व तिरोहित है। वहाँ शिव शक्ति साम्य की मंगल कामना का कोई अर्थ ही नहीं है।

ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं। गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं। गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा। वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है। इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।

श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ “नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥ पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड) ‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति केसामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।

किस ग्रह के लिए कौन सा रत्न धारण करना चाहिए सूर्य का रत्न माणिक्य है जिसे अंग्रेजी में इसे रूबी कहते हैं। चंद्र का रत्न मोती अर्थात पर्ल, मंगल का मूंगा अर्थात कोरल, बुध का पन्ना अर्थात ऐमरल्ड, बृहस्पति का पुखराज अर्थात येलो सैफायर, शुक्र का हीरा अर्थात डायमंड, शनि का नीलम अर्थात ब्लू सैफायर, राहु का गोमेद, केतु का लहसुनिया अर्थात कैट्सआई। किस रत्न को किस रत्न के साथ धारण करें शत्रु ग्रह का रत्न धारण नहीं करना चाहिए जैसे :- मूंगे के साथ नीलम, पन्ना या हीरा धारण नहीं करना चाहिए।हीरे के साथ पुखराज, मूंगा या मोती, पन्ने के साथ मूंगा, पुखराज, माणिक्य या मोती, मोती के साथ पन्ना, हीरा, माणिक्य या नीलम, और नीलम के साथ मोती, पुखराज माणिक्य, मूंगा धारण नहीं करें। इसी तरह गोमेद के साथ माण् िाक्य या मूंगा और लहसुनिया के साथ माणिक्य, मोती या नीलम धारण नहीं करना चाहिए। 5……संचि‍त कर्म, प्रारब्धल कर्म तथा क्रि‍यमाण कर्म ये कर्म के तीन प्रकार हैं. पूर्व जन्म़ में कि‍ये गये कर्म संचि‍त कर्म कहे जाते हैं. पूर्व जन्मय के कर्मों में जि‍न कर्मों का फल इस जन्म. में भोगना पड़ता है वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं. व्याक्तिर‍ द्वारा वर्तमान जीवन में कि‍या जा रहा कर्म क्रि‍यमाण कर्म कहलाता है.

शनिदेव की पूजा बुराइयों और बाधाओं को दूर करने के लिए की जाती है। मान्यता है की शनिदेव इंसान पर आने वाले संकटों और उसकी ह्रदय गति को नियंत्रित करते हैं। शनि न्याय के देवता हैं और वह कर्मों के अनुसार ही फल देते हैं। सच्चे-अच्छे लोगों पर उनकी कृपा बराबर बनी रहती है। वह घमंडी का सिर नीचा करते हैं और उसे कष्ट देकर नम्र और अच्छा इंसान बनाते हैं। शनि देव ही हमारी आयु के कारक हैं, आयु वृद्घि करने वाले हैं, आयुष योग में शनि का स्थान महत्वपूर्ण है किन्तु शुभ स्थिति में होने पर शनि आयु वृद्घि करते हैं तो अशुभ स्थिति में होने पर आयु का हरण कर लेते हैं। शनिदेव और उनका न्याय न केवल हमारे कर्मो का उचित लेखा जोखा है अपितु जीवन की पाठशाला का एक महत्वपूर्ण अघ्याय भी है। इंसान का भला और बुरा तो उसके स्वयं के कर्मों की वजह से होता है। अगर आपके कर्म अच्छे हैं तो आपका बुरा होना नामुमकिन है। शनिवार के दिन गली मुहल्लों, चौराहों आदि बहुत से सार्वजनिक स्थानों पर बाल्टी अथवा किसी बर्तन में शनि देव का स्वरूप स्थापित कर बच्चे, नौजवान एवं वृद्ध उन्हें लिए चले आते हैं और शनि देव की जय जय कार लगाते हैं। दक्षिणा प्राप्त करने के लिए बहुत से आशीर्वाद देते हैं। ऐसे लोंगों को कभी भी शनि देव से संबंधित कोई भी दान नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे लोग जातकों से प्राप्त तेल, उड़द दाल आदि सामान दुबारा से दुकानों में बेच आते हैं और हमारा दान किया हुआ सामान दुबारा से हमारे ही घर में आ जाता है। यह सच है कि शनि देव दान से जल्द ही प्रसन्न होते हैं, अपना कर्म ठीक रखें तभी भाग्य आप का साथ देगा और कर्म कैसे ठीक होगा इसके लिए आप मन्दिर में साक्षात शनिदेव के दर्शन के लिए जाएं और उनसे संबंधित दान दक्षिणा वहीं पर अर्पित करें। निम्न शनि स्तुति का प्रात:काल पाठ करने से शनिजनित कष्ट नहीं व्यापते और सारा दिन सुख पूर्वक बीतता है। यह बहुत ही अद्भुत और रहस्यमय स्तुति है यदि आपको कारोबारी, पारिवारिक या शारीरिक समस्या हो तो इसका निदान इस स्तुति के जाप से संभव है। शनि पत्नी नाम स्तुति ‘ॐ शं शनैश्चराय नम: ध्वजनि धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया। कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी महिषी अजा॥ ॐ शं शनैश्चराय नम

महाकाल स्तोत्रं :- इस स्तोत्र को भगवान् महाकाल ने खुद भैरवी को बताया था. इसकी महिमा का जितना वर्णन किया जाये कम है. इसमें भगवान् महाकाल के विभिन्न नामों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की गयी है . शिव भक्तों के लिए यह स्तोत्र वरदान स्वरुप है . नित्य एक बार जप भी साधक के अन्दर शक्ति तत्त्व और वीर तत्त्व जाग्रत कर देता है . मन में प्रफुल्लता आ जाती है . भगवान् शिव की साधना में यदि इसका एक बार जप कर लिया जाये तो सफलता की सम्भावना बड जाती है . ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते महाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहन महाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुते भवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमः रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः परमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुते पवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुते सोम रूप नमस्तुभ्यं सूर्य रूप नमोस्तुते यजमान नमस्तुभ्यं अकाशाया नमो नमः सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते स्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमः नमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमः हुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमः सचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमः प्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुते प्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमः ॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसे स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमः फल श्रुति इत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवी कीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम

भूत प्रेत बाघा निवारक प्रयोग ॐ नमो आदेश गुरू को हे! हनुमंत वीर विरन के वीर निहारे तरकश में नवलख तीर खन बाएँ खन दाहिने कबहुक आगे होए धनी गुसाई सेबसा उनकी काया मगन होय इंद्रासन दो लोक में बहार देखे मशान हमारी या ‘अमुक’ की देही छल छिद्र व्यापै तो यति हनुमंत की आन मेरी भक्ति गुरू की शक्ति फुरों मंत्र इश्वरो वाचा। विधी-इस मंत्र की सिद्धी के लिए पूजा स्थान में हनुमान जी का चित्र लगाकर पूर्ण विधी विधान से पूजन करें फिर उक्त मंत्र का ग्यारह सौ बार जप करे धूप दीप नैवेध चढ़ाकर हनुमान जी से प्रार्थना करें कि मुझे आशिर्वाद प्रदान करें। फिर जिस व्यक्ति या बच्चे को ऊपरी बाधा या भूत प्रेत इत्यादि बाधा हो उसे उक्त मंत्र को सात बार पढ़तेे हुये नीम के पत्र से झाड़ दे इसके प्रभाव से तुरंत ही रोगी स्वस्थ हो जाता है।

ॐ नमो भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाक्य वादिनी है विद्या देही भगवती हंसवाहिनी बुद्धि में देही प्रज्ञा देही,देही विद्या देही,देही परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा। विधी- यह मंत्र अत्यन्त तीव्र एवं प्रभावी होता है। बसंत पंचमी के दिन या किसी भी रविवार को सरस्वती माता के चित्र के समक्ष दूध से बना प्रसाद चढ़ाकर उक्त मंत्र का विधि पूर्वक 108 बार जप करें तथा खीर का भोजन करें तो यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। फिर जब भी पढ़ने बैठे इस मंत्र का 7 बार जप करें तो पढ़ा हुआ तुरंत याद हो जाता है और बुद्धि तीव्र हो जाती है।

कामना सिद्धि हेतु कौन-सा वृक्ष लगाएं : लक्ष्मी प्राप्ति के लिए : तुलसी, आंवला, केला, बिल्वपत्र का वृक्ष। आरोग्य प्राप्ति के लिए : ब्राह्मी, पलाश, अर्जुन, आंवला, सूरजमुखी, तुलसी। सौभाग्य प्राप्ति हेतु : अशोक, अर्जुन, नारियल, बड़ (वट) का वृक्ष। संतान प्राप्ति हेतु : पीपल, नीम, बिल्व, नागकेशर, गु़ड़हल, अश्वगंधा। मेधा वृद्धि प्राप्ति हेतु : आंकड़ा, शंखपुष्पी, पलाश, ब्राह्मी, तुलसी। सुख प्राप्ति के लिए : नीम, कदम्ब, घने छायादार वृक्ष। आनंद प्राप्ति के लिए : हरसिंगार (पारिजात) रातरानी, मोगरा, गुलाब।

प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों ने ऐसे पेड़-पौधों को लगाने की सलाह दी थी, जिनसे वास्तुदोष का निवारण हो साथ ही पर्यावरण संतुलन भी बना रहे। तुलसी- तुलसी को जीवनदायिनी और लक्ष्मी स्वरूपा बताया गया है। इसे घर में लगाने से और इसकी पूजा अर्चना करने से महिलाओं के सारे दु:ख दूर होते हैं, साथ ही घर में सुख शांति बनी रहती है। इसे घर के अंदर लगाने से किसी भी प्रकार की अशुभ ऊर्जा नष्ट हो जाती है। अश्वगंधा- इसके बारे में कहा गया है कि यह वास्तु दोष समाप्त करने की क्षमता रखता है और शुभता को बढ़ाकर जीवन को अधिक सक्रिय बनाता है। आंवला- आंवले का वृक्ष घर की चहारदीवारी में पूर्व व उत्तर में लगाया जाना चाहिए, जिससे यह शुभ रहता है। साथ ही इसकी नित्य पूजा-अर्चना करने से भी सभी तरह के पापों का शमन होता है। केला- घर की चहारदीवारी में केले का वृक्ष लगाना शुभ होता है। इसे भवन के ईशान कोण में लगाना चाहिए, क्योंकि यह बृहस्पति ग्रह का प्रतिनिधि वृक्ष है। केले के समीप यदि तुलसी का पेड़ भी लगा लें तो अधिक शुभकारी रहेगा।

भगवान गणेश आदिदेव माने गए हैं. उनका पूजन करने से धन-धान्य बढ़ता है. ज्योतिषीय राशिनुसार भगवान गणेश का पूजन और आराधना करने से सभी प्रकार की समस्याएं जैसे रोग, आर्थिक समस्या, भय, नौकरी, व्यवसाय, मकान, वाहन, विवाह, संतान, प्रमोशन आदि संबंधित सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है. राशि अनुसार आगे जानिए कि कैसे करें भगवान गणेश का पूजन- मेष राशि : मेष राशि वालों को 'वक्रतुण्ड' रूप में गणेश जी की आराधना करनी चाहिए और 'गं' या 'ॐ वक्रतुण्डाय हूं' मंत्र की एक माला प्रतिदिन जप कर गुड़ का भोग लगाना चाहिए. इससे तुरंत ही जीवन में जो भी समस्या होगी उसका समाधान हो जाएगा... विशेष: मेष राशि के ईष्ट देव गणेश और हनुमानजी हैं. मंगलवार को हनुमानजी का प्रसाद चढ़ाएं और पूरा प्रसाद मंदिर में ही बांट दें. वृषभ राशि: वृषभ राशि वालों को गणेशजी के 'शक्ति विनायक' रूप की आराधना करना चाहिए और उन्हें भी 'गं' या 'ॐ हीं ग्रीं हीं' मंत्र की एक माला प्रतिदिन जपकर घी में मिश्री मिलाकर भोग लगाएं. निश्चित ही उन्हें सभी तरह की समस्याओं का समाधान मिलेगा... विशेष : हनुमान या गणेश मंदिर में मंगलवार को शुद्ध घी का दोमुखी दिया लगाएं. आमदनी में दिक्कत हो तो केसर का टीका माथे पर लगाएं.

ऊँ गं गणपतये नम: "श्री गणेश का नाम लिया तो बाधा फ़टक न पाती है,देवों का वरदान बरसता बुद्धि विमल बन जाती है"कहावत सटीक भी और खरी भी उतरती है.बिना गणेश के कोई भी काम बन ही नही सकता,चाहे कितने ही प्रयास क्यों नही किये जायें,भारत ही नही विश्व के कौने कौने मे भगवान श्री गणेश जी की मान्यता है,कोई किस रूप में पूजता है तो कोई किसी रूप में उनकी पूजा और श्रद्धा रखता है। ऊँ ऊँ का वास्त्विक रूप ही गणेश जी का रूप है,हिन्दू धर्म के अन्दर अक्षरों की पूजा की जाती है,अक्षर को ही मान्यता प्राप्त है,हर देवता का रूप है हिन्दी भाषा का प्रत्येक अक्षर,"अ" को सजाया गया और श्रीराम की शक्ल बन गयी,"क्रौं" को सजाया गया तो हनुमान जी का रूप बन गया,"शं" को सजाया गया तो श्रीकृष्ण का रूप बन गया,इसी तरह से मात्रा को शक्ति का रूप दिया गया,जैसे "शव" को मुर्दा का रूप तब तक माना जायेगा जब तक कि छोटी इ की मात्रा को इस पर नही चढाया जाता,छोटी की मात्रा लगाते ही "शव" रूप बदल कर और शक्ति से पूरित होकर "शिव" का रूप बन जाता है। ऊँ को उल्टा करने पर वह "अल्लाह" का रूप धारण कर लेता है. चन्द्र बिन्दु का स्थान ऊँ के ऊपर चन्द्र बिन्दु का स्थान चन्द्रमा की दक्षिण भुजा का रूप है,चन्द्रमा का आकार एक बिन्दु के अन्दर बताया गया है,और बिन्दु को ही श्रेष्ठ उपमा से सुशोभित किया गया है,बिन्दु का रूप उस कर्ता से है जिससे श्रष्टि का निर्माण किया है,अ उ और म के ऊपर भी शक्ति के रूप में चन्द्र बिन्दु का रूपण केवल इस भाव से किया गया है कि अ से अज यानी ब्रह्मा,उ से उदार यानी विष्णु और म से मकार यानी शिवजी का भी आस्तित्व तभी सुरक्षित है जब वे तीनो शक्ति रूपी चन्द्र बिन्दु से आच्छादित है। ब्रह्म-विद्या है श्रीगणेश जी आराधना में ब्रह्म विद्या को जाने बिना कोई भी विद्या मे पारंगत नही हो पाता है,तालू और नाक के स्वर से जो शक्ति का निरूपण अक्षर के अन्दर किया जाता है वही ब्रह्मविद्या का रूप है। बीजाक्षरों को पढते समय बिन्दु का प्रक्षेपण करने से वह ब्रह्मविद्या का रूप बन जाता है.ब्रह्मविद्या का नियमित उच्चारण अगर एक मंदबुद्धि से भी करवाया जाये तो वह भी विद्या में उसी तरह से पारंगत हो जाता है जैसे महाकवि कालिदास जी विद्या में पारंगत हुये थे। गणेशजी के नाम के साथ ब्रह्मविद्या का उच्चारण ऊँ गं गणपतये नम: का जाप करते वक्त "गं" अक्षर मे सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का निरूपण हो जाता है,गं बीजाक्षर को लगातार जपने से तालू के अन्दर और नाक के अन्दर जमा मल का विनास होता है और बुद्धि की ओर ले जाने वाली शिरायें और धमनियां अपना रास्ता मस्तिष्क की तरफ़ खोल देतीं है,आंख नाक कान और ग्रहण करने वाली शिरायें अपना काम करना शुरु कर देतीं है और बुद्धि का विकास होने लगता है. ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।

एक नारियल का चमत्कार, अब नहीं बिगड़ेंगे आपके काम क्योंकि... क्या आपके कार्य बार-बार बिगड़ जाते हैं? किसी भी कार्य की सफलता में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है? क्या अंतिम पलों में आपके हाथ से सफलता हाथ निकल जाती है? यदि आपको लगता है आपका भाग्य आपका साथ नहीं दे रहा है तो शास्त्रों के अनुसार कई उपाय बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार जब देवी-देवता आपसे रुष्ट या असप्रसन्न होते हैं तब आपको कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो पाती। इसके अलावा कुंडली में यदि कोई ग्रह दोष हो तब भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की परिस्थितियों से बचने के लिए कई उपाय बताए गए हैं, जो कि निश्चित रूप से लाभदायक ही हैं। इन्हीं उपायों में से एक उपाय ये है कि एक नारियल पानी में बहा दिया जाए। नारियल पानी में कैसे बहना है? इस संबंध में ध्यान रखें ये बातें- किसी भी पवित्र बहती नदी के किनारे एक नारियल लेकर जाएं। किनारे पर पहुंचकर अपना नाम और गौत्र बोलें। इसके साथ ही प्रार्थना करें कि आपकी समस्याएं दूर हो जाएं। अब नारियल को नदी में प्रवाहित कर दें। इसके तुरंत बाद वहां से घर लौट आएं। नदी किनारे से लौटते समय ध्यान रखें पीछे पलटकर न देखें। अन्यथा उपाय निष्फल हो जाएगा। इसप्रकार नारियल नदी में बहाने से निश्चित ही आपको सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। बिगड़े कार्य बनने लगेंगे। भाग्य का साथ मिलने लगेगा, दुर्भाग्य का नाश होगा। इसके अलावा ध्यान रखें कि किसी भी प्रकार अधार्मिक कृत्यों से खुद को दूर रखें और किसी का मन न दुखाएं....

ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।

कलियुग में जप चार गुना अधिक करने से सिद्धि प्राप्त होती है। मंत्रों का गलत उच्चारण कर जप करने से दोष लगता है। केवल दूध पीकर जो मंत्र, तंत्र, अनुष्ठान आदि किया जाता है, उसका फल शीघ्र मिलता है। मंत्र का जप मन से करें। स्तोत्र जप बोलकर करें। अपवित्र अवस्था में, लेटे हुए, चलते-फिरते मंत्र जप न करें। गं, रां, ह्वीं आदि का उच्चारण लोग प्राय: अशुद्ध करते हैं। ये अनुनासिक उच्चारण है, जो नाक व मुंह से किए जाते हैं। मंत्र, तंत्र, यंत्र की प्राप्ति दीपावली, होली की रात, सूर्य व चंद्र ग्रहण पर विशेष रू प से होती है। जल में रहकर, बहते हुए जल में खड़े होकर जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। मंत्र, तंत्र, यंत्र गुप्त रखें। उनका प्रचार न करें। नीचे स्थल, गड्ढे आदि में जप न करें। दिन में पूर्व दिशा में, रात्रि में उत्तर की ओर मुंह करके जप करें। केवल रेशम, कंबल (ऊनी) व कुशा के आसन पर बैठकर जप करें। जप करते समय माला हिले नहीं। किसी दुखी, पीडि़त व्यक्ति को यंत्र या मंत्र देना हो, तो दीपावली, होली, ग्रहण के दिन दें। अनुष्ठानकर्ता सदाचारी हो, सद्गुणी हो। अशुद्ध व्यक्ति पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना शीघ्र असर करते हैं। अत: शुद्ध रहें और ईश्वर आराधना करते रहने से लाभ मिलना संभव है।

नित्यकर्म की संक्षिप्त विधि प्रत्येक तंत्र - साधक को अपने जीवन - यापन में ही नहीं , अपितु दैनिक दिनचर्या में भी कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है । वैसे भी जो व्यक्ति जिस मार्ग का अनुसरण करता है , उसे उस मार्ग में सफलतापूर्वक चलकर लक्ष्य तक पहुंचने के सभी नियमों को जान लेना तथा उनका पूरी तरह से पालन करना चाहिए । तंत्र - साधक को तंत्रादि प्रयोग में सफलता प्राप्त करने के लिए स्नान - संध्याशील होना अत्यावश्यक है ।   प्रातः कृत्य सूर्योदय से प्रायः दो घण्टे पूर्व ब्रह्म - मुहूर्त्त होता है । इस समय सोना ( निद्रालीन होना ) सर्वथा निषिद्ध है । इस कारण ब्रह्म - मुहूर्त्त में उठकर निम्न मंत्र को बोलते हुए अपने हाथों ( हथेलियों ) को देखना चाहिए । कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर - दर्शनम् ॥ हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी , मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा स्थित हैं ( ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ) । इसलिए प्रातः उठते ही हाथों का दर्शन करना चाहिए । उसके पश्चात् नीचे लिखी प्रार्थना को बोलकर भूमि पर पैर रखें । समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले । विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥ हे विष्णु पत्नी ! हे समुद्ररुपी वस्त्रों को धारण करने वाली तथा पर्वतरुप स्तनों से युक्त पृथ्वी देवी ! तुम्हें नमस्कार है , तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो । इस कृत्य के पश्चात् मुख को धोएं , कुल्ला करें और फिर प्रातः स्मरण तथा भजन आदि करके श्री गणेश , लक्ष्मी , सूर्य , तुलसी , गाय , गुरु , माता , पिता , इष्टदेव एवं ( घर के ) वृद्धों को सादर प्रणाम करें ।   प्रातः स्मरण उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम् । प्रातरेव स्मरेन्नित्यं सौभाग्यं वर्द्धते सदा ॥ सर्वमंगल मांगल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके । शरण्ये ! त्र्यंबक ! गौरि नारायणि ! नमोऽस्तुते ॥ हे जिह्वेरससराज्ञे ! सर्वदा मधुरप्रिये ! । नारायणाख्यपीयूषं पिब जिह्वे ! निरंतरम् ॥ शौच - विधि यज्ञोपवीत को कंठी कर दाएं कर्ण में लपेटकर वस्त्र या आधी धोती से सिर ढांप लें । वस्त्राभाव में जनेऊ को सिर के ऊपर से लेकर बाएं कर्ण से पीछे करें । जल के पात्र को बाएं रख , दिन में उत्तर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख कर निम्नलिखित मंत्र बोलकर एवं मौनता बनाए रखकर मल - मूत्र का त्याग करें - गच्छंतु ऋषयो देवाः पिशाचा ये च गुह्यकाः । पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥ पात्र से जल लें , बाएं हाथ से गुदा धोकर लिंग में एक बार , गुदा में तीन बार मिट्टी लगाकर जल से शुद्ध करें । बाएं हाथ को अलग रखते हुए दाएं हाथ से लांग टांगकर उसी हाथ में पात्र लें । मिट्टी के तीन हिस्से करें । पहले से बायां हाथ दस बार , दूसरे ( हिस्से ) से दोनों हाथ सात बार और तीसरे से पात्र को तीन बार शुद्ध करें । उसी पात्र से बारह से सोलह बार कुल्ले करें । अब दोनों पैरों को ( पहले बायां और फिर दायां ) तीन - तीन बार धोकर बची हुई मिट्टी धो दें । सूर्योदय से पूर्व एवं पश्चात् उत्तर की ओर मुख कर बारह बार कुल्ला करें । दिन से रात्रि में आधी , यात्रा में चौथाई तथा आतुरकाल में यथाशक्ति शुद्धि करनी आवश्यक है । मल - त्याग के पश्चात् बारह बार , मूत्र - त्याग के बाद चार बार तथा भोजनोपरांत सोलह बार कुल्ला करें । कर्म २ दंतधावन - विधि मुखशुद्धि किए बिना कोई भी मंत्र कभी फलदायक नहीं होता । अतः सूर्योदय से पहले और बाद में उत्तर अथवा दोनों समय पूर्वोत्तर कोण ( ईशान ) में मुंह करके दतुअन करें । मध्यमा , अनामिका अथवा अंगुष्ठ से दांत साफ करें । तर्जनी उंगली का कभी प्रयोग न करें । तत्पश्चात् प्रार्थना करें - आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वन्नो देहि वनस्पते ॥   दुग्धवाले वृक्ष का बारह अंगुल का दतुअन ( दातौन ) धोकर उपर्युक्त प्रार्थना करें । फिर दतुअन को चीरकर जीभी करें और धोकर बायीं ओर फेंक दें ।  सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

कई बार ऐसा होता है की मकान में उपरी बाधा होती है। भुत प्रेत पितृ आदि का उपद्रव होता है। जिस से मकान में रहने वाले लोगो परेसान होते है । बीमार रहते है। कोइ काम बनता नही । अगर ऐसा लगता है और इस बात की पुष्टि करनी है तो इस के लिए ये कीजिए। एक हरा कपड़ा सवा मीटर ले। एक नारियल ले। सवा किलो चावल ले। अब नारियल को अपने मकान के सब कोने में बिना बोले लेके घूमे । इस के बाद उस को हरा कपड़ा में चावल के साथ कही पर बांध दे। ये क्रिया बिना बोले करे। फिर इस को मकान के अंदर कही टांग दे। 21 दिन के बाद उसे देखे। अगर उस में सफेद कीड़े पड गये है ।तो यकीनन उस मकान में उपद्रव है। कई बार नारियल इतना सड जाता है की मुर्दे जेसी बदबू आती है। ये एक निदान पद्धति है। इस तंत्र को बड़े मंत्र के साथ किया जाता है।.. जय श्री राम ----- श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥ अब काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक इस मन्त्र के अनुष्ठान करते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में भोजन करे । जो साधक व्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है वह तीन दिन मे ही क्षुद्र रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवं पिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है नियमित एक समय हविष्यान्न भोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रतिदिन १० हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥ सुग्रीव के साथ राम की मित्रता कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से शत्रुओं के साथ सन्धि करायी जा सकती है ॥ लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है, उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं ॥ जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है ॥ जो व्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते है ॥ इस मन्त्र के जप से साधक की व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहीं सोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुःस्वप्न भी दिखाई नहीं देते ॥ सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

तांत्रिक क्रियाओं और टोने टोटके से बहुत व्यक्ति परेशान है और इनके प्रभाव भी बहुत ही बुरे होते है जो व्यक्ति के रहन सहन को बहुत प्रभावित करते है। ऎसे पहचाने कि आप पर तंत्र शक्ति प्रयोग की गई है या नहीं : (1) नाड़ी की गति सामान्य से अधिक हो जाती है: जब भी शरीर पर किसी भी नकारात्मक ऊर्जा का हमला होता है तो हमारा शरीर उसका प्रतिरोध करता है जिसके फलस्वरूप हमारी धड़कन सामान्य से तेज हो जाती है। जितना घातक अटैक होगा, नाड़ी की गति उतनी ही ज्यादा तेज हो जाएगी। (2) श्वास की गति बढ़ जाती है: तांत्रिक हमला होते ही सांस की गति भी बहुत तेज हो जाती है। घातक हमले की हालत में श्वास की गति इतनी अधिक हो सकती है जितनी की भागदौड़ के बाद भी नहीं होती। (3) अचानक ही शारीरिक तथा मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करना: तांत्रिक हमले या साईकिक अटैक में नकारात्मक शक्तियां व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को काबू में करने का प्रयास करती है जिसके चलते व्यक्ति अपनी शक्ति काम नहीं ले पाता और वह अंदर ही अंदर शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करने लगता है। (4) रात को डरावने सपने आते हैं: तांत्रिक हमले के दौरान रात को सोते समय भयावह और डरावने सपने आने लगते हैं। कई बार ऎसा लगता है जैसे कि आप पर किसी जानवर ने हमला कर दिया या आप कहीं बहुत ऊंचाई से गिर गए हैं। (5) पलंग के पास पानी रखने से भी पता चलता है: रात को सोते समय पलंग के पास पानी का एक गिलास रख दें और सोते समय मन में सोचे कि आपके अंदर की नकारात्मक ऊर्जा उस पानी में जा रही है। सुबह उस पानी को किसी छोटे पौधे में डाल दें। ऎसा लगातार आठ दिन तक करें। आठ दिन में वह पौधा मुरझा जाएगा। यदि हमला बहुत तेज हुआ तो पौधा 2-3 दिन में ही कुम्हला जाएगा। (6) तकिए के नीचे नींबू रखें: फल तथा सब्जियां भी नकारात्मक ऊर्जा से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। आप रात को सोते समय एक नींबू अपने तकिए के नीचे रख दें और अपने मन में सोचे कि आपके आस-पास कोई भी नकारात्मक ऊर्जा है तो वह इस नींबू में आ जाएं। तांत्रिक हमला होने की दशा में सुबह आप उस नींबू को मुरझा हुआ पाएंगे। उसका रंग भी काला पड़ जाएगा। जय श्री राम ----- श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

…… श्री भैरव दर्शन प्राप्ति मन्त्र “ॐ गुरुजी काला भैरुँ कपिला केश, कानों मुंदरा, भगवाँ वेश । मार-मार काली-पुत्र। बारह कोस की मार, भूताँ हाथ कलेजी खूँहा गेडिया। जहाँ जाऊँ भैरुँ साथ। बारह कोस की रिद्धि ल्यावो। चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो। सूती होय, तो जगाय ल्यावो। बैठी होय,उठाय ल्यावो। अनन्त केसर की भारी ल्यावो। गौरा-पार्वती की विछिया ल्यावो। गेल्याँ की रस्तान मोह, कुवे की पणिहारी मोह, बैठा बाणिया मोह, गृह बैठी बणियानी मोह, राजा की रजवाडन मोह, महिलो बैठी रानी मोह। डाकिनी को, शाकिनी को, भूतनी को, पलीतनी को, ओपरी को, पराई को, लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धक्का कूँ, पलीया कूँ, चौड़ कूँ, चौगट कूँ, काचा कूँ, कलवा कूँ, भूत कूँ, पलीत कूँ, जिन कूँ, राक्षस कूँ, बैरियों से बरी कर दे। नजराँ जड़ दे ताला, इत्ता भैरव नहीं करे, तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे, माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे। चल डाकिनी, शाकिनी, चौडूँ मैला बाकरा, देस्यूँ मद की धार, भरी सभा में द्यूं आने में कहाँ लगाई बार ? खप्पर में खाय, मसान में लौटे, ऐसे काला भैरुँ की कूण पूजा मेटे। राजा मेटे राज से जाय, प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय, जोगी मेटे ध्यान से जाय। शब्द साँचा, पिंड काचा , फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।”

…… भागे या रूठ के गये हुये को वापिस बुलाने का मंत्र ओम नमो काली कलिका .......... को आकर्शय आकर्शय . बड़े वेग आकर्शय जिन वाटे जाई सोई वाट खिलूँ . ओम श्रीं ह्रीं आकर्षण आकर्षण स्वाहा। इस मंत्र के प्रभाव से रूठ कर विदेश या कंही बाहर अथवा भाग कर गया हुआ व्यक्ति या पत्नी घर वापिस आ जाते है। मैने कई बार इस मंत्र का प्रयोग किया है आप भी कर सकते है। विधि -- इस मंत्र का जाप 1000 की सांख्या मे करना चाहिये जाप आप खुद भी कर सकते हो या किसी अच्छे कर्म कांड करने वाले ब्राह्मण से भी करवा सकते हो। जाप के पस्चात हवन करना जरूरी है. हवन हर रोज भी किया जा सकता है। 108 आहुति देते हुये हर रोज हवन कर सकते है खाली जगह पर उसका नाम लें जिसको बुलाना हो। काली पूजन करें काली मंदिर मे हर रोज सरसों के तेल का दीपक जलाएं इसके साथ 15 का यंत्र भी प्रयोग करे तो कार्य अति शीघ्र पूर्ण होगा .

सर्व सिद्दी कारक भैरव मंत्र ॐ गुरु जी काल भैरव काली लट हाथ फारसी साथ नगरी करूँ प्रवेश नगरी को करो बकरी राजा को करो बिलाई जो कोई मेरा जोग भंग करे बाबा क्रिशन नाथ की दुहाई | इस मंत्र के बड़े चमत्कारिक प्रभाव हैं अगर आपको कही भी किसी काम के लिए जाना हो तो इस मंत्र का जाप करके जावें आपका काम जरुर बनेगा आप कहीं नोकरी के लिए जाने पहले इसका जाप करके निकलोगे तो आपका काम जरुर बनेगा ..

सर्व-कार्य-सिद्धि हेतु शाबर मन्त्र “काली घाटे काली माँ, पतित-पावनी काली माँ, जवा फूले-स्थुरी जले। सई जवा फूल में सीआ बेड़ाए। देवीर अनुर्बले। एहि होत करिवजा होइबे। ताही काली धर्मेर। बले काहार आज्ञे राठे। कालिका चण्डीर आसे।” विधिः- उक्त मन्त्र भगवती कालिका का बँगला भाषा में शाबर मन्त्र है। इस मन्त्र को तीन बार ‘जप’ कर दाएँ हाथ पर फूँक मारे और अभीष्ट कार्य को करे। कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त होगी। गलत कार्यों में इसका प्रयोग न करें

कैसे करें नवदुर्गा की आराधना... दुर्गापूजा के आरंभ में पवित्र स्थान की मिट्टी से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोए। फिर उसके ऊपर कलश को विधिपूर्वक स्थापित करें। कलश के ऊपर मूर्ति की प्रतिष्ठा करें। मूर्ति यदि कच्ची मिट्टी, कागज या सिंदूर आदि से बनी हो और स्नानादि से उसमें विकृति होने की आशंका हो तो उसके ऊपर शीशा लगा दें। मूर्ति न हो तो कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके दोनों भुजाओं में त्रिशूल बनाकर दुर्गाजी का चित्र, पुस्तक तथा शालग्राम को विराजित कर विष्णु का पूजन करें। पूजन सात्विक हो, राजस और तामस नहीं। नवरात्रि व्रत के आरंभ में स्वस्तिवाचक शांति पाठ कर संकल्प करें और तब सर्वप्रथम गणपति की पूजा कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह एवं वरुण का विधि से पूजन करें। फिर प्रधानमूर्ति का षोड़शोपचार पूजन करना चाहिए। अपने ईष्टदेव का पूजन करें। पूजन वेद विधि या संप्रदाय निर्दिष्ट विधि से होना चाहिए। दुर्गा देवी की आराधना अनुष्ठान में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का पूजन तथा मार्कण्डेयपुराण के अनुसार श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मुख्य अनुष्ठान कर्तव्य है। पाठ विधि - श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक का विधिपूर्वक पूजन कर इस मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए। 'नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्‌।' इस मंत्र से पंचोपचार पूजन कर यथाविधि पाठ करें। देवी व्रत में कुमारी पूजन परम आवश्यक माना गया है। सामर्थ्य हो तो नवरात्रि के प्रतिदिन, अन्यथा समाप्ति के दिन नौ कुंवारी कन्याओं के चरण धोकर उन्हें देवी रूप मान कर गंध-पुष्पादि से अर्चन कर आदर के साथ यथारुचि मिष्ठान भोजन कराना चाहिए एवं वस्त्रादि से सत्कार करना चाहिए। कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का अर्चन विशेष महत्व रखता है। इसमें दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष वाली सुभद्रा स्वरूपा होती है। दुर्गा पूजा में प्रतिदिन की पूजा का विशेष महत्व है जिसमें प्रथम शैलपुत्री से लेकर नवम्‌ सिद्धिदात्री तक नव दुर्गाओं की नव शक्तियों का और स्वरूपों का विशेष अर्चन होता है।

रोग बाधा निवारण साधना.(पाताल क्रिया) यह साधना पाताल क्रिया से सम्बंधित है,इस साधना कि कई अनुभूतिया है,और साधना भि एक दिन कि है.कई येसे रोग या बीमारिया है जिनका निवारण नहीं हो पाता ,और दवाईया भि काम नहीं करती ,येसे समय मे यह प्रयोग अति आवश्यक है.यह प्रयोग आज तक अपनी कसौटी पर हमेशा से ही खरा उतरा है . प्रयोग सामग्री :- एक मट्टी कि कुल्हड़ (मटका) छोटासा,सरसों का तेल ,काले तिल,सिंदूर,काला कपडा . प्रयोग विधि :- शनिवार के दिन श्याम को ४ या ४:३० बजे स्नान करके साधना मे प्रयुक्त हो जाये,सामने गुरुचित्र हो ,गुरुपूजन संपन्न कीजिये और गुरुमंत्र कि कम से कम ५ माला अनिवार्य है.गुरूजी के समक्ष अपनी रोग बाधा कि मुक्ति कि लिए प्रार्थना कीजिये.मट्टी कि कुल्हड़ मे सरसों कि तेल को भर दीजिये,उसी तेल मे ८ काले तिल डाल दीजिये.और काले कपडे से कुल्हड़ कि मुह को बंद कर दीजिये.अब ३६ अक्षर वाली बगलामुखी मंत्र कि १ माला जाप कीजिये.और कुल्हड़ के उप्पर थोडा सा सिंदूर डाल दीजिये.और माँ बगलामुखी से भि रोग बाधा मुक्ति कि प्रार्थना कीजिये.और एक माला बगलामुखी रोग बाधा मुक्ति मंत्र कीजिये. मंत्र :- || ओम ह्लीम् श्रीं ह्लीम् रोग बाधा नाशय नाशय फट || मंत्र जाप समाप्ति के बाद कुल्हड़ को जमींन गाड दीजिये,गड्डा प्रयोग से पहिले ही खोद के रख दीजिये.और ये प्रयोग किसी और के लिए कर रहे है तो उस बीमार व्यक्ति से कुल्हड़ को स्पर्श करवाते हुये कुल्हड़ को जमींन मे गाड दीजिये.और प्रार्थना भि बीमार व्यक्ति के लिए ही करनी है.चाहे व्यक्ति कोमा मे भि क्यों न हो ७ घंटे के अंदर ही उसे राहत मिलनी शुरू हो जाती है.कुछ परिस्थितियों मे एक शनिवार मे अनुभूतिया कम हो तो यह प्रयोग आगे भि किसी शनिवार कर सकते है

ज्योतिष और शाबर साधना-काल में जन्म-लग्न-चक्र के अनुसार ग्रहों की अनुकूलता जानना आवश्यक है। साधना भी एक प्रकार का कर्म है, अतः ‘दशम भाव’ उसकी सफलता या असफलता का सूचक है। साधना की प्रकृत्ति तथा सफलता हेतु पँचम, नवम तथा दशम भाव का अवलोकन उचित रहेगा। १॰ नवम स्थान में शनि हो तो साधक शाबर मन्त्र में अरुचि रखता है या वह शाबर-साधना सतत नहीं करेगा। यदि वह ऐसा करेगा तो अन्त में उसको वैराग्य हो जाएगा। २॰ नवम स्थान में बुध होने से जातक को शाबर-मन्त्र की सिद्धि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ३॰ पँचम स्थान पर यदि मंगल की दृष्टि हो, तो जातक कुल-देवता, देवी का उपासक होता है। ४॰ पँचम स्थान पर यदि गुरु की दृष्टि हो, तो साधक को शाबर-साधना में विशेष सफलता मिलती है। ५॰ पँचम स्थान पर सूर्य की दृष्टि हो, तो साधक सूर्य या विष्णु की उपासना में सफल होता है। ६॰ यदि राहु की दृष्टि होती है, तो वह “भैरव” उपासक होता है। इस प्रकार के साधक को यदि पथ-प्रदर्शन नहीं मिलता, तो वह निम्न स्तर के देवी-देवताओं की उपासना करने लगता है।

कार्य-सिद्धि हेतु गणेश शाबर मन्त्र “ॐ गनपत वीर, भूखे मसान, जो फल माँगूँ, सो फल आन। गनपत देखे, गनपत के छत्र से बादशाह डरे। राजा के मुख से प्रजा डरे, हाथा चढ़े सिन्दूर। औलिया गौरी का पूत गनेश, गुग्गुल की धरुँ ढेरी, रिद्धि-सिद्धि गनपत धनेरी। जय गिरनार-पति। ॐ नमो स्वाहा।” विधि- सामग्रीः- धूप या गुग्गुल, दीपक, घी, सिन्दूर, बेसन का लड्डू। दिनः- बुधवार, गुरुवार या शनिवार। निर्दिष्ट वारों में यदि ग्रहण, पर्व, पुष्य नक्षत्र, सर्वार्थ-सिद्धि योग हो तो उत्तम। समयः- रात्रि १० बजे। जप संख्या-१२५। अवधिः- ४० दिन। किसी एकान्त स्थान में या देवालय में, जहाँ लोगों का आवागमन कम हो, भगवान् गणेश की षोडशोपचार से पूजा करे। घी का दीपक जलाकर, अपने सामने, एक फुट की ऊँचाई पर रखे। सिन्दूर और लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और प्रतिदिन १२५ बार उक्त मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन के प्रसाद को बच्चों में बाँट दे। चालीसवें दिन सवा सेर लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और मन्त्र का जप समाप्त होने पर तीन बालकों को भोजन कराकर उन्हें कुछ द्रव्य-दक्षिणा में दे। सिन्दूर को एक डिब्बी में सुरक्षित रखे। एक सप्ताह तक इस सिन्दूर को न छूए। उसके बाद जब कभी कोई कार्य या समस्या आ पड़े, तो सिन्दूर को सात बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर अपने माथे पर टीका लगाए। कार्य सफल होगा।…………………………

नजर उतारने का मन्त्र “ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।” विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।नजर-टोना झारने का मन्त्र “कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।” विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे। नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´“काली काली महा-काली, इन्द्र की बेटी, ब्रह्मा की साली। पीती भर भर रक्त प्याली, उड़ बैठी पीपल की डाली। दोनों हाथ बजाए ताली। जहाँ जाए वज्र की ताली, वहाँ ना आए दुश्मन हाली। दुहाई कामरो कामाख्या नैना योगिनी की, ईश्वर महादेव गोरा पार्वती की, दुहाई वीर मसान की।।” विधिः- प्रतिदिन १०८ बार ४० दिन तक जप कर सिद्ध करे। प्रयोग के समय पढ़कर तीन बार जोर से ताली बजाए। जहाँ तक ताली की आवाज जायेगी, दुश्मन का कोई वार या भूत, प्रेत असर नहीं करेगा

नजर-टोना झारने का मन्त्र “आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।” विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।नजर उतारने का मन्त्र “ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।” विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।

नजर झारने के मन्त्र १॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।” २॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।” विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा” !! लक्ष्मी से युक्त श्रीनृसिंहभगवान् , महागणपति एवं श्रीगुरु (श्रीनृसिंहाश्रम ) को में नमस्कार करता हुँ। ॐ श्री लक्ष्मीनृसिंहाय नम:। भगवान् श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो । जय श्री राम... श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । हमारा ईमेल है ।-shriramjyotishsadan16@gmail.com... हमारा मोबाईल नम्बर है। ।...9760924411…मोबाईल..इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -06.00 -के मध्य ही संपर्क करें।Muzaffarnagar.(up) –PinCod-251001..

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रह मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ब्रह्मा मुरारिः त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमि-सुतो बुधश्च। गुरूश्च शुक्रः शनि राहु केतवेः सर्वे ग्रहाः शान्तिः करा भवन्तु॥ ॐ सुर्यः शौर्यमथेन्दुर उच्च पदवीं सं मंगलः सद् बुद्धिं च बुधो गुरूश्च गुरूतां शुक्रः सुखं शं शनिः राहुः बाहुबलं करोतु सततं केतुः कुलस्यः उन्नतिं नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु मम ते सर्वे अनुकूला ग्रहाः॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रहस्तोत्रम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ जपा कुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिम्। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥१॥ दधि शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्। नमामि शशिनं सोमं शम्भोः मुकुट भूषणम्॥२॥ धरणी गर्भ संभूतं विद्युत्कान्ति समप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम्॥३॥ प्रियंगु कलि काश्यामं रूपेणा प्रतिमं बुधम्। सौम्यं सौम्य गुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥४॥ देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चन संनिभम्। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥५॥ हिम कुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्। सर्व शास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छाया मार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥ अर्ध कायं महावीर्यं चन्द्र आदित्य विमर्दनम्। सिंहिका गर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥ पलाश पुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥ इति व्यास मुखोद् गीतं यः पठेत् सुसमाहितः। दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शान्तिर भविष्यति॥१०॥ नर नारी नृपाणां च भवेद् दुःस्वप्न नाशनम्। ऐश्वर्यं अतुलं तेषाम् आरोग्यं पुष्टि वर्धनम्॥११॥ गृह नक्षत्रजाः पीडाः तस्कराग्नि समुद् भवाः। ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रू तेन संशयः॥१२॥ ॐ ॐ ॐ ॥ इति श्रीव्यास विरचितं नवग्रहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॐ ॐ ॐ

.कमलगट्टे की माला:- धन प्राप्ति के लिए किए जाने वाले तंत्र प्रयोगों में कई वस्तु ओं का उपयोग किया जाता है, कमल गट्टा भी उन्हीं में से एक है। शत्रुजन्य कष्टों से बचाव हेतु मंत्र जप भी कमल गट्टे की माला से किया जाता है। लक्ष्मीजी के लिए मंत्रोच्चार द्वारा किये जाने वाले हवन में कमलगट्टे के बीजों से आहुति दी जाती है कमल गट्टा कमल के पौधे में से निकलते हैं व काले रंग के होते हैं। यह बाजार में आसानी से मिल जाते हैं। मंत्र जप के लिए इसकी माला भी बनती है।मंत्र जप में जप माला देव शक्ति स्वरूप व जाग्रत मानी जाती है। जिसके लिए अलग-अलग मंत्र जप माला अलग-अलग देव कृपा के लिए प्रभावी मानी गई है। लक्ष्मी जी के मंत्रों एवं धनदायक मंत्रों के जप कमलगट्टे की माला से करते हैं। ऐश्वर्य की देवी महालक्ष्मी की पूजा न केवल धनवान व समृद्ध बनाती है, बल्कि यश, प्रतिष्ठा के साथ शांति, पवित्रता, शक्ति व बुद्धि भी देने वाली मानी गई है।शुक्रवार को देवी लक्ष्मी की सुबह और शाम दोनों ही वक्त स्नान के बाद यथासंभव लाल वस्त्र पहन लाल पूजा सामग्रियों से पूजा करें। देवी की चांदी या किस भी धातु की बनी प्रतिमा को दूध, दही, घी, शकर और शहद से बने पंचामृत व पवित्र जल से स्नान कराने के बाद लाल चंदन, कुंकुम, लाल अक्षत, कमल गुलाब या गुड़हल का फूल चढ़ाकर घर में बनी दूध की खीर का भोग लगाएं। पूजा के बाद नीचे लिखे लक्ष्मी मंत्रों में किसी भी एक या दोनों का लाल आसन पर कमलगट्टे की माला से कम से कम 108 बार जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं सौं: श्रीं ह्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम: ॐ महालक्ष्म्यै नमः - पूजा व मंत्र जप के बाद माता लक्ष्मी की आरती करें, प्रसाद ग्रहण करें व माता को चढ़ाया थोड़ा-सा कुंकुम कागज में बांध तिजोरी मे रखें। उपाय 1- यदि रोज 108 कमल के बीजों से आहुति दें और ऐसा 21 दिन तक करें तो आने वाली कई पीढिय़ां सम्पन्न बनी रहती हैं। 2- यदि दुकान में कमल गट्टे की माला बिछा कर उसके ऊपर लक्ष्मी का चित्र स्थापित किया जाए व्यापार निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर होता है। 3- कमल गट्टे की माला लक्ष्मी के चित्र पर पहना कर किसी नदी या तालाब में विसर्जित करें तो उसके घर में निरंतर लक्ष्मी का आगमन बना रहता है। 4- जो व्यक्ति प्रत्येक बुधवार को 108 कमलगटटे के बीज लेकर घी के साथ एक-एक करके अग्नि में 108 आहुतियां देता है। उसके घर से दरिद्रता हमेशा के लिए चली जाती है। 5- जो व्यक्ति पूजा-पाठ के दौरान की माला अपने गले में धारण करता है उस पर लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है। 6- शुक्रवार, दीपावली, नवरात्रि या किसी देवी उपासना के विशेष दिन कमलगट्टे की माला से अलग-अलग रूपों में लक्ष्मी मंत्र जप देवी लक्ष्मी की कृपा से धन, ऐश्वर्य व यश पाने, कामनासिद्धि व मंत्र सिद्धि का अचूक उपाय माना गया है।

दूकान की बिक्री अधिक हो---- १॰ “श्री शुक्ले महा-शुक्ले कमल-दल निवासे श्री महालक्ष्मी नमो नमः। लक्ष्मी माई, सत्त की सवाई। आओ, चेतो, करो भलाई। ना करो, तो सात समुद्रों की दुहाई। ऋद्धि-सिद्धि खावोगी, तो नौ नाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई।” विधि- घर से नहा-धोकर दुकान पर जाकर अगर-बत्ती जलाकर उसी से लक्ष्मी जी के चित्र की आरती करके, गद्दी पर बैठकर, १ माला उक्त मन्त्र की जपकर दुकान का लेन-देन प्रारम्भ करें। आशातीत लाभ होगा। २॰ “भँवरवीर, तू चेला मेरा। खोल दुकान कहा कर मेरा। उठे जो डण्डी बिके जो माल, भँवरवीर सोखे नहिं जाए।।” विधि- १॰ किसीशुभ रविवार से उक्त मन्त्र की १० माला प्रतिदिन के नियम से दस दिनों में १०० माला जप कर लें। केवल रविवार के ही दिन इस मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। प्रातः स्नान करके दुकान पर जाएँ। एक हाथ में थोड़े-से काले उड़द ले लें। फिर ११ बार मन्त्र पढ़कर, उन पर फूँक मारकर दुकान में चारों ओर बिखेर दें। सोमवार को प्रातः उन उड़दों को समेट कर किसी चौराहे पर, बिना किसी के टोके, डाल आएँ। इस प्रकार चार रविवार तक लगातार, बिना नागा किए, यह प्रयोग करें। २॰ इसके साथ यन्त्र का भी निर्माण किया जाता है। इसे लाल स्याही अथवा लाल चन्दन से लिखना है। बीच में सम्बन्धित व्यक्ति का नाम लिखें। तिल्ली के तेल में बत्ती बनाकर दीपक जलाए। १०८ बार मन्त्र जपने तक यह दीपक जलता रहे। रविवार के दिन काले उड़द के दानों पर सिन्दूर लगाकर उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर उन्हें दूकान में बिखेर दें।..................

सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्र---- श्री हिरण्य-मयी हस्ति-वाहिनी, सम्पत्ति-शक्ति-दायिनी। मोक्ष-मुक्ति-प्रदायिनी, सद्-बुद्धि-शक्ति-दात्रिणी।।१ सन्तति-सम्वृद्धि-दायिनी, शुभ-शिष्य-वृन्द-प्रदायिनी। नव-रत्ना नारायणी, भगवती भद्र-कारिणी।।२ धर्म-न्याय-नीतिदा, विद्या-कला-कौशल्यदा। प्रेम-भक्ति-वर-सेवा-प्रदा, राज-द्वार-यश-विजयदा।।३ धन-द्रव्य-अन्न-वस्त्रदा, प्रकृति पद्मा कीर्तिदा। सुख-भोग-वैभव-शान्तिदा, साहित्य-सौरभ-दायिका।।४ वंश-वेलि-वृद्धिका, कुल-कुटुम्ब-पौरुष-प्रचारिका। स्व-ज्ञाति-प्रतिष्ठा-प्रसारिका, स्व-जाति-प्रसिद्धि-प्राप्तिका।।५ भव्य-भाग्योदय-कारिका, रम्य-देशोदय-उद्भाषिका। सर्व-कार्य-सिद्धि-कारिका, भूत-प्रेत-बाधा-नाशिका। अनाथ-अधमोद्धारिका, पतित-पावन-कारिका। मन-वाञ्छित॒फल-दायिका, सर्व-नर-नारी-मोहनेच्छा-पूर्णिका।।७ साधन-ज्ञान-संरक्षिका, मुमुक्षु-भाव-समर्थिका। जिज्ञासु-जन-ज्योतिर्धरा, सुपात्र-मान-सम्वर्द्धिका।।८ अक्षर-ज्ञान-सङ्गतिका, स्वात्म-ज्ञान-सन्तुष्टिका। पुरुषार्थ-प्रताप-अर्पिता, पराक्रम-प्रभाव-समर्पिता।।९ स्वावलम्बन-वृत्ति-वृद्धिका, स्वाश्रय-प्रवृत्ति-पुष्टिका। प्रति-स्पर्द्धी-शत्रु-नाशिका, सर्व-ऐक्य-मार्ग-प्रकाशिका।।१० जाज्वल्य-जीवन-ज्योतिदा, षड्-रिपु-दल-संहारिका। भव-सिन्धु-भय-विदारिका, संसार-नाव-सुकानिका।।११ चौर-नाम-स्थान-दर्शिका, रोग-औषधी-प्रदर्शिका। इच्छित-वस्तु-प्राप्तिका, उर-अभिलाषा-पूर्णिका।।१२ श्री देवी मङ्गला, गुरु-देव-शाप-निर्मूलिका। आद्य-शक्ति इन्दिरा, ऋद्धि-सिद्धिदा रमा।।१३ सिन्धु-सुता विष्णु-प्रिया, पूर्व-जन्म-पाप-विमोचना। दुःख-सैन्य-विघ्न-विमोचना, नव-ग्रह-दोष-निवारणा।।१४ ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवता-स्वरुपिणी श्रीमहा-माया महा-देवी महा-शक्ति महालक्ष्म्ये नमो नमः। ॐ ह्रीं श्रीपर-ब्रह्म परमेश्वरी। भाग्य-विधाता भाग्योदय-कर्त्ता भाग्य-लेखा भगवती भाग्येश्वरी ॐ ह्रीं। कुतूहल-दर्शक, पूर्व-जन्म-दर्शक, भूत-वर्तमान-भविष्य-दर्शक, पुनर्जन्म-दर्शक, त्रिकाल-ज्ञान-प्रदर्शक, दैवी-ज्योतिष-महा-विद्या-भाषिणी त्रिपुरेश्वरी। अद्भुत, अपुर्व, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, सामुद्रिक-विज्ञान-रहस्य-रागिनी, श्री-सिद्धि-दायिनी। सर्वोपरि सर्व-कौतुकानि दर्शय-दर्शय, हृदयेच्छित सर्व-इच्छा पूरय-पूरय ॐ स्वाहा। ॐ नमो नारायणी नव-दुर्गेश्वरी। कमला, कमल-शायिनी, कर्ण-स्वर-दायिनी, कर्णेश्वरी, अगम्य-अदृश्य-अगोचर-अकल्प्य-अमोघ-अधारे, सत्य-वादिनी, आकर्षण-मुखी, अवनी-आकर्षिणी, मोहन-मुखी, महि-मोहिनी, वश्य-मुखी, विश्व-वशीकरणी, राज-मुखी, जग-जादूगरणी, सर्व-नर-नारी-मोहन-वश्य-कारिणी, मम करणे अवतर अवतर, नग्न-सत्य कथय-कथय। अतीत अनाम वर्तनम्। मातृ मम नयने दर्शन। ॐ नमो श्रीकर्णेश्वरी देवी सुरा शक्ति-दायिनी। मम सर्वेप्सित-सर्व-कार्य-सिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा। ॐ श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया महा-शक्ति महा-लक्ष्मी महा-देव्यै विच्चे-विच्चे श्रीमहा-देवी महा-लक्ष्मी महा-माया महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ। ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः। ॐ श्री ऐरावत-हस्ति-वाहिन्यै नमः। ॐ श्री कल्प-वृक्ष-फल-भक्षिण्यै नमः। ॐ श्री काम-दुर्गा पयः-पान-कारिण्यै नमः। ॐ श्री नन्दन-वन-विलासिन्यै नमः। ॐ श्री सुर-गंगा-जल-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री मन्दार-सुमन-हार-शोभिन्यै नमः। ॐ श्री देवराज-हंस-लालिन्यै नमः। ॐ श्री अष्ट-दल-कमल-यन्त्र-रुपिण्यै नमः। ॐ श्री वसन्त-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री सुमन-सरोज-निवासिन्यै नमः। ॐ श्री कुसुम-कुञ्ज-भोगिन्यै नमः। ॐ श्री पुष्प-पुञ्ज-वासिन्यै नमः। ॐ श्री रति-रुप-गर्व-गञ्हनायै नमः। ॐ श्री त्रिलोक-पालिन्यै नमः। ॐ श्री स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-भूमि-राज-कर्त्र्यै नमः। श्री लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीदेवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री रसेश्वरी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री ऋद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री सिद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कीर्तिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रीतिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीइन्दिरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कमला-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहिरण्य-वर्णा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरत्न-गर्भा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुवर्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुप्रभा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपङ्कनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीराधिका-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्म-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरमा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलज्जा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीजया-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसरोजिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहस्तिवाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीगरुड़-वाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसिंहासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकमलासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतुष्टिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवृद्धिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपालिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरक्षिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवैष्णवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमानवेष्टाभ्यो नमः। श्रीसुरेष्टाभ्यो नमः। श्रीकुबेराष्टाभ्यो नमः। श्रीत्रिलोकीष्टाभ्यो नमः। श्रीमोक्ष-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीभुक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकल्याण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीनवार्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीअक्षस्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुर-स्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रज्ञावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्मावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशंख-चक्र-गदा-पद्म-धरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमहा-लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मी-नारायण-यन्त्रेभ्यो नमः। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीमहा-माया-महा-देवी-महा-शक्ति-महा-लक्ष्मी-स्वरुपा-श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः। ॐ विष्णु-पत्नीं, क्षमा-देवीं, माध्वीं च माधव-प्रिया। लक्ष्मी-प्रिय-सखीं देवीं, नमाम्यच्युत-वल्लभाम्। ॐ महा-लक्ष्मी च विद्महे विष्णु-पत्नि च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। मम सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा। विधिः- १॰ उक्त सर्व-कामना-सिद्धी स्तोत्र का नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती है। २॰ इस स्तोत्र से ‘यन्त्र-पूजा’ भी होती हैः- ‘सर्वतोभद्र-यन्त्र’ तथा ‘सर्वारिष्ट-निवारक-यन्त्र’ में से किसी भी यन्त्र पर हो सकती है। ‘श्रीहिरण्यमयी’ से लेकर ‘नव-ग्रह-दोष-निवारण’- १४ श्लोक से इष्ट का आवाहन और स्तुति है। बाद में “ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं” सर्व कामना से पुष्प समर्पित कर धऽयान करे और यह भावना रखे कि- ‘मम सर्वेप्सितं सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।’ फिर अनुलोम-विलोम क्रम से मन्त्र का जप करे-”ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया-महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।” स्वेच्छानुसार जप करे। बाद में “ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः” आदि १६ मन्त्रों से यन्त्र में, यदि षोडश-पत्र हो, तो उनके ऊपर, अन्यथा यन्त्र में पूर्वादि-क्रम से पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। तदनन्तर ‘श्रीलक्ष्मी-तम्त्रेभ्यो नमः’ और ‘श्री सर्व-कामना-सिद्धि-महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः’ से अष्टगन्ध या जो सामग्री मिले, उससे ‘यन्त्र’ में पूजा करे। अन्त में ‘लक्ष्मी-गायत्री’ पढ़करपुष्पाजलि देकर विसर्जन करे।................................

श्रीदत्तमालामंत्र अथ दत्तमाला प्रारभ्यते . श्रीगणेशाय नमः ॥ पार्वत्युवाच - मालामंत्रं मम ब्रहि प्रिया यस्मादहं तव ॥ ईश्वर उवाच - श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि मालामंत्रमनुत्तमम ‍ ॥ ॥ मूलपाठ ॥ ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय, स्मरणमात्रसन्तुष्टाय, महाभयनिवारणाय महाज्ञानप्रदाय, चिदानन्दात्मने बालोन्मत्तपिशाचवेषाय, महायोगिने अवधूताय, अनसूयानन्दवर्धनाय अत्रिपुत्राय, सर्वकामप्रदाय ॐ भवबन्धविमोचनाय, आं असाध्यसाधनाय, ऱ्हीं सर्वविभूतिदाय, क्रौं असाध्याकर्षणाय, ऐं वाक्प्रदाय, क्लीं जगत्रयवशीकरणाय, सौः सर्वमनःक्षोभणाय, श्रीं महासंपत्प्रदाय, ग्लौं भूमंडलाधिपत्यप्रदाय, द्रां चिरंजीविने, वषट्वशीकुरु वशीकुरु, वौषट् आकर्षय आकर्षय, हुं विद्वेषय विद्वेषय, फट् उच्चाटय उच्चाटय, ठः ठः स्तंभय स्तंभय, खें खें मारय मारय, नमः संपन्नय संपन्नय, स्वाहा पोषय पोषय, परमन्त्रपरयन्त्रपरतन्त्राणि छिंधि छिंधि, ग्रहान्निवारय निवारय, व्याधीन् विनाशय विनाशय, दुःखं हर हर, दारिद्र्यं विद्रावय विद्रावय, देहं पोषय पोषय, चित्तं तोषय तोषय, सर्वमन्त्रस्वरूपाय, सर्वयन्त्रस्वरूपाय, सर्वतन्त्रस्वरूपाय, सर्वपल्लवस्वरूपाय, ॐ नमो महासिद्धाय स्वाहा || ॥ चतुःशतजपात्सिद्धिः ॥ इति श्रीवड्डोमरेश्वरविरचिता दत्तमाला समाप्ता ॥ *400 बार जाप करनेसे यह मालामंत्र सिद्ध होता है*

1 महाचमत्कारी मंत्र: टल जाती है मौत और गरीब भी हो जाते हैं मालामाल हमारे जीवन की कैसी भी परेशानी हो, कैसी भी बीमारी हो, कैसा भी कार्य हो, शास्त्रों में सभी के लिए चमत्कारी उपाय बताए गए हैं। जानिए महाचमत्कारी उपाय, जिससे मृत्यु को भी टाला जा सकता है, भयंकर बीमारी से भी निजात पाई जा सकती है, कोई दरिद्र भी मालामाल बन सकता है... शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव की इच्छा मात्र से ही इस सृष्टि का रचना हुई है। शिवपुराण में महादेव का एक ऐसा चमत्कारी मंत्र बताया गया है जिसके जपने मात्र से ही मृत्यु के करीब इंसान पुन: स्वस्थ हो सकता है। इस मंत्र से अकाल मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। इसके जप के लिए सभी नियमों और विधि-विधान का पालन किया जाना आवश्यक होता है। शिवपुराण में बताया गया है कि भगवान शिव को प्रसन्न करने का सर्वश्रेष्ठ मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र। इस मंत्र के मात्र जप से ही सभी बीमारियों और कष्टों का निवारण हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के करीब है और इसके नाम से महामृत्युंजय मंत्र का जप कराया जाए तो वह पूर्ण स्वस्थ हो सकता है। ये है महामृत्युंजय मंत्र: ऊँ त्र्यम्बकं यहामहे सुगन्धिं पुष्टिवद्र्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मुत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। यदि कोई व्यक्ति भविष्य में होने वाली किसी विपदा से बचना चाहता है, किसी ज्योतिषीय दोष का उपचार कराना चाहता है, पैसों की तंगी का निवारण करना चाहता है, लंबी आयु जीना चाहता है तो उसे महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए या किसी ब्राह्मण से मंत्र जप करवाना चाहिए।

महामृत्युंजय मंत्र सम्पुट युक्त बनाने के लिए इस प्रकार उच्चारण किया जाता है- ऊँ हौं जूं स: भूर्भव: स्व: ऊँ त्र्यम्बकं यहामहे सुगन्धिं पुष्टिवद्र्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मुत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। ऊँ भूर्भव: स्व स: जूं हौं ऊँ।। इस प्रकार यह मंत्र और अधिक प्रभावशाली हो जाता है।

नागकेसर नागेश्वर को प्रचलित भाषा में ‘नागकेसर’ कहते हैं। काली मिर्च के समान गोल, गेरु के रंग का यह गोल फूल घुण्डीनुमा होता है। पंसारियों की दूकान से आसानी से प्राप्त हो जाने वाली नागकेसर शीतलचीनी (कबाबचीनी) के आकार से मिलता-जुलता फूल होता है। यही यहाँ पर प्रयोजनीय माना गया है। १॰ किसी भी पूर्णिमा के दिन बुध की होरा में गोरोचन तथा नागकेसर खरीद कर ले आइए। बुध की होरा काल में ही कहीं से अशोक के वृक्ष का एक अखण्डित पत्ता तोड़कर लाइए। गोरोचन तथा नागकेसर को दही में घोलकर पत्ते पर एक स्वस्तिक चिह्न बनाएँ। जैसी भी श्रद्धाभाव से पत्ते पर बने स्वस्तिक की पूजा हो सके, करें। एक माह तक देवी-देवताओं को धूपबत्ती दिखलाने के साथ-साथ यह पत्ते को भी दिखाएँ। आगामी पूर्णिमा को बुध की होरा में यह प्रयोग पुनः दोहराएँ। अपने प्रयोग के लिये प्रत्येक पुर्णिमा को एक नया पत्ता तोड़कर लाना आवश्यक है। गोरोचन तथा नागकेसर एक बार ही बाजार से लेकर रख सकते हैं। पुराने पत्ते को प्रयोग के बाद कहीं भी घर से बाहर पवित्र स्थान में छोड़ दें। २॰ किसी शुभ-मुहूर्त्त में नागकेसर लाकर घर में पवित्र स्थान पर रखलें। सोमवार के दिन शिवजी की पूजा करें और प्रतिमा पर चन्दन-पुष्प के साथ नागकेसर भी अर्पित करें। पूजनोपरान्त किसी मिठाई का नैवेद्य शिवजी को अर्पण करने के बाद यथासम्भव मन्त्र का भी जाप करें ‘ॐ नमः शिवाय’। उपवास भी करें। इस प्रकार २१ सोमवारों तक नियमित साधना करें। वैसे नागकेसर तो शिव-प्रतिमा पर नित्य ही अर्पित करें, किन्तु सोमवार को उपवास रखते हुए विशेष रुप से साधना करें। अन्तिम अर्थात् २१वें सोमवार को पूजा के पश्चात् किसी सुहागिनी-सपुत्रा-ब्राह्मणी को निमन्त्रण देकर बुलाऐं और उसे भोजन, वस्त्र, दान-दक्षिणा देकर आदर-पूर्वक विदा करें। इक्कीस सोमवारों तक नागकेसर-तन्त्र द्वारा की गई यह शिवजी की पूजा साधक को दरिद्रता के पाश से मुक्त करके धन-सम्पन्न बना देती है। ३॰ पीत वस्त्र में नागकेसर, हल्दी, सुपारी, एक सिक्का, ताँबे का टुकड़ा, चावल पोटली बना लें। इस पोटली को शिवजी के सम्मुख रखकर, धूप-दीप से पूजन करके सिद्ध कर लें फिर आलमारी, तिजोरी, भण्डार में कहीं भी रख दें। यह धनदायक प्रयोग है। इसके अतिरिक्त “नागकेसर” को प्रत्येक प्रयोग में “ॐ नमः शिवाय” से अभिमन्त्रित करना चाहिए।

क्या आपको लगता है कि किसी ने आपके घर पर टोना-टोटका किया है जिसके कारण आपके परिवार पर इसका अशुभ प्रभाव पड़ रहा है तो घबराईए बिल्कुल मत क्योंकि यहां हम आपको बता रहे हैं टोने-टोटको से बचने के साधारण व अचूक उपाय। इन उपायों को करने से आपके घर व परिवार पर किसी टोने-टोटके का प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह उपाय इस प्रकार हैं- उपाय---- - अपने घर के मुख्य दरवाजे पर भगवान श्रीगणेश की मूर्ति स्थापित करें और सुबह उठकर उन्हें प्रणाम करें। इसके बाद अपने द्वार, देहली व सीढ़ी आदि पर पानी का छिड़काव करें। ऐसा करने से टोने-टोटके का प्रभाव नहीं पड़ता। - नीम, बबूल या आम में से किसी पेड़ की टहनी पत्तियों सहित मुख्य दरवाजे पर लटकाएं। - शनिवार के दिन सात हरी मिर्च के बीच एक नींबू काले धागे में पिरोकर मुख्य द्वार पर लटकाएं। इससे भी बुरी नजर नहीं लगेगी। - सप्ताह के किसी एक दिन घर की साफ-सफाई करने के बाद एक बाल्टी पानी में थोड़ी शक्कर और दूध डालकर कुश से उसका छिड़काव पूरे घर में करें। आखिर में शेष पानी को दरवाजे के दोनों और थोड़ा-थोड़ा डाल दें। - अमावस के दिन एक ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराएं। इससे आपके पितर प्रसन्न होंगे और आपके घर व परिवार को टोने-टोटको के अशुभ प्रभाव से बचाएंगे।

जानिए क्या अंतर है 'टोने' व 'टोटके' में? टोने-टोटके, यह शब्द हम कई बार सुनते हैं। सुनने में यह शब्द थोड़े अजीब जरुर लगते हैं लेकिन यह तंत्र शास्त्र के एक सिक्के के दो पहलू हैं बस इनकी क्रियाओं में थोड़ा अंतर है। साधारण भाषा में कहें तो दैनिक जीवन में किए जाने वाले छोटे-छोटे उपाय टोटका कहलाते हंै जबकि टोने विशेषत: समय पडऩे पर ही प्रयोग में लाए जाते हैं। वह किसी विशेष कार्य सिद्धि के लिए किए जाते हैं। जानते हैं इनके बीच क्या अंतर है- टोटका----- जब हम किसी यात्रा पर जा रहे हो और अचानक कोई छींक दे तो हम थोड़ी देर रुक जाते हैं। ऐसे ही जब बिल्ली रास्ता काट जाती है तो हम थोड़ी देर रुक कर चलते हैं या रास्ता बदल लेते हैं। यात्रा पर किसी विशेष कार्य पर जाने से पहले पानी पीना या दही का सेवन करना, यह सब टोटका कहलाता है। टोटके साधारण प्रभावशाली होते हैं व इनके निराकरण भी साधारण ही होते हैं। टोना----- विशेष कार्य सिद्धि के लिए हनुमान चालीसा, गायत्री मंत्र या किसी अन्य मंत्र का जप विधि-विधान से जप करना टोना कहलाता है। किसी यंत्र अथवा वस्तु को अभिमंत्रित करके अपने पास रखना भी टोना का ही एक रूप है। टोना टोटके का ही जटिल रूप है जो किसी विशेष कार्य की सफलता के लिए पूरे विधि-विधान से किया जाता है। टोना के लिए समय, मुहूर्त, स्थान आदि सब कुछ नियत होता है। जब टोटके करें तो इन बातों का भी ध्यान रखें--- तंत्र शास्त्र में कई प्रकार के टोटके किए जाते हैं। सभी का उद्देश्य अलग-अलग होता है। उद्देश्य के अनुसार ही उन टोटकों को करने के लिए शुभ तिथि व महीना निश्चित है। यदि इस दौरान वह टोटके किए जाए तो कई गुना अधिक फल देते हैं। नीचे टोटकों से संबंधित कुछ साधारण दिशा-निर्देश दिए गए हैं। टोटके करते समय इनका ध्यान रखें- दिशा-निर्देश---- - सम्मोहन सिद्धि, देव कृपा प्राप्ति अथवा अन्य शुभ एवं सात्विक कार्यों की सिद्धि के लिए पूर्व दिशा की ओर मुख करके टोटके किए जाते हैं। - मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किए जाने वाले टोटकों के लिए पश्चिम दिशा की ओर मुख करके बैठना शुभ होता है। - उत्तर दिशा की ओर मुख करके उन टोटकों को किया जाता है जिनका उद्देश्य रोगों की चिकित्सा, मानसिक शांति एवं आरोग्य प्राप्ति होता है। - रोग मुक्ति के लिए किए जाने वाले टोटकों के लिए मंगलवार एवं श्रावण मास उत्तम समय है। - मां सरस्वती की प्रसन्नता व शिक्षा में सफलता के लिए बुधवार एवं गुरुवार तथा माघ, फाल्गुन और चैत्र मास में टोटका करना चाहिए। - संतान और वैभव पाने के लिए गुरुवार तथा आश्विन, कार्तिक एवं मार्गशीर्ष मास में टोटकों का प्रयोग करना चाहिए।

सभी चाहते हैं कि उसके जीवन में खुशहाली रहे और सुख-शांति बनी रहे पर हर व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता। जीवन में सुख और शांति का बना रहना काफी मुश्किल होता है। ऐसे समय में उसे अपना जीवन नरक लगने लगता है। यदि आपके साथ भी यही समस्या है तो आप नीचे लिखे साधारण उपायों को अपनाकर अपने जीवन को खुशहाल बना सकते हैं। यह उपाय इस प्रकार हैं- - सुबह घर से काम के लिए निकलने से पहले नियमित रूप से गाय को रोटी दें। - एक पात्र में जल लेकर उसमें कुंकुम डालकर बरगद के वृक्ष पर नियमित रूप से चढ़ाएं। - सुबह घर से निकलने से पहले घर के सभी सदस्य अपने माथे पर चन्दन तिलक लगाएं। - मछलियों की आटे की गोली बनाकर खिलाएं। - चींटियों को खोपरे व शकर का बूरा मिलाकर खिलाएं। - शुद्ध कस्तूरी को चमकीले पीले कपड़े में लपेटकर अपनी तिजोरी में रखें। इन उपायों को पूर्ण श्रद्धा के साथ करने से जीवन में समृद्धी व खुशहाली आने लगती है।

सर्वविघ्नहरण मंत्र ऊँ नम: शान्ते प्रशान्ते ऊँ ह्यीं ह्रां सर्व क्रोध प्रशमनी स्वाहा। इस मंत्र को नियमपूर्वक प्रतिदिन प्रात:काल इक्कीस बार स्मरण करने के पश्चात मुख प्रक्षालन करने से तथा सायंकाल में पीपल के वृक्ष की जड़ में शर्बत चढ़ाकर धूप दीप देने से घर के सभी लोग शांतमय निर्विघ्न जीवन व्यतीत करते हैं। इसका इतना प्रभाव होता है कि पालतू जानवर भी बाधा रहित जीवन व्यतीत करता है।

हर मनुष्य की कुछ मनोकामनाएं होती है। कुछ लोग इन मनोकामनाओं को बता देते हैं तो कुछ नहीं बताते। चाहते सभी हैं कि किसी भी तरह उनकी मनोकामना पूरी हो जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। यदि आप चाहते हैं कि आपकी सोची हर मुराद पूरी हो जाए तो नीचे लिखे प्रयोग करें। इन टोटकों को करने से आपकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगी। उपाय---- - तुलसी के पौधे को प्रतिदिन जल चढ़ाएं तथा गाय के घी का दीपक लगाएं। - रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्रीगणेश की प्रतिमा बनाएं फिर उन्हें खीर का भोग लगाएं। लाल कनेर के फूल तथा चंदन आदि के उनकी पूजा करें। तत्पश्चात गणेशजी के बीज मंत्र (ऊँ गं) के अंत में नम: शब्द जोड़कर 108 बार जप करें। - सुबह गौरी-शंकर रुद्राक्ष शिवजी के मंदिर में चढ़ाएं। - सुबह बेल पत्र (बिल्ब) पर सफेद चंदन की बिंदी लगाकर मनोरथ बोलकर शिवलिंग पर अर्पित करें। - बड़ के पत्ते पर मनोकामना लिखकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोरथ पूर्ति होती है। मनोकामना किसी भी भाषा में लिख सकते हैं। - नए सूती लाल कपड़े में जटावाला नारियल बांधकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। इन प्रयोगों को करने से आपकी सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूरी हो जाएंगी।

ऋण – मुक्ति - मन्त्र आज के युग में जब सभी व्यक्ति भोग – विलास और ऐश्वर्ये के पीछे भाग रहे हैं तो उस ऐश्वेर्ये के लिए पैसे चाहिए और पैसे या कर्ज बैंक दे देता है। परन्तु वह ऋण चुकाना व्यक्ति के लिए हिमालय से भी बड़ा हो जाता है और ऋण है की सुरसा के मुख की तरह बड़ता ही चला जाता है यदि आप ऋण से परेशान हैं तो यह भैरव मंत्र कीजिये और अपने ऋण से मुक्त हो जाइये। विधि :- शुक्ल पक्ष के रविवार को जब पुष्य या हस्त नक्षत्र हो उस दिन से भैरव मन्त्र का जाप प्रारभं करें और प्रतिदिन १२ माला जो १०८ मनकों की हो २१ दिन तक लगातार करें। स्मरण रहे माला जिस समय पर शुरू करें प्रतिदिन उसी समय पर करे नहीं तो फल की प्राप्ति नहीं होती है किसी भी प्रकार की अशुद्धि नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक रविवार और मंगलवार को छोटी-२ कन्याओं को मीठा भोजन कराये। अति -शीघ्र ऋण से मुक्ति मिलेगी और व्यापार में भी वृद्धि होगी। मंत्र – ” ॐ ऐं क्लीं ह्रीं भम भैरवाय मम ऋणविमोचनाय मह्यं महाधनप्रदाय क्लीं स्वाहा ।

विदेश यात्रा में सहायक अखंड लक्ष्मी साधना --- अखंड लक्ष्मी साधना प्रयोग हर प्रकार की सफलता, उन्नति, भाग्योदय एवं विशेष रूप से विदेश यात्रा जैसी मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। यूँ तो इस साधना को नवरात्रि के आरंभ से दीपावली तक किया जाता है लेकिन प्रस्तुत प्रयोग मात्र तीन दिन का है। विधि : ---- इसे किसी भी बुधवार को प्रारंभ करें। प्रा‍त:काल स्नानादि से शुद्ध होकर पूर्व दिशा में किसी पात्र में अखंड लक्ष्मी यंत्र रख दें। यंत्र की भी जल-दूध से शुद्धि करें। उस पर केसर का तिलक करें। तत्पश्चात् स्फटिक की माला से निम्न मंत्र का जाप करें। इस मंत्र की प्रतिदिन 11 मालाएँ जपना अनिवार्य है। तीन दिन तक 11 मालाएँ फेरने से मंत्र और यंत्र दोनों सिद्ध हो जाएँगे। इस यंत्र को किसी स्वच्छ स्थान पर या तिजोरी में रखें। मंत्र : ओम् ह्रीं अष्ट लक्ष्म्यै नम:।।

निम मंत्र भी आर्थिक उन्नति के लिए अनुकूल है, परन्तु इस मंत्र में साधक को नित्य एक माला फेरनी आवश्यक है और मात्र ग्यारह दिन में ही यह मंत्र सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्रीय गं्रथों में इस मंत्र की विशेष प्र्रशंसा की गई है और कहा गया है कि लक्ष्मी जी के जितने भी मंत्र हैं उन सबमें इस मंत्र को श्रेष्ठ और अद्भुत तथा सफलतादायक बताया गया है। इस मंत्र का जप करने से पूर्व सामने थाली में चावल के ढेरी बनाकर उस पर कनकधारा यंत्र स्थापित करना चाहिए। यह यंत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है और इस यंत्र से यह यंत्र ज्यादा संबंध रखता है, अत: इस यंत्र के सामने ही मंत्र का प्रयोग करने पर सफलता मिलती है। यह कनकधारा यंत्र धातु निर्मित मंत्रसिद्ध प्राण-प्रतिष्ठा युक्त होना चाहिए और अनुष्ठान करने से पूर्व ही इसे प्राप्त कर घर में स्थापित कर लेना चाहिए, स्थापित करने के लिए किसी विशेष विधि-विधान की आवश्यकता नहीं होती। प्रयोग समाप्त होने पर माला को नदी में प्रवाहित कर दें। ओं श्रीं ह्वीं क्लीं श्रीं लक्ष्मीरागच्छागच्छ मम मन्दिरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ।। यह 22 अक्षरों का मंत्र लक्ष्मी का अत्यंत प्रिय मंत्र है और लक्ष्मी ने स्वयं ब्रrार्षि वशिष्ठ को यह बताया था और कहा था, कि यह मंत्र मुझे सभी दृष्टियों से प्रिय है और जो इस मंत्र का एक बार भी उच्चाारण कर लेता है, मैं उसके घर में स्थापित हो जाती हूँ।

मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी, बल्कि आपका स्वास्थ्य भी अच्छाी रहेगा। 1-वाचिक जप वाणी द्वारा सस्वर मंत्र का उच्चारण करना वाचिक जप की श्रेणी में आता है। 2- उपांशु जप- अपने इष्ट भगवान के ध्यान में मन लगाकर, जुबान और ओंठों को कुछ कम्पित करते हुए, इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करें कि केवल स्वंय को ही सुनाई पड़े। ऐसे मंत्रोचारण को उपांशु जप कहते है। 3- मानसिक जप- इस जप में किसी भी प्रकार के नियम की बाध्यता नहीं होती है। सोते समय, चलते समय, यात्रा में एंव शौच आदि करते वक्त भी ’ मंत्र’ जप का अभ्यास किया जाता है। मानसिक जप सभी दिशाओं एंव दशाओं में करने का प्रावधान है। इन नियमों का भी पालन करें 1- शरीर की शुद्धि आवश्यक है। अतः स्नान करके ही आसन ग्रहण करना चाहिए। साधना करने के लिए सफेद कपड़ों का प्रयोग करना सर्वथा उचित रहता है। 2- साधना के लिए कुश के आसन पर बैठना चाहिए क्योंकि कुश उष्मा का सुचालक होता है। और जिससे मंत्रोचार से उत्पन्न उर्जा हमारे शरीर में समाहित होती है। 3- मेरूदण्ड हमेशा सीधा रखना चाहिए, ताकि सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह आसानी से हो सके। 4- साधारण जप में तुलसी की माला का प्रयोग करना चाहिए। कार्य सिद्ध की कामना में चन्दन या रूद्राक्ष की माला प्रयोग हितकर रहता है। 5- ब्रह्रममुहूर्त में उठकर ही साधना करना चाहिए क्योंकि प्रातः काल का समय शुद्ध वायु से परिपूर्ण होता है। साधना नियमित और निश्चित समय पर ही की जानी चाहिए। 6- अक्षत, अंगुलियों के पर्व, पुष्प आदि से मंत्र जप की संख्या नहीं गिननी चाहिए। 7- मंत्र शक्ति का अनुभव करने के लिए कम से कम एक माला नित्य जाप करना चाहिए। 8- मंत्र का जप प्रातः काल पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए एंव सांयकाल में पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करना श्रेष्ठ माना गया है। सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

कौन सा यन्त्र किसके लिये प्रत्येक यन्त्र व्यक्ति के लिए उपयोगी एवं लाभदायक नहीं होते हैं। 1. कुबेर यन्त्र उन व्यक्तियों को कदापि धारण नहीं करना चाहिए। जिसका जन्म धनिष्ठा, अश्लेषा, अश्विनी एवं विशाखा नक्षत्र में हुआ हो तथा जिसके दाहिने हाथ की मध्यमा उंगली में अर्ध चाप बना हो। 2. लक्ष्मी यन्त्र रेवती, मूल, चित्रा, अनुराधा एवं शतभिषा इन पांच नक्षत्र वालों के लिए ही है। जिनके दाहिने हाथ की मध्यमा ऊँगली में चक्र रेखा पड़ी हो. ज्येष्ठा, मघा, हस्त एवं उत्तराषाढ़ा नक्षत्र वालो को कदापि यह यन्त्र धारण नहीं करना चाहिए. हानि एवं कष्ट होगा। 3. शाबर यन्त्र पूर्वाषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद, स्वाति, श्रवण एवं भरणी नक्षत्र वाले व्यक्ति तथा जिसके दाहिने हाथ की किसी भी ऊँगली में गदा का निशान हो उन्हें नहीं धारण करना चाहिए। इनके लिए वैतालिक यन्त्र ही लाभ प्रद होगा। 4. कात्यायनी यन्त्र कृतिका, रोहिणी, मृग शिरा, एवं आर्द्रा नक्षत्र वाले तथा जिनके दाहिने हाथ की किसी भी ऊँगली में चक्र का निशान पडा हो वह धारण नहीं कर सकता। उनके लिए इस यन्त्र के स्थान पर भद्र यन्त्र उपयोगी होता है। 5. विचूलिका यन्त्र केवल रोहिणी, पुनर्वसु, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरभाद्र पद एवं जिनके दाहिने हाथ की किसी भी ऊँगली में शंख का निशान पडा हो वह धारण कर सकता है। इससे उन्हें बहुत ही लाभ होता है। 6. जिस व्यक्ति के दाहिने हाथ की एक उंगली में चक्र तथा दूसरी किसी भी ऊँगली में रेखाएं कटी हो उन्हें कोई भी यन्त्र धारण नहीं करना चाहिए. विशेष रूप से आर्द्रा, विशाखा, ज्येष्ठा एवं पुष्य नक्षत्र वाले व्यक्तियों को तो बिल्कुल ही नहीं धारण करना चाहिए। सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

यदि किसी को अपने आस-पास सर्पों का भय हो, तो इस प्रयोगों में से किसी एक अथवा सभी का उपयोग कर उक्त भय से मुक्त हो सकते हैं । *** निम्न मन्त्र का पाठ करें - “नर्मदायै नमो प्रातः, नर्मदायै नमो निशि । नमोऽस्तु ते नर्मदे ! तुभ्यं, त्राहि मां विष-सर्पतः ।। सर्पाय सर्प-भद्रं ते, दूरं गच्छ महा-विषम् । जनमेजय-यज्ञान्ते, आस्तिक्यं वन्दनं स्मर ।। आस्तिक्य-वचनं स्मृत्वा, यः सर्पो न निवर्तते । भिद्यते सप्तधा मूर्घ्नि, शिंश-वृक्ष-फलं यथा ।। यो जरुत्कारुण यातो, जरुत्-कन्या महा-यशाः । तस्य सर्पश्च भद्रं ते, दूरं गच्छ महा-विषम् ।। दोहाई राजा जनमेजय ! दोहाई आस्तीक मुनि की ! दोहाई जरुत्कार की ! ।” *** नीली सरसों हाथ में लेकर सरसों पर फूँक मारकर ३ बार हथेली पर ताली बजावे । ऐसे ही क्रिया करते हुए ७ बार सरसों घर में बिखेर दें ।

योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा? इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।

सात्विक रू प से करें तंत्र साधना तंत्र की अधिष्ठात्री देवी मां दुर्गा तीनों रूपों में- महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती रू प में वांछित परिणाम देती हैं। तंत्र की उत्पत्ति हमारे वेदों से हुई है- ऋग्वेद से शक्ति तंत्र, सामवेद से वैष्णव तंत्र व यजुर्वेद से शैव तंत्र। इन तीनों अंगों का कालांतर में [तीन अंग- सात्विक, राजसी व तामसिक] अलग-अलग रू पों में प्रादुर्भाव हुआ। कुल 64 प्रकार के तंत्र प्रचलन में आए हैं। इनकी अधिष्ठात्री देवियों को योगिनी के नाम से जाना गया है। शक्तिपीठ का आशय है- वह स्थल जहां पर शक्ति का निवास हो। इसलिए तंत्र साधना के लिए शक्तिपीठों से अच्छी जगह कोई हो ही नहीं सकती है। तंत्र शक्ति की साधना भी मूलत: तीन प्रकार से की जा सकती है- यंत्र साधना, प्रतिमा साधना व बीजाक्षरों के माघ्यम से मंत्र साधना, परंतु इन तीनों ही प्रकार के मूल अक्षर हैं- "ऎं ह्रीं क्लीं" ये तीन अक्षर तंत्र साधना की मेरू के समान हैं। तंत्र साधना एवं तांत्रिकों के बारे में छवि अच्छी नहीं मानी जाती है। इसका प्रमुख कारण है- तंत्र का मूलधर्म। इसके अनुसार तांत्रिकों को पांच "मकारों" का पालन करना होता है, जो हैं- मदिरा, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन का प्रयोग। ये तांत्रिक के लिए आवश्यक है अन्यथा साधना में वह सफल नहीं हो पाता है। वास्तव में ये भ्रांतियां इनके शाब्दिक अर्थों को लेकर हैं, जबकि पांच मकार के उपयोग-निर्देश शास्त्रों द्वारा दिए गए हैं। शास्त्र कभी भी अमर्यादित आचरण की शिक्षा या निर्देश नहीं देते हैं। सात्विक तंत्र साधना के लिए इसके गूढ़ार्थ को समझना होगा जो निम्नानुसार हैं- मद्य से आशय सहस्त्रार को जाग्रत कर उससे स्त्रावित होने वाले रसायन का शरीर में संचार जिसे आम भाषा में सोमरस कहते हैं। मस्तिष्क में स्थित सहस्त्रार को सर्वप्रथम साधक को जाग्रत करना होगा। शरीर में मांस जिह्वा या जीभ को कहते हैं। वाणी पर नियंत्रण व वाणी साधना ही मांस का भक्षण है।

तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई। कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं! परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ! “मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां” जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं, भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया, उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं! परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं! जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं, तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं, तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में सम्पन्नता देनी हैं, और देनी ही पड़ेगी! पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते ही हैं, उन्हें वरदान देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार, न्यास सभी कुछ लगभग एक जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण होता हैं! जीवन की किसी भी विपरीत स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं. आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं! जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना। तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है। श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है । चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी। परस्पर आश्रित या आपस में संक्रिया करने वाली चीजों का समूह, जो मिलकर सम्पूर्ण बनती हैं, निकाय, तंत्र, प्रणाली या सिस्टम (System) कहलातीं हैं। कार है और चलाने का मन्त्र भी आता है, यानी शुद्ध आधुनिक भाषा मे ड्राइविन्ग भी आती है, रास्ते मे जाकर कार किसी आन्तरिक खराबी के कारण खराब होकर खडी हो जाती है, अब उसके अन्दर का तन्त्र नही आता है, यानी कि किस कारण से वह खराब हुई है और क्या खराब हुआ है, तो यन्त्र यानी कार और मन्त्र यानी ड्राइविन्ग दोनो ही बेकार हो गये, किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और समय का अन्दरूनी ज्ञान रखने वाले को तान्त्रिक कहा जाता है, तो तन्त्र का पूरा अर्थ इन्जीनियर या मैकेनिक से लिया जा सकता है जो कि भौतिक वस्तुओं का और उनके अन्दर की जानकारी रखता है, शरीर और शरीर के अन्दर की जानकारी रखने वाले को डाक्टर कहा जाता है, और जो पराशक्तियों की अन्दर की और बाहर की जानकारी रखता है, वह ज्योतिषी या ब्रह्मज्ञानी कहलाता है, जिस प्रकार से बिजली का जानकार लाख कोशिश करने पर भी तार के अन्दर की बिजली को नही दिखा सकता, केवल अपने विषेष यन्त्रों की सहायता से उसकी नाप या प्रयोग की विधि दे सकता है, उसी तरह से ब्रह्मज्ञान की जानकारी केवल महसूस करवाकर ही दी जा सकती है, जो वस्तु जितने कम समय के प्रति अपनी जीवन क्रिया को रखती है वह उतनी ही अच्छी तरह से दिखाई देती है और अपना प्रभाव जरूर कम समय के लिये देती है मगर लोग कहने लगते है, कि वे उसे जानते है, जैसे कम वोल्टेज पर वल्व धीमी रोशनी देगा, मगर अधिक समय तक चलेगा, और जो वल्व अधिक रोशनी अधिक वोल्टेज की वजह से देगा तो उसका चलने का समय भी कम होगा, उसी तरह से जो क्रिया दिन और रात के गुजरने के बाद चौबीस घंटे में मिलती है वह साक्षात समझ मे आती है कि कल ठंड थी और आज गर्मी है, मगर मनुष्य की औसत उम्र अगर साठ साल की है तो जो जीवन का दिन और रात होगी वह उसी अनुपात में लम्बी होगी, और उसी क्रिया से समझ में आयेगा.जितना लम्बा समय होगा उतना लम्बा ही कारण होगा, अधिकतर जीवन के खेल बहुत लोग समझ नही पाते, मगर जो रोजाना विभिन्न कारणों के प्रति अपनी जानकारी रखते है वे तुरत फ़ुरत में अपनी सटीक राय दे देते है.यही तन्त्र और और तान्त्रिक का रूप कहलाता है.

क्या है तंत्र, मंत्र, यन्त्र,तांत्रिक, और तंत्र साधना... यह पोस्ट मैं उन सभी लोगों के लिए लिख रहा हूँ जो तंत्र साधना ,तांत्रिक तथा वाम मार्गी के बारे में जानना चाहते है। यह पोस्ट उन लोगों के लिए भी है जिनके मन में तंत्र से जुडे कुछ संदेह हैं। तथा यह उन लोगों के लिए भी हैं जो हमारे हिंदू संस्कृति की सही खोज में लगे हैं। यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ। पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं। योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा? इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है। मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है। तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं। यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि। यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है। इसलिए एक सफल तांत्रिक साधक को मंत्र, तंत्र और यन्त्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। विज्ञानं के प्रयोगों जैसे ही यदि तीनो में से किसी की भी मात्रा या प्रकार ग़लत हुई तो सफलता नही मिलेगी।

माँ दुर्गा का महामंत्र :- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा यह महामंत्र देवताओं को भी दुर्लभ नहीं है , इस मंत्र का नित्य पाठ करने से माँ भगवती जगदम्बा की कृपा बनी रहती है जाप विधि- नवरात्रि के दिनों में संकल्प लेकर प्रातः स्नान करके दुर्गा की मूर्ति के आगे या किसी मंदिर में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुह कर के इन मन्त्रों का जाप करे माँ की कृपा जरुर प्राप्त होगी ।

अथ मूर्तिरहस्यम् ऋषिरुवाच ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा। स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1॥ कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा। देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2॥ कमलाङ्कुशपाशाब्जैरलंकृतचतुर्भुजा। इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3॥ या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ। तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4॥ रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा। रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5॥ रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका। पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6॥ वसुधेव विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी। दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥ कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी। भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥ खड्गं पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च बिभर्ति सा। आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥ अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्। इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥ (भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।) अधीते य इमं नित्यं रक्त दन्त्या वपु:स्तवम्। तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥ शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना। गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥12॥ सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी। मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया॥13॥ पुष्पपल्लवमूलादिफलाढयं शाकसञ्चयम्। काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम्॥14॥ कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी। शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता॥15॥ विशोका दुष्टदमनी शमनी दुरितापदाम्। उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती॥16॥ शाकम्भरीं स्तुवन् ध्यायञ्जपन् सम्पूजयन्नमन्। अक्षय्यमश्रुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥17॥ भीमापि नीलवर्णा सा दंष्ट्रादशनभासुरा। विशाललोचना नारी वृत्तपीनपयोधरा॥18॥ चन्द्रहासं च डमरुं शिर: पात्रं च बिभ्रती। एकावीरा कालरात्रि: सैवोक्ता कामदा स्तुता॥19॥ तजोमण्डलुदुर्धर्षा भ्रामरी चित्रकान्तिभृत्। चित्रानुलेपना देवी चित्राभरणभूषिता॥20॥ चित्रभ्रमरपाणि: सा महामारीति गीयते। इत्येता मूर्तयो देव्या या: ख्याता वसुधाधिप॥21॥ जगन्मातुश्चण्डिकाया: कीर्तिता: कामधेनव:। इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्‍‌वया॥22॥ व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनामभीष्टफलदायकम्। तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23॥ सप्तजन्मार्जितैर्घोरै‌र्ब्रह्महत्यासमैरपि। पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24॥ देव्या ध्यानं मया ख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं महत्। तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25॥ (एतस्यास्त्वं प्रसादेन सर्वमान्यो भविष्यसि। सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्। अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।)

अथ वैकृतिकं रहस्यम् ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता। सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥ योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा। मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥ दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा। विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥ स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप। रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥ खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्। परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥ एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया। आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥ सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा। त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥ श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला। रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥ सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा। चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥ अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती। आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥ अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा। चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥ शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:। अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥ सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप। पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥ गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया। साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥ दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्। शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥ एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति। निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥ इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव। उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥ महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती। दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥ विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे। वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥ अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना। दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥ अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप। दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥ कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये। यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥ नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ। नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥ अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:। अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥ महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती। ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥ महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:। पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥ अघ्र्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:। धू पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥ रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप। (बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥ तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।) प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥ सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:। वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥ पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया। दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥ वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्। कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥ तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:। एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥ चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्। प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥ क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:। प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥ जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:। भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥ प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि। सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥ एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्। भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥ यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्। भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥ तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्। यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥38॥

सरल तंत्र साधना .. आपकेलिए ही .. मंत्रो का एक अपना ही संसार हैं ऐसे ऐसे मंत्र आपको प्राप्त हो सकते हैं .. की आप को विश्वास भी नहीं होगा की यह भी संभव है या इन कार्यों के लिए भी मन्त्र दिए हुए हैं . मंत्र पर विश्वास अविश्वास की बात नहीं .. बल्कि उन्हें परखने का भाव होना चहिये और फिर अगर कुछ कमी पाई जाती हैं उनके परिणाम की ...... तो उन कारणों पर विचार किसी योग्य से करे ...... न की पूरे मंत्र या साधना क्षेत्र को ही एक आप अपना प्रमाण पत्र जारी कर दे .. सूर्य की तेजस्विता से कोन नहीं वाकिफ होगा . प्रत्यक्ष देव जो हमारे सामने हैं उनकी प्रखरता को किसी के प्रमाण की जरुरत नहीं हैं .अगर वह प्रखरता आपके व्यक्तिव्य में आ जाये तो ... फिर क्या बात हैं.. जब भी किसी से बात चित करने जाना हो तो इस मंत्र का १०८ बार उच्चारण करके जाए . अप पाएंगे सामने वाला आपकी बातों के प्रति अब और ज्यादा सहयोगी रुख अपनाएगा .. और आप कहीं ज्यादा सफलता का अनुभव करेंगे ..बस कोई और विधान नहीं हैं. मंत्र जप ही पर्याप्त हैं .. मंत्र : ॐ धं काली काली स्वाहा

श्री बटुक भैरव अपराध क्षमा पन स्तोत्र ॐ गुरोः सेवा व्याकत्वा गुरुबचन शकतोपि न भवे भवत्पुजा – ध्यानाज्ज्प हवन –यागा दिरहित : ! त्व्दर्चा- निर्माणे क्वचिदपि न यत्नं च कृतवान , जग ज्जाल-ग्रस्तों झटितिकुरु हादर मायि विभो !! 1 !! प्रभु दुर्गा सुनो ! तव शरणतां सोयधिगतवान , कृपालों ! दुखार्त: कमपि भवदन्नयं प्रकथये ! सुहृत ! सम्पतेयहं सरल –विरल साधक जन , स्तवदन्य: क्स्त्राता भव-दहन –दाहं शमयति !!2!! वदान्यों मन्यसत्वं विविध जनपालों वभसि वै , दयालुर्दी नर्तान भवजलधिपारम गमयसि ! अतस्त्वतो याचे नति- नियमतोयकिञ्च्नधन , सदा भूयात भावः पदनलिनयोस्ते तिमिरहा !!3!! अजापूर्वो विप्रो मिलपदपरो योयतिपतितो , महामूर्खों दुष्टो वृजननिरत: पामरनृप: ! असत्पाना सक्त्तो यवन युवती व्रातरमण, प्रभा वातत्वन्नान्म: परमपदवी सोप्याधिगत !!4!! द्यां दीर्घाम दीने बटुक ! कुरु विश्वम्भर मयी, न चन्यस्संत्राता परम शिव मां पलाया विभो ! महाशचर्याम प्राप्तस्त्व सरलदृष्टच्या विरहित: , कृपापूर्णेनेत्रे: कजदल निर्भेमा खचयतात !!5!! सहस्ये किं हंसो नहि तपति दीनं जनचयम, घनान्ते किं चंर्दोंयसमकर- निपातो भुवितले! कृपादृष्टे स्तेहं भयहर भिवों किं विरहितों, जले वा हमर्ये वा घनरस- निपातो न विषम!!6!! त्रिमूर्तित्वं गीतों हरिहर- विधात्मकगुणो ! निराकारा: शुद्ध: परतरपर: सोयप्यविषय: , द्या रूपं शान्तम मुनिगननुतं भक्तदायितं !!7!! तपोयोगं संख्यम यम-नियम –चेत: प्रयजनं, न कौलाचर्चा-चक्रम हरिहरविधिनां प्रियतरम! न जाने ते भक्तिम परममुनिमार्गाम मधु विधि, तथाप्येषा वाणी परिरटति नित्यं तव यश :!!8!! न मे कांक्षा धर्मे न वसुनिच्ये राज्य निवहे: , न मे स्त्रीणा भोगे सखि-सुत-कटुम्बेषु न च मे! यदा यद्द्द भाव्यं भवतु भगवन पूर्वसकृतान , ममैत्तू प्रथर्यम तव विमल- भक्ति: प्रभवतात!!9!! कियांस्तेस्मदभार: पतित पतिता स्तारयासि भो, मद्न्य: क: पापी ययन बिमुख पाठ रहित :! दृढ़ो मे विश्वासस्तव नियति रुद्धार विषय:, सदा स्याद विश्र्म्भ: कवचिदपि मृषा माँ च भवतात!!10!! भवदभावादभिन्नो व्यसन- निरत: को मदपरो , मदान्ध: पाप आत्मा बटुक !शिव ! ते नाम रहित ! उदरात्मन बन्धो नहि तवकतुल्य: कालुपहा , पुनः संचिन्त्यैवं कुरु हृदि यथेच्छसि तथा !!11!! जपान्ते स्नानांते हमुषसि च निशिथे जपति यो , महा सौख्यं देवी वितरति नु तस्मै प्रमुदित:! अहोरात्रम पाशर्वे परिवसति भकतानु गमनों , वयोन्ते संहृष्ट: परिनियति भकतानस्व भुवनम !!12!!

सप्तसती रहस्य के सन्दर्भ में कुछ बाते .......... आज भी भारतीयमानस में कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जो घर घर में उपस्थित हैं और वे धार्मिक तो हैं पर अपने आप में एक पूरी परंपरा को भी हमारे सामने रखते हैं की कैसे थे हमारे पूर्वज .. या हमारा समाज किन किन उच्च आदर्शो से भरा रहा हैं. और इन ग्रंथो में राम चरितमानस और महाभारत और बाल्मीकि कृत रामायण का स्थान अपने आप में बहुत उच्च हैं. और यह तो उस काल की गाथा हमारे सामने रखते हैं , पर इनके साथ एक साधनात्मक ग्रन्थ भी ऐसा हैं जो घर घर में प्रशंशित हैं यह अलग बात हैं की वह घर घर में न हो . पर उसकी उच्चता को लेकर शायद ही कोई संदेह हो उस ग्रन्थ का नाम हैं “दुर्गा सप्तसती” या जिसे चंडी पाठ के नाम से भी संबोधित किया जाता हैं. आज भी यह ग्रन्थ अपने लगभग मूल स्वरुप में ही उपलब्ध हैं , और लाखो लोग रोजाना इसका पाठ करते हैं , पर क्या यह सिर्फ पाठ करने का ग्रन्थ हैं .. इसका उत्तर हाँ भी हैं और नहीं भी . इसमें कोई दो तर्क नहीं हं की इस ग्रन्थ का निर्माण हजारो तान्त्रिको उच्च मनस्वियो और प्रकांड तंत्र ज्ञाताओ का परिणाम हैं क्योंकि जितनी उच्च रहस्यमयता . उच्च ज्ञान इसमें समाहित हैं वह भला इतना आसान तो नहीं . और इस ग्रन्थ के सभी ७०० श्लोक अपने आप में अद्भुत हैं , एक और जहाँ भगवद गीता में ७०० श्लोक हैं वहीँ इस ग्रन्थ में ७०० श्लोको का होना कुछ एक अद्भुत साम्य का प्रतीक हैं . महाकाली , कुछ तंत्र ग्रंथो के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की बहिन मानी जाती हैं . और क्या इस तरह से इसे नहीं देखा जा सकता की एक भाई के उच्च ज्ञान का प्रतीक हैं तो दूसरा बहिन की उच्च ज्ञान से सम्बंधित ग्रन्थ हैं . अब चूँकि इसके सभी श्लोक अपनेआप में मंत्रमय हैं तो कोई भी श्लोक जो आप अपनी क्षमतानुसार चुनते हैं वह आपको लाभ देगा ही??? . इस प्रशन पर भी थोडा सा विचार कर ले . ऐसा सही तो लगता हैं पर हैं नहीं ... मंत्रो का मनमाना उपयोग कभी कभी भयंकर समस्याए ला सकता हैं और अनेको ऐसे उदहारण भी हैं . तंत्र साहित्य इस बात के लिए बारम्बार सचेत करता हैं की आपने आप कोई भी मंत्र का चुनाव न करे . क्योंकि साधक जब तंत्र ग्रंथो का अध्ययन करता हैं तो पाता हैं की वहां तो मंत्रो का वर्गीकरण भी आया हैं जैसे की सिद्ध मंत्र , अरि मंत्र (शत्रु मंत्र ) असिद्ध मन्त्र , इस तरह के अनेको वर्गीकरण पर

श्री बटुक-बलि-मन्त्रः- घर के बाहर दरवाजे के बायीं ओर दो लौंग तथा गुड़ की डली रखें । निम्न तीनों में से किसी एक मन्त्र का उच्चारण करें - १॰ “ॐ ॐ ॐ एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारण-बटुक-भैरव-नाथ, सर्व-विघ्नान् नाशय नाशय, इमं स्तोत्र-पाठ-पूजनं सफलं कुरु कुरु सर्वोपचार-सहितं बलि मिमं गृह्ण गृह्ण स्वाहा, एष बलिर्वं बटुक-भैरवाय नमः।” २॰ “ॐ ह्रीं वं एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारक-बटुक-भैरव-नाथ कपिल-जटा-भारभासुर ज्वलत्पिंगल-नेत्र सर्व-कार्य-साधक मद्-दत्तमिमं यथोपनीतं बलिं गृह्ण् मम् कर्माणि साधय साधय सर्वमनोरथान् पूरय पूरय सर्वशत्रून् संहारय ते नमः वं ह्रीं ॐ ।।” ३॰ “ॐ बलि-दानेन सन्तुष्टो, बटुकः सर्व-सिद्धिदः। रक्षां करोतु मे नित्यं, भूत-वेताल-सेवितः।।

रोग बाधा निवारण साधना.(पाताल क्रिया) यह साधना पाताल क्रिया से सम्बंधित है,इस साधना कि कई अनुभूतिया है,और साधना भि एक दिन कि है.कई येसे रोग या बीमारिया है जिनका निवारण नहीं हो पाता ,और दवाईया भि काम नहीं करती ,येसे समय मे यह प्रयोग अति आवश्यक है.यह प्रयोग आज तक अपनी कसौटी पर हमेशा से ही खरा उतरा है . प्रयोग सामग्री :- एक मट्टी कि कुल्हड़ (मटका) छोटासा,सरसों का तेल ,काले तिल,सिंदूर,काला कपडा . प्रयोग विधि :- शनिवार के दिन श्याम को ४ या ४:३० बजे स्नान करके साधना मे प्रयुक्त हो जाये,सामने गुरुचित्र हो ,गुरुपूजन संपन्न कीजिये और गुरुमंत्र कि कम से कम ५ माला अनिवार्य है.गुरूजी के समक्ष अपनी रोग बाधा कि मुक्ति कि लिए प्रार्थना कीजिये.मट्टी कि कुल्हड़ मे सरसों कि तेल को भर दीजिये,उसी तेल मे ८ काले तिल डाल दीजिये.और काले कपडे से कुल्हड़ कि मुह को बंद कर दीजिये.अब ३६ अक्षर वाली बगलामुखी मंत्र कि १ माला जाप कीजिये.और कुल्हड़ के उप्पर थोडा सा सिंदूर डाल दीजिये.और माँ बगलामुखी से भि रोग बाधा मुक्ति कि प्रार्थना कीजिये.और एक माला बगलामुखी रोग बाधा मुक्ति मंत्र कीजिये. मंत्र :- || ओम ह्लीम् श्रीं ह्लीम् रोग बाधा नाशय नाशय फट || मंत्र जाप समाप्ति के बाद कुल्हड़ को जमींन गाड दीजिये,गड्डा प्रयोग से पहिले ही खोद के रख दीजिये.और ये प्रयोग किसी और के लिए कर रहे है तो उस बीमार व्यक्ति से कुल्हड़ को स्पर्श करवाते हुये कुल्हड़ को जमींन मे गाड दीजिये.और प्रार्थना भि बीमार व्यक्ति के लिए ही करनी है.चाहे व्यक्ति कोमा मे भि क्यों न हो ७ घंटे के अंदर ही उसे राहत मिलनी शुरू हो जाती है.कुछ परिस्थितियों मे एक शनिवार मे अनुभूतिया कम हो तो यह प्रयोग आगे भि किसी शनिवार कर सकते है

नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ :- नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - १॰ सत्यनाथ पंथ - इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है । २॰ धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या २५ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं । ३॰ राम पंथ - इनकी संख्या ६१ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है । ४॰ नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या ४३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है । ५॰ कंथड़ पंथ - इनकी संख्या १० है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है । ६॰ कपिलानी पंथ - इनकी संख्या २६ है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है । ७॰ वैराग्य पंथ - इनकी संख्या १२४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है । ८॰ माननाथ पंथ - इनकी संख्या १० है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा- मन्दिर नामक स्थान बताया गया है । ९॰ आई पंथ - इनकी संख्या १० है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है । १०॰ पागल पंथ – इनकी संख्या ४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब- हरियाणा का अबोहर स्थान है । ११॰ ध्वजनाथ पंथ - इनकी संख्या ३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । वर्तमान में इसका मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है । १२॰ गंगानाथ पंथ - इनकी संख्या ६ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है । कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े - १॰ रावल (संख्या-७१), २॰ पंक (पंख), ३॰ वन, ४॰ कंठर पंथी, ५॰ गोपाल पंथ तथा ६॰ हेठ नाथी । इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं - अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺सीताराम जय वीर हनुमान 1.सुंदर कांड पाठ : सुंदर कांड पाठ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस से लिया गया है इस पाठ से हनुमान जी को प्रसन्न किया जाता है विशेषतः शनी के प्रकोप को शांत करणे के लिये सुंदरकांड का पाठ लाभदायक होता है , वैसे कम से कम १०८ पाठ ब्राह्मण के द्वारा करवाया जाता है | 2: हनुमान चालीसा : हनुमान चालीसा कलियुग मे मनुष्य के जीवन का आधार है इसका पाठ प्रायः प्रतिदिन किया जाता है | परंतु विशेष रूप से ४१ दिन मे प्रतिदिन १०० पाठ कराने से कोई भी महत्वपूर्ण कार्य के लिए किये गया सभी अनुष्ठान पूर्ण होता है | 3 : बजरंग बाण : बजरंग बाण के पाठ से मनुष्य स्वयं सुरक्षित रहता है | बजरंग बाण के पाठ से मनुष्य सुरक्षित राहता है इसका कम से कम ५२ पाठ करके हवन करने पर विशेष लाभ प्राप्त होता है | श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नं -9760924411 शुभप्रभात:---- 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

“ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमो भगवते हनुमते मम कार्येषु ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हुं फट् स्वाहा।” विधिः-मंगलवार से प्रारम्भ करके इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करता रहे और कम-से-कम सात मंगलवार तक तो अवश्य करे। इससे इसके फलस्वरुप घर का पारस्परिक विग्रह मिटता है, दुष्टों का निवारण होता है और बड़ा कठिन कार्य भी आसानी से सफल हो जाता है। ४॰ “हनुमन् सर्वधर्मज्ञ सर्वकार्यविधायक। अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।” या “हनूमन्नञ्जनीसूनो वायुपुत्र महाबल। अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।” विधिः- प्रतिदिन तीन हजार के हिसाब से ११ दिनों में ३३ हजार जप जो, फिर ३३०० दशांश हवन या जप करके ३३ ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाये। इससे अकस्मात् आयी हुई विपत्ति सहज ही टल जाती है..............................

श्री हनुमान सिद्धि के लिए मन्त्रः- “ॐ नमो देव लोक कामाख्या देवी, जहाँ बसे इस्माईल योगी । छप्पन भैरों, हनुमन्त वीर, भूत-प्रेत दैत्य को मार, भगावें । पराई माया ल्यावें । लाडू पेड़ा बरफी सेव सिंघाड़ा पाक बताशा मिश्री घेवर बालूसाई लोंग डोडा इलायची दाना तेल देवी काली के ऊपर । हनुमन्त गाजै ।। एती वस्तु मैं चाहि लाव, न लावे तो तैंतीस कोट देवता लावें । मिरची जावित्री जायफल हरड़े जंगी-हरड़े बादाम छुहारा मुखरें । रामवीर तो बतावैं बस्ती । लक्ष्मण वीर पकड़ावे हाथ । भूत-प्रेत के चलावें हाथ । हनुमन्त वीर को सब कोउ गावै । सौ कोसां का बस्ता लावे, न लावें तो एक लाख अस्सी हजार पीर-पैगम्बर लावें । शब्द सांचा, फुरे मन्त्र ईश्वरो वाचा ।” विधिः- इस मन्त्र का जप किसी निर्जन स्थान में, कोई अन्धा कुंआ के ऊपर बैठकर करें, सर्व-प्रथम वहां से शुद्ध मिट्टी लेकर उसमें लाल रंग या सिंदूर मिला कर हनुमान जी की प्रतिमा बनावें, फिर उस पर सिन्दूर का चोला चढ़ा कर मन्त्र में कही सामग्री उस प्रतिमा के समक्ष रख कर इस मन्त्र का २१ दिन तक प्रतिदिन रात्रि में २ माला जप करें, तो हनुमान जी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रुप में दर्शन देकर उसकी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण करते हैं ।..

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...