Wednesday, 18 August 2021

कुमारीस्तोत्रआनन्दभैरवी उवाच

कुमारीस्तोत्र
आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महाभैरव ! अब कुमारी की अत्यन्त दुर्लभ पूजा कहती हूँ । व्याधि वर्ग विहीन कन्या पूजन से साधक को भूमण्डल में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥१॥

हे वीरों के अधिपाधिप ! हे महादेव - ! अब उसका प्रकार सुनिए , कन्यापूजन के लिए ( शाक्त ) महापीठ अथवा देवालय समुचित स्थान माना गया है ॥२॥

सुन्दरी , परमानन्दवर्द्धिनी , जयदयिनी , कालरात्रिस्वरूपा एवं रक्ताङ्ग रञ्जिता कन्या श्री गौरी का स्वरूप हैं ॥३॥

चाहे वह कन्या देवकुल में उत्पन्न हो अथवा राक्षस कुल में , चाहे नरों के उत्तम कुल में , चाहे नटी कन्या , चाहे हीन जाति की कन्या , चाहे कापालिक की कन्या ही क्यों न हों । चाहे धोबी की कन्या , चाहे नापित की कन्या , गोपाल की कन्या , ब्राह्मण की कन्या , शूद्र की कन्या , वैश्य की कन्या , वैद्य की कन्या अथवा चाण्डालकन्या ही क्यों न हों , किं वा वे जिस किसी आश्रम में स्थित कन्या ही क्यों न हों , चाहे अपने सुहद् ‍ वर्ग की कन्या ही क्यों न हों , उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपने घर लाकर अध्यात्म परायण

( शक्ति स्वरुपा ) मान कर उनका अत्यन्त आनन्दपूर्वक पूजन करना चाहिए ॥४ - ७॥

हे वरदान देने वाले ! हे देवेन्द्र ! हे परमानन्दसौन्दर्य ! हे कारणानन्दविग्रह ! अब क्रमशः सुनिए । जो शुद्ध भक्तिपूर्वक मेरी पूजा प्रतिदिन करते हैं , उन्हें अवश्य ही कुमारी पूजन कर उनको भोजन कराना चाहिए ॥८ - ९॥

चाहे सूर्य की पूजा , चाहे चन्द्रमा की पूजा , चाहे अग्नि की ही पूजा करने वाला क्यो न हो , सभी भावों में कन्या का पूजन प्रशस्त माना गया है । कन्या के पूजन से , कन्या से संभाषण से और कन्या के भोजन से मनुष्य का कल्याण होता है ॥१०॥

कन्या पूजन से मैं प्रसन्न होती हूँ क्योंकि उनमें देवता गुप्त रुप से निवास करते है । सभी लोकों के द्वारा पूजित , महान् तेजस्वी तथा ब्रह्मचारी मेरे पुत्र बाल भैरव देव की जो अभीष्ट हैं , वह कुमारी विविध प्रकार के दिव्य पूजन से देवों के द्वारा पूजित हैं ॥११ - १२॥

कुमारी कन्यका , सर्वज्ञा एवं जगदीश्वरी कही जाती हैं । सुरेश्वर ( = इन्द्र ) गण भी पूजा के लिए गुप्त रुप से निवास करने वाली भूमिस्वरूपा महादेवी भोजन आदि अभीष्ट से अर्घ्य और मालादि द्र्व्यों से सन्तुष्ट होकर प्रसन्न रहने वाली कन्या को समस्त लोक से लाकर उनका पूजन करते हैं ॥१३ - १४॥

कुमारी देवनायिका का रोना अर्थात् असन्तुष्ट होना , व्यर्थ , नहीं होता है अतः सभी श्रेष्ठ लोग सरस्वती स्वरूपा ( द्र० ६ . ९६ ) कन्या का पूजन करते हैं । शिव भक्त , विष्णु भक्त तथा अन्य देवता भक्त , किं बहुना , समस्त मनुष्यों द्वारा कन्या पूजित हुई हैं , इसलिए बुद्धिमान् साधक को कन्या का पूजन अवश्य करना चाहिए ॥१५ - १६॥

कन्या पूजन से साधक पूजा प्राप्त करता है , कन्या पूजन से श्री की प्राप्ति होती है , धन प्राप्त होता है और पृथ्वी मिलती है । कन्या पूजन से लक्ष्मी प्राप्त होती है , सरस्वती प्राप्त होती है , महान् तेज मिलता है और दस महाविद्यायें प्रसन्न होती हैं । किं बहुना समस्त देवता कन्या पूजन से प्रसन्न होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१७ - १८॥

कन्या पूजन से बाल भैरव ( श्री बटुक ) ब्रह्मा , इन्द्र , ब्रह्मवेता ब्राह्मण , रुद्र , देवगण , विष्णुरूप वैष्णव अवतार , द्विभुजा वाले वैष्णव जन , ( स्वारोचिषा आदि ) मनु से शोभित , अन्य दिक्पाल एवं देवता , अनेक विद्या से युत्त चराचर गुरु , कूटनीति से युक्त दानव और अपवर्ग मेंज स्थित रहने वाले जो जो जन हैं वे सभी संतुष्ट होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१९ - २१॥

हे देव ! यदि कन्या पूजन से मैं संतुष्ट होती हूँ तो अन्य लोगों की बाल ही क्या ? साधक कुमारी पूजन कर समस्त त्रैलोक्य को अपने वश में सकता है ॥२२॥

कन्या पूजन से शीघ्र ही महाशान्ति प्राप्त होती हैं , संपूर्ण पुण्य तथा समस्त फल प्राप्त होते हैं । तन्त्र और मन्त्र में कहे गये समस्त पुण्य क्षण मात्र में प्राप्त हो जाते हैं ॥२३॥

( कुमारी ) मन्त्र से संपुटित ( मन्त्र ) का जप करने से साधक समस्त सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । हे सुरसुन्दर ! जिन जिन विधानों के प्रकार को मैं कहती हूँ उसे अवश्य करना चाहिए । उसमें भेद बुद्धि कदापि न करे ॥२४ - २५॥

श्रीभैरव ने कहा --- हे शङ्करपूजिते ! हे मेरे कुल के समस्त भावों मैं प्रविष्ट कराने वाली ! हे भैरवि ! हे प्राणवल्लभे ! हे परमानन्द ! यदि मुझ आपका स्नेह पुञ्ज हो तो अब कुमारी के बीज मन्त्र के भेदों को मुझे बताइए ॥२४ - २६॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे नाथ ! अब शाक्तों के हित के लिए कुमारी पूजन में प्रयोग किए जाने वाले महामन्त्र को मुझ से

सुनिए । ये महामन्त्र सिद्ध मन्त्र हैं इसमें संशय नहीं । इस मन्त्र की कृपा होने पर बुद्धिमान् साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और अन्त में देवी पद को प्राप्त कर लेता है । हे आनन्दभैरव ! यह सत्य हैं ॥२७ - २८॥

इस लोक में अवश्य ही साधक को सुख संपत्ति प्राप्त होती है और यह मन्त्र मधुमती विद्या को प्रसन्न करने वाला है , हे शङ्कर ! ऐसा विश्वास करो ॥२९॥

वाग्भव ( ऐं ) से समस्त पुर क्षुब्ध हो जाता है । माया बीज ( हीं ) में आठ गुना फल होता है , श्रीबीज ( श्रीं ) से श्री की प्राप्ति तथा माया बीज से शत्रु का नाश होता है । भैरव बीज ( ? ) से देवताओं के समान खेचरता ( आकाश गमन ) प्राप्त होता है । हे नाथ ! वस्तुतः मैं ही सदा कुमारिका हूँ और आप सदैव कुमार हैं ॥३० - ३१॥

चाहे १०८ की संख्या में चाहे एक ही कन्या का पूजन करना चाहिए । ये कन्यायें पूजित होने पर सब प्रकार का फल देती हैं । किन्तुअ अपामानित होने पर जला देती हैं ॥३२॥

कुमारी साक्षात् योगिनी हैं । कुमारी साधाम् पर देवता ( महाशाक्ति स्वरुपा ) हैं । अतः कुमारी के सन्तुष्ट होने पर असुर , अष्टनाग , दुष्टग्रह , भूत , वेताल , गन्धर्व , डाकिनी , यक्ष , राक्षस तथा अन्य देवता , किं बहुना , हे भैरव ! समस्त भूः भुवः स्वः रुप त्रिलोकी समस्त पृथिव्यादि तत्त्व , चराचरात्मक समस्त ब्रह्माण्ड , ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र एवं ईश्वर तथा सदाशिव आदि सभी देवगण कुमारी पूजन करने वाले साधक पर प्रसन्न हो जाते हैं ॥३३ - ३६॥

हे भैरव ! निधि अर्थात ९ संख्यक कुमारी का पूजन करना चाहिए । पाद्य , अर्घ्य धूप , कुंकुंम , शुभकारक चन्दन आदि पदार्थ भक्तिपूर्वक कुमारी को निवेदन करना चाहिए । पूजा के आदि में मध्य में अन्त में तीन प्रदक्षिणा करे । फिर सुवर्ण , रजत तथा मोती से संयुक्त दक्षिणा देनी चाहिए ॥३६ - ३८॥

विधि पूर्वक दक्षिणा देने के बाद क्रमशः कुमारियों का विवाह भी कर देना चाहिए । ऐसा करने से ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाता है । पुण्य काल में जितनी ही कन्या का दान करता है , उसे भुक्ति मुक्ति , अन्य फल , सौभाग्य तथा सारी संपत्ति प्राप्त हो जाती है ॥३९ - ४०॥

कन्या दान करने वाला साधक त्रिनेत्र भगवान् सदाशिव का रुप धारण कर रुद्रलोक में निवास करता है । करोड़ों सहस्त्र तीर्थ का तथा सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल उसे प्राप्त हो जाता है ॥४१॥

जो कन्या का विवाह कर देता है शीघ्र ही उसके फल को साधक प्राप्त करता है । वह बालुका सागर में रहने वाले जितने बालू की संख्या होती है उतने हजार वर्षों तक एक एक कुल का उद्धार कर रुद्रलोक में पूजा प्राप्त करता है । हे भैरव ! इसलिए अपने उन उन इष्ट देवताओं की प्रीति के लिए बुद्धिमान् साधक कन्यादान कर मुक्ति प्राप्त करे ॥४२ - ४४॥

श्रेष्ठ साधक उन उन वर्ण वाली कन्याओं में उन उन देवताओं की बुद्धि कर ( द्र० . ५ , ९६ - १०० ) एवं दिये जाने वाले वर में शिव की बुद्धि कर तथा पूर्ण रूप से शिव का ध्यान कर कन्यादान करे अथवा सर्वांग सुन्दर , तेजोमय , यश , कान्त बाल भैरव रूप , बटुकेश महादेव का वर रुप में वरण करे ॥४४ - ४६॥

त्रैलोक्यसुन्दरी , नानालङ्कार से विभूषित , नम्राङ्गी श्रेष्ठ महाविद्या का प्रकाश देने वाली , मन्द मन्द हास्य करने वाली , महानन्द से परिपूर्ण ह्रदय वाली , कल्याणकारिणी , मङ्गल स्वरुपा , पूर्ण चन्द्रानना कन्या में बालरुपा ( त्रिपुर ) भैरवी का द्वादश पत्र कमल में ध्यान कर दान करने के लिए लावे और उन उन मन्त्रों से उनका दान भी करे ॥४७ - ४९॥

इस बात को सुन कर महावीर तथा मायारहित बालारूपी भैरव ने परमानन्द स्वरूपा महाभैरवी से पुनः जिज्ञासा की ॥४० - ५०॥

आनन्दभैरव ने कहा --- हे महाभैरवी ! हे प्रिये ! कुमारी कुलतत्त्व के ज्ञान के लिए मन्त्रार्थ , जपक्रम , यजनादि के प्रकार , भोजनादि का क्रम , होमादि की प्रक्रिया , प्रत्येक का स्तोत्र तथा कुमारी कवच क्रमशः हमें बताइए । जिस क्रम से कुमारी परदेवता महाविद्या निर्जन स्थान में साधक के आगे स्वयं प्रगट हो कर स्वयं महावाक्य का प्रतिपादन करें वह बलिका चारुनयना किस प्रकार और किस कारण से प्रसन्न होती हैं ? हे आनन्दभैरवी ! उस प्रकार को आप कहिए ॥५० - ५४॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे शम्भो ! अब कुमारी कुल के मन्त्रों को कहती हूँ उन्हें सुनिए । जिसके जानने मात्र से उत्तम साधक धरणी पति हो जाता है । कुमारी यजन के प्रभावा से साधक गुरु रुप में प्रतिष्ठित हो जाता है ॥५४ - ५५॥

एक वर्षा वरा सन्ध्यादि नाम वाली कुमारियों से प्रारम्भ कर ( १६ वर्ष वाली अम्बिका ) स्वरुप कन्याओं के महामन्त्रों को और क्रमपूर्वक सभी के मन्त्रों के चैतन्य सिद्धि की सक्त्रिया को भी हे महाप्रभो ! श्रवण कीजिए ॥५६॥

श्रेष्ठ सुन्दरी नारी कुलोत्पन्न रत्नालङ्कार संयुक्त चूडी़ और वस्त्रादि से सुशोभित कन्या को लाकर वाग्भव ( ऐं ) बीज के सहित तत्तन्नाम से , हे नाथ ! जल प्रदान करे ॥५७ - ५८॥

उत्तम साधक उन उन कन्याओं में उन उन देवियों की भावना , करते हुये पूजन करे । जल प्रदान करने के बाद मायाबीज

’ हरी सन्ध्यायै नमः अर्घ्य समर्पयामि ’ इस मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे । पुनः माया बीज ’ हीं सन्ध्यायै नमः पुषाणि समर्पयानि ’ इस मन्त्र से कुमारी को पुष्प समर्पित करे ॥५९ - ६०॥

तदनन्तर सदाशिव के मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) से उत्तम धूप दीप प्रदान कर षडङ्गमन्त्र से इस प्रकार न्यास करे ।

षडङ्गन्यास --- हे आनन्द रुप वाले ! हे महादेव ! उस षडङ्गन्यास के प्रकार को सुनिए । महातेजोमय शुभ्र स्वरुप का ध्यान कर ह्रदय पर दाहिना हाथ रखकर धीमान् ‍ साधक को मन्त्र पढा़ना चाहिए । हे शङ्कर ! अब उस मन्त्र को सुनिए । सर्वप्रथम वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर माया ( ह्रीं ) लक्ष्मी बीज ( श्रीं ) कूर्च ( हूं ) का उच्चारण करे ॥६१ - ६३॥

फिर विसर्ग और विन्दु से युक्त प्रेत बीज ( हंसोः ) का उच्चारण कर ’ कुल कुमारिके ’ पद का उच्चारण करे । तदनन्तर ’ ह्रदयाय नमः ’ कहकर ह्रदय का स्पर्श करे । मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ’ ऐं ह्रीं श्रीं हूँ हंसोः कुलकुमारिके ह्रदयाय नमः ’ । इसके बाद शिरः स्थान में शुक्ल वर्ण सर्वमय बीज ( ॐ ) का ध्यान करे । वाग्भव से युक्त हकार , वाग्भव से युक्त वकार , फिर माया ( ह्रीं ), फिर लक्ष्मी ( श्रीं ), फिर वाग्भव ( ऐं ), फिर दो ठ अर्थात् वहिनजाया ( स्वाहा ) इतना उच्चारण कर शिरः प्रदेश में दाहिने हाथ से स्पर्श कर न्यास करे ॥६४ - ६७॥

तदनन्तर शिखा में काले अञ्जन के समूह के समान काले वर्ण का ध्यान कर ’ कुमारी कुल ’ की सिद्धि के लिए मन्त्र साधक इस मन्त्र से न्यास करे । प्रथम प्रणव ( ॐ ) का उच्चारण करे । उसके बाद वहिन सुन्दरी ( स्वाहा ) का उच्चारण करे । फिर ’ शिखायै वषट् ’ का उच्चारण कर शिखा स्थान में न्यास करे ॥६७ - ६९॥

विमर्श --- यथा --- ॐ स्वाहा शिखायै वषट्।

इसके बाद कवच के मध्य में ( दोनों बाहु ) में महाबलवान् अत्यन्त तेजस्वी , सुन्दर , सूर्योदयसे प्रथम होने वाले अरूण के समान लाल वर्ण का ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर , फिर ’ कुल ’ शब्द , फिर ’ वागीश्वरि ’ पद , फिर ’ कवचाय ’ पद , तदनन्तर तारक ब्रह्मा ( हुं ) का उच्चारण कर दोनों बाहु में न्यास करें। यहाँ तक कवचन्यास के अक्षर समूह को कहा गया ॥६९ - ७१॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुल वागीश्वरि कवचाय हुँ ।

इसके बाद नेत्रत्रय में महाप्रभा वाले रक्त वर्ण के करोड़ों जवा मण्डल मण्डित महाबीज का जो करोड़ों सूर्य में विराजित है उसका ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर फिर ’ कुलेश्वरि ’ पद फिर नेत्रत्रयाय वौषट् ’ का उच्चारण कर नेत्रत्रय का न्यास करे ॥७२ - ७४॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुलेश्वरि नेत्रत्रयाय वौषट् ।

फिर मन्त्रज्ञ साधक बायें हाथ पर दाहिने हाथ की मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों से करोड़ों सूर्य की किरण समूहों के समान प्रभा वाले महाकाश में उत्पन्न महानग्र शब्द का ध्यान क्रा प्रथम माया बीज ( हीं ) फिर ’ अस्त्राय ’ पद . फिर पान्त ठान्त वर्ण ( फट् ‍ ) महामन्त्र कर उच्चारण दो ताली देवे ॥७४ - ७६॥

विमर्श --- यथा --- हीं अस्त्राया फट् ‍ ।

इसके बाद कुमारी के ह्रदयाकाश में परिवार का ध्यान कर मन्त्रज्ञ यत्नपूर्वक ध्यान कर भेषजरुप अमृत धारा से उनका पूजन करे । तदनन्तर बटुक भैरव का पूजन कर उनका तर्पण करे ॥७७ - ७८॥

क्रमशः देवताओं के साथ परिवा का पूजन कर , तदनन्तर वाग्भव ( ऐं ), फिर सिद्धजयाय ’ पद , फिर ’ पूर्व ’ पद , फिर ’ वक्त्राय नमः ’ से पूर्व मुख , इसके बाद वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर ’ जयाय ’ शब्द , फिर चतुर्थ्यन्त उत्तरवक्त्र ( उत्तरवक्त्राय ), फिर नमः पद का उच्चारण कर उत्तर मुख का पूजन करे ॥७९ - ८१॥

विमर्श --- पूर्वमुख के लिए मन्त्र है - ऐं सिद्धजायाय पूर्ववक्त्राय नमः ’ । उत्तरमुख के लिए मन्त्र है - ’ ऐं जयाय उत्तरवक्त्राय नमः ’ ।

फिर वाग्भव ( ऐं ), माया ( हीं ) और श्रीबीज ( श्रीं ) का यत्नपूर्वक उच्चारण करे । कुब्जिके पश्चिम - वक्त्राय नमः ’ से पश्चिम वक्त्र पूजन करे । तदनन्तर बाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर ’ कालिके ’ पद का उच्चारण कर ’ दक्षवक्त्राय ’ शब्द के अन्त में ’ नमः ’ शब्द का उचारण करे ॥८१ - ८२॥

विमर्श --- पश्चिममुख के लिए मन्त्र है -’ ऐं हीं श्रीं कुब्जिके पश्चिमवक्त्राय नमः ’ । दक्षिणमुख के लिए मन्त्र है - ऐं कालिके दक्षवक्त्राय नमः ’ ।

हे नाथ ! यहाँ तक हमने कुमारी मन्त्रों को कहा । हे कुलेश्वर ! इन मन्त्राक्षरों का उच्चारण कर उन उन मुखों का पूजन करे । फिर भास्कर , चन्द्रमा , दिक्पाल एवं सन्ध्यादि का पूजन करे ॥८३ - ८४॥

फिर वीरभद्रा , महाकाली , कुल में गमन करने वाली कौलिनी , अष्टादशभुजा काली तथा चतुर्वर्गा देवी का पूजन करे ॥८५॥

अनेक प्रकार के भोज्यान्न से युक्त नैवेद्य आदि जैसे दूध , दही , पक्वान्न , पके हुये उत्तमोत्तम फल , तत्तत्कालों में उपयोग योग्य फल , शर्करा , मधुमिश्रित पञ्चतत्त्व ( पञ्चामृत ), अपना कल्याण बढा़ने वाला कुलद्रव्य और अनेक प्रकार के नानाविध नैवेद्य निवेदित करे । फिर अनेक प्रकार के सुगन्ध से मिश्रित शीतल जल लाकर बुद्धिमान् ‍ साधक उन कन्याओं को प्रदान करे ॥८६ - ८८॥

इसके बाद अपना हित करने वाला अत्यन्त दुर्लभ कुमारी का महामन्त्र अथवा अपने इष्टदेवता का मन्त्र जपने से साधक सभी सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । यदि प्राण वायु के धारण करने में समर्थ हो तो प्राणायाम करे । अन्त में निम्नलिखित कुमारी स्तोत्र का पाठ कर साष्टाङ्र प्रणाम करे ॥८९ - ९१॥

परम भाग्य को देने वाली कुल कामिनी को नमस्कार करता हूँ । कुमार साधकों के लिए आनन्द प्रदान करने वाली , समस्त सिद्धियों को देने वाली , आनन्द स्वरुपिणी कुमारी को नमस्कार करता हूँ ॥९२॥

ध्यान - मूँगा की गुटिका के समानद अत्यन्त स्वच्छ स्वरूप वाली स्वर्णमय परिधान से अलंकृत हीरे का आभूषण धारण करने वाली भुवनेश्वरी स्वरुपा कुमारी की मैं सेवा करता हूँ ॥९३॥

इस मन्त्र से न्यास कर तारिणी स्वरुपा कुमारी का पूजन करे । फिर साधकोत्तम शिव गणेश का पूजन कर उन्हें भी प्रणाम करे ॥९४॥

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति
१॰ क्रूर से क्रूर ग्रह-शान्ति में, शमी-वृक्ष की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े कर, गूलर-पाकर-पीपर-बरगद की समिधा के साथ ‘गायत्री-मन्त्र से १०८ आहुतियाँ देने से शान्ति मिलती है।

२॰ महान प्राण-संकट में कण्ठ-भर या जाँघ-भर जल में खड़े होकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने से प्राण-रक्षा होती है।

३॰ घर के आँगन में चतुस्र यन्त्र बनाकर १ हजार बार गायत्री मन्त्र का जप कर यन्त्र के बीचो-बीच भूमि में शूल गाड़ने से भूत-पिशाच से रक्षा होती है।

४॰ शनिवार को पीपल के वृक्ष के नीचे गायत्री मन्त्र जपने से सभी प्रकार की ग्रह-बाधा से रक्षा होती है।

५॰ ‘गुरुचि’ के छोटे-छोटे टुकड़े कर गो-दुग्ध में डुबोकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र पढ़कर हवन करने से ‘मृत्यु-योग’ का निवारण होता है। यह मृत्युंजय-हवन’ है।

६॰ आम के पत्तों को गो-दुग्ध में डुबोकर ‘हवन’ करने से सभी प्रकार के ज्वर में लाभ होता है।

७॰ मीठा वच, गो-दुग्ध में मिलाकर हवन करने से ‘राज-रोग’ नष्ट होता है।

८॰ शंख-पुष्पी के पुष्पों से हवन करने से कुष्ठ-रोग का निवारण होता है।

९॰ गूलर की लकड़ी और फल से नित्य १०८ बार हवन करने से ‘उन्माद-रोग’ का निवारण होता है।

१०॰ ईख के रस में मधु मिलाकर हवन करने से ‘मधुमेह-रोग’ में लाभ होता है।

११॰ गाय के दही, दूध व घी से हवन करने से ‘बवासीर-रोग’ में लाभ होता है।

१२॰ बेंत की लकड़ी से हवन करने से विद्युत्पात और राष्ट्र-विप्लव की बाधाएँ दुर होती हैं।

१३॰ कुछ दिन नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने के बाद जिस तरफ मिट्टी का ढेला फेंका जाएगा, उस तरफ से शत्रु, वायु, अग्नि-दोष दूर हो जाएगा।

१४॰ दुःखी होकर, आर्त्त भाव से मन्त्र जप कर कुशा पर फूँक मार कर शरीर का स्पर्श करने से सभी प्रकार के रोग, विष, भूत-भय नष्ट हो जाते हैं।

१५॰ १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप कर जल का फूँक लगाने से भूतादि-दोष दूर होता है।

१६॰ गायत्री जपते हुए फूल का हवन करने से सर्व-सुख-प्राप्ति होती है।

१७॰ लाल कमल या चमेली फुल एवं शालि चावल से हवन करने से लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१८॰ बिल्व -पुष्प, फल, घी, खीर की हवन-सामग्री बनाकर बेल के छोटे-छोटे टुकड़े कर, बिल्व की लकड़ी से हवन करने से भी लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१९॰ शमी की लकड़ी में गो-घृत, जौ, गो-दुग्ध मिलाकर १०८ बार एक सप्ताह तक हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२०॰ दूध-मधु-गाय के घी से ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२१॰ बरगद की समिधा में बरगद की हरी टहनी पर गो-घृत, गो-दुग्ध से बनी खीर रखकर ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२२॰ दिन-रात उपवास करते गुए गायत्री मन्त्र जप से यम पाश से मुक्ति मिलती है।

२३॰ मदार की लकड़ी में मदार का कोमल पत्र व गो-घृत मिलाकर हवन करने से विजय-प्राप्ति होती है।

२४॰ अपामार्ग, गाय का घी मिलाकर हवन करने से दमा रोग का निवारण होता है।

विशेषः- प्रयोग करने से पहले कुछ दिन नित्य १००८ या १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप व हवन करना चाहिए।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...