Friday, 27 September 2024

शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित

 


शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित 
(श्री गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित)
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिब्रह्मादीनापि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ॥
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिमाणावधि गृणन् ।
ममाप्येव स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ।।१।।
हे हर ! (सभी दुःखों के हरने वाले) आपकी महिमा के अन्त को न जानने वाले मुझ अज्ञानी द्वारा की गई स्तुति यदि आपकी महिमा के अनुकुल न हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ब्रह्मा आदि भी आपकी महिमा के अन्त को नहीं जानते हैं। अतः उनकी स्तुति भी आपके योग्य नहीं है। "स वाग् यथा तस्य गुणान् गृणीते" के अनुसार मेरी यथामति स्तुति उचित ही है। "नमः पतन्त्यात्मसमं पतत्रिणः" इस न्याय से मेरी स्तुति आरम्भ करना क्षम्य हो ॥ १ ॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्‌मनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधिगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
हे हर ! आपकी निर्गुण और सगुण महिमा मन तथा वाणी के विषय से परे है, जिसे वेद भी संकुचित होकर कहते हैं। अतः आपकी उस महिमा की स्तुति करने में कौन समथ हो सकता है ? फिर भी भक्तों के अनुग्रहार्थ धारण किया हुआ आपका नवीन रूप भक्तों के मन और वाणी का विषय हो सकता है ।। २ ।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत- स्तवब्रह्मन्कवागपि सुरगुरोविस्मय पदम् ।। मम त्वेतां वाणों गुणकथनपुण्येन भवतः । पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
हे ब्रह्मन् ! जब कि आपने मधु के सदृश मधुर और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया है, तब ब्रह्मादि द्वारा की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है ? हे त्रिपुरमथन ! जब ब्रह्मादि भी आपके स्तुति-गान करने में असमर्थ हैं, तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है ? मैं तो केवल आपके गुण- गान से ही अपनी वाणी को पवित्र करने की इच्छा रखता हूँ ।।३।।
तवैश्वर्यं तत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासुतनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीम् ।
विहन्तु व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥४॥
हे वरद ! आपके ऐसे ऐश्वर्य की - जो संसार की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करने वाला है, तीनों वेदों द्वारा गाया गया है, तीनों गुणों (सत्, रज, तम) से परे है, एवं तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में व्याप्त है, कुछ नास्तिक लोग अनुचित निन्दा करते हैं। इससे उन्हीं का अधःपतन होता है, न कि आपके सुयश का ।। ४ ।।
किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतक्र्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥ ।
"अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तकेंण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करने वाले आपके ऐश्वर्य के विषय में नास्तिकों का यह कुतर्क कि वह ब्रह्या सृष्टि कर्ता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर, सहकारी कारण, आधार और समवायी कारण क्या है ? जगत् के कतिपय मन्द-मति वालों को भ्रान्ति करने वाला है ।। ५ ।।
अजन्भानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं कि भवविधिरनादृत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो
यतोमन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥
हे अमर वर ! यह सावयव लोक अवश्य ही जन्य है तथा इसका कर्ता भी कोई न कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता, क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री दूसरे के पास होना असम्भव है। इसलिये अज्ञानी लोग ही आपके विषय में सन्देह करते हैं ।।६।।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचिव्यादृजुकुटिलनानापथजुषां ।
नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
हे अमर वर ! वेदत्रयी, सांख्य, योग, शैव मत और वैष्णवमत ऐसे भिन्न-भिन्न मतों में कोई वैष्णवमत और कोई शैव मत को अच्छा कहते हैं, परन्तु रुचि की विचित्रता से टेढ़े-सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आप ही साक्षात् या परम्परया प्राप्त होते हैं, जैसे कि नदियाँ टेढ़ी-सीधी बहती हुई साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही जा मिलती हैं ।। ७ ।।
महोक्षः खट्‌वांग म्परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालंचेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धि दधति तु भवन प्रणिहिताम् ।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भभ्रमयति । ८।
हे वरद ! महोक्ष (बैल), खाट का पाया, परशु, गजचर्म, भस्म, सर्व, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियाँ हैं, परन्तु उन ऋद्धियों को जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग भोगते हैं, आप क्यों नहीं भोगते ! स्वात्माराम (आत्मज्ञानी) को विषय (रूपरसादि) रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती है ।। ८ ।।
ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध वमिदम् ।
परोध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।। समस्तेऽप्येतस्मिन्पुरमथन तैविस्मित इव ।
स्तुवञ्जिद्देमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता । ९।
हे पुरमथन ! सांख्य मतानुयायी "नह्यसत उत्पत्तिः सम्भवति" के अनुसार जगत् को ध्रुव (नित्य), बुद्धिमतानुयायी अध्रुव (क्षणिक) ताकिकजन नित्य (आकाश आदि पञ्च और पृथिव्यादि परमाणु और अनित्य कार्यद्रव्य) दोनों मानते हैं। इन मतान्तरों से विस्मित मैं भी आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचा- लता लज्जा को स्थान नहीं देती ।। ९ ।।
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरिविरंचिर्हरिरधः ।
परिच्छेत्तु यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः ।।
ततोभक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्तयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।१०।
हे गिरीश (गिरि में शयन करने वाले), तेजपु'ज आपकी विभूति को ढूँढ़ने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे, तत्पश्चात् उनकी कायिक, मार्नासक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चित् है कि आपकी सेवा से ही सब सुलभ है ।। १० ।।
अयत्नादापाद्यत्रिभुवनमवैरव्यतिकरम् ।
दशास्यो यद्वाहूनभूत रणकण्डूपरवशान् ।।्
शिरः पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर वियजितमिदम् ।११।
हे त्रिपुरहर ! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवत् चरणों में अर्पणकर के त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युद्ध के लिए सर्वदा उत्सुक रहने वाली भुजाओं को पाया था, वह आपकी अविरल भक्ति का ही परिणाम था ।। ११ ।
अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनम् ।
उक बलाप्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौविक्रमयतः ॥
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांग ष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितोमुर्ध्यात खलः ।१२।
रावण द्वारा उन्हीं भुजाओं से जिन्होंने आपकी सेवा से बल प्राप्त किया था, आपके घर कैलास को उखाड़ने के लिए हठात् प्रयोग करते ही आपके अँगूठे के अग्र भाग के संकेत मात्र पाताल में गिरा, निश्चय ही खल उपकार भूल जाते हैं ।। १२ ।।
यदृद्धि सुत्त्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- ।
मधश्चक्र बाणः परिजनविधैयस्त्रिभुवनः ।।
नतच्चित्त्रं तस्मिन्वरिवसिरित्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।१३।
हे वरद ! वाणासुर ने आपकों नमस्कार मात्र से इन्द्र की सम्पत्ति को नीचा दिखलाने वाली सम्पत्ति प्राप्त किया था और त्रिभुवनको अपना परिजन बना लिया था। यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आपके चरणों में नमस्कार करना किस उन्नति का कारण नहीं होता है ।। १३ ।।
अकाण्ड : ब्रह्माण्ड क्षयचकितदेवासुरकृपा । विधेयस्याऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।॥
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवनभयभगंव्यसनिनः ।१४।।
हे त्रिनयन ! सिन्धु विमंथन से उत्पन्न कालकूट से असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व असुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उसको (काल कूट को) पान करने से आपके कण्ठ की कालिमा भी शोभा देती है। ठीक ही है, जगत् के उपकार की कामना वाले दूषण भूषण समझे जाते हैं ।॥ १४ ॥असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरःस्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः। १५।
जो विजयी कामदेव अपने बाणों द्वारा जगत् के देव, मनुष्य और राक्षसों को जीतने में सर्वथा समर्थ रहा, उसी कामदेव अन्य देवों के समान आपको भी समझा, जिससे वह स्मरण मात्र के लिये ही रह गया (दग्ध हो गया), जितेन्द्रियों का अनादर करना अहितकारक ही होता है ।। १५ ।।
मही पादाघाताद्धजति सहसा संशयपदम् ।
पदं विष्णोर्भाम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ॥
मुहुर्योदौस्थ्यं यात्यनिभूतजटाताडिततटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ १६ ॥
हे ईण ! आप जगत् की रक्षा के लिए राक्षसों को मोहित करके नाण के लिए नृत्य करते हो, तब भी संसार का आपके ताण्डव से दुःख दूर होता है, क्योंकि आपके चरणों के आघात से पृथ्वी धंसने लगती है, विशाल बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्र आकाश पीड़ित हो जाता है तथा आपकी चंचल जटाओं से ताड़ित हुआ स्वर्ग लोक भी कम्पाय- मान हो जाता है। ठीक ही है, उपकार भी किसी के लिए अहितकारक हो जाता है ।॥ १६ ॥
वियद्व्यापीतारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः ॥ १७ ॥
हे ईश ! तारा गणों की कान्ति से अत्यन्त शोभायमान आकाश में व्याप्त तथा भूलोक को चारों ओर से घेरकर जम्बू द्वीप बनाने वाली गङ्गा का जल-प्रवाह आपके जटाकपाट में बूंद से भी लघु देखा जाता है। इतने से ही आपके दिव्य तथा श्रेष्ठ शरीर की कल्पना की जा सकती है ।। १७ ।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिनगेन्द्रो धनुरथा-
रथांगेचन्द्राकों रथचरणपाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि-
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।१८।
हे ईश ! तृण के समान त्रिपुर को जलाने के लिए पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, हिमालय को धनुष, सूर्य-चन्द्र को रथ का चक्र तथा विष्णु को विषघर बाण बनाना आपका आडम्बर मात्र है। विचित्र वस्तुओं से क्रीडा करते हुए समथर्थों की बुद्धि स्वतन्त्र होती है ।। १८ ॥
हरिस्ते साहस्त्र कमलबलिमाधाय पदयो-
र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्ने त्रकमलम् ।
गतो भक्त्युद्र कः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जार्गात जगताम् ॥१९॥
हे त्रिपुरहर ! विष्णु आपके चरणों में प्रति दिन सहस्र कमलों का उपहार देते थे । एक दिन एक की कमी होने के कारण उन्होंने अपने एक कमलवत् नेत्र को निकाल कर पूरा किया। यह भक्ति की चरम सीमा चक्र के रूप में आज भी संसार की रक्षा किया करती है । १९ ।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलतिपुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रक्ष्य ऋतुषु फलदानप्रतिभुवम् ।
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥
हे त्रिपुरहर ! आप ही को यज्ञ के फल का दाता समझ कर, वेद में दृढ़ विश्वास कर मनुष्य कर्मों का आरम्भ करते हैं। क्रिया रूप यज्ञ के समाप्त होने पर आपही फल देने वाले रहते हैं। आपकी आराधना के बिना नष्ट कर्म फलदायक नहीं होता ।। २० ।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता-
मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुन वस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥
हे शरणद ! कर्मकुशल यज्ञपति दक्ष के यज्ञ के ऋषिगण ऋत्विज, देवता सदस्य थे । फिर भी यज्ञ के फल देने वाले आप को अप्रसन्नता से वह ध्वंस हो गया । निश्चय है कि आप में श्रद्धा-रहित किया गया यज्ञ नाश के लिए ही होता है ।। २१ ।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्त्वां दुहितरम् ।
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुःपाणेर्यातं दिवपि सपत्नाकृतममुम् ।
वसन्तन्तेऽद्यापि त्यति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥
हे नाथ ! काल से प्रेरित मृगरूप धारण किये ब्रह्या को भय से मृगीरूपी धारण करने वाली अपनी कन्या में आसक्त देख, आपका उनके पीछे छोड़ा गया वाण आर्द्रा आज भी नक्षत्र रूप में मृगशिरा (ब्रह्‌मा) के पीछे वर्तमान है ।। २२ ।।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्‌वाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वापुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदिस्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्ध-घटनाद् ।
अवैति त्वामद्धावत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३।।
हे यम-नियम वाले त्रिपुरहर ! आपकी कृपा से आपका अर्धस्थान प्राप्त करने वाली, अपने सौन्दर्य रूपी धनुष को धारण करने वाले कामदेव को जला हुआ देखकर भी यदि पार्वती आपको अपने अधीन समझें तो ठीक ही है, क्योंकि प्रायः युवतियाँ ज्ञान-हीन होती हैं ।। २३ ।।
स्मशानेष्वाक्क्रीडारमरहर पिशाचाः सहचरा-
श्चिताभस्मालेपः स्प्रगपि नृकरोटीपरिकरः ।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु ना मैवमखिलम्
तथापि स्मतॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
हे स्मरहर ! आपका स्मशान में क्रीडा करना, भूत-प्रेत पिणा-
चादि को साथ रखना, शरीर में चिता-भस्म का लेपन करना तथा नर रुण्डों की माला पहिनना आदि वीभत्स कर्मों से यद्यपि आपका चरित अमगल मय लगता है, तथापि स्मरण करने वालों को हे वरद ! आप परम मंगलरूप हैं ।। २४ ।।
मनः प्रत्यक्चित्त सविधमवधायात्तमरुतः ।
प्रहृ ष्यद्रोमाणः प्रमदसलिल्लोत्संगितदृशः ।।
यदालोक्याह लादं हूद इव निमज्ज्यामृतमये ।
यधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ।२५।
हे दरद ! जिस प्रकार अमृतमय सरोवर में अवगाहन से (स्नान करने से, प्राणिमात्र तापत्रय से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से पृथक् करके मन का स्थिर कर, विधि पूर्वक प्राणायाम से, पुलकित तथा आनन्दाश्र से युक्त योगीजन ज्ञानदृष्टि से जिसे देखकर परमा- नन्द का अनुभव करते हैं, वह आपही हैं ।। २५ ।।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वंहुतवह-
स्त्वमापरत्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च ॥ परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता ब्रितिगिरम् । न विद्मस्तत्तत्त्वंवयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥
हे वरद, आपके विषय में ज्ञानीजनों की यह धारणा है "क्षिति हुत वह क्षेत्रज्ञाम्भः प्रभंजन चन्द्रमस्तपनवियदित्यष्टो मूतिर्नमोभव-विभ्रते ।" इस श्रुति के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल. आकाश, पृथ्वी और आत्मा भी आपही हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आप न हों ।। २६ ।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथोक्त्रीनपिसुरा ।
नकाराद्य र्वणैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः ॥
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् । २७।
हे शरणद ! व्यस्त [अ, उ. म. 'ॐ' पद, शक्ति द्वारा तीन वेद [ऋग्, यजुः और साम], तीन वृत्ति [जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति], त्रिभुवन [भूर्भुवः स्वः] तथा तीनों देव [ब्रह्मा, विष्णु, महश], इन प्रपञ्च। स व्यस्त आपका बोधक है और समस्त 'ॐ' पद, समुदाय शक्ति से सर्व विकार रहित अवस्थात्रयसे विलक्षण अखण्ड, चैतन्य आपको सूक्ष्म ध्वनि से व्यस्त करता है ।। २७ ।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।। अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देवः श्रुतिरपि । प्रियायास्मैधाम्नेप्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते ॥२८।।
हे देव ! भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान- यह जो आपके नाम का अष्टक है, इस प्रत्येक नाम में वेद और देवतागण [ब्रह्मा] आदि विहार करते हैं, इसलिये ऐसे प्रियधाम [आश्रय भूत] आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। २८।।
नमोनेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ॥
नमो विष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥२९॥
हे प्रियदव ! [निर्जन वन-विहरण शील], नेदिष्ठ [अत्यन्त समीप] दविष्ठ [अत्यन्त दूर [, क्षोदिष्ठ [अति सूक्ष्म], महिष्ठ [महान्], वषिष्ठ [अत्यन्त वृद्ध, यविष्ठ [अतियुवा], सव-त्वरूप और अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है ।। २९ ।।
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौमृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०।।
हे शिवजी ! जगत् की उत्पत्ति के लिये परम रजोगुण धारण किये भव [ब्रह्मा] रूप आपको बार-बार नमस्कार है और उस जगत् के सहार करने में तमोगुण को धारण करने वाले हर [रुद्र], आपके लिए पुनः-पुनः नमस्कार है, जगत् के सुख के लिए सत्त्व गुण का धारण करने वाले मृड (विष्णु), आपको बार-बार नमस्कार है। तीनों गुणों (सत्व, रज. तम) से परे जो अनिर्वचनीय पद से विशिष्ट हैं, ऐसे आपको बार-बार नमस्कार है ।। ३० ।।
कृशपरिणतिचेतः क्लेशवश्यं क्व चेदम् ।
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्ङ्घिनीशश्ववृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा-
द्वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥३१॥
हे वरद ! कहाँ तो रागद्वष आदि से कलुषित तथा तुच्छ मेरा मन, कहाँ आपकी अपरमित विभुति, तिसपर भी आपकी भक्ति ने मुझे निर्भय बनाकर इस वाक्रूपी पुष्पाञ्जलि को आपके चरण- कमलों में समर्पण करने के लिये वाध्य किया है ।। ३१ ।।
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।
सुरतरुवरशाखा लेखनीपत्रमुर्वी ।।
लिखित यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥३२॥
हे ईण ! असित अर्थात् काले पर्वत के समान कज्जल (स्याही) समुद्र के पात्र में हो, सुरवर (कल्पवृक्ष) के शाखा की उत्तम लेखनी हो और पृथ्वी कागज हो, इन साधनों को लेकर स्वयं शारदा यदि सर्वदा ही लिखती रहें तथापि वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकतीं, तो मैं कौन हैं ॥ ३२ ॥
असुरसुरमुनीन्द्र चितस्येन्दुमौले-
ग्रंथित गुणहिम्मो सकलगुणवरिष्ठः
रुचिरमलघुवृत्तःनिर्गुणस्येश्वरस्य ।
पुष्पदन्ताभिधानो स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
असुर, सुर और मुनियों से पूजित तथा विख्यात महिमा वाले ऐसे ईश्वर चन्द्रमौलि के इस स्तोत्र को अलघुवृत्त अर्थात् बड़े [शिख- रिणी] वृत्त में सकल गुण श्रेष्ठ पुष्पदंत नामक गन्धर्व ने बनाया ।। ३३ ।।
अहरहरनवद्य धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्-
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्य : ।
स भर्वात शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्न
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कोतिमांश्च ॥३४
शुद्धचित्त होकर अनवद्य महादेवजी के इस स्तोत्र को जो पुरुष प्रतिदिन परम भक्ति से पढ़ता है, वह इस लोक में धन-धान्य, आयु से युक्त, पुत्रवान् और कीर्तिमान होता है और अन्त में शिव-लोक में जाकर शिवस्वरूप हो जाता है ।। ३४ ।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्तत्वं गुरोः परम् । ३५।
महादेवजी से श्रष्ठ कोई देवता नहीं है, महिप्न से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं है, अघोर मंत्र से श्रेष्ठ कोई मन्त्र नहीं है और गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व (पदार्थ) नहीं है ।। ३५ ।।
दीक्षादानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।
दीक्षा, दान, तप, तीर्थादि तथा ज्ञान और यागादि क्रियाएँ इस शिवमहिम्नस्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं ।। ३६ ।।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्- स्तवनमिदमकार्षीवृदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥
सभी गंधों के राजा पुष्पदंत भाल में चन्द्रमा को धारण करते वाले देवाधि देव महादेवजी के दास थे. वे सुरगुरु महादेवजी के क्रोध से अपनी महिमा से भ्रष्ट हुए, तव उन्होंने शिवजी की प्रसन्नता के लिए इस परम दिव्य शिवमहिम्न स्तोत्र को बनाया ।। ३७ ।।
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षकहेतुम् पठति
यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेतः ।
ग्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोधं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८।।
यह पुष्पदंत का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र श्रेष्ठ देवताओं तथा मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है। इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त से हाथ जोड़कर पढ़ता है, वह किन्नरों द्वारा स्तुत्य होकर शिवजी के समीप जाता है ।। ३८ ।।
श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कर्जानर्गतेन
स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥३९॥
श्रीपुष्पदंत के मुख से निकले हुए इस पापहारी तथा महादेवजी के प्रिय स्तोत्र को सावधानी से कण्ठस्थ करके पाठ करने से प्राणी मात्र के स्वामी श्रीमहादेवजी प्रसन्न होते हैं ।। ३९ ।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्र ं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ।।४०।।
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।।
 तव तत्त्वं न जानाभि कीदृशोऽसि महेश्वरः ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।। तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
हे महेश्वर ! मैं नहीं जानता कि आप कैसे हैं? आप चाहे जैसे हों, आपके लिये मेरा नमस्कार है ।। ४१ ।।
एकाकालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२।।
हे प्रभु ! प्रातःकाल या दोपहर या सायंकाल में या तीनों काल में जो आपकी महिमा का गान करेगा, वह सब पापों से छूटकर आपके लोक में सुख पूर्वक निवास करेगा ।। ४२ ।।
इत्येषा वाङ्‌मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः ।
अपिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।॥४३॥
इस प्रकार इस वाङ्‌मयी पूजा को मैं श्रीशङ्करजी के चरणों में अर्पण करता है, जिससे श्रीमहादेवजी मुझपर प्रसन्न रहें ।। ४३
।। ।। इति भाषाटीकोपेतं श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रं समाप्तम् ।।

शिव महिम्न स्तोत्र की दिव्य कथा
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तियों का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।

शिव महिम्न स्तोत्र के लाभ
शिव महिम्न स्तोत्र की रचना गंधर्वराज पुष्पदंत ने की थी. इस स्तोत्र में 43 छंद हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र के कई लाभ हैं, जिनमें से कुछ ये हैं:
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव की दिव्य कृपा मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन से बाधाएं और चुनौतियां दूर होती हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को डर पर काबू पाने में मदद मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को अनंत आनंद मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को जीवन का कोई भी भय, रोग या शोक नहीं सताता.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को तमाम तरह के दान, तप और तीर्थाटन से ज़्यादा पुण्यफल मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को सभी सुखों की प्राप्ति होती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है.

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

 मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411

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जीवन-रक्षा के उपाय

 


जीवन-रक्षा के उपाय
महामृत्युंजय मंत्र द्वारा विभिन्न उपादानों से हवन करने पर मनुष्य के अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। इन्हें प्रतिदिन क्रमवार रूप में नीचे दिया जा रहा है-
रविवार को किसी भी महामृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, जौ, धतूरे के बीज व पुष्पादि से दशांश हवन करने पर स्तंभन होता है।
सोमवार को 10 हजार जप करके घी, जौ, लाजा और पत्ते वाले शाक से दशांश हवन करने पर मोहन होता है।
मंगलवार को जप के उपरांत घी, श्रीपर्णी, मधु, श्रीफल और इमली से हवन करने पर शत्रु द्वारा पहुंचाई जाने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती है।
बुधवार को मृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, शतावरी, त्रिकंटक और बिल्वप्रत्र द्वारा हवन करने से आकर्षण होता है।
गुरुवार को पूर्वोक्त संख्या में मंत्र का जप करके घी, कमलगट्टे और चंदन आदि से हवन करने पर वशीकरण होता है।
शुक्रवार को इतनी ही संख्या में जप करके, श्मशान में जाकर हवन करने से उच्चाटन होता है।
शनिवार को 10 हजार मंत्र जपकर घी, दूध, बैंगन और धतूरे के पुष्पादि से हवन करने पर परम शांति प्राप्त होती है।
शनिवार अथवा मंगलवार के दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर, उसका स्पर्श करते हुए मृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करें। तत्पश्चात् दूब, बरगद के पत्ते अथवा जटा, जवापुष्प, कनेर के पुष्प, बिल्वपत्र, ढाक की समिधा और काली अपराजिता के पुष्प के साथ घी मिलाकर दशांश हवन करें। इस क्रिया से शीघ्र ही रोग से मुक्ति मिलती है, मृत्यु का निवारण होता है तथा जीवन की रक्षा होती है।
महामृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करके नीम के पत्ते सरसों के तेल में मिलाकर हवन करने पर शत्रु द्वारा किए गए कुकृत्य मिटकर, जीवन की सुरक्षा हो जाती है।
सभी प्रकार के अभिचार दूर करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप के बाद पंचगव्य से हवन करना चाहिए। इससे मन को शांति भी प्राप्त होती है।
किसी भी बड़ी विपत्ति से मुक्ति हेतु, मृत्युंजय मंत्र के 10 हजार जप के पश्चात् जवापुष्प और विष्णुकांता के पुष्पों से हवन करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र की सिद्धि के लिए जायफल से हवन करना उत्तम है।
वैसे तो इस प्रकार के बहुत से उपाय हैं जो रोगों के निवारण तथा दीर्घ जीवन के लिए प्रयोग किए जाते हैं। मगर उन सभी का विस्तार यहां पर देना संभव नहीं है, क्योंकि महामृत्युंजय मंत्र के जप और उनका विधान यही हमारी पुस्तक का मुख्य विषय है। अतः इस विधान के अंतर्गत आने वाले कुछ विशेष उपायों की जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है। महामृत्युंजय साधना करने वाले प्रत्येक साधक को इसकी जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
मंत्र-जप और रुद्राभिषेक
जब रोगी बहुत कठिन स्थिति में होता है, तो आत्मीयजन और परिवार के लोग बड़ी बैचेनी का अनुभव करते हैं। सभी अपनी-अपनी बुद्धि और योग्यता के अनुसार रोगी को इस पीड़ादायक अवस्था से बाहर निकालने का उपाय खोजने में लग जाते हैं।
उस समय सभी का ध्यान अनायास भगवान महामृत्युंजय की ओर चला जाता है, क्योंकि वे कष्टों का निवारण करने और जीवन प्रदान करने वाले हैं। भगवान मृत्युंजय साक्षात् शिव हैं। तरह-तरह के जो भी उपाय होते हैं, वो सभी शिवजी को प्रसन्न करने और अपने अनुकूल बनान के लिए होते हैं। इन उपायों में दो उपाय प्रमुख हैं-
1. महामृत्युंजय मंत्र का जप
2. रुद्राभिषेक
हम पिछले पृष्ठों में महामृत्युंजय मत्रा के बारे में काफी कुछ बता चुके हैं (इनका संक्षिप्त वर्णन आगे भी करेंगे) और अब पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए 'रुद्राभिषेक' पर कुछ प्रकाश डालेंगे। 'रुद्राभिषेक' दो शब्दों से मिलकर बना है अर्थात् 'रुद्र' और 'अभिषेक'। रुद्र तो शिव हैं एवं अभिषेक का अर्थ है, स्नान करना या कराना। रुद्र और अभिषेक का संक्षिप्त रूप 'रुद्राभिषेक' है। शिवलिंग
पर जलधारा छोड़ना ही 'रुद्राभिषेक' कहलाता है। रुद्रमंत्रों का विधान वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में उद्धृत मंत्रों से होता है। इसके लिए रुद्राष्टाध्यायी का इसमें आश्रय लिया जाता है, क्योंकि इसमें सभी प्रकार के मंत्रों का समावेश है। किन्तु 'कैवल्योपनिषद्' और 'जाबालोपनिषद् ' में इसके बारे में बहुत स्पष्ट कहा गया है।
'कैवल्योपनिषद्' में शतरुद्रिमधीते सोऽग्निपूतो भवति इत्यादि वचनों द्वारा शतरुद्रिय के पाठ से अग्नि, वायु, सुरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्ण चोरी, कृत्य एवं अकृत्य से पवित्र होने तथा कैवल्यपद प्राप्ति तक का ज्ञान-फल मिलता है। लेकिन 'जाबालोपनिषद्' में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- शतरुद्रियेणेत्येतान्येव ह वा अमृतस्य नमानि एतैर्ह वा अमृतो भवतीति अर्थात् शतरुद्रिय के पाठ से, वस्तुतः इसके द्वारा अभिषेक करने से अमृत्व प्राप्त होता है। इसलिए शतरुद्रिय मंत्रों से अभिषेक का बड़ा माहात्म्य है।
कुछ पाठकगण यह जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभिषेक कब और कैसे किया जाता है। इस बारे में शास्त्रों में उल्लेख है कि गुरु-परम्परा का अनुसरण करते हुए शतरुद्रिय के पाठ द्वारा अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक साधारणतः शुद्ध जल या गंगाजल से होता है। किसी विशेष अवसर पर अथवा सोमवार के दिन, प्रदोष या शिवरात्रि आदि पर्वकालों में गाय का कच्चा दूध पानी में मिलाकर या केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है।
तांत्रिक प्रयोग की दृष्टि से रोग-शांति में अन्य वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान शास्त्रों में देखने को मिलता है।
यदि किसी व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति पर कोई अभिचार-कृत्य कराया हो, तो किसी भी मृत्युंजय मंत्र का पांच या सात माला जप कर, सरसों के तेल से अभिषेक करें। इसी प्रकार टायफाइड आदि ज्वरों से मुक्ति के लिए छाछ (मट्ठे) से, सभी प्रकार की सुख-शांति के लिए आम, गन्ना, मौसमी, संतरा व नारियल के रस के मिश्रण से या फिर भांग से तथा वर्षा न होने पर सहस्रधारा से अभिषेक करना चाहिए।
दान
हवन और अभिषेक के बाद दान का स्थान है। अनेक बार देखा गया है कि कुछ रोग विविध उपचार करने पर भी नहीं ठीक होते। ऐसी स्थिति में चिकित्सा और जप के अतिरिक्त शास्त्रकारों ने निम्न आज्ञा दी है-
तत्तद्दोष विनाशार्थं कुर्याद् यथोदितम्।
प्रतिरोगं च यद्दानं जप-होमादि कीर्तितम् ।।
प्रायश्चित्तं तु तन्कृत्वा चिकित्सामारमेत्ततः।
प्रदद्यात् सर्वरोगघ्नं छायापात्रं विधानतः ।।
छायापात्र दान-कर्मदोषों से उत्पन्न रोगों की शांति के लिए जिस-जिस दान का वर्णन किया गया है, उसका दान अवश्य करना चाहिए। प्रत्येक रोग के लिए निर्देशित दातव्य दान, जप, होमादि और प्रायश्चित करके चिकित्सा आरंभ करें। साथ ही सर्वरोगों के नाशक छायापात्र का विधानपूर्वक दान करें। छायापात्र दान का प्रयोग निम्नवत है-
चौंसठ पल कांसे की कटोरी में शुद्ध गाय का घृत (घी) भरकर, उसमें सुवर्ण का टुकड़ा अथवा कुछ दक्षिणा डाल दें। फिर रोगी उस घी में अपना चेहरा देखे। अच्छी तरह चेहरा देखने के बाद वह पात्र किसी ब्राह्मण को दे दें। दान से पूर्व तिथि और वार आदि का स्मरण करके यह संकल्प करें-
मम दीर्घायुरारोग्यसुतेजस्वित्व प्राप्ति पूर्वकं शरीरगत (अमुक) रोगनिवृत्तये अमुक नाम्ने ब्राह्मणाय सघृत-दक्षिणाकं छायापात्रदानमहं करिष्ये ।
इस संकल्प के बाद पात्र में जल डाल दें। फिर पात्र की पूजा करें। पूजा का मंत्र निम्नलिखित है-
ॐ आज्यं सुराणामाहारमाज्यं पापहरं परम्।
आज्ममध्ये मुखं दृष्ट्वा सर्वपापै प्रमुच्यते ।
घृतं नाशयते व्याधिं घृतं च हरते रुजम् ।
घृतं तेजोऽधिकरणं घृतमायुः प्रवर्धते ॥
तत्पश्चात् निम्न मंत्र पढ़कर उसमें अपना चेहरा देखें-
आयुर्बलं यशो वर्च आज्यं स्वर्णं तथामृतप्।
आधारं तेजसां यस्मादतः शांतिं प्रयच्छ मे ।।
फिर पात्र को भूमि से टिकाए बिना ब्राह्मण को दे दें और प्रणाम करके सम्मान के विदा करें।
साथ उसने का एक दूसरा उपाय इस प्रकार है-किसी पात्र अथवा वस्त्र में, अपनी श्रद्धा के अनुसार सवाया तौल में चावल लेकर उसमें कुछ द्रव्य अथवा वस्तु आम्रा फिर उसे रोगी के ऊपर 21 बार सिर से पैर तक उतारकर, निम्न मंत्र बोलकर ब्राह्मण को दान कर दें-
ये मां रोगाः प्रबाधन्ते देहस्थाः सततं मम।
गृहणीष्व प्रतिरूपेण तान् रोगान् द्विसत्तम ।।
तुलादान-यदि शरीर में किसी विशेष रोग ने घर कर लिया हो और अनेक प्रकार के उपचार करने पर भी कोई लाभ न होता हो, तो चंद्रग्रहण के अवसर पर तुलादान करना चाहिए। तुलादान का अर्थ है-तौलकर दान करना! अपनी सामथ्यं के अनुसार शरीर के वजन का द्रव्य, वस्तु या खाद्य सामग्री का दान करना ही तुलादान है। इस प्रकार के दान से रोगी का रोग दूर होकर वह पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है।
यह बात सदैव स्मरण रखें कि कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए कभी किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, बल्कि अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि अच्छे कर्म स्वयं ही करने चाहिए। आत्मकल्याणकारी कार्य-दान-पुण्य, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन और स्तुति-प्रार्थना आदि मनुष्य स्वयं करे। यदि किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक स्थिति ठीक न हो, तो अपने प्रतिनिधि द्वारा ऐसे कार्य कराए जा सकते हैं। प्रतिनिधि का अर्थ है-कोई निकट-संबंधी! यदि कोई ऐसा संबंधी न मिले, तो किसी नान-संध्याशील, पवित्र, सदाचारी अथवा मंत्रज्ञ ब्राह्मण द्वारा ये कार्य कराए जा सकते हैं।
मंत्र-जप एवं साधना-उपासना के लिए आंतरिक और बाह्य शुद्धि दोनों अत्यंत आवश्यक हैं। यदि ज्ञान न हो तो मरा मरा के जप से ही सिद्धि मिल जाती है। ज्ञान होने पर प्रातः से सायं तक कर्मकांड के विभिन्न सोपानों का पालन करते हुए विधि-विधान से जपानुष्ठान करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। अतः श्रद्धा-भाव रखते हुए जिज्ञासापूर्वक विषय को समझें और अपने कार्य में संलग्न हो जाएं।
आत्मज्ञान की ओर अभिमुख होने से विचारों में स्थिरता, भावनाओं में पवित्रता तथा कर्तव्यों में दृढ़ता आती है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः अर्थात् यह आत्मज्ञान बलहीन व्यक्ति के द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार व्यक्ति को अपना कार्य सफल बनाने के लिए कभी शिथिल, उदास,शंकाशील, हतोत्साह या चंचल नहीं होना चाहिए। इस सम्बंध में निम्न पंक्ति भी महत्वपूर्ण है-आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि। अर्थात् स्त्री-परिवार और धन-संपत्ति से भी पहले सदा अपने आपकी रक्षा करनी चाहिए। इस सूक्ति को मूलमंत्र मानकर अपने स्वास्थ्य एवं मनोबल की रक्षा में सदा जागरूक रहना प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है। और यह तभी हो सकता है, जब आप अपना कार्य स्वयं करें।
संभवतः यह विचार आपके मन में उठ सकते हैं कि इतने विस्तृत कर्मकांड तथा उससे संबंधित संस्कृत भाषा के मंत्रों का शुद्ध उच्चारण कैसे हो सकेगा ? नित्य इन नियमों का निर्वाह मैं कैसे कर सकूंगा ? क्या मैं यह सब कर पाऊंगा ? ऐसे ही कितने प्रश्न मन को झकझोर सकते हैं। परंतु इन सबका एक ही उत्तर है कि आप निश्चय ही यह सब कर सकते हैं और यह आपको करना ही चाहिए।
अपनी पात्रता और उत्साह के अनुसार शनैः शनैः मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति एक दिन शिखर पर पहुंच जाता है। पौराणिक एवं लौकिक आख्यानों से स्पष्ट है कि पहले छोटे-से-छोटे मंत्र का जप करें तथा जप-संबंधी निर्देशों का पालन अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें। इससे आपका मानसिक विकास होगा, धीरे-धीरे ज्ञान की वृद्धि होने लगेगी तथा उपासना के द्वार खुल जाएंगे।
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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श्री गणपति सहस्रनामावली स्तोत्र

 

श्री गणपति सहस्रनामावली स्तोत्र
श्री गणपति सहस्त्रनामावली भगवान श्री गणेश जी को समर्पित हैं ! श्री गणपति सहस्त्रनामावली को जो भी साधक नियमित रूप से पाठ करने से विद्या प्राप्ति, धन प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव है लेकिन इसमें निष्ठा और निरंतरता की आवश्यकता अधिक है।
अथ श्री गणपति सहस्रनामावली
ॐ गणेश्वराय नमः । ॐ गणक्रीडाय नमः । ॐ गणनाथाय नमः । ॐ गणाधिपाय नमः । ॐ एकदंष्ट्राय नमः । ॐ वक्रतुण्डाय नमः । ॐ गजवक्त्राय नमः । ॐ महोदराय नमः । ॐ लम्बोदराय नमः । ॐ धूम्रवर्णाय नमः । ॐ विकटाय नमः । ॐ विघ्ननायकाय नमः । ॐ सुमुखाय नमः । ॐ दुर्मुखाय नमः । ॐ बुद्धाय नमः । ॐ विघ्नराजाय नमः । ॐ गजाननाय नमः । ॐ भीमाय नमः । ॐ प्रमोदाय नमः । ॐ आमोदाय नमः । ॐ सुरानन्दाय नमः । ॐ मदोत्कटाय नमः । ॐ हेरम्बाय नमः । ॐ शम्बराय नमः । ॐ शम्भवे नमः । ॐ लम्बकर्णाय नमः । ॐ महाबलाय नमः । ॐ नन्दनाय नमः । ॐ अलम्पटाय नमः । ॐ अभीरवे नमः । ॐ मेघनादाय नमः । ॐ गणञ्जयाय नमः । ॐ विनायकाय नमः । ॐ विरूपाक्षाय नमः । ॐ धीरशूराय नमः । ॐ वरप्रदाय नमः । ॐ महागणपतये नमः । ॐ बुद्धिप्रियाय नमः । ॐ क्षिप्रप्रसादनाय नमः । ॐ रुद्रप्रियाय नमः । ॐ गणाध्यक्षाय नमः । ॐ उमापुत्राय नमः । ॐ अघनाशनाय नमः । ॐ कुमारगुरवे नमः । ॐ ईशानपुत्राय नमः । ॐ मूषकवाहनाय नमः । ॐ सिद्धिप्रियाय नमः । ॐ सिद्धिपतये नमः । ॐ सिद्धये नमः । ॐ सिद्धिविनायकाय नमः । ॐ अविघ्नाय नमः । ॐ तुम्बुरवे नमः । ॐ सिंहवाहनाय नमः । ॐ मोहिनीप्रियाय नमः । ॐ कटङ्कटाय नमः । ॐ राजपुत्राय नमः । ॐ शालकाय नमः । ॐ सम्मिताय नमः । ॐ अमिताय नमः । ॐ कूष्माण्ड सामसम्भूतये नमः । ॐ दुर्जयाय नमः । ॐ धूर्जयाय नमः । ॐ जयाय नमः । ॐ भूपतये नमः । ॐ भुवनपतये नमः । ॐ भूतानां पतये नमः । ॐ अव्ययाय नमः । ॐ विश्वकर्त्रे नमः । ॐ विश्वमुखाय नमः । ॐ विश्वरूपाय नमः । ॐ निधये नमः । ॐ घृणये नमः । ॐ कवये नमः । ॐ कवीनामृषभाय नमः । ॐ ब्रह्मण्याय नमः । ॐ ब्रह्मणस्पतये नमः । ॐ ज्येष्ठराजाय नमः । ॐ निधिपतये नमः । ॐ निधिप्रियपतिप्रियाय नमः । ॐ हिरण्मयपुरान्तःस्थाय नमः । ॐ सूर्यमण्डलमध्यगाय नमः । ॐ कराहतिविध्वस्तसिन्धुसलिलाय नमः । ॐ पूषदंतभिदे नमः । ॐ उमाङ्ककेलिकुतुकिने नमः । ॐ मुक्तिदाय नमः । ॐ कुलपालनाय नमः । ॐ किरीटिने नमः । ॐ कुण्डलिने नमः । ॐ हारिणे नमः । ॐ वनमालिने नमः । ॐ मनोमयाय नमः । ॐ वैमुख्यहतदैत्यश्रिये नमः । ॐ पादाहतिजितक्षितये नमः । ॐ सद्योजातस्वर्णमुञ्जमेखलिने नमः । ॐ दुर्निमित्तहृते नमः । ॐ दुःस्वप्नहृते नमः । ॐ प्रसहनाय नमः । ॐ गुणिने नमः । ॐ नादप्रतिष्ठिताय नमः । ॐ सुरूपाय नमः ॥ १००॥
ॐ सर्वनेत्राधिवासाय नमः । ॐ वीरासनाश्रयाय नमः । ॐ पीताम्बराय नमः । ॐ खण्डरदाय नमः । ॐ खण्डेन्दुकृतशेखराय नमः । ॐ चित्राङ्कश्यामदशनाय नमः । ॐ भालचन्द्राय नमः । ॐ चतुर्भुजाय नमः । ॐ योगाधिपाय नमः । ॐ तारकस्थाय नमः । ॐ पुरुषाय नमः । ॐ गजकर्णाय नमः । ॐ गणाधिराजाय नमः । ॐ विजयस्थिराय नमः । ॐ गजपतिर्ध्वजिने नमः । ॐ देवदेवाय नमः । ॐ स्मरप्राणदीपकाय नमः । ॐ वायुकीलकाय नमः । ॐ विपश्चिद् वरदाय नमः । ॐ नादोन्नादभिन्नबलाहकाय नमः । ॐ वराहरदनाय नमः । ॐ मृत्युंजयाय नमः । ॐ व्याघ्राजिनाम्बराय नमः । ॐ इच्छाशक्तिधराय नमः । ॐ देवत्रात्रे नमः । ॐ दैत्यविमर्दनाय नमः । ॐ शम्भुवक्त्रोद्भवाय नमः । ॐ शम्भुकोपघ्ने नमः । ॐ शम्भुहास्यभुवे नमः । ॐ शम्भुतेजसे नमः । ॐ शिवाशोकहारिणे नमः । ॐ गौरीसुखावहाय नमः । ॐ उमाङ्गमलजाय नमः । ॐ गौरीतेजोभुवे नमः । ॐ स्वर्धुनीभवाय नमः । ॐ यज्ञकायाय नमः । ॐ महानादाय नमः । ॐ गिरिवर्ष्मणे नमः । ॐ शुभाननाय नमः । ॐ सर्वात्मने नमः । ॐ सर्वदेवात्मने नमः । ॐ ब्रह्ममूर्ध्ने नमः । ॐ ककुप् श्रुतये नमः । ॐ ब्रह्माण्डकुम्भाय नमः । ॐ चिद् व्योमभालाय नमः । ॐ सत्यशिरोरुहाय नमः । ॐ जगज्जन्मलयोन्मेषनिमेषाय नमः । ॐ अग्न्यर्कसोमदृशे नमः । ॐ गिरीन्द्रैकरदाय नमः । ॐ धर्माधर्मोष्ठाय नमः । ॐ सामबृंहिताय नमः । ॐ ग्रहर्क्षदशनाय नमः । ॐ वाणीजिह्वाय नमः । ॐ वासवनासिकाय नमः । ॐ कुलाचलांसाय नमः । ॐ सोमार्कघण्टाय नमः । ॐ रुद्रशिरोधराय नमः । ॐ नदीनदभुजाय नमः । ॐ सर्पाङ्गुलीकाय नमः । ॐ तारकानखाय नमः । ॐ भ्रूमध्यसंस्थितकराय नमः । ॐ ब्रह्मविद्यामदोत्कटाय नमः । ॐ व्योमनाभये नमः । ॐ श्रीहृदयाय नमः । ॐ मेरुपृष्ठाय नमः । ॐ अर्णवोदराय नमः । ॐ कुक्षिस्थयक्षगन्धर्व रक्षःकिन्नरमानुषाय नमः । ॐ पृथ्विकटये नमः । ॐ सृष्टिलिङ्गाय नमः । ॐ शैलोरवे नमः । ॐ दस्रजानुकाय नमः । ॐ पातालजंघाय नमः । ॐ मुनिपदे नमः । ॐ कालाङ्गुष्ठाय नमः । ॐ त्रयीतनवे नमः । ॐ ज्योतिर्मण्डललांगूलाय नमः । ॐ हृदयालाननिश्चलाय नमः । ॐ हृत्पद्मकर्णिकाशालिवियत्केलिसरोवराय नमः । ॐ सद्भक्तध्याननिगडाय नमः । ॐ पूजावारिनिवारिताय नमः । ॐ प्रतापिने नमः । ॐ कश्यपसुताय नमः । ॐ गणपाय नमः । ॐ विष्टपिने नमः । ॐ बलिने नमः । ॐ यशस्विने नमः । ॐ धार्मिकाय नमः । ॐ स्वोजसे नमः । ॐ प्रथमाय नमः । ॐ प्रथमेश्वराय नमः । ॐ चिन्तामणिद्वीप पतये नमः । ॐ कल्पद्रुमवनालयाय नमः । ॐ रत्नमण्डपमध्यस्थाय नमः । ॐ रत्नसिंहासनाश्रयाय नमः । ॐ तीव्राशिरोद्धृतपदाय नमः । ॐ ज्वालिनीमौलिलालिताय नमः । ॐ नन्दानन्दितपीठश्रिये नमः । ॐ भोगदाभूषितासनाय नमः । ॐ सकामदायिनीपीठाय नमः । ॐ स्फुरदुग्रासनाश्रयाय नमः ॥ २००॥
ॐ तेजोवतीशिरोरत्नाय नमः । ॐ सत्यानित्यावतंसिताय नमः । ॐ सविघ्ननाशिनीपीठाय नमः । ॐ सर्वशक्त्यम्बुजाश्रयाय नमः । ॐ लिपिपद्मासनाधाराय नमः । ॐ वह्निधामत्रयाश्रयाय नमः । ॐ उन्नतप्रपदाय नमः । ॐ गूढगुल्फाय नमः । ॐ संवृतपार्ष्णिकाय नमः । ॐ पीनजंघाय नमः । ॐ श्लिष्टजानवे नमः । ॐ स्थूलोरवे नमः । ॐ प्रोन्नमत्कटये नमः । ॐ निम्ननाभये नमः । ॐ स्थूलकुक्षये नमः । ॐ पीनवक्षसे नमः । ॐ बृहद्भुजाय नमः । ॐ पीनस्कन्धाय नमः । ॐ कम्बुकण्ठाय नमः । ॐ लम्बोष्ठाय नमः । ॐ लम्बनासिकाय नमः । ॐ भग्नवामरदाय नमः । ॐ तुङ्गसव्यदन्ताय नमः । ॐ महाहनवे नमः । ॐ ह्रस्वनेत्रत्रयाय नमः । ॐ शूर्पकर्णाय नमः । ॐ निबिडमस्तकाय नमः । ॐ स्तबकाकारकुम्भाग्राय नमः । ॐ रत्नमौलये नमः । ॐ निरङ्कुशाय नमः । ॐ सर्पहारकटिसूत्राय नमः । ॐ सर्पयज्ञोपवीतये नमः । ॐ सर्पकोटीरकटकाय नमः । ॐ सर्पग्रैवेयकाङ्गदाय नमः । ॐ सर्पकक्ष्योदराबन्धाय नमः । ॐ सर्पराजोत्तरीयकाय नमः । ॐ रक्ताय नमः । ॐ रक्ताम्बरधराय नमः । ॐ रक्तमाल्यविभूषणाय नमः । ॐ रक्तेक्षणाय नमः । ॐ रक्तकराय नमः । ॐ रक्तताल्वोष्ठपल्लवाय नमः । ॐ श्वेताय नमः । ॐ श्वेताम्बरधराय नमः । ॐ श्वेतमाल्यविभूषणाय नमः । ॐ श्वेतातपत्ररुचिराय नमः । ॐ श्वेतचामरवीजिताय नमः । ॐ सर्वावयवसम्पूर्णसर्वलक्षणलक्षिताय नमः । ॐ सर्वाभरणशोभाढ्याय नमः । ॐ सर्वशोभासमन्विताय नमः । ॐ सर्वमङ्गलमाङ्गल्याय नमः । ॐ सर्वकारणकारणाय नमः । ॐ सर्वदैककराय नमः । ॐ शार्ङ्गिणे नमः । ॐ बीजापूरिणे नमः । ॐ गदाधराय नमः । ॐ इक्षुचापधराय नमः । ॐ शूलिने नमः । ॐ चक्रपाणये नमः । ॐ सरोजभृते नमः । ॐ पाशिने नमः । ॐ धृतोत्पलाय नमः । ॐ शालीमञ्जरीभृते नमः । ॐ स्वदन्तभृते नमः । ॐ कल्पवल्लीधराय नमः । ॐ विश्वाभयदैककराय नमः । ॐ वशिने नमः । ॐ अक्षमालाधराय नमः । ॐ ज्ञानमुद्रावते नमः । ॐ मुद्गरायुधाय नमः । ॐ पूर्णपात्रिणे नमः । ॐ कम्बुधराय नमः । ॐ विधृतालिसमुद्गकाय नमः । ॐ मातुलिङ्गधराय नमः । ॐ चूतकलिकाभृते नमः । ॐ कुठारवते नमः । ॐ पुष्करस्थस्वर्णघटीपूर्णरत्नाभिवर्षकाय नमः । ॐ भारतीसुन्दरीनाथाय नमः । ॐ विनायकरतिप्रियाय नमः । ॐ महालक्ष्मी प्रियतमाय नमः । ॐ सिद्धलक्ष्मीमनोरमाय नमः । ॐ रमारमेशपूर्वाङ्गाय नमः । ॐ दक्षिणोमामहेश्वराय नमः । ॐ महीवराहवामाङ्गाय नमः । ॐ रविकन्दर्पपश्चिमाय नमः । ॐ आमोदप्रमोदजननाय नमः । ॐ सप्रमोदप्रमोदनाय नमः । ॐ समेधितसमृद्धिश्रिये नमः । ॐ ऋद्धिसिद्धिप्रवर्तकाय नमः । ॐ दत्तसौख्यसुमुखाय नमः । ॐ कान्तिकन्दलिताश्रयाय नमः । ॐ मदनावत्याश्रितांघ्रये नमः । ॐ कृत्तदौर्मुख्यदुर्मुखाय नमः । ॐ विघ्नसम्पल्लवोपघ्नाय नमः । ॐ सेवोन्निद्रमदद्रवाय नमः । ॐ विघ्नकृन्निघ्नचरणाय नमः । ॐ द्राविणीशक्ति सत्कृताय नमः । ॐ तीव्राप्रसन्ननयनाय नमः । ॐ ज्वालिनीपालतैकदृशे नमः । ॐ मोहिनीमोहनाय नमः ॥ ३००॥
ॐ भोगदायिनीकान्तिमण्डिताय नमः । ॐ कामिनीकान्तवक्त्रश्रिये नमः । ॐ अधिष्ठित वसुन्धराय नमः । ॐ वसुन्धरामदोन्नद्धमहाशङ्खनिधिप्रभवे नमः । ॐ नमद्वसुमतीमौलिमहापद्मनिधिप्रभवे नमः । ॐ सर्वसद्गुरुसंसेव्याय नमः । ॐ शोचिष्केशहृदाश्रयाय नमः । ॐ ईशानमूर्ध्ने नमः । ॐ देवेन्द्रशिखायै नमः । ॐ पवननन्दनाय नमः । ॐ अग्रप्रत्यग्रनयनाय नमः । ॐ दिव्यास्त्राणां प्रयोगविदे नमः । ॐ ऐरावतादिसर्वाशावारणावरणप्रियाय नमः । ॐ वज्राद्यस्त्रपरिवाराय नमः । ॐ गणचण्डसमाश्रयाय नमः । ॐ जयाजयापरिवाराय नमः । ॐ विजयाविजयावहाय नमः । ॐ अजितार्चितपादाब्जाय नमः । ॐ नित्यानित्यावतंसिताय नमः । ॐ विलासिनीकृतोल्लासाय नमः । ॐ शौण्डीसौन्दर्यमण्डिताय नमः । ॐ अनन्तानन्तसुखदाय नमः । ॐ सुमङ्गलसुमङ्गलाय नमः । ॐ इच्छाशक्तिज्ञानशक्तिक्रियाशक्तिनिषेविताय नमः । ॐ सुभगासंश्रितपदाय नमः । ॐ ललिताललिताश्रयाय नमः । ॐ कामिनीकामनाय नमः । ॐ काममालिनीकेलिललिताय नमः । ॐ सरस्वत्याश्रयाय नमः । ॐ गौरीनन्दनाय नमः । ॐ श्रीनिकेतनाय नमः । ॐ गुरुगुप्तपदाय नमः । ॐ वाचासिद्धाय नमः । ॐ वागीश्वरीपतये नमः । ॐ नलिनीकामुकाय नमः । ॐ वामारामाय नमः । ॐ ज्येष्ठामनोरमाय नमः । ॐ रौद्रिमुद्रितपादाब्जाय नमः । ॐ हुंबीजाय नमः । ॐ तुङ्गशक्तिकाय नमः । ॐ विश्वादिजननत्राणाय नमः । ॐ स्वाहाशक्तये नमः । ॐ सकीलकाय नमः । ॐ अमृताब्धिकृतावासाय नमः । ॐ मदघूर्णितलोचनाय नमः । ॐ उच्छिष्टगणाय नमः । ॐ उच्छिष्टगणेशाय नमः । ॐ गणनायकाय नमः । ॐ सर्वकालिकसंसिद्धये नमः । ॐ नित्यशैवाय नमः । ॐ दिगम्बराय नमः । ॐ अनपाय नमः । ॐ अनन्तदृष्टये नमः । ॐ अप्रमेयाय नमः । ॐ अजरामराय नमः । ॐ अनाविलाय नमः । ॐ अप्रतिरथाय नमः । ॐ अच्युताय नमः । ॐ अमृताय नमः । ॐ अक्षराय नमः । ॐ अप्रतर्क्याय नमः । ॐ अक्षयाय नमः । ॐ अजय्याय नमः । ॐ अनाधाराय नमः । ॐ अनामयाय नमः । ॐ अमलाय नमः । ॐ अमोघसिद्धये नमः । ॐ अद्वैताय नमः । ॐ अघोराय नमः । ॐ अप्रमिताननाय नमः । ॐ अनाकाराय नमः । ॐ अब्धिभूम्याग्निबलघ्नाय नमः । ॐ अव्यक्तलक्षणाय नमः । ॐ आधारपीठाय नमः । ॐ आधाराय नमः । ॐ आधाराधेयवर्जिताय नमः । ॐ आखुकेतनाय नमः । ॐ आशापूरकाय नमः । ॐ आखुमहारथाय नमः । ॐ इक्षुसागरमध्यस्थाय नमः । ॐ इक्षुभक्षणलालसाय नमः । ॐ इक्षुचापातिरेकश्रिये नमः । ॐ इक्षुचापनिषेविताय नमः । ॐ इन्द्रगोपसमानश्रिये नमः । ॐ इन्द्रनीलसमद्युतये नमः । ॐ इन्दिवरदलश्यामाय नमः । ॐ इन्दुमण्डलनिर्मलाय नमः । ॐ इष्मप्रियाय नमः । ॐ इडाभागाय नमः । ॐ इराधाम्ने नमः । ॐ इन्दिराप्रियाय नमः । ॐ इअक्ष्वाकुविघ्नविध्वंसिने नमः । ॐ इतिकर्तव्यतेप्सिताय नमः । ॐ ईशानमौलये नमः । ॐ ईशानाय नमः । ॐ ईशानसुताय नमः । ॐ ईतिघ्ने नमः । ॐ ईषणात्रयकल्पान्ताय नमः । ॐ ईहामात्रविवर्जिताय नमः । ॐ उपेन्द्राय नमः ॥ ४००॥
ॐ उडुभृन्मौलये नमः । ॐ उण्डेरकबलिप्रियाय नमः । ॐ उन्नताननाय नमः । ॐ उत्तुङ्गाय नमः । ॐ उदारत्रिदशाग्रण्ये नमः । ॐ उर्जस्वते नमः । ॐ उष्मलमदाय नमः । ॐ ऊहापोहदुरासदाय नमः । ॐ ऋग्यजुस्सामसम्भूतये नमः । ॐ ऋद्धिसिद्धिप्रवर्तकाय नमः । ॐ ऋजुचित्तैकसुलभाय नमः । ॐ ऋणत्रयमोचकाय नमः । ॐ स्वभक्तानां लुप्तविघ्नाय नमः । ॐ सुरद्विषांलुप्तशक्तये नमः । ॐ विमुखार्चानां लुप्तश्रिये नमः । ॐ लूताविस्फोटनाशनाय नमः । ॐ एकारपीठमध्यस्थाय नमः । ॐ एकपादकृतासनाय नमः । ॐ एजिताखिलदैत्यश्रिये नमः । ॐ एधिताखिलसंश्रयाय नमः । ॐ ऐश्वर्यनिधये नमः । ॐ ऐश्वर्याय नमः । ॐ ऐहिकामुष्मिकप्रदाय नमः । ॐ ऐरम्मदसमोन्मेषाय नमः । ॐ ऐरावतनिभाननाय नमः । ॐ ओंकारवाच्याय नमः । ॐ ओंकाराय नमः । ॐ ओजस्वते नमः । ॐ ओषधीपतये नमः । ॐ औदार्यनिधये नमः । ॐ औद्धत्यधुर्याय नमः । ॐ औन्नत्यनिस्स्वनाय नमः । ॐ सुरनागानामङ्कुशाय नमः । ॐ सुरविद्विषामङ्कुशाय नमः । ॐ अःसमस्तविसर्गान्तपदेषु परिकीर्तिताय नमः । ॐ कमण्डलुधराय नमः । ॐ कल्पाय नमः । ॐ कपर्दिने नमः । ॐ कलभाननाय नमः । ॐ कर्मसाक्षिणे नमः । ॐ कर्मकर्त्रे नमः । ॐ कर्माकर्मफलप्रदाय नमः । ॐ कदम्बगोलकाकाराय नमः । ॐ कूष्माण्डगणनायकाय नमः । ॐ कारुण्यदेहाय नमः । ॐ कपिलाय नमः । ॐ कथकाय नमः । ॐ कटिसूत्रभृते नमः । ॐ खर्वाय नमः । ॐ खड्गप्रियाय नमः । ॐ खड्गखान्तान्तः स्थाय नमः । ॐ खनिर्मलाय नमः । ॐ खल्वाटशृंगनिलयाय नमः । ॐ खट्वाङ्गिने नमः । ॐ खदुरासदाय नमः । ॐ गुणाढ्याय नमः । ॐ गहनाय नमः । ॐ ग-स्थाय नमः । ॐ गद्यपद्यसुधार्णवाय नमः । ॐ गद्यगानप्रियाय नमः । ॐ गर्जाय नमः । ॐ गीतगीर्वाणपूर्वजाय नमः । ॐ गुह्याचाररताय नमः । ॐ गुह्याय नमः । ॐ गुह्यागमनिरूपिताय नमः । ॐ गुहाशयाय नमः । ॐ गुहाब्धिस्थाय नमः । ॐ गुरुगम्याय नमः । ॐ गुरोर्गुरवे नमः । ॐ घण्टाघर्घरिकामालिने नमः । ॐ घटकुम्भाय नमः । ॐ घटोदराय नमः । ॐ चण्डाय नमः । ॐ चण्डेश्वरसुहृदे नमः । ॐ चण्डीशाय नमः । ॐ चण्डविक्रमाय नमः । ॐ चराचरपतये नमः । ॐ चिन्तामणिचर्वणलालसाय नमः । ॐ छन्दसे नमः । ॐ छन्दोवपुषे नमः । ॐ छन्दोदुर्लक्ष्याय नमः । ॐ छन्दविग्रहाय नमः । ॐ जगद्योनये नमः । ॐ जगत्साक्षिणे नमः । ॐ जगदीशाय नमः । ॐ जगन्मयाय नमः । ॐ जपाय नमः । ॐ जपपराय नमः । ॐ जप्याय नमः । ॐ जिह्वासिंहासनप्रभवे नमः । ॐ झलज्झलोल्लसद्दान झंकारिभ्रमराकुलाय नमः । ॐ टङ्कारस्फारसंरावाय नमः । ॐ टङ्कारिमणिनूपुराय नमः । ॐ ठद्वयीपल्लवान्तःस्थ सर्वमन्त्रैकसिद्धिदाय नमः । ॐ डिण्डिमुण्डाय नमः । ॐ डाकिनीशाय नमः । ॐ डामराय नमः । ॐ डिण्डिमप्रियाय नमः । ॐ ढक्कानिनादमुदिताय नमः । ॐ ढौकाय नमः ॥५००॥
ॐ ढुण्ढिविनायकाय नमः । ॐ तत्वानां परमाय तत्वाय नमः । ॐ तत्वम्पदनिरूपिताय नमः । ॐ तारकान्तरसंस्थानाय नमः । ॐ तारकाय नमः । ॐ तारकान्तकाय नमः । ॐ स्थाणवे नमः । ॐ स्थाणुप्रियाय नमः । ॐ स्थात्रे नमः । ॐ स्थावराय जङ्गमाय जगते नमः । ॐ दक्षयज्ञप्रमथनाय नमः । ॐ दात्रे नमः । ॐ दानवमोहनाय नमः । ॐ दयावते नमः । ॐ दिव्यविभवाय नमः । ॐ दण्डभृते नमः । ॐ दण्डनायकाय नमः । ॐ दन्तप्रभिन्नाभ्रमालाय नमः । ॐ दैत्यवारणदारणाय नमः । ॐ दंष्ट्रालग्नद्विपघटाय नमः । ॐ देवार्थनृगजाकृतये नमः । ॐ धनधान्यपतये नमः । ॐ धन्याय नमः । ॐ धनदाय नमः । ॐ धरणीधराय नमः । ॐ ध्यानैकप्रकटाय नमः । ॐ ध्येयाय नमः । ॐ ध्यानाय नमः । ॐ ध्यानपरायणाय नमः । ॐ नन्द्याय नमः । ॐ नन्दिप्रियाय नमः । ॐ नादाय नमः । ॐ नादमध्यप्रतिष्ठिताय नमः । ॐ निष्कलाय नमः । ॐ निर्मलाय नमः । ॐ नित्याय नमः । ॐ नित्यानित्याय नमः । ॐ निरामयाय नमः । ॐ परस्मै व्योम्ने नमः । ॐ परस्मै धाम्मे नमः । ॐ परमात्मने नमः । ॐ परस्मै पदाय नमः । ॐ परात्पराय नमः । ॐ पशुपतये नमः । ॐ पशुपाशविमोचकाय नमः । ॐ पूर्णानन्दाय नमः । ॐ परानन्दाय नमः । ॐ पुराणपुरुषोत्तमाय नमः । ॐ पद्मप्रसन्ननयनाय नमः । ॐ प्रणताज्ञानमोचकाय नमः । ॐ प्रमाणप्रत्यायातीताय नमः । ॐ प्रणतार्तिनिवारणाय नमः । ॐ फलहस्ताय नमः । ॐ फणिपतये नमः । ॐ फेत्काराय नमः । ॐ फणितप्रियाय नमः । ॐ बाणार्चितांघ्रियुगुलाय नमः । ॐ बालकेलिकुतूहलिने नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । ॐ ब्रह्मार्चितपदाय नमः । ॐ ब्रह्मचारिणे नमः । ॐ बृहस्पतये नमः । ॐ बृहत्तमाय नमः । ॐ ब्रह्मपराय नमः । ॐ ब्रह्मण्याय नमः । ॐ ब्रह्मवित्प्रियाय नमः । ॐ बृहन्नादाग्र्यचीत्काराय नमः । ॐ ब्रह्माण्डावलिमेखलाय नमः । ॐ भ्रूक्षेपदत्तलक्ष्मीकाय नमः । ॐ भर्गाय नमः । ॐ भद्राय नमः । ॐ भयापहाय नमः । ॐ भगवते नमः । ॐ भक्तिसुलभाय नमः । ॐ भूतिदाय नमः । ॐ भूतिभूषणाय नमः । ॐ भव्याय नमः । ॐ भूतालयाय नमः । ॐ भोगदात्रे नमः । ॐ भ्रूमध्यगोचराय नमः । ॐ मन्त्राय नमः । ॐ मन्त्रपतये नमः । ॐ मन्त्रिणे नमः । ॐ मदमत्तमनोरमाय नमः । ॐ मेखलावते नमः । ॐ मन्दगतये नमः । ॐ मतिमत्कमलेक्षणाय नमः । ॐ महाबलाय नमः । ॐ महावीर्याय नमः । ॐ महाप्राणाय नमः । ॐ महामनसे नमः । ॐ यज्ञाय नमः । ॐ यज्ञपतये नमः । ॐ यज्ञगोप्ते नमः । ॐ यज्ञफलप्रदाय नमः । ॐ यशस्कराय नमः । ॐ योगगम्याय नमः । ॐ याज्ञिकाय नमः । ॐ याजकप्रियाय नमः । ॐ रसाय नमः ॥ ६००
ॐ रसप्रियाय नमः । ॐ रस्याय नमः । ॐ रञ्जकाय नमः । ॐ रावणार्चिताय नमः । ॐ रक्षोरक्षाकराय नमः । ॐ रत्नगर्भाय नमः । ॐ राज्यसुखप्रदाय नमः । ॐ लक्ष्याय नमः । ॐ लक्ष्यप्रदाय नमः । ॐ लक्ष्याय नमः । ॐ लयस्थाय नमः । ॐ लड्डुकप्रियाय नमः । ॐ लानप्रियाय नमः । ॐ लास्यपराय नमः । ॐ लाभकृल्लोकविश्रुताय नमः । ॐ वरेण्याय नमः । ॐ वह्निवदनाय नमः । ॐ वन्द्याय नमः । ॐ वेदान्तगोचराय नमः । ॐ विकर्त्रे नमः । ॐ विश्वतश्चक्षुषे नमः । ॐ विधात्रे नमः । ॐ विश्वतोमुखाय नमः । ॐ वामदेवाय नमः । ॐ विश्वनेते नमः । ॐ वज्रिवज्रनिवारणाय नमः । ॐ विश्वबन्धनविष्कम्भाधाराय नमः । ॐ विश्वेश्वरप्रभवे नमः । ॐ शब्दब्रह्मणे नमः । ॐ शमप्राप्याय नमः । ॐ शम्भुशक्तिगणेश्वराय नमः । ॐ शास्त्रे नमः । ॐ शिखाग्रनिलयाय नमः । ॐ शरण्याय नमः । ॐ शिखरीश्वराय नमः । ॐ षड् ऋतुकुसुमस्रग्विणे नमः । ॐ षडाधाराय नमः । ॐ षडक्षराय नमः । ॐ संसारवैद्याय नमः । ॐ सर्वज्ञाय नमः । ॐ सर्वभेषजभेषजाय नमः । ॐ सृष्टिस्थितिलयक्रीडाय नमः । ॐ सुरकुञ्जरभेदनाय नमः । ॐ सिन्दूरितमहाकुम्भाय नमः । ॐ सदसद् व्यक्तिदायकाय नमः । ॐ साक्षिणे नमः । ॐ समुद्रमथनाय नमः । ॐ स्वसंवेद्याय नमः । ॐ स्वदक्षिणाय नमः । ॐ स्वतन्त्राय नमः । ॐ सत्यसङ्कल्पाय नमः । ॐ सामगानरताय नमः । ॐ सुखिने नमः । ॐ हंसाय नमः । ॐ हस्तिपिशाचीशाय नमः । ॐ हवनाय नमः । ॐ हव्यकव्यभुजे नमः । ॐ हव्याय नमः । ॐ हुतप्रियाय नमः । ॐ हर्षाय नमः । ॐ हृल्लेखामन्त्रमध्यगाय नमः । ॐ क्षेत्राधिपाय नमः । ॐ क्षमाभर्त्रे नमः । ॐ क्षमापरपरायणाय नमः । ॐ क्षिप्रक्षेमकराय नमः । ॐ क्षेमानन्दाय नमः । ॐ क्षोणीसुरद्रुमाय नमः । ॐ धर्मप्रदाय नमः । ॐ अर्थदाय नमः । ॐ कामदात्रे नमः । ॐ सौभाग्यवर्धनाय नमः । ॐ विद्याप्रदाय नमः । ॐ विभवदाय नमः । ॐ भुक्तिमुक्तिफलप्रदाय नमः । ॐ अभिरूप्यकराय नमः । ॐ वीरश्रीप्रदाय नमः । ॐ विजयप्रदाय नमः । ॐ सर्ववश्यकराय नमः । ॐ गर्भदोषघ्ने नमः । ॐ पुत्रपौत्रदाय नमः । ॐ मेधादाय नमः । ॐ कीर्तिदाय नमः । ॐ शोकहारिणे नमः । ॐ दौर्भाग्यनाशनाय नमः । ॐ प्रतिवादिमुखस्तम्भाय नमः । ॐ रुष्टचित्तप्रसादनाय नमः । ॐ पराभिचारशमनाय नमः । ॐ दुःखभञ्जनकारकाय नमः । ॐ लवाय नमः । ॐ त्रुटये नमः । ॐ कलायै नमः । ॐ काष्टायै नमः । ॐ निमेषाय नमः । ॐ तत्पराय नमः । ॐ क्षणाय नमः । ॐ घट्यै नमः । ॐ मुहूर्ताय नमः । ॐ प्रहराय नमः । ॐ दिवा नमः । ॐ नक्तं नमः ॥ ७००॥
ॐ अहर्निशं नमः । ॐ पक्षाय नमः । ॐ मासाय नमः । ॐ अयनाय नमः । ॐ वर्षाय नमः । ॐ युगाय नमः । ॐ कल्पाय नमः । ॐ महालयाय नमः । ॐ राशये नमः । ॐ तारायै नमः । ॐ तिथये नमः । ॐ योगाय नमः । ॐ वाराय नमः । ॐ करणाय नमः । ॐ अंशकाय नमः । ॐ लग्नाय नमः । ॐ होरायै नमः । ॐ कालचक्राय नमः । ॐ मेरवे नमः । ॐ सप्तर्षिभ्यो नमः । ॐ ध्रुवाय नमः । ॐ राहवे नमः । ॐ मन्दाय नमः । ॐ कवये नमः । ॐ जीवाय नमः । ॐ बुधाय नमः । ॐ भौमाय नमः । ॐ शशिने नमः । ॐ रवये नमः । ॐ कालाय नमः । ॐ सृष्टये नमः । ॐ स्थितये नमः । ॐ विश्वस्मै स्थावराय जङ्गमाय नमः । ॐ भुवे नमः । ॐ अद्भ्यो नमः । ॐ अग्नये नमः । ॐ मरुते नमः । ॐ व्योम्ने नमः । ॐ अहंकृतये नमः । ॐ प्रकृतये नमः । ॐ पुंसे नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । ॐ विष्णवे नमः । ॐ शिवाय नमः । ॐ रुद्राय नमः । ॐ ईशाय नमः । ॐ शक्तये नमः । ॐ सदाशिवाय नमः । ॐ त्रिदशेभ्यो नमः । ॐ पितृभ्यो नमः । ॐ सिद्धेभ्यो नमः । ॐ यक्षेभ्यो नमः । ॐ रक्षोभ्यो नमः । ॐ किन्नरेभ्यो नमः । ॐ साध्येभ्यो नमः । ॐ विद्याधरेभ्यो नमः । ॐ भूतेभ्यो नमः । ॐ मनुष्येभ्यो नमः । ॐ पशुभ्यो नमः । ॐ खगेभ्यो नमः । ॐ समुद्रेभ्यो नमः । ॐ सरिद्भ्यो नमः । ॐ शैलेभ्यो नमः । ॐ भूताय नमः । ॐ भव्याय नमः । ॐ भवोद्भवाय नमः । ॐ साङ्ख्याय नमः । ॐ पातञ्जलाय नमः । ॐ योगाय नमः । ॐ पुराणेभ्यो नमः । ॐ श्रुत्यै नमः । ॐ स्मृत्यै नमः । ॐ वेदाङ्गेभ्यो नमः । ॐ सदाचाराय नमः । ॐ मीमांसायै नमः । ॐ न्यायविस्तराय नमः । ॐ आयुर्वेदाय नमः । ॐ धनुर्वेदीय नमः । ॐ गान्धर्वाय नमः । ॐ काव्यनाटकाय नमः । ॐ वैखानसाय नमः । ॐ भागवताय नमः । ॐ सात्वताय नमः । ॐ पाञ्चरात्रकाय नमः । ॐ शैवाय नमः । ॐ पाशुपताय नमः । ॐ कालामुखाय नमः । ॐ भैरवशासनाय नमः । ॐ शाक्ताय नमः । ॐ वैनायकाय नमः । ॐ सौराय नमः । ॐ जैनाय नमः । ॐ आर्हत सहितायै नमः । ॐ सते नमः । ॐ असते नमः । ॐ व्यक्ताय नमः । ॐ अव्यक्ताय नमः । ॐ सचेतनाय नमः । ॐ अचेतनाय नमः । ॐ बन्धाय नमः ॥ ८००॥
ॐ मोक्षाय नमः । ॐ सुखाय नमः । ॐ भोगाय नमः । ॐ अयोगाय नमः । ॐ सत्याय नमः । ॐ अणवे नमः । ॐ महते नमः । ॐ स्वस्ति नमः । ॐ हुम् नमः । ॐ फट् नमः । ॐ स्वधा नमः । ॐ स्वाहा नमः । ॐ श्रौषण्णमः । ॐ वौषण्णमः । ॐ वषण्णमः । ॐ नमो नमः । ॐ ज्ञानाय नमः । ॐ विज्ञानाय नमः । ॐ आनंदाय नमः । ॐ बोधाय नमः । ॐ संविदे नमः । ॐ शमाय नमः । ॐ यमाय नमः । ॐ एकस्मै नमः । ॐ एकाक्षराधाराय नमः । ॐ एकाक्षरपरायणाय नमः । ॐ एकाग्रधिये नमः । ॐ एकवीराय नमः । ॐ एकानेकस्वरूपधृते नमः । ॐ द्विरूपाय नमः । ॐ द्विभुजाय नमः । ॐ द्व्यक्षाय नमः । ॐ द्विरदाय नमः । ॐ द्विपरक्षकाय नमः । ॐ द्वैमातुराय नमः । ॐ द्विवदनाय नमः । ॐ द्वन्द्वातीताय नमः । ॐ द्व्यातीगाय नमः । ॐ त्रिधाम्ने नमः । ॐ त्रिकराय नमः । ॐ त्रेतात्रिवर्गफलदायकाय नमः । ॐ त्रिगुणात्मने नमः । ॐ त्रिलोकादये नमः । ॐ त्रिशक्तिशाय नमः । ॐ त्रिलोचनाय नमः । ॐ चतुर्बाहवे नमः । ॐ चतुर्दन्ताय नमः । ॐ चतुरात्मने नमः । ॐ चतुर्मुखाय नमः । ॐ चतुर्विधोपायमयाय नमः । ॐ चतुर्वर्णाश्रमाश्रयाय नमः । ॐ चतुर्विधवचोवृत्तिपरिवृत्तिप्रवर्तकाय नमः । ॐ चतुर्थीपूजनप्रीताय नमः । ॐ चतुर्थीतिथिसम्भवाय नमः । ॐ पञ्चाक्षरात्मने नमः । ॐ पञ्चात्मने नमः । ॐ पञ्चास्याय नमः । ॐ पञ्चकृत्यकृते नमः । ॐ पञ्चाधाराय नमः । ॐ पञ्चवर्णाय नमः । ॐ पञ्चाक्षरपरायणाय नमः । ॐ पञ्चतालाय नमः । ॐ पञ्चकराय नमः । ॐ पञ्चप्रणवभाविताय नमः । ॐ पञ्चब्रह्ममयस्फूर्तये नमः । ॐ पञ्चावरणवारिताय नमः । ॐ पञ्चभक्ष्यप्रियाय नमः । ॐ पञ्चबाणाय नमः । ॐ पञ्चशिवात्मकाय नमः । ॐ षट्कोणपीठाय नमः । ॐ षट्चक्रधाम्ने नमः । ॐ षड्ग्रन्थिभेदकाय नमः । ॐ षडध्वध्वान्तविध्वंसिने नमः । ॐ षडङ्गुलमहाह्रदाय नमः । ॐ षण्मुखाय नमः । ॐ षण्मुखभ्रात्रे नमः । ॐ षट्शक्तिपरिवारिताय नमः । ॐ षड्वैरिवर्गविध्वंसिने नमः । ॐ षडूर्मिमयभञ्जनाय नमः । ॐ षट्तर्कदूराय नमः । ॐ षट्कर्मनिरताय नमः । ॐ षड्रसाश्रयाय नमः । ॐ सप्तपातालचरणाय नमः । ॐ सप्तद्वीपोरुमण्डलाय नमः । ॐ सप्तस्वर्लोकमुकुटाय नमः । ॐ सप्तसाप्तिवरप्रदाय नमः । ॐ सप्तांगराज्यसुखदाय नमः । ॐ सप्तर्षिगणमण्डिताय नमः । ॐ सप्तछन्दोनिधये नमः । ॐ सप्तहोत्रे नमः । ॐ सप्तस्वराश्रयाय नमः । ॐ सप्ताब्धिकेलिकासाराय नमः । ॐ सप्तमातृनिषेविताय नमः । ॐ सप्तछन्दो मोदमदाय नमः । ॐ सप्तछन्दोमखप्रभवे नमः । ॐ अष्टमूर्तिध्येयमूर्तये नमः । ॐ अष्टप्रकृतिकारणाय नमः । ॐ अष्टाङ्गयोगफलभुवे नमः । ॐ अष्टपत्राम्बुजासनाय नमः । ॐ अष्टशक्तिसमृद्धश्रिये नमः ॥ ९००॥
ॐ अष्टैश्वर्यप्रदायकाय नमः । ॐ अष्टपीठोपपीठश्रिये नमः । ॐ अष्टमातृसमावृताय नमः । ॐ अष्टभैरवसेव्याय नमः । ॐ अष्टवसुवन्द्याय नमः । ॐ अष्टमूर्तिभृते नमः । ॐ अष्टचक्रस्फूरन्मूर्तये नमः । ॐ अष्टद्रव्यहविः प्रियाय नमः । ॐ नवनागासनाध्यासिने नमः । ॐ नवनिध्यनुशासिताय नमः । ॐ नवद्वारपुराधाराय नमः । ॐ नवाधारनिकेतनाय नमः । ॐ नवनारायणस्तुत्याय नमः । ॐ नवदुर्गा निषेविताय नमः । ॐ नवनाथमहानाथाय नमः । ॐ नवनागविभूषणाय नमः । ॐ नवरत्नविचित्राङ्गाय नमः । ॐ नवशक्तिशिरोधृताय नमः । ॐ दशात्मकाय नमः । ॐ दशभुजाय नमः । ॐ दशदिक्पतिवन्दिताय नमः । ॐ दशाध्यायाय नमः । ॐ दशप्राणाय नमः । ॐ दशेन्द्रियनियामकाय नमः । ॐ दशाक्षरमहामन्त्राय नमः । ॐ दशाशाव्यापिविग्रहाय नमः । ॐ एकादशादिभीरुद्रैः स्तुताय नमः । ॐ एकादशाक्षराय नमः । ॐ द्वादशोद्दण्डदोर्दण्डाय नमः । ॐ द्वादशान्तनिकेतनाय नमः । ॐ त्रयोदशाभिदाभिन्नविश्वेदेवाधिदैवताय नमः । ॐ चतुर्दशेन्द्रवरदाय नमः । ॐ चतुर्दशमनुप्रभवे नमः । ॐ चतुर्दशादिविद्याढ्याय नमः । ॐ चतुर्दशजगत्प्रभवे नमः । ॐ सामपञ्चदशाय नमः । ॐ पञ्चदशीशीतांशुनिर्मलाय नमः । ॐ षोडशाधारनिलयाय नमः । ॐ षोडशस्वरमातृकाय नमः । ॐ षोडशान्त पदावासाय नमः । ॐ षोडशेन्दुकलात्मकाय नमः । ॐ कलायैसप्तदश्यै नमः । ॐ सप्तदशाय नमः । ॐ सप्तदशाक्षराय नमः । ॐ अष्टादशद्वीप पतये नमः । ॐ अष्टादशपुराणकृते नमः । ॐ अष्टादशौषधीसृष्टये नमः । ॐ अष्टादशविधिस्मृताय नमः । ॐ अष्टादशलिपिव्यष्टिसमष्टिज्ञानकोविदाय नमः । ॐ एकविंशाय पुंसे नमः । ॐ एकविंशत्यङ्गुलिपल्लवाय नमः । ॐ चतुर्विंशतितत्वात्मने नमः । ॐ पञ्चविंशाख्यपुरुषाय नमः । ॐ सप्तविंशतितारेशाअय नमः । ॐ सप्तविंशति योगकृते नमः । ॐ द्वात्रिंशद्भैरवाधीशाय नमः । ॐ चतुस्त्रिंशन्महाह्रदाय नमः । ॐ षट् त्रिंशत्तत्त्वसंभूतये नमः । ॐ अष्टात्रिंशकलातनवे नमः । ॐ नमदेकोनपञ्चाशन्मरुद्वर्गनिरर्गलाय नमः । ॐ पञ्चाशदक्षरश्रेण्यै नमः । ॐ पञ्चाशद् रुद्रविग्रहाय नमः । ॐ पञ्चाशद् विष्णुशक्तीशाय नमः । ॐ पञ्चाशन्मातृकालयाय नमः । ॐ द्विपञ्चाशद्वपुःश्रेण्यै नमः । ॐ त्रिषष्ट्यक्षरसंश्रयाय नमः । ॐ चतुषष्ट्यर्णनिर्णेत्रे नमः । ॐ चतुःषष्टिकलानिधये नमः । ॐ चतुःषष्टिमहासिद्धयोगिनीवृन्दवन्दिताय नमः । ॐ अष्टषष्टिमहातीर्थक्षेत्रभैरवभावनाय नमः । ॐ चतुर्नवतिमन्त्रात्मने नमः । ॐ षण्णवत्यधिकप्रभवे नमः । ॐ शतानन्दाय नमः । ॐ शतधृतये नमः । ॐ शतपत्रायतेक्षणाय नमः । ॐ शतानीकाय नमः । ॐ शतमखाय नमः । ॐ शतधारावरायुधाय नमः । ॐ सहस्रपत्रनिलयाय नमः । ॐ सहस्रफणभूषणाय नमः । ॐ सहस्रशीर्ष्णे पुरुषाय नमः । ॐ सहस्राक्षाय नमः । ॐ सहस्रपदे नमः । ॐ सहस्रनाम संस्तुत्याय नमः । ॐ सहस्राक्षबलापहाय नमः । ॐ दशसहस्रफणभृत्फणिराजकृतासनाय नमः । ॐ अष्टाशीतिसहस्राद्यमहर्षि स्तोत्रयन्त्रिताय नमः । ॐ लक्षाधीशप्रियाधाराय नमः । ॐ लक्ष्याधारमनोमयाय नमः । ॐ चतुर्लक्षजपप्रीताय नमः । ॐ चतुर्लक्षप्रकाशिताय नमः । ॐ चतुरशीतिलक्षाणां जीवानां देहसंस्थिताय नमः । ॐ कोटिसूर्यप्रतीकाशाय नमः । ॐ कोटिचन्द्रांशुनिर्मलाय नमः । ॐ शिवाभवाध्युष्टकोटिविनायकधुरन्धराय नमः । ॐ सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रितावयवद्युतये नमः । ॐ त्रयस्रिंशत्कोटिसुरश्रेणीप्रणतपादुकाय नमः । ॐ अनन्तनाम्ने नमः । ॐ अनन्तश्रिये नमः । ॐ अनन्तानन्तसौख्यदाय नमः ॥ १०००॥
इतिश्री गणेश सहस्त्रणामवाली स्तोत्र

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

 मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411

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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...