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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
दुर्गा सप्तशती
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम् अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये/करिष्यामि।
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, (पुस्तक पूजा का मन्त्रः- “ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।” (वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता))। योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’
इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें। यह “शापोद्धार मंत्र” कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जप के पश्चात् आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’
मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-
‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’
इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।
जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411
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श्री बटुक भैरव स्तोत्र सभी प्रकार की आपदाओं के निवारण का एक सिद्ध प्रयोग
श्री बटुक भैरव स्तोत्र सभी प्रकार की आपदाओं के निवारण का एक
सिद्ध प्रयोग (हिन्दी पद्यानुवाद) ।। पूर्व-पीठिका ।। मेरु-पृष्ठ पर सुखासीन, वरदा देवाधिदेव शंकर से - पूछा देवी पार्वती ने, अखिल वि
श्व-गुरु परमेश्वर से । जन-जन के कल्याण हेतु, वह सर्व
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सिद्धिदा मन्त्र बताएँ - जिससे सभी आपदाओं से साधक
की रक्षा हो, वह सुख पाए । शिव बोले, आपद्-उद्धारक मन्त्र, स्तोत्र हूं मैं बतलाता, देवि ! पाठ जप कर जिसका, है मानव सदा शान्त
ि-सुख पाता । ।। ध्यान ।। सात्विकः- बाल-स्वरुप वटुक भैरव-स्फटिकोज्जवल-स्वरुप है जिनका, घुँघराले केशों से सज्जित-गरिमा-युक्त रुप है जिनका, दिव्य कलात्मक मणि-मय किंकिणि नूपुर से वे जो शोभित हैं, भव्य-स्वरुप त्रिलोचन-धारी जिनसे पूर्ण-सृष्टि सुरभित है । कर-कमलों में शूल-दण्ड-धारी का ध्यान-यजन करता हूँ, रात्रि-दिवस उन ईश वटुक-भैरव का मैं वन्दन करता हूँ । राजसः- नवल उदीयमान-सविता-सम, भैरव का शरीर शोभित है, रक्त-अंग-रागी, त्रैलोचन हैं जो, जिनका मुख हर्षित है । नील-वर्ण-ग्रीवा में भूषण, रक्त-माल धारण करते हैं, शूल, कपाल, अभय, वर-मुद्रा ले साधक का भय हरते हैं । रक्त-वस्त्र बन्धूक-पुष्प-सा जिनका, जिनसे है जग सुरभित, ध्यान करुँ उन भैरव का, जिनके केशों पर चन्द्र सुशोभित । तामसः- तन की कान्ति नील-पर्वत-सी, मुक्ता-माल, चन्द्र धारण कर, पिंगल-वर्ण-नेत्रवाले वे ईश दिगम्बर, रुप भयंकर । डमरु, खड्ग, अभय-मुद्रा, नर-मुण्ड, शुल वे धारण करते, अंकुश, घण्टा, सर्प हस्त में लेकर साधक का भय हरते । दिव्य-मणि-जटित किंकिणि, नूपुर आदि भूषणों से जो शोभित, भीषण सन्त-पंक्ति-धारी भैरव हों मुझसे पूजित, अर्चित । ।। १०८ नामावली श्रीबटुक-भैरव ।। भैरव, भूतात्मा, भूतनाथ को है मेरा शत-शत प्रणाम । क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रदः, क्षेत्रपाल, क्षत्रियः भूत-भावन जो हैं, जो हैं विराट्, जो मांसाशी, रक्तपः, श्मशान-वासी जो हैं, स्मरान्तक, पानप, सिद्ध, सिद्धिदः वही खर्पराशी जो हैं, वह सिद्धि-सेवितः, काल-शमन, कंकाल, काल-काष्ठा-तनु हैं । उन कवि-स्वरुपः, पिंगल-लोचन, बहु-नेत्रः भैरव को प्रणाम । वह देव त्रि-नेत्रः, शूल-पाणि, कंकाली, खड्ग-पाणि जो हैं, भूतपः, योगिनी-पति, अभीरु, भैरवी-नाथ भैरव जो हैं, धनवान, धूम्र-लोचन जो हैं, धनदा, अधन-हारी जो हैं, जो कपाल-भृत हैं, व्योम-केश, प्रतिभानवान भैरव जो हैं, उन नाग-केश को, नाग-हार को, है मेरा शत-शत प्रणाम । कालः कपाल-माली त्रि-शिखी कमनीय त्रि-लोचन कला-निधि वे ज्वलक्षेत्र, त्रैनेत्र-तनय, त्रैलोकप, डिम्भ, शान्त जो हैं, जो शान्त-जन-प्रिय, चटु-वेष, खट्वांग-धारकः वटुकः हैं, जो भूताध्यक्षः, परिचारक, पशु-पतिः, भिक्षुकः, धूर्तः हैं, उन शुर, दिगम्बर, हरिणः को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम । जो पाण्डु-लोचनः, शुद्ध, शान्तिदः, वे जो हैं भैरव प्रशान्त, शंकर-प्रिय-बान्धव, अष्ट-मूर्ति हैं, ज्ञान-चक्षु-धारक जो हैं, हैं वहि तपोमय, हैं निधीश, हैं षडाधार, अष्टाधारः, जो सर्प-युक्त हैं, शिखी-सखः, भू-पतिः, भूधरात्मज जो हैं, भूधराधीश उन भूधर को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम । नीलाञ्जन-प्रख्य देह-धारी, सर्वापत्तारण, मारण हैं, जो नाग-यज्ञोपवीत-धारी, स्तम्भी, मोहन, जृम्भण हैं, वह शुद्धक, मुण्ड-विभूषित हैं, जो हैं कंकाल धारण करते, मुण्डी, बलिभुक्, बलिभुङ्-नाथ, वे बालः हैं, वे क्षोभण हैं । उन बाल-पराक्रम, दुर्गः को है मेरा शत-शत-शत प्रणाम । जो कान्तः, कामी, कला-निधिः, जो दुष्ट-भूत-निषेवित हैं, जो कामिनि-वश-कृत, सर्व-सिद्धि-प्रद भैरव जगद्-रक्षाकर हैं, जो वशी, अनन्तः हैं भैरव, वे माया-मन्त्रौषधि-मय हैं, जो वैद्य, विष्णु, प्रभु सर्व-गुणी, मेरे आपद्-उद्धारक हैं । उन सर्व-शक्ति-मय भैरव-चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम । ।। फल-श्रुति ।। इन अष्टोत्तर-शत नामों को-भैरव के जो पढ़ता है, शिव बोले – सुख पाता, दुख से दूर सदा वह रहता है । उत्पातों, दुःस्वप्नों, चोरों का भय पास न आता है, शत्रु नष्ट होते, प्रेतों-रोगों से रक्षित रहता है । रहता बन्धन-मुक्त, राज-भय उसको नहीं सताता है, कुपित ग्रहों से रक्षा होती, पाप नष्ट हो जाता है । अधिकाधिक पुनुरुक्ति पाठ की, जो श्रद्धा-पूर्वक करते हैं, उनके हित कुछ नहीं असम्भव, वे निधि-सिद्धि प्राप्त करते हैं।
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गुप्त-सप्तशती सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है॥
गुप्त-सप्तशती
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र म् अथवा सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् ॥
श्री गणेशाय नमः ।
ॐ अस्य श्रीकुञ्जिकास्तोत्रमन्त्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
शिव उवाच
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥2॥
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषामर्दिनि ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411
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सिद्ध कुंजिका स्तोत्र " के बीज मन्त्रों की शक्ति
"सिद्ध कुंजिका स्तोत्र " के बीज मन्त्रों की शक्ति
क्रीं, श्रीं, ह्रौं, दूँ, ह्रीं, ऐं, गं, हूँ,ग्लौं, स्त्रीं, क्षौं, वं, --इसी प्रकार कई "बीज" हैं, जो कि अपने-आप में ही मन्त्र स्वरुप हैं!
शं, फ्रौं, क्रौं, दं, हं, वं, रं, लं, ज्ञं, भ्रं!
क्रीं ---इसके चार-स्वर-व्यंजन हैं---
क=काली
र=ब्रह्म
ईकार=महामाया
अनुस्ववार=दुखहरण !
इस प्रकार "क्रीं " बीज का अर्थ हुआ---ब्रह्न-शक्ति संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करे!
श्रीं---
श=महालक्ष्मी
र= धन-ऐश्वर्य
ई=तुष्टि
अनुस्वार=दुखहरण!
नाद का तात्पर्य विश्वमाता है! इस प्रकार "श्रीं" बीज का अर्थ हुआ! धन-ऐश्वर्य संपत्ति, तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी मेरे दुखों का हरण करे!
ह्रौं-----
यह प्रसाद बीज है---
ह्र=शिव
औ=सदाशिव
अनुस्वार=दुःख हरण
ह्रौं बीज का अर्थ---शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे दुखों का हरण करें!
दूँ------
डी=दुर्गा
ऊ= रखा
अनुस्वार=करना
मां दुएगे! मेरी रक्षा करो! यह दुर्गा बीज है!
ह्रीं-- ह=शिव
र=प्रकृति
ई=महामाया
नाद= विश्वमाता, बिंदु= दुःख हर्ता!
शिव युक्त विश्वमाता मेरे दुखों का हरण करे!
ऐं------
ऐ=सरस्वती
अनुस्वार=दुःख हरण
हे माँ सरस्वती ! मेरे दुखों का, अविद्या का नाश कर!
सरस्वती जी का बीज मन्त्र है!
क्लीं ---
क=कृष्ण
ल=इंद्र
ई=तुष्टिभाव
अनुस्वार=सुखदाता
कामदेव रूप श्रीकृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य दें!
गं-----
गणपति बीज---
ग=गणेश
अनुस्वार= दुःख हर्ता
श्री गणेश मेरे विध्नों को, दुखों को दूर करें!
हूँ----
ह=शिव
ऊ=भैरव
अनुस्वार=दुःख हर्ता
यह कूर्च बीज है!
इसका तात्पर्य यह है असुर-संहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें!
ग्लौं-----
ग=गणेश
ल=व्यापक
औ =तेज
बिंदु=दुःख हरण
व्यापक रूप विध्नहर्ता अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें!
स्त्रीं---
स=दुर्गा
टी=तारण
र=मुक्ति
ई=महामाया
बिंदु=दुःख हर्ता
हे दुर्गा मुख्तिदाता, दुःख हर्ता, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करे!
क्षौं --
क्ष= नृसिंह
र=ब्रह्म
औ=ऊर्ध्वकेशी
बिंदु=दुःख हरण
नृसिंह बीज है! ऊर्ध्व केशी ब्रह्म स्वरुप नृसिंह भगवान मेरे दुखों को दूर करे!
वं----
व्=अमृत
बिंदु=दुःख हरता
हे अमृत स्वरुप मेरे दुखों को दूर कर!
शं---शंकर बीज
फ्रौं --हनुमान बीज
क्रौं --काली बीज
दं--विष्णु बीज
हं--आकाश बीज
यं --अग्नि बीज
रं--जल बीज
लं--पृथ्वी बीज
ज्ञं --ज्ञान बीज और
भ्रं---भैरव बीज है!
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र :-
किसी भी श्रद्धा-विश्वास-युक्त स्त्री के द्वारा स्नानादि से शुद्ध होकर सूर्योदय से पहले नीचे लिखे मन्त्र की १० माला प्रतिदिन जप किये जाने से घर में सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है तथा उसका सौभाग्य बना रहता है। किसी शुभ दिन जप का आरम्भ करना चाहिये तथा प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में विधिपूर्वक हवन करवा कर यथाशक्ति कुमारी, वटुक आदि को भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिये। इस मन्त्र के हवन में समिधा केवल वट-वृक्ष की लेनी चाहिये।
मन्त्रः- ” ॐॐ ह्रीं ॐ क्रीं ह्रीं ॐ स्वाहा।”
साथ ही नीचे लिखे “सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र” का प्रतिदिन कम-से-कम एक पाठ करना चाहिये। इससे सौभाग्य की रक्षा होती है।
सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र :-
निशम्यैतज्जामदग्न्यो माहात्म्यं सर्वतोऽधिकम्।
स्तोत्रस्य भूयः पप्रच्छ दत्तात्रेयं गुरुत्तमम्।।१
भगवंस्त्वन्मुखाम्भोजनिर्गमद्वाक्सुधारसम्।
पिबतः श्रोत्रमुखतो वर्धतेऽनुरक्षणं तृषा।।२
अष्टोत्तरशतं नाम्नां श्रीदेव्या यत्प्रसादतः।
कामः सम्प्राप्तवाँल्लोके सौभाग्यं सर्वमोहनम्।।३
सौभाग्यविद्यावर्णानामुद्धारो यत्र संस्थितः।
तत्समाचक्ष्व भगवन् कृपया मयि सेवके।।४
निशम्यैवं भार्गवोक्तिं दत्तात्रेयो दयानिधिः।
प्रोवाच भार्गवं रामं मधुराक्षरपूर्वकम्।।५
श्रृणु भार्गव यत्पृष्टं नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
श्रीविद्यावर्णरत्नानां निधानमिव संस्थितम्।।६
श्रीदेव्या बहुधा सन्ति नामानि श्रृणु भार्गव।
सहस्त्रशतसंख्यानि पुराणेष्वागमेषु च।।७
तेषु सारतरं ह्येतत् सौभाग्याष्टोत्तरात्मकम्।
यदुवाच शिवः पूर्वं भवान्यै बहुधार्थितः।।८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य भार्गव।
ऋषिरुक्तः शिवश्छन्दोऽनुष्टुप् श्रीललिताम्बिका।।९
देवता विन्यसेत् कूटत्रयेणावर्त्य सर्वतः।
ध्यात्वा सम्पूज्य मनसा स्तोत्रमेतदुदीरयेत्।।१०
।।अथ नाममन्त्राः।।
ॐ कामेश्वरी कामशक्तिः कामसौभाग्यदायिनी।
कामरुपा कामकला कामिनी कमलासना।।११
कमला कल्पनाहीना कमनीय कलावती।
कमलाभारतीसेव्या कल्पिताशेषसंसृतिः।।१२
अनुत्तरानघानन्ताद्भुतरुपानलोद्भवा।
अतिलोकचरित्रातिसुन्दर्यतिशुभप्रदा।।१३
अघहन्त्र्यतिविस्तारार्चनतुष्टामितप्रभा।
एकरुपैकवीरैकनाथैकान्तार्चनप्रिया।।१४
एकैकभावतुष्टैकरसैकान्तजनप्रिया।
एधमानप्रभावैधद्भक्तपातकनाशिनी।।१५
एलामोदमुखैनोऽद्रिशक्रायुधसमस्थितिः।
ईहाशून्येप्सितेशादिसेव्येशानवरांगना।।१६
ईश्वराज्ञापिकेकारभाव्येप्सितफलप्रदा।
ईशानेतिहरेक्षेषदरुणाक्षीश्वरेश्वरी।।१७
ललिता ललनारुपा लयहीना लसत्तनुः।
लयसर्वा लयक्षोणिर्लयकर्त्री लयात्मिका।।१८
लघिमा लघुमध्याढ्या ललमाना लघुद्रुता।
हयारुढा हतामित्रा हरकान्ता हरिस्तुता।।१९
हयग्रीवेष्टदा हालाप्रिया हर्षसमुद्धता।
हर्षणा हल्लकाभांगी हस्त्यन्तैश्वर्यदायिनी।।२०
हलहस्तार्चितपदा हविर्दानप्रसादिनी।
रामा रामार्चिता राज्ञी रम्या रवमयी रतिः।।२१
रक्षिणी रमणी राका रमणीमण्डलप्रिया।
रक्षिताखिललोकेशा रक्षोगणनिषूदिनी।।२२
अम्बान्तकारिण्यम्भोजप्रियान्तभयंकरी।
अम्बुरुपाम्बुजकराम्बुजजातवरप्रदा।।२३
अन्तःपूजाप्रियान्तःस्थरुपिण्यन्तर्वचोमयी।
अन्तकारातिवामांकस्थितान्तस्सुखरुपिणी।।२४
सर्वज्ञा सर्वगा सारा समा समसुखा सती।
संततिः संतता सोमा सर्वा सांख्या सनातनी ॐ।।२५
।।फलश्रुति।।
एतत् ते कथितं राम नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
अतिगोप्यमिदं नाम्नां सर्वतः सारमुद्धृतम्।।२६
एतस्य सदृशं स्तोत्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।
अप्रकाश्यमभक्तानां पुरतो देवताद्विषाम्।।२७
एतत् सदाशिवो नित्यं पठन्त्यन्ये हरादयः।
एतत्प्भावात् कंदर्पस्त्रैलोक्यं जयति क्षणात्।।२८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं मनोहरम्।
यस्त्रिसंध्यं पठेन्नित्यं न तस्य भुवि दुर्लभम्।।२९
श्रीविद्योपासनवतामेतदावश्यकं मतम्।
सकृदेतत् प्रपठतां नान्यत् कर्म विलुप्यते।।३०
अपठित्वा स्तोत्रमिदं नित्यं नैमित्तिकं कृतम्।
व्यर्थीभवति नग्नेन कृतं कर्म यथा तथा।।३१
सहस्त्रनामपाठादावशक्तस्त्वेतदीरयेत्।
सहस्त्रनामपाठस्य फलं शतगुणं भवेत्।।३२
सहस्त्रधा पठित्वा तु वीक्षणान्नाशयेद्रिपून्।
करवीररक्तपुष्पैर्हुत्वा लोकान् वशं नयेत्।।३३
स्तम्भेत् पीतकुसुमैर्णीलैरुच्चाटयेद् रिपून्।
मरिचैर्विद्वेषणाय लवंगैर्व्याधिनाशने।।३४
सुवासिनीर्ब्राह्मणान् वा भोजयेद् यस्तु नामभिः।
यश्च पुष्पैः फलैर्वापि पूजयेत् प्रतिनामभिः।३५
चक्रराजेऽथवान्यत्र स वसेच्छ्रीपुरे चिरम्।
यः सदाऽऽवर्तयन्नास्ते नामाष्टशतमुत्तमम्।।३६
तस्य श्रीललिता राज्ञी प्रसन्ना वाञ्छितप्रदा।
एतत्ते कथितं राम श्रृणु त्वं प्रकृतं ब्रुवे।।३७||
।।श्रीत्रिपुरारहस्ये श्रीसौभाग्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं।।
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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ॐ श्री काल भैरव बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मंत्र ॐ अस्य श्री बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मन्त्रस्य सप्त ऋषिः ऋषयः , मातृका छंदः , श्री बटुक भैरव ...




