Friday, 27 September 2024

शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित

 


शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित 
(श्री गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित)
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिब्रह्मादीनापि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ॥
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिमाणावधि गृणन् ।
ममाप्येव स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ।।१।।
हे हर ! (सभी दुःखों के हरने वाले) आपकी महिमा के अन्त को न जानने वाले मुझ अज्ञानी द्वारा की गई स्तुति यदि आपकी महिमा के अनुकुल न हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ब्रह्मा आदि भी आपकी महिमा के अन्त को नहीं जानते हैं। अतः उनकी स्तुति भी आपके योग्य नहीं है। "स वाग् यथा तस्य गुणान् गृणीते" के अनुसार मेरी यथामति स्तुति उचित ही है। "नमः पतन्त्यात्मसमं पतत्रिणः" इस न्याय से मेरी स्तुति आरम्भ करना क्षम्य हो ॥ १ ॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्‌मनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधिगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
हे हर ! आपकी निर्गुण और सगुण महिमा मन तथा वाणी के विषय से परे है, जिसे वेद भी संकुचित होकर कहते हैं। अतः आपकी उस महिमा की स्तुति करने में कौन समथ हो सकता है ? फिर भी भक्तों के अनुग्रहार्थ धारण किया हुआ आपका नवीन रूप भक्तों के मन और वाणी का विषय हो सकता है ।। २ ।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत- स्तवब्रह्मन्कवागपि सुरगुरोविस्मय पदम् ।। मम त्वेतां वाणों गुणकथनपुण्येन भवतः । पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
हे ब्रह्मन् ! जब कि आपने मधु के सदृश मधुर और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया है, तब ब्रह्मादि द्वारा की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है ? हे त्रिपुरमथन ! जब ब्रह्मादि भी आपके स्तुति-गान करने में असमर्थ हैं, तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है ? मैं तो केवल आपके गुण- गान से ही अपनी वाणी को पवित्र करने की इच्छा रखता हूँ ।।३।।
तवैश्वर्यं तत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासुतनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीम् ।
विहन्तु व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥४॥
हे वरद ! आपके ऐसे ऐश्वर्य की - जो संसार की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करने वाला है, तीनों वेदों द्वारा गाया गया है, तीनों गुणों (सत्, रज, तम) से परे है, एवं तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में व्याप्त है, कुछ नास्तिक लोग अनुचित निन्दा करते हैं। इससे उन्हीं का अधःपतन होता है, न कि आपके सुयश का ।। ४ ।।
किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतक्र्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥ ।
"अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तकेंण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करने वाले आपके ऐश्वर्य के विषय में नास्तिकों का यह कुतर्क कि वह ब्रह्या सृष्टि कर्ता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर, सहकारी कारण, आधार और समवायी कारण क्या है ? जगत् के कतिपय मन्द-मति वालों को भ्रान्ति करने वाला है ।। ५ ।।
अजन्भानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं कि भवविधिरनादृत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो
यतोमन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥
हे अमर वर ! यह सावयव लोक अवश्य ही जन्य है तथा इसका कर्ता भी कोई न कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता, क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री दूसरे के पास होना असम्भव है। इसलिये अज्ञानी लोग ही आपके विषय में सन्देह करते हैं ।।६।।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचिव्यादृजुकुटिलनानापथजुषां ।
नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
हे अमर वर ! वेदत्रयी, सांख्य, योग, शैव मत और वैष्णवमत ऐसे भिन्न-भिन्न मतों में कोई वैष्णवमत और कोई शैव मत को अच्छा कहते हैं, परन्तु रुचि की विचित्रता से टेढ़े-सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आप ही साक्षात् या परम्परया प्राप्त होते हैं, जैसे कि नदियाँ टेढ़ी-सीधी बहती हुई साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही जा मिलती हैं ।। ७ ।।
महोक्षः खट्‌वांग म्परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालंचेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धि दधति तु भवन प्रणिहिताम् ।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भभ्रमयति । ८।
हे वरद ! महोक्ष (बैल), खाट का पाया, परशु, गजचर्म, भस्म, सर्व, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियाँ हैं, परन्तु उन ऋद्धियों को जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग भोगते हैं, आप क्यों नहीं भोगते ! स्वात्माराम (आत्मज्ञानी) को विषय (रूपरसादि) रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती है ।। ८ ।।
ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध वमिदम् ।
परोध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।। समस्तेऽप्येतस्मिन्पुरमथन तैविस्मित इव ।
स्तुवञ्जिद्देमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता । ९।
हे पुरमथन ! सांख्य मतानुयायी "नह्यसत उत्पत्तिः सम्भवति" के अनुसार जगत् को ध्रुव (नित्य), बुद्धिमतानुयायी अध्रुव (क्षणिक) ताकिकजन नित्य (आकाश आदि पञ्च और पृथिव्यादि परमाणु और अनित्य कार्यद्रव्य) दोनों मानते हैं। इन मतान्तरों से विस्मित मैं भी आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचा- लता लज्जा को स्थान नहीं देती ।। ९ ।।
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरिविरंचिर्हरिरधः ।
परिच्छेत्तु यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः ।।
ततोभक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्तयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।१०।
हे गिरीश (गिरि में शयन करने वाले), तेजपु'ज आपकी विभूति को ढूँढ़ने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे, तत्पश्चात् उनकी कायिक, मार्नासक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चित् है कि आपकी सेवा से ही सब सुलभ है ।। १० ।।
अयत्नादापाद्यत्रिभुवनमवैरव्यतिकरम् ।
दशास्यो यद्वाहूनभूत रणकण्डूपरवशान् ।।्
शिरः पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर वियजितमिदम् ।११।
हे त्रिपुरहर ! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवत् चरणों में अर्पणकर के त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युद्ध के लिए सर्वदा उत्सुक रहने वाली भुजाओं को पाया था, वह आपकी अविरल भक्ति का ही परिणाम था ।। ११ ।
अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनम् ।
उक बलाप्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौविक्रमयतः ॥
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांग ष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितोमुर्ध्यात खलः ।१२।
रावण द्वारा उन्हीं भुजाओं से जिन्होंने आपकी सेवा से बल प्राप्त किया था, आपके घर कैलास को उखाड़ने के लिए हठात् प्रयोग करते ही आपके अँगूठे के अग्र भाग के संकेत मात्र पाताल में गिरा, निश्चय ही खल उपकार भूल जाते हैं ।। १२ ।।
यदृद्धि सुत्त्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- ।
मधश्चक्र बाणः परिजनविधैयस्त्रिभुवनः ।।
नतच्चित्त्रं तस्मिन्वरिवसिरित्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।१३।
हे वरद ! वाणासुर ने आपकों नमस्कार मात्र से इन्द्र की सम्पत्ति को नीचा दिखलाने वाली सम्पत्ति प्राप्त किया था और त्रिभुवनको अपना परिजन बना लिया था। यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आपके चरणों में नमस्कार करना किस उन्नति का कारण नहीं होता है ।। १३ ।।
अकाण्ड : ब्रह्माण्ड क्षयचकितदेवासुरकृपा । विधेयस्याऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।॥
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवनभयभगंव्यसनिनः ।१४।।
हे त्रिनयन ! सिन्धु विमंथन से उत्पन्न कालकूट से असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व असुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उसको (काल कूट को) पान करने से आपके कण्ठ की कालिमा भी शोभा देती है। ठीक ही है, जगत् के उपकार की कामना वाले दूषण भूषण समझे जाते हैं ।॥ १४ ॥असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरःस्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः। १५।
जो विजयी कामदेव अपने बाणों द्वारा जगत् के देव, मनुष्य और राक्षसों को जीतने में सर्वथा समर्थ रहा, उसी कामदेव अन्य देवों के समान आपको भी समझा, जिससे वह स्मरण मात्र के लिये ही रह गया (दग्ध हो गया), जितेन्द्रियों का अनादर करना अहितकारक ही होता है ।। १५ ।।
मही पादाघाताद्धजति सहसा संशयपदम् ।
पदं विष्णोर्भाम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ॥
मुहुर्योदौस्थ्यं यात्यनिभूतजटाताडिततटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ १६ ॥
हे ईण ! आप जगत् की रक्षा के लिए राक्षसों को मोहित करके नाण के लिए नृत्य करते हो, तब भी संसार का आपके ताण्डव से दुःख दूर होता है, क्योंकि आपके चरणों के आघात से पृथ्वी धंसने लगती है, विशाल बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्र आकाश पीड़ित हो जाता है तथा आपकी चंचल जटाओं से ताड़ित हुआ स्वर्ग लोक भी कम्पाय- मान हो जाता है। ठीक ही है, उपकार भी किसी के लिए अहितकारक हो जाता है ।॥ १६ ॥
वियद्व्यापीतारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः ॥ १७ ॥
हे ईश ! तारा गणों की कान्ति से अत्यन्त शोभायमान आकाश में व्याप्त तथा भूलोक को चारों ओर से घेरकर जम्बू द्वीप बनाने वाली गङ्गा का जल-प्रवाह आपके जटाकपाट में बूंद से भी लघु देखा जाता है। इतने से ही आपके दिव्य तथा श्रेष्ठ शरीर की कल्पना की जा सकती है ।। १७ ।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिनगेन्द्रो धनुरथा-
रथांगेचन्द्राकों रथचरणपाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि-
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।१८।
हे ईश ! तृण के समान त्रिपुर को जलाने के लिए पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, हिमालय को धनुष, सूर्य-चन्द्र को रथ का चक्र तथा विष्णु को विषघर बाण बनाना आपका आडम्बर मात्र है। विचित्र वस्तुओं से क्रीडा करते हुए समथर्थों की बुद्धि स्वतन्त्र होती है ।। १८ ॥
हरिस्ते साहस्त्र कमलबलिमाधाय पदयो-
र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्ने त्रकमलम् ।
गतो भक्त्युद्र कः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जार्गात जगताम् ॥१९॥
हे त्रिपुरहर ! विष्णु आपके चरणों में प्रति दिन सहस्र कमलों का उपहार देते थे । एक दिन एक की कमी होने के कारण उन्होंने अपने एक कमलवत् नेत्र को निकाल कर पूरा किया। यह भक्ति की चरम सीमा चक्र के रूप में आज भी संसार की रक्षा किया करती है । १९ ।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलतिपुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रक्ष्य ऋतुषु फलदानप्रतिभुवम् ।
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥
हे त्रिपुरहर ! आप ही को यज्ञ के फल का दाता समझ कर, वेद में दृढ़ विश्वास कर मनुष्य कर्मों का आरम्भ करते हैं। क्रिया रूप यज्ञ के समाप्त होने पर आपही फल देने वाले रहते हैं। आपकी आराधना के बिना नष्ट कर्म फलदायक नहीं होता ।। २० ।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता-
मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुन वस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥
हे शरणद ! कर्मकुशल यज्ञपति दक्ष के यज्ञ के ऋषिगण ऋत्विज, देवता सदस्य थे । फिर भी यज्ञ के फल देने वाले आप को अप्रसन्नता से वह ध्वंस हो गया । निश्चय है कि आप में श्रद्धा-रहित किया गया यज्ञ नाश के लिए ही होता है ।। २१ ।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्त्वां दुहितरम् ।
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुःपाणेर्यातं दिवपि सपत्नाकृतममुम् ।
वसन्तन्तेऽद्यापि त्यति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥
हे नाथ ! काल से प्रेरित मृगरूप धारण किये ब्रह्या को भय से मृगीरूपी धारण करने वाली अपनी कन्या में आसक्त देख, आपका उनके पीछे छोड़ा गया वाण आर्द्रा आज भी नक्षत्र रूप में मृगशिरा (ब्रह्‌मा) के पीछे वर्तमान है ।। २२ ।।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्‌वाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वापुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदिस्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्ध-घटनाद् ।
अवैति त्वामद्धावत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३।।
हे यम-नियम वाले त्रिपुरहर ! आपकी कृपा से आपका अर्धस्थान प्राप्त करने वाली, अपने सौन्दर्य रूपी धनुष को धारण करने वाले कामदेव को जला हुआ देखकर भी यदि पार्वती आपको अपने अधीन समझें तो ठीक ही है, क्योंकि प्रायः युवतियाँ ज्ञान-हीन होती हैं ।। २३ ।।
स्मशानेष्वाक्क्रीडारमरहर पिशाचाः सहचरा-
श्चिताभस्मालेपः स्प्रगपि नृकरोटीपरिकरः ।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु ना मैवमखिलम्
तथापि स्मतॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
हे स्मरहर ! आपका स्मशान में क्रीडा करना, भूत-प्रेत पिणा-
चादि को साथ रखना, शरीर में चिता-भस्म का लेपन करना तथा नर रुण्डों की माला पहिनना आदि वीभत्स कर्मों से यद्यपि आपका चरित अमगल मय लगता है, तथापि स्मरण करने वालों को हे वरद ! आप परम मंगलरूप हैं ।। २४ ।।
मनः प्रत्यक्चित्त सविधमवधायात्तमरुतः ।
प्रहृ ष्यद्रोमाणः प्रमदसलिल्लोत्संगितदृशः ।।
यदालोक्याह लादं हूद इव निमज्ज्यामृतमये ।
यधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ।२५।
हे दरद ! जिस प्रकार अमृतमय सरोवर में अवगाहन से (स्नान करने से, प्राणिमात्र तापत्रय से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से पृथक् करके मन का स्थिर कर, विधि पूर्वक प्राणायाम से, पुलकित तथा आनन्दाश्र से युक्त योगीजन ज्ञानदृष्टि से जिसे देखकर परमा- नन्द का अनुभव करते हैं, वह आपही हैं ।। २५ ।।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वंहुतवह-
स्त्वमापरत्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च ॥ परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता ब्रितिगिरम् । न विद्मस्तत्तत्त्वंवयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥
हे वरद, आपके विषय में ज्ञानीजनों की यह धारणा है "क्षिति हुत वह क्षेत्रज्ञाम्भः प्रभंजन चन्द्रमस्तपनवियदित्यष्टो मूतिर्नमोभव-विभ्रते ।" इस श्रुति के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल. आकाश, पृथ्वी और आत्मा भी आपही हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आप न हों ।। २६ ।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथोक्त्रीनपिसुरा ।
नकाराद्य र्वणैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः ॥
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् । २७।
हे शरणद ! व्यस्त [अ, उ. म. 'ॐ' पद, शक्ति द्वारा तीन वेद [ऋग्, यजुः और साम], तीन वृत्ति [जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति], त्रिभुवन [भूर्भुवः स्वः] तथा तीनों देव [ब्रह्मा, विष्णु, महश], इन प्रपञ्च। स व्यस्त आपका बोधक है और समस्त 'ॐ' पद, समुदाय शक्ति से सर्व विकार रहित अवस्थात्रयसे विलक्षण अखण्ड, चैतन्य आपको सूक्ष्म ध्वनि से व्यस्त करता है ।। २७ ।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।। अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देवः श्रुतिरपि । प्रियायास्मैधाम्नेप्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते ॥२८।।
हे देव ! भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान- यह जो आपके नाम का अष्टक है, इस प्रत्येक नाम में वेद और देवतागण [ब्रह्मा] आदि विहार करते हैं, इसलिये ऐसे प्रियधाम [आश्रय भूत] आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। २८।।
नमोनेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ॥
नमो विष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥२९॥
हे प्रियदव ! [निर्जन वन-विहरण शील], नेदिष्ठ [अत्यन्त समीप] दविष्ठ [अत्यन्त दूर [, क्षोदिष्ठ [अति सूक्ष्म], महिष्ठ [महान्], वषिष्ठ [अत्यन्त वृद्ध, यविष्ठ [अतियुवा], सव-त्वरूप और अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है ।। २९ ।।
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौमृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०।।
हे शिवजी ! जगत् की उत्पत्ति के लिये परम रजोगुण धारण किये भव [ब्रह्मा] रूप आपको बार-बार नमस्कार है और उस जगत् के सहार करने में तमोगुण को धारण करने वाले हर [रुद्र], आपके लिए पुनः-पुनः नमस्कार है, जगत् के सुख के लिए सत्त्व गुण का धारण करने वाले मृड (विष्णु), आपको बार-बार नमस्कार है। तीनों गुणों (सत्व, रज. तम) से परे जो अनिर्वचनीय पद से विशिष्ट हैं, ऐसे आपको बार-बार नमस्कार है ।। ३० ।।
कृशपरिणतिचेतः क्लेशवश्यं क्व चेदम् ।
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्ङ्घिनीशश्ववृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा-
द्वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥३१॥
हे वरद ! कहाँ तो रागद्वष आदि से कलुषित तथा तुच्छ मेरा मन, कहाँ आपकी अपरमित विभुति, तिसपर भी आपकी भक्ति ने मुझे निर्भय बनाकर इस वाक्रूपी पुष्पाञ्जलि को आपके चरण- कमलों में समर्पण करने के लिये वाध्य किया है ।। ३१ ।।
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।
सुरतरुवरशाखा लेखनीपत्रमुर्वी ।।
लिखित यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥३२॥
हे ईण ! असित अर्थात् काले पर्वत के समान कज्जल (स्याही) समुद्र के पात्र में हो, सुरवर (कल्पवृक्ष) के शाखा की उत्तम लेखनी हो और पृथ्वी कागज हो, इन साधनों को लेकर स्वयं शारदा यदि सर्वदा ही लिखती रहें तथापि वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकतीं, तो मैं कौन हैं ॥ ३२ ॥
असुरसुरमुनीन्द्र चितस्येन्दुमौले-
ग्रंथित गुणहिम्मो सकलगुणवरिष्ठः
रुचिरमलघुवृत्तःनिर्गुणस्येश्वरस्य ।
पुष्पदन्ताभिधानो स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
असुर, सुर और मुनियों से पूजित तथा विख्यात महिमा वाले ऐसे ईश्वर चन्द्रमौलि के इस स्तोत्र को अलघुवृत्त अर्थात् बड़े [शिख- रिणी] वृत्त में सकल गुण श्रेष्ठ पुष्पदंत नामक गन्धर्व ने बनाया ।। ३३ ।।
अहरहरनवद्य धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्-
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्य : ।
स भर्वात शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्न
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कोतिमांश्च ॥३४
शुद्धचित्त होकर अनवद्य महादेवजी के इस स्तोत्र को जो पुरुष प्रतिदिन परम भक्ति से पढ़ता है, वह इस लोक में धन-धान्य, आयु से युक्त, पुत्रवान् और कीर्तिमान होता है और अन्त में शिव-लोक में जाकर शिवस्वरूप हो जाता है ।। ३४ ।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्तत्वं गुरोः परम् । ३५।
महादेवजी से श्रष्ठ कोई देवता नहीं है, महिप्न से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं है, अघोर मंत्र से श्रेष्ठ कोई मन्त्र नहीं है और गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व (पदार्थ) नहीं है ।। ३५ ।।
दीक्षादानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।
दीक्षा, दान, तप, तीर्थादि तथा ज्ञान और यागादि क्रियाएँ इस शिवमहिम्नस्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं ।। ३६ ।।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्- स्तवनमिदमकार्षीवृदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥
सभी गंधों के राजा पुष्पदंत भाल में चन्द्रमा को धारण करते वाले देवाधि देव महादेवजी के दास थे. वे सुरगुरु महादेवजी के क्रोध से अपनी महिमा से भ्रष्ट हुए, तव उन्होंने शिवजी की प्रसन्नता के लिए इस परम दिव्य शिवमहिम्न स्तोत्र को बनाया ।। ३७ ।।
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षकहेतुम् पठति
यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेतः ।
ग्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोधं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८।।
यह पुष्पदंत का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र श्रेष्ठ देवताओं तथा मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है। इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त से हाथ जोड़कर पढ़ता है, वह किन्नरों द्वारा स्तुत्य होकर शिवजी के समीप जाता है ।। ३८ ।।
श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कर्जानर्गतेन
स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥३९॥
श्रीपुष्पदंत के मुख से निकले हुए इस पापहारी तथा महादेवजी के प्रिय स्तोत्र को सावधानी से कण्ठस्थ करके पाठ करने से प्राणी मात्र के स्वामी श्रीमहादेवजी प्रसन्न होते हैं ।। ३९ ।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्र ं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ।।४०।।
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।।
 तव तत्त्वं न जानाभि कीदृशोऽसि महेश्वरः ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।। तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
हे महेश्वर ! मैं नहीं जानता कि आप कैसे हैं? आप चाहे जैसे हों, आपके लिये मेरा नमस्कार है ।। ४१ ।।
एकाकालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२।।
हे प्रभु ! प्रातःकाल या दोपहर या सायंकाल में या तीनों काल में जो आपकी महिमा का गान करेगा, वह सब पापों से छूटकर आपके लोक में सुख पूर्वक निवास करेगा ।। ४२ ।।
इत्येषा वाङ्‌मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः ।
अपिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।॥४३॥
इस प्रकार इस वाङ्‌मयी पूजा को मैं श्रीशङ्करजी के चरणों में अर्पण करता है, जिससे श्रीमहादेवजी मुझपर प्रसन्न रहें ।। ४३
।। ।। इति भाषाटीकोपेतं श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रं समाप्तम् ।।

शिव महिम्न स्तोत्र की दिव्य कथा
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तियों का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।

शिव महिम्न स्तोत्र के लाभ
शिव महिम्न स्तोत्र की रचना गंधर्वराज पुष्पदंत ने की थी. इस स्तोत्र में 43 छंद हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र के कई लाभ हैं, जिनमें से कुछ ये हैं:
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव की दिव्य कृपा मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन से बाधाएं और चुनौतियां दूर होती हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को डर पर काबू पाने में मदद मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को अनंत आनंद मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को जीवन का कोई भी भय, रोग या शोक नहीं सताता.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को तमाम तरह के दान, तप और तीर्थाटन से ज़्यादा पुण्यफल मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को सभी सुखों की प्राप्ति होती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है.

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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