सोमवार, 23 अगस्त 2021

आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व् आदी शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|


आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व् आदी शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|
 इसीलिए देवी व् शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और  मस्तक पर सिन्दूर का टीका व् रुद्राक्ष माला धारण करते हैं| यह कथा ब्रह्मचर्य और वैराग्य की महिमा को भी प्रकाशित करती है| 
त्रिपुण्ड शिव व् सिन्दूर का टीका भगवती का चिन्ह अंकित करती है 
भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ ह| 
भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है| शैवागम के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है|

 "भ" और "स्म" इनका अर्थ अलग अलग है| "स्म" क्रिया स्वरुप भूतकाल को दर्शाता है| 'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं - "भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली| महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||

 त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये| आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||" महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है|इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं । यहाँ 'परमकुंडली' का अर्थ बताना अति आवश्यक है|मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का मार्ग अपरा सुषुम्ना है| जब कुण्डलिनी महाशक्ति गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना है| अपरा सुषुम्ना में कुण्डलिनी जागती है, और उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है| महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ| जो निराकार ब्रह्म शिव है य शून्य (शिव लिंग ) है उनिके इछा से स्रष्टि की रचना और पालन हुवा है और उनिकी इछा से स्रष्टि का अंत भी है सृष्टि का जब अंत होता है तो शेष कुछ नहीं बचता जो कुछ बचता ही नहीं जो अंतिम सृष्टि का स्वरूप होगा उसीको भस्म कहा जाता है जब लकड़ी (संसार )की अंकुर (जन्म से ) अनेक रूप लेता है और जब लकड़ी को आग लगता है तो जलकर राख बनजाता है राख में भी कुछ शेष रहता है और उस राख भी न रहते हुवे भस्म (शून्य) बनता है और वह भष्म जो शरीर रहित शिव (निराकार ब्रहम ) इस भस्म को धारण करता है | इस कारण शिव को भस्म प्रिय है और वो भी त्रिपुंड (प्राण ,शारीर , और अहंकार ) रहितहोता है निर्लिप्त जो भस्म कुछ नहीं वही शिव (जो निशुन्य है )धारण करता है जहा जो भाव , जीव ,और शिव का ऐक्य है वही लिंग है और उस लिंग को गुण त्रय, भाव त्रय और प्राण त्रय रहित भस्म ( निराकार ब्रह्म ) शिव को लेपन किया जाता है | भस्म अर्थार्त जो शेष होता है जो अपने , गुण, रूप ,रंग पंचत्व को खोकर जो शेष है वही भस्म है वह भस्म शिव प्रिय है इस कारण शिव स्मशान में है जहां सब कुछ अंत होता है और वही भस्म बनता है | महादेव शिवजी का न आदि है न ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं। धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए। भगवान् शिव सन्देश देते हैं कि – मृत्यु के पश्चात् देह जलाने से सबकुछ नष्ट नहीं होता। भस्म शेष रह जाती है,जो हमारी आत्मा की प्रतीक बनती है—जो नश्वर है, शाश्वत है। यह भस्म प्रदर्शित करती है कि संसार में सबकुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है! अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है, शेष सब मिथ्या, भ्रम और नश्वर। इसीलिए भगवान् शिव शरीर पर भस्म धारण किये हुए सर्ष्ण देते है,जिसका तात्पर्य है कि वे भस्म अर्थात्, आत्मा को अंगीकार करते हैं, और संसार के शेष भौतिक तत्त्व उनके लिये निरर्थक हैं, अनावश्यक हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है। उनकी वेशभूषा से 'जीवन' और 'मृत्यु' का बोध होता है। शीश पर गंगा और चन्द्र –जीवन एवं कला के द्योतम हैं। शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है। यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुए अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है। दरअसल भस्म शिव का एक रहस्य भी है, जो आदि से प्रारंभ होकर अनंत तक की यात्रा अभिव्यक्त करता है,क्योंकि भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि जीवन क्षणिक है। वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो इसका कारण बहुत सीधा सा है। भस्म शरीर पर आवरण का काम करती है। यह कपड़ों जितनी ही उपयोगी होती है। भस्म बारीक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे हम सर्दी या गर्मी महसूस करते हैं। अगर दार्शनिक पक्ष से देखें तो संन्यास का अर्थ है संसार से अलग परमात्मा और प्रकृति के सान्निध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शुमार है जो कहीं भी आसानी से उपलब्ध हो सकती है। भस्म का दार्शनिक अर्थ भी हैं और वैज्ञानिक महत्व भी है। शैव संप्रदाय के सन्यासियों में भस्म का विशेष महत्व है। श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है। भस्मागराकायमहेश्वराय। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता तथा शिव संहारकर्ता हैं। मृत्यु जो शाश्वत सत्य है। उसके ही स्वामी शिव हैं इसलिए कहते भी है सत्यं शिवं सुंदरम्। अर्थात् सत्य शिव के समान सुंदर है।संसार में सत्य केवल मृत्यु ही है और उसके ईश्वर भगवान शिव हैं। शिव का शरीर पर भस्म लपेटने का दार्शनिक अर्थ यही है कि यह शरीर जिस पर हम गर्व करते हैं, जिसकी सुरक्षा का इतना इंतजाम करते हैं। इस भस्म के समान ही तो हो जाएगा। भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड बनाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है। साथ साथ उस भस्म कों साधक अपने मस्तक एवं अनेक अंगों पर लगते हैं तो उसके अलग अलग फल प्राप्त होते हैं। भस्म दो प्रकार के होते हैं: १. महा भस्म २. स्वल्प भस्म...महा भस्म शिवजी का मुख्य स्वरुप है। पर स्वल्प भस्म की अनेक शाखाएं हैं स्त्रोत, स्मार्त और लौकिक भस्म अत्यंत प्रसिद्द स्वल्प भस्म की शाखाएं हैं। जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती हैं उसे स्त्रोत भस्म कहा जाता है, जो भस्म स्मृति अथवा पुरानो की रीति से धारण की जाती है उसे स्मार्त कहते हैं। जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है उसे लौकिक कहा जाता है। भ और स्म दो अक्षरों का योग है भस्म भ यानि भरत्स्नम यानि विनस्टकरना। स्म यानि देस्त्रॉयस्मा यानि स्मरण ,याद। जब दुर्गुणों का नाश होता है तब उस परम तत्व (परमेश्वर शिव का हम स्मरण करते हैं),उसकी याद आती है। भस्म को विभूति भी कहा जाता है । . शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यामित्क कारण भी हैं।भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढ़ालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। जलते कंडे में जड़ी-बूटी और कपूर-गुगल की मात्रा डाली जाती है कि यह भस्म सेहत की दृष्टि से उपयुक्त होती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म है। विरजा हवन की भस्म सर्वोत्कृष्ट मानी है। भस्म से विभूषित भक्त को देखकर देवता भी प्रसन्न होते हैं। हमें शिव के सभी मंत्रों, श्लोकों और स्त्रोतों में भस्म का वर्णन पढ़ने को मिल जाता है। जैसे आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है- श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: या 'भस्मांगराकाय महेश्वराय'। त्रिपुंड की तीन रेखाएं हैं, भृकुटी के अंत में मस्तक पर मध्यमा आदि तीन अंगुलियों से भक्ति पूर्वक भस्म का त्रिपुंड लगाने से भक्ति मुक्ति मिलती है। इसे शिव तिलक भी कहते हैं। यह शरीर की तीन नाड़‍ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। इसे लगाने से ना सिर्फ आत्मा को परम शांति मिलती है बल्कि सेहत की दृष्टि से भी चमत्कारिक लाभ देती है। तीन रेखाओं के क्रमशः नौ देवता हैं। वे सब अंगों में हैं इसलिए सब अंगों में भस्म स्नान का वर्णन है। प्रथम रेखा के देवता महादेव हैं। वे 'अ' कार, गार्हपत्य अग्नि-भू रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, पृथ्वी, धर्म, प्रातः सवन हैं। दूसरी रेखा के देवता महेश्वर हैं जो 'उ' कार दक्षिणाग्नि आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद माध्यन्दिन सवन इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा हैं। तीसरी रेखा के देवता शिव हैं वे 'म' कार आह्वानीय अग्नि परात्मारूप तमोगुण स्वर्गरूप, ज्ञानशक्ति, सामवेद और तृतीय सावन हैं।इन तीन देवताओं को नमस्कार करके शुद्ध होकर त्रिपुण्ड धारण करने से सब देवता प्रसन्न होते हैं।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
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