Wednesday 6 October 2021

माँ दुर्गा की साधना

नवार्ण मंत्र "http://shriramjyotishsadan.in/Services_Details.aspx?SId=25
माँ दुर्गा की साधना / उपासना क्रम मे, नवार्ण मंत्र एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों के इस मंत्र मे ,नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और 
भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।
यह महामंत्र शक्ति साधना मे सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों स्तोत्रों मे से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है।
यह माँ आदिशक्ति के तीनों स्वरूपों - माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है।
इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है।
नवार्ण मंत्र-
!! ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे !!
नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है, जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है।
ऐं - सरस्वती का बीज मन्त्र है ।
ह्रीं - महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।
क्लीं - महाकाली का बीज मन्त्र है ।
* इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिसमे सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।
* नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी की उपासना की जाती है, जिसमे चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समाहित है।
* नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिसमे मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समाहित है।
* नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह को नियंत्रित किया जाता है।
* नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिसमे बृहस्पति ग्रह का नियंत्रण होता है।
* नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिसमे शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।
* नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की उपासना की जाती है, जिसमे शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति है।
* नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिसमे राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समाहित है।
* नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति होती है।
इस मंत्र के 9 लाख जप करने व उसी अनुसार हवन, तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोज , हवन से माँ जगदम्बा के साक्षात दर्शन संभव हैं।
अधिकांश व्यक्ति नवरात्र मे 108 माला प्रति दिन करते है और प्रभाव दृष्टि गोचर होता है, पूर्ण सिद्धि के लिए 108 माला 90 दिन करना उचित माना गया है।
कई साधकों / आचार्यों का मत है कि किसी भी मन्त्र के प्रारम्भ मे प्रणव (ॐ) या नमः लगाने से मन्त्र में नपुंसक प्रभाव आ जाता है, 
बीजाक्षर प्रधान है ... तांत्रिक प्रणव “ ह्रीं ” है , अतः माला के जप के प्रारम्भ मे “ ॐ ” लगायें तथा जब माला पूरी हो जाये तो माला के अंत मे “ ॐ ” लगाये, 
यही मंत्र जाग्रति है ।
नवार्ण मंत्र साधना विधि -
“ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ”
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीनवार्ण मंत्रस्य ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो देवताः, रक्त-दन्तिका-दुर्गा भ्रामर्यो बीजानि, नन्दा शाकम्भरी भीमाः शक्त्यः, अग्नि-वायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्-यजुः-सामानि स्वरुपाणि, ऐं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती स्वरुपा त्रिगुणात्मिका श्री महादुर्गा देव्या प्रीत्यर्थे (यदि श्रीदुर्गा का पाठ कर रहे हो तो आगे लिखा हुआ भी उच्चारित करें) श्री दुर्गासप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- 
ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषिभ्यो नमः शिरसि
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्देभ्यो नमः मुखे
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो देवताभ्यो नमः हृदिः
ऐं बीज सहिताया रक्त-दन्तिका-दुर्गायै भ्रामरी देवताभ्यो नमः लिङ्गे (मनसा)
ह्रीं शक्ति सहितायै नन्दा-शाकम्भरी-भीमा देवताभ्यो नमः नाभौ
क्लीं कीलक सहितायै अग्नि-वायु-सूर्य तत्त्वेभ्यो नमः गुह्ये
ऋग्-यजुः-साम स्वरुपिणी श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती देवताभ्यो नमः पादौ
श्री महादुर्गा प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” – नवार्ण मन्त्र पढ़कर शुद्धि करें ।
षडङ्ग-न्यास
कर-न्यास
ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः 
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः 
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुम् 
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्
अंग-न्यास :-
ॐ ऐं हृदयाय नमः
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा
ॐ क्लीं शिखायै वषट्
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम्
ॐ विच्चे नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट्
अक्षर-न्यासः- 
ॐ ऐं नमः शिखायां, ॐ ह्रीं नमः दक्षिण-नेत्रे, ॐ क्लीं नमः वाम-नेत्रे, ॐ चां नमः दक्षिण-कर्णे, ॐ मुं नमः वाम-कर्णे, ॐ डां नमः दक्षिण-नासा-पुटे, ॐ यैं नमः वाम-नासा-पुटे, ॐ विं नमः मुखे, ॐ च्चें नमः गुह्ये ।
व्यापक-न्यासः- 
मूल मंत्र से चार बार सम्मुख दो-दो बार दोनों कुक्षि की ओर कुल आठ बार (दोनों हाथों से सिर से पैर तक) न्यास करें ।
दिङ्ग-न्यासः- 
ॐ ऐं प्राच्यै नमः, ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः, ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः, ॐ ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः, ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः, ॐ क्लीं वायव्यै नमः, ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः, ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः ।
! ध्यानम् !
ॐ खड्गं चक्रगदेषुचाप परिधाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः,
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् ।
नीलाश्मद्युतिमास्य पाददशकां सेवे महाकालिकाम्,
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम् ।। १।।
ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां,
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् ।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ।। २।।
घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दशतीं घनान्तविलसच्छितांशुतुल्य प्रभाम् ।।
गौरीदेहसमुद्भुवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र
सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ।। ३।।
माला-पूजन -
माला स्फटिक की हो ,लाल मुंगे की या रुद्राक्ष की 
माला के गन्धाक्षत करें 
तथा “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मंत्र से पूजा करके प्रार्थना करें -
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरुपिणि ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तः तस्मान्मे सिद्धिदाभव ।।
ॐ अविघ्नं कुरुमाले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे ।
जपकाले च सिद्धयर्थं प्रसीद मम सिद्धये ।।
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ साधिनि साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा ।
इसके बाद “ऐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मंत्र का 1,25.000 बार जप करें ।
जप दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन, मार्जन का दशांश ब्राहमण भोज करावें।
! पाठ-समर्पण ! 
ॐ गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गृहाणास्मत्-कृतं जपम् ।
सिद्धिर्मे भवतु देवि ! त्वत्-प्रसादान्महेश्वरि !
उक्त श्लोक पढ़कर देवी के वाम हस्त में जप समर्पित करें।
नवार्ण मंत्र की सिद्धि 9 दिनो मे 1,25,000 मंत्र जप से होती है,
परंतु कोई साधक न कर पाये तो नित्य 1, 3, 5, 7, 11 या 21 माला मंत्र जप करना उत्तम होगा ,
इस विधि से सम्पूर्ण इच्छायें पूर्ण होती है,समस्त दुख समाप्त होते है और धन का आगमन भी सहज रूप से होता है।
यदि मंत्र सिद्ध नहीं हो रहा हो तो “ ऐं ”, “ ह्रीं ”, “ क्लीं ” तथा “ चामुण्डायै विच्चे ” के पृथक पृथक सवा लाख जप करें फिर नवार्ण का पुनश्चरण करें।

Wednesday 22 September 2021

दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान

दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान तथा तांत्रिक प्रयोगों के बारे में भी चर्चा करेंगे ,
महाविद्या हे- श्री काली
श्री तारा
श्री छिन्नमस्ता
श्री बंगलामुखी
श्री कमला
श्री मातंगी
श्री षोडशी
श्री धूमावती
श्री त्रिपुर सुंदरी

हम यहाँ तांत्रिक अनुश्तःन के बारे में भी चर्चा करेगे
हम यहाँ पर हिंदुस्तान में इस समय उपलब्ध सिद्ध उपसाको के बारे में भी चर्चा करेगे।

ईष्ट के चुनाव का दूसरा उपाय है।

ईष्ट के चुनाव का दूसरा उपाय है।,योग्य गुरु से गुरु दीक्षा लेना और देवी -देवता या मंत्र का चुनाव उनके निर्देश के अनुसार करना ईष्ट के चुनाव का तीसरा और सर्वोत्कृष्ट उपाय है तंत्र का माध्यम ,,इसमें आप अँधेरे में बैठ जाए ,नाक की नोक पर भाव दृष्टि एकाग्र करते हुए अंगूठे को भृकुटी के मध्य आज्ञाचक्र पर तीन मिनट तक आँखे बंद करके रखे ,,दिमाग -मन बिलकुल शांत रखे ,तीन मिनट बाद वहा मानस पटल पर अंदर अँधेरा है ,कोई प्रकाश नहीं है ,कोई बिंदु प्रकाश नहीं है ,तो शिव जी या उनके चन्द्रमा की पूजा करे ,,अँधेरे का मतलब आपमें काली और भैरव के गुण बढे है और आपको शिव या उनके चन्द्रमा की आवश्यकता है ,यदि अन्य रंग का प्रकाश है ,तो उस प्रकाश के विपरीत देवी-देवता का चुनाव करे ,,यह प्रकाश या रंग यह व्यक्त करता है की सम्बंधित रंग या प्रकाश के ग्रह या देवी-देवता का गुण आपमें पहले से बढ़ है ,इसके विपरीत की आपको आवश्यकता है

सिद्धि -साधना

सिद्धि -साधना में रत व्यक्ति में बढ़ने वाली उर्जा को नियंत्रित करने की तकनीक की जानकारी होती है ,वह उस गुण को नियंत्रित कर सकता है ,किन्तु सामान्य लोग नहीं ,,अतः साधना में लगा व्यक्ति किसी भी ईष्ट को साध सकता है ,गुरु के मार्गदर्शन में ,,किन्तु सामान्यजन बढ़ी उर्जा नियंत्रित नहीं कर सकते ,और उनका पतन होने लगता है ,अतः यह लेख सामान्य लोगो के लिए है

प्राणायाम की प्रक्रिया

प्राणायाम की प्रक्रिया

प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना । साधारण स्थिति में श्वासों की चाल दस प्रकार की होती है ---पहले श्वास का भीतर जाना , फिर रुकना , फिर बाहर निकलना ; फिर रुकना , फिर भीतर जाना , फिर बाहर निकलना इत्यादि । प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है । श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया ) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया ) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् ‍ रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में हम जितने काल तक रुकते है वह तो नहीं के समान और नगण्य ही है । योग की भाषा में श्वास खींचन को ‘पूरक ’ बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं । प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं और जितने प्रकार के प्राणायाम हैं , उन सबमें पूरक , रेचक और कुम्भक भी भिन्न -भिन्न प्रकार के होते हैं । पूरक नासिका से करने में हम दाहिने छिद्र का अथवा बायें का अथवा दोनों का ही उपयोग कर सकते हैं । रेचक दोनोम नासारन्धों से अथवा एक से ही करना चाहिये । कुम्भक पूरक के भी पीछे हो सकता है और रेचक के भी , अथवा दोनों के ही पीछे न हो तो भी कोई आपत्ति नहीं। पूरक , कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं ।

पूरक , कुम्भक और रेचक कितनी -कितनी देर तक होना चाहिये , इसका भी हिसाब रखा गया हैं । यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जय , उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतरना ही रेचक में लगाया जाय । प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराकर अब हम प्राणायाम सम्बन्धी उन खास बातों पर विचार करेंगे जिनसे हम यह समझ सकेंगे कि प्राणायाम का हमारे शरीर पर कैसा प्रभाव पडता है ।

पूरक करते समय जब किं साँस अधिक -से -अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी , जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है , आगे की पेट की नसों को सिकोडकर रखा जाता है । उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता । रेचक भी जिसमें साँस को अधिक -से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है , पेट और छाती को जोर से सिकोडना पडता है और उड्डीयान ----बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है । प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।

एक विशेष प्रकार का प्राणायाम होता है जिसे भस्त्रि का प्राणायाम करते हैं । उसके दो भाग होते हैं , जिनमें से दूसरे भाग कीं प्रक्रिया वही है जो ऊपर कही गयी है ।

पहले भाग में साँस को जल्दी -जल्दी बाहर निकालना होता है , यहाँ तक कि एक मिनट में २४० बार साँस बाहर आ जाते हैं । योग में एक श्वास की क्रिया होती है जिसे ‘कपालभाति ’ कहते हैं । भस्त्रिका के पहले भाग में ठीक वैसी ही क्रिया की जाती है ।

प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव

सामान्य शरीरविज्ञान में मानवशरीर के अंदर काम करने वाले भिन्न -भिन्न अङुसमूह हैं । इन अङुसमूहों में प्रधान हैं - स्नायुजाल (Nervous system),ग्रन्थिसमूह (Glandular system),श्वासोपयोगी अङुसमूह (Pespiratory system) रक्तवाह , अङुसमूह (Digestive system) | इन सभी पर प्राणायाम का गहरा प्रभाव पडता हैं । मल को बाहर निकालने वाले अङो में हम देखते हैं कि आँते और गुर्दा तो पेट के अंदर हैं और फेफडे छाती के अन्दर । साधारण तौर पर साँस लेने में उदर की मांसपेशियाँ क्रमशः ऊपर और नीचे की ओर जाती हैं , जिससे आँतो और गुर्दे में भी हलचल और हलकी -हलकी मालिश होती रहती है । प्राणायाम में पूरक एवं रेचक तथा कुम्भक करते समय यह हलचल और मालिश और भी स्पष्टरुप से होने लगाती है । इससे यदि कहीं रक्त जमा हो गया हो तो इस हलचल के कारण उस पर जोर पडने से वह हट सकता है । यही नहीं , आँतो और गुर्दे के व्यापार को नियन्त्रण में रखने वाले स्नायु और मांसपेशियाँ भी सुदृढ हो जाती हैं । इस प्रकार आँतो और गुर्दे को प्राणायाम करते समय ही नहीं , बल्कि शेष समय में भी लाभ पहुँचता है । स्नायु और मांसपेशियाँ जो एक बार मजबूत हो जाती हैं , वे फिर चिरकाल तक मजबूत ही बनी रहती है और प्राणायाम से अधिक स्वस्थ हो जाने पर आँते और गुर्दे अपना कार्य और भी सफलता के साथ करने लगते हैं ।

यही हाल फेफडों का है । श्वास की क्रिया ठीकर तरह से चलती रहे , इसके लिये आवश्यकता है श्वासोपयोगी मांसपेशियों के सुदृढ होने की और फेफडों के लचकदार होने की । शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम के द्वारा इन मांसपेशियों और फेफडों का संस्कार होता है और कार्बनडाई आक्साईड नामक दूषित गैस का भी भली भाँति निराकरण हो जाता है । इस प्रकार प्राणायाम आँतो , गुर्दे तथा फेफडों के लिये , हो शरीर से मल को निकाल बाहर करने के तीन प्रधान अङु हैं , बडी मूल्यवान कसरत है ।

आहार का परिपाक करने वाले और रस बनाने वाले अङों पर भी प्राणायाम का अच्छा असर पडता है । अन्न -जल के परिपाक में आमाशय , उसके पृष्ठभाग में स्थित Pancreasनामक ग्रन्थि और यकृत मुख्य रुप से कार्य करते हैं और प्राणायाम में इन सबकी अग्रेजी में Diaphragm कहते हैं और पेट की मांसपेशियाँ , ये दोनों ही बारी -बारी से खूब सिकुडते हैं और फिर ढीले पड जात हैं , जिससे उपर्युक्त पाकोपयोगी अङो की एक प्रकार से मालिश हो जाती है । जिन्हें अग्निमान्द्य और बध्दकोष्ठता की शिकायत रहती है , उनमें से अधिक लोगों के जिगर में सदा ही रक्त जमा रहता है और फलतः उसकी क्रिया दोषयुक्त होती है । इस रक्तसंचय को हटाने के लिये प्राणायाम एक उत्तम साधन है ।

किसी भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसकी नाडियों में होने वाले रक्त को ऑक्सिजन प्रचुर मात्रा में मिलता रहे । योगशास्त्र में बतायी हुई पद्धति के अनुसार प्राणायाम करने से रक्त को जितना अधिक ऑक्सिजन मिल सकता है , उतना अन्य किसी व्यायाम से नहीं मिल सकता । इसका कारण यह नहीं कि प्राणायाम करते समय मनुष्य बहुत -सा ऑक्सिजन पचा लेता हैं , बल्कि उसके श्वासोपयोगी अङसमूह का अच्छा व्यायाम हो जाता है ।

जो लोग अपने श्वास की क्रिया को ठीक करने के लिये किसी प्रकार का अभ्यास नहीं करते , वे अपने फेफडों के कुछ अंशो से ही साँसे लेते हैं , शेष अंश निकम्मे रहते हैं , इस प्रकार निकम्मे रहने वाले अंश बहुधा फेफडों के अग्रभाग होते हैं । इन अग्रभागों में ही जो निकम्मे रहते है और जिनमें वायु का संचार अच्छी तरह से नहीं होता , राजयक्ष्मा के भयङकर कीटाणु बहुधा आश्रय पाकर बढ जाते हैं । यदि प्राणायाम के द्वारा फेफडों के प्रत्येक अंश से काम लिया जाने लगे और उनका प्रत्येक छिद्र दिन में कई बार शुद्ध हवा से धुल जाया करे तो फिर इन कीटाणुओं का आक्रमण असम्भव हो जायगा और श्वास सम्बन्धी इन भयंकर रोगों से बचा जा सकता हैं ।

प्राणायाम के कारण पाकोपयोगी , श्वालोपयोगी एवं मल को बाहर निकालने वाले अङों को क्रिया ठीक होने से रक्त अच्छा बना रहेगा । यही रक्त विभक्त होकर शरीर के भिन्न -भिन्न अङों में पहुँच जायगा । यह कार्य रक्तवाहक अङों का खास कर ह्रदय का हैं । रक्तसंचार से सम्बन्ध रखने वाला प्रधान अङु ह्रदय है और प्राणायाम के द्वारा उसके अधिक स्वस्थ हो जाने से समस्त रक्तवाहक अङु अच्छी तरह से काम करने लगते हैं ।

परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती । भस्त्रिका प्राणायाम में , खास कर उस हिस्से में जो कपालभाति से मिलता -जुलता है , वायवीय स्पन्दन प्रारम्भ होकर मानव -शरीर के प्रायः प्रत्येक सूक्ष्म -से -सूक्ष्म अङु को , यहाँ तक कि नाडियों एवं सूक्ष्म शिराओं तक को हिला देते हैं । इस प्रकार प्राणायाम से सारे रक्तवाहक अङुसमूह की कसरत एवं मालिश हो जाती है और वह ठीक तरह से काम करने के योग्य बन जागा है ।
रक्त की उत्तमता और उसके समस्त स्नायुओं और ग्रन्थियों में उचित मात्रा में विभक्त होने पर ही इनकी स्वस्थता निर्भर है । प्राणायाम में विशेष कर भस्त्रिका प्राणायाम में रक्त की गति बहुत तेज हो जाती है और रक्त भी उत्तम हो जाता है । इस प्रकार प्राणायाम से Enddocerine ग्रन्थिसमूह को भी उत्तम और पहले की अपेक्षा प्रचुर रक्त मिलने लगता है , जिससे वे पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हो जाती हैं । इसी रीति से हम मस्तिष्क , मेरुदण्ड और इनकी नाडियों तथा अन्य सम्बन्धित नाडियो को स्वस्थ बना सकते हैं ।

प्राणायाम का मस्तिष्क पर प्रभाव

सभी शरीरविज्ञानविशारदों का इस विषय में एक मत है कि साँस लेते समय मस्तिष्क में से दूषित रक्त प्रवाहिता होता है और शुद्ध रक्त उसमें संचरित होता है । यदि साँस गहरी हो तो दूषित रक्त एक साथ बह निकलता है और ह्रदय से जो शुद्ध रक्त वहाँ आता है वह और भी सुन्दर आने लगता है । प्राणायाम की यह विधि है कि उसमें साँस गहरे -से गहरा लिया जाय , इसका परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क से सारा दूषित रक्त बह जाता है और ह्रदय का शुद्ध रक्त उसे अधिक मात्रा में मिलता हैं । योग उड्डीयान -बन्ध को हमारे सामने प्रस्तुत कर इस स्थिति को और भी स्पष्ट कर देने की चेष्टा करता है । इस उड्डीयानबन्ध से हमें इतना अधिक शुद्ध रक्त मिलता है , जितना किसी श्वास सम्बन्धी व्यायाम से हमें नहीं मिल सकता । प्राणायाम से जो हमें तुरन्त बल और नवीनता प्राप्त होती है उसका यही वैज्ञानिक कारण है ।

प्राणायाम का मेरुदण्ड पर प्रभाव

मेरुदण्ड एवं उससे सम्बन्धित स्नायुओं के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि इन अङों के चारों ओर रक्त की गति साधारणतया मन्द होती है । प्राणायाम से इन अङों में रक्त की गति बढ जाती है और इस प्रकार इन अङों को स्वस्थ रखने में प्राणायाम सहायक होता है ।

योग में कुम्भक करते समय मूल , उड्डीयान और जालन्धर -तीन प्रकार के बन्ध करने का उपदेश दिया गया है । इन बन्धों का एक काल में अभ्यास करने से पृष्ठवंश का , जिसके अंदर मेरुदण्ड स्थित है तथा तत्सम्बन्धित स्नायुओं का उत्तम रीति से व्यायाम हो जाता है । इन बन्धों के करने से पृष्ठवंश को यथास्थान रखने वाली मांसपेशियाँ , जिनमें तत्सबन्धित स्नायु भी रहतें हैं , क्रमशः फैलती हैं और फिर सिमट जाती हैं , जिससे इन पेशियाँ तथा मेरुदण्ड एवं तत्सम्बन्धित स्नायुओं में रक्त की गति बढ जाती है । बन्ध यदि न किये जायँ तो भी प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया , ही ऐसी है कि उससे पृष्ठवंश पर ऊपर की ओर हल्का -सा खिंचाव पडता है , जिससे मेरुदण्ड तथा तत्सम्बन्धित स्नायुओं को स्वस्थ रखने में सहायत मिलती है ।

स्नायुजाल के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डालने के लिये तो सबसे उत्तम प्राणायाम भस्त्रिका है । इस प्राणायाम में श्वास की गति होने से शरीर के प्रत्येक सूक्ष्म -से -सूक्ष्म अङु की मालिश हो जाती है और इसका स्नायुजाल पर बहुत अच्छा प्रभाव पडता है ।

निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि प्राणायाम हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिये सर्वोत्तम व्यायाम है । इसीलिये भारत के प्राचीन योगाचार्य प्राणायाम को शरीर की प्रत्येक आभ्यन्तर क्रिया को स्वस्थ रखने का एकमात्र साधन मानते थे । उनमें से कुछ तो प्राणायाम को शरीर का स्वाच्छ ठीक रखने में इतना सहायक मानते हैं कि वे इसके लिये अन्य किसी साधन की आवश्यकता ही नहीं होता , अपितु इस शरीरयन्त्र को जीवन देने वाले प्रत्येक व्यापार पर अधिकार हो जाता है ।

श्वाससम्बन्धी व्यायामों से श्वासोपयोगी अङुसमूह को तो लाभ होता ही है , किंतु उनका असली महत्त्व तो इस बात को लेकर है कि उनसे अन्य अङुसमूहों को भी , खासकर स्नायुजाल को विशेष लाभ पहुँचता है ।

श्रीचक्र साधना

श्रीचक्र साधना
हे शैलजानाथ ! अब श्री देवता के चक्र को सुनिए । पूर्व से पश्चिम की ओर ६ रेखा खींचे । फिर उत्तर से दक्षिणान्त दश रेखा खींचे । पाँच गेह में पूरक अङ्क लिखे । सबके नीचे हारक अङ्क लिखे ॥४२ - ४३॥

उसके मध्य में देवताग्रह से संयुक्त अक्ष की रचना करे । मध्य गृह में सप्तर्षियुक्त पूरक अङ्क लिखे ॥४४॥

उसके दक्षिण द्वादश , उसके भी दक्ष ( रस ) ६ , उसके दक्ष १८ , उसके भी दक्ष भाग में १६ लिखे - ऐसा कहा गया है ॥४५॥

उसके बाद पूरक अङ्क लिखें , फिर द्क्ष भाग से इन्द्रादि अङ्क लिख्रें । इन्द्र के गृह में विधि विद्या का फल देने वाला शतक लिखे । विद्वान् साधक धर्मगृह में शून्य सात तथा दो लिखे । हे नाथ ! इसके बाद अनन्त मन्दिर में शून्य , आठ तथा ( वसु ) ८ संख्या लिखे ॥४६ - ४७॥

इसके बाद काली गृह में शून्य , ( वेद ) ४ तथा वामादि अङ्क लिखे धूमावती के मन्दिर में शून्य तथा ख में ( निशापति ) १ लिखे । इन्द्रादि दक्षभाग से लिखे , अङ्क चन्द्राधि देवता , शून्य अष्टचन्द्र से युक्त कर सर्वत्र देवता लिखे ॥४८ - ४९॥

फिर शून्य , अनल ३ , युग ४ तथा अयुग से युक्त कर दोनों अश्विनीकुमारों को लिखे । उसके बाद सहस्त्रार्क समन्वित पूर्वगृह लिखे । तारा के मन्दिरा में रहने वाला अङ्क शून्य वेद ४ है । उसी प्रकार बगलामुखी का गेह शून्य , अष्ट तथा चन्द्र १ से संयुक्त लिखे । इसके बाद उस चन्द्र गृह के नीचे वायु का मनोरम गृह है जो रन्ध० , वेद ४ संख्या से संयुक्त है तथा सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है ॥५० - ५२॥

राहु का गृह महापाप संयुक्त है वह शून्य , शून्य तथा मुनि ७ प्रिय है , उसके पश्चात् ‍ एक ही स्थान पर ख १ शून्य युगल अङ्क से युक्त ह्स्त लिखे । षोडशी मन्दिर शून्य , अष्ट तथा चन्द्र १ से समन्वित लिखे । मातङ्गी मन्दिर शून्य , रुद्र ११ तथा चन्द्र १ समन्वित लिखे ॥५३ - ५४॥

वायु के नीचे वरुण का गृह है जो सात तथा शशि २ प्रिय है तरुणीगृह को शून्य तथा अष्ट संख्या से समन्वित लिखना चाहिए । बुध गेह में रहने वाले अङ्क शून्य , चन्द्र तथा युग ४ संख्यायें हैं इसी प्रकार भुवनेशी मन्दिर का अङ्क शून्य , आठ तथा शशि १ संख्या वाला है ॥५५ - ५६॥

वरुण के नीचे कुबेर का गृह षट् ‍ तथा दो संख्या वाला है । आनन्दभैरवी का गृह दश संख्या वाला कहा गया है । धरणी गृह में शून्य युग्म तथा इन्दु १ संयुक्त लिखें । भैरवी का गृह शून्य युगल तथा चन्द्र संख्या वाया है ॥५७ - ५८॥

शशि गृह शून्य ऋषि ७ तथा चन्द्रमण्डल १ से संयुक्त है । कुबेर के नीचे श्री चक्र में रहने वाले अङ्क सर्वसमृद्धि प्रदान करने वाले हैं । ईश्वर सदाशिव के गृह में रहने वाले अङ्क सप्त , शून्य तथा युगात्मक ४ हैं । तिरस्करिणी का गृह एक हजार संख्या से समन्वित है ॥५९ - ६०॥

इसके पश्चात् किंकिणी का मन्दिर ८ आठ तथा चन्द्र संख्या समन्वित है , इसके पश्चात् छिन्नमस्ता का गृह शून्य , अष्ट तथा चन्द्रमण्डलात्मक १ है । इसके पश्चात् ‍ वागीश्वरी का गृह सप्तम तथा चन्द्रमण्डल १ युक्त है , यह गृह महाफल देने वाला है , जिसकी स्वयं धर्म रक्षा करते हैं ॥६१ - ६२॥

इसके बाद ईश्वर सदाशिव के गृह के नीचे बटुक का गृह है । इनका स्वयं का गृह शून्य , आठ तथा आद्य १ अङ्क समन्वित है जो धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष देने वाला है । इसके पश्चात् ‍ डाकिनी का गृह है जो ख शून्य तथा मुनि ७ संख्या से संयुक्त है । यह गृह साधक के समस्त सौख्य को क्षण मात्र में विनष्ट करने वाला है - इसमे संशय नहीं ॥६३ - ६४॥

अपने गृह में अपना - अपना मन्त्र फल देने वाला है - ऐसा कहा गया है । इसके बाद भीमा देवी का गृह है जो ख शून्य , सप्त तथा चन्द्रमण्डल से संयुक्त है । अन्य गृह सभी स्थानों पर भय प्रदान करते हैं । इसलिए उन्हें वर्जित कर देना चाहिए । इसके बाद उत्तम , श्रेष्ठ , विद्वान् शेष दो गृह में ल और क्ष इन दो वर्णों को लिखे ॥६५ - ६६॥

धीर साधक इन्द्रगेह ( द्र० ४ . ४६ ) से प्रारम्भ कर वकार से लेकर क वर्ग पर्यन्त वर्ण लिखे । फिर श , ष , स , ह , क्ष - इस प्रकार क्षकारान्त वर्ण लिखे । फिर साधक गणना करे ॥६७॥

ऊर्ध्वदेश में पूरक अङ्क लिखे , नीचे हारकाङक लिखे । इसके बाद , हे महेश्वर ! यहाँ आपने नाम का अक्षर हो विद्वान ‍ उस कोष्ठ का अङ्क लेकर पूजा करे । फिर उसके ऊपर वाले गृह के अङ्क से भाग देवे । यदि देवता का अङ्क बडा हो तो वह अङ्क शुभ देने वाला होता है । अल्पाङ्क भी शुभ देने वाला कहा गया है जो साधक के लिए सुखावह है ॥६८ - ७०॥

एकाक्षर में महान् ‍ सुख की प्राप्ति होती है । उसमें भी वर्णों की गणना करनी चाहिए । हे विभो ! यदि धीराङ्क ( अधोङ्क ) तथा देवताङ्क शून्य आवे तो शुभ नहीं होता । वह सर्वदा अशुभ देने में समर्थ होता है । एक में धन की प्राप्ति , द्वितीय में राजवल्लभ , तृतीय में जप से सिद्धि , किन्तु चतुर्थ में निश्चित रुप से मरण कहा गया है । पञ्चम में व्यक्ति की कीर्ति , छठवें में उत्कट दुःख प्राप्त होता है ॥७१ - ७३॥

शैवों के लिए तथा शाक्ति के लिए इतने ही वर्णों के अङ्क के ग्रहण का विधान है । वैष्णवों के लिए पञ्चम अङ्क निषिद्ध है । जिन - जिन देवताओं की हिंसा चित्त में स्थित हो , उन - उन देवताओं के मन्त्र ग्रहण से साधक आठों ऐश्वर्यों से युक्त हो जाता है । जो लोग जिस देवता के अधीन होते हैं वे उन देवताओं के गृह के अङ्क को लेते हैं । इसलिए ऊपर के अङ्क से पूर्ण कर नीचे के अङ्क से उसका हरण ( भाग ) करे ॥७४ - ७६॥

ऋणधनिचक्र --- हे सदाशिव ! अब ऋणी तथा धनी का चक्र तत्त्वतः वर्णन करती हूँ । उस कोष्ठ के दर्शन मात्रा से पूर्व जन्म के ऋणी तथा धनी का ज्ञान हो जाता है । अनेक प्रकार के अङ्कों में मन्त्र देवता का ज्ञान कर साधक सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । अपनी सेवा के योग्य महाविद्या के मन्त्रों को ग्रहण कर साधक मुक्ति प्राप्त कर लेता है । कोष्ठ से शुद्ध मन्त्रों का जो द्विजोत्तम ग्रहण करते हैं उनके समस्त दुःख दूर हो जाते हैं , यह हमारी बलवत्तर आज्ञा है ॥७७ - ७९॥

हे रुद्र ! हे भैरव ! कोष्ठ से शुद्ध किया गया मन्त्र ही फल देने वाला है । सद् ‌ गुरु के प्रिय दर्शन से प्राप्त हुये महामन्त्र का भी त्याग नहीं करना चाहिए । उस विषय में कोष्ठ का विचार न कर अपने विचार को ही मानना चाहिए । यदि महाविद्याओं के महामन्त्र में विचार पूर्वक ( परीक्षित ) मन्त्र ग्रहण करने से करोड़ों गुना पुण्य का लाभ भी होता है तो भी सदगुरु का मन्त्र लेना चाहिए ॥८० - ८१॥

( सदगुरु से प्राप्त मन्त्र का ) यदि विचार न भी किया जाय तो कामसुन्दरी ललिता महाविद्या जैसा उसका फल कहा गया है । उतना फल तो वहा देती ही हैं । ( इस चक्र में ) मात्र ११ कोष्ठक हैं , जिसे स्वयं महादेव ने परिपूर्ण किया है ॥८२॥

तत्त्ववेत्ता उन कोष्ठों में अकार से सारम्भ कर हकार पर्यन्त वर्ण लिखे । प्रथम पाँच कोष्ठों में हस्व दीर्घ क्रम से साधक विचारपूर्वक दो दो वर्णों को लिखे । फिर सुधी साधक शेष कोष्ठों में क्रमपूर्वक एक एक वर्ण लिखे ॥८३ - ८४॥

अ से लेकर म पर्यन्त दो वर्णों के अवधि में क्रमशः अङ्कानुसार वर्ण लिखे । बुद्धिमान् ‍ प्रथम मन्दिर में छठवाँ वर्ण लिखे । द्वितीय में भी छठें चिन्ह को लिखे तृतीय गृह में तथा चतुर्थ गृह में गगनाङ्क ( ह ) लिखना चाहिए । पञ्चम में तीन चक्र लिखे । षष्ठ गृह में चतुर्थ वर्ण , सप्तम में भी चतुर्थ वर्ण , अष्टम में गगनाड्क ( ह ) तथा नवम में दशम वर्ण लिखे ॥८५ - ८७॥

शेष मन्दिर में तीसरा वर्ण लिखे । हे नाथ ! ये साध्य मन्त्र के वर्ण हैं जिन्हें मैने आप से निश्चित रूप से कहा है ॥८८॥

अब संपूर्ण प्रयोजनों के निरूपण करने वाले साधक के अक्षरों को कहती हूँ । प्रथम गृह में द्वितीय और द्वितीय में तृतीय वर्ण लिखे । तृतीय गृह में पाँचवाँ , चौथे तथा पाँचवे गृह में गगन ( ह ) लिखे । षष्ठ में युगल वर्ण , सप्तम में चन्द्रमण्डल लिखे । अष्टम गृह में गगन ( ह ) वर्ण , नवम में चतुर्थ वर्ण , दशपे गृह में चौथा वर्ण , एकादश में चन्द्र वर्ण लिखे ॥८९ - ९१॥

वर्ण मण्डल के मध्य में रहने वाले इतने ही साधक के वर्ण हैं । हे महादेव ! स्वर व्यञ्जन को अलग अलग कर साध्यवर्णों को एकत्रित करे , यह प्रक्रिया समस्ता वर्णों के लिए जोड़कर आठ संख्या से भाग दे । जिस मन्त्र में साधक वर्णों से कम शेष बचे , उस शुभ मन्त्र को भी कदापि न ग्रहण करे । इसी प्रकार साधक के वर्णों के स्वरों तथा व्यञ्जनों को अलग - अलग कर लेवे ॥९२ - ९४॥

फिर पृथक् पृथक् संस्थित उन वर्णों को द्वितीयादि अंक से भाग दे । यदि मन्त्र में साधक की अपेक्षा अधिक अङ्क आवे तो सुधी साधक उस मन्त्र का जप करे । सम होने पर भी मन्त्र का जप किया जा सकता है । किन्तु ऋण की अधिकता होने पर कदापि उस मन्त्र का जप न करे ॥९५ - ९६॥

यदि शेष शून्य़ बचे तो भी उस मन्त्र का जप कदापि न करे । क्योंकि शून्य मृत्यु का सूचक है । द्वितीयादि अङ्क समुदाय वैष्णवों के लिए सुखदायी कहे गये हैं । यतः द्वितीयादि अङ्क जाल वैष्णवों के लिए सुखदायी हैं , अतः द्वितीयादि अङ्कजाल भी उसी प्रकार का कहा गया है ॥९७ - ९८॥

हे नाथ ! इन्द्रादि अङ्क सूर्य - मन्त्र तथा शाक्ति - मन्त्र में शुभप्रद हैं उसी प्रकार दिक् ‍ १० संख्या वाले अङ्क साधक के लिए शुभप्रद हैं । हे सदाशिव ! और सब तो पूर्ववत् ‍ है केवल उन अङ्कों को प्रयत्नपूर्वक सुनिए । विभिन्न अङ्कों से युक्त ऊपर से नीचे तक क्रमशः साध्य के अङ्कों को तथा साधक के अङ्कों को एक में मिला देवे और उसे ९ से पूर्ण करे । फिर जितनी गृह की संख्या हो उसे ८ से गुणा करे । फिर स्पष्टरुपा से जो शेष बचे उससे फल विचार करे ॥९९ - १०१॥

एकादश गृह में रहने वाले उन अङ्कों को यहाँ कहती हूँ - ये अंक इन्द्र तारा २७ . स्वर्ग , रवि १२ , तिथि २७ , षड् ६ , वेद ४ , दहन ३ , अष्टवसु ८ तथा नवाङ्क ९ में स्थित वर्ण का गुणा साध्य वर्ण से करे । नाम के आदि अक्षर से लेकर जितने मन्त्र के अक्षर हों उन संख्याओं को तीन भागों में बाँट देवे । फिर सात का भाग देवे । यदि अधिक शेष हो तो ऋण , यदि कम शेष हो तो धन कहा जाता है ॥ १०२ - १०५॥

( १ ) अथवा एक दूसरा भी प्रकार है जिससे परीक्षा कर मन्त्र का आश्रय ग्रहण करे नाम के आदि अक्षर से आरम्भ कर जितना भी साधक का वर्ण हो उसकी गणना करे । फिर जितनी संख्या हो , उसमें सात का गुणा करे । फिर वाम ( उलट कर ) संख्या से भाग देवे । किन्तु यह गणना श्री विद्या से इतर महाविद्याओं वाले मन्त्र में करने का विधान है ॥१०६ - १०७॥

( २ ) अथवा परीक्षा का एक और भी प्रकार है । साधक के सभी अक्षरों के स्वर और व्यञ्जनों को अलग अलग कर उसकी गणना करे । फिर साधक स्वयं उसका दुगुना करे । इस प्रकार साध्य के स्वर एवं व्यञ्जन अक्षरों को अलग अलग जोड़कर आठ का भाग देवे , फिर उसके संहार - विग्रह ( = फल ) को सुनिए ॥१०८ - १०९॥

इसमें पूर्वाचार के क्रम से ही सम्यक् शुभाशुभ फल जानना चाहिए इसके केवल विचार मात्र से ही सर्वार्थ साधिका सिद्धि प्राप्त होती है । साधक ने पूर्व जन्म में जिस देवता की आराधना की हैं उसी देवता को वह प्राप्त करता है ॥११० - १११॥

जानते हैं कैसा फूल शिव को अर्पित करें -

जानते हैं कैसा फूल शिव को अर्पित करें -किस कामना के लिए...............
- जूही के फूल को अर्पित करने से अपार अन्न-धन की कमी नहीं होती।
- अगस्त्य के फूल से शिव पूजा करने पर पद, सम्मान मिलता है।
- शिव पूजा में कनेर के फूलों के अर्पण से वस्त्र-आभूषण की इच्छा पूरी होती है।
- लंबी आयु के लिए दुर्वाओं से शिव पूजन करें।
- सुख-शांति और मोक्ष के लिए महादेव की तुलसी के पत्तों या सफेद कमल के फूलों से पूजा करें।
- वाहन सुख के लिए चमेली का फूल।
- दौलतमंद बनने के लिए कमल का फूल, शंखपुष्पी या बिल्वपत्र।
- विवाह में समस्या दूर करने के लिए बेला के फूल। इससे योग्य वर-वधू मिलते हैं।
- पुत्र प्राप्ति के लिए धतुरे का लाल फूल वाला धतूरा शिव को चढ़ाएं। यह न मिलने पर सामान्य धतूरा ही चढ़ाएं।
- मानसिक तनाव दूर करने के लिए शिव को शेफालिका के फूल चढ़ाएं।
-शिव को कनेर, और कमल के अलावा लाल रंग के फूल प्रिय नहीं हैं। सफेद रंग के फूलों से शिव जल्दी प्रसन्न होते हैं। कारण शिव कल्याण के देवता हैं। सफेद शुभ्रता का प्रतीक रंग है।शिव को केतकी और केवड़े के फूल चढ़ाने का निषेध किया गया है।

यह स्तोत्र शत्रुनाश एव परविद्या छेदन करने वाला है।

यह स्तोत्र शत्रुनाश एव परविद्या छेदन करने वाला एवं रक्षा कार्य हेतु प्रभावी है ।

साधारण साधकों को कुछ समय आवेश व आर्थिक दबाव रहता है, अतः पूजा उपरान्त नमस्तस्यादि शांति स्तोत्र पढ़ने चाहिये ।

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरा बगलामुखी खड्गमाला मन्त्रस्य नारायण ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, ॐ कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
हृदयादि-न्यासः-नारायण ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, ॐ कीलकाय नमः नाभौ, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास - कर-न्यास – अंग-न्यास -
ॐ ह्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
वाचं मुखं पद स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्

ध्यानः-
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -

मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।

मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का मानस पूजन करें -
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।

खड्ग-माला-मन्त्रः-
ॐ ह्लीं सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तम्भय-स्तम्भय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु अपस्मारं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिका दन्तोष्ठ जिह्वा तालु-कण्ठ बाहूदर कुक्षि नाभि पार्श्वद्वय गुह्य गुदाण्ड त्रिक जानुपाद सर्वांगेषु पादादिकेश-पर्यन्तं केशादिपाद-पर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्म-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष, सर्व-ग्रहान् निवारय-निवारय सर्वम् अविधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हन-हन दारिद्रयं निवारय निवारय, सर्व-मन्त्र-स्वरुपिणि सर्व-शल्य-योग-स्वरुपिणि दुष्ट-ग्रह-चण्ड-ग्रह भूतग्रहाऽऽकाशग्रह चौर-ग्रह पाषाण-ग्रह चाण्डाल-ग्रह यक्ष-गन्धर्व-किंनर-ग्रह ब्रह्म-राक्षस-ग्रह भूत-प्रेतपिशाचादीनां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्वदिशं बन्धय-बन्धय, वाराहि बगलामुखी मां रक्ष-रक्ष दक्षिणदिशं बन्धय-बन्धय, किरातवाराहि मां रक्ष-रक्ष पश्चिमदिशं बन्धय-बन्धय, स्वप्नवाराहि मां रक्ष-रक्ष उत्तरदिशं बन्धय-बन्धय, धूम्रवाराहि मां रक्ष-रक्ष सर्वदिशो बन्धय-बन्धय, कुक्कुटवाराहि मां रक्ष-रक्ष अधरदिशं बन्धय-बन्धय, परमेश्वरि मां रक्ष-रक्ष सर्वरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्व-शत्रु-पलायनाय सर्व-शत्रु-कुलं मूलतो नाशय-नाशय, शत्रूणां राज्यवश्यं स्त्रीवश्यं जनवश्यं दह-दह पच-पच सकल-लोक-स्तम्भिनि शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय स्तम्भनमोहनाऽऽकर्षणाय सर्व-रिपूणाम् उच्चाटनं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं क्लीं ऐं वाक्-प्रदानाय क्लीं जगत्त्रयवशीकरणाय सौः सर्वमनः क्षोभणाय श्रीं महा-सम्पत्-प्रदानाय ग्लौं सकल-भूमण्डलाधिपत्य-प्रदानाय दां चिरंजीवने । ह्रां ह्रीं ह्रूं क्लां क्लीं क्लूं सौः ॐ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय राजस्तम्भिनि क्रों क्रों छ्रीं छ्रीं सर्वजन संमोहिनि सभास्तंभिनि स्त्रां स्त्रीं सर्व-मुख-रञ्जिनि मुखं बन्धय-बन्धय ज्वल-ज्वल हंस-हंस राजहंस प्रतिलोम इहलोक परलोक परद्वार राजद्वार क्लीं क्लूं घ्रीं रुं क्रों क्लीं खाणि खाणि , जिह्वां बन्धयामि सकलजन सर्वेन्द्रियाणि बन्धयामि नागाश्व मृग सर्प विहंगम वृश्चिकादि विषं निर्विषं कुरु-कुरु शैलकानन महीं मर्दय मर्दय शत्रूनोत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय महोग्रभूतजातं बन्धयामि बन्धयामि अतीतानागतं सत्यं कथय-कथय लक्ष्मीं प्रददामि-प्रददामि त्वम् इह आगच्छ आगच्छ अत्रैव निवासं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगले परमेश्वरि हुं फट् स्वाहा ।

विशेषः- मूलमन्त्रवता कुर्याद् विद्यां न दर्शयेत् क्वचित् ।
विपत्तौ स्वप्नकाले च विद्यां स्तम्भिनीं दर्शयेत् ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।
प्रकाशनात् सिद्धहानिः स्याद् वश्यं मरणं भवेत् ।
दद्यात् शानताय सत्याय कौलाचारपरायणः ।
दुर्गाभक्ताय शैवाय मृत्युञ्जयरताय च ।
तस्मै दद्याद् इमं खड्गं स शिवो नात्र संशयः ।
अशाक्ताय च नो दद्याद् दीक्षाहीनाय वै तथा ।
न दर्शयेद् इमं खड्गम् इत्याज्ञा शंकरस्य च ।।
।। श्रीविष्णुयामले बगलाखड्गमालामन्त्रः ।।

कामयाबी के लिए करें गुरु पूजा

कामयाबी के लिए करें गुरु पूजा 
गुरुवार का दिन बृहस्पति या गुरु की उपासना को समर्पित है। बृहस्पति देवगुरु माने जाते हैं। गुरु शुभ ग्रह माना जाता है। यह व्यक्ति के जीवन में विद्या, ज्ञान, संतान सुख को भी नियत करता है। मीन और धनु राशि के स्वामी गुरु है। गुरु मकर राशि में बुरे फल देता है। इसके विपरीत कर्क राशि में होने पर यह शुभ प्रभाव देते हैं। 
स्त्री और पुरुष के खुशहाल दाम्पत्य में गुरु की भूमिका अहम होती है। गुरु पुरुष तत्व का कारक है। इसलिए पुरुष के साथ ही खासतौर पर स्त्री के विवाह आ रही रुकावटों को गुरु की प्रसन्नता से दूर करने के लिए गुरुवार का व्रत श्रेष्ठ माना जाता है। 
ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार कुण्डली में गुरु ग्रह के शुभ प्रभाव से व्यक्ति सरल, शांत, धार्मिक, आध्यात्मिक और खुबसूरत व्यक्तित्व का होता है। गुरु के अच्छा-बुरा असर ही व्यक्ति की तकदीर का फैसला करता है। कुण्डली में बुरे योग से शरीर में रोग जैसे मधुमेह, लीवर या वात रोग पैदा होते हैं। बुरी घटना भी हो सकती है। वहीं बिजनेस, पढ़ाई और अदालती मामलों में कामयाबी या नाकामी गुरु के अच्छे-बुरे असर से निश्चित होती है।
गुरुवार के दिन गुरु की उपासना और व्रत कर गुरु के शुभ प्रभाव से वैवाहिक, कारोबारी, मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों से छुटकारा मिल सकता है। इसलिए यहां बताई जा रही गुरुवार व्रत और पूजा की सरल विधि - 
- गुरुवार के दिन सबेरे स्नान करें। यथासंभव पीले वस्त्र पहनें।- एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर गुरु बृहस्पति की प्रतिमा को किसी पात्र में रखकर स्थापित करें। - अगर कोई पुरुष जनेऊधारी है तो गुरु की पूजा के समय जनेऊ जरुर पहनें। 
- गुरुदेव की गंध, अक्षत, पीले वस्त्र, पीले फूल, चमेली के फूलों से पूजा-अर्चना करें।- पीली वस्तुओं जैसे चने की दाल से बने पकवान, चने, गुड़ या पीले फलों का भोग लगाएं।- गुरुवार व्रत कथा करें। बृहस्पति आरती करें। क्षमा प्रार्थना कर मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना करें।- इस दिन किसी पात्र ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए या उनके निमित्त भोजन सामग्री दान देनी चाहिए। - पीले रंग की सामग्री और दक्षिणा देनी चाहिए। - समर्थ हो तो सोने का दान बहुत शुभ फल देता है। सोने की धातु के स्वामी गुरु को ही है। - ब्राह्मण के भोजन या दान के बाद ही व्रती भोजन करें। ऐसे सात गुरुवार लगातार व्रत करें। 
धार्मिक दृष्टि से गुरुवार के व्रत, पूजा-उपासना से कुण्डली में बनी गुरु ग्रह दोष शांति होती है। सुख-समृद्धि के साथ विशेष तौर पर कारोबार में फायदे, अच्छी शिक्षा, योग्य वर या वधू पाने के सपने पूरे होते हैं।

कुल देवता/देवी के संबंध में व्याप्त विसंगतियों का निदान---

कुल देवता/देवी के संबंध में व्याप्त विसंगतियों का निदान---

सामान्यतः प्रत्येक सनातन हिन्दु परिवार में कुल देवता/देवी के नामों के संबंधों में व्याप्त विसंगतियों एवं विवादों का सबसे पहले निदान आवश्य है । जैसे कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''खजूरी वाली माताजी'' हैं, कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''ईट वाली माताजी'' हैं । कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''कैला देवी'' हैं। कोई कहता है ''नैनोद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि, ''पावागढ वाली देवी'' है। कोई कहता है कि, ''बगावद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''मैडता वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''जीन वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''सती वाली माता'' है । इसी प्रकार कुल देवता के संबंध में कोई कहता है कि हमारे कुल देवता ''खेडे वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि, ''काले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''हिसार वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''गुडगाँव वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''सालासर वाले बालाजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खाटू श्यामजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खप्पर वाले देवता'' हैं

किन्तु वास्तव में खजूरी वाली देवी, ईट वाली देवी, कैला देवी, नैनोद वाली देवी, पावागढ वाली देवी, बगावद वाली देवी, जीन वाली देवी, रानी सती देवी, मैडता वाली देवी तथा खेडे वाले देवता, काले देवता, हिसार वाले देवता, गुडगाँव वाले देवता, सालासर वाले बालाजी, खाटू श्यामजी देवता आदि के उपरोक्त नाम से वेदों, शास्त्रॊं में कोई देवता या देवी नहीं है । यह सिद्घ है कि, जहां परिवार के पूर्वज निवास करते होंगे उस गांव के नाम या जहां देवी/देवता का मंदिर स्थित रहा होगा उसके नाम से देवी/देवता का अपभ्रंश नाम प्रचलित हो गया और हम उसी नाम से उनको पूजते चले आ रहे हैं । अब स्वयं सोचिए कि इन अपभ्रंश (जड) नामों की प्रार्थना करने से हमें कैसे धनात्मक सूक्ष्म ऊर्जा प्राप्त होगी । हमारी कुल देवी/देवता के प्रति की गई प्रार्थना हमेशा निष्फल होती रहती है । वास्तव में कुल देवता/देवी वही रही होगी जिसका शास्त्रॊं में उल्लेख है
कुल देवी/देवता एवं कुलमहापुरुष :---
हम जिस परिवार या वंश या घराने में जन्म लेते हैं उस परिवार के बुजुर्गों के हम ऋणी रहते हैं । हमें याद रखना चाहिए कि हम अकेले नहीं हैं, हम एक सुदीर्घ परम्परा की कडी हैं, हमारे पूर्व-पुरुषों (कुल-पुरुष, पितृ-पुरुष एवं कुल महापुरुष) की एक लम्बी श्रृंखला है । ये पूर्वज आज पंच भौतिक देह में नहीं है, किन्तु उनका सूक्ष्म देहधारी शरीर ब्रह्माण्ड में अवश्य विद्यमान है ।

नवार्ण और नवदुर्गा मंत्र साधना.

नवार्ण और नवदुर्गा मंत्र साधना.
दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। नवरात्र में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है।दुर्गा दुखों का नाश करने वाली देवी है। इसलिए नवरात्रि में जब उनकी पूजा आस्था, श्रद्धा से
की जाती है तो उनकी नवों शक्तियाँ जागृत होकर नवों ग्रहों को नियंत्रित कर देती हैं। फलस्वरूप प्राणियों का कोई अनिष्ट नहीं हो पाता। दुर्गा की इन नवों शक्तियों को जागृत करने के लिए दुर्गा के 'नवार्ण मंत्र' का जाप किया जाता है। नव का अर्थ नौ तथा अर्ण का अर्थ अक्षर होता है।
मां दुर्गा के नवरुपों की उपासना निम्न मंत्रों के द्वारा की जाती है. प्रथम दिन शैलपुत्री की एवं क्रमशः नवें दिन सिद्धिदात्री की उपासना की जाती है -
1. शैलपुत्री
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् ।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
2. ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥
3. चन्द्रघण्टा
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्यां चन्द्रघण्टेति विश्रुता ॥
4. कूष्माण्डा
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च ।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥
5. स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ॥
6. कात्यायनी
चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥
7. कालरात्रि एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना
खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी ॥
8. महागौरी
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः ।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ॥
9. सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ॥

पंडित आशु बहुगुणा
मोबाइल नं -9760924411

नवार्ण मंत्र महत्व:-

नवार्ण मंत्र महत्व:-
माता भगवती जगत् जननी दुर्गा जी की साधना-उपासना के क्रम में, नवार्ण मंत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण महामंत्र है | नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों का इस नौ अक्षर के महामंत्र में नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है यह महामंत्र शक्ति साधना में सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों-स्तोत्रों में से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। यह माता भगवती
दुर्गा जी के तीनों स्वरूपों माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है और इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है |
नवार्ण मंत्र-
|| ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ||
नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है | जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है |
ऐं = सरस्वती का बीज मन्त्र है ।
ह्रीं = महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।
क्लीं = महाकाली का बीज मन्त्र है ।
इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिस में सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |
नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी
की उपासना की जाती है, जिस में चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|
नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिस में मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|
नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की
उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह
को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई
है |
नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिस में बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|
नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिस में शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |
नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की
उपासना की जाती है, जिस में शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |
नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिस में राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है
नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को
नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है l

पंडित आशु बहुगुणा
मोबाईल-9760924411

नवार्ण मंत्र साधना विधी:-

नवार्ण मंत्र साधना विधी:-
विनियोग:
ll ॐ अस्य श्रीनवार्णमंत्रस्य
ब्रम्हाविष्णुरुद्राऋषय:गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसी,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर
स्वत्यो देवता: , ऐं बीजम , ह्रीं शक्ति: ,क्लीं कीलकम श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ll
विलोम बीज न्यास:-
ॐ च्चै नम: गूदे ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ यै नम: वाम नासा पूटे ।
ॐ डां नम: दक्ष नासा पुटे ।
ॐ मुं नम: वाम कर्णे ।
ॐ चां नम: दक्ष कर्णे ।
ॐ क्लीं नम: वाम नेत्रे ।
ॐ ह्रीं नम: दक्ष नेत्रे ।
ॐ ऐं ह्रीं नम: शिखायाम ॥
(विलोम न्यास से सर्व दुखोकी नाश होता
है,संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दहीने
हाथ की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये)
ब्रम्हारूप न्यास:-
ॐ ब्रम्हा सनातन: पादादी नाभि पर्यन्तं मां पातु ॥
ॐ जनार्दन: नाभेर्विशुद्धी पर्यन्तं नित्यं मां पातु ॥
ॐ रुद्र स्त्रीलोचन: विशुद्धेर्वम्हरंध्रातं मां पातु ॥
ॐ हं स: पादद्वयं मे पातु ॥
ॐ वैनतेय: कर इयं मे पातु ॥
ॐ वृषभश्चक्षुषी मे पातु ॥
ॐ गजानन: सर्वाड्गानी मे पातु ॥
ॐ सर्वानंन्द मयोहरी: परपरौ देहभागौ मे पातु ॥
( ब्रम्हारूपन्यास से सभी मनोकामनाये पूर्ण होती है, संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दोनों हाथो की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये )
ध्यान मंत्र:-
खड्गमं चक्रगदेशुषुचापपरिघात्र्छुलं भूशुण्डीम शिर: शड्ख संदधतीं करैस्त्रीनयना
सर्वाड्ग भूषावृताम ।
नीलाश्मद्दुतीमास्यपाददशकां सेवे महाकालीकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम ॥
माला पूजन:-
जाप आरंभ करनेसे पूर्व ही इस मंत्र से माला का पुजा कीजिये,इस विधि से आपकी माला भी चैतन्य हो जाती है.
“ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नंम:’’
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिनी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहनामी दक्षिणे
करे । जपकाले च सिद्ध्यर्थ प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देही देही सर्वमन्त्रार्थसाधिनी साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
अब आप माला से नवार्ण मंत्र का जाप करे-
नवार्ण मंत्र :-
ll ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ll
नवार्ण मंत्र की सिद्धि 9 दिनो मे 1,25,000 मंत्र जाप से होती है,परंतु आप येसे नहीं कर सकते है तो रोज 1,3,5,11,21,31….इत्यादि माला मंत्र जाप भी कर सकते है,इस विधि से सारी इच्छाये पूर्ण होती है,सब दुख समाप्त जाते है  और धन की प्राप्ति या वसूली भी सहज ही हो जाती है।
हमे शास्त्र के हिसाब से यह सोलह प्रकार
के न्यास देखने मिलती है जैसे ऋष्यादी,कर ,हृदयादी ,अक्षर ,दिड्ग,सारस्वत,प्रथम मातृका ,द्वितीय मातृका,तृतीय मातृका ,षडदेवी ,ब्रम्हरूप,बीज मंत्र ,विलोम बीज ,षड,सप्तशती ,शक्ति जाग्रण न्यास और
बाकी के 8 न्यास गुप्त न्यास नाम से
जाने जाते है,इन सारे न्यासो का अपना एक अलग ही महत्व होता है,उदाहरण के लिये शक्ति जाग्रण न्यास से माँ सुष्म रूप से साधकोके सामने शीघ्र ही आ जाती है और मंत्र जाप की प्रभाव से प्रत्यक्ष होती है और जब माँ चाहे किसिभी रूप मे क्यू न आये हमारी कल्याण तो निचित ही कर देती है।
आप नवरात्री एवं अन्य दिनो मे इस मंत्र के जाप जो कर सकते है I
पंडित आशु बहुगुणा
मोबाइल -9760924411

दूकान की बिक्री अधिक हो-

दूकान की बिक्री अधिक हो-
१॰ “श्री शुक्ले महा-शुक्ले कमल-दल निवासे
श्री महालक्ष्मी नमो नमः।
लक्ष्मी माई, सत्त की सवाई। आओ,
चेतो, करो भलाई। ना करो, तो सात समुद्रों की
दुहाई। ऋद्धि-सिद्धि खावोगी, तो नौ नाथ
चौरासी सिद्धों की दुहाई।”
विधि- घर से नहा-धोकर दुकान पर जाकर अगर-
बत्ती जलाकर उसी से
लक्ष्मी जी के चित्र की
आरती करके, गद्दी पर बैठकर, १
माला उक्त मन्त्र की जपकर दुकान का लेन-देन
प्रारम्भ करें। आशातीत लाभ होगा।
२॰ “भँवरवीर, तू चेला मेरा। खोल दुकान कहा कर
मेरा।
उठे जो डण्डी बिके जो माल, भँवरवीर
सोखे नहिं जाए।।”
विधि- १॰ किसीशुभ रविवार से उक्त मन्त्र
की १० माला प्रतिदिन के नियम से दस दिनों में १००
माला जप कर लें। केवल रविवार के ही दिन इस
मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। प्रातः स्नान करके दुकान पर
जाएँ। एक हाथ में थोड़े-से काले उड़द ले लें। फिर ११ बार
मन्त्र पढ़कर, उन पर फूँक मारकर दुकान में चारों ओर बिखेर
दें। सोमवार को प्रातः उन उड़दों को समेट कर किसी
चौराहे पर, बिना किसी के टोके, डाल आएँ। इस
प्रकार चार रविवार तक लगातार, बिना नागा किए, यह प्रयोग
करें।
२॰ इसके साथ यन्त्र का भी निर्माण किया जाता
है। इसे लाल स्याही अथवा लाल चन्दन से
लिखना है। बीच में सम्बन्धित व्यक्ति का नाम
लिखें। तिल्ली के तेल में बत्ती बनाकर
दीपक जलाए। १०८ बार मन्त्र जपने तक यह
दीपक जलता रहे। रविवार के दिन काले उड़द के
दानों पर सिन्दूर लगाकर उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर
उन्हें दूकान में बिखेर दें।
श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मन्त्र  यन्त्र तन्त्र एवं रत्न परामँश दाता ।आपका दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा ।  अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र तन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे । --- संपर्क सूत्र---9760924411

जगदम्बा यंत्र

जगदम्बा यंत्र 
आज जब जीवन बिल्कुल असुरक्षित बन गया है, पग-पग पर संकट, और खतरे मुंह बाए खड़े हैं, तो अपनी प्राण रक्षा अत्यंत आवश्यक हो जाती है| यदि किसी शत्रु अथवा किसी आकस्मिक दुर्घटना से जान का भय हो, तो व्यक्ति का जीवन चाहे कितना ही धन-धान्य से पूरित हो, उसका कोई भी अर्थ नहीं| प्रत्येक व्यक्ति अपनी ओर से अपनी सुरक्षा की ओर से सचेष्ट रहता ही है, परन्तु दुर्घटनाएं बिना सूचना दिए आती हैं| ऐसी स्थिति में दैवी सहायता या कृपा ही एक मात्र उपाय शेष रहता है|
ज्योतिषीय दृष्टि से दुर्घटना का कारण होता है, कि अमुक व्यक्ति अमुक समय पर अमुक स्थान पर उपस्थित हो ही| परन्तु ग्रहों के प्रभाव से यदि दुर्घटना किसी विशेष स्थान पर होनी ही है, परन्तु यदि व्यक्ति उस विशेष क्षण में उस स्थान पर उपस्थित न होकर समय थोडा आगे पीछे हो जाए, तो उस दुर्घटना से बच सकता है| ग्रहों का प्रभाव ऐसा होता है, कि अपने आप ही उस विशेष समय में व्यक्ति को निश्चित दुर्घटना स्थल की ओर खीचता ही है, परन्तु जगदम्बा यंत्र एक ऐसा उपाय है, जो ग्रहों के इस क्रुप्रभाव को क्षीण कर देता है| इस यंत्र को सिर्फ अपने पूजा स्थान में स्थापित ही करना है| और नित्य धुप, दीपक दिखाकर पुष्प अर्पित करें|
श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मन्त्र  यन्त्र तन्त्र एवं रत्न परामँश दाता ।आपका दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा ।  अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र तन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे । --- संपर्क सूत्र---9760924411

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...