प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना । साधारण स्थिति में श्वासों की चाल दस प्रकार की होती है ---पहले श्वास का भीतर जाना , फिर रुकना , फिर बाहर निकलना ; फिर रुकना , फिर भीतर जाना , फिर बाहर निकलना इत्यादि । प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है । श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया ) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया ) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में हम जितने काल तक रुकते है वह तो नहीं के समान और नगण्य ही है । योग की भाषा में श्वास खींचन को ‘पूरक ’ बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं । प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं और जितने प्रकार के प्राणायाम हैं , उन सबमें पूरक , रेचक और कुम्भक भी भिन्न -भिन्न प्रकार के होते हैं । पूरक नासिका से करने में हम दाहिने छिद्र का अथवा बायें का अथवा दोनों का ही उपयोग कर सकते हैं । रेचक दोनोम नासारन्धों से अथवा एक से ही करना चाहिये । कुम्भक पूरक के भी पीछे हो सकता है और रेचक के भी , अथवा दोनों के ही पीछे न हो तो भी कोई आपत्ति नहीं। पूरक , कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं ।
पूरक , कुम्भक और रेचक कितनी -कितनी देर तक होना चाहिये , इसका भी हिसाब रखा गया हैं । यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जय , उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतरना ही रेचक में लगाया जाय । प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराकर अब हम प्राणायाम सम्बन्धी उन खास बातों पर विचार करेंगे जिनसे हम यह समझ सकेंगे कि प्राणायाम का हमारे शरीर पर कैसा प्रभाव पडता है ।
पूरक करते समय जब किं साँस अधिक -से -अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी , जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है , आगे की पेट की नसों को सिकोडकर रखा जाता है । उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता । रेचक भी जिसमें साँस को अधिक -से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है , पेट और छाती को जोर से सिकोडना पडता है और उड्डीयान ----बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है । प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।
एक विशेष प्रकार का प्राणायाम होता है जिसे भस्त्रि का प्राणायाम करते हैं । उसके दो भाग होते हैं , जिनमें से दूसरे भाग कीं प्रक्रिया वही है जो ऊपर कही गयी है ।
पहले भाग में साँस को जल्दी -जल्दी बाहर निकालना होता है , यहाँ तक कि एक मिनट में २४० बार साँस बाहर आ जाते हैं । योग में एक श्वास की क्रिया होती है जिसे ‘कपालभाति ’ कहते हैं । भस्त्रिका के पहले भाग में ठीक वैसी ही क्रिया की जाती है ।
प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव
सामान्य शरीरविज्ञान में मानवशरीर के अंदर काम करने वाले भिन्न -भिन्न अङुसमूह हैं । इन अङुसमूहों में प्रधान हैं - स्नायुजाल (Nervous system),ग्रन्थिसमूह (Glandular system),श्वासोपयोगी अङुसमूह (Pespiratory system) रक्तवाह , अङुसमूह (Digestive system) | इन सभी पर प्राणायाम का गहरा प्रभाव पडता हैं । मल को बाहर निकालने वाले अङो में हम देखते हैं कि आँते और गुर्दा तो पेट के अंदर हैं और फेफडे छाती के अन्दर । साधारण तौर पर साँस लेने में उदर की मांसपेशियाँ क्रमशः ऊपर और नीचे की ओर जाती हैं , जिससे आँतो और गुर्दे में भी हलचल और हलकी -हलकी मालिश होती रहती है । प्राणायाम में पूरक एवं रेचक तथा कुम्भक करते समय यह हलचल और मालिश और भी स्पष्टरुप से होने लगाती है । इससे यदि कहीं रक्त जमा हो गया हो तो इस हलचल के कारण उस पर जोर पडने से वह हट सकता है । यही नहीं , आँतो और गुर्दे के व्यापार को नियन्त्रण में रखने वाले स्नायु और मांसपेशियाँ भी सुदृढ हो जाती हैं । इस प्रकार आँतो और गुर्दे को प्राणायाम करते समय ही नहीं , बल्कि शेष समय में भी लाभ पहुँचता है । स्नायु और मांसपेशियाँ जो एक बार मजबूत हो जाती हैं , वे फिर चिरकाल तक मजबूत ही बनी रहती है और प्राणायाम से अधिक स्वस्थ हो जाने पर आँते और गुर्दे अपना कार्य और भी सफलता के साथ करने लगते हैं ।
यही हाल फेफडों का है । श्वास की क्रिया ठीकर तरह से चलती रहे , इसके लिये आवश्यकता है श्वासोपयोगी मांसपेशियों के सुदृढ होने की और फेफडों के लचकदार होने की । शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम के द्वारा इन मांसपेशियों और फेफडों का संस्कार होता है और कार्बनडाई आक्साईड नामक दूषित गैस का भी भली भाँति निराकरण हो जाता है । इस प्रकार प्राणायाम आँतो , गुर्दे तथा फेफडों के लिये , हो शरीर से मल को निकाल बाहर करने के तीन प्रधान अङु हैं , बडी मूल्यवान कसरत है ।
आहार का परिपाक करने वाले और रस बनाने वाले अङों पर भी प्राणायाम का अच्छा असर पडता है । अन्न -जल के परिपाक में आमाशय , उसके पृष्ठभाग में स्थित Pancreasनामक ग्रन्थि और यकृत मुख्य रुप से कार्य करते हैं और प्राणायाम में इन सबकी अग्रेजी में Diaphragm कहते हैं और पेट की मांसपेशियाँ , ये दोनों ही बारी -बारी से खूब सिकुडते हैं और फिर ढीले पड जात हैं , जिससे उपर्युक्त पाकोपयोगी अङो की एक प्रकार से मालिश हो जाती है । जिन्हें अग्निमान्द्य और बध्दकोष्ठता की शिकायत रहती है , उनमें से अधिक लोगों के जिगर में सदा ही रक्त जमा रहता है और फलतः उसकी क्रिया दोषयुक्त होती है । इस रक्तसंचय को हटाने के लिये प्राणायाम एक उत्तम साधन है ।
किसी भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसकी नाडियों में होने वाले रक्त को ऑक्सिजन प्रचुर मात्रा में मिलता रहे । योगशास्त्र में बतायी हुई पद्धति के अनुसार प्राणायाम करने से रक्त को जितना अधिक ऑक्सिजन मिल सकता है , उतना अन्य किसी व्यायाम से नहीं मिल सकता । इसका कारण यह नहीं कि प्राणायाम करते समय मनुष्य बहुत -सा ऑक्सिजन पचा लेता हैं , बल्कि उसके श्वासोपयोगी अङसमूह का अच्छा व्यायाम हो जाता है ।
जो लोग अपने श्वास की क्रिया को ठीक करने के लिये किसी प्रकार का अभ्यास नहीं करते , वे अपने फेफडों के कुछ अंशो से ही साँसे लेते हैं , शेष अंश निकम्मे रहते हैं , इस प्रकार निकम्मे रहने वाले अंश बहुधा फेफडों के अग्रभाग होते हैं । इन अग्रभागों में ही जो निकम्मे रहते है और जिनमें वायु का संचार अच्छी तरह से नहीं होता , राजयक्ष्मा के भयङकर कीटाणु बहुधा आश्रय पाकर बढ जाते हैं । यदि प्राणायाम के द्वारा फेफडों के प्रत्येक अंश से काम लिया जाने लगे और उनका प्रत्येक छिद्र दिन में कई बार शुद्ध हवा से धुल जाया करे तो फिर इन कीटाणुओं का आक्रमण असम्भव हो जायगा और श्वास सम्बन्धी इन भयंकर रोगों से बचा जा सकता हैं ।
प्राणायाम के कारण पाकोपयोगी , श्वालोपयोगी एवं मल को बाहर निकालने वाले अङों को क्रिया ठीक होने से रक्त अच्छा बना रहेगा । यही रक्त विभक्त होकर शरीर के भिन्न -भिन्न अङों में पहुँच जायगा । यह कार्य रक्तवाहक अङों का खास कर ह्रदय का हैं । रक्तसंचार से सम्बन्ध रखने वाला प्रधान अङु ह्रदय है और प्राणायाम के द्वारा उसके अधिक स्वस्थ हो जाने से समस्त रक्तवाहक अङु अच्छी तरह से काम करने लगते हैं ।
परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती । भस्त्रिका प्राणायाम में , खास कर उस हिस्से में जो कपालभाति से मिलता -जुलता है , वायवीय स्पन्दन प्रारम्भ होकर मानव -शरीर के प्रायः प्रत्येक सूक्ष्म -से -सूक्ष्म अङु को , यहाँ तक कि नाडियों एवं सूक्ष्म शिराओं तक को हिला देते हैं । इस प्रकार प्राणायाम से सारे रक्तवाहक अङुसमूह की कसरत एवं मालिश हो जाती है और वह ठीक तरह से काम करने के योग्य बन जागा है ।
रक्त की उत्तमता और उसके समस्त स्नायुओं और ग्रन्थियों में उचित मात्रा में विभक्त होने पर ही इनकी स्वस्थता निर्भर है । प्राणायाम में विशेष कर भस्त्रिका प्राणायाम में रक्त की गति बहुत तेज हो जाती है और रक्त भी उत्तम हो जाता है । इस प्रकार प्राणायाम से Enddocerine ग्रन्थिसमूह को भी उत्तम और पहले की अपेक्षा प्रचुर रक्त मिलने लगता है , जिससे वे पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हो जाती हैं । इसी रीति से हम मस्तिष्क , मेरुदण्ड और इनकी नाडियों तथा अन्य सम्बन्धित नाडियो को स्वस्थ बना सकते हैं ।
प्राणायाम का मस्तिष्क पर प्रभाव
सभी शरीरविज्ञानविशारदों का इस विषय में एक मत है कि साँस लेते समय मस्तिष्क में से दूषित रक्त प्रवाहिता होता है और शुद्ध रक्त उसमें संचरित होता है । यदि साँस गहरी हो तो दूषित रक्त एक साथ बह निकलता है और ह्रदय से जो शुद्ध रक्त वहाँ आता है वह और भी सुन्दर आने लगता है । प्राणायाम की यह विधि है कि उसमें साँस गहरे -से गहरा लिया जाय , इसका परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क से सारा दूषित रक्त बह जाता है और ह्रदय का शुद्ध रक्त उसे अधिक मात्रा में मिलता हैं । योग उड्डीयान -बन्ध को हमारे सामने प्रस्तुत कर इस स्थिति को और भी स्पष्ट कर देने की चेष्टा करता है । इस उड्डीयानबन्ध से हमें इतना अधिक शुद्ध रक्त मिलता है , जितना किसी श्वास सम्बन्धी व्यायाम से हमें नहीं मिल सकता । प्राणायाम से जो हमें तुरन्त बल और नवीनता प्राप्त होती है उसका यही वैज्ञानिक कारण है ।
प्राणायाम का मेरुदण्ड पर प्रभाव
मेरुदण्ड एवं उससे सम्बन्धित स्नायुओं के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि इन अङों के चारों ओर रक्त की गति साधारणतया मन्द होती है । प्राणायाम से इन अङों में रक्त की गति बढ जाती है और इस प्रकार इन अङों को स्वस्थ रखने में प्राणायाम सहायक होता है ।
योग में कुम्भक करते समय मूल , उड्डीयान और जालन्धर -तीन प्रकार के बन्ध करने का उपदेश दिया गया है । इन बन्धों का एक काल में अभ्यास करने से पृष्ठवंश का , जिसके अंदर मेरुदण्ड स्थित है तथा तत्सम्बन्धित स्नायुओं का उत्तम रीति से व्यायाम हो जाता है । इन बन्धों के करने से पृष्ठवंश को यथास्थान रखने वाली मांसपेशियाँ , जिनमें तत्सबन्धित स्नायु भी रहतें हैं , क्रमशः फैलती हैं और फिर सिमट जाती हैं , जिससे इन पेशियाँ तथा मेरुदण्ड एवं तत्सम्बन्धित स्नायुओं में रक्त की गति बढ जाती है । बन्ध यदि न किये जायँ तो भी प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया , ही ऐसी है कि उससे पृष्ठवंश पर ऊपर की ओर हल्का -सा खिंचाव पडता है , जिससे मेरुदण्ड तथा तत्सम्बन्धित स्नायुओं को स्वस्थ रखने में सहायत मिलती है ।
स्नायुजाल के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डालने के लिये तो सबसे उत्तम प्राणायाम भस्त्रिका है । इस प्राणायाम में श्वास की गति होने से शरीर के प्रत्येक सूक्ष्म -से -सूक्ष्म अङु की मालिश हो जाती है और इसका स्नायुजाल पर बहुत अच्छा प्रभाव पडता है ।
निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि प्राणायाम हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिये सर्वोत्तम व्यायाम है । इसीलिये भारत के प्राचीन योगाचार्य प्राणायाम को शरीर की प्रत्येक आभ्यन्तर क्रिया को स्वस्थ रखने का एकमात्र साधन मानते थे । उनमें से कुछ तो प्राणायाम को शरीर का स्वाच्छ ठीक रखने में इतना सहायक मानते हैं कि वे इसके लिये अन्य किसी साधन की आवश्यकता ही नहीं होता , अपितु इस शरीरयन्त्र को जीवन देने वाले प्रत्येक व्यापार पर अधिकार हो जाता है ।
श्वाससम्बन्धी व्यायामों से श्वासोपयोगी अङुसमूह को तो लाभ होता ही है , किंतु उनका असली महत्त्व तो इस बात को लेकर है कि उनसे अन्य अङुसमूहों को भी , खासकर स्नायुजाल को विशेष लाभ पहुँचता है ।
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