Saturday, 1 February 2025

श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र

 

श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र 

( हिन्दी भावार्थ सहित)

इस स्तोत्र के पाठ करने से ब्रह्म विद्या के गूढ तत्वों की ओर मनुष्य का मन लगता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति के गूढ़ रहस्य स्वयमेव सूझते हैं। अध्यात्म मार्ग में रुचि और प्रवृत्ति बढ़ती है, फल स्वरूप मनुष्य आत्मदर्शन, ईश्वर साक्षात्कार, परमपद एवं ब्रह्मानन्द की दिशा में अग्रसर होता जाता है।

त्वमेका विश्वस्मिन् रमण मनसा द्वेतमकरो- स्ततस्तत् त्वं जज्ञो महद्धिमहङ्कारसहितम् ।

मनस्तेनारब्धं सकलमपि दृग् दश्यमसृज- सदेवं लोकेस्मिन् किमपि न विलोकेत्वदितरम् ।।

हे देवि! तुमने ही इस विश्व में रमणेच्छा से द्वैत को उत्पन्न किया। फिर अहंकारादि सहित महतत्व की उत्पत्ति हुई, पुनः मन बना। ऐसे ही सम्पूर्ण दृश्य जगत् की रचना हुई। इसलिये मैं इसे संसार में तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता। संसार रूप में तुम्हारा ही अब तो ध्यान करता हूं। तुम संसार मय हो और संसार तुम से भिन्न कोई वस्तु नहीं है।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मरूपे च प्राणापानादिरूपिणी । भावाभाव स्वरूपे च जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।1।।

हे जगत् धात्रि देवि! तुम सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राण, अपान, अभाव और भाव स्वरूप हो। हे देवि! तुम्हें नमस्कार है।

कालादि रूपे कालेशे कालाकालविभेदिनी । सर्वस्वरूपे सवज्ञे जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।2।1

हे कालादि स्वरूपे! हे काल स्वामिनी! हे काल और अकाल का भेदन करने वाली देवि! तुम सर्वमय हो, सर्वज्ञ हो। अतः हे जगद्धात्रि देवि! तुम्हें हम नमस्कार करते हैं।

अगम्ये जगतामाद्ये, माहेश्वरि वराङ्गने अशेषरूप रूपस्थे जगद्धात्रि ! नमोस्तुते ।।

हे जगद्धात्रि ! तुम अगम्य और आदि शक्ति हो। तुम वरदा माहेश्वरी हो। सम्पूर्ण विश्वमय होकर उसमें व्याप रही हो। इसलिये हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

न तस्य कार्य करणं च विद्यते । न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।। परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ।।

उसका न कोई कार्य और न कोई करण है। न कोई उसके सदृश है और न उससे अधिक। उसकी शक्ति सर्वतोपरि विविधि प्रकार की है। ज्ञान, बल और क्रिया उसमें स्वाभाविक हैं।

चित्स्यन्दोऽन्तर्जगद्धत्ते कल्पनेवपुरं हृदि । सैव वा जगदित्येव कल्पनैव यथा पुरम् ।। पवनस्य यधा स्पन्दस्तथैवेच्छा शिवस्य सा । यथास्पन्दोऽनिवस्यान्तः प्रशान्तेच्छस्तथाशिवः ।। अमूर्तो मूर्तमाकाशे शब्दाडम्बरमानिलः । यथा स्पन्दनोतनोत्येव शिवेच्छा कुरुतेजगत् ।।

वह स्पन्दन शक्ति उसी प्रकार जगत को अपने में लय कर लेती है जैसे कल्पना, अपने कल्पना नगर को। अथवा कल्पना ही नगर है और शक्ति भी जगत् से भिन्न वस्तु नहीं है।

जिस तरह पवन में स्पन्दन है वैसे ही शिव की इच्छा है। और जैसे स्पन्दन के भीतर शान्ति निहित है वैसे ही शिवेच्छा में शिव है।

यह शिवेच्छा ठीक उसी प्रकार जगत को उत्पन्न करती है जैसे निराकार व्योम मण्डल में अमूर्त शब्दाडम्बर को वायु प्रकट करता है।

भ्रमयति प्रकृतिस्तात्संसारे भ्रमरूपिणी । यावन्न पश्यति शिवं नित्यतृप्तमनामयम् ।। संविन्मात्रैक धमित्वात्काकतालीय योगतः । संविद्देव शिवं स्पृष्ट्वा तन्मय्येव भवत्यलम् ।। प्रकृतिः पुरुषं स्पृष्ट्वा प्रकृतित्वं समुज्झति । तदन्तरत्वेकतां गत्वा नदीरूपमिवार्णवे ।।

प्रभु को चेतन शक्ति प्रकृति जो संभ्रमणशील है वह उस समय तक संसार में भ्रमण करती रहती है जब तक नित्य, तृप्त और अनामय शिव का दर्शन न हो जाय।

स्वयं तद्रूप होने के कारण अचानक शिव दर्शन होने पर तुरन्त तन्मय हो जाती है।

वह प्रकृति पूर्ण पुरुष को स्पर्श करके इस प्रकार प्रकृतित्व को छोड़ देती है जैसे समुद्र में मिलकर नदी अपने नदी भाव को छोड़ देती है।

न धूमैर्नोदीपैर्न च मधुर नैवेद्य निव है। न पुष्पैनों गन्धैर्न च विविध बन्धैः स्तुति पदैः ।। समस्त त्रैलोक्य प्रसरण लसद् भूरि विभवे । सपर्या पर्याप्ता तव भवति भावोप चरणैः ।।

हे समस्त संसार के प्रसार करने वाली देवि ! तुम्हारी पूजा धूप, दीप, मधुर, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, और विविध प्रकार के सुन्दर सुशोभित स्तुति पदों से कभी पूर्ण नहीं हो सकती। उसके लिए तो केवल भाव पुष्प ही अभिलषित हैं। जो अपनी भावना के पुष्प अर्पण करने में असमर्थ हैं वह और किसी भी पूजा सामग्री से तुम्हारी आराधना पूर्णरूपेण नहीं कर सकता। वह सर्वथा भाव-पुष्पों के बिना अपूर्ण ही है और अपूर्ण ही रहेगी।

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