मां नील तारा
*वास्तव में काली को ही नीलरुपा होने से 'तारा' भी कहाँ गया हैं। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी हैं कि वह सर्वदा मोक्ष देनेवाली-तारनेवाली है, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों में रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या उग्रतारा हैं।तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रुप की चर्चा हैं। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शवरुप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरुढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नीलकमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग है। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला हैं। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ हैं। इस कारण वह महाकरुणामयी है। तारा तन्त्र में कहाँ गया हैं-*
*समुद्र मथने देवि कालकूट समुपस्थितम्।।*
*समुद्रमंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीनेवाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं। शिव-शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट हैं। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करनेवाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करनेवाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भूत हैं। यह फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरुपा हैं। यही एकजटा हैं। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिंगल जटा धारिणी उग्रतारा एकजटा के रुप में पूजित हुई। वही उग्रतारा शव के ह्रदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई।*
*मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्प्रदे।*
*प्रत्यालीढपदस्थिते शिवह्रदि स्मेराननाम्भोरुहे।।*
*शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रुपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति स्वरुप है।*
*नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती।*
*तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी।।*
*उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता।*
*पिंगोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरुपिणी।।*
*सर्व प्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठाराधिता तारा' भी कहा जाता हैं। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधना की, जो सफल ना हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया हैं, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली।*
9760924411
No comments:
Post a Comment