Wednesday, 17 April 2019

साधना-सूत्र • गुह्य तन्त्रोपासना और इसकी सफलता इसकी गोपनीयता में निहित है । अत: इसके सूत्रों और सफलताओं को गोपनीय रखना ही श्रेयस्कर है । इन्हें प्रकट करने से सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं । • इस रहस्यमयी उपासना को गुरु-निर्देश तथा गुरु-संरक्षा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए । • इस उपासना का आधार शरीर-तन्त्र है, क्योंकि शक्ति-सम्पन्न ईश्वर आनन्दमय है और आनन्द का निवास शरीर में है । • शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संयम ही गुह्य तन्त्रोपासना में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है । • सृजन-शक्ति, आत्म-शक्ति और वैभव-शक्ति — तीनों की उपलब्धि का स्रोत योनि-देवी ही हैं । अत: जिस घर में योनिस्वरूपा मातृ-शक्ति अप्रसन्न रहती है; वहाँ अभाव, दुर्बलता और दरिद्रता का स्थायी निवास होता है । लिङ्गाष्टकम् ब्रह्ममुरारि-सुरार्चित -लिङ्गं निर्मल-भासित-शोभित-लिङ्गम् । जन्मज-दुःख-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।१।। देवमुनि-प्रवरार्चित-लिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् । रावणदर्प-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।२।। सर्वसुगन्धि - सुलेपित-लिङ्गं बुद्धिविवर्धन-कारण-लिङ्गम् । सिद्धसुरा-ऽसुरवन्दित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।३।। कनक-महामणि-भूषित-लिङ्गं फणिपति-वेष्टित-शोभितलिङ्गम् । दक्ष-सुयज्ञ-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।४।। कुंकुम-चन्दनलेपितलिङ्गं पंकज-हार-सुशोभित-लिङ्गम् । सञ्चित-पाप-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।५।। देवगणार्चित-सेवित-लिङ्गं भावैर्भक्तिभिरैव च लिङ्गम् । दिनकरकोटि-प्रभाकर-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।६।। अष्टदलोपरि-वेष्टित-लिङ्गं सर्वसमुद्भव-कारण-लिङ्गम् । अष्टदरिद्र-विनाशित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।७।। सुरगुरु-सुरवर-पूजित-लिङ्गं सुर-वन-पुष्प-सदार्चित लिङ्गम् । परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।८।। लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं य: पठैच्छिव - सन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।९।।

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