Wednesday 17 April 2019

तन्त्र की गुह्य-उपासनाएँ सनातन धर्म में आगम (तंत्र) और निगम (वेद)– ये दोनों ही मार्ग ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि कराने वाले माने गये हैं । दोनों ही मार्ग अनादि परम्परा-प्राप्त हैं । किन्तु, कलियुग में आगम-मार्ग को अपनाये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती; क्योंकि आगम तो सार्वर्विणक है, जबकि निगम त्रैवर्णिक यानी केवल द्विजातियों के लिए है । कहा गया है– कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भव: । द्वापरे तु पुराणोक्त कलौवागम सम्भव: ।। अर्थात् , सतयुग में वैदिक आचार, त्रेतायुग में स्मृतिग्रन्थों में उपदिष्ट आचार, द्वापरयुग में पुराणोक्त आचार तथा कलियुग में तंत्रोक्त आचार मान्य हैं । आगम-शास्त्रों की उत्पत्ति भगवान शिव से हुई है । भगवान शिव ने अपने पाँचों मुखों (सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान) के द्वारा भगवती जगदम्बा पार्वती को तन्त्र-विद्या के जो उपदेश दिये– वही पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और ऊध्र्व नामक पाँच आम्नाय तन्त्रों के नाम से प्रचलित हुए । ये ‘पंच-तन्त्र’ भगवान श्रीमन्नारायण वासुदेव को भी मान्य हैं– आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ । मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।। तन्त्र के मुख्यत: ६४ भेद माने गये हैं । इन सभी का आविर्भाव भगवान शिव से ही हुआ है । कुछ विद्वान् ६४ योगिनियों को तन्त्र के इन ६४ भेदों का आधार मानते हैं । तन्त्र-सिद्धि की परम्परा में कतिपय साधना-पद्धतियाँ बड़ी रहस्यमयी हैं, जिन्हें प्रकट करना निषिद्ध माना गया है । इनके रहस्य को समझ पाना साधारण साधक के वश की बात नहीं है, बल्कि इससे उसके पथभ्रष्ट हो जाने की आशंका ही बनी रहती है । इन गुप्त एवं रहस्यमयी तन्त्र-साधना-पद्धतियों में दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्त, कौलाचार आदि को उत्तरोत्तर उत्तम फलदायी माना गया है । किन्तु, इनकी अनेकरूपता के कारण साधकों को श्रेष्ठ गुरु के निर्देश के बिना इन साधनाओं को नहीं करना चाहिए । योग और मोक्ष– साधकों के जीवन के ये दो मुख्य उद्देश्य होते हैं । जिन साधकों में योग की भावना प्रबल होती है, वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकते । क्योंकि उनका मन भोग में लिप्त रहेगा, भले ही बाह्य रूप से वे विरक्त क्यों न हो जायँ । ऐसे साधकों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए । किन्तु, भोग में डूबकर उसके रहस्य को जाने बिना उससे विरक्ति होना सम्भव नहीं है । भोगों की नश्वरता और उनके अल्पस्थायित्व को समझे बिना उनसे निवृृत्ति और विरक्ति हो पाना नितान्त असम्भव है । अत: भोग में भी भक्ति-भाव आ जाय– इसके लिए ‘देव’ और ‘देवी’ के भाव को हृदय में स्थापित करते हुए– ‘पूजा ते विषयोपभोगरचना’– की भावना के अनुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके आध्यात्मिक और आधिदैविक भाव की ओर अग्रसर होना ही इन गुह्य साधनाओं का परम लक्ष्य है । बलपूर्वक मन को वैराग्य में लगाने का विपरीत प्रभाव हो सकता है । अत: गुरु के निर्देशानुसार मर्यादित विषयोपभोग करते हुए मन्त्र-जप, ध्यान, पूजा, योग आदि का अभ्यास करते रहना चाहिए । इस प्रकार के अभ्यास से साधक को आत्मानंद की अनुभूति और आत्मज्ञान की सहसा उपलब्धि हो जाती है । क्योंकि सत्-चित्-आनन्द– ये तीन ब्रह्म के स्वरूप हैं, जो वास्तव में एक ही हैं । जहाँ भी आनन्द की अनुभूति है, वह ब्रह्म का ही रूप है–भले ही वह पूर्णरूप से स्पुâरित न हो । पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द– दोनों में अनन्तता और क्षणिकत्व का ही भेद है । निस्सन्देह बाह्य विषयानन्द तम है– मृत्यु है, किन्तु उसकी अनुभूति करनी पड़ती है । उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व और नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता;क्योंकि विषय स्वाभाविक रूप से रमणीय तो होते ही हैं । इसीलिए वामाचारी तन्त्र-साधकों की मान्यता है कि– आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । इस तथ्य को जानने के बाद ही तन्त्राचार्यों ने नग्न-ध्यान, योनि-पूजा, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा और बङ्काौली जैसी गुह्य-साधना-पद्धतियों को स्वीकार किया है । सर्वप्रथम बौद्ध तान्त्रिकों की बङ्कायान शाखा द्वारा चीनाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में इन गोपनीय साधनाओं को प्रकट किया गया । बाद में शाक्त-सम्प्रदाय के आचार्योें ने भी इन गुप्त साधनाओं का प्रकाश किया । फलस्वरूप पंच-मकार-साधना और वामाचार का प्रचलन हुआ । जगत के माता-पिता शिव-पार्वती के एकान्तिक संयोग और सत्संग के माध्यम से उद्भूत इन रहस्यमयी गुह्य साधनाओं का स्वरूप कालान्तर में विषयी और पाखण्डी लोगों की व्यभिचार-वृत्ति और काम-लोलुपता के कारण विकृत होता चला गया और तन्त्र की रहस्यमयी शक्तियों से अनभिज्ञ विलासी लोगों ने इसे कामोपभोग का माध्यम बना डाला और साधना की आड़ में अपनी दैहिक वासना की तृप्ति करने में लग गये । किन्तु, यह बात साधकों का अनुभवजन्य सत्य है कि यदि काम-ऊर्जा का और काम-भाव का सही-सही प्रयोग किया जाय तो इससे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति व ब्रह्म-साक्षात्कार सम्भव है । वास्तव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को संस्कारों में परिवर्तित करके, उनकी दिशा बदलकर उनके माध्यम से भगवत्प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति सहजता से की जा सकती है । ये प्रयोग त्याग, तपस्या, यज्ञानुष्ठान आदि की अपेक्षा ज्यादा आसान हैं, क्योंकि ये मानव की सहज वृत्तियों के अनुवूâल हैं ।

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