श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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ऊँ और स्वास्तिक का महत्व
स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक मतालम्बी हों या सनातनी हो या जैन मतालम्बी,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। इन दोनो का प्रयोग करने का तरीका यह जरूरी नही है कि वह पढे लिखे या विद्वान संगति में ही देखने को मिलता हो,यह किसी भी ग्रामीण या शहरी संस्कृति में देखने को मिल जाता है। किसी के घर में मांगलिक कार्य होते है तो दरवाजे पर लिखा जाता है,किसी मंदिर में जाते है तो उसके दरवाजे पर यह लिखा मिलता है,किसी प्रकार की नई लिखा पढी की जाती है तो शुरु में इन दोनो को या एक को ही प्रयोग में लाया जाता है। "ऊँ" के अन्दर तीन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है,"अ उ म" इन तीनो अक्षरों में अ से अज यानी ब्रह्मा जो ब्रह्माण्ड के निर्माता है,सृष्टि का बनाने का काम जिनके पास है,उ से उनन्द यानी विष्णुजी जो ब्रह्माण्ड के पालक है और सृष्टि को पालने का कार्य करते है, म से महेश यानी भगवान शिवजी,जो ब्रह्माण्ड में बदलाव के लिये पुराने को नया बनाने के लिये विघटन का कार्य करते है। वेदों में ऊँ को प्रणव की संज्ञा दी गयी है,जब भी किसी वेद मंत्र का उच्चारण होता है तो ऊँकार से ही शुरु किया जाता है,स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके नही,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है। स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।
ऊँ परमात्मा वाची कहा गया है,ऊँ को मंगल रूप में जाना गया है,जैन धर्म के अनुसार ऊँ पंच परमेष्ठीवाचक की उपाधि से विभूषित है। णमोकार मंत्र के पहले इसे प्रयोग किया गया है। ऊँ एक बीजाक्षर की भांति है,इसके मात्र उच्चारण करने से ही भक्ति महिमा का निष्पादन हो जाता है। इसका रूप दोनो आंखों के बीच में आंखों को बन्द करने के बाद सुनहले रूप में कल्पित करते रहने से यह सहज योग का रूप सामने लाना शुरु कर देता है,और उन अनुभूतियों की तरफ़ मनुष्य जाना शुरु कर देता है जिन्हे वह कभी सोच भी नही सकता है।
ऊँ कार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिना:।
कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नम:॥
श्री बगला प्रत्यंगिरा कवचम्
।। श्री शिव उवाच ।।
अधुनाऽहं प्रवक्ष्यामि बगलायाः सुदुर्लभम् ।
यस्य पठन मात्रेण पवनोपि स्थिरायते ।।
प्रत्यंगिरां तां देवेशि श्रृणुष्व कमलानने ।
यस्य स्मरण मात्रेण शत्रवो विलयं गताः ।।
।। श्री देव्युवाच ।।
स्नेहोऽस्ति यदि मे नाथ संसारार्णव तारक ।
तथा कथय मां शम्भो बगलाप्रत्यंगिरा मम ।।
।। श्री भैरव उवाच ।।
यं यं प्रार्थयते मन्त्री हठात्तंतमवाप्नुयात् ।
विद्वेषणाकर्षणे च स्तम्भनं वैरिणां विभो ।।
उच्चाटनं मारणं च येन कर्तुं क्षमो भवेत् ।
तत्सर्वं ब्रूहि मे देव यदि मां दयसे हर ।।
।। श्री सदाशिव उवाच ।।
अधुना हि महादेवि परानिष्ठा मतिर्भवेत् ।
अतएव महेशानि किंचिन्न वक्तुतुमर्हसि ।।
।। श्री पार्वत्युवाच ।।
जिघान्सन्तं तेन ब्रह्महा भवेत् ।
श्रृतिरेषाहि गिरिश कथं मां त्वं निनिन्दसि ।।
।। श्री शिव उवाच ।।
साधु साधु प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्वावहितानघे ।
प्रत्यंगिरां बगलायाः सर्वशत्रुनिवारिणीम् ।।
नाशिनीं सर्व-दुष्टानां सर्व-पापौघ-हारिणिम् ।
सर्व-प्राणि-हितां देवीं सर्व दुःख विनाशिनीम् ।।
भोगदां मोक्षदां चैव राज्य सौभाग्य दायिनीम् ।
मन्त्र-दोष-प्रमोचनीं ग्रह-दोष निवारिणीम् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगला प्रत्यंगिरा मन्त्रस्य नारद ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः, प्रत्यंगिरा देवता, ह्लीं बीजं, हुं शक्तिः, ह्रीं कीलकं, ह्लीं ह्लीं ह्लीं ह्लीं प्रत्यंगिरा मम शत्रु विनाशे विनियोगः ।
ॐ प्रत्यंगिरायै नमः । प्रत्यंगिरे सकल कामान् साधय मम रक्षां कुरु-कुरु सर्वान् शत्रून् खादय खादय मारय मारय घातय घातय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ।
ॐ भ्रामरी स्तम्भिनी देवी क्षोभिणी-मोहिनी तथा ।
संहारिणी द्राविणी च जृम्भिणी रौद्र-रुपिणी ।।
इत्यष्टौ शक्तयो देवि शत्रु पक्षे नियोजिताः ।
धारयेत् कणऽठदेशे च सर्वशत्रु विनाशिनी ।।
ॐ ह्रीं भ्रामरि सर्व-शत्रून् भ्रामय-भ्रामय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं स्तम्भिनी मम शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं क्षोभिणी मम शत्रून् क्षोभय-क्षोभय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं मोहिनी मम शत्रून्मोहय मोहय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं संहारिणि मम शत्रून् संहारय संहारय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं द्राविणि मम शत्रून् द्रावय द्रावय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं जृम्भिणि मम शत्रून् जृम्भय जृम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं रौद्रि मम शत्रून् सन्तापय सन्तापय ॐ ह्रीं स्वाहा ।
इयं विद्या महा-विद्या सर्व-शत्रु-निवारिणी ।
धारिता साधकेन्द्रेण सर्वान् दुष्टान् विनाशयेत् ।।
त्रि-सन्ध्यमेक-सन्धऽयं वा यः पठेत्स्थिरमानसः ।
न तस्य दुर्लभं लोके कल्पवृक्ष इव स्थितः ।।
यं य स्पृशति हस्तेन यं यं पश्यति चक्षुषा ।
स एव दासतां याति सारात्सारामिमं मनुम् ।।
।। श्री रुद्रयामले शिव-पार्वति सम्वादे बगला प्रत्यंगिरा कवचम् ।
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एक नारियल का चमत्कार, अब नहीं बिगड़ेंगे आपके काम क्योंकि...
क्या आपके कार्य बार-बार बिगड़ जाते हैं? किसी भी कार्य की सफलता में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है? क्या अंतिम पलों में आपके हाथ से सफलता हाथ निकल जाती है? यदि आपको लगता है आपका भाग्य आपका साथ नहीं दे रहा है तो शास्त्रों के अनुसार कई उपाय बताए गए हैं।
शास्त्रों के अनुसार जब देवी-देवता आपसे रुष्ट या असप्रसन्न होते हैं तब आपको कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो पाती। इसके अलावा कुंडली में यदि कोई ग्रह दोष हो तब भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की परिस्थितियों से बचने के लिए कई उपाय बताए गए हैं, जो कि निश्चित रूप से लाभदायक ही हैं। इन्हीं उपायों में से एक उपाय ये है कि एक नारियल पानी में बहा दिया जाए।
नारियल पानी में कैसे बहना है? इस संबंध में ध्यान रखें ये बातें-
किसी भी पवित्र बहती नदी के किनारे एक नारियल लेकर जाएं। किनारे पर पहुंचकर अपना नाम और गौत्र बोलें। इसके साथ ही प्रार्थना करें कि आपकी समस्याएं दूर हो जाएं। अब नारियल को नदी में प्रवाहित कर दें। इसके तुरंत बाद वहां से घर लौट आएं। नदी किनारे से लौटते समय ध्यान रखें पीछे पलटकर न देखें। अन्यथा उपाय निष्फल हो जाएगा।
इसप्रकार नारियल नदी में बहाने से निश्चित ही आपको सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। बिगड़े कार्य बनने लगेंगे। भाग्य का साथ मिलने लगेगा, दुर्भाग्य का नाश होगा। इसके अलावा ध्यान रखें कि किसी भी प्रकार अधार्मिक कृत्यों से खुद को दूर रखें और किसी का मन न दुखाएं
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मंत्र : ॐ मलयाचल बागला भगवती माहाक्रूरी माहाकराली
राज मुख बन्धनं , ग्राम मुख बन्धनं , ग्राम पुरुष बन्धनं ,
काल मुख बन्धनं , चौर मुख बन्धनं , व्याघ्र मुख बन्धनं ,
सर्व दुष्ट ग्रेह बन्धनं , सर्व जन बन्धनं , वाशिकुरु हूँ फट स्वाहः ||
विधान : इस मंत्र का जाप माता बागला के सामान्य नियमो का पालन करते हुए १ माला प्रतिदिन करें ११ दिनों तक और दसांश हवन करें और नित्य १ माला जाप करते रहें मंत्र जागृत हो जाए गा | किसी भी प्रयोग को करने के लिए संकल्प लें (इछित गिनती का कम से कम ३ माला) और हवन कर दें प्रयोग सिद्ध होगा | रक्षा के लिए ७ बार मंत्र पढ़ के छाती पे और दसो दीशाओ मैं फुक मार दें , किसी भी चीज़ का भये नहीं रहे गा | नियमित जाप से मंत्र मैं लिखे सभी कार्य स्वम सिद्ध होते हैं अलग से प्रयोग की अवशाकता नहीं है | मंत्र का ग्रहन , दिवाली आदी पर्व में जाप कर पूर्णता जागृत कर लें | नज़र दोष के लिए मंत्र को पढ़ते हुए मोर पंख से झाडे | पिला नवद्य ज़रोर अर्पित करे | ध्यान मग्न होकर जाप करने से जल्दी सिद्ध हो |
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परेशानी से बचने का उपाय
वैदिक चिंतनधारा में व्यक्ति के विचार एवं निर्णयों को विकृत करने वाला तत्व ‘विघ्न’ तथा उसके काम-धंधे में रुकावटें डालने वाला तत्व बाधा कहलाता है। इन विघ्न-बाधाओं को दूर करने की क्षमता भगवान श्रीगणोश जी में है। मां लक्ष्मी तो स्वभाव से ही धन, संपत्ति एवं वैभव स्वरूपा हैं, इसीलिए व्यापार एवं काम-धंधे में आने वाली विघ्न-बाधाओं को दूर कर धन-संपत्ति प्राप्त करने के लिए श्रीलक्ष्मी गणोशजी के पूजन की परंपरा हमारे यहां आदिकाल से है।
श्री लक्ष्मीविनायक मंत्र :
ऊं श्रीं गं सौम्याय गणपतये वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।
विनियोग :
ऊं अस्य श्री लक्ष्मी विनायक मंत्रस्य अंतर्यामी ऋषि:गायत्री छन्द: श्री लक्ष्मी विनायको देवता श्रीं बीजं स्वाहा शक्ति: सर्वाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोग:।
करन्यास - अंगन्यास
ऊं श्रीं गां अंगुष्ठाभ्यां नम:। - ऊं श्रीं गां हृदयाय नम:।
ऊं श्रीं गीं तर्जनीभ्यां नम:। - ऊं श्रीं गीं शिरसे स्वाहा।
ऊं श्रीं गूं मध्यमाभ्यां नम:। - ऊं श्रीं गूं शिखायै वषट्।
ऊं श्रीं गैं अनामिकाभ्यां नम:। - ऊं श्रीं गैं कवचाय हुम्।
ऊं श्रीं गौं कनिष्ठकाभ्यां नम:। - ऊं श्रीं गौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऊं श्रीं ग: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:। ऊं श्रीं ग: अस्त्रायं फट्।
ध्यान
दन्ताभये चक्रदरौदधानं कराग्रगस्वर्णघटं त्रिनेत्रम्।
धृताब्जयालिंगितमब्धिपु˜या लक्ष्मीगणोशं कनकाभमीडे ।।
विधि
नित्य नियम से निवृत्त होकर आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर आचमन एवं प्राणायाम कर श्रीलक्ष्मी विनायक मंत्र के अनुष्ठान का संकल्प करना चाहिए। तत्पश्चात चौकी या पटरे पर लाल कपड़ा बिछाएं। भोजपत्र/रजत पत्र पर असृगंध एवं चमेली की कलम से लिखित इस लक्ष्मी विनायक मंत्र पर पंचोपचार या षोडशोपचार से भगवान लक्ष्मी गणोश जी का पूजन करना चाहिए। इसके बाद विधिवत विनियोग, न्यास एवं ध्यान कर एकाग्रतापूर्वक मंत्र का जप करना चाहिए। इस अनुष्ठान में जपसंख्या सवा लाख से चार लाख तक है।
अनुष्ठान के नियम
साधक स्नान कर रेशमी वस्त्र धारण करे। भस्म का त्रिपुंड या तिलक लगाकर रुद्राक्ष या लाल चंदन की माला पर जप करना चाहिए। इस जप को परेशानियों का नाश करने वाला माना गया है।
पूजन में लाल चंदन, दूर्वा, रक्तकनेर, कमल के पुष्प, मोदक एवं पंचमेवा अर्पित किए जाते हैं।
भक्ति भाव से पूजन, मनोयोगपूर्वक जप एवं श्रद्धा सहित हवन करने से सभी कामनाएं पूरी होती हैं।
अनुष्ठान के दिनों में गणपत्यथर्वशीर्षसूक्त, श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त कनकधारास्तोत्र आदि का पाठ करना फलदायक है।
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