Saturday 17 August 2019

महाकाली कुल तंत्र साधना

काली कुल की सर्वोच्च दैवीय शक्ति, "आद्या शक्ति महा काली", अंधकार से जन्मा होने के परिणामस्वरूप, ये शक्ति तमोगुणी तथा काले वर्ण वाली हैं।
इस चराचर ब्रह्माण्ड या जगत के उत्त्पन्न होने से पूर्व, सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था, व्याप्त घनघोर अंधकार से उत्पन्न आद्या शक्ति, आदि और सर्वप्रथम शक्ति हुई। ऐसा माना जाता हैं कि अन्धकार से जन्मा होने के परिणामस्वरूप, ये शक्ति तमोगुणी तथा काले वर्ण वाली हैं, परिणाम स्वरूप इन का नाम काली पड़ा तथा इसी काली नाम से विख्यात हुई। समय अनुसार इन्होंने ही देवताओं तथा मनुष्यों के सन्मुख उपस्थित हुए नाना समस्याओं के निदान हेतु भिन्न-भिन्न अवतार धारण किये।
समस्त चराचर ब्रह्माण्ड, तीनो लोको, को जन्म देने वाली "आद्या शक्ति काली"।
इस संपूर्ण चराचर जगत, तीनो लोको की उत्पत्ति की ये आद्या शक्ति ही कारक बानी। अंधकार से जन्म धारण करने के पश्चात्, इन के मन मैं इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जन्म देने की प्रेरणा जाग्रत हुई और ये उद्धत हुई। इसी प्रेरणा शक्ति को श्री गणेश भी कहाँ जाता हैं जिस का सम्बन्ध किसी कार्य के शुभ प्रारम्भ हेतु हैं। इन्हीं आद्या शक्ति की प्रेरणा स्वरूप तीनो लोको तथा संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ। ब्रह्माण्ड मैं ऊर्जा संचय हेतु सूर्य देव का निर्माण किया गया, जिन के ऊर्जा से समस्त चराचर जगत विद्यमान हैं। त्रिगुणात्मक प्राकृतिक गुणों की सृष्टि की गई, जो राजस, सत्व तथा तामस नाम से जानी गई तथा समस्त तत्वों के क्रमशः उत्पन्न, पालन और संहार का कारक बानी। इन गुणों के निमित्त स्वामी, कार्य-भार का सञ्चालन हेतु त्रि-देवो ( ब्रह्मा, विष्णु, महेश या शिव ) तथा त्रि-देविओ ( महा लक्ष्मी, महा सरस्वती, महा काली ) को इन्हीं आद्या शक्ति ने जन्म दिया। तीनो लोको के सुचारु सञ्चालन हेतु, ३३ कोटि या प्रकार से देवताओं, प्रजापतिओ, ग्रह तथा नक्षत्र, सम्पूर्ण जीवित प्राणी तथा अन्य तत्वों का जन्म इन्हीं आद्या शक्ति के प्रेरणा स्वरूप हुई।
"आद्या शक्ति काली" भौतिक स्वरूप।
देवी का स्वरूप अत्यंत भयानक तथा डरावना हैं, विभिन्न ध्यान मंत्रो के अनुसार; देवी का स्वरूप अत्यंत विकराल हैं। देवी, प्राणशक्ति रुप में, शिव रूपी शव के ऊपर आरूढ़ हैं, परिणामस्वरूप देह शक्ति सम्पन्न या प्राण युक्त हैं। भक्तों के विकार शून्य ह्रदय, जहाँ समस्त प्रकार के विकारो को जलाया जाता हैं या विकार दाह रूपी श्मशान में वास करती हैं। परिणामस्वरूप, देवी श्मशान वासी हैं।
काले वर्ण वाली ये देवी, अपने विकराल दाँतो तथा मुँह से लपलपाती हुई लाल रक्त वर्ण जैसी जिव्हा, से अत्यंत भयंकर प्रतीत हो रही हैं। दुष्ट दानवो का रक्त पान करने के परिणामस्वरूप इन के जिव्हा लाल रक्त वर्ण की हैं, तीन बड़ी बड़ी भयंकर नेत्रों वाली जो सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के प्रतिक हैं। इनके ललाट पर अमृत के सामान चन्द्रमा स्थापित हैं तथा काले घनघोर बादलो समान बिखरे केशो से अत्यंत ही घनघोर प्रतीत हो रही हैं। असुर जो स्वाभाव से ही दुष्ट थे, उन असुरो के हाल ही में कटे हुए सरो कि माला इन्होंने धारण कर रखी हैं तथा प्रत्येक सर से रक्त के धार बह रही हैं। अपने दोनों बाएँ हाथों में इन्होंने खड़ग तथा दुष्ट मानव (असुर) का कटा हुआ सर धारण कर रखा हैं तथा बाएँ हाथों से ये सज्जनों को अभय तथा आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं। देवी अपनी लज्जा निवारण हेतु, युद्ध में मारे गए दानवो के कटे हुए हाथों की माला बना कर, धारण कर राखी हैं तथा प्रत्यालीढ़ मुद्रा में, अपने भैरव महा काल या पति शिव के छाती में खड़ी हैं, जैसे वे काल का भी भक्षण कर रही हो। स्वरूप अनुसार देवी दो प्रकारों से दिखाई देती है, दक्षिणा काली रूप में देवी कि चार भुजायें है तथा महा काली रूप में देवी कि २० भुजायें हैं।


'काल' जो स्वयं ही मृत्यु के कारक हैं, उनका भी भक्षण करने में समर्थ हैं महा शक्ति महा काली।

आद्या शक्ति देवी का नाम काली पड़ने का कारण।

कालिका पुराण (काली से संबंधित एक पौराणिक पाठ्य पुस्तक) के अनुसार, सभी देवता एक बार हिमालय में मातंग मुनि के आश्रम के पास गए और आद्या शक्ति या महामाया की स्तुति करने लगे। सभी देवताओं द्वारा की गई वंदना तथा स्तुति से प्रसन्न हुई तथा एक काले रंग की विशाल पहाड़ जैसी स्वरूप वाली, दिव्य नारी, सभी देवताओं के सन्मुख प्रकट हुई। देखने में से शक्ति अमावस्या के अंधकार वाली थी परिणामस्वरूप क्योंकि वह शक्ति काली के नाम से विख्यात हुई। सर्वप्रथम, अंधकार से जन्म धारण करने के परिणामस्वरूप इन का नाम काली पड़ा तथा तमो गुण सम्पन्न हुई।

अग्नि और गरुड़ पुराण ( अग्नि देव और गरुड़ पक्षी, जो भगवान विष्णु के वाहन हैं, के लिए समर्पित पाठ्य पुस्तक) के अनुसार आद्या शक्ति 'काली' की साधना, युद्ध में सफलता और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के हेतु की जाती हैं। देवी का पतला शरीर, जहरीला दांत, जोर से अटृहास, पागल महिला के स्वरूप में नृत्य करने के परिणामस्वरूप, वे बहुत भयानक शारीरिक उपस्थिति प्रस्तुत कर रही हैं। उनके कटे हुए राक्षसों के मस्तकों की माला पहनने, भूत और प्रेतों के साथ श्मशान भूमि में निवास करने के परिणामस्वरूप देवी अन्य सभी देवी देवताओं में भयंकर प्रतीत होती हैं।
काली के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

कालिका पुराण के अनुसार, काली के दो स्वरूप हैं, प्रथम आद्या शक्ति काली तथा द्वितीय केवल पौराणिक काली। आद्या शक्ति काली या दक्षिणा काली, अजन्मा तथा सर्वप्रथम शक्ति हैं, जिन से इस सम्पूर्ण चराचर जगत की उत्पत्ति हुई हैं तथा समस्त जगत की स्वामिनी हैं। द्वितीय देवी दुर्गा या शिव पत्नी सती से सम्बंधित हैं तथा दुर्गा जी के भिन्न भिन्न स्वरूपों में से एक हैं, ये वही हैं जिन का प्रादुर्भाव अम्बिका के ललाट से हुआ हैं, तथा तमोगुण की स्वामिनी हैं। परन्तु, वास्तविक रूप से देखा जाये तो ये एक ही हैं।

दुर्गा सप्तशती (मार्कण्डये पुराण के अंतर्गत एक भाग, आद्या शक्ति के विभिन्न अवतारों की शौर्य गाथा से सम्बंधित पौराणिक पाठ्य पुस्तक), एक समय समस्त त्रि-भुवन, स्वर्ग, पाताल तथा पृथिवी, शुम्भ और निशुम्भ (दो भाई) नामक राक्षसों के अत्याचार से ग्रस्त थे। व्याप्त समस्या के समाधान हेतु, सभी देवता एक हो हिमालय के पास गये और देवी आद्या-शक्ति की स्तुति, वंदना करने लगे। परिणामस्वरूप कौशिकी नाम की एक नारी शक्ति जो कि, शिव की पत्नी गौरी या पार्वती मैं समाई हुई थी, समस्त देवताओं के सन्मुख प्रकट हुई। शिव अर्धाग्ङिनी पार्वती से विभक्त, उदित वह शक्ति घोर काले वर्ण की थी तथा काली नाम से जानी जाने लगी।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी दुर्गा (जिन्होंने दुर्गमासुर दैत्य का वध किया तथा दुर्गा नाम से जनि जाने लगी), ने शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महा राक्षसों को युद्ध में परास्त किया तथा तीनो लोको को उन दोनों भाईयो के अत्याचार से मुक्त किया। चण्ड और मुंड नामक दैत्यों ने देवी दुर्गा से युद्ध करने का आवाहन किया, परिणामस्वरूप देवी दुर्गा उन दोनों से युद्ध करने हेतु उद्धत हुई। आक्रमण करते हुए देवी, क्रोध के वशीभूत हो अत्यंत उग्र, डरावनी हो गई तथा उन के मस्तक से एक काले वर्ण वाली शक्ति का प्राकट्य हुआ, जो देखने में अत्यंत ही भयानक, घनघोर डरावनी थी। ये काले वर्ण वाली देवी काली ही थी, जिन का प्राकट्य देवी दुर्गा की युद्ध भूमि में सहायता हेतु हुआ। चण्ड और मुंड के संग, हजारों संख्या में वीर दैत्य देवी से युद्ध कर रहे थे। उन महा वीर दैत्यों में, रक्तबीज नाम के एक राक्षस ने भी भाग लिया। देवी ने रक्तबीज दैत्य पर अपने समस्त अस्त्र-शास्त्रो से आक्रमण किया, परिणामस्वरूप दैत्य रक्तबीज के शरीर से रक्त का स्राव होने लगा। रक्त की प्रत्येक टपकते हुए बुंद से, युद्ध स्थल में उसी के सामान पराक्रमी तथा वीर दैत्य उत्पन्न होने लगे तथा रक्तबीज और भी अधिक पराक्रमी तथा शक्तिशाली होने लगा। देवी दुर्गा की सहायतार्थ, देवी काली ने दैत्य रक्तबीज के प्रत्येक टपकते हुए रक्त बुंदो को, जिव्हा लम्बी कर अपने मुँह पर लेना शुरू किया। परिणामस्वरूप युद्ध क्षेत्र में दैत्य रक्तबीज शक्तिहीन होने लगा, अब उस के सहायता हेतु और किसी दैत्य का प्राकट्य नहीं हो रहा था, अंततः रक्तबीज सहित चण्ड और मुंड का वध कर देवी काली तथा दुर्गा से तीनो लोको को भय मुक्त किया। देवी क्रोध वश, महाविनाश करने लगी तथा इनके द्वारा महा विनाश होने लगा, इनके क्रोध को शांत करने हेतु, भगवान शिव, युद्ध भूमि में लेट गए। नग्नावस्था में नृत्य करते हुए, जब देवी का पैर शिव जी के ऊपर आ गया और उन्हें लगा की वो अपने पति के ऊपर खड़ी हैं तथा लज्जा वश देवी का क्रोध शांत हुआ।
महा शक्ति काली से सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य।

देवी काली की आराधना, पूजा इत्यादि भारत के पूर्वी प्रांतो में अधिकतर होती हैं। देवी काली समाज के प्रत्येक वर्ग द्वारा पूजित हैं, जनजातीय तथा युद्ध कौशल से सम्बंधित समाज की देवी अधिष्ठात्री हैं। चांडाल जो की हिन्दू धर्म के अनुसार, श्मशान में शव के दाह का कार्य करते हैं तथा अन्य शूद्र जातियों की देवी अधिष्ठात्री हैं। डकैती जैसे अमानवीय कृत्य करने वाले भी देवी की पूजा करते हैं, आदि काल में डकैत, डकैती करने हेतु जाने से पहले देवी काली की विशेष पूजा अराधना करते थे। देवी का सम्बन्ध क्रूर कृत्यों से भी हैं, परन्तु ये क्रूर कृत्य दुष्ट प्रवृति के जातको हेतु ही हैं। इस निमित्त वे देवी के भव्य मंदिरों का भी निर्माण करवाते थे तथा विधिवत पूजा अराधना की संपूर्ण व्यवस्था करते थे। आज भी भारत वर्ष के विभिन्न प्रांतो में ऐसे मंदिर विद्यमान हैं, जहा डकैत, देवी की अराधना, पूजा इत्यादि करते थे। हुगली जिले में डकैत काली बाड़ी, जलपाईगुड़ी जिले की देवी चौधरानी (डकैत) काली बाड़ी इत्यादि, प्रमुख डकैत देवी मंदिर विद्यमान हैं। स्कन्द (कार्तिक) पुराण, के अनुसार देवी की उत्पत्ति, आश्विन मास की कृष्णा चतुर्दशी तिथि, मध्य रात्रि के घोर में अंधकार से हुआ। परिणामस्वरूप अगले दिन कार्तिक अमावस्या को उन की पूजा, अराधना तीनो लोको में की जाती हैं, ये पर्व दीपावली या दिवाली नाम से विख्यात हैं तथा समस्त हिन्दू समाजों द्वारा मनाई जाती हैं। शक्ति तथा शैव समुदाय के अनुसरण करने वाले इस दिन देवी काली की पूजा करते हैं तथा वैष्णव समुदाय महा लक्ष्मी जी की, वास्तव में महा काली और महा लक्ष्मी दोनों एक ही हैं। देवी काली की अराधना भारत के पूर्वी भाग मैं अधिक होती हैं। वहाँ जहा तहा देवी काली के मंदिर देखे जा सकते हैं, प्रत्येक श्मशान घाटो में देवी, मंदिर विद्यमान हैं तथा विशेष तिथिओं में पूजा, अर्चना भी होती हैं।

दसो महाविद्याये, देवी आद्या काली के ही उग्र तथा सौम्य रूप में विद्यमान हैं, देवी काली अपने अनेक अन्य नमो से प्रसिद्ध हैं, जो की भिन्न भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाली हैं।

देवी काली मुख्यतः आठ नमो से जानी जाती हैं और 'अष्ट काली', समूह का निर्माण करती हैं।
१. चिंता मणि काली
२. स्पर्श मणि काली
३. संतति प्रदा काली
४. सिद्धि काली
५. दक्षिणा काली
६. कामकला काली
७. हंस काली
८. गुह्य काली

देवी काली 'दक्षिणा काली' के नाम तथा स्वरूप से सर्व सदाहरण में, सर्वाधिक पूजित हैं।

देवी काली के दक्षिणा काली नाम पड़ने के विभिन्न कारण।
सर्वप्रथम दक्षिणा मूर्ति भैरव ने इन की उपासना की, परिणामस्वरूप देवी दक्षिणा काली के नाम से जाने जाने लगी।
दक्षिण दिशा की ओर रहने वाले यम राज या धर्म राज, देवी का नाम सुनते ही भाग जाते है, परिणामस्वरूप देवी दक्षिणा काली के नाम से जानी जाती हैं। तात्पर्य है, मृत्यु के देवता यम, जिनका राज्य या याम लोक दक्षिण दिशा में विद्यमान है, ( मृत्यु पश्चात् जीव आत्मा यम दूतों द्वारा इसी लोक में लाई जाती हैं ) देवी काली के भक्तों से दूर रहते है, मृत्यु पश्चात् यम दूत उन्हें यम लोक नहीं ले जाते हैं।
समस्त प्रकार के साधनाओ का सम्पूर्ण फल दक्षिणा से ही प्राप्त होता हैं, जैसे गुरु दीक्षा तभी सफल हैं जब गुरु दक्षिणा दी गई हो। देवी काली, मनुष्य को अपने समस्त कर्मों का फल प्रदान करती हैं या सिद्धि प्रदान करती हैं, तभी देवी को दक्षिणा काली के नाम से भी जाना जाता हैं।
देवी काली वार प्रदान करने में अत्यंत चतुर हैं, यहाँ भी एक कारण हैं।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, पुरुष को दक्षिण तथा स्त्री को बामा कहा जाता हैं। वही बामा दक्षिण पर विजय पा, मोक्ष प्रदान करने वाली होती हैं। तभी देवी अपने भैरव के ऊपर खड़ी हैं।

देवी काली ही दो मुख्य स्वरूपों प्रथम रक्त तथा तथा कृष्ण वर्ण में अधिष्ठित हैं, कृष्ण या काले स्वरूप वाली 'दक्षिणा' नाम से तथा रक्त या लाल वर्ण वाली 'सुंदरी' नाम से जानी जाती हैं। देवी काली, काले वर्ण युक्त दक्षिणा नाम से जानी जाती हैं। मुख्यतः विध्वंसक प्रवृति धारण करने वाले समस्त देवियाँ कृष्ण या दक्षिणा कुल से सम्बंधित हैं। जैसे, देवी काली का घनिष्ठ सम्बन्ध विध्वंसक प्रवृति तथा तत्वों से हैं, जैसे देवी श्मशान वासी हैं, मानव शव तथा हड्डियों से सम्बद्ध हैं, भूत-प्रेत इत्यादि या प्रेत योनि को प्राप्त हुए, विध्वंसक सूक्ष्म तत्व देवी के संगी साथी, सहचरी हैं। यहाँ देवी नियंत्रक भी हैं तथा स्वामी भी, समस्त भूत-प्रेत इत्यादि इनकी आज्ञा का उलंघन कभी नहीं कर सकते। समस्त वेद इन्हीं की भद्र काली रूप में स्तुति करते हैं। वे निष्काम या निःस्वार्थ भक्तों के माया रूपी पाश को ज्ञान रूपी तलवार से काट कर मुक्त करती हैं।

मार्गशीर्ष मास की कृष्ण अष्टमी कालाष्टमी कहलाती हैं, इस दिन सामान्यतः देवी काली की पूजा, अराधना की जाती हैं या कहे तो पौराणिक काली की अराधना होती हैं, जो दुर्गा जी के नाना रूपों में से एक हैं। परन्तु तांत्रिक मतानुसार, दक्षिणा काली या आद्या काली की साधना कार्तिक अमावस्या या दीपावली के दिन होती हैं, शक्ति तथा शैव समुदाय इस दिन आद्या शक्ति काली के भिन्न भिन्न स्वरूपों की आराधना करता हैं। जबकि वैष्णव समुदाय का अनुसरण करने वाले इस दिन, धनदात्री महा लक्ष्मी की अराधना करते हैं।
देवी काली को सम्बोधित करने वाली नाना शब्दों का तात्पर्य या अर्थ।

श्मशान वासिनी या वासी :तामसिक, विध्वंसक प्रवृत्ति से सम्बंधित रखने वाले देवी देवता, मुख्यतः श्मशान भूमि में वास करते हैं। व्यवहारिक दृष्टि से श्मशान वो स्थान हैं, जहाँ शव के दाह का कार्य होता हैं। परन्तु आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टि से श्मशान का अभिप्राय कुछ और ही हैं, ये वो स्थान हैं, जहाँ पांच या पञ्च महाभूत, चिद-ब्रह्म में विलीन होते हैं। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि इन महा भूतो से, संसार के समस्त जीवो के देह का निर्माण होता हैं, तथा शरीर या देह इन्हीं पांच महाभूतों का मिश्रण हैं। श्मशान वो स्थान हैं जहाँ, पांचो भूतो के मिश्रण से निर्मित देह, अपने अपने तत्व में विलीन हो जाते हैं। तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, श्मशान भूमि को इसी कारणवश अपना निवास स्थान बनती हैं। देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं, इसका एक और महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान विकार रहित ह्रदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। मानव देह कई प्रकार के विकारो या पाशो का स्थान हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि, अतः देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं जहाँ इन विकारो या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं। तथा मन या ह्रदय वो स्थान हैं जहाँ इन समस्त विकारो का दाह होता हैं अतः देवी काली अपने उपासको के विकार शून्य ह्रदय पर ही वास करती हैं।

चिता : मृत देह के दाह संस्कार हेतु, लकड़ियों के ढेर के ऊपर शव को रख कर शव दाह करना, चिता कहलाता हैं। साधक को अपने श्मशान रूपी ह्रदय में सर्वदा ज्ञान रूपी अग्नि जलाये रखना चाहिए, ताकि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया जा सके।

देवी का आसन : देवी शव रूपी शिव पर विराजमान हैं या कहे तो शव को अपना आसन बनाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप ही शव में चैतन्य का संचार होता हैं। बिना शक्ति के शिव, शव के ही सामान हैं, चैतन्य हीन हैं। देवी की कृपा लाभ से ही, देह पर प्राण रहते हैं।

करालवदना या घोररूपा : देवी काली का वर्ण घनघोर या अत्यंत काला हैं तथा स्वरूप से भयंकर तथा डरावना हैं। परन्तु देवी के साधक या देवी जिन के ह्रदय में स्थित हैं, उन्हें डरने के आवश्यकता नहीं हैं, स्वयं काल, यमराज भी देवी से भयभीत रहते हैं।

पीनपयोधरा : देवी काली के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं, यहाँ तात्पर्य हैं कि देवी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से तीनो लोको का पालन करती हैं। अपने अमृतमय दुग्ध को आहार रूप में दे कर देवी अपने साधक को कृतार्थ करती हैं।

प्रकटितरदना : देवी काली के विकराल दन्त पंक्ति बहार निकले हुए हैं तथा उन दाँतो से उन्होंने अपने जिव्हा को दबा रखा हैं। यहाँ देवी रजो तथा तमो गुण रूपी जिव्हा को, सत्व गुण के प्रतिक उज्वल दाँतो से दबाये हुए हैं।

बालावतंसा : देवी काली अपने कानो में बालक के शव रूपी अलंकार धारण करती हैं या कहे तो बच्चों के शवो को देवी कानो में अलंकार रूप में पहनती हैं। यहाँ देवी बालक स्वरूपी साधक को सर्वदा अपने समीप रखती हैं। बाल्य भाव देवी को प्राप्त करने का सर्व शक्तिशाली साधन हैं।

मुक्तकेशी : देवी के बाल, घनघोर काले बादलो की तरह बिखरे हुए हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई भयंकर आंधी आने वाली हो।
संक्षेप में देवी काली से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : महाकाली।
अन्य नाम : दक्षिणा या दक्षिण काली, कामकला काली, गुह्य काली, भद्र काली इत्यादि।
भैरव : महा काल, मृत्यु के कारक देवता या मृत्यु के कारण।
तिथि : आश्विन कृष्ण अष्टमी।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान विष्णु।
कुल : काली कुल।
दिशा : सभी दिशाओं में।
स्वभाव : उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
वाहन : लोमड़ी।
तीर्थ स्थान या मंदिर : कालीघाट, कोल्कता, पश्चिम बंगाल। देवी काली का सिद्ध पीठ, ५१ सती पीठो में मान्यता प्राप्त।
कार्य : समस्त प्रकार के कार्यो का फल प्रदान करने वाली।
शारीरिक वर्ण : गहरा काला।
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मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

शाबर धूमावती तंत्र साधना

शाबर धूमावती साधना
दस महाविद्याओं में माँ धूमावती का स्थान सातवां है और माँ के इस स्वरुप को बहुत ही उग्र माना जाता है ! माँ का यह स्वरुप अलक्ष्मी स्वरूपा कहलाता है किन्तु माँ अलक्ष्मी होते हुए भी लक्ष्मी है ! एक मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया तो उस यज्ञ में शिव जी को आमंत्रित नहीं किया ! माँ सती ने इसे शिव जी का अपमान समझा और अपने शरीर को अग्नि में जला कर स्वाहा कर लिया और उस अग्नि से जो धुआं उठा )उसने माँ धूमावती का रूप ले लिया ! इसी प्रकार माँ धूमावती की उत्पत्ति की अनेकों कथाएँ प्रचलित है जिनमे से कुछ पौराणिक है और कुछ लोक मान्यताओं पर आधारित है !
नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध योगी सिद्ध चर्पटनाथ जी माँ धूमावती के उपासक थे ! उन्होंने माँ धूमावती पर अनेकों ग्रन्थ रचे और अनेकों शाबर मन्त्रों की रचना भी की !
यहाँ मैं माँ धूमावती का एक प्रचलित शाबर मंत्र दे रहा हूँ जो बहुत ही शीघ्र प्रभाव देता है !
कोर्ट कचहरी आदि के पचड़े में फस जाने पर अथवा शत्रुओं से परेशान होने पर इस मंत्र का प्रयोग करे !
माँ धूमावती की उपासना से व्यक्ति अजय हो जाता है और उसके शत्रु उसे मूक होकर देखते रह जाते है !
|| मंत्र ||
ॐ पाताल निरंजन निराकार
आकाश मंडल धुन्धुकार
आकाश दिशा से कौन आई
कौन रथ कौन असवार
थरै धरत्री थरै आकाश
विधवा रूप लम्बे हाथ
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव
डमरू बाजे भद्रकाली
क्लेश कलह कालरात्रि
डंका डंकिनी काल किट किटा हास्य करी
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते
जाया जीया आकाश तेरा होये
धुमावंतीपुरी में वास
ना होती देवी ना देव
तहाँ ना होती पूजा ना पाती
तहाँ ना होती जात न जाती
तब आये श्री शम्भु यती गुरु गोरक्षनाथ
आप भई अतीत
ॐ धूं: धूं: धूमावती फट स्वाहा !
|| विधि ||
41 दिन तक इस मंत्र की रोज रात को एक माला जाप करे ! तेल का दीपक जलाये और माँ को हलवा अर्पित करे ! इस मंत्र को भूल कर भी घर में ना जपे, जप केवल घर से बाहर करे ! मंत्र सिद्ध हो जायेगा !
|| प्रयोग विधि १ ||
जब कोई शत्रु परेशान करे तो इस मंत्र का उजाड़ स्थान में 11 दिन इसी विधि से जप करे और प्रतिदिन जप के अंत में माता से प्रार्थना करे –
“ हे माँ ! मेरे (अमुक) शत्रु के घर में निवास करो ! “
ऐसा करने से शत्रु के घर में बात बात पर कलह होना शुरू हो जाएगी और वह शत्रु उस कलह से परेशान होकर घर छोड़कर बहुत दुर चला जायेगा !
|| प्रयोग विधि २ ||
शमशान में उगे हुए किसी आक के पेड़ के साबुत हरे पत्ते पर उसी आक के दूध से शत्रु का नाम लिखे और किसी दुसरे शमशान में बबूल का पेड़ ढूंढे और उसका एक कांटा तोड़ लायें ! फिर इस मंत्र को 108 बार बोल कर शत्रु के नाम पर चुभो दे !
ऐसा 5 दिन तक करे , आपका शत्रु तेज ज्वर से पीड़ित हो जायेगा और दो महीने तक इसी प्रकार दुखी रहेगा !
नोट – इस मंत्र के और भी घातक प्रयोग है जिनसे शत्रु के परिवार का नाश तक हो जाये ! किसी भी प्रकार के दुरूपयोग के डर से मैं यहाँ नहीं लिखना चाहता ! इस मंत्र का दुरूपयोग करने वाला स्वयं ही पाप का भागी होगा !कोई भी जप-अनुष्ठान करने से पूर्व मंत्र की शुद्धि जांचा लें ,विधि की जानकारी प्राप्त कर लें तभी प्रयास करें |गुरु की अनुमति बिना और सुरक्षा कवच बिना तो कदापि कोई साधना न करें |उग्र महाशक्तियां गलतियों को क्षमा नहीं करती कितना भी आप सोचें की यह तो माँ है |उलट परिणाम तुरत प्राप्त हो सकते हैं |अतः बिना सोचे समझे कोई कार्य न करें |पोस्ट का उद्देश्य मात्र जानकारी उपलब्ध करना है ,अनुष्ठान या प्रयोग करना नहीं |अतः कोई समस्या होने पर हम जिम्मेदार नहीं होंगे |.................................
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भुवनेश्वरी दस महाविद्या साधना

भुवनेश्वरी, दस महाविद्याओं में विद्यमान चौथा महा-शक्ति, तीनो लोको, या त्रि-भुवन स्वर्ग, विश्व, पाताल की ईश्वरी या मालकिन।
सम्पूर्ण जगत या तीनों लोकों की ईश्वरी, भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं, महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। अपने नाम के अनुसार ही ये त्रि-भुवन या तीनो लोको के ईश्वरी या स्वामिनी हैं ये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, परिणाम स्वरूप ये जगन माता तथा जगत धात्री के नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व (१. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल), जिन से इस सम्पूर्ण चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तियों द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं। देवी कि इच्छानुसार ही, चराचर ब्रह्माण्ड (तीनो लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। प्रकृति से सम्बंधित होने के परिणाम स्वरूप, देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। आद्या शक्ति, भुवनेश्वरी स्वरूप में भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी है, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी है तथा भूल या गलती करने वालों के लिया दंड का विधान भी तय करती है, इनके भुजा में व्याप्त अंकुश, नियंत्रक का प्रतिक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवो को दण्डित करने के परिणाम स्वरूप रौद्री, प्रकृति का निरूपण करने से मूल प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग, देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
पञ्च तत्वों की अधिष्ठात्री देवी है देवी भुवनेश्वरी।
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त जीवित तथा अजीवित वस्तुओं का निर्माण मूल पञ्च तत्वों से ही होता हैं। १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल ये वो मूल तत्व है जिन से समस्त दिखने वाली तत्वों न निर्माण होता हैं। देवता तथा राक्षस, वेद, प्रकृति, महासागर, पर्वत, जीव, जंतु, समस्त वनस्पति इत्यादि समस्त भौतिक जगत इन्हीं पंच-तत्वों से जुड़ा हैं। पञ्च तत्वों का निरूपण तथा रचना इन्हीं भुवनेश्वरी देवी द्वारा ही हुआ है तथा वो इस इन समस्त तत्वों की ईश्वरी या मालकिन हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्वाह, पालन पोषण का दाइत्व इन्हीं देवी भुवनेश्वरी का है, सात करोड़ महा मंत्र सर्वदा इनकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं। देवी भक्तों को समस्त प्रकार कि सिद्धियाँ तथा अभय प्रदान करती हैं। देवी ललित के नाम से भी जानी जाती हैं, परन्तु ये ललित श्री विद्या ललित नहीं हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया है, एक पूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय द्वारा। ललिता शब्द जब त्रिपुर सुंदरी के साथ होती हैं तो वो श्रीविद्या ललिता के नाम से जानी जाती है तथा जब भुवनेश्वरी के साथ होती है तो भुवनेश्वरी ललित के नाम से जनि जाती हैं। इन के भैरव सदाशिव हैं।

देवी पञ्च परमेश्वरी नाम से विख्यात हैं। (मूल पांच तत्वों की ईश्वरी)


देवी भुवनेश्वरी का भौतिक स्वरूप

स्वभाव से देवी अत्यंत कोमल है, भिन्न भिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नो से सुशोभित अलंकारों से आभूषित, उदित सूर्य के किरणों समान, स्वर्ण आभा के सामान कांति वाली देवी भुवनेश्वरी कमल के आसान पर विराजमान है, देवी उगते सूर्य या सिंदूरी वर्ण से शोभिता हैं। तीन नेत्रों से युक्त त्रि-नेत्रा जो की इच्छा, काम तथा प्रजनन शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, मंद मंद मुस्कान वाली, अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाली देवी भुवनेश्वरी मनोहर प्रतीत होती हैं। देवी के स्थान उभरे हुए तथा पूर्ण है तथा शरीर संपूर्ण गठित, देवी कि चार भुजाये है तथा ये अपने दो भुजाओ में पाश तथा अंकुश धारण करती है तथा अन्य दो भुजाओ से वार तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी नाना प्रकार से मूल्यवान् रत्नो से जडे हुए, मुक्ता के आभूषण धारण कर, बहुत ही शांत और सौम्य प्रतीत होता है।
देवी भुवनेश्वरी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग लोक में दिखाई देता था तथा उन की किरणे स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी। समस्त साधुओ द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण हेतु, सोम ( वनस्पति ) से सूर्य देव की आराधना तथा प्रार्थना किया गया। परिणाम स्वरूप, सूर्य देव उन साधुओ पर प्रसन्न हो, देवी के प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल में देवी ही सर्व-शक्तिमान् मान थी। देवी षोडशी ने सूर्य देव को वो शक्ति प्रदान की तथा मार्गदर्शन किया जिस के परिणाम स्वरूप सूर्य देव ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की। देवी आद्या शक्ति तभी से भुवनेश्वरी (सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर दृष्टि गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं।
देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य।

देवी भुवनेश्वरी अपने अन्य नमो से भी प्रसिद्ध हैं :
१. मूल प्रकृति, देवी इस स्वरूप में स्वयं प्रकृति रूप में विद्यमान हैं, समस्त प्रकृति स्वरूप इन्हीं का रूप हैं।
२. सर्वेश्वरी या सर्वेशी, देवी इस स्वरूप में, सम्पूर्ण चराचर जगत की ईश्वरी या मालकिन है।
३. सर्वरूपा, देवी इस स्वरूप में, ब्रह्मांड के प्रत्येक तत्व में विद्यमान है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं का स्वरूप हैं।
४. विश्वरूपा, संपूर्ण विश्व का स्वरूप, इन्हीं देवी भुवनेश्वरी के रूप में हैं।
५. जगन-माता, सम्पूर्ण जगत, तीनो लोको की देवी जन्म दात्री है माता हैं।
६. जगत-धात्री, देवी इस रूप में सम्पूर्ण जगत को धारण तथा पालन पोषण करती हैं।

काली और भुवनेशी प्रकारांतर से अभेद है काली का लाल वर्ण स्वरूप ही भुवनेश्वरी हैं। दुर्गम नमक दैत्य के अत्याचारों से संतृप्त हो, सभी देवताओं तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जा कर सर्वकारण स्वरुपा देवी भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। सभी देवताओं तथा ब्राह्मणों के आराधना से संतुष्ट हो, देवी अपने हाथों में बाण, कमल पुष्प तथा शाक-मूल धारण किये हुए प्रकट हुई थी। देवी ने अपने नेत्रों से सहत्रो अश्रु जल धारा प्रकट की तथा इस जल से सम्पूर्ण भू-मंडल के समस्त प्राणी तृप्त हुए। समुद्रो तथा नदीओ में जल भर गया तथा समस्त वनस्पति सिंचित हुई। अपने हतो में धारण की हुई, शक फल मूलो से इन्होंने सम्पूर्ण प्राणिओ का पोषण किया, तभी से ये शाकम्भरी नाम से भी प्रसिद्ध हुई। इन्होंने ही दुर्गमासुर नमक दैत्य का वध किया तथा समस्त जगत को भय मुक्त, परिणाम स्वरूप देवी का दुर्गा नाम प्रसिद्ध हुआ।
भुवनेश्वरी अवतार धारण कर सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन, तथा भगवान् विष्णु, 'ब्रह्मा' तथा शिव को जल प्रलय के पश्चात् अपना कार्य भर प्रदान करना।

श्रीमद देवी भागवत पुराण के अनुसार, जनमेजय द्वारा, व्यास जी से भगवान 'ब्रह्मा', विष्णु, शंकर तथा आदि शक्ति, अम्बा जी से उनके सम्बन्ध तथा विश्व के उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाने पर, व्यास जी द्वारा जो वर्णन प्रस्तुत किया गया वो निन्नलिखित हैं। एक बार व्यास जी के मन में इसी तरह की जिज्ञासा जागृत हुई थी, तथा उन्होंने नारद जी से अपनी जिज्ञासा के निवारण हेतु प्रार्थना की। नारद जी के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा जागृत हुई थी, की पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि कर्ता कौन हैं ? तदनंतर नारद जी, 'ब्रह्मा' लोक में गमन कर अपने पिता 'ब्रह्मा जी' से प्रश्न किया।

नारद जी द्वारा पूछे जाने पर कि, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई ? 'ब्रह्मा', विष्णु तथा महेश में से किसके द्वारा इस चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?

'ब्रह्मा जी' द्वारा उत्तर दिया गया कि, प्राचीन काल में जल प्रलय होने पर, केवल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होने पर, उनका ('ब्रह्मा जी') कमल से आविर्भूत हुआ। उस समय सर्वत्र केवल जल ही जल था, सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारो ओर केवल जल ही जल था, कमलकर्णिका पर आसन जमाये वे विचरने लगे। उन्हें ये ज्ञात नहीं था की इस महा सागर के जाल में उन का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं। एक बार, 'ब्रह्मा जी' ने दृढ़ निश्चय किया की वो अपने कमल के आसन के मूल आधार देखेंगे, जिस से उन्हें मुल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर उनके द्वारा जल में उत्तर कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया गया परन्तु वो अपने आसन कमल के मूल तक नहीं पहुँच पाये। आकाशवाणी हुई की, तपस्या करो, तदनंतर 'ब्रह्मा जी' ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की। कुछ काल पश्चात् पुनः आकाशवाणी हुई सृजन करो, परन्तु 'ब्रह्मा जी' समझ नहीं पाये की किसकी सृजन करे, कैसे करे। उनके सोचते सोचते, उन के सन्मुख मधु तथा कैटभ नाम के दो महा दैत्य आये, जो उन से युद्ध करना चाहते थे तथा जिसे देख 'ब्रह्मा जी' डर गए। तदनंतर 'ब्रह्मा जी' अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे। शंख, चक्र, गदा, पद्म अपने चारो हाथों में धारण किये हुए, तथा शेष नाग की शैय्या पर शयन करते हुऐ उन्होंने महा विष्णु को देखा। महा विष्णु को देख, 'ब्रह्मा जी' के मन में चिंता जागृत हुई और वे आदि शक्ति की सहायता हेतु स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सदा निमग्न रहते थे। परिणाम स्वरूप निद्रा स्वरूपी, आदि शक्ति महामाया, महा विष्णु के शरीर से अलग हुई तथा दिव्य अलंकारों, आभूषणो तथा वस्त्रो से युक्त हो, आकाश में विराजमान हुई। तदनंतर महा विष्णु ने निद्रा का त्याग किया और जागृत हुऐ, तत्पश्चात् उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नमक महा दैत्यों से युद्ध किया तथा आद्या शक्ति महामाया की कृपा से अपनी जंघा पर उन महा दैत्यों का मस्तक रख कर, उन दैत्यों का वध किया। वध करने के परिणाम स्वरूप शंकर जी भी वहाँ उपस्थित हुए, जो संहार के प्रतिक हैं।
तदनंतर, 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर द्वारा देवी आदि शक्ति की स्तुति की गई, जिस से प्रसन्न हो कर, आदि शक्ति ने 'ब्रह्मा जी' को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार रूपी दाइत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात्, 'ब्रह्मा जी' द्वारा आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि, अभी चारो ओर जल ही जल फैला हुआ हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन्मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं, वे तीनो देव शक्ति हीन हैं। देवी ने मुस्कुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनो देवताओ को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनो देवो के विमान पर आसीन होने पर, देवी विमान आकाश में उड़ने लगा।
मन के वेग के समान वो दिव्य तथा सुन्दर विमान, उड़ कर जिस स्थान पर पंहुचा, वहाँ जल नहीं था, इससे तीनो को महान आश्चर्य हुआ तथा उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देख कर उन तीनो महा देवो को लगा की वो स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात्, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया, तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ, ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओ के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सेकड़ो गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ दृष्टि-गोचर हो रहे थे। वहाँ पर कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनो को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर तीनो देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित 'ब्रह्मा जी' को विद्यमान देख, सभी विस्मय पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने 'ब्रह्मा' से पूछा, ये 'ब्रह्मा' कौन हैं ? 'ब्रह्मा जी' ने उत्तर दिया, मैं इन्हें नहीं जनता हूँ मैं स्वयं भ्रमित हूँ। तदनंतर वो विमान, कैलाश पर्वत पर पंहुचा, वहां तीनो ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओ वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश तथा कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, तथा वे तीनो पुनः अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पंहुचा। पक्षि-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारो से अलंकृत भगवान् विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ तथा सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वो विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पंहुचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओ से सुसज्जित था, तथा रत्नामलाओ, विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्तपुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण किया हुआ था। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को दृष्टि-गोचर हुई, जो करोडो उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख, त्रि-देव आश्चर्य चकित और स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे ये देवी कौन हैं। 'ब्रह्मा', विष्णु तथा महेश सोचने लगे की, न तो ये अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना, ये सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा 'ब्रह्मा जी' से कहा; ये साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, तथा हम सब तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। ये महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सबकी आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। ये मूल प्रकृति स्वरूप भगवती महामाया, परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सन्मुख उसे उपस्थित करती हैं। तदनंतर तीनो देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त, देवी के चरणों के निकट गए। जैसे ही 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर, विमान से उतर कर देवी के सन्मुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्रीरूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। वे तीनो देवी के सन्मुख जा खड़े हो गए तथा देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तदनंतर, तीनो देवो ने देवी के चरण-कमल के नख में, सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, 'ब्रह्मा', विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सराये, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेवो ये समझ गए की ये देवी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
संक्षेप में देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : भुवनेश्वरी।
अन्य नाम : मूल प्रकृति, सर्वेश्वरी या सर्वेशी, सर्वरूपा, विश्वरूपा, जगत-धात्री इत्यादि।
भैरव : त्र्यंबक।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान वराह अवतार।
कुल : श्री कुल।
दिशा : पश्चिम।
स्वभाव : सौम्य , राजसी गुण सम्पन्न।
कार्य : सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन।
शारीरिक वर्ण : करोडो उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

मां पीतांबरा शक्तिपीठ दतिया

पीताम्बरा नाम से प्रसिद्ध, पीले रंग से सम्बंधित, पूर्ण स्तंभन शक्ति से युक्त, देवी बगलामुखी।
बगलामुखी, दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'बगला' तथा दूसरा 'मुखी'। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और वक या वगुला पक्षी, जिस की क्षमता एक जगह पर अचल खड़े हो शिकार करना है, मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वो मनुष्य या शत्रु हो या कोई प्राकृतिक आपदा। देवी महाप्रलय जैसे महाविनाश को भी स्तंभित करने की क्षमता रखती हैं। देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं। स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनो लोको में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं। देवी, पीताम्बरा नाम से भी त्रि-भुवन में प्रसिद्ध है, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'पीत' तथा दूसरा 'अम्बरा', अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली। देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिया है, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती है तथा देवी को पीले वस्त्र ही प्रिय है, पीले फूलों की माला धारण करती है, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ हैं, जिन में से पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पिला रंग अत्यंत प्रिय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती है, उर्ध्वमना स्वरुप में देवी दो भुजाओ से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाये हैं।
देवी बगलामुखी का सम्बन्ध अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तियों से हैं।
देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध अलौकिक, पारलौकिक जादुई शक्तिओ से भी हैं, जिसे इंद्रजाल काहा जाता हैं। उच्चाटन, स्तम्भन, मारन जैसे घोर कृत्यों तथा इंद्रजाल विद्या, देवी की कृपा के बिना संपूर्ण नहीं हो पाते हैं। देवी ही समस्त प्रकार के ऋद्धि तथा सिद्धि प्रदान करने वाली है, विशेषकर, तीनो लोको में किसी को भी आकर्षित करने की शक्ति, वाक् शक्ति, स्तंभन शक्ति। देवी के भक्त अपने शत्रुओ को ही नहीं बल्कि तीनो लोको को वश करने में समर्थ होते हैं, विशेषकर झूठे अभियोग प्रकरणो में अपने आप को निर्दोष प्रतिपादित करने हेतु देवी की अराधना उत्तम मानी जाती हैं। किसी भी प्रकार के झूठे अभियोग (मुकदमा) में अपनी रक्षा हेतु देवी के शरणागत होना सबसे अच्छा साधन हैं। देवी ग्रह गोचर से उपस्थित समस्याओं का भी विनाश करने में समर्थ हैं। देवी का सम्बन्ध आकर्षण से भी हैं, काम वासनाओ से युक्त कार्यो में भी देवी आकर्षित करने हेतु विशेष बल प्रदान करती हैं।

व्यष्टि रूप में शत्रुओ को नष्ट करने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार करने वाली देवी हैं बगलामुखी। देवी बगलामुखी के भैरव महा मृत्युंजय हैं। देवी शत्रुओ को पथ तथा बुद्धि भ्रष्ट कर, उन्हें हर प्रकार से स्तंभित करती हैं।


देवी का भौतिक स्वरुप वर्णन

देवी बगलामुखी, समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय द्वीप में अमूल्य रत्नो से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी त्रिनेत्रा हैं, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती है, पीले शारीरिक वर्ण की है, देवी ने पिला वस्त्र तथा पीले फूलो की माला धारण की हुई है, देवी के अन्य आभूषण भी पीले रंग के ही हैं तथा अमूल्य रत्नो से जड़ित हैं। देवी, विशेषकर चंपा फूलों, हल्दी के गाठों इत्यादि पीले रंग से सम्बंधित तत्वों की माला धारण करती हैं। देवी ने अपने बायें हाथ से शत्रु या दैत्य के जिव्हा को पकड़ कर खींच रखा है तथा दये हाथ से गदा उठाये हुए हैं, जो शत्रु को भय भीत कर रहे हैं। कई स्थानों में देवी ने मृत शरीर या शव को अपना आसन बना रखा हैं तथा शव पर ही आरूढ़ हैं तथा दैत्य या शत्रु के जिव्हा को पकड़ रखा हैं। देवी वचन या बोल-चाल से गलतियों तथा अशुद्धियों को निकल कर सही करती हैं।
देवी पीताम्बरा या बगलामुखी मुखी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, सत्य युग में इस चराचर संपूर्ण जगत को नष्ट करने वाला भयानक वातक्षोम (तूफान, घोर अंधी) आया। समस्त प्राणिओ तथा स्थूल वस्तुओं के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा था तथा सब काल का ग्रास बनने जा रहे थे। संपूर्ण जगत पर संकट को ए हुआ देख, जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हो गए। तदनंतर, भगवान विष्णु सौराष्ट्र प्रान्त में गए तथा हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर, अपनी सहायतार्थ देवी श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी को प्रसन्न करने हेतु तप करने लगे। उस समय देवी श्री विद्या, सौराष्ट्र के एक हरिद्रा सरोवर में वास करती थी। भगवान विष्णु के तप से संतुष्ट हो देवी आद्या शक्ति, बगलामुखी स्वरूप में, भगवान विष्णु के सन्मुख अवतरित हुई तथा उनसे तप करने का कारण ज्ञात किया। तुरंत ही अपनी शक्तिओ का प्रयोग कर, देवी बगलामुखी ने विनाशकारी तूफान को शांत किया तथा इस सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा की। मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकार, कुल नक्षत्रों से युक्त वीर रात्रि कही जाती हैं इसी की अर्धरात्रि में श्री बगलामुखी देवी का आविर्भाव हुआ।

देवी बगलामुखी के प्रादुर्भाव की दूसरी कथा, देवी धूमावती के प्रादुर्भाव के समय से सम्बंधित हैं। क्रोध में आ देवी पार्वती ने अपने पति शिव का ही भक्षण किया था। देवी पार्वती का वो उग्र स्वरूप जिसने अपने पति का भक्षण किया, वो बगलामुखी नाम की ही शक्ति थी तथा भक्षण पश्चात् देवी, धूमावती नाम से विख्यात हुई।
देवी बगलामुखी से सम्बंधित अन्य तथ्य।

कुब्जिका तंत्र के अनुसार, बगला नाम तीन अक्षरो से निर्मित है व, ग, ला। व अक्षर देवी वारुणी, ग अक्षर सिद्धिदा तथा ला अक्षर पृथ्वी को सम्बोधित करता हैं। देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु से सम्बंधित हैं परिणामस्वरूप देवी सत्व गुण से सम्पन्न तथा वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित हैं तथा इनकी साधन में पवित्रता का विशेष महत्व हैं। परन्तु कुछ अन्य परिस्थितिओं में देवी तामसी गुण से भी सम्बंधित है, आकर्षण, मारन तथा स्तंभन कर्म तामसी प्रवृति से सम्बंधित हैं क्योंकि इस तरह के कार्य दुसरो को हानि पहुँचने हेतु ही की जाती हैं। सर्वप्रथम देवी की आराधना भगवान ब्रह्मा ने की, पश्चात् ब्रह्मा जी ने बगला साधना का उपदेश सनकादिक मुनिओ को किया, सनत कुमार से प्रेरित हो देवर्षि नारद ने भी बगला देवी की साधना की। देवी के दूसरे उपासक स्वयं जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु हुए तथा तीसरे भगवान परशुराम। देवी का सम्बन्ध शव साधना, श्मशान इत्यादि से भी हैं। दैवीय प्रकोप शांत करने हेतु शांति कर्म में, धन-धान्य के लिये पौष्टिक कर्म में, वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने हेतु तथा शत्रु नाश के लिये आभिचारिक कर्म में देवी की शक्तिओ का प्रयोग किया जाता हैं। देवी का साधक भोग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त कर लेते हैं।

बगलामुखी स्तोत्र के अनुसार देवी समस्त प्रकार के स्तंभन कार्यों हेतु प्रयोग में लायी जाती हैं जैसे, अगर शत्रु वादी हो तो गुंगा, छत्रपति हो तो रंक, दावानल या भीषण अग्नि कांड शांत करने हेतु, क्रोधी का क्रोध शांत करवाने हेतु, धावक को लंगड़ा बनाने हेतु, सर्व ज्ञाता को जड़ बनाने हेतु, गर्व युक्त के गर्व भंजन करने हेतु। सादहरण तौर पर व्यक्ति अच्छा या बुरा कैसा भी कर्म करे और अगर व्यक्ति विशेष की सु या कु ख्याति हो, निंदा चर्चा करने वाले या अहित कहने वाले उस के बनेंगे ही, ऐसे परिस्थिति में देवी बगलामुखी की कृपा ही समस्त निंदको, अहित कहने वालों के मुख या कार्य का स्तंभन करती हैं। कही तीव्र वर्षा हो रही हो या भीषण अग्नि कांड हो गया हो, देवी का साधक बड़ी ही सरलता से समस्त प्रकार के कांडो का स्तंभन कर सकता हैं। बामा ख्यपा ने अपने माता के श्राद्ध कर्म में इसी प्रकार तीव्र वृष्टि का स्तंभन किया था। साथ ही, उग्र विघ्नों को शांत करने वाली, दरिद्रता का नाश करने वाली, भूपतियों के गर्व का दमन, मृग जैसे चंचल चित्तवन वालो के चित्त का भी आकर्षण करने वाली, मृत्यु का भी मरण करने में समर्थ हैं देवी बगलामुखी।
संक्षेप में देवी बगलामुखी से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : बगलामुखी।
अन्य नाम : पीताम्बरा (सर्वाधिक जनमानस में प्रचलित नाम), श्री वगला।
भैरव : मृत्युंजय।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : कूर्म अवतार।
तिथि : वैशाख शुक्ल अष्टमी।
कुल : श्री कुल।
दिशा : उत्तर।
स्वभाव : उग्र, राजसी गुण सम्पन्न।
कार्य : स्तम्भन विद्या के रूप हैं देवी का प्रयोग किया जाता हैं।
शारीरिक वर्ण : पिला।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
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नवार्ण मंत्र लघु प्रयोग

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा-
देवी रूद्राणी-सहिता, रूद्र-देवता काल-
भैरव सह, बटुक-भैरवाय, हनुमान सह मकर-ध्वजाय,
आपदुद्धारणाय मम सर्व-दोष-क्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न-
विनाशाय मम शुभ-मांगलिक-कार्य-सिद्धिं कुरू-कुरू स्वाहा।।

शादी न हो रही हो.या विघ्न उतपन्न हो रहा हो.कोई मांगलिक कार्यक्रम हो विघ्न पड़ने का खतरा हो विघ्न संकट आदि लगातार जीवन में कठिनाइया उत्पन्न कर रहे हो.

किसी शत्रु के द्वारा विघ्न उतपन्न हो रहा हो कार्य में .

एक दीपक जलाकर बगल में एक पारद या नर्मदेश्वर.शिवलिंग रखे भगवती दुर्गा की प्रतिमा दोनों का पूजन करके भगवान काल भैरव  ..बटुक भैरव   .मकरध्वज भगवान. का स्मरण करे .इनके नाम से ही शिव लिंग पर ही पुष्पांजलि करे एक घी का दीपक भगवती व् एक तेल का दीपक भैरब आदि देवता का स्मरण कर जलाये.।

1 माला निशा काल में जप करे भोग में मीठा   व् लगा हुआ ताम्बूल..आसव एक कुल्हड़ में या दूध गुड़ मिश्रित .व् उर्द का बड़ा  एक दोने में ..आदि जो सम्भव हो भोग लगाये निशा काल में 1 माला जप करे

मीठा भोग देवी को अर्पित करे ..शिव को बेल पत्र भैरवादि को बड़ा व् कूलहड़ का दूध.
पूजन समाप्ति पर कन्या को प्रणाम करे माँ का प्रसाद ग्रहण कर लेवे बटुकादि का प्रसाद बाहर स्वान को दे देवे।

. प्रथम दिन..

अन्य दिन सहज जप करे यथा शक्ति जल्द ही समस्त इच्छित कार्य सिद्ध होने लगेंगे .
समस्याएं नॉट कर लेवे अगर 10 समस्या से 5 भी हल होता दिखाई दे साधना निरंतर कार्य होने तक जारी रखे
परेशानी बहुत ज्यादा है ग्रहादिक भी है .तो भैरव का श्रृंगार रविवार को भैरव जी के मन्दिर में जाकर करे..मकरध्वज को अलग से दीपक देवे उनको समस्या निवारण हेतु  हनुमान जी की सौगन्ध देवे..

यह प्रयोग फिलहाल योग्य देख रेख में सम्पन्न करे..बिना निर्देशन साधना न करे..या सामान्य जप 21 बार करके कुत्ते व् कौए को भोजन करावे गाय को रोटी देवे.

साधना के पूर्व सङ्कल्प अपनी ही चाहे भाषा में करे अनिवार्य ..व् आचमन सप्तशती से देख लेवे व् अपवित्री कारण.आसन सोध्न अनिवार्य चाहे आप जल ही छिड़क ले।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

वीर शैव दर्शन

वीरशैव दर्शन
इस दर्शन का महत्पूर्ण ग्रन्थ “वाचनम्” है जिससे अभिप्राय है ‘शिव की उक्ति’।
यह दर्शन पारम्परिक तथा शिव को ही पूर्णतया समस्त कारक, संहारक, सर्जक मानता है। इसमें जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना गया है।
इस दर्शन के अन्तर्गत गुरु परम्परा का विशेष महत्व है।
वैष्णव संहिता
वैष्णव संहिता की दो विचारधारायें मिलती हैं – वैखानस संहिता, तथा पंचारात्र संहिता।
वैखानस संहिता – यह वैष्णव परम्परा के वैखानस विचारधारा है। वैखानस परम्परा प्राथमिक तौर पर तपस् एवं साधन परक परम्परा रही है।
पंचरात्र संहिता – पंचरात्र से अभिप्राय है – ‘पंचनिशाओं का तन्त्र’। पंचरात्र परम्परा प्रचीनतौर पर विश्व के उद्भव, सृष्टि रचना आदि के विवेचन को समाहित करती है। इसमें सांख्य तथा योग दर्शनों की मान्यताओं का समावेश दिखायी देता है। वैखानस परम्परा की अपेक्षा पंचरात्र परम्परा अधिक लोकप्रचलन में रही है। इसके 108 ग्रन्थों के होने को कहा गया है। वैष्णव परम्परा में भक्ति वादी विचारधारा के अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त भी समाहित है।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
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महाविद्या छिन्नमस्ता तंत्र प्रयोग

महाविद्या छिन्नमस्ता प्रयोग
शोक ताप संताप होंगे छिन्न-भिन्न
जीवन के परम सत्य की होगी प्राप्ति
संसार का हर्रेक सुख आपकी मुट्ठी में होगा
अपार सफलताओं के शिखर पर जा पहुंचेंगे आप
जीवन मरण दोनों से हो जायेंगे पार
"महाविद्या छिन्नमस्ता"

एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता,

दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है
देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है
छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था
गुरु गोरक्षनाथ की सभी सिद्धियों का मूल भी देवी छिन्नमस्ता ही है
देवी नें एक हाथ में अपना ही मस्तक पकड़ रखा हैं और दूसरे हाथ में खडग धारण किया है
देवी के गले में मुंडों की माला है व दोनों और सहचरियां हैं
देवी आयु, आकर्षण,धन,बुद्धि,रोगमुक्ति व शत्रुनाश करती है
देवी छिन्नमस्ता मूलतया योग की अधिष्ठात्री देवी हैं जिन्हें ब्ज्रावैरोचिनी के नाम से भी जाना जाता है
सृष्टि में रह कर मोह माया के बीच भी कैसे भोग करते हुये जीवन का पूरण आनन्द लेते हुये योगी हो मुक्त हो सकता है यही सामर्थ्य देवी के आशीर्वाद से मिलती है
सम्पूरण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है
शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है
देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है
स्तुति
छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम,
प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम,
पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम,
विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम,
दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम,
दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम,
अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम,
डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:,

देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए
देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है
इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं
देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है
देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या छिन्मस्ता के मन्त्रों से होता है आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश

देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-
श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा

इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-
1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है
2.बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है
3.सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है
4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है
5.कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है
6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है
7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"4"
विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है
मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं
केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं
बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें
सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें
भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा चदएं
दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें
पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए
सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम:
देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र
१)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा
२)देवी रेणुका शबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं
सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए
सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें
यन्त्र के पूजन की रीति है-
पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं
ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है
यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें
छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं
छिन्नमस्ता शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-
प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी,
चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी,
ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना,
चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा,
देदेवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें
अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र
1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट
लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें
नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
देवी मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें
अखरो व अन्य फलों का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
2) देवी छिन्नमस्ता का धन प्रदाता मंत्र
ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं वज्रवैरोचिनिये फट
गुड, नारियल, केसर, कपूर व पान देवी को अर्पित करें
शहद से हवन करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
3) देवी छिन्नमस्ता का प्रेम प्रदाता मंत्र
ॐ आं ह्रीं श्रीं वज्रवैरोचिनिये हुम
देवी पूजा का कलश स्थापित करें
देवी को सिन्दूर व लोंग इलायची समर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
किसी नदी के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
भगवे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं
4) देवी छिन्नमस्ता का सौभाग्य बर्धक मंत्र
ॐ श्रीं श्रीं ऐं वज्रवैरोचिनिये स्वाहा
देवी को मीठा पान व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
किसी ब्रिक्ष के नीचे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
संतरी रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें
पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं
5) देवी छिन्नमस्ता का ग्रहदोष नाशक मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं वं वज्रवैरोचिनिये हुम
देवी को पंचामृत व पुष्प अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 4 माला का मंत्र जप करें
मंदिर के गुम्बद के नीचे या प्राण प्रतिष्ठित मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
पीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
नारियल व तरबूज प्रसाद रूप में चढ़ाएं
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना "कबंध शिव" की पूजा के महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना न करें
सन्यासियों व साधू संतों की निंदा बिलकुल न करें
साधना के दौरान अपने भोजन आदि में हींग व काली मिर्च का प्रयोग न करें
देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें
सरसों के तेल का दीया न जलाएं।।।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

भुवनेश्वरी दरिद्ता नाशक साधना प्रयोग

भुवनेश्वरी दरिद्रता नाशक साधना
( ग्रहण काल का अचूक प्रयोग )
नाम से ही स्पष्ट है की ये साधना कितनी महत्वपूर्ण है,जिस पर माँ भुवनेश्वरी की कृपा हो जाये,वो कभी दरिद्र नहीं रह सकता,क्युकी माँ कभी अपनी संतान को दुखी नहीं देख सकती है।अतः ज्यादा न लिखते हुए विधान दे रहा हु।
ग्रहण काल में स्नान कर सफ़ेद वस्त्र धारण करे,और उत्तर की और मुख कर सफ़ेद आसन पर बैठ जाये।सामने ज़मीन पर सफ़ेद वस्त्र बिछाये और उस पर,अक्षत से बीज मंत्र " ह्रीं " लिखे और उस पर एक कोई भी रुद्राक्ष स्थापित करे,गुरु तथा गणेश पूजन संपन्न करे,अब रुद्राक्ष का सामान्य पूजन करे,तथा निम्न मंत्र को २१ बार पड़े और अक्षत अर्पण करते जाये,अक्षत भी २१ बार अर्पण करने होंगे।
मंत्र :
||ॐ ह्रीं भुवनेश्वरी इहागच्छ इहतिष्ठ इहस्थापय मम सकल दरिद्रय नाशय नाशय ह्रीं ॐ||
अब पुनः रुद्राक्ष का सामान्य पूजन कर मिठाई का भोग लगाये,तील के तेल का दीपक लगाये।और बिना किसी माला के निम्न मंत्र का लगातार २ घंटे तक जाप करे,जाप करते वक़्त लगातार अक्षत रुद्राक्ष पर अर्पण करते रहे।साधना के बाद भोग स्वयं खा ले,और रुद्राक्ष को स्नान कराकर लाल धागे में पिरो ले और गले में धारण कर ले।और सारे अक्षत उसी वस्त्र में बांध कर कुछ दक्षिणा के साथ देवी मंदिर में रख आये और दरिद्रता नाश की प्रार्थना कर ले।
मंत्र :
||हूं हूं ह्रीं ह्रीं दारिद्रय नाशिनी भुवनेश्वरी ह्रीं ह्रीं हूं हूं फट||
यह साधना अद्भूत है,अतः स्वयं कर अनुभव प्राप्त करे।
सभी बीजाक्षरों मे मकार का उच्चारन होगा।..........
श्री राम ज्योतिष सदन
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महाविद्या छिन्नमस्ता मंत्र प्रयोग

महाविद्या छिन्नमस्ता प्रयोग
शोक ताप संताप होंगे छिन्न-भिन्न
जीवन के परम सत्य की होगी प्राप्ति
संसार का हर्रेक सुख आपकी मुट्ठी में होगा
अपार सफलताओं के शिखर पर जा पहुंचेंगे आप
जीवन मरण दोनों से हो जायेंगे पार
"महाविद्या छिन्नमस्ता"

एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता,

दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है
देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है
छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था
गुरु गोरक्षनाथ की सभी सिद्धियों का मूल भी देवी छिन्नमस्ता ही है
देवी नें एक हाथ में अपना ही मस्तक पकड़ रखा हैं और दूसरे हाथ में खडग धारण किया है
देवी के गले में मुंडों की माला है व दोनों और सहचरियां हैं
देवी आयु, आकर्षण,धन,बुद्धि,रोगमुक्ति व शत्रुनाश करती है
देवी छिन्नमस्ता मूलतया योग की अधिष्ठात्री देवी हैं जिन्हें ब्ज्रावैरोचिनी के नाम से भी जाना जाता है
सृष्टि में रह कर मोह माया के बीच भी कैसे भोग करते हुये जीवन का पूरण आनन्द लेते हुये योगी हो मुक्त हो सकता है यही सामर्थ्य देवी के आशीर्वाद से मिलती है
सम्पूरण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है
शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है
देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है
स्तुति
छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम,
प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम,
पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम,
विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम,
दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम,
दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम,
अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम,
डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:,

देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए
देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है
इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं
देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है
देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या छिन्मस्ता के मन्त्रों से होता है आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश

देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-
श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा

इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-
1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है
2.बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है
3.सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है
4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है
5.कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है
6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है
7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"4"
विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है
मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं
केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं
बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें
सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें
भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा चदएं
दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें
पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए
सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम:
देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र
१)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा
२)देवी रेणुका शबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं
सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए
सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें
यन्त्र के पूजन की रीति है-
पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं
ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है
यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें
छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं
छिन्नमस्ता शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-
प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी,
चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी,
ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना,
चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा,
देदेवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें
अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र
1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट
लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें
नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
देवी मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें
अखरो व अन्य फलों का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
2) देवी छिन्नमस्ता का धन प्रदाता मंत्र
ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं वज्रवैरोचिनिये फट
गुड, नारियल, केसर, कपूर व पान देवी को अर्पित करें
शहद से हवन करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
3) देवी छिन्नमस्ता का प्रेम प्रदाता मंत्र
ॐ आं ह्रीं श्रीं वज्रवैरोचिनिये हुम
देवी पूजा का कलश स्थापित करें
देवी को सिन्दूर व लोंग इलायची समर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
किसी नदी के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
भगवे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं
4) देवी छिन्नमस्ता का सौभाग्य बर्धक मंत्र
ॐ श्रीं श्रीं ऐं वज्रवैरोचिनिये स्वाहा
देवी को मीठा पान व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
किसी ब्रिक्ष के नीचे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
संतरी रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें
पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं
5) देवी छिन्नमस्ता का ग्रहदोष नाशक मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं वं वज्रवैरोचिनिये हुम
देवी को पंचामृत व पुष्प अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 4 माला का मंत्र जप करें
मंदिर के गुम्बद के नीचे या प्राण प्रतिष्ठित मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
पीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
नारियल व तरबूज प्रसाद रूप में चढ़ाएं
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना "कबंध शिव" की पूजा के महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना न करें
सन्यासियों व साधू संतों की निंदा बिलकुल न करें
साधना के दौरान अपने भोजन आदि में हींग व काली मिर्च का प्रयोग न करें
देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें
सरसों के तेल का दीया न जलाएं।।।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

कर्ण पिशाचिनी साधना मंत्र प्रयोग

कर्ण - पिशाचनी साधना प्रयोग
इस मंत्र को गुप्त त्रिकालदर्शी मंत्र भी कहा जाता हैं .इस मंत्र के साधक को किसी भी व्यक्ति को देखते ही उसके जीवन की सूक्ष्म से सुक्ष्म घटना का ज्ञान हो जाता हैं . उसके विषय में विचार करते ही उसकी समस्त गतिविधियों एवं क्रिया कलापो का ज्ञान हो जाता हैं .

कर्ण - पिशाचनी -

साधना वैदिक विधि से भी सम्पन्न की जताई हैं , और तांत्रिक विधि से भी अनुष्ठानित की जाती हैं . यंहा वैदिक विधि द्वारा सम्पन्न की जाने वाली साधना का प्रयोग दिया जा रहा हैं .

मंत्र

"""" ॐ लिंग सर्वनाम शक्ति भगवती कर्ण - पिशाचनी रुपी सच चण्ड सच मम वचन दे स्वाहा """"""

विधि :-

किसी भी नवरात्री में या शुभ नक्षत्र योग तिथि में भूति - शुद्धि , स्थान - शुद्धि , गुरु स्मरण , गणेश - पूजन , नवग्रह पूजन , से पूर्व एक चौकी पर लाल कपडा बिछाये . उस पर तांबे का एक लोटा या कलश - स्थापना करें . कलश पर पानी वाला नारियल रखे . कलश के चारो ओर पान , सुपारी , सिंदूर , व २ लड्डू रखे . कलश - पूजन करके साष्टांग प्रणाम करें .
इसके बाद कंधे पर लाल कपडा रखकर उपरोक्त मंत्र का जाप करें . जाप पूर्ण होने पर पहले सामग्री से , फिर खीर से , और अंत में त्रिमधु से होम करें . इसके उपरांत क्षमा - याचना कर साक्षात देवी के रुपी कलश को भूमि पर लेटकर दंडवत प्रणाम करें . अनुष्ठान के दिनों में ब्रम्हचर्य का पालन एवं एकांत वास करें . सदाचरण करते हुए सभी नियमो का पालन करें . झूठ - फरेब - अत्याचार , बेईमानी से दूर रहें .

समय :-

नवरात्र यदि ग्रहण काल में आरम्भ करे तो स्पर्श काल से , १५ मिनट पूर्व , आरम्भ करके मोक्ष के १५ मिनट बाद तक करें . ग्रहण काल में नदी के किनारे अथवा शमशान में जाप करें . आवश्यक समस्त सामग्री अपने पास रखे .

सामग्री :-

एक यन्त्र और एक माला जो प्राण - प्रतिष्ठा युक्त , मंत्र सिद्धि चैतन्य हो , पान , सुपारी , लौंग , सिंदूर , नारियल , अगर - ज्योति , लाल वस्त्र , जल का लोटा , लाल चन्दन की माला , जाप करने के लिए और दो लड्डू .

जाप - संख्या : - एक लाख

हवन - सामग्री : -

सफ़ेद चन्दन का चुरा , लाल चन्दन का चुरा , लोबान , गुग्गल , प्रत्येक ३०० ग्राम , कपूर लगभग १०० ग्राम , बादाम गिरी ५० ग्राम ,काजू ५० ग्राम , अखरोट गिरी ५० ग्राम , गोल ५० ग्राम , छुहारे ५० ग्राम , मिश्री का कुजा १ , . इन सभी को बारीक़ कर के मिला ले . इसमे घी भी मिलाए . फिर खीर बनाये , चावल काम दूध जड़ा रखें . खीर में ५ मेवे डाले , देशी घी , शहद , व चीनी भी डाले .

विशेष :-

जाप करने के उपरांत १०००० मंत्रो से हवन करें . हवन के दशांश का तर्पण , उसके दशांश का यानि एक माला से मार्जन , और उसके बाद १० कन्याओ एवं एक बटुक को भोजन करा कर अपने गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त करें .

नोट : -

उपरोक्त साधना के लिए गुरु - दीक्षा आवश्यक हैं . अन्यथा प्रयास असफल रहता हैं .
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
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मंत्र जप एवं पुश्र्चरण साधना

मन्त्र जप एवं पुश्चरण

मंत्र पुश्चरण :- किसी भी मंत्र के जप के लिए जो कुछ महत्वपूर्ण अंग होते हैं उनका विवरण निम्न प्रकार है

जप :- इस क्रिया में किसी मन्त्र के निर्धारित जप करने होते हैं, जिस प्रकार और जितनी मात्रा में आपके गुरु द्वारा निर्देश दिए गए हों।

विशेष :- यदि जिस व्यक्ति/गुरु ने आपको मन्त्र जप की सलाह या अनुदेश दिए हैं और वे इस बात के बारे में आश्वस्त नहीं हैं कि अमुक मंत्र की जप संख्या कितनी होगी ऐसी दशा में उस मन्त्र का जप बिलकुल भी ना करें काम्य जप या अनुष्ठान में यह एक बाध्यकारी निर्देश है।

किन्तु यदि कोई मंत्र जीवन-मरण का प्रश्न लिए हुए हो अथवा स्वइष्ट से सम्बंधित हो तब गुरु अथवा इष्ट से आज्ञा प्राप्त कर जप कर्म किया जा सकता है - मंत्र विज्ञान के अनुसार एकवर्णीय बीज मंत्रों का जप सवा लाख होना चाहिए - जिसमे तीन का गुणक किया जाना चाहिए। यदि कोई बीज आजीवन जप के लिए हो तब तीन से गुणा करने की आवश्यकता नहीं होगी। किन्तु जप अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिए।

हवन :- हवन कृत्य प्रायः गुरु के निर्देशानुसार करना चाहिए किन्तु यदि गुरु उपलब्ध ना हों तब उस दशा में जप कर्म का दसवां हिस्सा हवन करना चाहिए।

यथा यदि 125000 जप कर्म हुए हैं तो 12500 हवन आवृत्तियाँ होंगीं।

हवन कर्म में दायें हाथ से आहुति दी जाती है एवं बाएं हाथ से माला का संचालन होता है - एक बार मन्त्र का उच्चारण करते हुए आहुति डालनी होती है।

यथा : यदि "क्रीं" मन्त्र जप का हवन करना हो तो "क्रीं स्वाहा" कहकर आहुति देनी होगी।

बहुधा मंत्रों में प्रणव "ॐ" भी लगा होता है और बहुत बार नहीं - ऐसी दशा में भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि बीज मन्त्र स्वयं में पूर्ण और सबल होते हैं अस्तु अन्य प्रणवादि लगाने की मूल रूप से आवश्यकता नहीं होती किन्तु लगा देने पर कोई हानि भी नहीं होती।

तर्पण :- हवन कर्म के उपरांत "तर्पण"कर्म का विधान होता है जिसमे कोई ऐसा पात्र लेने की आवश्यकता होती है जिसमे चार या पांच लीटर पानी आ सके - जैसे कि कोई भगोना-परात या फिर बड़ी थाली आदि।

उस पात्र में जल भरकर थोड़ा गंगाजल मिला लें और तत्पश्चात थोड़ा शहद-घी-गुड-केशर-गौदुग्ध -पुष्पादि मिलाकर दाहिने हाथ की अंजलि में जल भरकर पुनः उसी पात्र में छोड़ दें और बाएं हाथ से माला जप का प्रयोग करें।

यथा :- "क्रीं तर्पयामि" का उच्चारण करते हुए जल को दायें हाथ की अंजुली में भरकर पुनः उसी पात्र में गिरा दें और बाएं हाथ से माला पर मन्त्र जपते और दायें हाथ से जल भरते-गिराते रहें।

तर्पण क्रिया हवन की संख्या का दसवां हिस्सा होती है अर्थात यदि 125000 जप कर्म तो 12500 हवन कर्म एवं 1250 तर्पण कर्म होंगे।
श्री राम ज्योतिष सदन
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महाविद्या कमला मंत्र साधना


महाविद्या कमला
धन तथा समृद्धि दात्री, दिव्य तथा मनोहर स्वरूप से संपन्न, पवित्रता तथा स्वछता से सम्बंधित "देवी कमला"।
देवी कमला या कमलात्मिका, महाविद्याओं में दसवे स्थान पर अवस्थित, कमल या पद्म पुष्प के समान दिव्यता के प्रतिक। देवी कमला तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैंं, देवी का सम्बन्ध सम्पन्नता, सुख, समृद्धि, सौभाग्य और वंश विस्तार से हैंं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी कमला अंतिम स्थान पर अवस्थित हैंं। देवी सत्व गुण से सम्पन्न हैंं तथा धन तथा सौभाग्य की देवी हैंं। स्वछता तथा पवित्रता देवी को अति प्रिय हैंं तथा देवी ऐसे स्थानों में ही वास करती हैंं। प्रकाश से देवी कमला का घनिष्ठ सम्बन्ध हैंं, देवी उन्हीं स्थानों को अपना निवास स्थान बनती हैं जहा अँधेरा न हो, इस के विपरीत देवी के बहन अलक्ष्मी, ज्येष्ठा, निऋति जो निर्धनता, दुर्भाग्य से सम्बंधित हैंं, अंधेरे तथा अपवित्र स्थानों को ही अपना निवास स्थान बनती हैंं। कमल के पुष्प के नाम वाली देवी, जिनका घनिष्ठ सम्बद्ध कमल के पुष्प से हैंं। देवी कमला के स्थिर निवास हेतु स्वछता तथा पवित्रता अत्यंत आवश्यक हैंं। देवी की अराधना तीनो लोको में में सभी के द्वारा की जाती हैंं, दानव या दैत्य, देवता तथा मनुष्य सभी द्वारा की जाती हैंं, क्योंकि सुख तथा समृद्धि सभी प्राप्त करना चाहते हैंं। देवी आदि काल से ही त्रि-भुवन के समस्त प्राणिओ द्वारा पूजित हैंं। देवी की कृपा के बिना, निर्धनता, दुर्भाग्य, रोग ग्रस्त, इत्यादि जातक से सदा सम्बद्ध रहती हैंं परिणामस्वरूप जातक रोग ग्रस्त, अभाव युक्त, धन हीन रहता हैंं। देवी कमला ही समस्त प्रकार के सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सभी प्राणियो, देवताओ को प्रदान करती हैंं। एक बार देवता यहाँ तक ही भगवान विष्णु भी लक्ष्मी हीन हो गए थे, परिणामस्वरूप सभी दरिद्र हो गए थे।
विष्णु प्रिया, कमल प्रिय देवी कमला।
हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्म के अंतर्गत कमल पुष्प को बहुत पवित्र तथा महत्त्वपूर्ण माना जाता हैंं। बहुत से देवी देवताओं की साधना, अराधना में कमल पुष्प आवश्यक हैंं तथा सभी देवताओं पर कमल पुष्प निवेदन कर सकते हैंं। कमल की उत्पत्ति मैले, गंदे स्थानों पर होती हैंं, परन्तु कमल के पुष्प पर मैल, गन्दगी का कोई प्रभाव नहीं होता हैंं, कमल अपनी दिव्या शोभा लिये, सर्वदा ही पवित्र ही रहता हैंं तथा दिव्य पवित्र को प्रदर्शित करता हैंं। देवी कमल प्रिय हैंं, कमल के आसान पर ही विराजमान रहती हैंं, कमल के माला धारण करती हैंं, कमल पुष्पों से ही घिरी हुई हैंं। देवी कमला, जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु की पत्नी हैंं। देवताओं तथा दानवो ने मिल कर, अधिक सम्पन्न होने हेतु समुद्र का मंथन किया, समुद्र मंथन से १८ रत्न प्राप्त हुए, जिन में देवी लक्ष्मी भी थी, जिन्हें भगवान विष्णु को प्रदान किया गया तथा उन्होंने देवी का पानिग्रहण किया। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध देवराज इन्द्र तथा कुबेर से हैंं, इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के राजा हैंं तथा कुबेर देवताओं के खजाने के रक्षक के पद पर आसीन हैंं। देवी लक्ष्मी ही इंद्र तथा कुबेर को इस प्रकार का वैभव, राजसी सत्ता प्रदान करती हैंं।


देवी कमला के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

श्रीमद भागवत के आठवें स्कन्द में देवी कमला के उद्भव की कथा प्राप्त होती हैंं। देवी कमला का प्रादुर्भाव समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैंं। एक बार देवताओं तथा दानवो ने समुद्र का मंथन किया, जिनमें अमृत प्राप्त करना मुख्य था। मुनि दुर्वासा के श्राप के कारण सभी देवता 'लक्ष्मी या श्री' हीन हो गए, यहाँ तक ही भगवान विष्णु का भी लक्ष्मी जी ने त्याग कर दिया। पुनः श्री सम्पन्न होने हेतु या नाना प्रकार के रत्नों को प्राप्त कर समृद्धि हेतु, देवताओं तथा दैत्ययों ने समुद्र का मंथन किया। समुद्र मंथन से १८ रत्न प्राप्त हुए, उन १८ रत्नो में, धन की देवी 'कमला' तथा निर्धन की देवी 'निऋति' नमक दो बहनों का भी प्रादुर्भाव हुआ था। जिन में, देवी कमला भगवान विष्णु को दे दी गई और निऋति, दुसह नमक ऋषि को। देवी भगवान विष्णु से विवाह के पश्चात्, कमला लक्ष्मी नाम से जाने जानी लगी। तत्पश्चात् देवी लक्ष्मी ने विशेष स्थान पाने हेतु, 'श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी' की कठोर अराधना की तथा अराधना से संतुष्ट हो देवी त्रिपुरा ने उन्हें श्री उपाधि प्रदान की तथा महाविद्याओं में स्थान भी। तब से देवी का सम्बन्ध पूर्णतः धन, समृद्धि तथा सुख से हैंं।
देवी कमला का भौतिक स्वरुप।

देवी कमला का स्वरूप अत्यंत ही मनोहर तथा मनमोहक हैंं तथा स्वर्णिम आभा लिया हुए हैंं। देवी का स्वरूप अत्यंत सुन्दर हैंं, मुख मंडल पर हलकी सी मुस्कान हैंं, कमल के सामान इनके तीन नेत्र हैंं, अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैंं। देवी के चार भुजाये हैंं तथा वे अपने ऊपर की दो हाथों में कमल पुष्प धारण करती हैंं तथा निचे के दो हाथों से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैंं। देवी कमला मूल्य रत्नो तथा कौस्तुभ मणि से सुसज्जित मुकुट अपने मस्तक पर धारण करती हैंं, सुन्दर रेशमी साड़ी से शोभित हैंं तथा अमूल्य रत्नो से युक्त विभिन्न आभूषण धारण करती हैंं। देवी सागर के मध्य में, कमल पुष्पों से घिरी हुई तथा कमल के ही आसन पर बैठी हुई हैंं। हाथीयों के समूह देवी को अमृत के कलश से स्नान करा रहे हैंं।
देवी कमला से सम्बंधित अन्य तथ्य।

भगवान विष्णु से विवाह होने के परिणामस्वरूप, देवी का सम्बन्ध सत्व गुण से हैंं तथा वे वैष्णवी शक्ति की अधिष्ठात्री हैंं। भगवान विष्णु देवी कमला के भैरव हैंं। शासन, राज पाट, मूल्यवान् धातु तथा रत्न जैसे पुखराज, पन्ना, हीरा इत्यादि, सौंदर्य से सम्बंधित सामग्री, जेवरात इत्यादि देवी से सम्बंधित हैंं प्रदाता हैंं। देवी की उपस्थिति तीनो लोको को सुखमय तथा पवित्र बनती हैंं अन्यथा इन की बहन देवी धूमावती या निऋति निर्धनता तथा अभाव के स्वरूप में वास करती हैंं। व्यापारी वर्ग, शासन से सम्बंधित कार्य करने वाले देवी की विशेष तौर पर अराधना, पूजा इत्यादि करते हैंं। देवी हिन्दू धर्म के अंतर्गत सबसे प्रसिद्ध हैंं तथा समस्त वर्गों द्वारा पूजिता हैंं, तंत्र के अंतर्गत देवी की पूजा तांत्रिक लक्ष्मी रूप से की जाती हैंं। तंत्रो के अनुसार भी देवी समृद्धि, सौभाग्य और धन प्रदाता हैंं।

देवी की विशेष रूप से पूजा अराधना दीपावली के दिन की जाती हैंं देवी से सम्बंधित दीपावली एक महा पर्व हैंं जो समस्त जातिओ द्वारा मनाई जाती हैंं। भारत वर्ष के पूर्वी भाग में रहने वाले, शक्ति पूजा से सम्बंधित समाज दीपावली के दिन देवी काली के विभिन्न रूपों की पूजा करते हैंं तथा अन्य भाग जो वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित हैंं देवी महा लक्ष्मी की पूजा करते हैंं। वास्तव मैं ये दोनों महा देवियाँ एक आद्या शक्ति कि ही दो अलग रूप हैंं। देवी का सम्बन्ध प्रकाश से होने के कारण दीपावली के पर्व को प्रकाश का पर्व भी कहा जाता हैंं तथा सभी अपने घरों तथा अन्य स्थानों पर सूर्य अस्त पश्चात् दीपक जलाते हैंं, देवी का आगमन करते हैंं।

देवी एक रूप में सच्चिदानंद मयी लक्ष्मी हैंं; जो भगवान विष्णु से अभिन्न हैंं तथा अन्य रूप में धन तथा समस्त प्रकृति संसाधनों की अधिष्ठात्री देवी हैंं। त्रिलोक में देवता, दैत्य तथा मानव देवी के कृपा के बिना पंगु हैंं। देवी कमला की अराधना स्थिर लक्ष्मी प्राप्ति तथा संतान प्राप्ति के लिया की जाती हैंं। अश्व, रथ, हस्ती के साथ उनका सम्बन्ध राज्य वैभव का सूचक हैंं।
समुद्र मंथन कर पुनः देवी लक्ष्मी (कमला) को प्राप्त करना तथा भगवान् विष्णु को विवाह हेतु चयनित करना।

देवी कमला का प्रादुर्भाव, समुद्र मंथन से संबंधित हैं।

मद, अहंकार में चूर इंद्र को दुर्वासा ऋषि ने शाप दिया कि देवता लक्ष्मी हीन हो जाये, जिसके परिणामस्वरूप देवता निस्तेज, सुख-वैभव से वंचित, धन तथा शक्ति हीन हो गए। दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदर्शों पर चल कर उनका शिष्य दैत्य राज बलि ने स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। समस्त देवता, सुख, वैभव, संपत्ति, समृद्धि से वंचित हो पृथ्वी पर छुप कर रहने लगे, उनका जीवन बड़ा ही कष्ट मय हो गया था। पुनः सुख, वैभव, साम्राज्य, सम्पन्नता की प्राप्ति हेतु भगवान् विष्णु के आदेशानुसार, देवताओं ने दैत्यों से संधि की तथा समुद्र का मंथन किया। जिससे १४ प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, जिनमें देवी कमला भी थीं।

भगवान श्री हरि की नित्य शक्ति देवी कमला के प्रकट होने पर, बिजली के समान चमकीली छठा से दिशाएँ जगमगाने लगी, उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सभी को अपने ओर आकर्षित किया। देवता, असुर, मनुष्य सभी देवी कमला को लेने के लिये उत्साहित हुए, स्वयं इंद्र ने देवी के बैठने के लिये अपने दिव्य आसन प्रदान किया। श्रेष्ठ नदियों ने सोने के घड़े में भर भर कर पवित्र जल से देवी का अभिषेक किया, पृथ्वी ने अभिषेक हेतु समस्त औषिधयां प्रदान की। गौओं ने पंचगव्य, वसंत ऋतु ने समस्त फूल-फल तथा ऋषियों ने विधि पूर्वक देवी का अभिषेक सम्पन्न किया। गन्धर्वों ने मंगल गान की, नर्तकियां नाच-नाच कर गाने लगी, बादल सदेह होकर मृदंग, डमरू, ढोल, नगारें, नरसिंगे, शंख, वेणु और वीणा बजाने लगे, तदनंतर देवी कमला हाथों पद्म (कमल) ले सिंहासन पर विराजमान हुई। दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उन्हें स्नान कराया, ब्राह्मणों ने वेद मन्त्रों का पाठ किया। समुद्र ने देवी को पीला रेशमी वस्त्र धारण करने हेतु प्रदान किया, वरुण ने वैजन्ती माला प्रदान की जिसकी मधुमय सुगंध से भौरें मतवाले हो रहे थे। विश्वकर्मा ने भांति-भांति के आभूषण, देवी सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्मा जी ने कामल और नागों ने दो कुंडल देवी कमला को प्रदान किये। इसके पश्चात् देवी कमला ने अपने हाथों से कमल की माला लेकर उसे सर्व गुणसम्पन्न, पुरुषोत्तम श्री हरि विष्णु के गले में डाल उन्हें अपना आश्रय बनाया, वर रूप में चयन किया।

लक्ष्मी जी को सभी (दानव, मनुष्य, देवता) प्राप्त करना चाहते थे, परन्तु लक्ष्मी जी ने श्री विष्णु का ही वर रूप में चयन किया, जिसके निम्न कारण थे। देवी कमला ने मन ही मन विचार किया, कोई महान तपस्वी थे परन्तु उनका क्रोध पर विजय नहीं था, कोई ज्ञानी था तो उसमें अनासक्त नहीं थीं, कोई बड़े महत्वशाली थे, परन्तु वे काम को नहीं जीत पाए थे। किसी के पास एश्वर्य बहुत हैं परन्तु, उन्हें दूसरों का सहारा लेना पड़ता हैं, कोई धर्मचारी तो हैं पर अन्य प्राणियों के प्रति प्रेम का बर्ताव नहीं हैं। किसी में त्याग तो हैं, परन्तु केवल मात्र त्याग ही मुक्ति का कारण नहीं बन सकता, कोई वीर हैं परन्तु काल के पंजे में हैं, कुछ महात्माओं में विषयासक्त नहीं हैं, परन्तु वे निरंतर अद्वैत समाधी में लीन रहते हैं। बहुत से ऋषि-मुनि ऐसे हैं, जिनकी आयु बहुत अधिक हैं परन्तु उनका शील-मंगल देवी के योग्य नहीं था, किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल वेश मैं रहते हैं, बचे एक केवल मात्र श्री विष्णु, उन्हीं में सर्व मंगलमय गुण सर्वदा निवास करते हैं तथा स्थिर रहते हैं। इस प्रकार सोच विचार कर श्री कमला जी ने चिर अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में, चयनित किया, उनमें सर्वदा सद्गुण निवास करते हैं।
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
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मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

शाबर धूमावती तंत्र साधना

शाबर धूमावती साधना :
दस महाविद्याओं में माँ धूमावती का स्थान सातवां है और माँ के इस स्वरुप को बहुत ही उग्र माना जाता है ! माँ का यह स्वरुप अलक्ष्मी स्वरूपा कहलाता है किन्तु माँ अलक्ष्मी होते हुए भी लक्ष्मी है ! एक मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया तो उस यज्ञ में शिव जी को आमंत्रित नहीं किया ! माँ सती ने इसे शिव जी का अपमान समझा और अपने शरीर को अग्नि में जला कर स्वाहा कर लिया और उस अग्नि से जो धुआं उठा )उसने माँ धूमावती का रूप ले लिया ! इसी प्रकार माँ धूमावती की उत्पत्ति की अनेकों कथाएँ प्रचलित है जिनमे से कुछ पौराणिक है और कुछ लोक मान्यताओं पर आधारित है !
नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध योगी सिद्ध चर्पटनाथ जी माँ धूमावती के उपासक थे ! उन्होंने माँ धूमावती पर अनेकों ग्रन्थ रचे और अनेकों शाबर मन्त्रों की रचना भी की !
यहाँ मैं माँ धूमावती का एक प्रचलित शाबर मंत्र दे रहा हूँ जो बहुत ही शीघ्र प्रभाव देता है !
कोर्ट कचहरी आदि के पचड़े में फस जाने पर अथवा शत्रुओं से परेशान होने पर इस मंत्र का प्रयोग करे !
माँ धूमावती की उपासना से व्यक्ति अजय हो जाता है और उसके शत्रु उसे मूक होकर देखते रह जाते है !
|| मंत्र ||
ॐ पाताल निरंजन निराकार
आकाश मंडल धुन्धुकार
आकाश दिशा से कौन आई
कौन रथ कौन असवार
थरै धरत्री थरै आकाश
विधवा रूप लम्बे हाथ
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव
डमरू बाजे भद्रकाली
क्लेश कलह कालरात्रि
डंका डंकिनी काल किट किटा हास्य करी
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते
जाया जीया आकाश तेरा होये
धुमावंतीपुरी में वास
ना होती देवी ना देव
तहाँ ना होती पूजा ना पाती
तहाँ ना होती जात न जाती
तब आये श्री शम्भु यती गुरु गोरक्षनाथ
आप भई अतीत
ॐ धूं: धूं: धूमावती फट स्वाहा !
|| विधि ||
41 दिन तक इस मंत्र की रोज रात को एक माला जाप करे ! तेल का दीपक जलाये और माँ को हलवा अर्पित करे ! इस मंत्र को भूल कर भी घर में ना जपे, जप केवल घर से बाहर करे ! मंत्र सिद्ध हो जायेगा !
|| प्रयोग विधि १ ||
जब कोई शत्रु परेशान करे तो इस मंत्र का उजाड़ स्थान में 11 दिन इसी विधि से जप करे और प्रतिदिन जप के अंत में माता से प्रार्थना करे –
“ हे माँ ! मेरे (अमुक) शत्रु के घर में निवास करो ! “
ऐसा करने से शत्रु के घर में बात बात पर कलह होना शुरू हो जाएगी और वह शत्रु उस कलह से परेशान होकर घर छोड़कर बहुत दुर चला जायेगा !
|| प्रयोग विधि २ ||
शमशान में उगे हुए किसी आक के पेड़ के साबुत हरे पत्ते पर उसी आक के दूध से शत्रु का नाम लिखे और किसी दुसरे शमशान में बबूल का पेड़ ढूंढे और उसका एक कांटा तोड़ लायें ! फिर इस मंत्र को 108 बार बोल कर शत्रु के नाम पर चुभो दे !
ऐसा 5 दिन तक करे , आपका शत्रु तेज ज्वर से पीड़ित हो जायेगा और दो महीने तक इसी प्रकार दुखी रहेगा !
नोट – इस मंत्र के और भी घातक प्रयोग है जिनसे शत्रु के परिवार का नाश तक हो जाये ! किसी भी प्रकार के दुरूपयोग के डर से मैं यहाँ नहीं लिखना चाहता ! इस मंत्र का दुरूपयोग करने वाला स्वयं ही पाप का भागी होगा !कोई भी जप-अनुष्ठान करने से पूर्व मंत्र की शुद्धि जांचा लें ,विधि की जानकारी प्राप्त कर लें तभी प्रयास करें |गुरु की अनुमति बिना और सुरक्षा कवच बिना तो कदापि कोई साधना न करें |उग्र महाशक्तियां गलतियों को क्षमा नहीं करती कितना भी आप सोचें की यह तो माँ है |उलट परिणाम तुरत प्राप्त हो सकते हैं |अतः बिना सोचे समझे कोई कार्य न करें |पोस्ट का उद्देश्य मात्र जानकारी उपलब्ध करना है ,अनुष्ठान या प्रयोग करना नहीं |अतः कोई समस्या होने पर हम जिम्मेदार नहीं होंगे |.................................
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

प्रथम महाविद्या महाकाली


प्रथम महाविद्या काली (दस महाविद्या)

दस महाविद्या में काली का स्थान पहला है। उनके बारे में सबसे ज्यादा ग्रंथ लिखे गए हैं। उनमें से अधिकतर लुप्त हो चुके हैं। उनकी महिमा निराली है। क्रोध में भरी एवं दुष्टों के संहार में करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली माता भक्तों पर हमेशा कृपा बरसाती रहती हैं। वह अपने साधक भक्तों को समय-समय पर अपनी उपस्थिति का आभास भी कराती रहती हैं। विभिन्न ग्रंथों में इनके कई नाम और भेद हैं जो विशिष्ट ज्ञान के लिए ही जरूरी है। सामान्य तौर पर इनके दो रूप ही अधिक प्रचलित हैं। वे श्यामा काली (दक्षिण काली) और सिद्धिकाली (गुह्य काली) जिन्हें काली नाम से भी पुकारा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, वरुण, कुबेर, यम,, महाकाल, चंद्र, राम, रावण, यम, राजा बलि, बालि, वासव, विवस्वान सरीखों ने इनकी उपासना कर शक्तियां अर्जित की हैं। इनके रूपों की तरह मंत्र भी अनेक हैं लेकिन सामान्य साधकों को उलझन से बचाने के लिए उनका जिक्र न कर सीधे मूल मंत्रों पर आता हूं।

एकाक्षरी मंत्र-- क्रीं
इसके ऋषि भैरव ऋषि, गायत्री छंद, दक्षिण काली देवी, कं बीज, ईं शक्ति: एवं रं कीलकं है। यह अत्यंत प्रभावी व कल्याणकारी मंत्र है। इसकी साधना से ही राजा विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई थी। शवरूढ़ां महाभीमां घोरद्रंष्ट्रां वरप्रदम् से ध्यान कर एक लाख जप कर दशांश हवन करें।

करन्यास व हृदयादि न्यास-- ऊं क्रां, ऊं क्रीं, ऊं क्रूं, ऊं क्रैं, ऊं क्रौं, ऊं क्रं, ऊं क्र: से करन्यास व हृदयादि न्यास करें।

द्वयक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं
ऋषि भैरव, छंद गायत्री, बीज क्रीं, शक्ति स्वाहा, कीलकं हूं है। बाकी पूर्वोक्त तरीके से करें।

काली पूजा प्रयोग
काली पूजा के सभी मंत्रों में 22 अक्षर वाले मंत्र को सबसे प्रभावी माना गया है। अन्य मंत्रों  के प्रयोग में इसी मंत्र के अनुरूप पूजाविधान और यंत्रार्चन किया जाता है। इसका प्रयोग बेहद उग्र और आज की स्थिति में थोड़ी कठिन है। अत: मैं सामान्य जानकारी तो दूंगा पर साथ ही सलाह भी है कि सामान्य साधक इसके कठिन प्रयोग से बचें। यदि तीव्र इच्छा हो और उसी क्षेत्र में आगे बढऩा चाहते हों तो योग्य गुरु के निर्देशन में इसे करें।

बाइस अक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।

विनियोग-- अस्य मंत्रस्य भैरव ऋषि:, उष्णिक् छंद:, दक्षिण कालिका देवता, ह्रीं बीजं, हूं शक्ति:, क्रीं कीलकं सर्वाभिष्ट सिद्धेयर्थे जपे विनियोग:।

अंगन्यास--  ऊं कुरुकुल्लायै नम: मुखे, ऊं विरोधिन्यै नम: दक्षिण नासिकायां, ऊं विप्रचित्तायै नम: वाम नासिकायां, ऊं उग्रायै नम: दक्षिण नेत्रे, ऊं उग्रप्रभायै नम: वाम नेत्रे, ऊं दीप्तायै नम: दक्षिण कर्णे, ऊं नीलायै नम: वाम कर्णे, ऊं घनायै नम: नाभौ, ऊं बालाकायै नम: हृदये, ऊं मात्रायै नम: ललाटे, ऊं मुद्रायै नम: दक्षिण स्कंधे,  ऊं मीतायै नम: वाम स्कंधे।  इसके बाद बूतशुदिध आदि कर्म करें। ह्रीं बीज से प्राणायाम करें।

ऋष्यादि न्यास-- भैरव ऋषिये नम: शिरसि, उष्णिक छंदसे नम: हृदि, दक्षिणकालिकायै नम: हृदये, ह्रीं बीजाय नम: गुह्ये, हूं शक्तये नम: पादयो:, क्रीं कीलकाय नम: नाभौ। विनियोगाय नम: सर्वांगे।

षडंगन्यास-- ऊं क्रां हृदयाय नम:, ऊं क्रीं शिरसे स्वाहा, ऊं क्रूं शिखायै वषट्, ऊं क्रैं कवचाय हुं, ऊं क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ऊं क्र: अस्त्राय फट्।

ध्यान
चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुंडमाला विभूषिताम्,
खडग च दक्षिणो पाणौ विभ्रतीन्दीवर-द्वयम्।
द्यां लिखंती जटायैकां विभतीशिरसाद्वयीम्,
मुंडमाला धरां शीर्षे ग्रीवायामय चापराम्।।
वक्षसा नागहारं च विभ्रतीं रक्तलोचनां,
कृष्ण वस्त्रधरां कट्यां व्याघ्राजिन समन्विताम्।
वामपदं शव हृदि संस्थाप्य दक्षिण पदम्,
विलसद् सिंह पृष्ठे तु लेलिहानासव पिबम्।।
सट्टहासा महाघोरा रावै मुक्ता सुभीषणा।।

विधि एवं फल-- सूने घर, निर्जन स्थान, वन, मंदिर (काली को हो तो श्रेष्ठ), नदी के किनारे एवं श्मशान में इस मंत्र के जप से विशेष और शीघ्र फल की प्राप्ति होती है।  22 अक्षर मंत्र का दो लाख जप कर कनेर के फूलों से दशांश हवन करना चाहिए। काली की नियमित उपासना करने का मतलब यही होत है कि साधक उच्चकोटि का है और उसने पहले ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गौरी, गणेश, सूर्य और कुछ महाविद्या की उपासना कर ली है और अब वह साधना के चरम की ओर अग्रसर हो रहा है।
कुछ कठिन प्रयोग-- जो साधक स्त्री की योनि को देखते हुए दस हजार जप करता है, वह ब़हस्पति के समान होकर लंबी आयु और काफी धन पाता है। बिखरे बालों के साथ नग्न होकर श्मशान में दस हजार जप करने से सभी कामनाएं सिद्ध होती हैं। हविष्यान्न का सेवन करता हुआ जप करे तो विद्या, लक्ष्मी एवं यंश को प्राप्त करेगा।

गुह्यकाली के कुछ मंत्र

1-नवाक्षर--  क्रीं गुह्ये कालिका क्रीं स्वाहा।
2-चतुर्दशाक्षर मंत्र--  क्रौं हूं ह्रीं गुह्ये कालिके हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
3-पंचदशाक्षर मंत्र--  हूं ह्रीं गुह्ये कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।

ध्यान
द्यायेन्नीलोत्पल श्यामामिन्द्र नील समुद्युतिम्। धनाधनतनु द्योतां स्निग्ध दूर्वादलद्युतिम्।।
ज्ञानरश्मिच्छटा- टोप ज्योति मंडल मध्यगाम्। दशवक्त्रां गुह्य कालीं सप्त विंशति लोचनाम्।।
श्री राम ज्योतिष सदन
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शैतानी आंख यानि नजर दोष


वास्तव में बहुत ही अधिक ध्यान रखने वाली बात है कि शैतानी-आंख यानी नजर दोष से बच्चों को बचाने के लिये लाल रंग का धागा बच्चे के गले में होना जरूरी है,क्योंकि प्रोफ़ेसर डुन्डेज की थ्योरी के अनुसार बच्चों के अन्दर सूखापन पैदा करने और बच्चे के जीवन रक्षक तरलता को सोखने के लिये नजर दोष यानी शैतानी-आंख का बहुत बडी भूमिका बनती है। उन्होने एक बहुत बडा तथ्य लिखा है कि शैतानीं आंख का शिकंजा मछलियों पर नहीं पडता है,अगर घर के अन्दर मछलियां रखीं जावें,या बच्चों के नाम मछली के नामों से सम्बन्धित रखे जावें,अथवा उनके गले में मछली को पकडने वाले कांटे का छल्ला बनाकर डाला जावे,अथवा जल से सम्बन्धित कोई चीज बच्चे के पास रहे जैसे कौडी शंख से बनी वस्तु सीप से पिलाया जाने वाला दूध,मोती आदि। इसके बाद इन वस्तुओं को जेविस लोग जब सूर्य मीन राशि में होता तब पहिनना उत्तम मानते है,इसके अलावा वे जिन्हे नजर अधिक लगती है उन्हे मीन के ही सूर्य के समय में एक छोटे से सिक्के पर जो चांदी का बना होता है,उस पर उस बच्चे या व्यक्ति का नाम सिक्के के नीचे वाले हिस्से पर लिखवाकर भी पहिनाते हैं।

महिलाओं के अन्दर शैतानीं आंख बहुत अधिक प्रभावित होती है,इस बात को जेविस लोग भी मानते है,उनका कहना है कि प्रत्येक सुन्दर महिला को अपनी सुन्दरता बनाये रखने के लिये अपने शरीर को सफ़ेद या काले कपडे से छुपाकर रखना चाहिये,जो महिलायें अपनी हठधर्मी से अपने शरीर का प्रदर्शन करतीं है उनके जीवन में कोई बडी सफ़लता नहीं मिलती है,वे जीवन के किसी न किसी क्षेत्र से कट जातीं है,या तो उनके अन्दर चरित्रहीनता आजाती है अथवा वे अपनी संतान को भटकता हुआ छोड कर अन्य पति के पास चलीं जातीं है,अथवा उनका सुह्रदय बदल कर कठोरता में बदल जाता है और जीवन के सभी आयामों में वे केवल धन की ही चाहत रखतीं है। जेविस लोगों ने गर्म प्रदेशों में रहने वाली महिलाओं के लिये नियम बनाये थे कि वे अगर शरीर को खुला भी रखना चाहतीं है तो माथे पर लाल रंग की बिन्दी या गले में लाल या काले रंग का धागा अवश्य डालकर रखा करें।
सिसली और दक्षिणी इटली के लोगों की मान्यता है कि कुछ लोग बिना किसी कारण के ही दूसरों पर अपनी शैतानी आंख का प्रभाव डालते हैं। जो लोग बिना कारण के ही दूसरों की प्रोग्रेस को देख कर जलते है,उनकी आंख के अन्दर एक प्रोजेक्सन क्षमता का विकास अपने आप हो जाता है,ऐसे लोगों को उनकी भाषा में जेट्टोरस या ओसियो कहा जाता है,पहिचान में कहा जाता है कि ऐसे लोगों की प्रक्रुति हमेशा नकारात्मक सोचने की होती है,जैसे - "तुम्हारे पास तो सब कुछ है,मेरे पास कुछ भी नही है",अथवा "तुम्हारा पति तो तुम्हे बहुत प्यार करता है,हमारा नहीं",अथवा "तुम्हारे जैसा मैं भी कभी धनवान था,लेकिन भगवान ने सब कुछ ले लिया",अथवा "तुम्हारा ज्ञान तो बहुत बडा है,मेरे पास है ही नहीं",कई लोगों को जो इस तरह का जो नजर दोष देते है उनकी भाव भंगिमा बिलकुल थके हुये व्यक्ति जैसी होती है,और इस प्रकार के लोगों को घर आने पर पहले पानी जरूर पिलाना चाहिये।

संसार के मध्यवर्ती भागों में विशेषत: ग्रीस और टर्की में जो लोग नीली आंखों वाले अथवा कंजे होते है,उन्हे नजर देने वाले दोष से युक्त कहा जाता है। कुछ देशों में अगर समझ लिया जाता है कि उनके बच्चे को या फ़ल वाले वृक्ष को अथवा दूध देने वाले जानवर को अथवा व्यवसाय स्थान को नजर लगी है तो झाडा लगाने वाले के पास जाते हैं,और उससे झाडा लगवाते है,सबसे पहले झाडा लगाने वाला व्यक्ति उस नजर से ग्रसित व्यक्ति अथवा वस्तु के आसपास थूंकता है,फ़िर उस कारक को छूकर ध्यानावस्था मे जाकर कहता है "नजर दोष दूर हो",अगर झाडा लगाने वाला नजर को नही उतार पाता है तो कारक से सम्बन्धित व्यक्ति अन्य उपाय करता है,और जो भी उसके जानकार होते है उनसे कहता रहता है।

किसी पब्लिक प्लेस पर बच्चे को ले जाते समय लोग बच्चों के माथे पर किसी न किसी प्रकार का टीका राख या धूल अथवा काजल का लगा देते है,जिससे बच्चे की सुरक्षा शैतानी आंख वाले से बनी रहती है। अगर कोई बच्चे को कह देता है कि "कितना सुन्दर बच्चा है",तो फ़ौरन उस बच्चे की मां कहती है "कहाँ सुन्दर है कितना गन्दा बच्चा है",इसके साथ ही ग्रीस में नजर से ग्रसित कारक को पत्थर से उतारा भी किया जाता है,एक पत्थर को ग्रसित व्यक्ति या वस्तु से उतारा करने के बाद उसे खुले आसमान के नीचे फ़ेंक देते है,वहाँ भी यही पहिचार होती है कि अगर नजर दोष से कोई कारक ग्रसित है तो बच्चे को उल्टी दस्त होने लगते है,व्यवसाय में अक्समात कमी आजाती है,दूध देने वाले जानवर के स्तनों में खून आने लगता है अथवा वह दूध देना अक्समात बन्द कर देता है,विद्यार्थी का दिमाग अक्समात शिक्षा से दूर भागने लगता है। इटली मे नजर से ग्रसित व्यक्ति बच्चा दूध पिलाने वाली माँ फ़ल वाले वृक्ष दूध देने वाले जानवर जनता के अन्दर चलने वाली दुकाने अगर किसी व्यक्ति से ग्रसित मालुम पडती हैं,तो उस व्यक्ति की पहिचान के लिये लोग एक दूसरे को एक तरह के इशारे से सावधान करते है,इस इशारे को "मानिफ़िको" करते है,जिसमे दाहिने हाथ की बीच की और अनामिका उंगली को मोड कर अंगूठे से दबाकर तर्जनी और कनिष्ठा को खडा करने के बाद उसे सींग वाले जानवर की शक्ल दी जाती है,इस प्रकार के इशारे से जानकार या अन्य लोग समझजाते है कि उनके आसपास कोई नजर देने वाला व्यक्ति है।

जैविस लोग जब समझ जाते है कि उनके किसी कारक को नजर दोष लगा है तो वे उस कारक के पास तीन बार थूकते है,और तीन बार ही "पेह पेह पेह" कहते है,नमक को उतारा करने के बाद घर के बाहर फ़ेंकते हैं,और अपनी भाषा में कहते हैं - "केइन अयन हारा" (शैतानी आंख नहीं),और दूसरा तरीका वे प्रयोग करते है जब उनको लगता है उनका नजर दोष दूर नही हुआ है तो वे सीधे हाथ का अंगूठा उल्टे हाथ में और उल्टे हाथ का अंगूठा सीधे हाथ में उंगलियों से दबाकर ईश्वर से प्रार्थना करते है कि उनका कारक नजर दोष से दूर हो जाये।
ईरान अफ़गानिस्तान पाकिस्तान भारत ताजिकिस्तान में मुस्लिम लोग अपने बच्चे को नजर दोष से ग्रसित होने पर गूगल का धुंआ देते हैं,इसके साथ ही तारामीरा के बीजों को ग्रसित व्यक्ति अथवा कारक के ऊपर उसारा करने के बाद जला देते हैं,उनका विश्वास है कि गूगल या तारामीरा के धुंये से नजरदोष दूर हो जाता है। भारत के अन्दर नीम के पत्तों से झाडा भी दिया जाता है,फ़कीर लोग मोर पंख से व्यक्ति के अन्दर झाडा देते वक्त एन्टीस्टेटिक इनर्जी का प्रयोग करते है जिससे यह दोष दूर हो जाता है। इन देशों में बच्चे की नजर के लिये पहिचान की जाती है कि बच्चे को नजर दोष लगा है तो सबसे पहले उसके मुंह से लार बहनी शुरु हो जाती है,अथवा वह आंखें बन्द कर लेता है और मुंह से फ़ैन आना चालू हो जाता है फ़िर बच्चे को दस्त लगने शुरु हो जाते है,और डायरिया जैसी बीमारी होने के बाद बच्चा लगातार कमजोर होने लगता है,पढे लिखे लोग जो इन बातों पर विश्वास नहीं करते है पहले किसी डाक्टर के पास ले जाते हैं,फ़िर जब कोई दवा काम नही करती है तो उनको समझ में आता है कि बच्चा नजर दोष से ग्रसित है।

शैतानी-आंख से ग्रसित कारकों में पहिचान करने के बाद झाडा-फ़ूंकी जो विभिन्न स्थानों देशों में विभिन्न प्रकार से की जाती है,पानी तेल और मसले हुये मोम का तरल पदार्थ आदि प्रयोग किये जाते है,उसके अलावा प्राकृतिक कारक जिनके अन्दर प्रकृति के द्वारा तरल पदार्थ भरा होता है जैसे अंडा आदि को उतारा करने के बाद विभिन्न स्थानों में रखते हैं,इस तरह के काम एक नाटकीय काम करते है और नजर दोष से ग्रसित कारक ठीक हो जाता है। पूर्वी यूरोप में पानी की परात में जलता हुआ कोयला अथवा माचिस की तीली को नजर से ग्रसित कारक के सामने डालते है,अगर वह वास्तव में ग्रसित है तो पानी के अन्दर जलता हुआ कोयला अथवा माचिस की तीली डालते हुये वह भभक उठता है,तो समझ लिया जाता है कि कारक नजर दोष से पीडित है।

यूक्रेन में मसला हुआ मोम पवित्र पानी के कटोरे में डाला जाता है,अगर कारक नजर दोष से पीडित है तो वह मोम धीरे धीरे कटोरे के किनारों पर जाकर चिपक जाता है,एक गुप्त प्रार्थना जो महिलाओं को ज्ञात होती है,वे करतीं है और उस पानी के द्वारा कारक को नहलाते है अथवा छिडकते है,अगर कारक नजर दोष से दूर हो जाता है तो वह मोम पवित्र पानी के ऊपर तैरता है और कारक नजर दोष से दूर नही है तो मोम पानी के अन्दर कटोरे की तली में बैठ जाता है। ग्रीस और मैक्सिको तथा अन्य देशों में पवित्र पानी कारक के ऊपर छिडका जाता है या व्यक्ति विशेष को पिलाया जाता है,इसके अलावा व्यक्ति अथवा स्थान पर पानी से क्रास बनाया जाता है। इटली में बहते हुये पानी में नजर दोष के लिये एक प्रयोग और किया जाता है जिसमें आलिव आयल को बहते पानी मे नजर दोष से पीडित व्यक्ति या बच्चे के सामने बूंद बूंद करके टपकाया जाता है,अगर वह तेल पानी के अन्दर एक साथ मिलकर चलता है तो समझा जाता है कि व्यक्ति या बच्चा नजर दोष से ग्रसित है और अगर अलग अलग बहता है तो समझ लिया जाता है कि नजर दोष दूर हो चुका है। मैक्सिको में एक कच्चे अंडे को बच्चे के ऊपर रोल करने के बाद उसके सोने वाले स्थान के नीचे रख दिया जाता है,और सुबह को उसे तोडा जाता है अगर वह कठोर हो गया है तो समझा जाता है कि बच्चा नजर दोष से पीडित है। इसी तरह से अंडे को पीडित स्थान या व्यक्ति के ऊपर से उसारा करने के बाद एक स्थान पर रख दिया जाता है अगर बारह घंटे बाद उस अंडे पर एक मटमैली से परत बनती है तो किसी पुरुष के द्वारा नजर दोष दिया गया है और अगर उस अंडे पर एक आंख का निशान बनता है तो नजर दोष स्त्री के द्वारा दिया गया है। इसी प्रकार का एक प्रयोग मैक्सिको में किया जाता है कि दो अंडों को एक साथ मगाया जाता है,ग्रसित कारक या वस्तु के ऊपर एक अंडे को उतारा जाता है,और उसे फ़ोड कर एक प्याले में रखकर उस अंडे के तरल पदार्थ से व्यक्ति या बच्चे के माथे पर व्यवसायिक स्थान के धन रखने वाले स्थान पर क्रास का निशान बनाया जाता है,दूसरे अंडे को उस स्थान पर या व्यक्ति अथवा बच्चे पर उतारा करने के बाद एक एकान्त जगह पर रख दिया जाता है,बारह घंटे के बाद उस दूसरे वाले अंडे को तोडा जाता है तो वह उबले हुये अंडे की तरह से निकलता है,उसे शाम को किसी बेकार के स्थान पर फ़ेंक दिया जाता है।
ओं रां रामाय नम:
आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...