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मंगलवार, 16 अप्रैल 2019
ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो अघोरघोरेतरेभ्यः । सर्वतः शर्वः सर्वेभ्यो नमस्ते रुद्र रूपेभ्यः ॥ सभी धर्मों में पूजा स्थान श्मशानों या मरघटी से जुड़े हैं, क्योंकि केवल मृत्यु के प्रति सजगता ही वैराग्य ला सकती है, मनुष्य के ज्ञान में स्थित कर सकती है। भारतीय पुराणों के अनुसार शिव का वास कैलाश पर्वत है और साथ ही श्मशान भूमि भी। कैलास का अर्थ है ‘जहां केवल उत्सव है’ और श्मशान का अर्थ है ‘जहां केवल शून्य है’ तो दिव्यता शून्यता में भी है और उत्सव में भी। आपसे(मनुष्य) ही शून्य है, आपसे(मनुष्य) ही उत्सव है। अघोर जो संसार की किसी भी वस्तु को घोर यानी विभत्स नहीं मानते। श्मशान में ही शिव का वास होता है। अघोर मूर्दों में भगवान ढूंढते हैं। अघोर न किसी वस्तु से घृणा करते हैं और न ही प्रेम। अघोर का मानना होता है कि वे लोग जो दुनियादारी और गलत कार्यों के लिए तंत्र साधना करते है अतं में उनका अहित होता है। महिशानाम परो देवों महिमानम परास्तुति.. अघोरानाम परो मंत्रो नास्ति तत्वों गुरु परम.. काल भी जिससे घबराता है, ऐसे महाकाल और महाकाली के चरणों में मै साष्टांग प्रणाम करता हूं। जिससे कई जन्मों जन्मांतर के पाप स्वतः नष्ट हो जाते है .. हर हर महादेव .जय महाकाल .............अघोरी हूँ महादेव अघोरी ............हरी ॐ .....हरी ॐ अघोर और अघोरी के बारे में, समाज में अजीबो-गरीब धारणा है. धारणा क्या, बल्कि ग़लतफ़हमी है. ये ग़लतफ़हमी कई वज़हों से है! अघोर का साफ़ मतलब है अ+घोर ! यानी, जो कठिन ना हो. सरल हो, सहज हो. पर तमाम लोगों ने इसे इतना घोर बना दिया कि, अब इसे भय का पर्याय माना जाने लगा है. किसी भी जगह का सही आकलन, उस जगह के केंद्रबिंदु पर जा कर ही मुमकिन है. पर अघोर के केंद्र बिंदु पर जाने से पहले, थोड़ी सी चर्चा अघोर के बारे में कर ली जाए तो बेहतर होगा. अघोर, एक अवस्था है, संभवतः , आध्यात्मिकता का सर्वोच्च शिखर ! जहां बिरले ही पहुँच पाते हैं. अरबों-खरबों में कोई एक ! इस पद पर पहुँचाने के बाद, रिद्धी-सिद्धी और चमत्कार का कोई मतलब नहीं रह जाता. इन सब बाधाओं को पार कर ही, एक योगी अघोर के पद पर पहुँचता है. और उस अवस्था में रिद्धी-सिद्धी, चमत्कार उसकी वाणियों में ही समा जाते हैं. इच्छा मात्र से ही हर पल-हर मनचाही चीज़ हो जाती है. अघोर की अवस्था में आते ही, योगी *शिवत्व* के रूप में हो जाता है. जहां कुछ भी नामुकिन नहीं है. ये अघोर का असली रूप है. ,,,,,,,,,,,.हरी ॐ .....हरी ॐ मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है। तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं। यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि। यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।
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