Saturday 11 September 2021

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कमजोर शुभ कैसे करे।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कमजोर ग्रहों से शुभ प्रभाव लेने के लिए हम उन्हें रत्न द्वारा बल देते है .. रत्न मुख्यतः नौ प्रकार के होते है जैसे सूर्य के लिए माणिक, चन्द्र के लिए मोती, मंगल के लिए मूँगा, बुध के लिए पन्ना, गुरु के लिए पुखराज, शुक्र के लिए हीरा, शनि के लिए नीलम, राहु के लिए गोमेद, केतु के लिए लहसुनियाँ सभी रत्नों का उप रत्न भी होता है जितना अच्छा रत्न होता है उसका प्रभाव भी उतना अधिक होता है , सभी रत्नों का उनके ग्रहों के अनुसार दिन और अंगुलिया निर्धारित की गई है, रत्नों को शुभ समय में धारण करे , इसके अन्दर दैवीय शक्तिया होती है .. आज कई लोग इसे पाखंड मानते है अगर ऐसा है तो मूंगा नीलम और मानिक एक ही हाँथ में पहन कर देखे . इन्शान अपने आप समझ जायेगा की कुछ तो है इसके अन्दर .. बस रत्नों के प्रति आदर सत्कार और सम्मान होना चाहिए .. मानो तो ये गंगा जल है ना मानो तो बहता पानी .. कभी भी राशियों के हिसाब से रत्न ना पहने हमेशा कुंडली के द्वारा शुभ ग्रहों की स्थिति को देखते हुए रत्न का चुनाव करे ..
सामान्यत: रत्नों के बारे में भ्रांति होती है जैसे विवाह न हो रहा हो तो पुखराज पहन लें, मांगलिक हो तो मूँगा पहन लें, गुस्सा आता हो तो मोती पहन लें। मगर कौन सा रत्न कब पहना जाए इसके लिए कुंडली का सूक्ष्म निरीक्षण जरूरी होता है। लग्न कुंडली, नवमांश, ग्रहों का बलाबल, दशा-महादशाएँ आदि सभी का अध्ययन करने के बाद ही रत्न पहनने की सलाह दी जाती है। लग्न कुंडली के अनुसार कारकर ग्रहों के (लग्न, पंचम, नवम,) रत्न पहने जा सकते हैं .रत्न पहनने के लिए दशा-महादशाओं का अध्ययन भी जरूरी है। केंद्र या त्रिकोण के स्वामी की ग्रह महादशा में उस ग्रह का रत्न पहनने से अधिक लाभ मिलता है।
3, 6, 8, 12 के स्वामी ग्रहों के रत्न नहीं पहनने चाहिए। इनको शांत रखने के लिए दान-मंत्र जाप का सहारा लेना चाहिए। किसी भी लग्न के तीसरे, छठे, सातवें, आठवें और व्यय भाव यानी बारहवें भाव के स्वामी के रत्न नहीं पहनने चाहिए।
कौन सा रत्न किस धातु में पहने इसका भी बड़ा प्रभाव होता है जैसे
मोती -- चांदी में , हीरा, पन्ना , माणिक्य , नीलम , पुखराज -सोने में , और लहसुनिया -गोमेद - पंचधातु में पहनने से अधिक लाभ होता है , 
आज कल बाजार में नकली रत्न बहुत सारे आ रहे है, इसलिए रत्न लेने से पहले उसे पहले जाँच या परख कर के ही ख़रीदे ,रत्नों में अद्भूत शक्ति होती है. रत्न अगर किसी के भाग्य को आसमन पर पहुंचा सकता है तो किसी को आसमान से ज़मीन पर लाने की क्षमता भी रखता है. रत्न के विपरीत प्रभाव से बचने के लिए सही प्रकर से जांच करवाकर ही रत्न धारण करना चाहिए. ग्रहों की स्थिति के अनुसार रत्न धारण करना चाहिए. रत्न शरीर से टच होने चाहिए , क्योंकी रत्नों का काम सूर्य से उर्जा लेकर उसे शरीर में प्रवाहित करना होता है ,
रत्न को धारण करने से पूर्व उसे पहले गंगाजल अथवा पंचामृत से स्नान करायें.उसके बाद रत्न को स्थापित करें. शुद्ध घी का दीपक जलाकर रत्न के अधिष्ठाता ग्रह के मन्त्र का पूर्ण संख्या में जाप करने के पश्चात उस रत्न को धारण करें।

लघु श्रीगणेश पूजन

लघु श्रीगणेश पूजन
यह एक छोटा गणेश भगवान का पूजन है जिसे आप लगभग 10 मिनट मे सम्पन्न कर सकते हैं।

पहले गुरु स्मरण ,गणेश भैरव महालक्ष्मी स्मरण करे ।
ॐ गुं गुरुभ्यो नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ भ्रम भैरवाय  नमः 
ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः

अब आप 4 बार आचमन करे दाए हाथ में पानी लेकर पिए ।
गं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं शिव तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा

अब आप घंटा नाद करे और उसे पुष्प अक्षत अर्पण करे।
घंटा देवताभ्यो नमः

अब आप जिस आसन पर बैठे है उस पर पुष्प अक्षत अर्पण करे।
आसन देवताभ्यो नमः

अब आप दीपपूजन करे उन्हें प्रणाम करे और पुष्प अक्षत अर्पण करे
दीप देवताभ्यो नमः

अब आप कलश का पूजन करे ..उसमेगंध ,अक्षत ,पुष्प ,तुलसी,इत्र ,कपूर डाले ..उसे तिलक करे ।
कलश देवताभ्यो नमः

अब आप अपने आप को तिलक करे।

फिर संक्षिप्त गुरु पुजन करे
ॐ गुं गुरुभ्यो नम: ।
ॐ परम गुरुभ्यो नम: ।
ॐ पारमेष्ठी गुरुभ्यो नम: ।

उसके बाद गणपति का ध्यान करे।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येशु सर्वदा

उनका आह्वान करें अर्थात बुलाएं 
श्री महागणपति आवाहयामि
मम पूजन स्थाने रिद्धि सिद्धि सहित शुभ लाभ सहित स्थापयामि नमः

उनका स्वागत करें , फूल आदि चढ़ाएं 
त्वां चरणे गन्धाक्षत पुष्पं समर्पयामि ।

पंचोपचार पूजन करें।

ॐ गं " लं" पृथ्वी तत्वात्मकं गंधं समर्पयामि । 
कुमकुम,चन्दन अष्टगंध चढ़ाएँ ।

ॐ गं " हं" आकाश तत्वात्मकं पुष्पम समर्पयामि । 
फूल चढ़ाएँ ।

ॐ गं " यं " वायु तत्वात्मकं धूपं समर्पयामि । 
धूप या अगरबत्ती दिखाएँ ।

ॐ गं " रं" अग्नी तत्वात्मकं दीपं समर्पयामि । 
दीपक दिखाएँ ।

ॐ गं " वं " जल तत्वात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि । 
प्रसाद चढ़ाएँ ।

अब गणेशजी को अर्घ्य प्रदान करे, एक चम्मच जल चढ़ाएं ।
एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात।

 भगवान गणेश जी के 16 नाम से दूर्वा या पुष्प अक्षत या जल अर्पण करे।

1. ॐ गं सुमुखाय नम: । 
2. ॐ गं एकदंताय नमः।
3. ॐ गं कपिलाय नमः।
4. ॐ गं गजकर्णकाय नमः।
5. ॐ गं लंबोदराय नमः।
6. ॐ गं विकटाय नम: । 
7. ॐ गं विघ्नराजाय नमः।
8. ॐ गं गणाधिपाय नम: । 
9. ॐ गं धूम्रकेतवे नम : । 
10 . ॐ गं गणाध्यक्षाय नमः।
11. ॐ गं भालचंद्राय नमः।
12. ॐ गं गजाननाय नम: । 
13. ॐ गं वक्रतुंडाय नमः।
14. ॐ गं शूर्पकर्णाय नमः।
15. ॐ गं हेरंबाय नमः।
16. ॐ गं स्कंदपूर्वजाय नमः।

अब एक आचमनी जल लेकर पूजा स्थान पर छोड़े।
अनेन महागणपति षोडश नाम पूजनेन श्री भगवान महागणपति प्रीयन्तां न मम।

हाथ जोड़ कर भगवान गणेश जी से प्रार्थना करे।

श्री गणेश अष्टोत्तर शत नाम

श्री गणेश अष्टोत्तर शत नाम

गणेेेश भगवान की साधना सरल है। और उसमें बहुत ज्यादा विधि-विधान और जटिलता की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए सर्वसामान्य में गणेश भगवान की पूजन का बहुत ज्यादा प्रचलन है जो हम गणेशोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष देखते हैं ।
गणेश भगवान के पूजन के लिए आप पंचोपचार व षोडशोपचार जैसे पूजन विधान का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन उसमें संस्कृत श्लोकों का ज्यादा प्रयोग होता है जो पढ़ने में सामान्य जन को थोड़ी दिक्कत होती है ।
अष्टोत्तर शतनाम का मतलब होता है गणेश भगवान के 108 नाम के साथ उनका प्रणाम करते हुए पूजन करना जोकि सरल है और हर कोई कर सकता है ।

आप इन नाम का उच्चारण करने के बाद हर बार नम: बोलते समय अपनी श्रद्धा अनुसार
फूल,
चावल के दाने,
अष्टगंध,
दूर्वा ,
चंदन या जो आपकी श्रद्धा हो वह चढ़ा सकते हैं ।
इस प्रकार से बेहद सरलता से आप गणेश भगवान का पूजन संपन्न कर पाएंगे ।

1 गं विनायकाय नम: ॥
2 गं द्विजप्रियाय नम: ॥
3 गं शैलेंद्र तनुजोत्संग खेलनोत्सुक मानसाय नम: ॥
4 गं स्वलावण्य सुधा सार जित मन्मथ विग्रहाय नम: ॥
5 गं समस्तजगदाधाराय नम: ॥
6 गं मायिने नम: ॥
7 गं मूषकवाहनाय नम: ॥
8 गं हृष्टाय नम: ॥
9 गं तुष्टाय नम: ॥
10 गं प्रसन्नात्मने नम: ॥
11 गं सर्व सिद्धि प्रदायकाय नम: ॥
12 गं अग्निगर्भच्छिदे नम: ॥
13 गं इंद्रश्रीप्रदाय नम: ॥
14 गं वाणीप्रदाय नम: ॥
15 गं अव्ययाय नम: ॥
16 गं सिद्धिरूपाय नम: ॥
17 गं शर्वतनयाय नम: ॥
18 गं शर्वरीप्रियाय नम: ॥
19 गं सर्वात्मकाय नम: ॥
20 गं सृष्टिकत्रै नम: ॥
21 गं विघ्नराजाय नम: ॥
22 गं देवाय नम: ॥
23 गं अनेकार्चिताय नम: ॥
24 गं शिवाय नम: ॥
25 गं शुद्धाय नम: ॥
26 गं बुद्धिप्रियाय नम: ॥
27 गं शांताय नम: ॥
28 गं ब्रह्मचारिणे नम: ॥
29 गं गजाननाय नम: ॥
30 गं द्वैमातुराय नम: ॥
31 गं मुनिस्तुत्याय नम: ॥
32 गं गौरीपुत्राय नम: ॥
33 गं भक्त विघ्न विनाशनाय नम: ॥
34 गं एकदंताय नम: ॥
35 गं चतुर्बाहवे नम: ॥
36 गं चतुराय नम: ॥
37 गं शक्ति संयुक्ताय नम: ॥
38 गं लंबोदराय नम: ॥
39 गं शूर्पकर्णाय नम: ॥
40 गं हस्त्ये नम: ॥
41 गं ब्रह्मविदुत्तमाय नम: ॥
42 गं कालाय नम: ॥
43 गं गणेश्वराय नम: ॥
44 गं ग्रहपतये नम: ॥
45 गं कामिने नम: ॥
46 गं सोम सूर्याग्नि लोचनाय नम: ॥
47 गं पाशांकुश धराय नम: ॥
48 गं चण्डाय नम: ॥
49 गं गुणातीताय नम: ॥
50 गं निरंजनाय नम: ॥
51 गं अकल्मषाय नम: ॥
52 गं स्वयं सिद्धाय नम: ॥
53 गं सिद्धार्चित पदांबुजाय नम: ॥
54 गं स्कंदाग्रजाय नम: ॥
55 गं बीजापूर फलासक्ताय नम: ॥
56 गं वरदाय नम: ॥
57 गं शाश्वताय नम: ॥
58 गं कृतिने नम: ॥
59 गं सर्व प्रियाय नम: ॥
60 गं वीतभयाय नम: ॥
61 गं गतिने नम: ॥
62 गं चक्रिणे नम: ॥
63 गं इक्षु चाप धृते नम: ॥
64 गं श्री प्रदाय नम: ॥
65 गं अव्यक्ताय नम: ॥
66 गं अजाय नम: ॥
67 गं उत्पल कराय नम: ॥
68 गं श्री पतये नम: ॥
69 गं स्तुति हर्षिताय नम: ॥
70 गं कुलाद्रिभेत्रे नम: ॥
71 गं जटिलाय नम: ॥
72 गं कलि कल्मष नाशनाय नम: ॥
73 गं चंद्रचूडामणये नम: ॥
74 गं कांताय नम: ॥
75 गं पापहारिणे नम: ॥
76 गं भूताय नम: ॥
77 गं समाहिताय नम: ॥
78 गं आश्रिताय नम: ॥
79 गं श्रीकराय नम: ॥
80 गं सौम्याय नम: ॥
81 गं भक्त वांछित दायकाय नम: ॥
82 गं शांतमानसाय नम: ॥
83 गं कैवल्य सुखदाय नम: ॥
84 गं सच्चिदानंद विग्रहाय नम: ॥
85 गं ज्ञानिने नम: ॥
86 गं दयायुताय नम: ॥
87 गं दक्षाय नम: ॥
88 गं दांताय नम: ॥
89 गं ब्रह्मद्वेष विवर्जिताय नम: ॥
90 गं प्रमत्त दैत्य भयदाय नम: ॥
91 गं श्रीकण्ठाय नम: ॥
92 गं विबुधेश्वराय नम: ॥
93 गं रामार्चिताय नम: ॥
94 गं विधये नम: ॥
95 गं नागराज यज्ञोपवितवते नम: ॥
96 गं स्थूलकण्ठाय नम: ॥
97 गं स्वयंकर्त्रे नम: ॥
98 गं अध्यक्षाय नम: ॥
99 गं साम घोष प्रियाय नम: ॥
100 गं परस्मै नम: ॥
101 गं स्थूल तुंडाय नम: ॥
102 गं अग्रण्यै नम: ॥
103 गं धीराय नम: ॥
104 गं वागीशाय नम: ॥
105 गं सिद्धि दायकाय नम: ॥
106 गं दूर्वा बिल्व प्रियाय नम: ॥
107 गं अव्यक्त मूर्तये नम: ॥
108 गं अद्भुत मूर्ति मते नम: ॥

अंत में हाथ जोड़कर प्रणाम करें। और दोनों कान पकड़कर किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए भगवान गणेश से अपने इच्छित मनोकामना को पूर्ण करने की याचिका करें ।

श्री गणपति माला मंत्र

श्री गणपति माला मंत्र
इस माला मंत्र मे 1008 से ज्यादा अक्षर हैं इसलिए इसका उपयोग वह साधक भी कर सकते हैं जो गुरु दीक्षा नहीं लिए है ।

ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं ग्लौं ॐ ह्रीं क्रौं गं ॐ ,
नमो भगवते महागणपतये स्मरणमात्रसंतुष्टाय सर्वविद्याप्रकाशकाय सर्वकामप्रदाय भवबंधविमोचनाय
ह्रीं सर्वभूतबंधनाय ।
क्रों साध्याकर्षणाय ।
क्लीं जगतत्रयवशीकरणाय ।
सौ: सर्वमनक्षोभणाय ।
श्रीं महासंपत्प्रदाय ।
ग्लौं भूमंडलाधिपत्यप्रदाय ।
महाज्ञानप्रदाय चिदानंदात्मने गौरीनंदनाय महायोगिने शिवप्रियाय सर्वानंदवर्धनाय सर्वविद्याप्रकाशनप्रदाय
द्रां चिरंजिविने ।
ब्लूं सम्मोहनाय ।
ॐ मोक्षप्रदाय ।
फट वशी कुरु कुरु ।
वौषडाकर्षणाय ।
हुं विद्वेषणाय विद्वेषय विद्वेषय ।
फट उच्चाटय उच्चाटय ।
ठ: ठ: स्तंभय स्तंभय ।
खें खें मारय मारय ।
शोषय शोषय ।
परमंत्रयंत्रतंत्राणि छेदय छेदय ।
दुष्टग्रहान निवारय निवारय ।
दु:खं हर हर ।
व्याधिं नाशय नाशय नम: ।
संपन्नय संपन्नय स्वाहा ॥
सर्वपल्लवस्वरुपाय महाविद्याय गं गणपतये स्वाहा ॥
यन्मंत्रे क्षितलांछिताभमनघं मृत्युश्च वज्राशिषो भूत प्रेत पिशाचका: प्रतिहता निर्घातपातादिव उत्पन्नं च समस्त दु:ख दुरितं उच्चाटनोत्पादकं वंदेsभीष्टगणाधिपं भयहरं विघ्नौघनाशं परम ॥
ॐ गं गणपतये नम: ।
ॐ नमो महागणपतये , महावीराय , दशभुजाय , मदनकाल विनाशन , मृत्युं हन हन , यम यम , मद मद , कालं संहर संहर , सर्व ग्रहान चूर्णय चूर्णय , नागान मूढय मूढय , रुद्ररूप, त्रिभुवनेश्वर , सर्वतोमुख हुं फट स्वाहा ॥

ॐ नमो गणपतये , श्वेतार्क गणपतये , श्वेतार्क मूल निवासाय , वासुदेव प्रियाय , दक्ष प्रजापति रक्षकाय , सूर्य वरदाय , कुमार गुरवे , ब्रह्मादि सुरावंदिताय , सर्प भूषणाय , शशांक शेखराय , सर्पमालालंकृत देहाय , धर्म ध्वजाय , धर्म वाहनाय , त्राहि त्राहि , देहि देहि , अवतर अवतर , गं गणपतये , वक्रतुंड गणपतये , वरवरद , सर्व पुरुष वशंकर , सर्व दुष्टमृग वशंकर , सर्वस्व वशंकर , वशी कुरु वशी कुरु , सर्व दोषान बंधय बंधय , सर्व व्याधीन निकृंतय निकृंतय , सर्व विषाणि संहर संहर , सर्व दारिद्र्यं मोचय मोचय , सर्व विघ्नान छिंदि छिंदि , सर्व वज्राणि स्फोटय स्फोटय , सर्व शत्रून उच्चाटय उच्चाटय , सर्वसिद्धिं कुरु कुरु , सर्व कार्याणि साधय साधय , गां गीं गूं गैं गौं गं गणपतये हुं फट स्वाहा ॥
ॐ नमो गणपते महावीर दशभुज मदनकालविनाशन मृत्युं हन हन , कालं संहर संहर , धम धम , मथ मथ , त्रैलोक्यं मोहय मोहय , ब्रह्म विष्णु रुद्रान मोहय मोहय , अचिंत्य बल पराक्रम , सर्व व्याधीन विनाशाय , सर्वग्रहान चूर्णय चूर्णय , नागान मोटय मोटय , त्रिभुवनेश्वर सर्वतोमुख हुं फट स्वाहा ॥

यह एक सिद्ध माला मंत्र है ।
आप इसे नित्य पूजन मे प्रयोग कर सकते है ।
किसी समस्या समाधान हेतु इसका 21, 51 या 108 पाठ कर सकते है ।

अशुभ ग्रहों का उपाय किस प्रकार से करे।

अशुभ ग्रहों का उपाय किस प्रकार से करे।
1. सूर्य : बहते पानी में गुड़ बहाएँ। सूर्य को जल दे, पिता की सेवा करे या गेहूँ और तांबे का बर्तन दान करें.।
2. चंद्र : किसी मंदिर में कुछ दिन कच्चा दूध और चावल रखें या खीर-बर्फी का दान करें, या माता की सेवा करे, या दूध या पानी से भरा बर्तन रात को सिरहाने रखें. सुबह उस दुध या पानी से किसी कांटेदार पेड़ की जड़ में डाले या चन्द्र के लिए चावल, दुध एवं चान्दी के वस्तुएं दान करें।
3. मंगल : बहते पानी में तिल और गुड़ से बनी रेवाडि़यां प्रवाहित करे. या बरगद के वृक्ष की जड़ में मीठा कच्चा दूध 43 दिन लगातार डालें। उस दूध से भिगी मिट्टी का तिलक लगाएँ। या ८ मंगलवार को बंदरो को भुना हुआ गुड और चने खिलाये , या बड़े भाई बहन के सेवा करे, मंगल के लिए साबुत, मसूर की दाल दान करें।
4. बुध : ताँबे के पैसे में सूराख करके बहते पानी में बहाएँ। फिटकरी से दन्त साफ करे, अपना आचरण ठीक रखे ,बुध के लिए साबुत मूंग का दान करें., माँ दुर्गा की आराधना करें ।
5. बृहस्पति : केसर का तिलक रोजाना लगाएँ या कुछ मात्रा में केसर खाएँ और नाभि या जीभ पर लगाएं या बृ्हस्पति के लिए चने की दाल या पिली वस्तु दान करें।
6. शुक्र : गाय की सेवा करें और घर तथा शरीर को साफ-सुथरा रखें, या काली गाय को हरा चारा डाले .शुक्र के लिए दही, घी, कपूर आदि का दान करें।
7. शनि : बहते पानी में रोजाना नारियल बहाएँ। शनि के दिन पीपल पर तेल का दिया जलाये ,या किसी बर्तन में तेल लेकर उसमे अपना क्षाया देखें और बर्तन तेल के साथ दान करे. क्योंकि शनि देव तेल के दान से अधिक प्रसन्ना होते है, या हनुमान जी की पूजा करे और बजरंग बाण का पथ करे, शनि के लिए काले साबुत उड़द एवं लोहे की वस्तु का दान करें।
8. राहु : जौ या मूली या काली सरसों का दान करें या अपने सिरहाने रख कर अगले दिन बहते हुए पानी में बहाए ।
9. केतु : मिट्टी के बने तंदूर में मीठी रोटी बनाकर 43 दिन कुत्तों को खिलाएँ या सवा किलो आटे को भुनकर उसमे गुड का चुरा मिला दे और ४३ दिन तक लगातार चींटियों को डाले, या कला सफ़ेद कम्बल कोढियों को दान करें या आर्थिक नुकासन से बचने के लिए रोज कौओं को रोटी खिलाएं. या काला तिल दान करे।

श्रीहनुमानजी के कई अर्थ हैं।

श्रीहनुमानजी के कई अर्थ हैं।
    ॥ॐस्वस्तिश्री॥  ॐश्रीहनूमते नम:ॐ   
(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य  रूप में ९ अवतार हुये थे। 
(२) आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में  दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और  कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो  इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा  समन्वय करता है, वह हनुमान् है। 
(३) ब्रह्म रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पादों के  अनुसार ३ रूप हैं 
*स्रष्टा रूप में यथापूर्वं  अकल्पयत् = पहले  जैसी सृष्टि करने वाला  वृषाकपि है। मूल 
तत्त्व के समुद्र से से विन्दु  रूपों 
(द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) 
में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा 
करता है अतः कपि है। अतः मनुष्य का  अनुकरण कार्ने वाले पशु को भी "कपि" 
कहते हैं। 
*तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव 
है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति  "मारुति" है। 
*वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्णु है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा 
के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजवं "हनुमान्" है।
(४) हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
(५) दो प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं- 
पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है,उसकी 
महिमा साम है-ऋक्-सामे वै हरी 
(शतपथ ब्राह्मण ४/४/३/६)। पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें दो प्रकार के 
हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, "ऋक्" है। 
वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह 
"साम" हरि है। 
इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है 
अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
(६) हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता 
है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायु 
मण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। 
सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = 
प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग 
(प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है। इसी को कहा है-बाल समय 
रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। 
यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३- 
अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा 
सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्चन्दांस्येवैतत्संतर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति 
ऋक् १/६१/१६, अथर्व २०/३५/१६) 
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। 
(गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१२)आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१२)  
'चिरजीवि' अजेय "श्रीरामदूत हनुमानजी" !

भूत प्रेत बाधा एवं निवारण

भूत प्रेत बाधा एवं निवारण 
भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं और उन्हें भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, यम, शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल, गंधर्व आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। ज्योतिष के अनुसार राहु की महादशा में चंद्र की अंतर्दशा हो और चंद्र दशापति राहु से भाव ६, ८ या १२ में बलहीन हो, तो व्यक्ति पिशाच दोष से ग्रस्त होता है। वास्तुशास्त्र में भी उल्लेख है कि पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाति या भरणी नक्षत्र में शनि के स्थित होने पर शनिवार को गृह-निर्माण आरंभ नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह घर राक्षसों, भूतों और पिशाचों से ग्रस्त हो जाएगा। इस संदर्भ में संस्कृत का यह श्लोक द्रष्टव्य है : 
''अजैकपादहिर्बुध्न्यषक्रमित्रानिलान्तकैः।
समन्दैर्मन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुंतगद्यहम॥ 
भूतादि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान उसके स्वभाव एवं क्रिया में आए बदलाव से की जा सकती है। इन विभिन्न आसुरी शक्तियों से पीड़ित होने पर लोगों के स्वभाव एवं कार्यकलापों में आए बदलावों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। 
भूत पीड़ा : भूत से पीड़ित व्यक्ति किसी विक्षिप्त की तरह बात करता है। मूर्ख होने पर भी उसकी बातों से लगता है कि वह कोई ज्ञानी पुरुष हो। उसमें गजब की शक्ति आ जाती है। क्रुद्ध होने पर वह कई व्यक्तियों को एक साथ पछाड़ सकता है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और देह में कंपन होता है। 
यक्ष पीड़ा : यक्ष प्रभावित व्यक्ति लाल वस्त्र में रुचि लेने लगता है। उसकी आवाज धीमी और चाल तेज हो जाती है। इसकी आंखें तांबे जैसी दिखने लगती हैं। वह ज्यादातर आंखों से इशारा करता है। 
पिशाच पीड़ा : पिशाच प्रभावित व्यक्ति नग्न होने से भी हिचकता नहीं है। वह कमजोर हो जाता है और कटु शब्दों का प्रयोग करता है। वह गंदा रहता है और उसकी देह से दुर्गंध आती है। उसे भूख बहुत लगती है। वह एकांत चाहता है और कभी-कभी रोने भी लगता है। 
शाकिनी पीड़ा : शाकिनी से सामान्यतः महिलाएं पीड़ित होती हैं। शाकिनी से प्रभावित स्त्री को सारी देह में दर्द रहता है। उसकी आंखों में भी पीड़ा होती है। वह अक्सर बेहोश भी हो जाया करती है। वह रोती और चिल्लाती रहती है। वह कांपती रहती है। 
प्रेत पीड़ा : प्रेत से पीड़ित व्यक्ति चीखता-चिल्लाता है, रोता है और इधर-उधर भागता रहता है। वह किसी का कहा नहीं सुनता। उसकी वाणी कटु हो जाती है। वह खाता-पीता नही हैं और तीव्र स्वर के साथ सांसें लेता है। 
चुडै+ल पीड़ा : चुडै+ल प्रभावित व्यक्ति की देह पुष्ट हो जाती है। वह हमेशा मुस्कराता रहता है और मांस खाना चाहता है। 
इस तरह भूत-प्रेतादि प्रभावित व्यक्तियों की पहचान भिन्न-भिन्न होती है। इन आसुरी शक्तियों को वश में कर चुके लोगों की नजर अन्य लोगों को भी लग सकती है। इन शक्तियों की पीड़ा से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए। 
यदि बच्चा बाहर से खेलकर, पढ़कर, घूमकर आए और थका, घबराया या परेशान सा लगे तो यह उसे नजर या हाय लगने की पहचान है। ऐसे में उसके सर से ७ लाल मिर्च और एक चम्मच राई के दाने ७ बार घूमाकर उतारा कर लें और फिर आग में जला दें। 
यदि बेवजह डर लगता हो, डरावने सपने आते हों, तो हनुमान चालीसा और गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें और हनुमान मंदिर में हनुमान जी का श्रृंगार करें व चोला चढ़ाएं।

पंचमुख शिव

हर हर महादेव
पंचमुख शिव के आग्नेय,वायव्य और सौम्य तीन स्वरुप- धर्म है। इन तीनो स्वरुप धर्मों में से प्रत्येक के तीन तीन भेद है - आग्नेय प्राण के वायु,इंद्र,अग्नि तथा वायव्य प्राण के वायु,शब्द,अग्नि और सौम्य प्राण के वरुण,चन्द्र, दिक् भेद है। इन भेदों से शिव की नौ शक्तियाँ हो जाती है। वे नौ शक्तियाँ घोर है-उग्र है और उन सबका आधारभूत परोरज नाम का सर्वप्रतिष्ठारूप शान्तिमय प्राजापत्य प्राण है। इस प्रकार पञ्चवक्त्र शिव की दस शक्तियों के प्रतीक शिव के दस हाथ और दस आयुध है। शिव का टंक आयुध आग्नेय ताप का सूचक है। शूल आयुध वायव्य ताप का सूचक है,वज्र आयुध ऐन्द्र ताप का सूचक है। पाश आयुध वारुण ताप का सूचक है। खड़ग आयुध चान्द्र शक्ति का सूचक है।अंकुश आयुध दिश्योहेति का सूचक है। नाग आयुध सज्चर नाड़ी तथा विषाक्त वायु का संकेत है। जिस वायु सूत्र से रूद्र प्रविष्ट होते है,उसे सज्चर नाड़ी कहते है। इस सज्चर नाड़ी का सम्बन्ध नाक्षत्रिक-सर्पप्राण से है। आकाशीय समस्त ग्रह नक्षत्र सर्पाकार है,उनमे यही सौर तेज़ व्याप्त रहता है और सब ग्रह रूप सर्पों के साथ रूद्र-सूर्य का भोग होता है,इसलिए शिव के शरीर(मूर्ति)में साँप लपेट दिए जाते है। पञ्च वक्त्र शिव की दृष्टि प्रकाश रूपा है जो अग्नि ज्वाला के प्रतीक रूप में प्रदर्शित की जाती है। शिव के माथे में चद्रमा है। वह सोमाहुति का प्रतीक है तथा शिव की अभय मुद्रा शान्त रूप परोरजाः प्राण का प्रतीक है। शिव स्वर-वाक् के अधिष्ठात्र देवता है,इसका प्रतीक घंटा है,जिसे शिव धारण करते है। पञ्च वक्त्र शिव का यही रूप है।

सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्र

.सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्र----
 श्री हिरण्य-मयी हस्ति-वाहिनी, सम्पत्ति-शक्ति-दायिनी।
मोक्ष-मुक्ति-प्रदायिनी, सद्-बुद्धि-शक्ति-दात्रिणी।।१
सन्तति-सम्वृद्धि-दायिनी, शुभ-शिष्य-वृन्द-प्रदायिनी।
नव-रत्ना नारायणी, भगवती भद्र-कारिणी।।२
धर्म-न्याय-नीतिदा, विद्या-कला-कौशल्यदा।
प्रेम-भक्ति-वर-सेवा-प्रदा, राज-द्वार-यश-विजयदा।।३
धन-द्रव्य-अन्न-वस्त्रदा, प्रकृति पद्मा कीर्तिदा।
सुख-भोग-वैभव-शान्तिदा, साहित्य-सौरभ-दायिका।।४
वंश-वेलि-वृद्धिका, कुल-कुटुम्ब-पौरुष-प्रचारिका।
स्व-ज्ञाति-प्रतिष्ठा-प्रसारिका, स्व-जाति-प्रसिद्धि-प्राप्तिका।।५
भव्य-भाग्योदय-कारिका, रम्य-देशोदय-उद्भाषिका।
सर्व-कार्य-सिद्धि-कारिका, भूत-प्रेत-बाधा-नाशिका।
अनाथ-अधमोद्धारिका, पतित-पावन-कारिका।
मन-वाञ्छित॒फल-दायिका, सर्व-नर-नारी-मोहनेच्छा-पूर्णिका।।७
साधन-ज्ञान-संरक्षिका, मुमुक्षु-भाव-समर्थिका।
जिज्ञासु-जन-ज्योतिर्धरा, सुपात्र-मान-सम्वर्द्धिका।।८
अक्षर-ज्ञान-सङ्गतिका, स्वात्म-ज्ञान-सन्तुष्टिका।
पुरुषार्थ-प्रताप-अर्पिता, पराक्रम-प्रभाव-समर्पिता।।९
स्वावलम्बन-वृत्ति-वृद्धिका, स्वाश्रय-प्रवृत्ति-पुष्टिका।
प्रति-स्पर्द्धी-शत्रु-नाशिका, सर्व-ऐक्य-मार्ग-प्रकाशिका।।१०
जाज्वल्य-जीवन-ज्योतिदा, षड्-रिपु-दल-संहारिका।
भव-सिन्धु-भय-विदारिका, संसार-नाव-सुकानिका।।११
चौर-नाम-स्थान-दर्शिका, रोग-औषधी-प्रदर्शिका।
इच्छित-वस्तु-प्राप्तिका, उर-अभिलाषा-पूर्णिका।।१२
श्री देवी मङ्गला, गुरु-देव-शाप-निर्मूलिका।
आद्य-शक्ति इन्दिरा, ऋद्धि-सिद्धिदा रमा।।१३
सिन्धु-सुता विष्णु-प्रिया, पूर्व-जन्म-पाप-विमोचना।
दुःख-सैन्य-विघ्न-विमोचना, नव-ग्रह-दोष-निवारणा।।१४
 
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवता-स्वरुपिणी श्रीमहा-माया महा-देवी महा-शक्ति महालक्ष्म्ये नमो नमः।
ॐ ह्रीं श्रीपर-ब्रह्म परमेश्वरी। भाग्य-विधाता भाग्योदय-कर्त्ता भाग्य-लेखा भगवती भाग्येश्वरी ॐ ह्रीं।
कुतूहल-दर्शक, पूर्व-जन्म-दर्शक, भूत-वर्तमान-भविष्य-दर्शक, पुनर्जन्म-दर्शक, त्रिकाल-ज्ञान-प्रदर्शक, दैवी-ज्योतिष-महा-विद्या-भाषिणी त्रिपुरेश्वरी। अद्भुत, अपुर्व, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, सामुद्रिक-विज्ञान-रहस्य-रागिनी, श्री-सिद्धि-दायिनी। सर्वोपरि सर्व-कौतुकानि दर्शय-दर्शय, हृदयेच्छित सर्व-इच्छा पूरय-पूरय ॐ स्वाहा।
ॐ नमो नारायणी नव-दुर्गेश्वरी। कमला, कमल-शायिनी, कर्ण-स्वर-दायिनी, कर्णेश्वरी, अगम्य-अदृश्य-अगोचर-अकल्प्य-अमोघ-अधारे, सत्य-वादिनी, आकर्षण-मुखी, अवनी-आकर्षिणी, मोहन-मुखी, महि-मोहिनी, वश्य-मुखी, विश्व-वशीकरणी, राज-मुखी, जग-जादूगरणी, सर्व-नर-नारी-मोहन-वश्य-कारिणी, मम करणे अवतर अवतर, नग्न-सत्य कथय-कथय।
अतीत अनाम वर्तनम्। मातृ मम नयने दर्शन। ॐ नमो श्रीकर्णेश्वरी देवी सुरा शक्ति-दायिनी। मम सर्वेप्सित-सर्व-कार्य-सिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा। ॐ श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया महा-शक्ति महा-लक्ष्मी महा-देव्यै विच्चे-विच्चे श्रीमहा-देवी महा-लक्ष्मी महा-माया महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।
ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः। ॐ श्री ऐरावत-हस्ति-वाहिन्यै नमः। ॐ श्री कल्प-वृक्ष-फल-भक्षिण्यै नमः। ॐ श्री काम-दुर्गा पयः-पान-कारिण्यै नमः। ॐ श्री नन्दन-वन-विलासिन्यै नमः। ॐ श्री सुर-गंगा-जल-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री मन्दार-सुमन-हार-शोभिन्यै नमः। ॐ श्री देवराज-हंस-लालिन्यै नमः। ॐ श्री अष्ट-दल-कमल-यन्त्र-रुपिण्यै नमः। ॐ श्री वसन्त-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री सुमन-सरोज-निवासिन्यै नमः। ॐ श्री कुसुम-कुञ्ज-भोगिन्यै नमः। ॐ श्री पुष्प-पुञ्ज-वासिन्यै नमः। ॐ श्री रति-रुप-गर्व-गञ्हनायै नमः। ॐ श्री त्रिलोक-पालिन्यै नमः। ॐ श्री स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-भूमि-राज-कर्त्र्यै नमः।
श्री लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीदेवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री रसेश्वरी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री ऋद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री सिद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कीर्तिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रीतिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीइन्दिरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कमला-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहिरण्य-वर्णा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरत्न-गर्भा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुवर्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुप्रभा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपङ्कनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीराधिका-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्म-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरमा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलज्जा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीजया-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसरोजिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहस्तिवाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीगरुड़-वाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसिंहासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकमलासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतुष्टिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवृद्धिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपालिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरक्षिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवैष्णवी-यन्त्रेभ्यो नमः।
श्रीमानवेष्टाभ्यो नमः। श्रीसुरेष्टाभ्यो नमः। श्रीकुबेराष्टाभ्यो नमः। श्रीत्रिलोकीष्टाभ्यो नमः। श्रीमोक्ष-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीभुक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकल्याण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीनवार्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीअक्षस्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुर-स्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रज्ञावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्मावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशंख-चक्र-गदा-पद्म-धरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमहा-लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मी-नारायण-यन्त्रेभ्यो नमः। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीमहा-माया-महा-देवी-महा-शक्ति-महा-लक्ष्मी-स्वरुपा-श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः।
ॐ विष्णु-पत्नीं, क्षमा-देवीं, माध्वीं च माधव-प्रिया। लक्ष्मी-प्रिय-सखीं देवीं, नमाम्यच्युत-वल्लभाम्। ॐ महा-लक्ष्मी च विद्महे विष्णु-पत्नि च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। मम सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा।
 
विधिः-
१॰ उक्त सर्व-कामना-सिद्धी स्तोत्र का नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती है।
२॰ इस स्तोत्र से ‘यन्त्र-पूजा’ भी होती हैः-
‘सर्वतोभद्र-यन्त्र’ तथा ‘सर्वारिष्ट-निवारक-यन्त्र’ में से किसी भी यन्त्र पर हो सकती है। ‘श्रीहिरण्यमयी’ से लेकर ‘नव-ग्रह-दोष-निवारण’- १४ श्लोक से इष्ट का आवाहन और स्तुति है। बाद में “ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं” सर्व कामना से पुष्प समर्पित कर धऽयान करे और यह भावना रखे कि- ‘मम सर्वेप्सितं सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।’
फिर अनुलोम-विलोम क्रम से मन्त्र का जप करे-”ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया-महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।”
स्वेच्छानुसार जप करे। बाद में “ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः” आदि १६ मन्त्रों से यन्त्र में, यदि षोडश-पत्र हो, तो उनके ऊपर, अन्यथा यन्त्र में पूर्वादि-क्रम से पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। तदनन्तर ‘श्रीलक्ष्मी-तम्त्रेभ्यो नमः’ और ‘श्री सर्व-कामना-सिद्धि-महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः’ से अष्टगन्ध या जो सामग्री मिले, उससे ‘यन्त्र’ में पूजा करे। अन्त में ‘लक्ष्मी-गायत्री’ पढ़करपुष्पाजलि देकर विसर्जन करे।.............................

काली के विभिन्न भेद


काली के विभिन्न भेद
 
काली के अलद-अलग तंत्रों में अनेक भेद हैं । कुछ पूर्व में बतलाये गये हैं । अन्यच्च आठ भेद इस प्रकार हैं -

१॰ संहार-काली, २॰ दक्षिण-काली, ३॰ भद्र-काली, ४॰ गुह्य-काली, ५॰ महा-काली, ६॰ वीर-काली, ७॰ उग्र-काली तथा ८॰ चण्ड-काली ।

‘कालिका-पुराण’ में उल्लेख हैं कि आदि-सृष्टि में भगवती ने महिषासुर को “उग्र-चण्डी” रुप से मारा एवं द्वितीयसृष्टि में ‘उग्र-चण्डी’ ही “महा-काली” अथवा महामाया कहलाई ।

योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी । भुजैः षोडशभिर्युक्ताः इसी का नाम “भद्रकाली” भी है । भगवती कात्यायनी ‘दशभुजा’ वाली दुर्गा है, उसी को “उग्र-काली” कहा है । कालिकापुराणे –

 कात्यायनीमुग्रकाली दुर्गामिति तु तांविदुः । “संहार-काली” की चार भुजाएँ हैं यही ‘धूम्र-लोचन’ का वध करने वाली हैं ।

 “वीर-काली” अष्ट-भुजा हैं, इन्होंने ही चण्ड का विनाश किया “भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वमौ नमः” इसी ‘वीर-काली’ विषय में दुर्गा-सप्तशती में कहा हैं ।

 “चण्ड-काली” की बत्तीस भुजाएँ हैं एवं शुम्भ का वध किया था । यथा – चण्डकाली तु या प्रोक्ता द्वात्रिंशद् भुज शोभिता ।

समयाचार रहस्य में उपरोक्त स्वरुपों से सम्बन्धित अन्य स्वरुप भेदों का वर्णन किया है ।

संहार-काली – १॰ प्रत्यंगिरा, २॰ भवानी, ३॰ वाग्वादिनी, ४॰ शिवा, ५॰ भेदों से युक्त भैरवी, ६॰ योगिनी, ७॰ शाकिनी, ८॰ चण्डिका, ९॰ रक्तचामुण्डा से सभी संहार-कालिका के भेद स्वरुप हैं । संहार कालिका का महामंत्र १२५ वर्ण का ‘मुण्ड-माला तंत्र’ में लिखा हैं, जो प्रबल-शत्रु-नाशक हैं ।

दक्षिण-कालिका -कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं ।

अपराजिता

तंत्रोक्त जड़ी बूटी दर्शन अपराजिता .......
    यह एक लता जातीय बूटी है जो की वन उपवनो में विभिन्न वृक्षों के या तारो के सहारे उर्ध्वगामी होकर सदा हरीभरी रहती है ! यह लता भारत के समस्त भागो में बहुलता से पाई जाती है और इसकी विशेष उपयोगिता बंगाल में दुर्गा देवी तथा श्री महाकाली जी की पूजन में स्पष्ट दर्शित होती है !
    भारत के विशेष पर्व नवरात्री के शुभ अवसर पर गोपनीय पूजा में ९ वृक्षों की टहनियों का भी पूजन होता है, इसमें से एक अपराजिता भी है, अपराजिता पुष्प भेद के कारन २ प्रकार की होती है १ नीले पुष्प वाली तथा २. श्वेत पुष्प वाली .... नीले वाली पुष्प लता को कृष्णकांता और श्वेत पुष्प वाली लता को विष्णु कांता कहा जाता है, मुख्यता दोनों को अपराजिता कहा जाता है....... इसके पत्ते बन्मूंग की भांति आकर में कुछ बड़े होते है, प्रत्येक शाखा से निकलने वाली प्रत्येक सींक पर ५ या ७ पत्ते दिखाई देते है! अपराजिता का पुष्प सीप की भांति आगे की तरफ गोलाकार होते हुए पीछे की तरफ संकुचित होता चला जाता है, पुष्प के मध्य में एक और पुष्प होता है जो की स्त्री की योनी की भांति होता है, संभवतः इसी कारन शास्त्रों में इसे भग्पुश्पी तथा योनी पुष्प का नाम दिया गया है ! नीले फूल वाली भग पुष्पा के भी २ भेद है जो की ऊपर वर्णित के अलावा केवल इकहरा पुष्प ही होता है....
    इसकी जड़ धारण करने से भूत प्रेतादी की समस्या का निवारण होकर समस्त ग्रहदोष समाप्त हो जाते है, इसके प्रयोग इस प्रकार है..............

    १. प्रसव के समय कष्ट से तड़पती या मरणासन्न हुई गर्भवती स्त्री की कटी में श्वेत अपराजिता की लता लाकर लपेट देने से कष्ट का निवारण हो जाता है और प्रसव में सुगमता हो जाती है...........

    २. जब बिच्छु काट ले तो दंशित स्थल पर ऊपर से निचे की तरफ श्वेत अपराजिता की जड़ को रगड़े और उसी तरफ वाले हाथ में इसकी जड़ दबा दे तो पांच मिनट में ही विष उतर जाता है........

    ३. कृष्णकांता की जड़ को नीले कपडे में लपेट कर शनिवार वाले दिन रोगी के कंठ में पहना दे तो लाभ होगा, इसके साथ इस इसके पत्ते और नीम के पत्तो की धूप दी जाये या इनका रस निकल कर एकसार करके नाक में टपका देने से आश्चर्यमयी लाभ प्राप्त होता है.........

    ४. प्राय किसी न किसी कारन से नवविवाहिता चाहते हुए भी गर्भ धारण नहीं कर पति जिस कारन उनकी मानहानि अत्यधिक होती है कभी कभी इन्हें बाँझ मानकर श्रीमानजी दूसरी शादी कर लेते है, ऐसी स्त्रिया नीली अपराजिता की जड़ को काली बकरी के शुद्ध दूध में पीस कर के मासिक स्त्राव की समाप्ति पर स्नान के पश्चात् पी जाये और सारे दिन भगवन कृष्ण की बाल रूप में पूजन करते हुए व्रत रखे फिर रात्रि में गर्भ धारण की इच्छा रखते हुए पति के साथ सहवास करे तो गर्भवती हो जाती है. अगर एक बार के प्रयोग से लाभ न हो तो अगले मासिक स्त्राव के स्नान पर लगातार तीन दिन तक ये प्रयोग करती रहे तो अवश्य लाभ होगा...........

बैरि-नाशक हनुमान ग्यारहवाँ

यह सिद्ध प्रयोग है।
बैरि-नाशक हनुमान ग्यारहवाँ
 विधि:-
दूसरे से माँगे हुए मकान में, रक्षा-विधान, कलश-स्थापन, गणपत्यादि लोकपालों का पूजन कर हनुमान जी की प्रतिमा-प्रतिष्ठा करे। नित्य ११ या १२१ पाठ, ११ दिन तक करे। ‘प्रयोग’ भौमवार से प्रारम्भ करे। ‘प्रयोग’-कर्त्ता रक्त-वस्त्र धारण करे और किसी के साथ अन्न-जल न ग्रगण करे। 
    अञ्जनी-तनय बल-वीर रन-बाँकुरे, करत हुँ अर्ज दोऊ हाथ जोरी, शत्रु-दल सजि के चढ़े चहूँ ओर ते, तका इन पातकी न इज्जत मेरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेहि झपट मत करहु देरी, मातु की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, अञ्जनी-सुवन मैं सरन तोरी।।१ पवन के पूत अवधूत रघु-नाथ प्रिय, सुनौ यह अर्ज महाराज मेरी, अहै जो मुद्दई मोर संसार में, करहु अङ्ग-हीन तेहि डारौ पेरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, करहु तेहि चूर लंगूर फेरी, पिता की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, पवन के सुवन मैं सरन तोरी।।२ राम के दूत अकूत बल की शपथ, कहत हूँ टेरि नहि करत चोरी, और कोई सुभट नहीं प्रगट तिहूँ लोक में, सकै जो नाथ सौं बैन जोरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेहि पकरि धरि शीश तोरी, इष्ट की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, राम का दूत मैं सरन तोरी।।३ केसरी-नन्द सब अङ्ग वज्र सों, जेहि लाल मुख रंग तन तेज-कारी, कपीस वर केस हैं विकट अति भेष हैं, दण्ड दौ चण्ड-मन ब्रह्मचारी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, करहू तेहि गर्द दल मर्द डारी, केसरी की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।४ लीयो है आनि जब जन्म लियो यहि जग में, हर्यो है त्रास सुर-संत केरी, मारि कै दनुज-कुल दहन कियो हेरि कै, दल्यो ज्यों सह गज-मस्त घेरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, हनौ तेहि हुमकि मति करहु देरी, तेरी ही आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।५ नाम हनुमान जेहि जानैं जहान सब, कूदि कै सिन्धु गढ़ लङ्क घेरी,

गहन उजारी सब रिपुन-मद मथन करी, जार्यो है नगर नहिं कियो देरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेही खाय फल सरिस हेरी, तेरे ही जोर की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।६ गयो है पैठ पाताल महि, फारि कै मारि कै असुर-दल कियो ढेरी, पकरि अहि-रावनहि अङ्ग सब तोरि कै, राम अरु लखन की काटि बेरी, करत जो चगुलई मोर दरबार में, करहु तेहि निरधन धन लेहु फेरी, इष्ट की आनि तोहि, सुनहु प्रभु कान से, वीर हनुमान मैं सरन तेरी।।७ लगी है शक्ति अन्त उर घोर अति, परेऊ महि मुर्छित भई पीर ढेरी, चल्यो है गरजि कै धर्यो है द्रोण-गिरि, लीयो उखारि नहीं लगी देरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, पटकौं तेहि अवनि लांगुर फेरी, लखन की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।८ हन्यो है हुमकि हनुमान काल-नेमि को, हर्यो है अप्सरा आप तेरी, लियो है अविधि छिनही में पवन-सुत, कर्यो कपि रीछ जै जैत टैरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, हनो तेहि गदा हठी बज्र फेरी, सहस्त्र फन की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।९ केसरी-किशोर स-रोर बरजोर अति, सौहै कर गदा अति प्रबल तेरी, जाके सुने हाँक डर खात सब लोक-पति, छूटी समाधि त्रिपुरारी केरी, करत जो चुगलई मोर दरबार में, देहु तेहि कचरि धरि के दरेरी, केसरी की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।१० लीयो हर सिया-दुख दियो है प्रभुहिं सुख, आई करवास मम हृदै बसेहितु, ज्ञान की वृद्धि करु, वाक्य यह सिद्ध करु, पैज करु पूरा कपीन्द्र मोरी, करत जो चुगलई मोर देरबार में, हनहु तेहि दौरि मत करौ देरी, सिया-राम की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।११ ई ग्यारहो कवित्त के पुर के होत ही प्रकट भए, आए कल्याणकारी दियो है राम की भक्ति-वरदान मोहीं। भयो मन मोद-आनन्द भारी और जो चाहै तेहि सो माँग ले, देऊँ अब तुरन्त नहि करौं देरी, जवन तू चहेगा, तवन ही होएगा, यह बात सत्य तुम मान मेरी।।१२ ई ग्यारहाँ जो कहेगा तुरत फल लहैगा, होगा ज्ञान-विज्ञान जारी, जगत जस कहेगा सकल सुख को लहैगा, बढ़ैगी वंश की वृद्धि भारी, शत्रु जो बढ़ैगा आपु ही लड़ि मरैगा, होयगी अंग से पीर न्यारी, पाप नहिं रहैगा, रोग सब ढहैगा, दास भगवान अस कहत टेरी।।१३ यह मन्त्र उच्चारैगा, तेज तब बढ़ैगा, धरै जो ध्यान कपि-रुप आनि, एकादश रोज नर पढ़ै मन पोढ़ करि, करै नहिं पर-हस्त अन्न-पानी। भौम के वार को लाल-पट धारि कै, करै भुईं सेज मन व्रत ठानी, शत्रु का नाश तब हो, तत्कालहि, दास भगवान की यह सत्य-बानी।।१४ "

श्रीगुरुदेव

सीताराम
श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवम् ।
सिद्धौघं वटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् ॥
वीरान्द्वयष्टचतुष्कषष्टिनवकं वीरावलीपञ्चकम् । श्रीमन्मालिनिमन्त्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ॥

आदि गुरु भगवान दत्तात्रेय जी महाराज कीनाराम जी से कहे हैं-
"माया अगम अनंत की, पार न पावै कोई।
जो जाने जाके कछु, काया परिचय होई।"
इससे स्पष्ट हैकि माया को जानने का सहज उपाय काया परिचय करना है।
महाराज बाबा कीनाराम जी ने कहा-
"जो ब्रह्माण्ड सो पिंड महँ, सकल पदारथ जानि।
त्रिधा शरीर भेद लै, कारन कारज जानि।।"

कामाख्या ध्यानं स्तोत्रं

कामाख्या ध्यानं स्तोत्रं च 

 
           कामाख्या ध्यानम्
रविशशियुतकर्णा कुंकुमापीतवर्णा
मणिकनकविचित्रा लोलजिह्वा त्रिनेत्रा ।
अभयवरदहस्ता साक्षसूत्रप्रहस्ता
प्रणतसुरनरेशा सिद्धकामेश्वरी सा ॥ १॥

अरुणकमलसंस्था रक्तपद्मासनस्था
नवतरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा ।
शवहृदि पृथुतुङ्गा स्वाङ्घ्रियुग्मा मनोज्ञा
शिशुरविसमवस्त्रा सर्वकामेश्वरी सा ॥ २॥

विपुलविभवदात्री स्मेरवक्त्रा सुकेशी
दलितकरकदन्ता सामिचन्द्रावतंसा ।
मनसिज-दृशदिस्था योनिमुद्रालसन्ती
पवनगगनसक्ता संश्रुतस्थानभागा ।
चिन्ता चैवं दीप्यदग्निप्रकाशा
धर्मार्थाद्यैः साधकैर्वाञ्छितार्था ॥ ३॥

           कामाख्या स्तोत्रम्
जय कामेशि चामुण्डे जय भूतापहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १॥

विश्वमूर्ते शुभे शुद्धे विरूपाक्षि त्रिलोचने ।
भीमरूपे शिवे विद्ये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ २॥

मालाजये जये जम्भे भूताक्षि क्षुभितेऽक्षये ।
महामाये महेशानि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ३॥

भीमाक्षि भीषणे देवि सर्वभूतभयङ्करि ।
करालि विकरालि च कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ४॥

कालि करालविक्रान्ते कामेश्वरि हरप्रिये ।
सर्वशास्त्रसारभूते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ५॥

कामरूपप्रदीपे च नीलकूटनिवासिनि ।
निशुम्भ-शुम्भमथनि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

कामाख्ये कामरूपस्थे कामेश्वरि हरिप्रिये ।
कामनां देहि मे नित्यं कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ७॥

वपानाढ्यमहावकत्रे तथा त्रिभुवनेश्वरि ।
महिषासुरवधे देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ८॥

छागतुष्टे महाभीमे कामाख्ये सुरवन्दिते ।
जय कामप्रदे तुष्टे कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ ९॥

भ्रष्टराज्यो यदा राजा नवम्यां नियतः शुचिः ।
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः ॥ १०॥

संवत्सरेण लभते राज्यं निष्कण्टकं पुनः ।
य इदंश‍ृणुयाद् भक्त्या तव देवि समुद्भवम् ॥ ११॥

सर्वपापविनिर्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।
श्रीकामरूपेश्वरि भास्करप्रभे प्रकाशिताम्भोजनिभायतानने ।
सुरारि-रक्षःस्तुतिपातनोत्सुके त्रयीमये देवनुते नमामि ॥ १२॥

सितासिते रक्तपिशाङ्गविग्रहे रूपाणि यस्याः प्रतिभान्ति तानि ।
विकाररूपा च विकल्पितानि शुभाशुभानामपि तां नमामि ॥ १३॥

कामरूपसमुद्भूते कामपीठावतंसके ।
विश्वाधारे महामाये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १४॥

अव्यक्तविग्रहे शान्ते सन्तते कामरूपिणि ।
कालगम्ये परे शान्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १५॥

या सुषुम्नान्तरालस्था चिन्त्यते ज्योतिरूपिणि ।
प्रणतोऽस्मि परां धीरां कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १६॥

दंष्ट्राकरालवदने मुण्डमालोपशोभिते ।
सर्वतः सर्वगे देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १७॥

चामुण्डे च महाकालि कालि कपोलहारिणि ।
पाशहस्ते दण्डहस्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १८॥

चामुण्डे कुलमालास्ये तीक्ष्णदंष्ट्रामहावले ।
शवयानास्थिते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ १९॥
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
मोबाइल नं-9760924411
मुजफ्फरनगर UP

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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