Sunday 29 September 2024

महाकाली साधना

 

महाकाली साधना
अपने साधनात्मक जीवन के प्रारंभ में गुरु साधना के उपरांत मेरे द्वारा सफलतापूर्वक की गई प्रथम साधना माँ काली की यह विलक्षण साधना है| सन्यासी साधकों द्वारा मूलतः श्मशान सिद्धि हेतु की जाने वाली यह उग्र प्रवृत्ति की साधना जीवन की जीवन्तता में बाधक बनी प्रत्येक परिस्थिति के निवारण में सक्षम है| इस अद्वितीय साधना द्वारा मैंने माँ काली की कृपा के साथ उनके बिम्बात्मक दर्शन भी प्राप्त किए हैं|
कृष्ण पक्ष की अष्टमी से प्रारंभ कर २१ दिन तक की जाने वाली इस साधना में चंडी यन्त्र के समक्ष प्रतिरात्रि कालिका अष्टक, जिस के उच्चारण मात्र से दिव्य आनंद की अनुभूति होती है, के ५१ पाठ करें|
कालिका अष्टक
विरंच्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणास्त्रीँ, समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवुः |
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || १ ||
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं |
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || २ ||
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात |
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ३ ||
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते |
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ४ ||
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं |
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ५ ||
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया |
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ६ ||
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत् |
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ७ ||
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च |
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि मुक्ति, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः || ८ ||
साधनाकाल में एक समय भोजन करें, भूमि शयन करें तथा ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से पालन करें|
यदि चंडी यन्त्र ताबीज रूप में है तो अनुष्ठान के उपरांत उसे धारण करने से साधना का लाभ जीवन पर्यन्त साधक के साथ बना रहता है|
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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शिवोपासना से मृत्यु पर विजय (पद्म पुराण)

 


ओम् नमः शिवाय
शिवोपासना से मृत्यु पर विजय (पद्म पुराण)...
"आज आप बहुत ही उदास दिख रहे हैं, आपकी चिंता का क्या कारण है? आपको चिंतित देखकर मेरा हृदय अत्यंत व्याकुल हो रहा है"| महामुनि मृगश्रृंग के पौत्र श्री मार्कंडेय जी ने अपने पिता महामहिम मृकंडु जी से अत्यंत विनम्रता से पूछा | मृकंडु जी ने उत्तर दिया, " पुत्र ! तुम्हारी माता मरुद्वती को जब कोई संतान नहीं थी, तब हम दोनों ने संतान प्राप्ति हेतु पिनाकधारी भगवान् आशुतोष शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न किया| भगवान शंकर ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा और हमने श्री पार्वतीवल्लभ जी से संतान प्राप्ति की याचना की | त्रिपुरारी बोले, " तुम गुणज्ञ, सर्वज्ञ, कुलदीपक, अत्यंत तेजस्वी, मेधावी और अद्भुत सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र चाहते हो या गुणहीन परन्तु दीर्घ जीवी पुत्र?" इस पर मैंने भगवान् शशांक शेखर से निवेदन किया, "प्रभु ! मैं मुर्ख, गुणहीन पुत्र नहीं चाहता| अल्पायु ही सही, परन्तु मुझे अनुपम, गुणवान, मेधावी, तेजस्वी और सर्वज्ञ पुत्र ही अभीष्ट है"| भगवान् भोलेनाथ "तथास्तु" कहकर अंतर्ध्यान हो गए | और चंद्रशेखर भगवान् की कृपा से तुम में सभी अद्भुत गुण विद्यमान हैं और हम दोनों ही दम्पति अत्यंत सुखी और गौरान्वित हैं तुम से | परन्तु पुत्र ! अब तुम्हारा सोलहवा वर्ष समाप्त हो चला है" |
श्री मार्कंडेय जी ने अत्यंत गंभीरता से पिता को आश्वस्त करते हुए कहा ," पिता श्री ! आप मेरे लिए चिंता न करें | भगवान् आशुतोष अभीष्ट फलदाता हैं| मैं उनके मंगलमय चरणों का आश्रय लेकर, उनकी उपासना करके अमरत्व प्राप्त करने का प्रयत्न करूंगा |"
तदनंतर श्री मार्कंडेय जी ने माता-पिता की चरणधूलि मस्तक पर धारण कर भगवान् शंकर का स्मरण करते हुए दक्षिण समुद्र के तट पर पहुँचकर शिवलिंग (मारकंडेश्वर शिवलिंग) की स्थापना की और त्रिकाल स्नान कर बड़ी ही श्रद्धा से भगवान् की उपासना करने लगे | मृत्यु के दिन श्री मार्कंडेय जी अपने आराध्य की पूजा करके स्तोत्र पाठ करना ही चाहते थे कि तभी उनके कोमल कंठ में काल का कठोर पाश पड़ गया | मार्कंडेय जी ने शिवलिंग को कस कर पकड़ लिया और भगवान् को पुकारने लगे | काल ने जैसे ही पाश खींचना चाहा, शिवलिंग से भगवान् शंकर प्रकट हो गए और उन्होंने अत्यंत क्रोध से काल के वक्ष पर कठोर पदाघात किया | काल दूर जा गिरे और पीड़ा और भय से छटपटाने लगे | काल की दुर्दशा और अपने आराध्य के रूप लावण्या को देखकर श्री मार्कडेय जी की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही | उन्होंने आशुतोष भगवान के चरणों में अपना मस्तक रख दिया और हृदय से भक्ति रस की नवीन मंदाकिनी वाणी द्वारा स्तुति के रूप में प्रवाहित होने लगी,
"चन्द्रशेखरमाश्र्ये मम कि करिष्यति वै यम: "
अर्थात "मैं तो चंद्रशेखर के आश्रय में हूँ, तो यह यम मेरा क्या बिगाड़ सकता है" |
देवादिदेव महादेव जी ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया | आज महाऋषि मार्कंडेय जी सनातन धर्म के सात चिरंजीविओं में से एक हैं... (यह सात कल्पांत जीवी हैं- काग भशुन्दी जी, श्री हनुमान जी, वेद व्यास जी, रजा बलि, परशुराम जी , अश्वथामा और महाऋषि मार्कंडेय जी) | चिरंजीवी महाऋषि मार्कंडेय जी ने फिर महामृत्युंजय मंत्र , महामृत्युंजय स्तोत्र और मार्कंडेय पुराण की रचना की |
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम |
उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्युर्मुक्षीय मामृतात ||
हर हर महादेव... ॐ नमः शिवाय…
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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मंत्र संस्कार

 



मंत्र संस्कार
मंत्र शब्द का अर्थ है गुप्त परामर्ष स्ग्र्धा का अवलंब पाकर जब अक्षर एक गहनता में प्रवेश करता है तो जिस दिव्य ज्योति का अविर्भाव होता है व्ही सिधि की संघ्या पाती मंत्र वास्तव में मनन पूर्वक वर्णउचार का घर्षण है जिसके मूल में लय ही सर्वोप्रिये है .पुस्तकों से मन्त्र लेकर बिना भाव के उन्हें दोहरा देना मातर मंत्रो उचारण नही होता.यह एक विषद विज्ञानं है.
भगवन शिव के डमरू से जिन सात करोड़ मंत्रो का पादुर्भाव हुआ वे कालअंतर में किसी न किसी दोष से ग्रसित हो गये .शाश्त्रो में ऐसे पचास परकार के दोष माने
गये हैं.
जनन ,दीपन,बोधन,तदन,अभिषेक,विम्लीकर्ण ,जीवन,तर्पण ,गोपन व् आप्यायन यह दस संस्कार है जो किसी व् मन्त्र को सिद्ध करने से पूर्व आवश्यक हैं
१.जनन - पूर्व की और मुख करके आसन पर शुधि पूर्वक बैठने के बाद भोजपत्र पर गोरेचन कुकुम एवेम चंदन से आत्माविमुख त्रिकोण बनावे एवेम तीनो कोनो से शह
शह रेखाए खींचे .एसा करने से ४९ त्रिकोण कोष्ठ बन जायेगे .फिर इशान कोण से आरंभ कर एक एक खाने में एक एक मात्रिका वरण लिखना चाहिए .प्रतिएक वर्ण का ,देवता का आह्वाहन करते हुए पूजन कर उसका उधारकरना चाहिए एवं उसे अलग से भोजपत्र पर लिखकर मन्त्र से संपृक्त भी करना चाहिए .अंत में मन्त्र को जल में विसर्जित कर देना चाहिए .इस प्रकार सम्पुरण वर्णों को लेकर करने से प्रथम संस्कार संपन होता है .
२.दीपन - इस संस्कार हेतु ' हंस ' मन्त्र से मूल को संपुटित के एक हजार जप करना आवश्यक होता है.यथा 'हंस शिवाये नम:सो हम '
३.बोधन 'हूं' बिज मन्त्र से मूल मंत्र को संपुटित कर पञ्च हजार जप करने से मन्त्र का बोधन हो जाता है.यथा 'हूं शिवाये नम : हूं"
४.ताडन-फट मन्त्र से मूल मन्त्र को संपुटित क्र एक हजार जप करने से मन्त्र का ताडन हो जाता है.यथा 'फट शिवाये नम:फट"
५.अभिषेक - इस हेतु भोज पात्र पर मूल मन्त्र को लिखना चैये बाद में एक हजार बार 'ह्रोम हंस:ओम" मन्त्र से अभिमंत्रित जल लेकर पीपल के पते द्वारा मूल मन्त्र का अभिषेक करने यह संपन हो जाता है.
६.विम्लीकर्ण-'ॐ त्रोम वष्ट" इन वर्ण से संपुटित करते हुए मूल मंत्र का एक हजार जप करने से यह संस्कार संपन होता है.यथा 'ॐ त्रोम वष्ट शिवाये नम:वष्ट त्रोम ॐ".
७.जीवन -"स्वधा वष्ट "संपुटित मूओल मंत्र का एक हजार जप करने से यह संस्कार संपन होता है .यथा "स्वधा वष्ट शिवाये नम:वष्ट स्वधा "
८.तर्पण दूध जल तथा घी को मिलकर मूल मंत्र से सो बार तर्पण करना ही उस मन्त्र का तर्पण संस्कार होता है.
९.गोपन-'ह्रीं " का सम्पुट देकर मूल मंत्र का एक हजार जप करना नवम संस्क्र होता है.
१०.अप्यायन-"ह्रों" बीज का संपुटित देकर मूल मन्त्र का एक हजार जप करने अंतिम व् महाताव्पूरण संस्कार संपन होता है. यथा "ह्रों नम:शिवाये ह्रों "
इस परकार प्रयतन पूर्वक मूल मंत्र का संस्कार कर उसका जप करने ओत अभीशत सफलता अधिक सरलता से मिलती है .उपर संस्कार विधान के इलावा कूर्म चक्र विचार,कुल्लुका विचार ,मंत्रो का कीलन-उत्कीलन,मन्त्र सिधि के विभिन उपाए अदि कई ऐसे भाग है जिनका यदि साधक प्रारंभ में विचार करे तो कम समय व् कम म्हणत में ही सिधि प्राप्त होने की सम्भावना बढ जाती है..
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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श्री सुदर्शन कवच

 


श्री सुदर्शन कवच
जन्म कुंडली में चर, स्थिर और द्विस्वभाव लग्न में उत्पन्न लोगो के लिए क्रमशः ११,९ और ७वा स्थान और उनके स्वामी बाधक होते है और ये अपनी दशा काल में बहुत ही प्रबल होते है ये अचानक बाधा उत्पन्न करके जीवन में परेशानी पैदा कर देते है इसके निवारण/शांति हेतु सुदर्शन कवच का प्रयोग किया जाता है
इसके अलावा ऊपरी बाधा, अला-बला, भूत, भूतिनी, यक्षिणी, प्रेतिनी या अन्य किसी भी तरह की ओपरी विपत्ति में श्री सुदर्शन कवच रक्षा करता है/ यह अद्वितीय तांत्रिक शक्ति से युक्त है यह सुदर्शन चक्र की भांति इसके धारणकर्ता/पाठक की रक्षा करता है /
ॐ अस्य श्री सुदर्शन कवच माला मंत्रस्य श्री लक्ष्मी नृसिंह: परमात्मा देवता क्षां बीजं ह्रीं शक्ति मम कार्य सिध्यर्थे जपे विनयोग:/
करण्यास हृदयादि न्यास
ॐ क्षां अन्गुष्ठाभ्याम नम: हृदयाय नम:
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्याम नम: शिरसे स्वाहा
ॐ श्रीं मध्यमाभ्याम नम: शिखाए वषट
ॐ सहस्रार अनामिकभ्याम नम: कवचाय हुम
ॐ हुं फट कनिष्ठिकाभ्याम नम: नेत्रत्रयाय वौषट
ॐ स्वाहा करतल-कर प्र्ष्ठाभ्याम नम: अस्त्राय फट
ध्यानं :- उपसमाहे नृसिंह आख्यम ब्रह्म वेदांत गोचरम / भूयो-लालित संसाराच्चेद हेतुं जगत गुरुम //
पंचोपचार पूजनं :
लं पृथ्वी तत्वात्मकम गंधंम समर्पयामि
हं आकाश तत्वात्मकम पुष्पं समर्पयामि
यं वायु तत्वात्मकम धूपं समर्पयामि
रं अग्नि तत्वात्मकम दीपं समर्पयामि
वं जल तत्वात्मकम नैवेद्यं समर्पयामि
सं सर्व तत्वात्मकम ताम्बूलं समर्पयामि
ॐ सुदर्शने नम:/ ॐ आं ह्रीं क्रों नमो भगवते प्रलय काल महा ज्वाला घोर वीर सुदर्शन नृसिंहआय ॐ महा चक्र राजाय महा बले सहस्रकोटिसूर्यप्रकाशाय सहस्रशीर्षआय सहस्रअक्षाय सहस्रपादाय संकर्षणआत्मने सहस्रदिव्याश्र सहस्र हस्ताय सर्वतोमुख ज्वलन ज्वाला माला वृताया विस्फु लिंग स्फोट परिस्फोटित ब्रह्माण्ड भानडाय महा पराक्रमाय महोग्र विग्रहाय महावीराय महा विष्णु रुपिणे व्यतीत कालान्त काय महाभद्र रोद्रा वताराया मृत्यु स्वरूपाय किरीट-हार-केयूर-ग्रेवेयक-कटक अन्गुलयी-कटिसूत्र मजीरादी कनक मणि खचित दिव्य भूषणआय महा भीषणआय महा भिक्षया व्याहत तेजो रूप निधेय रक्त चंडआंतक मण्डितम दोरु कुंडा दूर निरिक्षणआय प्रत्यक्ष आय ब्रह्म चक्र विष्णु चक्र कल चक्र भूमि चक्र तेजोरूपाय आश्रितरक्षाय/ ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात इति स्वाहा स्वाहा ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात इति स्वाहा स्वाहा भो भो सुदर्शन नारसिंह माम रक्षय रक्षय / ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात मम शत्रून नाशय नाशय / ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल चंड चंड प्रचंड प्रचंड स्फुर प्रस्फुर घोर घोर घोरतर घोरतर चट चट प्रचटं प्रचटं प्रस्फुट दह कहर भग भिन्धि हंधी खट्ट प्रचट फट जहि जहि पय सस प्रलय वा पुरुषाय रं रं नेत्राग्नी रूपाय / ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात भो भो सुदर्शन नारसिंह माम रक्षय रक्षय / ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात एही एही आगच्छ आगच्छ भूतग्रह- प्रेतग्रह- पिशाचग्रह-दानावग्रह-कृत्रिम्ग्रह- प्रयोगग्रह-आवेशग्रह-आगतग्रह-अनागतग्रह- ब्रह्म्ग्रह-रुद्रग्रह-पतालग्रह-निराकारग्रह -आचार-अनाचार ग्रह- नन्जाती ग्रह- भूचर ग्रह- खेचर ग्रह- वृक्ष ग्रह- पिक्षी चर ग्रह- गिरी चर ग्रह- श्मशान चर ग्रह -जलचर ग्रह -कूप चर ग्रह- देगारचल ग्रह- शुन्यगार चर ग्रह- स्वप्न ग्रह- दिवामनो ग्रह- बालग्रह -मूकग्रह- मुख ग्रह -बधिर ग्रह- स्त्री ग्रह- पुरुष ग्रह- यक्ष ग्रह- राक्षस ग्रह- प्रेत ग्रह किन्नर ग्रह- साध्य चर ग्रह - सिद्ध चर ग्रह -कामिनी ग्रह- मोहनी ग्रह-पद्मिनी ग्रह- यक्षिणी ग्रह- पकषिणी ग्रह संध्या ग्रह-
उच्चाटय उच्चाटय भस्मी कुरु कुरु स्वाहा / ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ क्षरां क्षरीं क्षरूं क्षरें क्षरों क्षर : भरां भरीं भरूं भरें भरों भर: ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रों ह्र: घरां घरीं घरूं घरें घरों घर: श्रां श्रीं श्रुं श्रें श्रों श्र: / ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात एही एही सालवं संहारय शरभं क्रन्दया विद्रावय विद्रावय भैरव भीषय भीषय प्रत्यांगिरी मर्दय मर्दय चिदंबरम बंधय बंधय विदम्बरम ग्रासय ग्रासय शांर्म्भ्वा निबंतय कालीं दह दह महिषासुरी छेदय छेदय दुष्ट शक्ति निर्मूलय निर्मूलय रूं रूं हूँ हूँ मुरु मुरु परमन्त्र - परयन्त्र - परतंत्र कटुपरं वादपर जपपर होमपर सहस्र दीप कोटि पुजां भेदय भेदय मारय मारय खंडय खंडय परकृतकं विषं निर्विष कुरु कुरु अग्नि मुख प्रकांड नानाविध कृतं मुख वनमुखं ग्राहान चुर्णय चुर्णय मारी विदारय कुष्मांड वैनायक मारीचगणान भेदय भेदय मन्त्रं परअस्माकं विमोचय विमोचय अक्षिशूल कुक्षीशूल गुल्मशूल पार्श्वशूल सर्वाबाधा निवारय निवारय पांडूरोगं संहारय संहारय विषम ज्वर त्रासय त्रासय एकाहिकं द्वाहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं पंचाहिकं षष्टज्वर सप्तमज्वर अष्टमज्वर नवमज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर दानवज्वर महाकालज्वरं दुर्गाज्वरं ब्रह्माविष्णुज्वरं माहेश्वरज्वरं चतु:षष्टि योगिनीज्वरं गन्धर्वज्वरं बेतालज्वरं एतान ज्वरान्न नाशय नाशय दोषं मंथय मंथय दुरित हर हर अन्नत वासुकी तक्षक कालौय पद्म कुलिक कर्कोटक शंख पलाद्य अष्ट नाग कुलानां विषं हन हन खं खं घं घं पाशुपतं नाशय नाशय शिखंडी खंडय खंडय प्रमुख दुष्ट तंत्र स्फोटय स्फोटय भ्रामय भ्रामय महानारायणअस्त्राय पंचाशधरणरूपाय लल लल शरणागत रक्षणाय हूँ हूँ गं वं गं वं शं शं अमृतमूर्तये तुभ्यं नम: / ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात भो भो सुदर्शन नारसिंह माम रक्षय रक्षय / ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात ॐ सुदर्शन विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्न: चक्र: प्रचोदयात मम सर्वारिष्ट शान्तिं कुरु कुरु सर्वतो रक्ष रक्ष ॐ ह्रीं हूँ फट स्वाहा / ॐ क्ष्रोम ह्रीं श्रीं सहस्रार हूँ फट स्वाहा /
 

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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...