Wednesday 25 August 2021

यक्षिणी सधना

।। यक्षिणी साधना ।।
यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं।. यक्षिणी साधना को करने से साधक की मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं। तथा इस साधना को करने से साधक को दुसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति भी प्राप्त होती हैं। साधक की बुद्धि तेज होती हैं। यक्षिणी साधना को करने से कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि जल्द ही हो जाती हैं।
बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं। कि ये बहुत भयानक होती हैं। किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, नाग आदि। ये सभी मानवों से कुछ अलग थे। इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे। देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है। कहते हैं कि यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं। तो पिशाचिनियां नकारात्मक। बहुत से लोग यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी की तरह मानते हैं,। लेकिन यह सच नहीं है। रावण के सौतेला भाई कुबेर एक यक्ष थे, जबकि रावण एक राक्षस।  महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की दो पत्नियां थीं- इलविला और कैकसी। इलविला से कुबेर और कैकसी से रावण, विभीषण, कुंभकर्ण का जन्म हुआ। इलविला यक्ष जाति से थीं तो कैकसी राक्षस। जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह प्रमुख 8 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं। गंधर्व और यक्ष जातियां देवताओं की ओर थीं तो राक्षस, दानव आदि जातियां दैत्यों की ओर। यदि आप देवताओं की साधना करने की तरह किसी यक्ष या यक्षिणियों की साधना करते हैं तो यह भी देवताओं की तरह प्रसन्न होकर आपको उचित मार्गदर्शन या फल देते हैं। उत्लेखनीय है कि जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे। उपनिषद की एक कथा अनुसार एक यक्ष ने ही अग्नि, इंद्र, वरुण और वायु का घमंड चूर-चूर कर दिया था।यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। किसी योग्य गुरु या जानकार से पूछकर ही यक्षिणी साधना करनी चाहिए। यहां प्रस्तुत है यक्षिणियों की चमत्कारिक जानकारी। यह जानकारी मात्र है। साधक अपने विवेक से काम लें। शास्त्रों में 'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों की है।
 
ये प्रमुख यक्षिणियां है - 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी।
 
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होकर सहायता करती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों  यक्षिणियों को ही सिद्ध करने के लिए किसी योग्य गुरु या जानकार से इसके बारे में जानें।
 मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र :॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः॥

सुर सुन्दरी यक्षिणी : इस यक्षिणी की विशेषता है कि साधक उन्हें जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होती ही है- चाहे वह मां का स्वरूप हो, चाहे वह बहन या प्रेमिका का। जैसी रही भावना जिसकी वैसे ही रूप में वह उपस्थित होती है या स्वप्न  में आकर बताती है। यदि साधना नियमपूर्वक अच्छे उद्देश्य के लिए की गई  है तो वह दिखाई भी देती है। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है। देव योनी के समान सुन्दर सुडौल होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है।
 सुर सुन्दरी मंत्र : ॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी यक्षिणी : मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के बाद यह यक्षिणी साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहक बना देती है कि वह दुनिया को अपने सम्मोहन पाश में बांधने की क्षमता हासिल कर लेता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट करती है।  मनोहारिणी यक्षिणी का चेहरा अण्डाकार, नेत्र हरिण के समान और रंग गौरा है। उनके शरीर से निरंतर चंदन की सुगंध निकलती रहती है।
 मनोहारिणी मंत्र :॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती यक्षिणी : कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह यक्षिणी साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है। माना जाता है कि यह यक्षिणी यह लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा है।
कनकावती मंत्र : ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी यक्षिणी : यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख की कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में उपस्थित होकर साधक की इच्छापूर्ण करती है। साधक को जब भी किसी चीज की आवश्यकता होती है तो वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है। यह यक्षिणी सदैव चंचल रहने वाली मानी गई है। इसकी यौवन युक्त देह मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है।
कामेश्वरी मंत्र : ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया यक्षिणी : इस यक्षि़णी को प्रफुल्लता प्रदान करने वाली माना गया है। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक-साधिका को यह कामदेव और रति के समान सौन्दर्य की उपलब्धि कराती है। इस यक्षिणी की देह स्वर्ण के समान है जो सभी तरह के मंगल आभूषणों से सुसज्जित है।
रति प्रिया मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पदमिनी यक्षिणी : पद्मिनी यक्षिणी अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान करती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति की ओर अग्रसर करती है। यह हमेशा साधक के साथ रहकर हर कदम पर उसका हौसला बढ़ाती है। श्यामवर्णा, सुंदर नेत्र और सदा प्रसन्नचित्र करने वाली यह यक्षिणी अत्यक्षिक सुंदर देह वाली मानी गई है।
 पद्मिनी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी यक्षिणी : यह यक्षिणी अपने साधक की पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है। यह सभी तरह की घटना-दुर्घटना से भी साधक को सुरक्षित बचा ले आती है। उल्लेखनीय है कि नटी यक्षिणी को विश्वामित्र ने भी सिद्ध किया था।
नटी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥

अनुरागिणी यक्षिणी : यह यक्षिणी यदि साधक पर प्रसंन्न हो जाए तो वह उसे नित्य धन, मान, यश आदि से परिपूर्ण तृप्त कर देती है। अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है और यह साधक की इच्छा होने पर उसके साथ रास-उल्लास भी करती है।
अनुरागिणी मंत्र : ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥

तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।

साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।

साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है -

1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी 5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी

प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

।।यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन ।।

ज्योतिष के अनुसार यदि आषाढ़ माह में शुक्रवार के दिन पूर्णिमा हैं। यह शुभ दिन होता है।
इसके अलावा यक्षिणी साधना को करने की शुभ तिथि श्रावण मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा हैं. यह यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन इसलिए माना जाता हैं।. क्योंकि इस दिन चंद्रमा में शक्ति अधिक होती हैं. जिससे साधक को उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं।
यक्षिणी साधना की विधि: –यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं
शिवजी का मन्त्र –ऊँ रुद्राय नम: स्वाहा-ऊँ त्रयम्बकाय नम: स्वाहा
ऊँ यक्षराजाय स्वाहा-ऊँ त्रयलोचनाय स्वाहा

1.       यक्षिणी साधना को करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और पूजा की सारी सामग्री को इकट्ठा कर लें.
2.       यक्षिणी साधना का आरम्भ करने के लिए सबसे पहले शिव जी की पूजा सामान्य विधि से करें. 
3.       इसके बाद एक केले के पेड़ या बेलगिरी के पेड़ के नीचे यक्षिणी की साधना करें.
4.       यक्षिणी साधना को करने से आपका मन स्थिर और एकाग्र हो जायेगा. इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों का जाप पांच हजार बार करें.
5.       जाप करने के बाद घर पहुंच कर कुंवारी कन्याओं को खीर का भोजन करायें.
।।यक्षिणी साधना की दूसरी विधि ।।

यक्षिणी साधना को करने का एक और तरीका हैं. इस विधि के अनुसार यक्षिणी साधना करने के लिए वट के या पीपल के पेड़ नीचे शिवजी की तस्वीर या मूर्ति की स्थापना कर लें. अब निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण पांच हजार बार करते हुए पेड़ की जड में जल चढाए।
।।यक्षिणी साधना के नियम ।।

1.यक्षिणी साधना को करने लिए ब्रहमचारी रहना बहुत ही जरूरी हैं.
2. इस साधना को प्राम्भ करने के बाद साधक को अपने सभी कार्य भूमि पर करने चाहिए.
3.यक्षिणी साधना की सिद्धि हेतु साधक को नशीले पदार्थों का एवं मांसाहारी भोजन का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
4.यक्षिणी साधना को करते समय सफेद या पीले रंग के वस्त्रों को ही केवल धारण करना चाहिए.
5.इस साधना को करने वाले साधक को साबुन, इत्र या किसी प्रकार के सुगन्धित तेल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए तथा उसे अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए।
चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की  वे बिना किसी योग्य व सफ़ल गुरु के निर्देशन के बिना साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।बिना गुरु के साधना करने पर अहित होने से हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
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मुजफ्फरनगर UP

देवी उग्रतारा साधना विधि:-

श्रीमद् उग्रतारा पुरश्चरण विधि:-
1) आचमन- निम्न मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
फिर यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें--ॐ ह्रीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

2) पवित्रीकरण- बाएँ हांथ मे जल लेकर दाहिनी मध्यमा, अनामिका द्वारा अपने सिर पर छिड़कें-

ॐ अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥
ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः ।

3) जल शुद्धि - तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम
कृत्वा ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः
पंचपात्र के ऊपर हुङ् ईति अवगुंठ, वं इति धेनुमुद्रा, मं इति मत्स्य मुद्रा.....१० बार ईष्ट मन्त्र जप ।

फिर पंचपात्र के ऊपर दाहिनी अंगुष्ठा को हिलाते हुए निम्न मंत्र को पढ़ें—

“ ॐ गंगेश यमुनाष्चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेहस्मिन सन्निधिम कुरु ॥

4) आसन शुद्धि – ॐ आसन मंत्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि सुतलं छन्द कूर्म देवता आसने उपवेसने विनियोग: - पंचपात्र मे से एक आचमनी जल छोड़ें-

आसन के नीचे दाहिनी अनामिका द्वारा -तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ॐ ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः असनं स्थापयेत ।

आसन को छूकर - ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥

बाएँ हांथ जोड़कर – बामे गुरुभ्यो नमः , परमगुरुभ्यो नमः , परात्पर गुरुभ्यो नमः , परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः ।

दाहिने हांथ जोड़कर – श्रीगणेशाय नमः ।

सामने हांथ जोड़कर सिर मे सटाकर – मध्ये श्रीमद् उग्रतारा देव्यै नमः

5) स्वस्तिवाचन :- ॐ स्वस्ति न:इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

6) गुरुध्यान :- (कूर्म मुद्रा मे)

ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वाधिसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं त्वं नमामि।।

7) मानस पूजन:- अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-

ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।

गुरु प्रणाम:-
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दोनों हांथ जोड़कर--
ॐअखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

9) गणेशजी का ध्यान :-
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय,
लम्बोदराय सकलाय जगत्‌ हिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय,
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥

10) मानस पूजन:-अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।

11) गणेश प्रणाम:-
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।।

वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसंप्रभ:।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।

लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकंप्रियं।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।

सर्वविघ्नविनाशाय, सर्वकल्याणहेतवे।
पार्वतीप्रियपुत्राय, श्रीगणेशाय नमो नम: ।।

गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।

12) ईष्टदेवी प्रणाम:-
ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते ।
खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥

13) संकल्प:- ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे------प्रदेशे------मासे-----राशि स्थिते भास्करे----पक्षे-----तिथौ----वासरे अस्य-----गोत्रोत्पन्न------नामन:/नाम्नी अस्य श्रीमद्उग्रतारा संदर्शनं प्रीतिकाम: सर्वसिद्धि पूर्णकाम: मन्त्रस्य दशसहस्रादि जप तत् दशांश होमं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश तर्पणम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश अभिसिंचनम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश ब्राह्मण भोजनं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप पंचांग पुरश्चरण कर्माहम् करिष्ये।

14)भूतपसारन :- दाहिने हांथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़कर अपने सिर के ऊपर से दशों दिशाओं मे छोडना है ---

ॐ आपः सर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिता ।
या भूता विघ्नकर्तारंते नश्यंतु शिवाग्या ॥

ॐ बेतालाश्च पिशाचाश्च राक्षाशाश्च सरीसृपा ।
आपःसर्पन्तु ते सर्वे चंडिकास्त्रेन ताडिता: ॥
ॐ विनायका विघ्नकरा महोग्रा यज्ञद्विषो ये ।
पिशितानाश्च सिद्धार्थकैवज्रसमानकल्पैमया नीरिस्ता विदिश: प्रयान्तु ॥

15) भूतशुद्धि :-

1. ॐ भूतशृंगाटाच्छिर सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिव पदे योजयामी स्वाहा ।
2. ॐ यं लिंगशरीरं शोषय शोषय स्वाहा ।
3. ॐ रं संकोचशरीरं दह दह स्वाहा ।
4. ॐ परमशिव सुषुम्नापथेन मूलशृंगाटमूल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा।

16) ऋषयादिन्यास;- ॐ श्रीमद् उग्रतारा मंतरस्य अक्षोभ्य ऋषि, विहति छन्द: , श्रीमदेकजटा देवता, हूँ बीजं , फट् शक्ति , ह्रीं स्त्रीं कीलकम, मम धर्मार्थकाममोक्षार्थे , सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे विनियोग:(पंचपात्र से थोड़ा जल सामने पात्र मे छोड़े )

ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: - शिरसे ।
ॐ विहति छन्दसे नम: - मुखे ।
ॐ श्रीमदेकजटा देवतायै नम: - ह्रदये।
ॐ हूँ बीजाय नम: - गुह्ये (फिर हाथ धोए)।
ॐ फट् शक्तये नम: - पादयो ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं लकाय नम: - सर्वाङ्गे।

17) करन्यास :-
ॐ ह्रां एक्जटाय अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ॐ ह्रीं तारिण्यै तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
ॐ ह्रूं बज़्रोदके मध्यमाभ्यां वषट्।
ॐ ह्रऐं उग्रजटे अनामिकाभ्यां हूम।
ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्।
ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्याम् अस्त्राय फट्।

18) अंगन्यास :-
ॐ ह्रां एक्जटाय हृदयाय नम:।
ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रूं बज़्रोदके शिखायै वषट्।
ॐ ह्रऐं उग्रजटे कवचाय हूम।
ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे अस्त्राय फट्।

19) तत्वन्यास:-
ॐ ह्रीं आत्मतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर पैर से नाभि तक स्पर्श करे ]
ॐ ह्रीं विद्यातत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर नाभि से हृदय तक स्पर्श करे ]
ॐ ह्रीं शिवतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर हृदय से सहस्त्रसार तक स्पर्श करे ]

20) व्यापक न्यास:- “ह्रीं” मन्त्र से ७ बार

21) माँ उग्रतारा ध्यान:- (कूर्म मुद्रा में)

प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासापरा,
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा ।
खर्वानीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता,
जाड्यनन्यस्य कपालिकेत्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं॥

22) माँ उग्रतारा मानसपूजन:-अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-

ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि ।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि ।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि ।

23)प्राणायाम :- “ह्रीं” मन्त्र से ४/१६/८ ।

24)डाकिन्यादि मंत्रो का न्यास:-(तत्वमुद्रा द्वारा)
मूलाधार में डां डाकिन्यै नम:।
स्वाधिष्ठान में रां राकिन्यै नम:।
मणिपुर में लां लाकिन्यै नम:।
अनाहत में कां काकिन्यै नम:।
विशुद्ध में शां शाकिन्यै नम:।
आज्ञाचक्र में हां हाकिन्यै नम:।
सहस्रार में यां याकिन्यै नम:।

25) मन्त्र शिखा:- श्वास को रुधकर भावना द्वारा कुलकुण्डलिनी को बिलकुल सहस्रार में ले जाये एवं उसी क्षण ही मूलाधार में ले आये। इस तरह से बार बार करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार का तेज लक्षित होगा।

26) मन्त्र चैतन्य :- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं ” मन्त्र को हृदय में ७ बार जपे।

27) मंत्रार्थ भावना:- देवता का शरीर और मन्त्र अभिन्न है, यही चिंतन करें।

28) निंद्रा भंग:- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं” मन्त्र को ह्रदय में १० बार जपे ।

29) कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।

3०) महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।

31) सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे ।

32) मुखशोधन:-“ ह्रीं हूँ ह्रीं ” मन्त्र को मुख में ७ बार जपे।

33) जिव्हाशुद्धि:- मत्स्यमुद्रा से आच्छादित करके “हें सौ:” मन्त्र को ७ बार जपे ।

34) करशोधन:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ” मन्त्र को कर में ७ बार जपे ।

35) योनिमुद्रा मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यंत अधोमुख त्रिकोण एवं ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यंत उर्ध्वमुख त्रिकोण अर्थात् इस प्रकार का षट्कोण की कल्पना कर बाद मे ऐं मन्त्र का १० बार जप करे।

36) अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें ।

37) मन्त्रचिंता:- मन्त्रस्थान में मन्त्र का चिंतन करे। अर्थात रात्रि के प्रथम दशदण्ड(4 घंटे) में ह्रदय में, परवर्ती दशदण्ड में विन्दुस्थान(मनश्चक्र के ऊपर), उसके बाद के दशदण्ड के बीच कलातीत स्थान में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के प्रथम दशदण्ड के बीच ब्रह्मरंध्र में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के द्वितीय दशदण्ड में ह्रदय में एवं तृतीय दशदण्ड में मनश्चक्र में मन्त्र का चिंतन करे।

38) उत्कीलन :- देवता की गायत्री १० बार जपे।

“ॐ ह्रीं उग्रतारे विद्महे शमशान वासिनयै धीमहि तन्नो स्तारे प्रचोदयात्।”

39) दृष्टिसेतु:- नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार प्रणव का जप करे।

40) जपारंभ:- सहस्रार में गुरु का ध्यान, जिव्हामूल में मन्त्रवर्णो का ध्यान और ह्रदयमें ईष्टदेवता का ध्यान करके बाद में सहस्रार में गुरुमूर्ति तेजोमय, जिव्हामूल में मन्त्र तेजोमय और ह्रदयमें ईष्टदेवता की मूर्ति तेजोमय, इस तरह से चिंतन करे। अनंतर में तीनों तेजोमय की एकता करके, इस तेजोमय के प्रभाव से अपने को भी तेजोमय और उससे अभिन्न की भावना करे। इसके बाद कामकला का ध्यान करके अपना शरीर नहीं है अर्थात् कामकला का रूप त्रिविन्दु ही अपना शरीर के रूप में सोचकर जप का आरम्भ कर दे।

41) पुन: प्राणायाम:- ह्रीं मंत्र से 4/16/8

42) पुन: कुल्लुका, सेतु, महासेतु, अशोचभंग का जप :-

कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।
महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।
सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे ।
अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें ।

43) जपसमर्पण :- एक आचमनी जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सामने पात्र मे जल छोड़ दें -

" ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥"

44) क्षमायाचना :-
अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् ।
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जग
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त
्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् च ।
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥

45) प्रणाम :-
ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते ।
खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥

46) जप के पश्चात स्त्रोत, ह्रदय आदि का पाठ करना चाहिए ।

47) आसन छोडे:-
आसन के नीचे १ आचमनी जल छोडकर दाहिनी अनामिका द्वारा ३ बार “शक्राय वषट” कहकर उसी जल द्वारा तिलक कर तभी आसन छोड़ें। ऐसा नही करने पर इन्द्र आपकी सारी पुण्य को ले जाते हैं ।

विशेष द्रष्टव्य :-
यह क्रिया पूर्णतः तांत्रिक है । किसी कौलचार्य से शाक्ताभिषेक या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर ही उपरोक्त अनुष्ठान करें तभी फल लाभ की आशा की जा सकती है।

उग्रतारा पुरश्चरण मे ९ दिन मे कम से कम १ लाख मंत्र जप होना अनिवार्य है।

उग्रतारा देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करती है। वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है।

"कोई भी साधना फेसबुक या अन्य नेटवर्किंग साइट पर देखकर नही हो सकती। यदि फेसबुक पर देख कर कोई साधना होती तो सभी सिद्ध हो जाते। फेसबुक पर साधना संबंधी लेख भेजने का तात्पर्य है उक्त देव या देवी के विषय मे ज्ञान प्राप्त करना , उनके विषय मे जानना । साधना करने के लिए सद्गुरु का होना परम आवश्यक है । शक्ति साधना करने के लिए शक्तभिषेक , पूर्णाभिषेक का भी होना परमावश्यक है । " अतएव आप किसी कौलचार्य के मंत्र ग्रहण कर साधना करे तो उसका परिणाम बहुत ही लाभदायक होगा ।"

कालसर्प योग

कालसर्प योग निवारण के अनेक उपाय हैं । इस योग की शांति विधि विधान के साथ योग्य विद्धान एवं अनुभवी ज्योतिषी, कुल गुरू या पुरोहित के परामर्श के अनुसार किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से यथा योग्य समयानुसार करा लेने से दोष का निवारण हो जाता हैं । कुछ साधारण उपाय निम्न हैं:-
1. घर में वन तुलसी के पौधे लगाने से कालसर्प योग वालों को शान्ति प्राप्त होती हैं ।
2. प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं ।
3. विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं।
4. इलाहाबाद संगम पर व नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं ।
5. ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें । नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें ।
7. कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये ।
8. ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें ।
9. महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए ।
10. नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए ।
11. पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए ।
12. पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए ।
कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
13. शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं ।
14. सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें ।
15. 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं ।
16. गेहू या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं ।
17. राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं
केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं ।
18. हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें ।
19. हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें ।
20. राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में
धारण करें । शिव लिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए ।

श्री गुरु स्तोत्रम्

श्री गुरु स्तोत्रम्
|| श्री महादेव्युवाच ||
 
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||
 
       श्री गुरु स्तोत्रम्       श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है – इस बारे में वर्णन करें | 
 
|| श्री महादेव उवाच ||
 
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||
 
              श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१|| 
 
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||
 
              प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२||      
 
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||
 
              वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३||      
 
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||
 
              भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||
 
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||
 
              प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||      
 
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||
 
              काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६||      
 
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||
 
              भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७||      
 
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||
 
              भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||
 
                    
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||
 
              गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||      
 
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||
 
              हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन – ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०||      
 
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||
 
              तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११||        
 
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||
 
              इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२||        
 
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
 
||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||

निंद्रा की देवी

अक्सर साधको को साधना के समय नींद आने लगती है।खासकर रात्रि कालीन साधनाओं में ऐसी समस्या होना आम बात है।वैसे तो रात्रि कालीन साधना अगर चल रही हो तो दिन में सो जाना चाहिए।पर कुछ साधनाओं में दिन में सोना तक वर्जित होता है।और यदि साधना में हलकी सी भी नींद लग जाये तो साधना खंडित होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है.ऐसी समस्याओं से मुक्ति हेतु प्रस्तुत है एक दिव्य प्रयोग।जिससे साधना में निद्रा से आप मुक्ति पा सकते है।परन्तु पहले इसे सिद्ध करना आवश्यक है।

सिद्ध विधि : किसी भी शुक्रवार की रात्रि को उत्तर की और मुख कर बैठ जाये सामने महाकाली का कोई भी चित्र लाल वस्त्र पर स्थापित करे।आपके आसन वस्त्र भी लाल हो।गणेश पूजन,गुरु पूजन संपन्न करे।महाकाली का सामान्य पूजन करे।लोबान की अगरबत्ती जलाये,दूध से बनी कोई मिठाई का भोग लगाये।शुद्ध घी का दीपक हो। एक नारियल भी माँ के पास रखे।अब रुद्राक्ष माला से मंत्र की ९ माला जाप करे।अगले दिन मिठाई स्वयं खा ले।नारियल देवी मंदिर में अर्पण कर दे।इस प्रकार मात्र एक रात्रि में ये मंत्र सिद्ध हो जाता है। अब जब भी आपको रात्रि में साधना करना हो दोनों नेत्रों पर अपने हाथ रखे और मंत्र को २१ बार पड़कर माँ से प्रार्थना कर ले जब तक आपकी साधान चलेगी आपकी निद्रा का स्तम्भन हो जायेगा।साधना के बाद माँ से प्रार्थना करके आँखों में पानी के छीटे मारे इससे पुनः नींद आने लगेगी।

मंत्र:-
 || भक्ति करन बैठे माई, निद्रा देबी सताए,
हाँक परी महाकाली की निद्रा देबी जाये ||

क्षेत्रपाल-भैरवाष्टक

क्षेत्रपाल-भैरवाष्टक-स्तोत्र
विश्वसार-तन्त्र का यह स्तोत्र भावपूर्वक पाठ करने मात्र से प्रभाव दिखाता है।
यं यं यं यक्ष-रूपं दश-दिशि-वदनं भूमि-कम्पाय-मानम्।
सं सं सं संहार-मूर्ति शिर-मुकुट-जटा-जूट-चन्द्र-बिम्बम्॥
दं दं दं दीर्घ-कायं विकृत-नख-मुखं ऊर्ध्व-रोम-करालं।
पं पं पं पाप-नाशं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥१॥
रं रं रं रक्त-वर्णं कट-कटि-तनुं तीक्ष्ण-दंष्ट्रा-करालम् ।
घं घं घं घोष-घोषं घघ-घघ-घटितं घर्घरा-घोर-नादं॥
कं कं कं काल-रूपं धिग-धिग-धृगितं ज्वालित-काम-देहं।
दं दं दं दिव्य-देहं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥२॥
लं लं लं लम्ब-दन्तं लल-लल-लुलितं दीर्घ-जिह्वा-करालं।
धूं धूं धूं धूम्र-वर्णं स्फुट-विकृत-मुखं भासुरं भीम-रूपं॥
रुं रुं रुं रुण्ड-मालं रुधिर-मय-मुखं ताम्र-नेत्रं विशालं।
नं नं नं नग्न-रूपं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥३॥
वं वं वं वायु-वेगं प्रलय-परिमितं ब्रह्म-रूपं-स्वरूपम्।
खं खं खं खङ्ग-हस्तं त्रिभुवननिलयं भास्करं भीमरूपं॥
चं चं चं चालयन्तं चल-चल-चलितं चालितं भूत-चक्रं।
मं मं मं माया-रूपं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥४॥
शं शं शं शङ्ख-हस्तं शशि-कर-धवलं यक्ष-सम्पूर्ण-तेजं।
मं मं मं माय-मायं कुलमकुल-कुलं मन्त्र-मूर्ति स्व-तत्वं॥
भं भं भं भूत-नाथं किल-किलित-वचश्चारु-जिह्वालुलंतं।
अं अं अं अंतरिक्षं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥५॥
खं खं खं खङ्ग-भेदं विषममृत-मयं काल-कालांधकारं।
क्षीं क्षीं क्षीं क्षिप्र-वेगं दह दह दहनं गर्वितं भूमि-कम्पं॥
शं शं शं शान्त-रूपं सकल-शुभ-करं देल-गन्धर्व-रूपं।
बं बं बं बाल-लीलां प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥६॥
सं सं सं सिद्धि-योगं सकल-गुण-मयं देव-देव-प्रसन्नम्।
पं पं पं पद्म-नाभं हरि-हर-वरदं चन्द्र-सूर्याग्नि-नेत्रं ।
जं जं जं यक्ष-नागं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥७॥
हं हं हं हस-घोषं हसित-कहकहा-राव-रुद्राट्टहासम्।
यं यं यं यक्ष-सुप्तं शिर-कनक-महाबद्-खट्वाङ्गनाशं॥
रं रं रं रङ्ग-रङ्ग-प्रहसित-वदनं पिङ्गकस्याश्मशानं।
सं सं सं सिद्धि-नाथं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥८॥
॥फल-श्रुति॥
एवं यो भाव-युक्तं पठति च यत: भैरवास्याष्टकं हि ।
निर्विघ्नं दु:ख-नाशं असुर-भय-हरं शाकिनीनां विनाश:॥
दस्युर्न-व्याघ्र-सर्प: घृति विहसि सदा राजशस्त्रोस्तथाज्ञातं।
सर्वे नश्यन्ति दूराद् ग्रह-गण-विषमाश्चेति तांश्चेष्टसिद्धि:॥

बगला माला-मन्त्र

शत्रुनाशक बगला माला-मन्त्र
ॐ नमो भगवति ॐ नमो वीरप्रतापविजय भगवति बगलामुखि मम सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं गतिं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मीं मुद्रय मुद्रय बुद्धिं विनाशय विनाशय अपराबुद्धिं कुरु कुरु आत्मविरोधिनां शत्रूणां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिकोरु पद अणुरेणु दन्तोष्ठ जिह्वा तालु गुह्य गुद कटि जानु सर्वाङ्गेषु केशादिपादपर्यन्तं पादादिकेशपर्यन्तं स्तम्भय स्तम्भय खें खीं मारय मारय परमन्त्र परतन्त्राणि छेदय छेदय आत्मयन्त्रमन्त्रतन्त्राणि रक्ष रक्ष सर्वग्रहं निवारय निवारय व्याधिं विनाशय विनाशय दुखं हर हर दारिद्रयं निवारय निवारय सर्वमन्त्रस्वरूपिणि सर्वतन्त्रस्वरूपिणि सर्वशिल्प-प्रयोग-स्वरूपिणि सर्वतत्वस्वरूपिणि दुष्टग्रह भूतग्रह आकाशग्रह पाषाणग्रह सर्वचाण्डालग्रह यक्षकिन्नर-किम्पुरुषग्रह भूतप्रेतपिशाचानां शाकिणी-डाकिणीग्रहाणां पूर्वदिशां बन्धय बन्धय वार्तालि मां रक्ष रक्ष दक्षिणदिशां बन्धय बन्धय किरातवार्तालि मां रक्ष रक्ष पश्चिमदिशां बन्धय बन्धय स्वप्नवार्तालि मां रक्ष रक्ष उत्तरदिशां बन्धय बन्धय कालि मां रक्ष रक्ष ऊर्ध्वदिशं बन्धय बन्धय उग्रकालि मां रक्ष रक्ष पातालदिशं बन्धय बन्धय बगलापरमेश्वरि मां रक्ष रक्ष सकलरोगान् विनाशय विनाशय सर्वशत्रून् पलायनाय पञ्चयोजनमध्ये राजजनस्त्रीवशतां कुरु कुरु शत्रून् दह दह पच पच स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहय आकर्षय आकर्षय मम शत्रून् उच्चाटय उच्चाटय हुम् फट् स्वाहा !

श्रीमहाविद्या-कवच

महाभय-निवारक, सर्वरक्षक श्रीमहाविद्या-कवच
ॐ प्राच्यां रक्षतु मे तारा, कामरुप-निवासिनी,
आग्नेयां षोडशी पातु, याम्यां धूमावती स्वंय ।।१।।
नैर्ऋत्यां भैरवी पातु, वारुण्यां भुवनेश्वरी,
वायव्यां सततं पातु, छिन्नमस्ता महेश्वरी ।।२।।
कौबेर्यां पातु मे देवी, श्रीविद्या बगलामुखी,
ऐशान्यां पातु मे नित्यं, महा-त्रिपुर-सुन्दरी ।।३।।
उर्ध्वं रक्षतु मे विद्या, मातंगी पीठ-वासिनी,
सर्वत: पातु मे नित्यं, कामाख्या कालिका स्वयं।।४।।
ब्रह्म-रुपा महा-विद्या, सर्व-विद्या-मयी स्वयं,
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा, भालं श्रीभव-गेहिनी ।।५।।
त्रिपुरा भ्रू-युगे पातु, शर्वाणी पातु नासिकाम्,
चक्षुषी चण्डिका पातु, श्रोत्रे नील-सरस्वती।।६।।
मुखं सौम्यमुखी पातु, ग्रीवां रक्षतु पार्वती,
जिह्वां रक्षतु मे देवी, जिह्वा-ललन-भीषणा।।७।।
वाग्देवी वदनं पातु, वक्ष: पातु महेश्वरी,
बाहू महा-भुजा पातु, करांगुली: सुरेश्वरी ।।८।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या, कट्यां देवी दिगम्बरी,
उदरं पातु मे नित्यं, महाविद्या महोदरी ।।९।।
उग्र-तारा महा-देवी, जंघोरू परि-रक्षतु,
गुदं मुष्कं च मेढ्रं च, नाभि च सुर-सुन्दरी।।१०।।
पदांगुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी,
रक्तं-मांसास्थि-मज्जादीन, वातु देवी शवासना।।११।।
महा-भयेषु घोरेषु, महाभय- निवारिणी,
पातु देवी महामाया, कामाख्या पीठवासिनी।।१२।।
भस्माचल-गता दिव्य-सिंहासन-कृताश्रया,
पातु श्रीकालिका-देवी, सर्वोत्पातेषु सर्वदा।।१३।।
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, कवचेनापि वर्जितम्,
तत्-सर्वं सर्वदा पातु, सर्व-रक्षण-कारिणी।।१४।।

भूतशुद्धि

भूतशुद्धि
आगमोक्त पूजन में "भूतशुद्धि" एक आवश्यक अंग है। यह आगम में राजयोग का हिस्सा है। यों तो ग्रन्थों में इसके विस्तृत विधान का वर्णन है परन्तु इसके एक सुगम मन्त्रात्मक विधान का मैं उल्लेख आप विद्वत जनों के समालोचनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
निम्मन मन्त्र पढते हुए वाम नासिका से श्वास ग्रहण करे:
ॐ भूत-श्रृङ्गाटाच्छिर: सुषुम्नापथेन जीव शिवं परमशिव पदे योजयामि स्वाहा
अब श्वास को रोके रख निम्मन मन्त्रों को पढे:
ॐ यं लिङ्ग शरीरं शोषय शोषय स्वाहा
ॐ रं संकोच शरीरं दह-दह पच-पच स्वाहा
ॐ वं परमशिवामृतं वर्षय-वर्षय स्वाहा
ॐ शाम्भव शरीरं उत्पादय-उत्पादय स्वाहा
अब निम्मन मन्त्र पढते हुए दाहिनी नासिका से धीरे-धीरे श्वास को छोड़े:
ॐ हंस: सोऽहम् अवतरावतर परमशिव जीवं सुषुम्ना-पथेन प्रविश मूल श्रृङ्गाटमुल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा
अपने शरीर को सभी पापों से मुक्त एवं देवता की साधना के योग्य समझे।
"भूत-शुद्धि" करें या "ॐ ह्रौं " का ११बार जप करे ।
आचमन, प्राणायाम कर इष्टदेवता का मानसोपचार (संभव हो तो बाह्य भी) पूजन करे ।

भैरव मंत्र

सर्व मनोकामना पूरक भैरव देव जी का नित्य जाप करने के लिए शाबर मंत्र जन हितार्थ प्रस्तुत है।
ॐ सत् नमो आदेश गुरु को आदेश
गुरूजी चंडी चंडी तो प्रचंडी
अला-वला फिरे नवखंडी
तीर बांधू तलवार बांधू बीस कोस पर बांधू वीर
चक्र ऊपर चक्र चले भैरव वली के आगे धरे
छल चले वल चले तब जानबा काल भैरव तेरा रूप कौन भैरव
आदि भैरव युगादी भैरव त्रिकाल भैरव कामरु देश रोला मचाबे
हिन्दू का जाया मुसलमान का मुर्दा फाड़ फाड़ बगाया
जिस माता का दूध पिया सो माता कि रक्षा करना
अबधूत खप्पर मैं खाये
मशान मैं लेटे
काल भैरव तेरी पूजा कोण मेटे
रजा मेटे राज-पाठ से जाये
योगी मेटे योग ध्यान से जाये
परजा मेटे दूध पूत से जाये
लेना भैरव लोंग सुपारी
कड़वा प्याला भेंट तुम्हारी
हाथ काती मोंडे मड़ा जहा सुमिरु ताहा हाज़िर खड़ा
श्री नाथ जी गुरूजी आदेश आदेश। ।
किसी भी पुष्य नक्षत्र या गुप्त नवरात्रि से किसी भी शुभ पर्व आदि को इस मंत्र को जाग्रत कर लें उसके बाद नित्य भैरव जी के सामने इस मंत्र कि दो माला का जाप करे। या यथाशक्ति जाप करे।

श्री बगला दिग्बंधन रक्षा स्तोत्रम्

श्री बगला दिग्बंधन रक्षा स्तोत्रम्
ब्रह्मास्त्र प्रवक्ष्यामि बगलां नारदसेविताम् ।
देवगन्धर्वयक्षादि सेवितपादपंकजाम् ।।
त्रैलोक्य-स्तम्भिनी विद्या सर्व-शत्रु-वशंकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व-वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां द्राविणि-द्राविणि भ्रामिणि एहि एहि सर्वभूतान् उच्चाटय-उच्चाटय सर्व-दुष्टान निवारय-निवारय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनीः छिन्धि-छिन्धि खड्गेन भिन्धि-भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान् भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भुपर्ति कीलय कीलय मुखस्तम्भनं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
आत्मा रक्षा ब्रह्म रक्षा विष्णु रक्षा रुद्र रक्षा इन्द्र रक्षा अग्नि रक्षा यम रक्षा नैऋत रक्षा वरुण रक्षा वायु रक्षा कुबेर रक्षा ईशान रक्षा सर्व रक्षा भुत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी रक्षा अग्नि-वैताल रक्षा गण गन्धर्व रक्षा तस्मात् सर्व-रक्षा कुरु-कुरु, व्याघ्र-गज-सिंह रक्षा रणतस्कर रक्षा तस्मात् सर्व बन्धयामि ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्वदिशायां बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय इन्द्रशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्निदिशायां बन्धय बन्धय अग्निमुखं स्तम्भय स्तम्भय अग्निशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं अग्निस्तम्भं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महिषमर्दिनि एहि-एहि दक्षिणदिशायां बन्धय बन्धय यमस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय यमशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं हृज्जृम्भणं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्यदिशायां बन्धय बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय नैऋत्यशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं करालनयने एहि-एहि पश्चिमदिशायां बन्धय बन्धय वरुण मुखं स्तम्भय स्तम्भय वरुणशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्यदिशायां बन्धय बन्धय वायु मुखं स्तम्भय स्तम्भय वायुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महा-त्रिपुर-सुन्दरि एहि-एहि उत्तरदिशायां बन्धय बन्धय कुबेर मुखं स्तम्भय स्तम्भय कुबेरशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं महा-भैरवि एहि-एहि ईशानदिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशानशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं गांगेश्वरि एहि-एहि ऊर्ध्वदिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्माणं चतुर्मुखं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ललितादेवि एहि-एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि-एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकिशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
दुष्टमन्त्रं दुष्टयन्त्रं दुष्टपुरुषं बन्धयामि शिखां बन्ध ललाटं बन्ध भ्रुवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णौ बन्ध नसौ बन्ध ओष्ठौ बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वा बन्ध रसनां बन्ध बुद्धिं बन्ध कण्ठं बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षिं बन्ध हस्तौ बन्ध नाभिं बन्ध लिंगं बन्ध गुह्यं बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध हंघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग मृत्यु पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय स्वेतवर्णाय वज्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि अग्नये तेजोधिपतये छागवाहनाय रक्तवर्णाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय कृष्णवर्णाय दण्डहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधिपतये मकरवाहनाय श्वेतवर्णाय पाशहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय धूम्रवर्णाय ध्वजाहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधिपतये वृषवाहनाय कर्पूरवर्णाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्वदिग्लोकपालाधिपतये हंसवाहनाय श्वेतवर्णाय कमण्डलुहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वैष्णवीसहिताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय श्यामवर्णाय चक्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि रविमण्डलमध्याद् अवतर अवतर सान्निध्यं कुरु-कुरु । ॐ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नमः । मम सान्निध्यं कुरु कुरु । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्गरशरसंयुक्ते दक्षिणे जिह्वावज्रसंयुक्ते वामे श्रीमहाविद्ये पीतवस्त्रे पञ्चमहाप्रेताधिरुढे सिद्धविद्याधरवन्दिते ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-पूजिते आनन्द-सवरुपे विश्व-सृष्टि-स्वरुपे महा-भैरव-रुप धारिणि स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-स्तम्भिनी वाममार्गाश्रिते श्रीबगले ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-रुप-निर्मिते षोडश-कला-परिपूरिते दानव-रुप सहस्रादित्य-शोभिते त्रिवर्णे एहि एहि मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भय स्तम्भय अन्य-भूत-पिशाचान् खादय-खादय अरि-सैन्यं विदारय-विदारय पर-विद्यां पर-चक्रं छेदय-छेदय वीरचक्रं धनुषां संभारय-संभारय त्रिशूलेन् छिन्ध-छिन्धि पाशेन् बन्धय-बन्धय भूपतिं वश्यं कुरु-कुरु सम्मोहय-सम्मोहय विना जाप्येन सिद्धय-सिद्धय विना मन्त्रेण सिद्धि कुरु-कुरु सकलदुष्टान् घातय-घातय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरु-कुरु सकल-कुल-राक्षसान् दह-दह पच-पच मथ-मथ हन-हन मर्दय-मर्दय मारय-मारय भक्षय-भक्षय मां रक्ष-रक्ष विस्फोटकादीन् नाशय-नाशय ॐ ह्लीं विष-ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विषं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा ।
ॐ बगलामुखि स्वाहा । ॐ पीताम्बरे स्वाहा । ॐ त्रिपुरभैरवि स्वाहा । ॐ विजयायै स्वाहा । ॐ जयायै स्वाहा । ॐ शारदायै स्वाहा । ॐ सुरेश्वर्यै स्वाहा । ॐ रुद्राण्यै स्वाहा । ॐ विन्ध्यवासिन्यै स्वाहा । ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा । ॐ दुर्गायै स्वाहा । ॐ भवान्यै स्वाहा । ॐ भुवनेश्वर्यै स्वाहा । ॐ महा-मायायै स्वाहा । ॐ कमल-लोचनायै स्वाहा । ॐ तारायै स्वाहा । ॐ योगिन्यै स्वाहा । ॐ कौमार्यै स्वाहा । ॐ शिवायै स्वाहा । ॐ इन्द्राण्यै स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं शिव-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा । ॐ ह्लीं माया-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा । ॐ ह्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि शिरसे स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा-भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कर्णौ रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नसौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे विन्ध्यवासिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बाहू त्रिपुर-सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः हृदयं रक्षतु भवानी रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमललोचने रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः सर्वांगं रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु योगिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः दक्षिणपार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वामपार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ गं गां गूं गैं गौं गः गणपतये सर्वजनमुखस्तम्भनाय आगच्छ आगच्छ मम विघ्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकालमृत्युं हन हन भो गणाधिपते ॐ ह्लीम वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा सिद्धिर्भवति नान्यथा ।
भ्रूयुग्मं तु पठेत नात्र कार्यं संख्याविचारणम् ।।
यन्त्रिणां बगला राज्ञी सुराणां बगलामुखि ।
शूराणां बगलेश्वरी ज्ञानिनां मोक्षदायिनी ।।
एतत् स्तोत्रं पठेन् नित्यं त्रिसन्ध्यं बगलामुखि ।
विना जाप्येन सिद्धयेत साधकस्य न संशयः ।।
निशायां पायसतिलाज्यहोमं नित्यं तु कारयेत् ।
सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि देवी तुष्टा सदा भवेत् ।।
मासमेकं पठेत् नित्यं त्रैलोक्ये चातिदुर्लभम् ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति देव्या लोकं स गच्छति ।।
श्री बगलामुखिकल्पे वीरतन्त्रे बगलासिद्धिप्रयोगः ।

जप यज्ञ

।। जप यज्ञ ।।
विश्व के सभी धर्मों ने भगवत् प्राप्ति हेतु जप को विशेष मान्यता प्रदान की है। आर्य, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म सभी जप को महत्व देते हैं। आगम शास्त्र इस विषय पर निर्देश देते हैं :-
''सर्वेषां कर्मणां श्रेष्ठं-जपज्ञांन महेश्वरि
जप यज्ञो महेशानि-मत्स्वरूपो न संशय:
जपेन देवता नित्यं-स्तूयमाना प्रसीदति
प्रसन्ना विपुलां कामान्-दद्यान्मुक्ति च शाश्वतीम्''
(हे देवि! जप करना सर्वश्रेष्ट कर्म है। जपयज्ञ स्वयं मेरा ही स्वरूप है। जप करने से देवता प्रसन्न होकर समस्त कामनाओं की पूर्ति करके मुक्ति भी प्रदान करते हैं)
मनु महाराज का कथन है :-
''विधि यज्ञा जप यज्ञो-विशिष्टों दशभिगुर्णै''
आगम शास्त्रों में जप की महिमा का वर्णन निम्न प्रकार किया गया है:-
''जप यज्ञात्परो यज्ञो-नापरोस्तीह कश्चन:
तस्मात्जपेन धर्मार्थं-काम मोक्षाश्च साधयेत्''
(जप यज्ञ के समान श्रेष्ट कुछ भी नहीं है। अत: जप करके धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए।)
अन्यच्च :-
''सर्वयज्ञेषु सर्वत्र-जप यज्ञ: प्रशस्यते
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन-जप निष्ठापरो भवेत्''
(अत: समस्त प्रयास करते हुए जप में पूर्ण निष्ठा रखनी चाहिए। सर्वत्र तथा सर्वकाल में जप करना प्रशस्त है।)
भगवान श्रीकृष्ण जप की श्रेष्टता का सम्पादन करते हुए कहते हैं कि मैं ही यज्ञो में सर्वश्रेष्ट जपयज्ञ हूँ:-
''यज्ञानां जप यज्ञोस्मि।''
आचार्यपाद शंकराचार्य जी जप को ही योगक्षेम का कारण मानते हैं :-
''तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदम्
जन: को जानीते जननि जपनीयं जप विधौ''
आचार्यपाद के अनुसार जप यज्ञ अत्यन्त कठिन एवं गुरूमुखगम्य है। जप किसी मंत्र विशेष का किया जाता है तथा मंत्र अक्षरों से बनता है। अक्षर = अ+क्षरण अर्थात् जिसका नाश नहीं होता वही अक्षर है तथा मंत्र ही अक्षर ब्रह्म है। अक्षरों से बना मंत्र इसी कारण 'शब्दब्रह्म' कहा जाता है। वेदपाठ एवं स्तोत्रादि का उच्च स्वर से पाठ करते समय समीपवर्ती वातावरण भी पवित्र हो जाता है तथा आनन्द की प्राप्ति कराता है।
शास्त्रों में जप के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते हुए उनकी पारस्परिक महत्ता का प्रतिपादन किया गया है :-
''वाचिकश्च उपांशुश्च-मानस स्त्रिविधि स्मृत:
त्रयांणा जप यज्ञांना-श्रेयान् स्यादुत्तरोत्तरम्''
अर्थात् वाचिकजप से श्रेष्ट उपांशु जप तथा उससे श्रेष्ठ मानसिक जप माना गया है। जब तक सतत अभ्यास द्वारा साधक की वृत्ति अन्तमुर्खी नहीं हो जाती तब तक जप का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। जप की सिद्धि का सम्बन्ध प्राणों (वायु) के आयाम (रोकना) से भी होता है। जप जितना अन्तमुर्खी होता जायेगा उस समय श्वास की गति उतनी ही कम (मन्द गति) हो जायेगी तथा एक आनन्द की अनुभूति होगी।
''मनसा य: स्मरेस्तोत्रं वचसा वा मनु जपेत्। उभयं निष्फलं देवि।''
(स्तोत्र को मन ही मन पढ़ना तथा जप को वाणी से उच्चारण करना निष्फल हो जाता है।) जप हमेशा मानसिक होना चाहिए।
''उत्तमो मानसो देवि! त्रिविध: कथितो जप:''
अभ्यास करते-करते साधक को निम्न छ: प्रकार की स्थितियों से गुजरना पड़ता है यथा- परातीतजप, पराजप, पश्यन्ती जप, मध्यमा जप, अन्त:वैरवरी जप तथा बहिरवैरवरी जप। जिस जप में जीभ तथा होठों को हिलाया जाता है वह जप बहिरवैरवरी के अन्तर्गत आता है। जब जिह्वा तथा होठों का संचालन किए बिना जप आरम्भ हो जायेगा उस समय जप के स्पन्दनों का प्रवाह हृदय चक्र की तरफ होने लगेगा तथा श्वास की गति अत्यन्त धीमी हो जायेगी। बाहर की तरफ श्वास चलना लगभग बन्द हो जायेगा। गुरूमुख से प्राप्त चैतन्य मंत्र का जप करते समय साधक को इस स्थिति का लाभ अल्प समय में ही मिलने लगता है। यह केवल स्वानुभव का विषय है। ऐसा जप साधक के मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान तथा मणिपूरक चक्र में स्वयं उच्चरित होता हुआ प्रतीत होता है। यह स्थिति मध्यमा जप सिद्ध हो जाने पर आती है तथा वास्तविक जप का श्री गणेश यहीं से माना जाता है। ऐसी अवस्था आ जाने पर साधक की वृत्ति अन्तमुर्खी हो जाती है और तब जप करने के लिए किसी आसन विशेष की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस जप का साधक लेटे, सोये, उठे, बैठे, खाते-पीते भी अनुभव कर सकता है। शास्त्र बताते हैं कि मध्यमा जप की स्थिति आ जाने पर अनाहत चक्र में कई तरह के नाद भी उत्पन्न होते हैं जिन्हें जप कर्ता सुन सकता है। प्राय: साधक को अपना मंत्र अन्दर से स्वयं ही सुनाई देता है।
मध्यमा स्थिति के पश्चात् जप की तीसरी भूमिका पश्यन्ती पर साधक पदार्पण करता है। ऐसी स्थिति में साधक को अपना मंत्र आज्ञाचक्र (भ्रूमध्य) में प्रतिविम्बित होता दिखाई देता है। आचार्यपाद शंकराचार्य जी ने पश्यन्ती जप का स्थान आज्ञाचक्र बताते हुए लिखा है :-
''तवाज्ञाचक्रस्थं तपन शशि कोटि द्युतिधरं
परंशम्भु वन्दे परिमिलत पार्श्वं परिचिता''
(सौन्दर्य लहरी)
जप से उत्पन्न नाद की स्थिति केवल विशुद्धि चक्र (कंठ स्थान) तक ही सीमित रहती है। उसके बाद आज्ञा चक्र में स्वमंत्र प्रकाशमय अवस्था में दिखाई देता है। अत: आज्ञाचक्र के ऊपर के चक्रों में स्वमंत्र का दर्शन होना ही पश्चन्ती जप का सिद्ध हो जाना माना जाता है।
जब स्वमंत्र के सभी स्वर-व्यंजन सकुंचित होकर बिन्दु में लय हो जाते हैं तो यह अवस्था 'पराजप' की अवस्था कही जाती है। इस स्थिति को प्राप्त साधक परमानन्द की अनुभूति करने लगता है। इस अवस्था का वर्णन भगवान् श्री कृष्ण ने भी किया है :-
''युन्जन्नेवं सदात्मांन-योगी विगत कल्मश:
सुखेन ब्रह्म संस्पर्श-अत्यंन्त सुख मश्नुते।।''
(गीता)
इससे पूर्व के श्लोक में कहा गया है कि जिस प्रकार कछुआ अपने सभी अंगो को अपने में ही समेट कर छोटा हो जाता है उसी प्रकार मंत्र के वर्णादि भी बिन्दु में लय हो जाते हैं। इस बिन्दु का कम्पन ही आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति दिलाता है जिसे ब्रह्म संस्पर्श का आनन्द मिलना कह सकते हैं।
मंत्र के अवयवों का शुद्ध उच्चारण जिह्वा तथा हौठों के विभिन्न स्थानों पर स्पर्श के कारण होता है परन्तु मंत्र के अद्धर्मात्रा में स्थित बिन्दु का उच्चारण सही रूप से तभी हो पाता है जब श्री सत्गुरू शिष्य को इसे उच्चारित कर बताते हैं। इसके सम्बन्ध में निम्न प्रमाण है -
''अमोध मव्यंजन मस्वंर च-अंकढ ताल्वोष्ट नासिकं च
अरेफ जातोपयोष्ठ वर्जितं-यदक्षरो न क्षरेत् कदाचित।।''
सहस्रार एवं उसके ऊपर के चक्रों-स्थानों पर ब्रह्मसंस्पर्श ही जप की अनुभूति कराता है। यहॉं पर समस्त बाह्य कियाऐं नष्ट हो जाती हैं। इस विषय पर आगम बचन है :-
''प्रथमे वैखरी भावो-मध्यमा हृदये स्थिता
भ्रूमध्ये पश्यन्ती भाव:-पराभाव स्वद्विन्दुनी।।''
महानिर्वाण तन्त्र में इनका सम्बन्ध वहिरअर्चन-ध्यानादि के साथ निम्न प्रकार वर्णित हैं -
उत्तमों ब्रह्म सद्भावो यह परावाक् नाम अन्तिम स्थिति है।
ध्यान भावस्तु मध्यम यह पश्यन्ती स्थिति है।
जप-पूजा अधमा प्रोक्ता यह मध्यमा जप की स्थिति है।
बाह्यपूजा अधमाधमा यह वहिरवैर्रवरी स्थिति है।
इस प्रकार सतत जप से आत्म-साक्षात्कार रूपी लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। पूर्वोक्त अवस्थाओं की प्राप्ति हेतु हठयोगादि का अवलम्बन न केवल दुरूह वरन् परम हानिकारक भी सिद्ध होता है। आगम शास्त्र जप की सिद्धि के लिए निम्न उपायों का वर्णन करने हैं :-
(1) सिद्ध गुरू की प्राप्ति (2) स्वगुरूक्रम का यथोक्तचिन्तन (3) शुद्ध संस्कारों की प्राप्ति (4) मल निवृत्ति (आणव, मायिक, कार्मिक) (5) वीर साधना का अवलम्बन (6) पूंर्वाग तथा उत्तंराग जप।
उपरोक्त सभी उपायों का विस्तृत वर्णन आगम शास्त्रों में मिलता है जिनके अवलोकन से ज्ञात होता है कि ये सभी अंग सिद्ध भूमिका में आरोहण करने के लिए नितान्त आवश्यक हैं। मूल मंत्र जप के साथ ही जप के पूंर्वाग तथा उत्तरांग मंत्रो का जप भी करना पड़ता है जो कि निम्नानुसार है :-
(1) मंत्र के शिव का जप (2) कुल्लका मंत्र (3) मंत्र उत्कीलन (4) संजीवन मंत्र (5) मंत्र शिखा (6) मंत्र चैतन्य (7) मंत्रार्थ (8) मंत्र शोधन (9) मंत्र संकेत (10) मंत्र ध्यान (11) सेतु (12) महासेतु (13) निर्वाण मंत्र (14) दीपिनी मंत्र (15) चौरमंत्र (16) मुख शोधन (17) मातृका पुटित जप।
स्थूल से सूक्ष्म की तरफ अग्रसर होना ही मंत्र जप का रहस्य है। जिसके लिए आगम शास्त्र कहते हैं :-
''पूजा कोटि संम स्तोत्रं-स्तोत्र कोटि समो जप
जप कोटि समो ध्यानं-ध्यान कोटि समो लय:।।''
अर्थात् वाहरी पूजा से स्तोत्रपाठ करना श्रेष्ट है। स्तोत्रपाठ से जप करना करोड़ गुना श्रेष्ट है। जप से ध्यान करना श्रेष्ट है। ध्यान से करोड़ गुना फलदायक 'लय' अवस्था (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त हो जाना है। जप के सम्बन्ध में उक्तानुसार संक्षेप में विवेचन किया गया है परन्तु समस्त प्रयासों के बावजूद भी मंत्र वही सिद्ध होगा जो शिष्य को सक्षम गुरू से प्राप्त हुआ होगा। आगम शास्त्र कहते हैं:-
सिद्ध मंत्र गुरोर्दीक्षा-लक्ष मात्रेण सौख्यदा
..............................................
महामुनि मुखान्मत्रं-श्रवणाद् भुक्ति-मुक्तिदम्
जपहीन गुर्रोर्वक्त्रा-पुस्तकेन समं भवेत।''

मंत्र की आवश्यकता

।। मंत्र की आवश्यकता ।।
हमारे धर्मशास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी आध्यात्मिक (धार्मिक) कार्य अथवा अनुष्ठान बिना किसी देवता को साक्षी बनाये तथा बिना किसी मंत्र का आश्रय लिए पूर्ण नहीं हो सकता है। जन्म से मृत्युपर्यन्त जितने भी कर्म-संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानादि किए जाते हैं वे सभी किसी न किसी मंत्र का आश्रय लेकर ही पूर्ण हो सकते हैं क्योंकि उस मंत्र का अधिष्ठाता देव-देवी ही हमारे सकाम अथवा निष्काम कर्मों का सुफल प्रदान करते हैं। जिस प्रकार अष्टांग योग की कियाऐं (अभ्यास) तथा औषधियों का सेवन प्रत्यक्षरूप से फलप्रद होता है उसी प्रकार मंत्र की शक्ति भी प्रत्यक्ष फलदाई होती है। शर्त यही है कि वह मंत्र किसी ग्रन्थ से नकल किया हुआ न होकर सिद्ध गुरू से प्राप्त हुआ होना चाहिए। जो व्यक्ति पुस्तकों से प्राप्त मंत्रों का जप करते हैं उन्हें कोई लाभ नहीं हो सकता है वरन् पग-पग पर शारीरिक एवं मानसिक ब्याधियों का शिकार होना पड़ता है :-
''पुस्तके लिखितो मंत्रो-येन सुन्दरि ! जप्यते
न तस्य जायते सिद्धि-हानिरेव पदे पदे'' -(चामुन्डा तंत्र)
''पुस्तके लिखिता मंत्रान्-विलोक्य प्रजपन्ति ये
ब्रह्महत्या समं तेषां-पातकं परिकीर्तितम्''
(जो व्यक्ति पुस्तकों से प्राप्त मंत्र जपते हैं उन्हें ब्रह्महत्या के समान पाप का भागी होना पड़ता है।)
।। मंत्र का अभिप्राय ।।
विभन्न मंत्रशास्त्रों में मंत्र को अनेक प्रकार परिभाषित किया गया है :-
''मननाद् विश्वविज्ञानं-त्रांणसंसार बन्धनात्
.....................................................
त्रायते सतंत चैव तस्मांन्मत्र इतीरित%''
(जिसका मनन करने से समस्त ब्रह्मान्ड का ज्ञान हो जाता है, साधक सांसारिक बन्धन से छूट जाता है तथा जो रोग-शोक, भय, दु:ख एवं मृत्यु से सदैव रक्षा करता है उसको ही मंत्र कहते हैं।)
''मनना प्राणनां चैव-मद्रूपस्याव बोधनात्
.....................................................
त्रायते सर्वभयत:-तस्मान्मंत्र इतीरित।।''
(जो साधक की सभी भयों से रक्षा करता है तथा जिसका चिन्तन-मनन करने से आत्मतत्व-शिवरूप का बोध हो जाता है उसी को मंत्र कहते हैं।)
भगवान शंकर मॉं पार्वती को बताते हैं कि मंत्र तथा मंत्रार्थ को समझने वाला साधक समस्त सिद्धियों का स्वामी ही नहीं वरन् ईश्वरत्व प्राप्त करके जीवन्मुक्त हो जाता है। अत: साधक को सदैव मंत्र-जप में तत्पर रहना चाहिए।
बीज तथा मंत्र की महिमा का यशोगान करते हुए भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं:-
''सर्वेषामेव देवांना-मंत्र माद्य शरीरकम्
..................................................
ध्यानेन दर्शनं दत्वा-पुनर्मंत्रेषु लीयते''
¿बीज तथा मंत्र ही देवता का प्रथमरूप (आदिशरीर) है। बीज-मंत्र के जप से सम्बन्धित देवता प्रकट होकर साधक को दर्शन देते हैं और पुन: उसी बीज-मंत्र में समा जाते हैं।
।। मंत्रों के विभिन्न दोष तथा उनका संस्कार (शुद्धिकरण) ।।
प्रमुंख आगम-ग्रन्थ 'प्राणतोषिणी तंत्र' में मंत्रो के विभिन्न दोषों तथा उन दोषों से मंत्र को शुद्ध (दोषमुक्त) करने के उपायों (संस्कारों) का विस्तार से विवरण दिया गया है। दोषयुक्त मंत्र उसे कहते हैं जो -
''बहुकूटाक्षरो मुग्धो-बद्ध: क्रुद्धश्च भेदित:
........................................................
निस्नेहो विकल: स्तब्धो-निर्जीव: खन्डतारिक: ''
(बहुत कूटाक्षर वाला, मुग्ध, बद्ध, क्रुद्ध, भेदित, कुमार, युवा, बृद्ध गर्वित, स्तम्भितः, मूर्छित, खन्डित, बधिर, अन्ध, अचेतन, क्षुघित, दुष्ट, पीडि़त, निस्नेह, विकल, स्तब्ध, निर्जीव तथा खण्डतारिक मंत्र दोषपूर्ण होता है।)
मंत्र के अन्य दोष इस प्रकार है :-
''सुप्त: तिरस्कृतो लीढ,-मलिनश्च दुरासद:
.....................................................
जड़ो रिपु उदासीनो-लज्जितो मोहित प्रिये''
(भगवान शिव कहते हैं कि जो मंत्र सुप्त, तिरस्कृत, लीढ, मलिन, दुरासद, निसत्व, निर्दयी, दुग्ध, भयंकर, शप्त, रूक्ष, जड़, शत्रु, उदासीन, लज्जित तथा मोहित होते हैं वे भी दोषपूर्ण होते हैं)
भगवान शिव द्वारा उपरोक्त प्रकार बताए गए दोषपूर्ण मंत्रोको जप आरम्भ करने से पहले शुद्ध करना आवश्यक होता है। इसी मंत्र-शुद्धिकरण को ही मंत्रो का संस्कार कहते हैं। दोषयुक्त मंत्र का करोड़ों संख्या में जप करने से भी मंत्र-सिद्धि नहीं हो सकती है। तंत्र-शास्त्रों में मंत्र-शुद्धिकरण के लिए 10-संस्कारों का उल्लेख मिलता है। यथा –
''जनंन जीवनं पश्चात्-ताड़ंन बोधनं तथा
....................................................
तर्पणं दीपंन गुप्ति-संस्कारा कुल नायिके''
(दोषयुक्त मंत्र को शुद्ध करने के लिए जो 10-संस्कार किए जाते हैं उनके नाम हैं जनन, जीवन, ताड़न, बोधन, अभिषेक, विमलीकरण, आप्यायन, तर्पण, दीपन, गुप्ति।)
शास्त्र बताते हैं कि जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों पर धार लगाकर उन्हें तेज तथा धारदार बनाया जाता है उसी प्रकार मंत्र के 10-संस्कार करके उसे भी प्रभावशाली, सिद्धिप्रद तथा चैतन्य बना दिया जाता है। प्रसिद्ध तंत्र ग्रन्थ 'मंत्र महोदधि' तथा 'शारदा तिलक तंत्र' में मंत्र के 10-संस्कारों को सम्पादित करने के लिए जप की विधियां बताई गई है। सामान्य रूप से मंत्र संस्कारों की प्रचलित विधियों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
(1) जनन :- केशर, चन्दन अथवा भस्म से बनाए गए मातृकायंत्र से मंत्र-वर्णों का पर्याय क्रम से उद्धार करना।
(2) जीवन :- सभी मंत्र वर्णों को पंक्तिक्रम से प्रणव से सम्पुटित करके 100 बार जपना ।
(3) ताडन :- मंत्र के वर्णों को भोजपत्र पर लिखकर प्रत्येक वर्ण को चन्दन, जल तथा वायुबीज से 100-बार ताडि़त करना।
(4) बोधन :- उक्तानुसार मंत्र वर्णों को लिखकर मंत्र के वर्ण संख्या के बराबर कनेर पुष्पों से अग्निबीज से हनन करना।
(5) अभिषेक :- कुशमूल से भोजपत्र पर मंत्र को लिखकर मंत्र वर्णों की संख्या के बराबर पीपल के पत्तों से सिंचन करना।
(6) विमलीकरण :- सुषुम्ना के मूल तथा मध्य में मंत्र का ध्यान करके ज्योतिमंत्र से जलाना।
(7) आप्यायन :- भोजपत्र पर लिखे मंत्र को ज्योतिमंत्र का 108-जप करके अभिमंत्रित करना।
(8) तर्पण :- उक्तानुसार मंत्र लिखकर मंत्र की वर्ण संख्या में ज्योतिमंत्र से मधु से तर्पण करना।
(9) दीपन :- अपने मूलमंत्र को प्रणव माया तथा लक्ष्मी बीज से सम्पुटित करके 108 बार जपना।
(10) गोपन :- अपने मंत्र को गुप्त रखना तथा मंत्र जपते हुए अपने मन तथा प्राण का सुषुम्ना में लय करना।
जिस प्रकार सद्गुरू से प्राप्त मंत्र अत्यन्त गोपनीय होता है उसी प्रकार मंत्र के 10-संस्कारों को भी गोपनीय तथा केवल गुरूमुख से ज्ञातव्य रखा गया है।

महागणपति–आराधना

महागणपति–आराधना
शास्त्रकारों की आज्ञा के अनुसार गृहस्थ–मानव को प्रतिदिन यथा सम्भव पंचदेवों की उपासना करनी ही चाहिए। ये पंचदेव पंचभूतों के अधिपति हैैं। इन्हीं में महागणपति की उपासना का भी विधान हुआ है। गणपति को विध्नों का निवारक एवं ऋद्धि–सिद्धि का दाता माना गया है। ऊँकार और गणपति परस्पर अभिन्न हैं अत: परब्रह्यस्वरुप भी कहे गये हैं। पुण्यनगरी अवन्तिका में गणपति उपासना भी अनेक रुपों में होती आई है। शिव–पंचायतन में 1. शिव, 2. पार्वती, 3. गणपति, 4. कातकेय और 5. नन्दी की पूजा–उपासना होती है और अनादिकाल से सर्वपूज्य, विघ्ननिवारक के रुप में भी गणपतिपूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। गणपति के अनन्तनाम है। तन्त्रग्रन्थों में गणपति के आम्नायानुसारी नाम, स्वरुप, ध्यान एवं मन्त्र भी पृथक–पृथक दशत हैं। पौराणिक क्रम में षड्विनायकों की पूजा को भी महत्वपूर्ण दिखलाया है। उज्जयिनी में षड्विनायक–गणेष के स्थान निम्नलिखित रुप में प्राप्त होते है–
1. मोदी विनायक – महाकालमन्दिरस्थ कोटितीर्थ पर इमली के नीचे।
2. प्रमोदी ;लड्डूद्ध विनायक – विराट् हनुमान् के पास रामघाट पर।
3. सुमुख–विनायक ;स्थिर–विनायकद्ध– स्थिरविनायक अथवा स्थान–विनायक गढकालिका के पास।
4. दुमु‍र्ख–विनायक – अंकपात की सडक के पीछे, मंगलनाथ मार्ग पर।
5. अविघ्न–विनायक – खिरकी पाण्डे के अखाडे के सामने।
6. विघ्न–विनायक – विध्नहर्ता ;चिन्तामण–गणेशद्ध ।
इनके अतिरिक्त इच्छामन गणेश(गधा पुलिया के पास) भी अतिप्रसिद्ध है। यहाँ गणपति–तीर्थ भी है जिसकी स्थापना लक्ष्मणजी द्वारा की गई है ऐसा वर्णन प्राप्त होता है।
तान्त्रिक द्ष्टि से साधना–क्रम से साधना करते हैं वे गणपति–मन्त्र की साधना गौणरुप से करते हुए स्वाभीष्ट देव की साधना करते है। परन्तु जो स्वतन्त्र–रुप से परब्र–रुप से अथवा तान्त्रिक–क्रमोक्त–पद्धित से उपासना करते हैं वेश्गणेश–पंचांग में दशत पटल, पद्धित आदि का अनुसरण करते है। मूत–विग्रह–रचना वामसुण्ड, दक्षिण सुण्ड, अग्रसुण्ड और एकाधिक सुण्ड एवं भुजा तथा उनमें धारण किये हुए आयुधों अथवा उपकरणों से गणपति के विविध रुपों की साधना में यन्त्र आदि परिवतत हो जाते हैं। इसी प्रकार कामनाओं के अनुसार भी नामादि का परिवर्तन होता हैं। ऋद्धि–सिद्धि (शक्तियाँ), लक्ष–लाभ(पुत्र) तथा मूशक(वाहन) के साथ समष्टि–साधना का भी तान्त्रिक विधान स्पृहणीय है।

मुख्य रूप से आठ भैरव माने गए हैं।

मुख्य रूप से आठ भैरव माने गए हैं।-
1-असितांग भैरव, 2. रुद्र भैरव, 3. चंद्र भैरव, 4. क्रोध भैरव, 5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाली भैरव, 7. भीषण भैरव और 8. संहार भैरव। आदि शंकराचार्य ने भी 'प्रपञ्च-सार तंत्र' में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं। तंत्र शास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है। 
3. बटुक भैरवजी तुरंत ही प्रसन्न होने वाले दुर्गा के पुत्र हैं। बटुक भैरव की साधना से व्यक्ति अपने जीवन में सांसारिक बाधाओं को दूर कर सांसारिक लाभ उठा सकता है। बटुक भैरव आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।। 2. बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। 'महा-काल-भैरव' मृत्यु के देवता हैं। 'स्वर्णाकर्षण-भैरव' को धन-धान्य और संपत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तो 'बाल-भैरव' की आराधना बालक के रूप में की जाती है। सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही करते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की।
बटुक भैरव : -
1. 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। 
4. साधना का मंत्र : '।।ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा।।' उक्त मंत्र की प्रतिदिन 11 माला 21 मंगल तक जप करें। मंत्र साधना के बाद अपराध-क्षमापन स्तोत्र का पाठ करें। भैरव की पूजा में श्री बटुक भैरव अष्टोत्तर शत-नामावली का पाठ भी करना चाहिए।
5. एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं।
6. आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएं। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दांत और आंत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है। इस साधना से बटुक भैरव प्रसन्न होकर सदा साधक के साथ रहते हैं और उसे सुरक्षा प्रदान करते हैं अकाल मौत से बचाते हैं। ऐसे साधक को कभी धन की कमी नहीं रहती और वह सुखपूर्वक वैभवयुक्त जीवन- यापन करता है। जो साधक बटुक भैरव की निरंतर साधना करता है तो भैरव बींब रूप में उसे दर्शन देकर उसे कुछ सिद्धियां प्रदान करते हैं जिसके माध्यम से साधक लोगों का भला करता है।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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मुजफ्फरनगर UP

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