मंत्र संस्कार
मंत्र शब्द का अर्थ है गुप्त परामर्ष स्ग्र्धा का अवलंब पाकर जब अक्षर एक गहनता में प्रवेश करता है तो जिस दिव्य ज्योति का अविर्भाव होता है व्ही सिधि की संघ्या पाती मंत्र वास्तव में मनन पूर्वक वर्णउचार का घर्षण है जिसके मूल में लय ही सर्वोप्रिये है .पुस्तकों से मन्त्र लेकर बिना भाव के उन्हें दोहरा देना मातर मंत्रो उचारण नही होता.यह एक विषद विज्ञानं है.
भगवन शिव के डमरू से जिन सात करोड़ मंत्रो का
पादुर्भाव हुआ वे कालअंतर में किसी न किसी दोष से ग्रसित हो गये .शाश्त्रो में ऐसे पचास परकार के दोष माने
गये हैं.
जनन ,दीपन,बोधन,तदन,अभिषेक,विम्लीकर्ण ,जीवन,तर्पण ,गोपन व् आप्यायन यह दस संस्कार है जो किसी व् मन्त्र को सिद्ध करने से पूर्व आवश्यक हैं
१.जनन - पूर्व की और मुख करके आसन पर शुधि पूर्वक बैठने के बाद भोजपत्र पर गोरेचन कुकुम एवेम चंदन से आत्माविमुख त्रिकोण बनावे एवेम तीनो कोनो से शह
शह रेखाए खींचे .एसा करने से ४९ त्रिकोण कोष्ठ बन जायेगे .फिर इशान कोण से आरंभ कर एक एक खाने में एक एक मात्रिका वरण लिखना चाहिए .प्रतिएक वर्ण का ,देवता का आह्वाहन करते हुए पूजन कर उसका उधारकरना चाहिए एवं उसे अलग से भोजपत्र पर लिखकर मन्त्र से संपृक्त भी करना चाहिए .अंत में मन्त्र को जल में विसर्जित कर देना चाहिए .इस प्रकार सम्पुरण वर्णों को लेकर करने से प्रथम संस्कार संपन होता है .
२.दीपन - इस संस्कार हेतु ' हंस ' मन्त्र से मूल को संपुटित के एक हजार जप करना आवश्यक होता है.यथा 'हंस शिवाये नम:सो हम '
३.बोधन 'हूं' बिज मन्त्र से मूल मंत्र को संपुटित कर पञ्च हजार जप करने से मन्त्र का बोधन हो जाता है.यथा 'हूं शिवाये नम : हूं"
४.ताडन-फट मन्त्र से मूल मन्त्र को संपुटित क्र एक हजार जप करने से मन्त्र का ताडन हो जाता है.यथा 'फट शिवाये नम:फट"
५.अभिषेक - इस हेतु भोज पात्र पर मूल मन्त्र को लिखना चैये बाद में एक हजार बार 'ह्रोम हंस:ओम" मन्त्र से अभिमंत्रित जल लेकर पीपल के पते द्वारा मूल मन्त्र का अभिषेक करने यह संपन हो जाता है.
६.विम्लीकर्ण-'ॐ त्रोम वष्ट" इन वर्ण से संपुटित करते हुए मूल मंत्र का एक हजार जप करने से यह संस्कार संपन होता है.यथा 'ॐ त्रोम वष्ट शिवाये नम:वष्ट त्रोम ॐ".
७.जीवन -"स्वधा वष्ट "संपुटित मूओल मंत्र का एक हजार जप करने से यह संस्कार संपन होता है .यथा "स्वधा वष्ट शिवाये नम:वष्ट स्वधा "
८.तर्पण दूध जल तथा घी को मिलकर मूल मंत्र से सो बार तर्पण करना ही उस मन्त्र का तर्पण संस्कार होता है.
९.गोपन-'ह्रीं " का सम्पुट देकर मूल मंत्र का एक हजार जप करना नवम संस्क्र होता है.
१०.अप्यायन-"ह्रों" बीज का संपुटित देकर मूल मन्त्र का एक हजार जप करने अंतिम व् महाताव्पूरण संस्कार संपन होता है. यथा "ह्रों नम:शिवाये ह्रों "
इस परकार प्रयतन पूर्वक मूल मंत्र का संस्कार कर उसका जप करने ओत अभीशत सफलता अधिक सरलता से मिलती है .उपर संस्कार विधान के इलावा कूर्म चक्र विचार,कुल्लुका विचार ,मंत्रो का कीलन-उत्कीलन,मन्त्र सिधि के विभिन उपाए अदि कई ऐसे भाग है जिनका यदि साधक प्रारंभ में विचार करे तो कम समय व् कम म्हणत में ही सिधि प्राप्त होने की सम्भावना बढ जाती है..
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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