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Tuesday, 16 April 2019
प्रत्येक महाविद्या अपने साधक को किसी शक्ति विशेष का वरदान प्रदान करती हैं जिस प्रकार माँ तारा “शब्दशक्ति रहस्य” प्रदान करती हैं उसी प्रकार छिन्नमस्ता “प्राणशक्ति रहस्य” से साधक का जीवन सराबोर करती हैं | इस प्राणशक्ति के रहस्य को समझने के बाद माँ छिन्नमस्ता के आशीर्वाद से साधक ना सिर्फ सुषुम्ना पथ पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है अपितु उस सुप्त पथ को जाग्रत कर पूर्ण रूपेण चैतन्यता भी प्रदान कर देता है | वस्तुतः प्राणशक्ति को सिद्धजन तीन रूपों में जानते हैं,किन्तु हम उसमे से मात्र महाप्राण की ही बात करेंगे |महाप्राण-परा सृष्टि, अपरा सृष्टि और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिस प्राणशक्ति की चैतन्यता से व्याप्त है,प्राण की अतिउच्चावस्था जो की विशुद्धतम अवस्था कहलाती है और जिस रूप में प्राण की सम्पूर्ण शक्तियां निहित होती हैं,ऐसे प्राण महाप्राण कहलाते हैं,जब इसका समावेश सुषुम्ना से हो जाता है तो चारित्रिक शुद्धता के साथ साथ आत्मतत्व की भी प्राप्ति हो जाती है और साधक के पवन नेत्र जाग्रत हो जाते हैं ,जिससे साधक को लिंग नहीं अपितु आत्मतत्व के दर्शन ही होते हैं और ऐसे में वो “श्यामा साधना” जैसी दुरूह साधना को भी सहज ही बिना किसी चित्त विकार के पार कर लेता है | अर्थात इन प्राण रहस्यों को पूरी तरह से समझ लेने पर साधक छिन्नमस्ता रहस्य को सहज ही आत्मसात कर लेता है |छिन्नमस्ता देवी के कटे हुए मस्तक से निकल रही तीन रक्त धाराएँ प्रतीक हैं रुद्रग्रंथी,विष्णुग्रंथी और ब्रह्म्ग्रंथी के छिन्न होने की | अर्थात छिन्नमस्ता साधना का पूर्ण आलंबन लेने पर साधक सृजन,पालन और संहार के चक्र से बहुत ऊपर उठ जाता है,मैंने पहले ही आपको इंगित किया है की जैसे ही सुषुम्ना अपने पथ पर पूर्ण चैतन्यता के साथ इन तीनों ग्रंथियों का भेदन करती है तो मात्र पूर्ण विशुद्ध सोम तत्व ही प्राणशक्तियों के सहयोग से ७२,००० नाड़ियों में प्रसारित होने लगता है,तब निर्जरा देह, प्राणों का खेचरत्व और अदृश्य तत्व की प्राप्ति सहज ही हो जाती है |याद रखिये ना तो आपको चंद्र नाड़ी इड़ा पूर्णत्व दे सकती है और ना ही सूर्य नाड़ी पिंगला पूर्णत्व दे सकती है, क्यूंकि लाख प्रयास पर भी ये आपस में संयोग नहीं कर पति है,क्यूंकि इनकी दिशा और गुण धर्म में ही अंतर होता है किन्तु,मेरु दंड से होते हुए मात्र सुषुम्ना ही मूलाधार से होते हुए समस्त चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार को भेदित करती है | और छिन्नमस्ता साधना से ही ये पथ ना सिर्फ दृढ़ होता है अपितु एक आवरण से सुषुम्ना सूत्र रक्षित भी हो जाता है |याद रखिये हमारे मेरु दंड के जितने मोती हैं वे सभी विभिन्न योनियों की वासना से युक्त होते हैं,और साधना काल या सामान्य जीवन में सुषुम्ना में संचारित उर्जा जब इन मोतियों से टकराती है तो वो उर्जा विकृत होकर उस मोती में दमित योनी की वासना को आपकी मानसिकता पर हावी कर देती है फलस्वरूप व्यक्ति कामविह्वल हो जाता है और मात्र अतृप्त काम कुंठा ही मनो मष्तिष्क पर अपना डेरा जमा लेती है और जो धीरे धीरे व्यक्ति का व्यक्तिव बन जाती है |किन्तु छिन्नमस्ता साधना से जब सुषुम्ना सूत्र कवचित हो जाता है तो मूलाधार में व्याप्त उर्जा या शक्ति उस सूत्र का आश्रय लेकर बिना किसी भटकाव के सहस्त्रार से योग कर लेती है और इस प्रकार बिना कमोद्वेग के दिव्य मैथुन की क्रिया पूर्ण हो जाती है,जहाँ मात्र निर्मलत्व ही रह जाता है और खुल जाते हैं सभी महाविद्याओं के मंडल में प्रवेश का मार्ग भी जिसके द्वारा सभी महाविद्याओं को सहज ही पूरी तरह सिद्ध किया जा सकता है |“ जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•..
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