Tuesday, 16 April 2019

भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव शास्त्रों में भैरव के विभिन्न रुपों का उल्लेख मिलता है । तन्त्र में अष्ट भैरव तथा उनकी आठ शक्तियों का उल्लेख मिलता है । श्रीशंकराचार्य ने भी “प्रपञ्च-सार तन्त्र” में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं । सप्तविंशति रहस्य में सात भैरवों के नाम हैं । इसी ग्रन्थ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है । इसी में तीन वटुक-भैरवों का उल्लेख है । रुद्रायमल तन्त्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है । आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है । इनमें “बटुक-भैरव” सबसे सौम्य रुप है । “महा-काल-भैरव” मृत्यु के देवता हैं । “स्वर्णाकर्षण-भैरव” को धन-धान्य और सम्पत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तगो “बाल-भैरव” की आराधना बालक के रुप में की जाती है । सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही हरते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की । इनके अतिरिक्त तन्त्र साधना में भैरव के ये आठ रुप भी अधिक लोकप्रिय हैं - १॰ असितांग भैरव, २॰ रु-रु भैरव, ३॰ चण्ड भैरव, ४॰ क्रोधोन्मत्त भैरव, ५॰ भयंकर भैरव, ६॰ कपाली भैरव, ७॰ भीषण भैरव तथा संहार भैरव । भैरव की उत्पत्ति रुद्र के भैरवावतार की विवेचनाट शिव-पुराण में इस प्रकार है ” एक बार समस्त ऋषिगणों में परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई । वे परम-ब्रह्म को जानकर उसकी तपस्या करना चाहते थे । यह जिज्ञासा लेकर वे समस्त ऋषिगण देवलोक पहुँचे । वहाँ उन्होंने ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि हम सभी ऋषिगण उस परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से आपके पास आए हैं ।कृपा करके हमें बताइये कि वह कौन है, जिसकी तपस्या कर सकें ? इस पर ब्रह्मा जी ने स्वयं को ही इंगित करते हुए कहा, ” मैं ही वह परम-तत्त्व हूँ ।” ऋषिगण उनके इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए । तब यही प्रश्न लेकर वे क्षीर-सागर में भगवान् विष्णु के पास गए, परन्तु उन्होंने भी कहा वे ही परम-तत्त्व हैं, अतः उनकी आराधना करना श्रेष्ठ है, किन्तु उनके भी उत्तर से ऋषि-समूह सन्तुष्ट नहीं हो सका । अन्त में उन्होंने वेदों के पास जाने का निश्चय किया । वेदों के समक्ष जाकर उन्होंने यही जिज्ञासा प्रकट की कि हमें परम-तत्त्व के बारे में ज्ञान दीजिये । इस पर वेदों ने उत्तर दिया कि, “शिव ही परम-तत्त्व है । वे ही सर्वश्रेष्ठ और पूजन के योग्य हैं ।” यह उत्तर सुनकर ब्रह्मा और विष्णु ने वेदों की बात को अस्वीकार कर दिया । उसी समय वहाँ एक तेज-पुँज प्रकट हुआ और उसने धीरे-धीरे एक पुरुषाकृति को धारण कर लिया । यह देख ब्रह्मा का पँचम सिर क्रोधोन्मत्त हो उठा और उस आकृति से बोला, “पूर्वकाल में मेरे भाल से ही तुम उत्पन्न हुए हो, मैंने ही तुम्हारा नाम ‘रुद्र’ रखा था । तुम मेरे पुत्र हो, मेरी शरण में आओ ।” ब्रह्मा की इस गर्वोक्ति से वह तेज-पुँज रुपी शिव जी कुपित हो गए और उन्होंने एक अत्यन्त भीषण पुरुष को उत्पन्न कर उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “आप काल-राज हैं, क्योंकि काल की भाँति शोभित हैं । आप भैरव हैं, क्योंकि आप अत्यन्त भीषण हैं । आप काल-भैरव हैं, क्योंकि काल भी आपसे भयभीत होगा । आप आमर्दक हैं, क्योंकि आप दुष्टात्माओं का नाश करेंगे ।” शिव से वरदान प्राप्त करके श्रीभैरव ने अपने नखाग्र से ब्रह्मा के अपराधकर्त्ता पँचम सिर का विच्छेद कर दिया । लोक मर्यादा रक्षक शिवजी ने ब्रह्म-हत्या मुक्ति के लिए भैरव को कापालिक व्रत धारण करवाया और काशी में निवास करने की आज्ञा दे दी । श्रीबटुक के पटल में भगवान् शंकर ने कहा कि “हे पार्वति ! मैंने प्राणियों को सभी प्रकार के सुख देने वाले बटुकभैरव का रुप धारण किया है । अन्य देवता तो देर से कृपा करते हैं, किन्तु भैरव शीघ्र ही अपने साधकों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । उदाहरण के तौर पर भैरव का वाहन कुत्ता अपनी स्वामी-भक्ति के लिए प्रसिद्ध है । शारदा तिलक आदि तन्त्र ग्रन्थों में श्री बटुक भैरव के सात्त्विक, राजस, तामस तीनों ध्यान भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है । रुप उपासना भेद से उनका फल भी भिन्न हैं । सात्त्विक ध्यान अपमृत्यु-नाशक, आयु-आरोग्य-प्रद तथा मोक्ष-प्रद है । धर्म, अर्थ, काम के लिए राजस ध्यान है । कृत्या, भूतादि तथा शत्रु-शमन के लिए तामस ध्यान किया जाता है । तान्त्रिक पूजन में आनन्द भैरव और भैरवी का पूजन आवश्यक होता है । इनका ध्यान आदि पूजा पद्धतियों में वर्णित किया गया है । तन्त्र साधना में “मजूंघोष” की साधना का वर्णन है । ये भैरव के ही स्वरुप माने गए हैं । इनकी उपासना से स्मृति की वृद्धि और जड़ता का नाश होता है । भैरव पूजा में रखी जाने वाली सावधानियाँ १॰ भैरव साधना से नमोकामना पूर्ण होती है, अपनी मनोकामना संकल्प में बोलनी चाहिये । २॰ भैरव को नैवेद्य में मदिरा चढ़ानी चाहिए, यह सम्भव नहीं हो, तो मदिरा के स्थान पर दही-गुड़ मिलाकर अर्पित करें । ३॰ भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें । ४॰ भैरव मन्त्र का जप रुद्राक्ष माला से किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त काले हकीक की माला भी उपयुक्त है । ५॰ भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिये । ६॰ भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण कर लेना चाहिये । ७॰ भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार निर्धारित है । रविवार को खीर, सोमवार को लड्डू, मंगलवार को घी और गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को उड़द के पकौड़े अथवा जलेबी तथा तले हुए पापड़ आदि का भोग लगाया जाता है ।..................................

2 comments:

panditramdial said...

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