Tuesday 16 April 2019

धन प्राप्ति का शाबर मंत्र नित्य प्रात: काल दन्त धावन करने के बाद इस मंत्र का 108 बार पाठ करने से व्यापार या किसी अनुकूल तरीके से धन प्राप्ति होती है। मंत्र- ओम ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मामगृहे धन पूरय चिन्ताम्तूरय स्वाहा। चिपकाने हेतु मंत्र नीचे प्रदर्शित चार यंत्रों में से किसी भी एक मंत्र को कागज अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध अथवा केसर के घोल से लिखकर प्राण-प्रतिष्ठा और पूजा करने के बाद रूपए-पैसे रखने की तिजोरी अथवा जेवरों के डिब्बे में रखें। लक्ष्मी की कृपा आप पर बनी रहेगी। व्यापारी और उद्योगपति दीवाली पूजन के बाद दुकान या कार्यालय की दीवार पर सिन्दूर से और बही खातों के प्रथम पृष्ठ पर स्याही से कोई भी एक यंत्र बनाएं और फिर देखें इसका प्रताप। धन सम्पत्तिवर्द्धक यंत्र रवि पुष्य अथवा गुरू पुष्य के दिन भोजपत्र पर केसर की स्याही और अनार की कलम से निम्नांकित यंत्र लिखकर स्वर्ण के तावीज में रखें और गंगाजल आदि से पवित्र करके दाहिनी बाजू पर बांध लें। इसके प्रभाव से शारीरिक तथा आर्थिक क्षीणता समाप्त होकर, धन और स्वास्थ्य दोनों की वृद्धि होती है। इस तावीज को गले में धारण किया जा सकता है। धन सम्पदा प्रदायक दूसरा तावीज इस तांत्रिक यंत्र को अनार की कलम द्वारा अष्टगंध स्याही से भोजपत्र पर लिखें और चंदन, पुष्प, धूप-दीप से इसकी पूजा करें। पूजनोपरांत एक हजार बार मंत्र का जप करें। हवन-सामग्री में घी, चीनी, शहद, खीर और बेलपत्र आवश्यक हैं। यह प्रक्रिया किसी शुभ मुहूत्तü की शुक्ल द्वितीय को की जानी चाहिए। हवन आदि करने से यंत्र की शक्ति बढती है। तत्पश्चात् यंत्र को स्वर्ण या चांदी के तावीज में भरकर, लाल या काले धागे की सहायता से दाहिने बाजू या गले में धारण करें। इस तावीज का प्रभाव अचूक और चिरस्थायी होता है। धन प्रदायक लक्ष्मी बीसा तावीज उपर्युक्त यंत्र तावीज को रवि पुष्य नक्षत्र में अनार की कलम के द्वारा भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखें। पीला वस्त्र, पीला आसान एवं पीली माला का प्रयोग करें। पूरब की ओर मुंह रखें। धूप, दीप, फल-फूल और नैवेद्य से यंत्र की नित्य पूजा करें और निम्न मंत्र की एक माला जप करें। ओम श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्मै नम:। यह क्रम सवा दो महीने तक चालू रखें। फिर तिरसठवें दिन चांदी के एक पत्र पर यंत्र को बनाकर, उन बासठ यंत्रों को चांदी के पत्र वाले यंत्र के नीचे रखकर पूजा करें। अब बासठ यंत्रों में से एक यंत्र अपने पास रखें बाकी यंत्रों को आटे की गोलियों में रखकर नदी में बहा दें। जिस यंत्र को पास में रखा था, उसे सोने या चांदी के तावीज में डालकर गले में डालें या फिर बाजू मे

प्रकोप करने का मंत्र काल आए कराल आए अगिया मसान आए । मेरी पुकार पर भूत प्रेत जिन्न बेताल आए । काल जाये कराल जाये अगिया मसान जाये । भूत जाये प्रेत जाये जिन्न रहे जाए । जिन्न तू जिन्नात तू । कर मेरा एक कम तू । जा के अमुक के पास दिखा अपनी शक्ति का कमाल तू । हर ले उसकी ताकत बुद्धि पहाड़ बिस्तर तलेईया ताल। तुझे तेरे मालिक की कसम जो तू एसा ना करे तो दोजक की आग मे जले । २१ दिन रात ११ बजे समसान मे २१ रूद्राझ की माला जपनी है. भोग मीठा या तामसीक केसा भी ले सकते है.........................

हनुमान चालीसा का चमत्कार... मेरे पास कई लोग आते हें और कहते हें की में दिन में ७ हनुमान चालीसा का पाठ करता हू, कई लोग कहते हें में हर शनिवार और मंगलवार को २७ या १०८ बार हनुमान चालीसा करता हू परन्तु उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता.? तो मेने उनसे पूछा की आप किस प्रकार हनुमान चालीसा करते हें.? तो उन्होंने बताया की बस हम सिर्फ हनुमानजी के आगे दिया और धुप जला कर बैठ जाते हें और ज्यादा से ज्यादा आक के फूलो की माला चढाते हें और बाद में निश्चित संख्या में हनुमान चालीसा करते हें... फिर मेने उन लोगो से कहा आपने शायद रामायण या सुन्दरकाण्ड में पढ़ा होगा की हनुमानजी बचपन में बहुत शरारत करते थे तो ऋषि मुनियो ने उन्हें श्राप दिया था की जब तक आपको आपकी शक्तिओ को कोई (जागृत ) याद नहीं करवाएगा तब तक आप अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाएंगे – यही वजह से जब समुद्र को लांग कर श्री राम जी की मुद्रिका ले कर माँ सीता के पास जाना था तब ... कोन जायेगा ये सवाल था! तब श्री जामवंत जी ( रींछ पति ) ने श्री हनुमानजी की स्तुति कर उन्हें अपनी शक्तिया राम काज के लिए याद करवाई थी – ठीक उसी प्रकार हमें हमारे काज के लिए श्री हनुमाजी को स्तुति कर प्रसन्न कर उनकी शक्तिया याद करवानी चाहिए.! तब जाके वो आपकी पूजा अवश्य स्वीकार करेंगे. तो आपको भी हनुमान चालीसा करने से या हनुमानजी का कोई भी पूजन करने से पहले निन्म मंत्र स्तुति में दे रहा हू वो आपको कम से कम २७ बार अवश्य करना हें – देखे फिर चमत्कारिक फल की प्राप्ति अवश्य होगी... ( ध्यान रहे गलत कर्मो के लिए हनुमानजी किसी को सहाय नहीं करते) हरी ओम तत्सत ... स्तुति मन्त्र : कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, काचुप साधी रहेहु बलवाना! पवन तनय बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिज्ञान निधाना!! कवन सो काज कठिन जग माहि, जो नहीं होय तात तुम पाहि! साझा करें...!

मारुतिस्तोत्रम् श्रीगणेशाय नम: ॥ ॐ नमो भगवते विचित्रवीरहनुमते प्रलयकालानलप्रभाप्रज्वलनाय । प्रतापवज्रदेहाय । अंजनीगर्भसंभूताय । प्रकटविक्रमवीरदैत्यदानवयक्षरक्षोगणग्रहबंधनाय । भूतग्रहबंधनाय । प्रेतग्रहबंधनाय । पिशाचग्रहबंधनाय । शाकिनीडाकिनीग्रहबंधनाय । काकिनीकामिनीग्रहबंधनाय । ब्रह्मग्रहबंधनाय । ब्रह्मराक्षसग्रहबंधनाय । चोरग्रहबंधनाय । मारीग्रहबंधनाय । एहि एहि । आगच्छ आगच्छ । आवेशय आवेशय । मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय । स्फुर स्फुर । प्रस्फुर प्रस्फुर । सत्यं कथय । व्याघ्रमुखबंधन सर्पमुखबंधन राजमुखबंधन नारीमुखबंधन सभामुखबंधन शत्रुमुखबंधन सर्वमुखबंधन लंकाप्रासादभंजन । अमुकं मे वशमानय । क्लीं क्लीं क्लीं ह्रुीं श्रीं श्रीं राजानं वशमानय । श्रीं हृीं क्लीं स्त्रिय आकर्षय आकर्षय शत्रुन्मर्दय मर्दय मारय मारय चूर्णय चूर्णय खे खे श्रीरामचंद्राज्ञया मम कार्यसिद्धिं कुरु कुरु ॐ हृां हृीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् स्वाहा विचित्रवीर हनुमत् मम सर्वशत्रून् भस्मीकुरु कुरु । हन हन हुं फट् स्वाहा ॥ एकादशशतवारं जपित्वा सर्वशत्रून् वशमानयति नान्यथा इति ॥ इति श्रीमारुतिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

हिडिम्बा साधना तंत्र बाधा निवारण के लिए.... १.यह साधना होली की रात्रि को सम्पन्न करें यह एक दिवसीय प्रयोग है २.साधक रात्रि मे स्नान करके शुद्ध लील रंग के वस्त्र धारण करें और लाल रंग के आसन पर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बाठ जाये .. ३,अब अपने सामने बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछायें..उस पर गुरू चित्र को स्थापित करें और साथ में घी की एक दीपक को भी स्थापित करें.. ४.अब गुरू और गणेश जी का पूजन करें ..फिर दीपक को मॉं का स्वरूप मानकर दीपक का पूजन करें..धुप, पुष्प, अक्षत कुंकुम व नैवेद्य आदि से करें. ५.अब गुरू मंत्र की एक माला जप करें..फ्र निम्न मंत्र की "काली हकीक माला" से ११ माला जप करें... मंत्र ॐ श्रीं ह्लीं क्रीं तंत्र निवारण हिडिम्बयै नमः जप समाप्ति के बाद माला को जलती हुई होली में विसर्जित कर दें.. साधना के बाद साधक प्रतिदिन ५ मिनट तक मंत्र का जप कुछ दिनों तक करें....इस तरह से यह साधना पूर्ण होती है... और साधक पर किया हुआ तंत्र प्रयोग दूर हो जाता है.. और भविष्य में भी तंत्र बाधा से रक्षा होती है.. यह शीघ्र फल दाई साधना है अच्छी साधना है अगर आप करना चाहें तो अपने गुरु जी के मार्गदर्शन करें

शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र “शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है. _____________________________ प्रज्ञानं कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य- 1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म 2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं। (1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है) इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। (2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है। (3) ॐ तत्त्वमसि इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है। (4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है। अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।

श्री लिंग पुराण के अनुसार प्रथम सृष्टि का वर्णन सूतजी ने कहा – अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है. इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है. इसलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है. प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं. वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है परंतु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं. उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द आदि लक्षण हैं. जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है. यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से (10 इंद्रियां, एक मन) उत्पन्न होता है. यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं. सर्व प्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं. उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं. अत: उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिए. यथार्थ में कहा जाए तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं. क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं. किंतु शिवजी ही इसके असली बीज हैं. बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं. स्वभाव से ही परमात्मा हैं, वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है. पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है. शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है. वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है. वह पहले से तो अव्यक्त है. अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है. विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है. उसी माया को अजा कहते हैं. उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमश: रज, सत्, तथा तमोगुण की बहुत सी रचनाएं हैं. संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं. यह अजा (माया) शिव के आधीन है. सर्ग (सर्जन) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत् तत्व की सृष्टि होती है. उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है. अहंकार से तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) उत्पन्न हुई. इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा तथा स्पर्श से वात्य, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज (अग्नि), अग्नि से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है. पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात् जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है. तन्मात्रा से ही पंचभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिए. सात्विक अहंकार से पांच ज्ञानेंद्री, पांच कर्मेंद्री तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई. महत् से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया. उसमें जल के बबूले के समान पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई. वह भी भगवान रुद्र हैं तथा रुद्र ही भगवान विष्णु हैं. उसे अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है. यह अण्ड दशगुने जल से घिरा हुआ है, जल दशगुने वायु से, वायु दशगुने आकाश से घिरा हुआ है. आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है. आकाश महत् तत्व से तथा महत् तत्व प्रधान से व्याप्त है. अण्ड के सात आवरण बताए गए हैं. इसकी आत्मा कमलासन ब्रह्मा है. कोटि कोटि संख्या से युक्त कोटि कोटि ब्रह्मांड और उसमें चतुर्मुख ब्रह्मा, हरि तथा रुद्र अलग-अलग बताए गए हैं. प्रधान तत्व माया से रचे गए हैं. यह सभी शिव की सन्निधि में प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें आदि और अंत वाला कहा गया है. रचना, पालन और नाश के कर्ता महेश्वर शिवजी ही हैं. सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं. अत: क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं. वे ही प्रथम प्राणियों के कर्ता हैं, फिर पालन करने वाले भी वही हैं और पुन: संहार करने वाले भी वही हैं इसलिए महेश्वर देव ही ब्रह्मा के भी स्वामी हैं. वही शिव विष्णु रूप हैं, वही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा के बनाए इस ब्रह्मांड में जितने लोक हैं, ये सब परम पुरुष से अधिष्ठित हैं तथा ये सभी प्रकृति (माया) से रचे गए हैं. अत: यह प्रथम कही गई रचना परमात्मा शिव की अबुद्धि पूर्वक रचना शुभ है.

कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से….. देवाधिदेव भगवान भोलेनाथ की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है…रुद्राक्ष शब्द की विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है- रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:… शिव महापुराण की विद्येश्वरसंहिता तथा श्रीमद्देवीभागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं… उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे…और उनके उन्हीं अश्रुबिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए… रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है… रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं… चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं…ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए… भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहनना चाहिए… विशेषकर शैव मताबलाम्बियो के लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है…. जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टों का नाश करने में समर्थ होता है… जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है… गुंजाफल के समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है… रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है… विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं… सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं… जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा- फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है… जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है… जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है… रुद्राक्ष, तुलसी आदि दिव्य औषधियों की माला धारण करने के पीछे वैज्ञानिक मान्यता यह है कि होंठ व जीभ का प्रयोग कर उपांशु जप करने से साधक की कंठ-धमनियों को सामान्य से अधिक कार्य करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप कंठमाला, गलगंड आदि रोगों के होने की आशंका होती है। उसके बचाव के लिए गले में उपरोक्त माला पहनी जाती है। रुद्राक्ष अपने विभिन्न गुणों के कारण व्यक्ति को दिया गया ‘प्रकृति का अमूल्य उपहार है’ मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से निकले जलबिंदुओं से हुई है. अनेक धर्म ग्रंथों में रुद्राक्ष के महत्व को प्रकट किया गया है जिसके फलस्वरूप रुद्राक्ष का महत्व जग प्रकाशित है. रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसे धारण करके की गई पूजा हरिद्वार, काशी, गंगा जैसे तीर्थस्थलों के समान फल प्रदान करती है. रुद्राक्ष की माला द्वारा मंत्र उच्चारण करने से फल प्राप्ति की संभावना कई गुना बढ़ जाती है.इसे धारण करने से व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है. रुद्राक्ष की माला अष्टोत्तर शत अर्थात 108 रुद्राक्षों की या 52 रुद्राक्षों की होनी चाहिए अथवा सत्ताईस दाने की तो अवश्य हो इस संख्या में इन रुद्राक्ष मनकों को पहना विशेष फलदायी माना गया है. शिव भगवान का पूजन एवं मंत्र जाप रुद्राक्ष की माला से करना बहुत प्रभावी माना गया है तथा साथ ही साथ अलग-अलग रुद्राक्ष के दानों की माला से जाप या पूजन करने से विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति होती है.धारक को शिवलोक की प्राप्ति होती है, पुण्य मिलता है, ऐसी पद्मपुराण, शिव महापुराण आदि शास्त्रों में मान्यता है। शिवपुराण में कहा गया है : यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:। न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है। श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है : रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ कोई दूसरी वस्तु नहीं है। रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष… रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष धारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्… रुद्राक्ष-धारण करने से पहले उसके असली होने की जांच अवद्गय करवा लें। असली रुद्राक्ष ही धारण करें। खंडित, कांटों से रहित या कीड़े लगे हुए रुद्राक्ष धारण नहीं करें। जपादि कार्यों में छोटे और धारण करने में बड़े रुद्राक्षों का ही उपयोग करें। —————————————— कितनी हो माला में रुद्राक्ष की संख्या माला में रुद्राक्ष के मनकों की संख्या उसके महत्व का परिचय देती है. भिन्न-भिन्न संख्या मे पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने में सहायक होती है जो इस प्रकार है —–रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. ——रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है. इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है ——रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है. —— रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आय में वृद्धि होती है. —— रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए —– रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है. —– रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है. —– रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए. —— रुद्राक्ष के बारह दानों को मणिबंध में धारण करना शुभदायक होता है. —— रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. ——————————————————————- किस कार्य हेतु केसी माला धारण करें..??? तनाव से मुक्ति हेतु 100 दानों की, अच्छी सेहत एवं आरोग्य के लिए 140 दानों की, अर्थ प्राप्ति के लिए 62 दानों की तथा सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु 108 दानों की माला धारण करें। जप आदि कार्यों में 108 दानों की माला ही उपयोगी मानी गई है। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए 50 दानों की माला धारण करें। 26 दानों की माला मस्तक पर, 50 दानों की माला हृदय पर, 16 दानों की माला भुजा पर तथा 12 दानों की माला मणिबंध पर धारण करनी चाहिए। —————————————————- क्या महत्त्व हें रुद्राक्ष की माला का. रुद्राक्ष की माला को धारण करने पर इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है कि कितने रुद्राक्ष की माला धारण कि जाए. क्योंकि रुद्राक्ष माला में रुद्राक्षों की संख्या उसके प्रभाव को परिलक्षित करती है. रुद्राक्ष धारण करने से पापों का शमन होता है. आंवले के सामान वाले रुद्राक्ष को उत्तम माना गया है. सफेद रंग का रुद्राक्ष ब्राह्मण को, रक्त के रंग का रुद्राक्ष क्षत्रिय को, पीत वर्ण का वैश्य को और कृष्ण रंग का रुद्राक्ष शुद्र को धारण करना चाहिए. क्या नियम पालन करें जब करें रुद्राक्ष माला धारण..??? क्या सावधानियां रखनी चाहिए रुद्राक्ष माला पहनते समय..??? जिस रुद्राक्ष माला से जप करते हों, उसे धारण नहीं करें। इसी प्रकार जो माला धारण करें, उससे जप न करें। दूसरों के द्वारा उपयोग में लाए गए रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला को प्रयोग में न लाएं। रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त में ही धारण करना चाहिए – ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि वा। दर्द्गोषु पूर्णमसे च पूर्णेषु दिवसेषु च। रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैर्विमुच्यते॥ ग्रहण में, विषुव संक्रांति (मेषार्क तथा तुलार्क) के दिनों, कर्क और मकर संक्रांतियों के दिन, अमावस्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। मद्यं मांस च लसुनं पलाण्डुं द्गिाग्रमेव च। श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥ (रुद्राक्षजाबाल-17) रुद्राक्ष धारण करने वाले को यथासंभव मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, निसोडा और विड्वराह (ग्राम्यशूकर) का परित्याग करना चाहिए। सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के मनुष्य वर्ण, भेदादि के अनुसार विभिन्न प्रकर के रुद्राक्ष धारण करें। रुद्राक्ष को द्गिावलिंग अथवा द्गिाव- मूर्ति के चरणों से स्पर्द्गा कराकर धारण करें। रुद्राक्ष हमेद्गाा नाभि के ऊपर शरीर के विभिन्न अंगों (यथा कंठ, गले, मस्तक, बांह, भुजा) में धारण करें, यद्यपि शास्त्रों में विशेष परिस्थिति में विद्गोष सिद्धि हेतु कमर में भी रुद्राक्ष धारण करने का विधान है। रुद्राक्ष अंगूठी में कदापि धारण नहीं करें, अन्यथा भोजन-द्गाचादि क्रिया में इसकी पवित्रता खंडित हो जाएगी। रुद्राक्ष पहन कर किसी अंत्येष्टि-कर्म में अथवा प्रसूति-गृह में न जाएं। स्त्रियां मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण न करें। रुद्राक्ष धारण कर रात्रि शयन न करें। रुद्राक्ष में अंतर्गर्भित विद्युत तरंगें होती हैं जो शरीर में विद्गोष सकारात्मक और प्राणवान ऊर्जा का संचार करने में सक्षम होती हैं। इसी कारण रुद्राक्ष को प्रकृति की दिव्य औषधि कहा गया है। अतः रुद्राक्ष का वांछित लाभ लेने हेतु समय-समय पर इसकी साफ-सफाई का विद्गोष खयाल रखें। शुष्क होने पर इसे तेल में कुछ समय तक डुबाकर रखें। रुद्राक्ष स्वर्ण या रजत धातु में धारण करें। इन धातुओं के अभाव में इसे ऊनी या रेशमी धागे में भी धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को लहसुन, प्याज तथा नशीले भोज्य पदार्थों तथा मांसाहार का त्याग करना चाहिए. सक्रांति, अमावस, पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन रुद्राक्ष धारण करना शुभ माना जाता है. सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष को पहन सकते हैं. रुद्राक्ष का उपयोग करने से व्यक्ति भगवान शिव के आशीर्वाद को पाता है. व्यक्ति को दिव्य-ज्ञान की अनुभूति होती है. व्यक्ति को अपने गले में बत्तीस रुद्राक्ष, मस्तक पर चालीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में 6,6 रुद्राक्ष, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान शिव को पाता है. किस तरह धारण करें रुद्राक्ष माला को..??? अधिकतर रुद्राक्ष यद्यपि लाल धागे में धारण किए जाते हैं, किंतु एक मुखी रुद्राक्ष सफेद धागे, सात मुखी काले धागे और ग्यारह, बारह, तेरह मुखी तथा गौरी- शंकर रुद्राक्ष पीले धागे में भी धारण करने का विधान है। विधान है। अतः यह विधान किसी योग्य पंडित से संपन्न कराकर रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। ऐसा संभव नहीं होने की स्थिति में नीचे प्रस्तुत संक्षिप्त विधि से भी रुद्राक्ष की प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने के लिए शुभ मुहूर्त या दिन का चयन कर लेना चाहिए। इस हेतु सोमवार उत्तम है। धारण के एक दिन पूर्व संबंधित रुद्राक्ष को किसी सुगंधित अथवा सरसों के तेल में डुबाकर रखें। धारण करने के दिन उसे कुछ समय के लिए गाय के कच्चे दूध में रख कर पवित्र कर लें। फिर प्रातः काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का मन ही मन जप करते हुए रुद्राक्ष को पूजास्थल पर सामने रखें। फिर उसे पंचामृत (गाय का दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर) अथवा पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर) से अभिषिक्त कर गंगाजल से पवित्र करके अष्टगंध एवं केसर मिश्रित चंदन का लेप लगाकर धूप, दीप और पुष्प अर्पित कर विभिन्न शिव मंत्रों का जप करते हुए उसका संस्कार करें। तत्पश्चात संबद्ध रुद्राक्ष के शिव पुराण अथवा पद्म पुराण वर्णित या शास्त्रोक्त बीज मंत्र का 21, 11, 5 अथवा कम से कम 1 माला जप करें। फिर शिव पंचाक्षरी मंत्र नमः शिवाय अथवा शिव गायत्री मंत्र क्क तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् का 1 माला जप करके रुद्राक्ष-धारण करें। अंत में क्षमा प्रार्थना करें। रुद्राक्ष धारण के दिन उपवास करें अथवा सात्विक अल्पाहार लें। विद्गोष : उक्त क्रिया संभव नहीं हो, तो शुभ मुहूर्त या दिन में (विशेषकर सोमवार को) संबंधित रुद्राक्ष को कच्चे दूध, पंचगव्य, पंचामृत अथवा गंगाजल से पवित्र करके, अष्टगंध, केसर, चंदन, धूप, दीप, पुष्प आदि से उसकी पूजा कर शिव पंचाक्षरी अथवा शिव गायत्री मंत्र का जप करके पूर्ण श्रद्धा भाव से धारण करें। एक से चौदहमुखी रुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं- 1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:। निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है… रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए… इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है… रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्र का अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है… इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है.. रुद्राक्ष की माला श्रद्धापूर्वक विधि- विधानानुसार धारण करने से व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है। सांसारिक बाधाओं और दुखों से छुटकारा होता है। मस्तिष्क और हृदय को बल मिलता है। रक्तचाप संतुलित होता है। भूत-प्रेत की बाधा दूर होती है। मानसिक शांति मिलती है। शीत-पित्त रोग का शमन होता है। इसीलिए इतनी लाभकारी, पवित्र रुद्राक्ष की माला में भारतीय जन मानस की अनन्य श्रद्धा है। जो मनुष्य रुद्राक्ष की माला से मंत्रजाप करता है उसे दस गुणा फल प्राप्त होता है। अकाल मृत्यु का भय भी नहीं रहता है —————————————– शास्त्रों में एक से चौदह मुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है… इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है… एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है… इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है… एकदम गोल एकमुखीरुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है… एकमुखीरुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महा पाप तक भी नष्ट हो जाते हैं… समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है… भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है… दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें… इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथके साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है… इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है… दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है… तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है… इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है… विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है… चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है… नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योग का शमन होगा… कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं… पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है… कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं… सामान्यत:पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है… संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं…इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है… छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशक सिद्ध हुआ है…इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है… जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी… सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धक है… इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है… कुछ विद्वान सप्तमातृकाओं की सातमुखी रुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं… इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है… आठमुखी रुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूप होने से जीवन का रक्षक माना गया है… इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू- टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है… धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है… नौमुखी रुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है… इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है… शाक्तों (देवी के आराधकों) के लिये नौमुखी रुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है… इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है… दसमुखी रुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरि का स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है… इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है… ग्यारहमुखी रुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है… इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है… बारहमुखी रुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है… इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है… तेरहमुखी रुद्राक्ष विश्वेदेवों का स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है… कुछ साधक तेरहमुखी रुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं… चौदहमुखी रुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारक सिद्ध हुआ है… इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है… जन्म- जन्मान्तर के पापों का शमन होता है…

देवी धूमावती दस महाविद्याओं में सातवें स्थान में अवस्थित, भगवान शिव के विधवा स्वरूप में, कुरूप तथा अपवित्र देवी धूमावती। देवी धूमावती अकेली तथा स्व: नियंत्रक हें, देवी के स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हें तथा देवी विधवा हैं। दस महाविद्याओं में सातवे स्थान पर देवी अवस्थित है तथा उग्र स्वाभाव वाली अन्य देविओ के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात् उस स्थिति से हैं, जहा वो अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। देवी दरिद्रो, गरीबो के घरों में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से जानी जाती हैं। अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी कि ही बहन है, परन्तु इन के गुण तथा स्वाभाव पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त के प्रदोष काल से रात्रि में रहती है तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं या निवास करती हैं, अंधरे स्थानों में निवास करती हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वो शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामो में निऋति भी है, जिन का सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सडन, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से है जो जीवन में नकारात्मक भावनाओ को जन्म देता हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओ, सुख तथा समृद्धि का नाश कर देती है। देवी धूमावती धुऐ के स्वरूप में विद्यमान है तथा सती के भयंकर तथा उग्र स्वाभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी देवी का कोई संगी नहीं हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार, देवी आदि शक्ति ने एक बार प्रण किया, कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा वही मेरा पति होगा, मैं उसी से विवाह करुँगी। परन्तु ऐसा आज तक नहीं हो पाया, उन्हें युद्ध में कोई परास्त नहीं कर पाया, परिणामस्वरूप देवी अकेली हैं इन का कोई पति या स्वामी नहीं हैं। नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका तथा उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देविओ को अपने शरीर से प्रकट किया या उग्रता तथा भयंकरता देवी धूमावती ने ही प्रदान की। देवी की ध्वनि, हजारो गीदड़ो के एक साथ चिल्लाने जैसे हैं, जो महान भय दायक हैं। देवी ने स्वयं भगवान शिव को खा लिया था, देवी का सम्बन्ध भूख से भी हैं, देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी है परिणामस्वरूप देवी दुष्ट दैत्यों के मांस का भक्षण तक करती हैं, परन्तु सर्वदा भूखी या श्रुधा-ग्रस्त ही रहती हैं। देवी धूमावती, भगवान शिव के विधवा के रूप में विद्यमान हैं, अपने पति शिव को निगल जाने के कारन देवी विधवा हैं। देवी का भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करती हैं। इन्हें लक्ष्मी जी की ज्येष्ठ, ज्येष्ठा नाम से भी जाना जाता हैं जो स्वयं कई समस्याओं को उत्पन्न करती हैं। देवी धूमावती का भौतिक स्वरुप। देवी धूमावती का वास्तविक रूप धुऐ जैसा हैं तथा इसी स्वरूप में देवी विद्यमान हैं। शारीरिक स्वरूप से देवी; कुरूप, उबार खाबर या बेढ़ंग शरीर वाली, विचलित स्वाभाव वाली, लंबे कद वाली, तीन नेत्रों से युक्त तथा मैले वस्त्र धारण करने वाली हैं। देवी के दांत तथा नाक लम्बी कुरूप हैं, कान डरावने, लड़खड़ाते हुए हाथ-पैर, स्तन झूलते हुए प्रतीत होती हैं। देवी खुले बालो से युक्त, एक वृद्ध विधवा का रूप धारण की हुई हैं। अपने बायें हाथ में देवी ने सूप तथा दायें हाथ में मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण कर रखा हैं कही कही वो आशीर्वाद भी दे रही हैं। देवी का स्वाभाव अत्यंत अशिष्ट हैं तथा देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी-प्यासी हैं। देवी काले वर्ण की है तथा इन्होंने सर्पो, रुद्राक्षों को अपने आभूषण स्वरूप धारण कर रखा हैं। देवी श्मशान घाटो में मृत शरीर से निकले हुए स्वेत वस्त्रो को धारण करती हैं तथा श्मशान भूमि में ही निवास करती हैं, समाज से बहिष्कृत हैं। देवी कौवो द्वारा खीचते हुए रथ पर आरूढ़ हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः स्वेत वस्तुओं से ही हैं तथा लाल वर्ण से सम्बंधित वस्तुओं का पूर्णतः त्याग करती हैं। देवी धूमावती के उत्पत्ति से सम्बंधित कथा। देवी धूमावती के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो कथायें प्राप्त होती हैं। पहली प्रजापति दक्ष के यज्ञ से सम्बंधित हैं। भगवान शिव की पहली पत्नी सती के पिता, प्रजापति दक्ष ( जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे ), ने एक बृहस्पति श्रवा नाम के यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनो लोको से समस्त प्राणिओ को निमंत्रित किया। परन्तु दक्ष, भगवान शिव से घृणा करते थे तथा दक्ष ने भगवान शिव सहित उन से सम्बंधित किसी को भी, अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। देवी सती ने जब देखा की तीनो लोको से समस्त प्राणी उन के पिता जी के यज्ञ आयोजन में जा रहे है, उन्होंने अपने पति भगवान शिव ने अपने पिता के घर जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव दक्ष के व्यवहार से परिचित थे, उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की। परन्तु देवी सती नहीं मानी, अंततः भगवान शिव ने उन्हें अपने गणो के साथ जाने की अनुमति दे दी। सती अपने पिता दक्ष से उन के यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री सती को स्वामी सहित, खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी के अपमान से तिरस्कृत हो, सम्पूर्ण यजमानो के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुण्ड में दे दी तथा देवी की मृत्यु हो गई, तदनंतर यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया, सभी अत्यंत भयभीत हो गए। तब देवी सती, धुऐ के स्वरूप में यज्ञ कुण्ड से बहार निकली। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, अपने निवास स्थान कैलाश में बैठी हुई थी। देवी, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त थी (भूखी थी) तथा उन्होंने शिव जी से अपनी क्षुधा निवारण हेतु कुछ देने का निवेदन किया। भगवान शिव ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिया कहा, कुछ समय पश्चात् उन्होंने पुनः निवेदन किया। परन्तु शिव जी ने उन्हें कुछ प्रतीक्षा करने का पुनः आस्वासन दिया। बार बार भगवान शिव के इस तरह आस्वासन देने पर, देवी धैर्य खो क्रोधित हो गई तथा शिव जी को ही उठाकर निगल लिया। तदनंतर देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली तथा उन्हें धुऐ ने ढक लिया। भगवान शिव, देवी के शरीर से बहार आये तथा कहा, आपकी ये सुन्दर आकृति धुऐ से ढक जाने के कारन धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी। अपने पति भगवान शिव को खा लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हुई, देवी स्वामी हिना हैं। देवी धूमावती से सम्बंधित अन्य तथ्य। चुकी देवी ने क्रोध वश अपने ही पति को खा लिया, देवी का सम्बन्ध दुर्भाग्य, अपवित्र, बेडौल, कुरूप जैसे नकारात्मक तथ्यों से हैं। देवी श्मशान तथा अंधेरे स्थानों में निवास करने वाली है, समाज से बहिष्कृत है, (देवी से सम्बंधित चित्र घर में नहीं रखना चाहिए) अपवित्र स्थानों पर रहने वाली हैं। भगवान शिव ही धुऐ के रूप में देवी धूमावती में विद्यमान है तथा भगवान शिव से कलह करने के कारण देवी कलह प्रिया भी हैं। प्रत्येक कलहो में देवी के शक्ति ही उत्पात मचाती हैं। देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतिक स्वरूप है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी के आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं। देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध विजय, मारण, उच्चाटन इत्यादि कर्मों में की जाती हैं। देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा होते है। देवी प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग कर रहे कामनाओ का नाश कर देती हैं। आगम ग्रंथो के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं। संक्षेप में देवी धूमावती से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : धूमावती। अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया। भैरव : विधवा, कोई भैरव नहीं। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान मत्स्य अवतार। कुल : श्री कुल। दिशा : दक्षिण। स्वभाव : तामसी गुण सम्पन्न। कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुओ का विनाश करने वाली। शारीरिक वर्ण : काला।

ओम श्री कालभैरव तंत्र - सिध्दी कालभैरवाष्टकम् :---- देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥ फल श्रुति॥ कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ ॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् !!!!!!!!!!!!

साधना का क्षेत्र अत्यंत दुरुह तथा जटिल होता है. इसी लिये मार्गदर्शक के रूप में गुरु की अनिवार्यता स्वीकार की गई है. गुरु दीक्षा प्राप्त शिष्य को गुरु का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है।

मन्त्र : अफल अफल अफल दुश्मन के मुंह पर कुलफ मेरे हाँथ कुंजी रुपया तोर कर दुश्मन को जर कर और जब भी कभी अपने मुक़दमे के कारण आपको अदालत जाना हो .. आप विरोधी पक्ष की तरफ इस मन्त्र को 108 बार पढ़ कर फुक मार दे और .... उस दिन निश्चय ही आपका विरोधी पक्ष आपके विरोध में कुछ भी नहीं कर पायेगा. या कह पायेगा और यदि अपने केस से संबंधमे आपको कोई ने प्रार्थना पत्र लिख कर देना हो तो उस प्रार्थना .पत्र पर भी आप 108 बार इस मंत्र को पढ़ कर फूंक मार दे और आप पाएंगे की आप इन मुकदमो से जो आप पे केबल आपको परेशां करने केलिए आप पर लगाये गए हैं जल्द ही छुटकारा पा सकेंगे

निम्न मंत्र की २१ माला जाप करे. ॐ कालभैरव अमुक साधकानां रक्षय रक्षय भविष्यं दर्शय दर्शय हूं इसमें अमुक साधकानां की जगह स्वयं के नाम का उच्चारण करना चाहिए. भविष्य मे जब भी कोई समस्या या दुर्घटना होने वाली हो तो किसी न किसी रूप मे भगवान काल भैरव साधक को सूचना दे देते है. साधक अपने कार्यों को उस प्रकार से परावर्तित कर सकता है. यु तो भगवान भैरव साधक की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप मे मदद करते ही रहते है...

मंत्र ॐ चौकी हनुमत बीर की ,वाण ध्वजा फहराए | मारू मारू मारुत सूत, मुष्टिक शत्रु नसाय | मेरे इष्ट राम चन्द्र जी , अगुआ हनुमंत वीर | चौक सुदर्शन चक्र की , रक्षा करे शरीर | टोना ब्रह्म भूत प्रेत संग , डायन डाइ | सांप बिच्छू चोर बात ,सबकुछ निष्फल जाइ |

भगवान् आंजनेय से सम्बंधित या प्रयोग इन समस्त विपदा से आपकी रक्षा करता हैं ही मंत्र : हनुमान पहलवान , बारह वरस का जवान |मुख में वीरा हाँथ में कमान | लोहे की लाठ वज्र का कीला|जहँ बैठे हनुमान हठीला |बाल रे बाल राखो|सीस रे सीस रखो| आगे जोगिनी राखो| पाछे नरसिंह राखो | इनके पाछे मुह्मुदा वीर छल करे , कपट करे ,तिनकी कलक ,बहन बेटी पर परे | दोहाई महावीर स्वामी की | सामान्य नियम : • वस्त्र आसन दिशा का कोई प्रतिबंध तो नहीं हैं पर आप चाहे तो लाल रंग के उपयोग कर सकते हैं . • इस मंत्र से जप आप सुबह करे तो अच्छा हैं , • रुद्राक्ष माला का उपयोग आप जप कार्य के लिए कर सकते हैं . • जप संख्या केबल १०८ बार हैं ही , और इसके बाद आप जितनी आहुति हो इस मंत्र से हो सके करे .यदि गुगुल का प्रयोग करे तो उत्तम होगा . • भगवान् आंजनेय कृपा से आपके उपर से विपत्ति या दूर हो

ललाट पर तिलक का क्या महत्व है ? अक्सर मन में प्रश्न उठता है कि पूजा करते समय,या कोई धार्मिक कार्य करते समय तिलक क्यों लगाते है.कब,कैसे और किस प्रकार का चन्दन लगाना चाहिये. पूजा के समय तिलक लगाने का विशेष महत्व है और भगवान को स्नान करवाने के बाद उन्हें चन्दन का तिलक किया जाता है।पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है। भगवान को चंदन अर्पण भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता। मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्द्ेश्य से भी लगाया जाता है । चन्दन लगाने के प्रकार स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, शैव त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है, जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है। नारद पुराण में उल्लेख आया है- १.ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र, २. क्षत्रिय को त्रिपुण्ड, ३. वैश्य को अर्धचन्द्र, ४. शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये। योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है। १.ऊर्ध्वपुण्ड्र चन्दन - वैष्णव सम्प्रदायों का कलात्मक भाल तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र कहलाता है। चन्दन, गोपीचन्दन, हरिचन्दन या रोली से भृकुटि के मध्य में नासाग्र या नासामूल से ललाट पर केश पर्यन्त अंकित खड़ी दो रेखाएं ऊर्ध्वपुण्ड्र कही जाती हैं। | श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में - ऊर्ध्वपुण्ड्र राधिकाचरण चिन्ह् के रूप में धारण किया जाता है। इस सम्प्रदाय में गोस्वामी गण बिन्दु परम्परा तथा सेवक या विरक्तगण बाद परम्परा वाले माने जाते हैं। बिन्दु परम्परा वाले गोस्वामीगण लाल रोली के ऊर्ध्वपुण्ड्र के बीच में श्याम बिन्दु तथा सेवक या विरक्त त्यागी पीत या श्वेत बिन्दु धारण करते हैं। वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र के विषय में पुराणों में दो प्रकार की मान्यताएं मिलती हैं। नारद पुराण में - इसे विष्णु की गदा का द्योतक माना गया है. ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषद में - ऊर्ध्वपुण्ड्र को विष्णु के चरण पाद का प्रतीक बताकर विस्तार से इसकी व्याख्या की है। | वैष्णव साहित्य में- राम और कृष्ण को विष्णु का ही अवतार माना है। इसलिये विष्णु के चरणपादों को मध्ययुगीन वैष्णव मतावलम्बियों ने राम और कृष्ण के चरण पाद के रूप में ही ग्रहण किया है इस युग के भक्ति साहित्य के व्याख्याकार नाभादास भी इसी बात को स्वीकार करते हैं। अतः सम्पूर्ण वैष्णव भक्ति वाङ्गमय के इस सत्य को वैष्णव समाज विष्णु के युगल चरण तल की विभूति को ललाट पर धारण कर उसके करूणामय सौन्दर्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र के कलात्मक अंकन द्वारा मन, वचन तथा कर्म में उतारता है। पुराणों में - ऊर्ध्वपुण्ड्र की दक्षिण रेखा को विष्णु अवतार राम या कृष्ण के "दक्षिण चरण तल" का प्रतिबिम्ब माना गया है, जिसमें वज्र, अंकुश, अंबर, कमल, यव, अष्टकोण, ध्वजा, चक्र, स्वास्तिक तथा ऊर्ध्वरेख है. तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र की बायीं केश पर्यन्त रेखा विष्णु का "बायाँ चरण तल" है जो गोपद, शंख, जम्बूफल, कलश, सुधाकुण्ड, अर्धचन्द्र, षटकोण, मीन, बिन्दु, त्रिकोण तथा इन्द्रधनुष के मंगलकारी चिन्हों से युक्त है। इन मंगलकारी चिन्हों के धारण करने से वज्र से - बल तथा पाप संहार, अंकुश से - मनानिग्रह, अम्बर से - भय विनाश, कमल से - भक्ति, अष्टकोण से - अष्टसिद्धि, ध्वजा से - ऊर्ध्व गति, चक्र से - शत्रुदमन, स्वास्तिक से- कल्याण, ऊर्ध्वरेखा से - भवसागर तरण, पुरूष से - शक्ति और सात्त्विक गुणों की प्राप्ति, गोपद से - भक्ति, शंख से - विजय और बुद्धि से - पुरूषार्थ, त्रिकोण से - योग्य, अर्धचन्द्र से - शक्ति, इन्द्रधनुष से - मृत्यु भय निवारण होता है। 2. त्रिपुण्ड चन्दन - विष्णु उपासक वैष्णवों के समान ही शिव उपासक ललाट पर भस्म या केसर युक्त चन्दन द्वारा भौहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ तक भौहों का अन्त है उतना बड़ा त्रिपुण्ड और ठीक नाक के ऊपर लाल रोली का बिन्दु या तिलक धारण करते हैं। मध्यमा, अनामिका और तर्जनी से तीन रेखाएँ तथा बीच में रोली का अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। शिवपुराण में त्रिपुण्ड को योग और मोक्ष दायक बताया गया है। शिव साहित्य में त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं के नौ-नौ के क्रम में सत्ताईस देवता बताए गये हैं। वैष्णव द्वादय तिलक के समान ही त्रिपुण्ड धारण करने के लिये बत्तीस या सोलह अथवा शरीर के आठ अंगों में लगाने का आदेश है तथा स्थानों एवं अवयवों के देवों का अलग-अलग विवेचन किया गया है। शैव ग्रन्थों में विधिवत त्रिपुण्ड धारण कर रूद्राक्ष से महामृत्युजंय का जप करने वाले साधक के दर्शन को साक्षात रूद्र के दर्शन का फल बताया गया है। अप्रकाशिता उपनिषद के बहिवत्रयं तच्च जगत् त्रय, तच्च शक्तित्रर्य स्यात् द्वारा तीन अग्नि, तीन जगत और तीन शक्ति ज्ञान इच्छा और क्रिया का द्योतक बताकर कहा है कि जिसने त्रिपुण्ड धारण कर रखा है, उसे देवात् कोई देख ले तो वह सभी बाधाओं से विमुक्त हो जाता है। त्रिपुण्ड के बीच लाल तिलक या बिन्दु कारण तत्त्व बिन्दु माना जाता है। गणेश भक्त गाणपत्य अपनी भुजाओं पर गणेश के एक दाँत की तप्त मुद्रा दागते हैं तथा गणपति मुख की छाप लगाकर मस्तक पर लाल रोली या सिन्दूर का तिलक धारण कर गजवदन की उपासना करते हैं। चन्दन के प्रकार १. हरि चन्दन - पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है। २. गोपीचन्दन- गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है, जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था, जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है। इसी पुराण के पाताल खण्ड में कहा गया है कि गोपीचन्दन का तिलक धारण करने मात्र से ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक पवित्र हो जाता है। जिसे वैष्णव सम्प्रदाय में गोपी चन्दन के समान पवित्र माना गया है. स्कन्दपुराण में गोमती, गोकुल और गोपीचन्दन को पवित्र और दुर्लभ बताया गया है तथा कहा गया है कि जिसके घर में गोपीचन्दन की मृत्तिका विराजमान हैं, वहाँ श्रीकृष्ण सहित द्वारिकापुरी स्थित है। सामान्य तिलक का आकार धार्मिक तिलक के समान ही हमारे पारिवारिक या सामाजिक चर्या में तिलक इतना समाया हुआ है कि इसके अभाव में हमारा कोई भी मंगलमय कार्य हो ही नहीं सकता। इसका रूप या आकार दीपक की ज्याति, बाँस की पत्ती, कमल, कली, मछली या शंख के समान होना चाहिए। धर्म शास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार इसका आकार दो से दस अंगुल तक हो सकता है। तिलक से पूर्व ‘श्री’ स्वरूपा बिन्दी लगानी चाहिये उसके पश्चात् अंगुठे से विलोम भाव से तिलक लगाने का विधान है। अंगुठा दो बार फेरा जाता है। किस उँगली से लगाना चाहिये ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तिलक में "अंगुठे के प्रयोग से - शक्ति, मध्यमा के प्रयोग से - दीर्घायु, अनामिका के प्रयोग से- समृद्धि तथा तर्जनी से लगाने पर - मुक्ति प्राप्त होती है" तिलक विज्ञान विषयक समस्त ग्रन्थ तिलक अंकन में नाखून स्पर्श तथा लगे तिलक को पौंछना अनिष्टकारी बतलाते हैं। देवताओं पर केवल अनामिका से तिलक बिन्दु लगाया जाता है। तिलक की विधि सांस्कृतिक सौन्दर्य सहित जीवन की मंगल दृष्टि को मनुष्य के सर्वाधिक मूल्यवान् तथा ज्ञान विज्ञान के प्रमुख केन्द्र मस्तक पर अंकित करती है। तिलक के मध्य में चावल तिलक के मध्य में चावल लगाये जाते हैं। तिलक के चावल शिव के परिचायक हैं। शिव कल्याण के देवता हैं जिनका वर्ण शुक्ल है। लाल तिलक पर सफेद चावल धारण कर हम जीवन में शिव व शक्ति के साम्य का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इच्छा और क्रिया के साथ ज्ञान का समावेश हो। सफेद गोपी चन्दन तथा लाल बिन्दु इसी सत्य के साम्य का सूचक है। शव के मस्तक पर रोली तिलक के मध्य चावल नहीं लगाते, क्योंकि शव में शिव तत्त्व तिरोहित है। वहाँ शिव शक्ति साम्य की मंगल कामना का कोई अर्थ ही नहीं है।

ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं। गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं। गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा। वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है। इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।

श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ “नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥ पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड) ‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति केसामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।

किस ग्रह के लिए कौन सा रत्न धारण करना चाहिए सूर्य का रत्न माणिक्य है जिसे अंग्रेजी में इसे रूबी कहते हैं। चंद्र का रत्न मोती अर्थात पर्ल, मंगल का मूंगा अर्थात कोरल, बुध का पन्ना अर्थात ऐमरल्ड, बृहस्पति का पुखराज अर्थात येलो सैफायर, शुक्र का हीरा अर्थात डायमंड, शनि का नीलम अर्थात ब्लू सैफायर, राहु का गोमेद, केतु का लहसुनिया अर्थात कैट्सआई। किस रत्न को किस रत्न के साथ धारण करें शत्रु ग्रह का रत्न धारण नहीं करना चाहिए जैसे :- मूंगे के साथ नीलम, पन्ना या हीरा धारण नहीं करना चाहिए।हीरे के साथ पुखराज, मूंगा या मोती, पन्ने के साथ मूंगा, पुखराज, माणिक्य या मोती, मोती के साथ पन्ना, हीरा, माणिक्य या नीलम, और नीलम के साथ मोती, पुखराज माणिक्य, मूंगा धारण नहीं करें। इसी तरह गोमेद के साथ माण् िाक्य या मूंगा और लहसुनिया के साथ माणिक्य, मोती या नीलम धारण नहीं करना चाहिए। 5……संचि‍त कर्म, प्रारब्धल कर्म तथा क्रि‍यमाण कर्म ये कर्म के तीन प्रकार हैं. पूर्व जन्म़ में कि‍ये गये कर्म संचि‍त कर्म कहे जाते हैं. पूर्व जन्मय के कर्मों में जि‍न कर्मों का फल इस जन्म. में भोगना पड़ता है वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं. व्याक्तिर‍ द्वारा वर्तमान जीवन में कि‍या जा रहा कर्म क्रि‍यमाण कर्म कहलाता है.

शनिदेव की पूजा बुराइयों और बाधाओं को दूर करने के लिए की जाती है। मान्यता है की शनिदेव इंसान पर आने वाले संकटों और उसकी ह्रदय गति को नियंत्रित करते हैं। शनि न्याय के देवता हैं और वह कर्मों के अनुसार ही फल देते हैं। सच्चे-अच्छे लोगों पर उनकी कृपा बराबर बनी रहती है। वह घमंडी का सिर नीचा करते हैं और उसे कष्ट देकर नम्र और अच्छा इंसान बनाते हैं। शनि देव ही हमारी आयु के कारक हैं, आयु वृद्घि करने वाले हैं, आयुष योग में शनि का स्थान महत्वपूर्ण है किन्तु शुभ स्थिति में होने पर शनि आयु वृद्घि करते हैं तो अशुभ स्थिति में होने पर आयु का हरण कर लेते हैं। शनिदेव और उनका न्याय न केवल हमारे कर्मो का उचित लेखा जोखा है अपितु जीवन की पाठशाला का एक महत्वपूर्ण अघ्याय भी है। इंसान का भला और बुरा तो उसके स्वयं के कर्मों की वजह से होता है। अगर आपके कर्म अच्छे हैं तो आपका बुरा होना नामुमकिन है। शनिवार के दिन गली मुहल्लों, चौराहों आदि बहुत से सार्वजनिक स्थानों पर बाल्टी अथवा किसी बर्तन में शनि देव का स्वरूप स्थापित कर बच्चे, नौजवान एवं वृद्ध उन्हें लिए चले आते हैं और शनि देव की जय जय कार लगाते हैं। दक्षिणा प्राप्त करने के लिए बहुत से आशीर्वाद देते हैं। ऐसे लोंगों को कभी भी शनि देव से संबंधित कोई भी दान नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे लोग जातकों से प्राप्त तेल, उड़द दाल आदि सामान दुबारा से दुकानों में बेच आते हैं और हमारा दान किया हुआ सामान दुबारा से हमारे ही घर में आ जाता है। यह सच है कि शनि देव दान से जल्द ही प्रसन्न होते हैं, अपना कर्म ठीक रखें तभी भाग्य आप का साथ देगा और कर्म कैसे ठीक होगा इसके लिए आप मन्दिर में साक्षात शनिदेव के दर्शन के लिए जाएं और उनसे संबंधित दान दक्षिणा वहीं पर अर्पित करें। निम्न शनि स्तुति का प्रात:काल पाठ करने से शनिजनित कष्ट नहीं व्यापते और सारा दिन सुख पूर्वक बीतता है। यह बहुत ही अद्भुत और रहस्यमय स्तुति है यदि आपको कारोबारी, पारिवारिक या शारीरिक समस्या हो तो इसका निदान इस स्तुति के जाप से संभव है। शनि पत्नी नाम स्तुति ‘ॐ शं शनैश्चराय नम: ध्वजनि धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया। कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी महिषी अजा॥ ॐ शं शनैश्चराय नम

महाकाल स्तोत्रं :- इस स्तोत्र को भगवान् महाकाल ने खुद भैरवी को बताया था. इसकी महिमा का जितना वर्णन किया जाये कम है. इसमें भगवान् महाकाल के विभिन्न नामों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की गयी है . शिव भक्तों के लिए यह स्तोत्र वरदान स्वरुप है . नित्य एक बार जप भी साधक के अन्दर शक्ति तत्त्व और वीर तत्त्व जाग्रत कर देता है . मन में प्रफुल्लता आ जाती है . भगवान् शिव की साधना में यदि इसका एक बार जप कर लिया जाये तो सफलता की सम्भावना बड जाती है . ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते महाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहन महाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुते भवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमः रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः परमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुते पवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुते सोम रूप नमस्तुभ्यं सूर्य रूप नमोस्तुते यजमान नमस्तुभ्यं अकाशाया नमो नमः सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते स्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमः नमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमः हुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमः सचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमः प्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुते प्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमः ॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसे स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमः फल श्रुति इत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवी कीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम

भूत प्रेत बाघा निवारक प्रयोग ॐ नमो आदेश गुरू को हे! हनुमंत वीर विरन के वीर निहारे तरकश में नवलख तीर खन बाएँ खन दाहिने कबहुक आगे होए धनी गुसाई सेबसा उनकी काया मगन होय इंद्रासन दो लोक में बहार देखे मशान हमारी या ‘अमुक’ की देही छल छिद्र व्यापै तो यति हनुमंत की आन मेरी भक्ति गुरू की शक्ति फुरों मंत्र इश्वरो वाचा। विधी-इस मंत्र की सिद्धी के लिए पूजा स्थान में हनुमान जी का चित्र लगाकर पूर्ण विधी विधान से पूजन करें फिर उक्त मंत्र का ग्यारह सौ बार जप करे धूप दीप नैवेध चढ़ाकर हनुमान जी से प्रार्थना करें कि मुझे आशिर्वाद प्रदान करें। फिर जिस व्यक्ति या बच्चे को ऊपरी बाधा या भूत प्रेत इत्यादि बाधा हो उसे उक्त मंत्र को सात बार पढ़तेे हुये नीम के पत्र से झाड़ दे इसके प्रभाव से तुरंत ही रोगी स्वस्थ हो जाता है।

ॐ नमो भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाक्य वादिनी है विद्या देही भगवती हंसवाहिनी बुद्धि में देही प्रज्ञा देही,देही विद्या देही,देही परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा। विधी- यह मंत्र अत्यन्त तीव्र एवं प्रभावी होता है। बसंत पंचमी के दिन या किसी भी रविवार को सरस्वती माता के चित्र के समक्ष दूध से बना प्रसाद चढ़ाकर उक्त मंत्र का विधि पूर्वक 108 बार जप करें तथा खीर का भोजन करें तो यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। फिर जब भी पढ़ने बैठे इस मंत्र का 7 बार जप करें तो पढ़ा हुआ तुरंत याद हो जाता है और बुद्धि तीव्र हो जाती है।

कामना सिद्धि हेतु कौन-सा वृक्ष लगाएं : लक्ष्मी प्राप्ति के लिए : तुलसी, आंवला, केला, बिल्वपत्र का वृक्ष। आरोग्य प्राप्ति के लिए : ब्राह्मी, पलाश, अर्जुन, आंवला, सूरजमुखी, तुलसी। सौभाग्य प्राप्ति हेतु : अशोक, अर्जुन, नारियल, बड़ (वट) का वृक्ष। संतान प्राप्ति हेतु : पीपल, नीम, बिल्व, नागकेशर, गु़ड़हल, अश्वगंधा। मेधा वृद्धि प्राप्ति हेतु : आंकड़ा, शंखपुष्पी, पलाश, ब्राह्मी, तुलसी। सुख प्राप्ति के लिए : नीम, कदम्ब, घने छायादार वृक्ष। आनंद प्राप्ति के लिए : हरसिंगार (पारिजात) रातरानी, मोगरा, गुलाब।

प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों ने ऐसे पेड़-पौधों को लगाने की सलाह दी थी, जिनसे वास्तुदोष का निवारण हो साथ ही पर्यावरण संतुलन भी बना रहे। तुलसी- तुलसी को जीवनदायिनी और लक्ष्मी स्वरूपा बताया गया है। इसे घर में लगाने से और इसकी पूजा अर्चना करने से महिलाओं के सारे दु:ख दूर होते हैं, साथ ही घर में सुख शांति बनी रहती है। इसे घर के अंदर लगाने से किसी भी प्रकार की अशुभ ऊर्जा नष्ट हो जाती है। अश्वगंधा- इसके बारे में कहा गया है कि यह वास्तु दोष समाप्त करने की क्षमता रखता है और शुभता को बढ़ाकर जीवन को अधिक सक्रिय बनाता है। आंवला- आंवले का वृक्ष घर की चहारदीवारी में पूर्व व उत्तर में लगाया जाना चाहिए, जिससे यह शुभ रहता है। साथ ही इसकी नित्य पूजा-अर्चना करने से भी सभी तरह के पापों का शमन होता है। केला- घर की चहारदीवारी में केले का वृक्ष लगाना शुभ होता है। इसे भवन के ईशान कोण में लगाना चाहिए, क्योंकि यह बृहस्पति ग्रह का प्रतिनिधि वृक्ष है। केले के समीप यदि तुलसी का पेड़ भी लगा लें तो अधिक शुभकारी रहेगा।

भगवान गणेश आदिदेव माने गए हैं. उनका पूजन करने से धन-धान्य बढ़ता है. ज्योतिषीय राशिनुसार भगवान गणेश का पूजन और आराधना करने से सभी प्रकार की समस्याएं जैसे रोग, आर्थिक समस्या, भय, नौकरी, व्यवसाय, मकान, वाहन, विवाह, संतान, प्रमोशन आदि संबंधित सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है. राशि अनुसार आगे जानिए कि कैसे करें भगवान गणेश का पूजन- मेष राशि : मेष राशि वालों को 'वक्रतुण्ड' रूप में गणेश जी की आराधना करनी चाहिए और 'गं' या 'ॐ वक्रतुण्डाय हूं' मंत्र की एक माला प्रतिदिन जप कर गुड़ का भोग लगाना चाहिए. इससे तुरंत ही जीवन में जो भी समस्या होगी उसका समाधान हो जाएगा... विशेष: मेष राशि के ईष्ट देव गणेश और हनुमानजी हैं. मंगलवार को हनुमानजी का प्रसाद चढ़ाएं और पूरा प्रसाद मंदिर में ही बांट दें. वृषभ राशि: वृषभ राशि वालों को गणेशजी के 'शक्ति विनायक' रूप की आराधना करना चाहिए और उन्हें भी 'गं' या 'ॐ हीं ग्रीं हीं' मंत्र की एक माला प्रतिदिन जपकर घी में मिश्री मिलाकर भोग लगाएं. निश्चित ही उन्हें सभी तरह की समस्याओं का समाधान मिलेगा... विशेष : हनुमान या गणेश मंदिर में मंगलवार को शुद्ध घी का दोमुखी दिया लगाएं. आमदनी में दिक्कत हो तो केसर का टीका माथे पर लगाएं.

ऊँ गं गणपतये नम: "श्री गणेश का नाम लिया तो बाधा फ़टक न पाती है,देवों का वरदान बरसता बुद्धि विमल बन जाती है"कहावत सटीक भी और खरी भी उतरती है.बिना गणेश के कोई भी काम बन ही नही सकता,चाहे कितने ही प्रयास क्यों नही किये जायें,भारत ही नही विश्व के कौने कौने मे भगवान श्री गणेश जी की मान्यता है,कोई किस रूप में पूजता है तो कोई किसी रूप में उनकी पूजा और श्रद्धा रखता है। ऊँ ऊँ का वास्त्विक रूप ही गणेश जी का रूप है,हिन्दू धर्म के अन्दर अक्षरों की पूजा की जाती है,अक्षर को ही मान्यता प्राप्त है,हर देवता का रूप है हिन्दी भाषा का प्रत्येक अक्षर,"अ" को सजाया गया और श्रीराम की शक्ल बन गयी,"क्रौं" को सजाया गया तो हनुमान जी का रूप बन गया,"शं" को सजाया गया तो श्रीकृष्ण का रूप बन गया,इसी तरह से मात्रा को शक्ति का रूप दिया गया,जैसे "शव" को मुर्दा का रूप तब तक माना जायेगा जब तक कि छोटी इ की मात्रा को इस पर नही चढाया जाता,छोटी की मात्रा लगाते ही "शव" रूप बदल कर और शक्ति से पूरित होकर "शिव" का रूप बन जाता है। ऊँ को उल्टा करने पर वह "अल्लाह" का रूप धारण कर लेता है. चन्द्र बिन्दु का स्थान ऊँ के ऊपर चन्द्र बिन्दु का स्थान चन्द्रमा की दक्षिण भुजा का रूप है,चन्द्रमा का आकार एक बिन्दु के अन्दर बताया गया है,और बिन्दु को ही श्रेष्ठ उपमा से सुशोभित किया गया है,बिन्दु का रूप उस कर्ता से है जिससे श्रष्टि का निर्माण किया है,अ उ और म के ऊपर भी शक्ति के रूप में चन्द्र बिन्दु का रूपण केवल इस भाव से किया गया है कि अ से अज यानी ब्रह्मा,उ से उदार यानी विष्णु और म से मकार यानी शिवजी का भी आस्तित्व तभी सुरक्षित है जब वे तीनो शक्ति रूपी चन्द्र बिन्दु से आच्छादित है। ब्रह्म-विद्या है श्रीगणेश जी आराधना में ब्रह्म विद्या को जाने बिना कोई भी विद्या मे पारंगत नही हो पाता है,तालू और नाक के स्वर से जो शक्ति का निरूपण अक्षर के अन्दर किया जाता है वही ब्रह्मविद्या का रूप है। बीजाक्षरों को पढते समय बिन्दु का प्रक्षेपण करने से वह ब्रह्मविद्या का रूप बन जाता है.ब्रह्मविद्या का नियमित उच्चारण अगर एक मंदबुद्धि से भी करवाया जाये तो वह भी विद्या में उसी तरह से पारंगत हो जाता है जैसे महाकवि कालिदास जी विद्या में पारंगत हुये थे। गणेशजी के नाम के साथ ब्रह्मविद्या का उच्चारण ऊँ गं गणपतये नम: का जाप करते वक्त "गं" अक्षर मे सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का निरूपण हो जाता है,गं बीजाक्षर को लगातार जपने से तालू के अन्दर और नाक के अन्दर जमा मल का विनास होता है और बुद्धि की ओर ले जाने वाली शिरायें और धमनियां अपना रास्ता मस्तिष्क की तरफ़ खोल देतीं है,आंख नाक कान और ग्रहण करने वाली शिरायें अपना काम करना शुरु कर देतीं है और बुद्धि का विकास होने लगता है. ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।

एक नारियल का चमत्कार, अब नहीं बिगड़ेंगे आपके काम क्योंकि... क्या आपके कार्य बार-बार बिगड़ जाते हैं? किसी भी कार्य की सफलता में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है? क्या अंतिम पलों में आपके हाथ से सफलता हाथ निकल जाती है? यदि आपको लगता है आपका भाग्य आपका साथ नहीं दे रहा है तो शास्त्रों के अनुसार कई उपाय बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार जब देवी-देवता आपसे रुष्ट या असप्रसन्न होते हैं तब आपको कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो पाती। इसके अलावा कुंडली में यदि कोई ग्रह दोष हो तब भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की परिस्थितियों से बचने के लिए कई उपाय बताए गए हैं, जो कि निश्चित रूप से लाभदायक ही हैं। इन्हीं उपायों में से एक उपाय ये है कि एक नारियल पानी में बहा दिया जाए। नारियल पानी में कैसे बहना है? इस संबंध में ध्यान रखें ये बातें- किसी भी पवित्र बहती नदी के किनारे एक नारियल लेकर जाएं। किनारे पर पहुंचकर अपना नाम और गौत्र बोलें। इसके साथ ही प्रार्थना करें कि आपकी समस्याएं दूर हो जाएं। अब नारियल को नदी में प्रवाहित कर दें। इसके तुरंत बाद वहां से घर लौट आएं। नदी किनारे से लौटते समय ध्यान रखें पीछे पलटकर न देखें। अन्यथा उपाय निष्फल हो जाएगा। इसप्रकार नारियल नदी में बहाने से निश्चित ही आपको सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। बिगड़े कार्य बनने लगेंगे। भाग्य का साथ मिलने लगेगा, दुर्भाग्य का नाश होगा। इसके अलावा ध्यान रखें कि किसी भी प्रकार अधार्मिक कृत्यों से खुद को दूर रखें और किसी का मन न दुखाएं....

ब्रह्म विद्या का उच्चारण ही सर्व गणपति की आराधना है अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं डं. चं छं जं झं यं टं ठं डं णं तं थं दं धं नं पं फ़ं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं त्रं ज्ञं,ब्रह्म विद्या कही गयी है। उल्टा सीधा जाप करना अनुलोम विलोम विद्या का विकास करना कहा जाता है,लेकिन इस विद्या को गणेश की शक्ल में या ऊँ के रूप को ध्यान में रख कर करने से इस विद्या का विकास होता चला जाता है।

कलियुग में जप चार गुना अधिक करने से सिद्धि प्राप्त होती है। मंत्रों का गलत उच्चारण कर जप करने से दोष लगता है। केवल दूध पीकर जो मंत्र, तंत्र, अनुष्ठान आदि किया जाता है, उसका फल शीघ्र मिलता है। मंत्र का जप मन से करें। स्तोत्र जप बोलकर करें। अपवित्र अवस्था में, लेटे हुए, चलते-फिरते मंत्र जप न करें। गं, रां, ह्वीं आदि का उच्चारण लोग प्राय: अशुद्ध करते हैं। ये अनुनासिक उच्चारण है, जो नाक व मुंह से किए जाते हैं। मंत्र, तंत्र, यंत्र की प्राप्ति दीपावली, होली की रात, सूर्य व चंद्र ग्रहण पर विशेष रू प से होती है। जल में रहकर, बहते हुए जल में खड़े होकर जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। मंत्र, तंत्र, यंत्र गुप्त रखें। उनका प्रचार न करें। नीचे स्थल, गड्ढे आदि में जप न करें। दिन में पूर्व दिशा में, रात्रि में उत्तर की ओर मुंह करके जप करें। केवल रेशम, कंबल (ऊनी) व कुशा के आसन पर बैठकर जप करें। जप करते समय माला हिले नहीं। किसी दुखी, पीडि़त व्यक्ति को यंत्र या मंत्र देना हो, तो दीपावली, होली, ग्रहण के दिन दें। अनुष्ठानकर्ता सदाचारी हो, सद्गुणी हो। अशुद्ध व्यक्ति पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना शीघ्र असर करते हैं। अत: शुद्ध रहें और ईश्वर आराधना करते रहने से लाभ मिलना संभव है।

नित्यकर्म की संक्षिप्त विधि प्रत्येक तंत्र - साधक को अपने जीवन - यापन में ही नहीं , अपितु दैनिक दिनचर्या में भी कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है । वैसे भी जो व्यक्ति जिस मार्ग का अनुसरण करता है , उसे उस मार्ग में सफलतापूर्वक चलकर लक्ष्य तक पहुंचने के सभी नियमों को जान लेना तथा उनका पूरी तरह से पालन करना चाहिए । तंत्र - साधक को तंत्रादि प्रयोग में सफलता प्राप्त करने के लिए स्नान - संध्याशील होना अत्यावश्यक है ।   प्रातः कृत्य सूर्योदय से प्रायः दो घण्टे पूर्व ब्रह्म - मुहूर्त्त होता है । इस समय सोना ( निद्रालीन होना ) सर्वथा निषिद्ध है । इस कारण ब्रह्म - मुहूर्त्त में उठकर निम्न मंत्र को बोलते हुए अपने हाथों ( हथेलियों ) को देखना चाहिए । कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर - दर्शनम् ॥ हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी , मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा स्थित हैं ( ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ) । इसलिए प्रातः उठते ही हाथों का दर्शन करना चाहिए । उसके पश्चात् नीचे लिखी प्रार्थना को बोलकर भूमि पर पैर रखें । समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले । विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥ हे विष्णु पत्नी ! हे समुद्ररुपी वस्त्रों को धारण करने वाली तथा पर्वतरुप स्तनों से युक्त पृथ्वी देवी ! तुम्हें नमस्कार है , तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो । इस कृत्य के पश्चात् मुख को धोएं , कुल्ला करें और फिर प्रातः स्मरण तथा भजन आदि करके श्री गणेश , लक्ष्मी , सूर्य , तुलसी , गाय , गुरु , माता , पिता , इष्टदेव एवं ( घर के ) वृद्धों को सादर प्रणाम करें ।   प्रातः स्मरण उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम् । प्रातरेव स्मरेन्नित्यं सौभाग्यं वर्द्धते सदा ॥ सर्वमंगल मांगल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके । शरण्ये ! त्र्यंबक ! गौरि नारायणि ! नमोऽस्तुते ॥ हे जिह्वेरससराज्ञे ! सर्वदा मधुरप्रिये ! । नारायणाख्यपीयूषं पिब जिह्वे ! निरंतरम् ॥ शौच - विधि यज्ञोपवीत को कंठी कर दाएं कर्ण में लपेटकर वस्त्र या आधी धोती से सिर ढांप लें । वस्त्राभाव में जनेऊ को सिर के ऊपर से लेकर बाएं कर्ण से पीछे करें । जल के पात्र को बाएं रख , दिन में उत्तर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख कर निम्नलिखित मंत्र बोलकर एवं मौनता बनाए रखकर मल - मूत्र का त्याग करें - गच्छंतु ऋषयो देवाः पिशाचा ये च गुह्यकाः । पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥ पात्र से जल लें , बाएं हाथ से गुदा धोकर लिंग में एक बार , गुदा में तीन बार मिट्टी लगाकर जल से शुद्ध करें । बाएं हाथ को अलग रखते हुए दाएं हाथ से लांग टांगकर उसी हाथ में पात्र लें । मिट्टी के तीन हिस्से करें । पहले से बायां हाथ दस बार , दूसरे ( हिस्से ) से दोनों हाथ सात बार और तीसरे से पात्र को तीन बार शुद्ध करें । उसी पात्र से बारह से सोलह बार कुल्ले करें । अब दोनों पैरों को ( पहले बायां और फिर दायां ) तीन - तीन बार धोकर बची हुई मिट्टी धो दें । सूर्योदय से पूर्व एवं पश्चात् उत्तर की ओर मुख कर बारह बार कुल्ला करें । दिन से रात्रि में आधी , यात्रा में चौथाई तथा आतुरकाल में यथाशक्ति शुद्धि करनी आवश्यक है । मल - त्याग के पश्चात् बारह बार , मूत्र - त्याग के बाद चार बार तथा भोजनोपरांत सोलह बार कुल्ला करें । कर्म २ दंतधावन - विधि मुखशुद्धि किए बिना कोई भी मंत्र कभी फलदायक नहीं होता । अतः सूर्योदय से पहले और बाद में उत्तर अथवा दोनों समय पूर्वोत्तर कोण ( ईशान ) में मुंह करके दतुअन करें । मध्यमा , अनामिका अथवा अंगुष्ठ से दांत साफ करें । तर्जनी उंगली का कभी प्रयोग न करें । तत्पश्चात् प्रार्थना करें - आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वन्नो देहि वनस्पते ॥   दुग्धवाले वृक्ष का बारह अंगुल का दतुअन ( दातौन ) धोकर उपर्युक्त प्रार्थना करें । फिर दतुअन को चीरकर जीभी करें और धोकर बायीं ओर फेंक दें ।  सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

कई बार ऐसा होता है की मकान में उपरी बाधा होती है। भुत प्रेत पितृ आदि का उपद्रव होता है। जिस से मकान में रहने वाले लोगो परेसान होते है । बीमार रहते है। कोइ काम बनता नही । अगर ऐसा लगता है और इस बात की पुष्टि करनी है तो इस के लिए ये कीजिए। एक हरा कपड़ा सवा मीटर ले। एक नारियल ले। सवा किलो चावल ले। अब नारियल को अपने मकान के सब कोने में बिना बोले लेके घूमे । इस के बाद उस को हरा कपड़ा में चावल के साथ कही पर बांध दे। ये क्रिया बिना बोले करे। फिर इस को मकान के अंदर कही टांग दे। 21 दिन के बाद उसे देखे। अगर उस में सफेद कीड़े पड गये है ।तो यकीनन उस मकान में उपद्रव है। कई बार नारियल इतना सड जाता है की मुर्दे जेसी बदबू आती है। ये एक निदान पद्धति है। इस तंत्र को बड़े मंत्र के साथ किया जाता है।.. जय श्री राम ----- श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥ अब काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक इस मन्त्र के अनुष्ठान करते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में भोजन करे । जो साधक व्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है वह तीन दिन मे ही क्षुद्र रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवं पिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है नियमित एक समय हविष्यान्न भोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रतिदिन १० हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥ सुग्रीव के साथ राम की मित्रता कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से शत्रुओं के साथ सन्धि करायी जा सकती है ॥ लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है, उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं ॥ जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है ॥ जो व्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते है ॥ इस मन्त्र के जप से साधक की व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहीं सोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुःस्वप्न भी दिखाई नहीं देते ॥ सीताराम जय वीर हनुमान ओं रां रामाय नम: आप अपनी जन्म कुंडली के दोष निवारण हेतू सटीक उपाय और एवं मंत्र साधनाएं संबंधित जानकारी के लिए सम्पर्क करे। श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है। हमारी वैबसाईट है। www shriramjyotishsadan.com मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

तांत्रिक क्रियाओं और टोने टोटके से बहुत व्यक्ति परेशान है और इनके प्रभाव भी बहुत ही बुरे होते है जो व्यक्ति के रहन सहन को बहुत प्रभावित करते है। ऎसे पहचाने कि आप पर तंत्र शक्ति प्रयोग की गई है या नहीं : (1) नाड़ी की गति सामान्य से अधिक हो जाती है: जब भी शरीर पर किसी भी नकारात्मक ऊर्जा का हमला होता है तो हमारा शरीर उसका प्रतिरोध करता है जिसके फलस्वरूप हमारी धड़कन सामान्य से तेज हो जाती है। जितना घातक अटैक होगा, नाड़ी की गति उतनी ही ज्यादा तेज हो जाएगी। (2) श्वास की गति बढ़ जाती है: तांत्रिक हमला होते ही सांस की गति भी बहुत तेज हो जाती है। घातक हमले की हालत में श्वास की गति इतनी अधिक हो सकती है जितनी की भागदौड़ के बाद भी नहीं होती। (3) अचानक ही शारीरिक तथा मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करना: तांत्रिक हमले या साईकिक अटैक में नकारात्मक शक्तियां व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को काबू में करने का प्रयास करती है जिसके चलते व्यक्ति अपनी शक्ति काम नहीं ले पाता और वह अंदर ही अंदर शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करने लगता है। (4) रात को डरावने सपने आते हैं: तांत्रिक हमले के दौरान रात को सोते समय भयावह और डरावने सपने आने लगते हैं। कई बार ऎसा लगता है जैसे कि आप पर किसी जानवर ने हमला कर दिया या आप कहीं बहुत ऊंचाई से गिर गए हैं। (5) पलंग के पास पानी रखने से भी पता चलता है: रात को सोते समय पलंग के पास पानी का एक गिलास रख दें और सोते समय मन में सोचे कि आपके अंदर की नकारात्मक ऊर्जा उस पानी में जा रही है। सुबह उस पानी को किसी छोटे पौधे में डाल दें। ऎसा लगातार आठ दिन तक करें। आठ दिन में वह पौधा मुरझा जाएगा। यदि हमला बहुत तेज हुआ तो पौधा 2-3 दिन में ही कुम्हला जाएगा। (6) तकिए के नीचे नींबू रखें: फल तथा सब्जियां भी नकारात्मक ऊर्जा से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। आप रात को सोते समय एक नींबू अपने तकिए के नीचे रख दें और अपने मन में सोचे कि आपके आस-पास कोई भी नकारात्मक ऊर्जा है तो वह इस नींबू में आ जाएं। तांत्रिक हमला होने की दशा में सुबह आप उस नींबू को मुरझा हुआ पाएंगे। उसका रंग भी काला पड़ जाएगा। जय श्री राम ----- श्रीराम ज्योतिष सदन। दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.

…… श्री भैरव दर्शन प्राप्ति मन्त्र “ॐ गुरुजी काला भैरुँ कपिला केश, कानों मुंदरा, भगवाँ वेश । मार-मार काली-पुत्र। बारह कोस की मार, भूताँ हाथ कलेजी खूँहा गेडिया। जहाँ जाऊँ भैरुँ साथ। बारह कोस की रिद्धि ल्यावो। चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो। सूती होय, तो जगाय ल्यावो। बैठी होय,उठाय ल्यावो। अनन्त केसर की भारी ल्यावो। गौरा-पार्वती की विछिया ल्यावो। गेल्याँ की रस्तान मोह, कुवे की पणिहारी मोह, बैठा बाणिया मोह, गृह बैठी बणियानी मोह, राजा की रजवाडन मोह, महिलो बैठी रानी मोह। डाकिनी को, शाकिनी को, भूतनी को, पलीतनी को, ओपरी को, पराई को, लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धक्का कूँ, पलीया कूँ, चौड़ कूँ, चौगट कूँ, काचा कूँ, कलवा कूँ, भूत कूँ, पलीत कूँ, जिन कूँ, राक्षस कूँ, बैरियों से बरी कर दे। नजराँ जड़ दे ताला, इत्ता भैरव नहीं करे, तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे, माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे। चल डाकिनी, शाकिनी, चौडूँ मैला बाकरा, देस्यूँ मद की धार, भरी सभा में द्यूं आने में कहाँ लगाई बार ? खप्पर में खाय, मसान में लौटे, ऐसे काला भैरुँ की कूण पूजा मेटे। राजा मेटे राज से जाय, प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय, जोगी मेटे ध्यान से जाय। शब्द साँचा, पिंड काचा , फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।”

…… भागे या रूठ के गये हुये को वापिस बुलाने का मंत्र ओम नमो काली कलिका .......... को आकर्शय आकर्शय . बड़े वेग आकर्शय जिन वाटे जाई सोई वाट खिलूँ . ओम श्रीं ह्रीं आकर्षण आकर्षण स्वाहा। इस मंत्र के प्रभाव से रूठ कर विदेश या कंही बाहर अथवा भाग कर गया हुआ व्यक्ति या पत्नी घर वापिस आ जाते है। मैने कई बार इस मंत्र का प्रयोग किया है आप भी कर सकते है। विधि -- इस मंत्र का जाप 1000 की सांख्या मे करना चाहिये जाप आप खुद भी कर सकते हो या किसी अच्छे कर्म कांड करने वाले ब्राह्मण से भी करवा सकते हो। जाप के पस्चात हवन करना जरूरी है. हवन हर रोज भी किया जा सकता है। 108 आहुति देते हुये हर रोज हवन कर सकते है खाली जगह पर उसका नाम लें जिसको बुलाना हो। काली पूजन करें काली मंदिर मे हर रोज सरसों के तेल का दीपक जलाएं इसके साथ 15 का यंत्र भी प्रयोग करे तो कार्य अति शीघ्र पूर्ण होगा .

सर्व सिद्दी कारक भैरव मंत्र ॐ गुरु जी काल भैरव काली लट हाथ फारसी साथ नगरी करूँ प्रवेश नगरी को करो बकरी राजा को करो बिलाई जो कोई मेरा जोग भंग करे बाबा क्रिशन नाथ की दुहाई | इस मंत्र के बड़े चमत्कारिक प्रभाव हैं अगर आपको कही भी किसी काम के लिए जाना हो तो इस मंत्र का जाप करके जावें आपका काम जरुर बनेगा आप कहीं नोकरी के लिए जाने पहले इसका जाप करके निकलोगे तो आपका काम जरुर बनेगा ..

सर्व-कार्य-सिद्धि हेतु शाबर मन्त्र “काली घाटे काली माँ, पतित-पावनी काली माँ, जवा फूले-स्थुरी जले। सई जवा फूल में सीआ बेड़ाए। देवीर अनुर्बले। एहि होत करिवजा होइबे। ताही काली धर्मेर। बले काहार आज्ञे राठे। कालिका चण्डीर आसे।” विधिः- उक्त मन्त्र भगवती कालिका का बँगला भाषा में शाबर मन्त्र है। इस मन्त्र को तीन बार ‘जप’ कर दाएँ हाथ पर फूँक मारे और अभीष्ट कार्य को करे। कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त होगी। गलत कार्यों में इसका प्रयोग न करें

कैसे करें नवदुर्गा की आराधना... दुर्गापूजा के आरंभ में पवित्र स्थान की मिट्टी से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोए। फिर उसके ऊपर कलश को विधिपूर्वक स्थापित करें। कलश के ऊपर मूर्ति की प्रतिष्ठा करें। मूर्ति यदि कच्ची मिट्टी, कागज या सिंदूर आदि से बनी हो और स्नानादि से उसमें विकृति होने की आशंका हो तो उसके ऊपर शीशा लगा दें। मूर्ति न हो तो कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके दोनों भुजाओं में त्रिशूल बनाकर दुर्गाजी का चित्र, पुस्तक तथा शालग्राम को विराजित कर विष्णु का पूजन करें। पूजन सात्विक हो, राजस और तामस नहीं। नवरात्रि व्रत के आरंभ में स्वस्तिवाचक शांति पाठ कर संकल्प करें और तब सर्वप्रथम गणपति की पूजा कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह एवं वरुण का विधि से पूजन करें। फिर प्रधानमूर्ति का षोड़शोपचार पूजन करना चाहिए। अपने ईष्टदेव का पूजन करें। पूजन वेद विधि या संप्रदाय निर्दिष्ट विधि से होना चाहिए। दुर्गा देवी की आराधना अनुष्ठान में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का पूजन तथा मार्कण्डेयपुराण के अनुसार श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मुख्य अनुष्ठान कर्तव्य है। पाठ विधि - श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक का विधिपूर्वक पूजन कर इस मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए। 'नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्‌।' इस मंत्र से पंचोपचार पूजन कर यथाविधि पाठ करें। देवी व्रत में कुमारी पूजन परम आवश्यक माना गया है। सामर्थ्य हो तो नवरात्रि के प्रतिदिन, अन्यथा समाप्ति के दिन नौ कुंवारी कन्याओं के चरण धोकर उन्हें देवी रूप मान कर गंध-पुष्पादि से अर्चन कर आदर के साथ यथारुचि मिष्ठान भोजन कराना चाहिए एवं वस्त्रादि से सत्कार करना चाहिए। कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का अर्चन विशेष महत्व रखता है। इसमें दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष वाली सुभद्रा स्वरूपा होती है। दुर्गा पूजा में प्रतिदिन की पूजा का विशेष महत्व है जिसमें प्रथम शैलपुत्री से लेकर नवम्‌ सिद्धिदात्री तक नव दुर्गाओं की नव शक्तियों का और स्वरूपों का विशेष अर्चन होता है।

रोग बाधा निवारण साधना.(पाताल क्रिया) यह साधना पाताल क्रिया से सम्बंधित है,इस साधना कि कई अनुभूतिया है,और साधना भि एक दिन कि है.कई येसे रोग या बीमारिया है जिनका निवारण नहीं हो पाता ,और दवाईया भि काम नहीं करती ,येसे समय मे यह प्रयोग अति आवश्यक है.यह प्रयोग आज तक अपनी कसौटी पर हमेशा से ही खरा उतरा है . प्रयोग सामग्री :- एक मट्टी कि कुल्हड़ (मटका) छोटासा,सरसों का तेल ,काले तिल,सिंदूर,काला कपडा . प्रयोग विधि :- शनिवार के दिन श्याम को ४ या ४:३० बजे स्नान करके साधना मे प्रयुक्त हो जाये,सामने गुरुचित्र हो ,गुरुपूजन संपन्न कीजिये और गुरुमंत्र कि कम से कम ५ माला अनिवार्य है.गुरूजी के समक्ष अपनी रोग बाधा कि मुक्ति कि लिए प्रार्थना कीजिये.मट्टी कि कुल्हड़ मे सरसों कि तेल को भर दीजिये,उसी तेल मे ८ काले तिल डाल दीजिये.और काले कपडे से कुल्हड़ कि मुह को बंद कर दीजिये.अब ३६ अक्षर वाली बगलामुखी मंत्र कि १ माला जाप कीजिये.और कुल्हड़ के उप्पर थोडा सा सिंदूर डाल दीजिये.और माँ बगलामुखी से भि रोग बाधा मुक्ति कि प्रार्थना कीजिये.और एक माला बगलामुखी रोग बाधा मुक्ति मंत्र कीजिये. मंत्र :- || ओम ह्लीम् श्रीं ह्लीम् रोग बाधा नाशय नाशय फट || मंत्र जाप समाप्ति के बाद कुल्हड़ को जमींन गाड दीजिये,गड्डा प्रयोग से पहिले ही खोद के रख दीजिये.और ये प्रयोग किसी और के लिए कर रहे है तो उस बीमार व्यक्ति से कुल्हड़ को स्पर्श करवाते हुये कुल्हड़ को जमींन मे गाड दीजिये.और प्रार्थना भि बीमार व्यक्ति के लिए ही करनी है.चाहे व्यक्ति कोमा मे भि क्यों न हो ७ घंटे के अंदर ही उसे राहत मिलनी शुरू हो जाती है.कुछ परिस्थितियों मे एक शनिवार मे अनुभूतिया कम हो तो यह प्रयोग आगे भि किसी शनिवार कर सकते है

ज्योतिष और शाबर साधना-काल में जन्म-लग्न-चक्र के अनुसार ग्रहों की अनुकूलता जानना आवश्यक है। साधना भी एक प्रकार का कर्म है, अतः ‘दशम भाव’ उसकी सफलता या असफलता का सूचक है। साधना की प्रकृत्ति तथा सफलता हेतु पँचम, नवम तथा दशम भाव का अवलोकन उचित रहेगा। १॰ नवम स्थान में शनि हो तो साधक शाबर मन्त्र में अरुचि रखता है या वह शाबर-साधना सतत नहीं करेगा। यदि वह ऐसा करेगा तो अन्त में उसको वैराग्य हो जाएगा। २॰ नवम स्थान में बुध होने से जातक को शाबर-मन्त्र की सिद्धि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ३॰ पँचम स्थान पर यदि मंगल की दृष्टि हो, तो जातक कुल-देवता, देवी का उपासक होता है। ४॰ पँचम स्थान पर यदि गुरु की दृष्टि हो, तो साधक को शाबर-साधना में विशेष सफलता मिलती है। ५॰ पँचम स्थान पर सूर्य की दृष्टि हो, तो साधक सूर्य या विष्णु की उपासना में सफल होता है। ६॰ यदि राहु की दृष्टि होती है, तो वह “भैरव” उपासक होता है। इस प्रकार के साधक को यदि पथ-प्रदर्शन नहीं मिलता, तो वह निम्न स्तर के देवी-देवताओं की उपासना करने लगता है।

कार्य-सिद्धि हेतु गणेश शाबर मन्त्र “ॐ गनपत वीर, भूखे मसान, जो फल माँगूँ, सो फल आन। गनपत देखे, गनपत के छत्र से बादशाह डरे। राजा के मुख से प्रजा डरे, हाथा चढ़े सिन्दूर। औलिया गौरी का पूत गनेश, गुग्गुल की धरुँ ढेरी, रिद्धि-सिद्धि गनपत धनेरी। जय गिरनार-पति। ॐ नमो स्वाहा।” विधि- सामग्रीः- धूप या गुग्गुल, दीपक, घी, सिन्दूर, बेसन का लड्डू। दिनः- बुधवार, गुरुवार या शनिवार। निर्दिष्ट वारों में यदि ग्रहण, पर्व, पुष्य नक्षत्र, सर्वार्थ-सिद्धि योग हो तो उत्तम। समयः- रात्रि १० बजे। जप संख्या-१२५। अवधिः- ४० दिन। किसी एकान्त स्थान में या देवालय में, जहाँ लोगों का आवागमन कम हो, भगवान् गणेश की षोडशोपचार से पूजा करे। घी का दीपक जलाकर, अपने सामने, एक फुट की ऊँचाई पर रखे। सिन्दूर और लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और प्रतिदिन १२५ बार उक्त मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन के प्रसाद को बच्चों में बाँट दे। चालीसवें दिन सवा सेर लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और मन्त्र का जप समाप्त होने पर तीन बालकों को भोजन कराकर उन्हें कुछ द्रव्य-दक्षिणा में दे। सिन्दूर को एक डिब्बी में सुरक्षित रखे। एक सप्ताह तक इस सिन्दूर को न छूए। उसके बाद जब कभी कोई कार्य या समस्या आ पड़े, तो सिन्दूर को सात बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर अपने माथे पर टीका लगाए। कार्य सफल होगा।…………………………

नजर उतारने का मन्त्र “ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।” विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।नजर-टोना झारने का मन्त्र “कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।” विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे। नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´“काली काली महा-काली, इन्द्र की बेटी, ब्रह्मा की साली। पीती भर भर रक्त प्याली, उड़ बैठी पीपल की डाली। दोनों हाथ बजाए ताली। जहाँ जाए वज्र की ताली, वहाँ ना आए दुश्मन हाली। दुहाई कामरो कामाख्या नैना योगिनी की, ईश्वर महादेव गोरा पार्वती की, दुहाई वीर मसान की।।” विधिः- प्रतिदिन १०८ बार ४० दिन तक जप कर सिद्ध करे। प्रयोग के समय पढ़कर तीन बार जोर से ताली बजाए। जहाँ तक ताली की आवाज जायेगी, दुश्मन का कोई वार या भूत, प्रेत असर नहीं करेगा

नजर-टोना झारने का मन्त्र “आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।” विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।नजर उतारने का मन्त्र “ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।” विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।

नजर झारने के मन्त्र १॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।” २॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।” विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा” !! लक्ष्मी से युक्त श्रीनृसिंहभगवान् , महागणपति एवं श्रीगुरु (श्रीनृसिंहाश्रम ) को में नमस्कार करता हुँ। ॐ श्री लक्ष्मीनृसिंहाय नम:। भगवान् श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो । जय श्री राम... श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । हमारा ईमेल है ।-shriramjyotishsadan16@gmail.com... हमारा मोबाईल नम्बर है। ।...9760924411…मोबाईल..इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -06.00 -के मध्य ही संपर्क करें।Muzaffarnagar.(up) –PinCod-251001..

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रह मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ब्रह्मा मुरारिः त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमि-सुतो बुधश्च। गुरूश्च शुक्रः शनि राहु केतवेः सर्वे ग्रहाः शान्तिः करा भवन्तु॥ ॐ सुर्यः शौर्यमथेन्दुर उच्च पदवीं सं मंगलः सद् बुद्धिं च बुधो गुरूश्च गुरूतां शुक्रः सुखं शं शनिः राहुः बाहुबलं करोतु सततं केतुः कुलस्यः उन्नतिं नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु मम ते सर्वे अनुकूला ग्रहाः॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रहस्तोत्रम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ जपा कुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिम्। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥१॥ दधि शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्। नमामि शशिनं सोमं शम्भोः मुकुट भूषणम्॥२॥ धरणी गर्भ संभूतं विद्युत्कान्ति समप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम्॥३॥ प्रियंगु कलि काश्यामं रूपेणा प्रतिमं बुधम्। सौम्यं सौम्य गुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥४॥ देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चन संनिभम्। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥५॥ हिम कुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्। सर्व शास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छाया मार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥ अर्ध कायं महावीर्यं चन्द्र आदित्य विमर्दनम्। सिंहिका गर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥ पलाश पुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥ इति व्यास मुखोद् गीतं यः पठेत् सुसमाहितः। दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शान्तिर भविष्यति॥१०॥ नर नारी नृपाणां च भवेद् दुःस्वप्न नाशनम्। ऐश्वर्यं अतुलं तेषाम् आरोग्यं पुष्टि वर्धनम्॥११॥ गृह नक्षत्रजाः पीडाः तस्कराग्नि समुद् भवाः। ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रू तेन संशयः॥१२॥ ॐ ॐ ॐ ॥ इति श्रीव्यास विरचितं नवग्रहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॐ ॐ ॐ

.कमलगट्टे की माला:- धन प्राप्ति के लिए किए जाने वाले तंत्र प्रयोगों में कई वस्तु ओं का उपयोग किया जाता है, कमल गट्टा भी उन्हीं में से एक है। शत्रुजन्य कष्टों से बचाव हेतु मंत्र जप भी कमल गट्टे की माला से किया जाता है। लक्ष्मीजी के लिए मंत्रोच्चार द्वारा किये जाने वाले हवन में कमलगट्टे के बीजों से आहुति दी जाती है कमल गट्टा कमल के पौधे में से निकलते हैं व काले रंग के होते हैं। यह बाजार में आसानी से मिल जाते हैं। मंत्र जप के लिए इसकी माला भी बनती है।मंत्र जप में जप माला देव शक्ति स्वरूप व जाग्रत मानी जाती है। जिसके लिए अलग-अलग मंत्र जप माला अलग-अलग देव कृपा के लिए प्रभावी मानी गई है। लक्ष्मी जी के मंत्रों एवं धनदायक मंत्रों के जप कमलगट्टे की माला से करते हैं। ऐश्वर्य की देवी महालक्ष्मी की पूजा न केवल धनवान व समृद्ध बनाती है, बल्कि यश, प्रतिष्ठा के साथ शांति, पवित्रता, शक्ति व बुद्धि भी देने वाली मानी गई है।शुक्रवार को देवी लक्ष्मी की सुबह और शाम दोनों ही वक्त स्नान के बाद यथासंभव लाल वस्त्र पहन लाल पूजा सामग्रियों से पूजा करें। देवी की चांदी या किस भी धातु की बनी प्रतिमा को दूध, दही, घी, शकर और शहद से बने पंचामृत व पवित्र जल से स्नान कराने के बाद लाल चंदन, कुंकुम, लाल अक्षत, कमल गुलाब या गुड़हल का फूल चढ़ाकर घर में बनी दूध की खीर का भोग लगाएं। पूजा के बाद नीचे लिखे लक्ष्मी मंत्रों में किसी भी एक या दोनों का लाल आसन पर कमलगट्टे की माला से कम से कम 108 बार जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं सौं: श्रीं ह्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम: ॐ महालक्ष्म्यै नमः - पूजा व मंत्र जप के बाद माता लक्ष्मी की आरती करें, प्रसाद ग्रहण करें व माता को चढ़ाया थोड़ा-सा कुंकुम कागज में बांध तिजोरी मे रखें। उपाय 1- यदि रोज 108 कमल के बीजों से आहुति दें और ऐसा 21 दिन तक करें तो आने वाली कई पीढिय़ां सम्पन्न बनी रहती हैं। 2- यदि दुकान में कमल गट्टे की माला बिछा कर उसके ऊपर लक्ष्मी का चित्र स्थापित किया जाए व्यापार निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर होता है। 3- कमल गट्टे की माला लक्ष्मी के चित्र पर पहना कर किसी नदी या तालाब में विसर्जित करें तो उसके घर में निरंतर लक्ष्मी का आगमन बना रहता है। 4- जो व्यक्ति प्रत्येक बुधवार को 108 कमलगटटे के बीज लेकर घी के साथ एक-एक करके अग्नि में 108 आहुतियां देता है। उसके घर से दरिद्रता हमेशा के लिए चली जाती है। 5- जो व्यक्ति पूजा-पाठ के दौरान की माला अपने गले में धारण करता है उस पर लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है। 6- शुक्रवार, दीपावली, नवरात्रि या किसी देवी उपासना के विशेष दिन कमलगट्टे की माला से अलग-अलग रूपों में लक्ष्मी मंत्र जप देवी लक्ष्मी की कृपा से धन, ऐश्वर्य व यश पाने, कामनासिद्धि व मंत्र सिद्धि का अचूक उपाय माना गया है।

दूकान की बिक्री अधिक हो---- १॰ “श्री शुक्ले महा-शुक्ले कमल-दल निवासे श्री महालक्ष्मी नमो नमः। लक्ष्मी माई, सत्त की सवाई। आओ, चेतो, करो भलाई। ना करो, तो सात समुद्रों की दुहाई। ऋद्धि-सिद्धि खावोगी, तो नौ नाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई।” विधि- घर से नहा-धोकर दुकान पर जाकर अगर-बत्ती जलाकर उसी से लक्ष्मी जी के चित्र की आरती करके, गद्दी पर बैठकर, १ माला उक्त मन्त्र की जपकर दुकान का लेन-देन प्रारम्भ करें। आशातीत लाभ होगा। २॰ “भँवरवीर, तू चेला मेरा। खोल दुकान कहा कर मेरा। उठे जो डण्डी बिके जो माल, भँवरवीर सोखे नहिं जाए।।” विधि- १॰ किसीशुभ रविवार से उक्त मन्त्र की १० माला प्रतिदिन के नियम से दस दिनों में १०० माला जप कर लें। केवल रविवार के ही दिन इस मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। प्रातः स्नान करके दुकान पर जाएँ। एक हाथ में थोड़े-से काले उड़द ले लें। फिर ११ बार मन्त्र पढ़कर, उन पर फूँक मारकर दुकान में चारों ओर बिखेर दें। सोमवार को प्रातः उन उड़दों को समेट कर किसी चौराहे पर, बिना किसी के टोके, डाल आएँ। इस प्रकार चार रविवार तक लगातार, बिना नागा किए, यह प्रयोग करें। २॰ इसके साथ यन्त्र का भी निर्माण किया जाता है। इसे लाल स्याही अथवा लाल चन्दन से लिखना है। बीच में सम्बन्धित व्यक्ति का नाम लिखें। तिल्ली के तेल में बत्ती बनाकर दीपक जलाए। १०८ बार मन्त्र जपने तक यह दीपक जलता रहे। रविवार के दिन काले उड़द के दानों पर सिन्दूर लगाकर उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर उन्हें दूकान में बिखेर दें।..................

सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्र---- श्री हिरण्य-मयी हस्ति-वाहिनी, सम्पत्ति-शक्ति-दायिनी। मोक्ष-मुक्ति-प्रदायिनी, सद्-बुद्धि-शक्ति-दात्रिणी।।१ सन्तति-सम्वृद्धि-दायिनी, शुभ-शिष्य-वृन्द-प्रदायिनी। नव-रत्ना नारायणी, भगवती भद्र-कारिणी।।२ धर्म-न्याय-नीतिदा, विद्या-कला-कौशल्यदा। प्रेम-भक्ति-वर-सेवा-प्रदा, राज-द्वार-यश-विजयदा।।३ धन-द्रव्य-अन्न-वस्त्रदा, प्रकृति पद्मा कीर्तिदा। सुख-भोग-वैभव-शान्तिदा, साहित्य-सौरभ-दायिका।।४ वंश-वेलि-वृद्धिका, कुल-कुटुम्ब-पौरुष-प्रचारिका। स्व-ज्ञाति-प्रतिष्ठा-प्रसारिका, स्व-जाति-प्रसिद्धि-प्राप्तिका।।५ भव्य-भाग्योदय-कारिका, रम्य-देशोदय-उद्भाषिका। सर्व-कार्य-सिद्धि-कारिका, भूत-प्रेत-बाधा-नाशिका। अनाथ-अधमोद्धारिका, पतित-पावन-कारिका। मन-वाञ्छित॒फल-दायिका, सर्व-नर-नारी-मोहनेच्छा-पूर्णिका।।७ साधन-ज्ञान-संरक्षिका, मुमुक्षु-भाव-समर्थिका। जिज्ञासु-जन-ज्योतिर्धरा, सुपात्र-मान-सम्वर्द्धिका।।८ अक्षर-ज्ञान-सङ्गतिका, स्वात्म-ज्ञान-सन्तुष्टिका। पुरुषार्थ-प्रताप-अर्पिता, पराक्रम-प्रभाव-समर्पिता।।९ स्वावलम्बन-वृत्ति-वृद्धिका, स्वाश्रय-प्रवृत्ति-पुष्टिका। प्रति-स्पर्द्धी-शत्रु-नाशिका, सर्व-ऐक्य-मार्ग-प्रकाशिका।।१० जाज्वल्य-जीवन-ज्योतिदा, षड्-रिपु-दल-संहारिका। भव-सिन्धु-भय-विदारिका, संसार-नाव-सुकानिका।।११ चौर-नाम-स्थान-दर्शिका, रोग-औषधी-प्रदर्शिका। इच्छित-वस्तु-प्राप्तिका, उर-अभिलाषा-पूर्णिका।।१२ श्री देवी मङ्गला, गुरु-देव-शाप-निर्मूलिका। आद्य-शक्ति इन्दिरा, ऋद्धि-सिद्धिदा रमा।।१३ सिन्धु-सुता विष्णु-प्रिया, पूर्व-जन्म-पाप-विमोचना। दुःख-सैन्य-विघ्न-विमोचना, नव-ग्रह-दोष-निवारणा।।१४ ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवता-स्वरुपिणी श्रीमहा-माया महा-देवी महा-शक्ति महालक्ष्म्ये नमो नमः। ॐ ह्रीं श्रीपर-ब्रह्म परमेश्वरी। भाग्य-विधाता भाग्योदय-कर्त्ता भाग्य-लेखा भगवती भाग्येश्वरी ॐ ह्रीं। कुतूहल-दर्शक, पूर्व-जन्म-दर्शक, भूत-वर्तमान-भविष्य-दर्शक, पुनर्जन्म-दर्शक, त्रिकाल-ज्ञान-प्रदर्शक, दैवी-ज्योतिष-महा-विद्या-भाषिणी त्रिपुरेश्वरी। अद्भुत, अपुर्व, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, सामुद्रिक-विज्ञान-रहस्य-रागिनी, श्री-सिद्धि-दायिनी। सर्वोपरि सर्व-कौतुकानि दर्शय-दर्शय, हृदयेच्छित सर्व-इच्छा पूरय-पूरय ॐ स्वाहा। ॐ नमो नारायणी नव-दुर्गेश्वरी। कमला, कमल-शायिनी, कर्ण-स्वर-दायिनी, कर्णेश्वरी, अगम्य-अदृश्य-अगोचर-अकल्प्य-अमोघ-अधारे, सत्य-वादिनी, आकर्षण-मुखी, अवनी-आकर्षिणी, मोहन-मुखी, महि-मोहिनी, वश्य-मुखी, विश्व-वशीकरणी, राज-मुखी, जग-जादूगरणी, सर्व-नर-नारी-मोहन-वश्य-कारिणी, मम करणे अवतर अवतर, नग्न-सत्य कथय-कथय। अतीत अनाम वर्तनम्। मातृ मम नयने दर्शन। ॐ नमो श्रीकर्णेश्वरी देवी सुरा शक्ति-दायिनी। मम सर्वेप्सित-सर्व-कार्य-सिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा। ॐ श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया महा-शक्ति महा-लक्ष्मी महा-देव्यै विच्चे-विच्चे श्रीमहा-देवी महा-लक्ष्मी महा-माया महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ। ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः। ॐ श्री ऐरावत-हस्ति-वाहिन्यै नमः। ॐ श्री कल्प-वृक्ष-फल-भक्षिण्यै नमः। ॐ श्री काम-दुर्गा पयः-पान-कारिण्यै नमः। ॐ श्री नन्दन-वन-विलासिन्यै नमः। ॐ श्री सुर-गंगा-जल-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री मन्दार-सुमन-हार-शोभिन्यै नमः। ॐ श्री देवराज-हंस-लालिन्यै नमः। ॐ श्री अष्ट-दल-कमल-यन्त्र-रुपिण्यै नमः। ॐ श्री वसन्त-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री सुमन-सरोज-निवासिन्यै नमः। ॐ श्री कुसुम-कुञ्ज-भोगिन्यै नमः। ॐ श्री पुष्प-पुञ्ज-वासिन्यै नमः। ॐ श्री रति-रुप-गर्व-गञ्हनायै नमः। ॐ श्री त्रिलोक-पालिन्यै नमः। ॐ श्री स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-भूमि-राज-कर्त्र्यै नमः। श्री लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीदेवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री रसेश्वरी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री ऋद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री सिद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कीर्तिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रीतिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीइन्दिरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कमला-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहिरण्य-वर्णा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरत्न-गर्भा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुवर्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुप्रभा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपङ्कनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीराधिका-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्म-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरमा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलज्जा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीजया-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसरोजिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहस्तिवाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीगरुड़-वाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसिंहासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकमलासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतुष्टिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवृद्धिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपालिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरक्षिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवैष्णवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमानवेष्टाभ्यो नमः। श्रीसुरेष्टाभ्यो नमः। श्रीकुबेराष्टाभ्यो नमः। श्रीत्रिलोकीष्टाभ्यो नमः। श्रीमोक्ष-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीभुक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकल्याण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीनवार्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीअक्षस्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुर-स्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रज्ञावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्मावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशंख-चक्र-गदा-पद्म-धरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमहा-लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मी-नारायण-यन्त्रेभ्यो नमः। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीमहा-माया-महा-देवी-महा-शक्ति-महा-लक्ष्मी-स्वरुपा-श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः। ॐ विष्णु-पत्नीं, क्षमा-देवीं, माध्वीं च माधव-प्रिया। लक्ष्मी-प्रिय-सखीं देवीं, नमाम्यच्युत-वल्लभाम्। ॐ महा-लक्ष्मी च विद्महे विष्णु-पत्नि च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। मम सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा। विधिः- १॰ उक्त सर्व-कामना-सिद्धी स्तोत्र का नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती है। २॰ इस स्तोत्र से ‘यन्त्र-पूजा’ भी होती हैः- ‘सर्वतोभद्र-यन्त्र’ तथा ‘सर्वारिष्ट-निवारक-यन्त्र’ में से किसी भी यन्त्र पर हो सकती है। ‘श्रीहिरण्यमयी’ से लेकर ‘नव-ग्रह-दोष-निवारण’- १४ श्लोक से इष्ट का आवाहन और स्तुति है। बाद में “ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं” सर्व कामना से पुष्प समर्पित कर धऽयान करे और यह भावना रखे कि- ‘मम सर्वेप्सितं सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।’ फिर अनुलोम-विलोम क्रम से मन्त्र का जप करे-”ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया-महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।” स्वेच्छानुसार जप करे। बाद में “ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः” आदि १६ मन्त्रों से यन्त्र में, यदि षोडश-पत्र हो, तो उनके ऊपर, अन्यथा यन्त्र में पूर्वादि-क्रम से पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। तदनन्तर ‘श्रीलक्ष्मी-तम्त्रेभ्यो नमः’ और ‘श्री सर्व-कामना-सिद्धि-महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः’ से अष्टगन्ध या जो सामग्री मिले, उससे ‘यन्त्र’ में पूजा करे। अन्त में ‘लक्ष्मी-गायत्री’ पढ़करपुष्पाजलि देकर विसर्जन करे।................................

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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