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Tuesday, 16 April 2019
नवग्रह शांतिदायक टोटके सूर्यः- १॰ सूर्यदेव के दोष के लिए खीर का भोजन बनाओ और रोजाना चींटी के बिलों पर रखकर आवो और केले को छील कर रखो । २॰ जब वापस आवो तभी गाय को खीर और केला खिलाओ । ३॰ जल और गाय का दूध मिलाकर सूर्यदेव को चढ़ावो। जब जल चढ़ाओ, तो इस तरह से कि सूर्य की किरणें उस गिरते हुए जल में से निकल कर आपके मस्तिष्क पर प्रवाहित हो । ४॰ जल से अर्घ्य देने के बाद जहाँ पर जल चढ़ाया है, वहाँ पर सवा मुट्ठी साबुत चावल चढ़ा देवें । चन्द्रमाः- १॰ पूर्णिमा के दिन गोला, बूरा तथा घी मिलाकर गाय को खिलायें । ५ पूर्णमासी तक गाय को खिलाना है । २॰ ५ पूर्णमासी तक केवल शुक्ल पक्ष में प्रत्येक १५ दिन गंगाजल तथा गाय का दूध चन्द्रमा उदय होने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य दें । अर्घ्य देते समय ऊपर दी गई विधि का इस्तेमाल करें । ३॰ जब चाँदनी रात हो, तब जल के किनारे जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को हाथ जोड़कर दस मिनट तक खड़ा रहे और फिर पानी में मीठा प्रसाद चढ़ा देवें, घी का दीपक प्रज्जवलित करें । उक्त प्रयोग घर में भी कर सकते हैं, पीतल के बर्तन में पानी भरकर छत पर रखकर या जहाँ भी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पानी में दिख सके वहीं पर यह कार्य कर सकते हैं । मंगलः- १॰ चावलों को उबालने के बाद बचे हुए माँड-पानी में उतना ही पानी तथा १०० ग्राम गुड़ मिलाकर गाय को खिलाओ । २॰ सवा महीने में जितने दिन होते हैं, उतने साबुत चावल पीले कपड़े में बाँध कर यह पोटली अपने साथ रखो । यह प्रयोग सवा महीने तक करना है । ३॰ मंगलवार के दिन हनुमान् जी के व्रत रखे । कम-से-कम पाँच मंगलवार तक । ४॰ किसी जंगल जहाँ बन्दर रहते हो, में सवा मीटर लाल कपड़ा बाँध कर आये, फिर रोजाना अथवा मंगलवार के दिन उस जंगल में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाये । बुधः- १॰ सवा मीटर सफेद कपड़े में हल्दी से २१ स्थान पर “ॐ” लिखें तथा उसे पीपल पर लटका दें । २॰ बुधवार के दिन थोड़े गेहूँ तथा चने दूध में डालकर पीपल पर चढ़ावें । ३॰ सोमवार से बुधवार तक हर सप्ताह कनैर के पेड़ पर दूध चढ़ावें । जिस दिन से शुरुआत करें उस दिन कनैर के पौधे की जड़ों में कलावा बाँधें । यह प्रयोग कम-से-कम पाँच सप्ताह करें । बृहस्पतिः- १॰ साँड को रोजाना सवा किलो ७ अनाज, सवा सौ ग्राम गुड़ सवा महीने तक खिलायें । २॰ हल्दी पाँच गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर पीपल के पेड़ पर बाँध दें तथा ३ गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर अपने साथ रखें । ३॰ बृहस्पतिवार के दिन भुने हुए चने बिना नमक के ग्यारह मन्दिरों के सामने बांटे । सुबह उठने के बाद घर से निकलते ही जो भी जीव सामने आये उसे ही खिलावें चाहे कोई जानवे हो या मनुष्य । शुक्रः- १॰ उड़द का पौधा घर में लगाकर उस पर सुबह के समय दूध चढ़ावें । प्रथम दिन संकल्प कर पौधे की जड़ में कलावा बाँधें । यह प्रयोग सवा दो महीने तक करना है । २॰ सवा दो महीने में जितने दिन होते है, उतने उड़द के दाने सफेद कपड़े में बाँधकर अपने पास रखें । ३॰ शुक्रवार के दिन पाँच गेंदा के फूल तथा सवा सौ उड़द पीपल की खोखर में रखें, कम-से-कम पाँच शुक्रवार तक । शनिः- १॰ सवा महिने तक प्रतिदिन तेली के घर बैल को गुड़ तथा तेल लगी रोटी खिलावें । राहूः- १॰ चन्दन की लकड़ी साथ में रखें । रोजाना सुबह उस चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर पानी में मिलाकर उस पानी को पियें । २॰ साबुत मूंग का खाने में अधिक सेवन करें । ३॰ साबुत गेहूं उबालकर मीठा डालकर कोड़ी मनुष्यों को खिलावें तथा सत्कार करके घर वापस आवें । केतुः- १॰ मिट्टी के घड़े का बराबर आधा-आधा करो । ध्यान रहे नीचे का हिस्सा काम में लेना है, वह समतल हो अर्थात् किनारे उपर-नीचे न हो । इसमें अब एक छोटा सा छेद करें तथा इस हिस्से को ऐसे स्थान पर जहाँ मनुष्य-पशु आदि का आवागमन न हो अर्थात् एकान्त में, जमीन में गड्ढा कर के गाड़ दें । ऊपर का हिस्सा खुला रखें । अब रोजाना सुबह अपने ऊपर से उबार कर सवा सौ ग्राम दूध उस घड़े के हिस्से में चढ़ावें । दूध चढ़ाने के बाद उससे अलग हो जावें तथा जाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखें ।.......
बंधी दूकान कैसे खोलें ? कभी-कभी देखने में आता है कि खूब चलती हुई दूकान भी एकदम से ठप्प हो जाती है । जहाँ पर ग्राहकों की भीड़ उमड़ती थी, वहाँ सन्नाटा पसरने लगता है । यदि किसी चलती हुई दुकान को कोई तांत्रिक बाँध दे, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, अतः इससे बचने के लिए निम्नलिखित प्रयोग करने चाहिए - १॰ दुकान में लोबान की धूप लगानी चाहिए । २॰ शनिवार के दिन दुकान के मुख्य द्वार पर बेदाग नींबू एवं सात हरी मिर्चें लटकानी चाहिए । ३॰ नागदमन के पौधे की जड़ लाकर इसे दुकान के बाहर लगा देना चाहिए । इससे बँधी हुई दुकान खुल जाती है । ४॰ दुकान के गल्ले में शुभ-मुहूर्त में श्री-फल लाल वस्त्र में लपेटकर रख देना चाहिए । ५॰ प्रतिदिन संध्या के समय दुकान में माता लक्ष्मी के सामने शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए । ६॰ दुकान अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान की दीवार पर शूकर-दंत इस प्रकार लगाना चाहिए कि वह दिखाई देता रहे । ७॰ व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा दुकान को नजर से बचाने के लिए काले-घोड़े की नाल को मुख्य द्वार की चौखट के ऊपर ठोकना चाहिए । ८॰ दुकान में मोरपंख की झाडू लेकर निम्नलिखित मंत्र के द्वारा सभी दिशाओं में झाड़ू को घुमाकर वस्तुओं को साफ करना चाहिए । मंत्रः- “ॐ ह्रीं ह्रीं क्रीं” ९॰ शुक्रवार के दिन माता लक्ष्मी के सम्मुख मोगरे अथवा चमेली के पुष्प अर्पित करने चाहिए । १०॰ यदि आपके व्यावसायिक प्रतिष्ठान में चूहे आदि जानवरों के बिल हों, तो उन्हें बंद करवाकर बुधवार के दिन गणपति को प्रसाद चढ़ाना चाहिए । ११॰ सोमवार के दिन अशोक वृक्ष के अखंडित पत्ते लाकर स्वच्छ जल से धोकर दुकान अथवा व्यापारिक प्रतिष्ठान के मुख्य द्वार पर टांगना चाहिए । सूती धागे को पीसी हल्दी में रंगकर उसमें अशोक के पत्तों को बाँधकर लटकाना चाहिए । १२॰ यदि आपको यह शंका हो कि किसी व्यक्ति ने आपके व्यवसाय को बाँध दिया है या उसकी नजर आपकी दुकान को लग गई है, तो उस व्यक्ति का नाम काली स्याही से भोज-पत्र पर लिखकर पीपल वृक्ष के पास भूमि खोदकर दबा देना चाहिए तथा इस प्रयोग को करते समय किसी अन्य व्यक्ति को नहीं बताना चाहिए । यदि पीपल वृक्ष निर्जन स्थान में हो, तो अधिक अनुकूलता रहेगी । १३॰ कच्चा सूत लेकर उसे शुद्ध केसर में रंगकर अपनी दुकान पर बाँध देना चाहिए । १४॰ हुदहुद पक्षी की कलंगी रविवार के दिन प्रातःकाल दुकान पर लाकर रखने से व्यवसाय को लगी नजर समाप्त होती है और व्यवसाय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । १५॰ कभी अचानक ही व्यवसाय में स्थिरता आ गई हो, तो निम्नलिखित मंत्र का प्रतिदिन ग्यारह माला जप करने से व्यवसाय में अपेक्षा के अनुरुप वृद्धि होती है । मंत्रः- “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो भगवती माहेश्वरी अन्नपूर्णा स्वाहा ।” १६॰ यदि कोई शत्रु आपसी जलन या द्वेष, व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण आप पर तंत्र-मंत्र का कोई प्रयोग करके आपके व्यवसाय में बाधा डाल रहा हो, तो ईसे में नीचे लिखे सरल शाबर मंत्र का प्रयोग करके आप अपनी तथा अपने व्यवसाय की रक्षा कर सकते हैं । सर्वप्रथम इस मंत्र की दस माला जपकर हवन करें । मंत्र सिद्ध हो जाने पर रविवार या मंगलवार की रात इसका प्रयोग करें । मंत्रः- “उलटत वेद पलटत काया, जाओ बच्चा तुम्हें गुरु ने बुलाया, सत नाम आदेश गुरु का ।” रविवार या मंगलवार की रात को 11 बजे के बाद घर से निकलकर चौराहे की ओर जाएँ, अपने साथ थोड़ी-सी शराब लेते जाएँ । मार्ग में सात कंकड़ उठाते जाएँ । चौराहे पर पहुँचकर एक कंकड़ पूर्व दिशा की ओर फेंकते हुए उपर्युक्त मंत्र पढ़ें, फिर एक दक्षिण, फिर क्रमशः पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे तथा सातवीं कंकड़ चौराहे के बीच रखकर उस शराब चढ़ा दें । यह सब करते समय निरन्तर उक्त मन्त्र का उच्चारण करते रहें । फिर पीछे पलट कर सीधे बिना किसी से बोले और बिना पीछे मुड़कर देखे अपने घर वापस आ जाएँ । घर पर पहले से द्वार के बाहर पानी रखे रहें । उसी पानी से हाथ-पैर धोकर कुछ जल अपने ऊपर छिड़क कर, तब अन्दर जाएँ । एक बात का अवश्य ध्यान रखें कि आते-जाते समय आपके घर का कोई सदस्य आपके सामने न पड़े और चौराहे से लौटते समय यदि आपको कोई बुलाए या कोई आवाज सुनाई दे, तब भी मुड़कर न देखें । १७॰ यदि आपके लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी आपके सामान की बिक्री निरन्तर घटती जा रही हो, तो बिक्री में वृद्धि हेतु किसी भी मास के शुक्ल पक्ष के गुरुवार के दिन से निम्नलिखित क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए - व्यापार स्थल अथवा दुकान के मुख्य द्वार के एक कोने को गंगाजल से धोकर स्वच्छ कर लें । इसके उपरान्त हल्दी से स्वस्तिक बनाकर उस पर चने की दाल और गुड़ थोड़ी मात्रा में रख दें । इसके बाद आप उस स्वस्तिक को बार-बार नहीं देखें । इस प्रकार प्रत्येक गुरुवार को यह क्रिया सम्पन्न करने से बिक्री में अवश्य ही वृद्धि होती है । इस प्रक्रिया को
श्री हनुमान अष्टादशाक्षर मन्त्र-प्रयोग मन्त्रः- “ॐ नमो हनुमते आवेशय आवेशय स्वाहा ।” विधिः- सबसे पहले हनुमान जी की एक मूर्त्ति रक्त-चन्दन से बनवाए । किसी शुभ मुहूर्त्त में उस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे रक्त-वस्त्रों से सु-शोभित करे । फिर रात्रि में स्वयं रक्त-वस्त्र धारण कर, रक्त आसन पर पूर्व की तरफ मुँह करके बैठे । हनुमान जी उक्त मूर्त्ति का पञ्चोपचार से पूजन करे । किसी नवीन पात्र में गुड़ के चूरे का नैवेद्य लगाए और नैवेद्य को मूर्ति के सम्मुख रखा रहने दे । घृत का ‘दीपक’ जलाकर, रुद्राक्ष की माला से उक्त ‘मन्त्र’ का नित्य ११०० जप करे और जप के बाद स्वयं भोजन कर, ‘जप’-स्थान पर रक्त-वस्त्र के बिछावन पर सो जाए । अगली रात्रि में जब पुनः पूजन कर नैवेद्य लगाए, तब पहले दिन के नैवेद्य को दूसरे पात्र में रख लें । इस प्रकार ११ दिन करे । १२वें दिन एकत्र हुआ ‘नैवेद्य’ किसी दुर्बल ब्राह्मण को दे दें अथवा पृथ्वी में गाड़ दे । ऐसा करने से हनुमान जी रात्रि में स्वप्न में दर्शन देकर सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सेते हैं । ‘प्रयोग’ को गुप्त-भाव से करना चाहिए ।...........................................
भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव भय-विघ्न के नाशक रुद्रावतार भैरव शास्त्रों में भैरव के विभिन्न रुपों का उल्लेख मिलता है । तन्त्र में अष्ट भैरव तथा उनकी आठ शक्तियों का उल्लेख मिलता है । श्रीशंकराचार्य ने भी “प्रपञ्च-सार तन्त्र” में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं । सप्तविंशति रहस्य में सात भैरवों के नाम हैं । इसी ग्रन्थ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है । इसी में तीन वटुक-भैरवों का उल्लेख है । रुद्रायमल तन्त्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है । आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है । इनमें “बटुक-भैरव” सबसे सौम्य रुप है । “महा-काल-भैरव” मृत्यु के देवता हैं । “स्वर्णाकर्षण-भैरव” को धन-धान्य और सम्पत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तगो “बाल-भैरव” की आराधना बालक के रुप में की जाती है । सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही हरते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की । इनके अतिरिक्त तन्त्र साधना में भैरव के ये आठ रुप भी अधिक लोकप्रिय हैं - १॰ असितांग भैरव, २॰ रु-रु भैरव, ३॰ चण्ड भैरव, ४॰ क्रोधोन्मत्त भैरव, ५॰ भयंकर भैरव, ६॰ कपाली भैरव, ७॰ भीषण भैरव तथा संहार भैरव । भैरव की उत्पत्ति रुद्र के भैरवावतार की विवेचनाट शिव-पुराण में इस प्रकार है ” एक बार समस्त ऋषिगणों में परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई । वे परम-ब्रह्म को जानकर उसकी तपस्या करना चाहते थे । यह जिज्ञासा लेकर वे समस्त ऋषिगण देवलोक पहुँचे । वहाँ उन्होंने ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि हम सभी ऋषिगण उस परम-तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से आपके पास आए हैं ।कृपा करके हमें बताइये कि वह कौन है, जिसकी तपस्या कर सकें ? इस पर ब्रह्मा जी ने स्वयं को ही इंगित करते हुए कहा, ” मैं ही वह परम-तत्त्व हूँ ।” ऋषिगण उनके इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए । तब यही प्रश्न लेकर वे क्षीर-सागर में भगवान् विष्णु के पास गए, परन्तु उन्होंने भी कहा वे ही परम-तत्त्व हैं, अतः उनकी आराधना करना श्रेष्ठ है, किन्तु उनके भी उत्तर से ऋषि-समूह सन्तुष्ट नहीं हो सका । अन्त में उन्होंने वेदों के पास जाने का निश्चय किया । वेदों के समक्ष जाकर उन्होंने यही जिज्ञासा प्रकट की कि हमें परम-तत्त्व के बारे में ज्ञान दीजिये । इस पर वेदों ने उत्तर दिया कि, “शिव ही परम-तत्त्व है । वे ही सर्वश्रेष्ठ और पूजन के योग्य हैं ।” यह उत्तर सुनकर ब्रह्मा और विष्णु ने वेदों की बात को अस्वीकार कर दिया । उसी समय वहाँ एक तेज-पुँज प्रकट हुआ और उसने धीरे-धीरे एक पुरुषाकृति को धारण कर लिया । यह देख ब्रह्मा का पँचम सिर क्रोधोन्मत्त हो उठा और उस आकृति से बोला, “पूर्वकाल में मेरे भाल से ही तुम उत्पन्न हुए हो, मैंने ही तुम्हारा नाम ‘रुद्र’ रखा था । तुम मेरे पुत्र हो, मेरी शरण में आओ ।” ब्रह्मा की इस गर्वोक्ति से वह तेज-पुँज रुपी शिव जी कुपित हो गए और उन्होंने एक अत्यन्त भीषण पुरुष को उत्पन्न कर उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “आप काल-राज हैं, क्योंकि काल की भाँति शोभित हैं । आप भैरव हैं, क्योंकि आप अत्यन्त भीषण हैं । आप काल-भैरव हैं, क्योंकि काल भी आपसे भयभीत होगा । आप आमर्दक हैं, क्योंकि आप दुष्टात्माओं का नाश करेंगे ।” शिव से वरदान प्राप्त करके श्रीभैरव ने अपने नखाग्र से ब्रह्मा के अपराधकर्त्ता पँचम सिर का विच्छेद कर दिया । लोक मर्यादा रक्षक शिवजी ने ब्रह्म-हत्या मुक्ति के लिए भैरव को कापालिक व्रत धारण करवाया और काशी में निवास करने की आज्ञा दे दी । श्रीबटुक के पटल में भगवान् शंकर ने कहा कि “हे पार्वति ! मैंने प्राणियों को सभी प्रकार के सुख देने वाले बटुकभैरव का रुप धारण किया है । अन्य देवता तो देर से कृपा करते हैं, किन्तु भैरव शीघ्र ही अपने साधकों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । उदाहरण के तौर पर भैरव का वाहन कुत्ता अपनी स्वामी-भक्ति के लिए प्रसिद्ध है । शारदा तिलक आदि तन्त्र ग्रन्थों में श्री बटुक भैरव के सात्त्विक, राजस, तामस तीनों ध्यान भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है । रुप उपासना भेद से उनका फल भी भिन्न हैं । सात्त्विक ध्यान अपमृत्यु-नाशक, आयु-आरोग्य-प्रद तथा मोक्ष-प्रद है । धर्म, अर्थ, काम के लिए राजस ध्यान है । कृत्या, भूतादि तथा शत्रु-शमन के लिए तामस ध्यान किया जाता है । तान्त्रिक पूजन में आनन्द भैरव और भैरवी का पूजन आवश्यक होता है । इनका ध्यान आदि पूजा पद्धतियों में वर्णित किया गया है । तन्त्र साधना में “मजूंघोष” की साधना का वर्णन है । ये भैरव के ही स्वरुप माने गए हैं । इनकी उपासना से स्मृति की वृद्धि और जड़ता का नाश होता है । भैरव पूजा में रखी जाने वाली सावधानियाँ १॰ भैरव साधना से नमोकामना पूर्ण होती है, अपनी मनोकामना संकल्प में बोलनी चाहिये । २॰ भैरव को नैवेद्य में मदिरा चढ़ानी चाहिए, यह सम्भव नहीं हो, तो मदिरा के स्थान पर दही-गुड़ मिलाकर अर्पित करें । ३॰ भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें । ४॰ भैरव मन्त्र का जप रुद्राक्ष माला से किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त काले हकीक की माला भी उपयुक्त है । ५॰ भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिये । ६॰ भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण कर लेना चाहिये । ७॰ भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार निर्धारित है । रविवार को खीर, सोमवार को लड्डू, मंगलवार को घी और गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को उड़द के पकौड़े अथवा जलेबी तथा तले हुए पापड़ आदि का भोग लगाया जाता है ।..................................
श्री तारा महाविद्या प्रयोग बड़े से बड़े दुखों का होगा नाश सृष्टि के सर्वोच्च ज्ञान की होगी प्राप्ति भोग और मोक्ष होंगे मुट्ठी में जीवन के हर क्षत्र में मिलेगी अपार सफलता दैहिक दैविक भौतिक तापों से तारेगी "सिद्धविद्या महातारा" सृष्टि की उत्तपत्ति से पहले घोर अन्धकार था, तब न तो कोई तत्व था न ही कोई शक्ति थी, केवल एक अन्धकार का साम्राज्य था, इस परलायाकाल के अन्धकार की देवी थी काली, उसी महाअधकार से एक प्रकाश का बिन्दु प्रकट हुआ जिसे तारा कहा गया, यही तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरुष की शक्ति है, ब्रहमांड में जितने धधकते पिंड हैं सभी की स्वामिनी उत्तपत्तिकर्त्री तारा ही हैं, जो सूर्य में प्रखर प्रकाश है उसे नीलग्रीव कहा जाता है, यही नील ग्रीवा माँ तारा हैं, सृष्टि उत्तपत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई, दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है, देवी के तीन प्रमुख रूप हैं १)उग्रतारा २)एकाजटा और ३)नील सरस्वती..........देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं १)परा २)परात्परा ३)अतीता ४)चित्परा ५)तत्परा ६)तदतीता ७)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है, देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये है देवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवान सृष्टि की उतपाती एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है स्तुति प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा, खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं, देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता देवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है महाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है- श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे 1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है 2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है 3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है। 4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है। देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्र महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"1" विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम: १)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट २)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट ३)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें यन्त्र के पूजन की रीति है- पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए- तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी, तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा, तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी, उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा, देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र 1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र ॐ त्रीम ह्रीं हुं नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 2) शत्रु नाशक मंत्र ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें गुड से हवन करें रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 3) जादू टोना नाशक मंत्र ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं कपूर से देवी की आरती करें रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें 4) लम्बी आयु का मंत्र ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट रोज सुबह पौधों को पानी दें रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 5) सुरक्षा कवच का मंत्र ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध- बिना "अक्षोभ ऋषि" की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारें देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें विशेष गुरु दीक्षा- तारा महाविद्या की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं महातारा दीक्षा नीलतारा दीक्षा उग्र तारा दीक्षा एकजटा दीक्षा ब्रह्माण्ड दीक्षा सिद्धाश्रम प्राप्ति दीक्षा हिमालय गमन दीक्षा महानीला दीक्षा कोष दीक्षा अपरा दीक्षा.................आदि में से कोई एक
महावीर मंत्र ध्यान रामेष्टमित्रं जगदेकवीरं प्लवंगराजेन्द्रकृत प्रणामम् । सुमेरु श्टंगागमचिन्तयामाद्यं हृदि स्मेरहं हनुमंतमीड्यम् ।। हनुमान जी का उक्त ध्यान करके निम्न मंत्र का २२ हजार जप करके केले और आम के फलों से हवन करें । हवन करके २२ ब्रह्मचारियों को भोजन करा दें । इससे भगवान् महावीर प्रसन्नता-पूर्वक सिद्धि देते हैं । ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” हनुमन्मन्त्र (उदररोग नाशक मंत्र) “ॐ यो यो हनुमंत फलफलित धग्धगित आयुराषः परुडाह ।” उक्त मन्त्र को प्रतिदिन ११ बार पढ़ने से सब तरह के पेट के रोग शांत हो जाते हैं । हनुमान्माला मन्त्र श्री हनुमान जी के सम्मुख इस मंत्र के ५१ पाठ करें और भोजपत्र पर इस मंत्र को लिखकर पास में रखलें तो सर्व कार्यों में सिद्धि मिलती है । “ॐ वज्र-काय वज्र-तुण्ड कपिल-पिंगल ऊर्ध्व-केश महावीर सु-रक्त-मुख तडिज्जिह्व महा-रौद्र दंष्ट्रोत्कट कह-कह करालिने महा-दृढ़-प्रहारिन लंकेश्वर-वधाय महा-सेतु-बंध-महा-शैल-प्रवाह-गगने-चर एह्येहिं भगवन्महा-बल-पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घ-पुच्छेन वेष्टय वैरिणं भंजय भंजय हुँ फट् ।।” (१२५ अक्षर)
हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र १- “ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि सर्वभूतानां डाकिनी शाकिनीनां सर्वविषयान आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय छेदय छेदय अपमृत्यु प्रभूतमृत्यु शोषय शोषय ज्वल प्रज्वल भूतमंडलपिशाचमंडल निरसनाय भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर माहेशऽवरज्वर छिंधि छिंधि भिन्दि भिन्दि अक्षि शूल कक्षि शूल शिरोभ्यंतर शूल गुल्म शूल पित्त शूल ब्रह्मराक्षस शूल प्रबल नागकुलविषंनिर्विषं कुरु कुरु स्वाहा ।” २- ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।” इस मंत्र को २१ दिनों तक बारह हजार जप प्रतिदिन करें फिर दही, दूध और घी मिलाते हुए धान का दशांश आहुति दें । यह मंत्र सिद्ध होकर पूर्ण सफलता देता है । ३- “ॐ दक्षिणमुखाय पञ्चमुखहनुमते कराल वदनाय नरसिंहाय, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रै ह्रौं ह्रः सकल भूत-प्रेतदमनाय स्वाहा ।” (जप संख्या दस हजार, हवन अष्टगंध से) ४- “ॐ हरिमर्कट वामकरे परिमुञ्चति मुञ्चति श्रृंखलिकाम् ।” इस मन्त्र को दाँये हाथ पर बाँये हाथ से लिखकर मिटा दे और १०८ बार इसका जप करें प्रतिदिन २१ दिन तक । लाभ – बन्धन-मुक्ति । ५- “ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्धगिति आयुराष परुडाह ।” प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखकर इस मंत्र का २५ माला जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है । इस मंत्र के द्वारा पीलिया रोग को झाड़ा जा सकता है । ६- “ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ।” यह ११ अक्षरों वाला मंत्र अति फलदायी है, इसे ११ हजार की संख्या में प्रतिदिन जपना चाहिए ।
धन प्राप्ति का शाबर मंत्र नित्य प्रात: काल दन्त धावन करने के बाद इस मंत्र का 108 बार पाठ करने से व्यापार या किसी अनुकूल तरीके से धन प्राप्ति होती है। मंत्र- ओम ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मामगृहे धन पूरय चिन्ताम्तूरय स्वाहा। चिपकाने हेतु मंत्र नीचे प्रदर्शित चार यंत्रों में से किसी भी एक मंत्र को कागज अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध अथवा केसर के घोल से लिखकर प्राण-प्रतिष्ठा और पूजा करने के बाद रूपए-पैसे रखने की तिजोरी अथवा जेवरों के डिब्बे में रखें। लक्ष्मी की कृपा आप पर बनी रहेगी। व्यापारी और उद्योगपति दीवाली पूजन के बाद दुकान या कार्यालय की दीवार पर सिन्दूर से और बही खातों के प्रथम पृष्ठ पर स्याही से कोई भी एक यंत्र बनाएं और फिर देखें इसका प्रताप। धन सम्पत्तिवर्द्धक यंत्र रवि पुष्य अथवा गुरू पुष्य के दिन भोजपत्र पर केसर की स्याही और अनार की कलम से निम्नांकित यंत्र लिखकर स्वर्ण के तावीज में रखें और गंगाजल आदि से पवित्र करके दाहिनी बाजू पर बांध लें। इसके प्रभाव से शारीरिक तथा आर्थिक क्षीणता समाप्त होकर, धन और स्वास्थ्य दोनों की वृद्धि होती है। इस तावीज को गले में धारण किया जा सकता है। धन सम्पदा प्रदायक दूसरा तावीज इस तांत्रिक यंत्र को अनार की कलम द्वारा अष्टगंध स्याही से भोजपत्र पर लिखें और चंदन, पुष्प, धूप-दीप से इसकी पूजा करें। पूजनोपरांत एक हजार बार मंत्र का जप करें। हवन-सामग्री में घी, चीनी, शहद, खीर और बेलपत्र आवश्यक हैं। यह प्रक्रिया किसी शुभ मुहूत्तü की शुक्ल द्वितीय को की जानी चाहिए। हवन आदि करने से यंत्र की शक्ति बढती है। तत्पश्चात् यंत्र को स्वर्ण या चांदी के तावीज में भरकर, लाल या काले धागे की सहायता से दाहिने बाजू या गले में धारण करें। इस तावीज का प्रभाव अचूक और चिरस्थायी होता है। धन प्रदायक लक्ष्मी बीसा तावीज उपर्युक्त यंत्र तावीज को रवि पुष्य नक्षत्र में अनार की कलम के द्वारा भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखें। पीला वस्त्र, पीला आसान एवं पीली माला का प्रयोग करें। पूरब की ओर मुंह रखें। धूप, दीप, फल-फूल और नैवेद्य से यंत्र की नित्य पूजा करें और निम्न मंत्र की एक माला जप करें। ओम श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्मै नम:। यह क्रम सवा दो महीने तक चालू रखें। फिर तिरसठवें दिन चांदी के एक पत्र पर यंत्र को बनाकर, उन बासठ यंत्रों को चांदी के पत्र वाले यंत्र के नीचे रखकर पूजा करें। अब बासठ यंत्रों में से एक यंत्र अपने पास रखें बाकी यंत्रों को आटे की गोलियों में रखकर नदी में बहा दें। जिस यंत्र को पास में रखा था, उसे सोने या चांदी के तावीज में डालकर गले में डालें या फिर बाजू मे
प्रकोप करने का मंत्र काल आए कराल आए अगिया मसान आए । मेरी पुकार पर भूत प्रेत जिन्न बेताल आए । काल जाये कराल जाये अगिया मसान जाये । भूत जाये प्रेत जाये जिन्न रहे जाए । जिन्न तू जिन्नात तू । कर मेरा एक कम तू । जा के अमुक के पास दिखा अपनी शक्ति का कमाल तू । हर ले उसकी ताकत बुद्धि पहाड़ बिस्तर तलेईया ताल। तुझे तेरे मालिक की कसम जो तू एसा ना करे तो दोजक की आग मे जले । २१ दिन रात ११ बजे समसान मे २१ रूद्राझ की माला जपनी है. भोग मीठा या तामसीक केसा भी ले सकते है.........................
हनुमान चालीसा का चमत्कार... मेरे पास कई लोग आते हें और कहते हें की में दिन में ७ हनुमान चालीसा का पाठ करता हू, कई लोग कहते हें में हर शनिवार और मंगलवार को २७ या १०८ बार हनुमान चालीसा करता हू परन्तु उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता.? तो मेने उनसे पूछा की आप किस प्रकार हनुमान चालीसा करते हें.? तो उन्होंने बताया की बस हम सिर्फ हनुमानजी के आगे दिया और धुप जला कर बैठ जाते हें और ज्यादा से ज्यादा आक के फूलो की माला चढाते हें और बाद में निश्चित संख्या में हनुमान चालीसा करते हें... फिर मेने उन लोगो से कहा आपने शायद रामायण या सुन्दरकाण्ड में पढ़ा होगा की हनुमानजी बचपन में बहुत शरारत करते थे तो ऋषि मुनियो ने उन्हें श्राप दिया था की जब तक आपको आपकी शक्तिओ को कोई (जागृत ) याद नहीं करवाएगा तब तक आप अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाएंगे – यही वजह से जब समुद्र को लांग कर श्री राम जी की मुद्रिका ले कर माँ सीता के पास जाना था तब ... कोन जायेगा ये सवाल था! तब श्री जामवंत जी ( रींछ पति ) ने श्री हनुमानजी की स्तुति कर उन्हें अपनी शक्तिया राम काज के लिए याद करवाई थी – ठीक उसी प्रकार हमें हमारे काज के लिए श्री हनुमाजी को स्तुति कर प्रसन्न कर उनकी शक्तिया याद करवानी चाहिए.! तब जाके वो आपकी पूजा अवश्य स्वीकार करेंगे. तो आपको भी हनुमान चालीसा करने से या हनुमानजी का कोई भी पूजन करने से पहले निन्म मंत्र स्तुति में दे रहा हू वो आपको कम से कम २७ बार अवश्य करना हें – देखे फिर चमत्कारिक फल की प्राप्ति अवश्य होगी... ( ध्यान रहे गलत कर्मो के लिए हनुमानजी किसी को सहाय नहीं करते) हरी ओम तत्सत ... स्तुति मन्त्र : कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, काचुप साधी रहेहु बलवाना! पवन तनय बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिज्ञान निधाना!! कवन सो काज कठिन जग माहि, जो नहीं होय तात तुम पाहि! साझा करें...!
मारुतिस्तोत्रम् श्रीगणेशाय नम: ॥ ॐ नमो भगवते विचित्रवीरहनुमते प्रलयकालानलप्रभाप्रज्वलनाय । प्रतापवज्रदेहाय । अंजनीगर्भसंभूताय । प्रकटविक्रमवीरदैत्यदानवयक्षरक्षोगणग्रहबंधनाय । भूतग्रहबंधनाय । प्रेतग्रहबंधनाय । पिशाचग्रहबंधनाय । शाकिनीडाकिनीग्रहबंधनाय । काकिनीकामिनीग्रहबंधनाय । ब्रह्मग्रहबंधनाय । ब्रह्मराक्षसग्रहबंधनाय । चोरग्रहबंधनाय । मारीग्रहबंधनाय । एहि एहि । आगच्छ आगच्छ । आवेशय आवेशय । मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय । स्फुर स्फुर । प्रस्फुर प्रस्फुर । सत्यं कथय । व्याघ्रमुखबंधन सर्पमुखबंधन राजमुखबंधन नारीमुखबंधन सभामुखबंधन शत्रुमुखबंधन सर्वमुखबंधन लंकाप्रासादभंजन । अमुकं मे वशमानय । क्लीं क्लीं क्लीं ह्रुीं श्रीं श्रीं राजानं वशमानय । श्रीं हृीं क्लीं स्त्रिय आकर्षय आकर्षय शत्रुन्मर्दय मर्दय मारय मारय चूर्णय चूर्णय खे खे श्रीरामचंद्राज्ञया मम कार्यसिद्धिं कुरु कुरु ॐ हृां हृीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् स्वाहा विचित्रवीर हनुमत् मम सर्वशत्रून् भस्मीकुरु कुरु । हन हन हुं फट् स्वाहा ॥ एकादशशतवारं जपित्वा सर्वशत्रून् वशमानयति नान्यथा इति ॥ इति श्रीमारुतिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
हिडिम्बा साधना तंत्र बाधा निवारण के लिए.... १.यह साधना होली की रात्रि को सम्पन्न करें यह एक दिवसीय प्रयोग है २.साधक रात्रि मे स्नान करके शुद्ध लील रंग के वस्त्र धारण करें और लाल रंग के आसन पर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बाठ जाये .. ३,अब अपने सामने बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछायें..उस पर गुरू चित्र को स्थापित करें और साथ में घी की एक दीपक को भी स्थापित करें.. ४.अब गुरू और गणेश जी का पूजन करें ..फिर दीपक को मॉं का स्वरूप मानकर दीपक का पूजन करें..धुप, पुष्प, अक्षत कुंकुम व नैवेद्य आदि से करें. ५.अब गुरू मंत्र की एक माला जप करें..फ्र निम्न मंत्र की "काली हकीक माला" से ११ माला जप करें... मंत्र ॐ श्रीं ह्लीं क्रीं तंत्र निवारण हिडिम्बयै नमः जप समाप्ति के बाद माला को जलती हुई होली में विसर्जित कर दें.. साधना के बाद साधक प्रतिदिन ५ मिनट तक मंत्र का जप कुछ दिनों तक करें....इस तरह से यह साधना पूर्ण होती है... और साधक पर किया हुआ तंत्र प्रयोग दूर हो जाता है.. और भविष्य में भी तंत्र बाधा से रक्षा होती है.. यह शीघ्र फल दाई साधना है अच्छी साधना है अगर आप करना चाहें तो अपने गुरु जी के मार्गदर्शन करें
शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र “शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है. _____________________________ प्रज्ञानं कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य- 1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म 2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं। (1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है) इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। (2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है। (3) ॐ तत्त्वमसि इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है। (4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है। अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।
श्री लिंग पुराण के अनुसार प्रथम सृष्टि का वर्णन सूतजी ने कहा – अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है. इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है. इसलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है. प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं. वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है परंतु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं. उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द आदि लक्षण हैं. जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है. यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से (10 इंद्रियां, एक मन) उत्पन्न होता है. यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं. सर्व प्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं. उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं. अत: उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिए. यथार्थ में कहा जाए तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं. क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं. किंतु शिवजी ही इसके असली बीज हैं. बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं. स्वभाव से ही परमात्मा हैं, वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है. पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है. शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है. वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है. वह पहले से तो अव्यक्त है. अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है. विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है. उसी माया को अजा कहते हैं. उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमश: रज, सत्, तथा तमोगुण की बहुत सी रचनाएं हैं. संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं. यह अजा (माया) शिव के आधीन है. सर्ग (सर्जन) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत् तत्व की सृष्टि होती है. उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है. अहंकार से तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) उत्पन्न हुई. इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा तथा स्पर्श से वात्य, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज (अग्नि), अग्नि से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है. पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात् जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है. तन्मात्रा से ही पंचभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिए. सात्विक अहंकार से पांच ज्ञानेंद्री, पांच कर्मेंद्री तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई. महत् से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया. उसमें जल के बबूले के समान पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई. वह भी भगवान रुद्र हैं तथा रुद्र ही भगवान विष्णु हैं. उसे अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है. यह अण्ड दशगुने जल से घिरा हुआ है, जल दशगुने वायु से, वायु दशगुने आकाश से घिरा हुआ है. आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है. आकाश महत् तत्व से तथा महत् तत्व प्रधान से व्याप्त है. अण्ड के सात आवरण बताए गए हैं. इसकी आत्मा कमलासन ब्रह्मा है. कोटि कोटि संख्या से युक्त कोटि कोटि ब्रह्मांड और उसमें चतुर्मुख ब्रह्मा, हरि तथा रुद्र अलग-अलग बताए गए हैं. प्रधान तत्व माया से रचे गए हैं. यह सभी शिव की सन्निधि में प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें आदि और अंत वाला कहा गया है. रचना, पालन और नाश के कर्ता महेश्वर शिवजी ही हैं. सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं. अत: क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं. वे ही प्रथम प्राणियों के कर्ता हैं, फिर पालन करने वाले भी वही हैं और पुन: संहार करने वाले भी वही हैं इसलिए महेश्वर देव ही ब्रह्मा के भी स्वामी हैं. वही शिव विष्णु रूप हैं, वही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा के बनाए इस ब्रह्मांड में जितने लोक हैं, ये सब परम पुरुष से अधिष्ठित हैं तथा ये सभी प्रकृति (माया) से रचे गए हैं. अत: यह प्रथम कही गई रचना परमात्मा शिव की अबुद्धि पूर्वक रचना शुभ है.
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