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Tuesday 16 April 2019
हिडिम्बा साधना तंत्र बाधा निवारण के लिए.... १.यह साधना होली की रात्रि को सम्पन्न करें यह एक दिवसीय प्रयोग है २.साधक रात्रि मे स्नान करके शुद्ध लील रंग के वस्त्र धारण करें और लाल रंग के आसन पर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बाठ जाये .. ३,अब अपने सामने बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछायें..उस पर गुरू चित्र को स्थापित करें और साथ में घी की एक दीपक को भी स्थापित करें.. ४.अब गुरू और गणेश जी का पूजन करें ..फिर दीपक को मॉं का स्वरूप मानकर दीपक का पूजन करें..धुप, पुष्प, अक्षत कुंकुम व नैवेद्य आदि से करें. ५.अब गुरू मंत्र की एक माला जप करें..फ्र निम्न मंत्र की "काली हकीक माला" से ११ माला जप करें... मंत्र ॐ श्रीं ह्लीं क्रीं तंत्र निवारण हिडिम्बयै नमः जप समाप्ति के बाद माला को जलती हुई होली में विसर्जित कर दें.. साधना के बाद साधक प्रतिदिन ५ मिनट तक मंत्र का जप कुछ दिनों तक करें....इस तरह से यह साधना पूर्ण होती है... और साधक पर किया हुआ तंत्र प्रयोग दूर हो जाता है.. और भविष्य में भी तंत्र बाधा से रक्षा होती है.. यह शीघ्र फल दाई साधना है अच्छी साधना है अगर आप करना चाहें तो अपने गुरु जी के मार्गदर्शन करें
शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र “शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है. _____________________________ प्रज्ञानं कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य- 1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म 2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं। (1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है) इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। (2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है। (3) ॐ तत्त्वमसि इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है। (4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है। अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।
श्री लिंग पुराण के अनुसार प्रथम सृष्टि का वर्णन सूतजी ने कहा – अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है. इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है. इसलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है. प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं. वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है परंतु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं. उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द आदि लक्षण हैं. जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है. यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से (10 इंद्रियां, एक मन) उत्पन्न होता है. यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं. सर्व प्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं. उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं. अत: उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिए. यथार्थ में कहा जाए तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं. क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं. किंतु शिवजी ही इसके असली बीज हैं. बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं. स्वभाव से ही परमात्मा हैं, वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है. पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है. शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है. वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है. वह पहले से तो अव्यक्त है. अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है. विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है. उसी माया को अजा कहते हैं. उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमश: रज, सत्, तथा तमोगुण की बहुत सी रचनाएं हैं. संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं. यह अजा (माया) शिव के आधीन है. सर्ग (सर्जन) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत् तत्व की सृष्टि होती है. उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है. अहंकार से तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) उत्पन्न हुई. इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा तथा स्पर्श से वात्य, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज (अग्नि), अग्नि से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है. पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात् जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है. तन्मात्रा से ही पंचभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिए. सात्विक अहंकार से पांच ज्ञानेंद्री, पांच कर्मेंद्री तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई. महत् से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया. उसमें जल के बबूले के समान पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई. वह भी भगवान रुद्र हैं तथा रुद्र ही भगवान विष्णु हैं. उसे अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है. यह अण्ड दशगुने जल से घिरा हुआ है, जल दशगुने वायु से, वायु दशगुने आकाश से घिरा हुआ है. आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है. आकाश महत् तत्व से तथा महत् तत्व प्रधान से व्याप्त है. अण्ड के सात आवरण बताए गए हैं. इसकी आत्मा कमलासन ब्रह्मा है. कोटि कोटि संख्या से युक्त कोटि कोटि ब्रह्मांड और उसमें चतुर्मुख ब्रह्मा, हरि तथा रुद्र अलग-अलग बताए गए हैं. प्रधान तत्व माया से रचे गए हैं. यह सभी शिव की सन्निधि में प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें आदि और अंत वाला कहा गया है. रचना, पालन और नाश के कर्ता महेश्वर शिवजी ही हैं. सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं. अत: क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं. वे ही प्रथम प्राणियों के कर्ता हैं, फिर पालन करने वाले भी वही हैं और पुन: संहार करने वाले भी वही हैं इसलिए महेश्वर देव ही ब्रह्मा के भी स्वामी हैं. वही शिव विष्णु रूप हैं, वही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा के बनाए इस ब्रह्मांड में जितने लोक हैं, ये सब परम पुरुष से अधिष्ठित हैं तथा ये सभी प्रकृति (माया) से रचे गए हैं. अत: यह प्रथम कही गई रचना परमात्मा शिव की अबुद्धि पूर्वक रचना शुभ है.
कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से कामना पूरी करें,रुद्राक्ष की माला से….. देवाधिदेव भगवान भोलेनाथ की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है…रुद्राक्ष शब्द की विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है- रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:… शिव महापुराण की विद्येश्वरसंहिता तथा श्रीमद्देवीभागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं… उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे…और उनके उन्हीं अश्रुबिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए… रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है… रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं… चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं…ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए… भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहनना चाहिए… विशेषकर शैव मताबलाम्बियो के लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है…. जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टों का नाश करने में समर्थ होता है… जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है… गुंजाफल के समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है… रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है… विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं… सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं… जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा- फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है… जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है… जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है… रुद्राक्ष, तुलसी आदि दिव्य औषधियों की माला धारण करने के पीछे वैज्ञानिक मान्यता यह है कि होंठ व जीभ का प्रयोग कर उपांशु जप करने से साधक की कंठ-धमनियों को सामान्य से अधिक कार्य करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप कंठमाला, गलगंड आदि रोगों के होने की आशंका होती है। उसके बचाव के लिए गले में उपरोक्त माला पहनी जाती है। रुद्राक्ष अपने विभिन्न गुणों के कारण व्यक्ति को दिया गया ‘प्रकृति का अमूल्य उपहार है’ मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से निकले जलबिंदुओं से हुई है. अनेक धर्म ग्रंथों में रुद्राक्ष के महत्व को प्रकट किया गया है जिसके फलस्वरूप रुद्राक्ष का महत्व जग प्रकाशित है. रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसे धारण करके की गई पूजा हरिद्वार, काशी, गंगा जैसे तीर्थस्थलों के समान फल प्रदान करती है. रुद्राक्ष की माला द्वारा मंत्र उच्चारण करने से फल प्राप्ति की संभावना कई गुना बढ़ जाती है.इसे धारण करने से व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है. रुद्राक्ष की माला अष्टोत्तर शत अर्थात 108 रुद्राक्षों की या 52 रुद्राक्षों की होनी चाहिए अथवा सत्ताईस दाने की तो अवश्य हो इस संख्या में इन रुद्राक्ष मनकों को पहना विशेष फलदायी माना गया है. शिव भगवान का पूजन एवं मंत्र जाप रुद्राक्ष की माला से करना बहुत प्रभावी माना गया है तथा साथ ही साथ अलग-अलग रुद्राक्ष के दानों की माला से जाप या पूजन करने से विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति होती है.धारक को शिवलोक की प्राप्ति होती है, पुण्य मिलता है, ऐसी पद्मपुराण, शिव महापुराण आदि शास्त्रों में मान्यता है। शिवपुराण में कहा गया है : यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:। न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है। श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है : रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते। अर्थात विश्व में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ कोई दूसरी वस्तु नहीं है। रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष… रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष धारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्… रुद्राक्ष-धारण करने से पहले उसके असली होने की जांच अवद्गय करवा लें। असली रुद्राक्ष ही धारण करें। खंडित, कांटों से रहित या कीड़े लगे हुए रुद्राक्ष धारण नहीं करें। जपादि कार्यों में छोटे और धारण करने में बड़े रुद्राक्षों का ही उपयोग करें। —————————————— कितनी हो माला में रुद्राक्ष की संख्या माला में रुद्राक्ष के मनकों की संख्या उसके महत्व का परिचय देती है. भिन्न-भिन्न संख्या मे पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने में सहायक होती है जो इस प्रकार है —–रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. ——रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है. इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है ——रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है. —— रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आय में वृद्धि होती है. —— रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए —– रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है. —– रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है. —– रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए. —— रुद्राक्ष के बारह दानों को मणिबंध में धारण करना शुभदायक होता है. —— रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. ——————————————————————- किस कार्य हेतु केसी माला धारण करें..??? तनाव से मुक्ति हेतु 100 दानों की, अच्छी सेहत एवं आरोग्य के लिए 140 दानों की, अर्थ प्राप्ति के लिए 62 दानों की तथा सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु 108 दानों की माला धारण करें। जप आदि कार्यों में 108 दानों की माला ही उपयोगी मानी गई है। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए 50 दानों की माला धारण करें। 26 दानों की माला मस्तक पर, 50 दानों की माला हृदय पर, 16 दानों की माला भुजा पर तथा 12 दानों की माला मणिबंध पर धारण करनी चाहिए। —————————————————- क्या महत्त्व हें रुद्राक्ष की माला का. रुद्राक्ष की माला को धारण करने पर इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है कि कितने रुद्राक्ष की माला धारण कि जाए. क्योंकि रुद्राक्ष माला में रुद्राक्षों की संख्या उसके प्रभाव को परिलक्षित करती है. रुद्राक्ष धारण करने से पापों का शमन होता है. आंवले के सामान वाले रुद्राक्ष को उत्तम माना गया है. सफेद रंग का रुद्राक्ष ब्राह्मण को, रक्त के रंग का रुद्राक्ष क्षत्रिय को, पीत वर्ण का वैश्य को और कृष्ण रंग का रुद्राक्ष शुद्र को धारण करना चाहिए. क्या नियम पालन करें जब करें रुद्राक्ष माला धारण..??? क्या सावधानियां रखनी चाहिए रुद्राक्ष माला पहनते समय..??? जिस रुद्राक्ष माला से जप करते हों, उसे धारण नहीं करें। इसी प्रकार जो माला धारण करें, उससे जप न करें। दूसरों के द्वारा उपयोग में लाए गए रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला को प्रयोग में न लाएं। रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त में ही धारण करना चाहिए – ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि वा। दर्द्गोषु पूर्णमसे च पूर्णेषु दिवसेषु च। रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैर्विमुच्यते॥ ग्रहण में, विषुव संक्रांति (मेषार्क तथा तुलार्क) के दिनों, कर्क और मकर संक्रांतियों के दिन, अमावस्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। मद्यं मांस च लसुनं पलाण्डुं द्गिाग्रमेव च। श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥ (रुद्राक्षजाबाल-17) रुद्राक्ष धारण करने वाले को यथासंभव मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, निसोडा और विड्वराह (ग्राम्यशूकर) का परित्याग करना चाहिए। सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के मनुष्य वर्ण, भेदादि के अनुसार विभिन्न प्रकर के रुद्राक्ष धारण करें। रुद्राक्ष को द्गिावलिंग अथवा द्गिाव- मूर्ति के चरणों से स्पर्द्गा कराकर धारण करें। रुद्राक्ष हमेद्गाा नाभि के ऊपर शरीर के विभिन्न अंगों (यथा कंठ, गले, मस्तक, बांह, भुजा) में धारण करें, यद्यपि शास्त्रों में विशेष परिस्थिति में विद्गोष सिद्धि हेतु कमर में भी रुद्राक्ष धारण करने का विधान है। रुद्राक्ष अंगूठी में कदापि धारण नहीं करें, अन्यथा भोजन-द्गाचादि क्रिया में इसकी पवित्रता खंडित हो जाएगी। रुद्राक्ष पहन कर किसी अंत्येष्टि-कर्म में अथवा प्रसूति-गृह में न जाएं। स्त्रियां मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण न करें। रुद्राक्ष धारण कर रात्रि शयन न करें। रुद्राक्ष में अंतर्गर्भित विद्युत तरंगें होती हैं जो शरीर में विद्गोष सकारात्मक और प्राणवान ऊर्जा का संचार करने में सक्षम होती हैं। इसी कारण रुद्राक्ष को प्रकृति की दिव्य औषधि कहा गया है। अतः रुद्राक्ष का वांछित लाभ लेने हेतु समय-समय पर इसकी साफ-सफाई का विद्गोष खयाल रखें। शुष्क होने पर इसे तेल में कुछ समय तक डुबाकर रखें। रुद्राक्ष स्वर्ण या रजत धातु में धारण करें। इन धातुओं के अभाव में इसे ऊनी या रेशमी धागे में भी धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को लहसुन, प्याज तथा नशीले भोज्य पदार्थों तथा मांसाहार का त्याग करना चाहिए. सक्रांति, अमावस, पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन रुद्राक्ष धारण करना शुभ माना जाता है. सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष को पहन सकते हैं. रुद्राक्ष का उपयोग करने से व्यक्ति भगवान शिव के आशीर्वाद को पाता है. व्यक्ति को दिव्य-ज्ञान की अनुभूति होती है. व्यक्ति को अपने गले में बत्तीस रुद्राक्ष, मस्तक पर चालीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में 6,6 रुद्राक्ष, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान शिव को पाता है. किस तरह धारण करें रुद्राक्ष माला को..??? अधिकतर रुद्राक्ष यद्यपि लाल धागे में धारण किए जाते हैं, किंतु एक मुखी रुद्राक्ष सफेद धागे, सात मुखी काले धागे और ग्यारह, बारह, तेरह मुखी तथा गौरी- शंकर रुद्राक्ष पीले धागे में भी धारण करने का विधान है। विधान है। अतः यह विधान किसी योग्य पंडित से संपन्न कराकर रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। ऐसा संभव नहीं होने की स्थिति में नीचे प्रस्तुत संक्षिप्त विधि से भी रुद्राक्ष की प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने के लिए शुभ मुहूर्त या दिन का चयन कर लेना चाहिए। इस हेतु सोमवार उत्तम है। धारण के एक दिन पूर्व संबंधित रुद्राक्ष को किसी सुगंधित अथवा सरसों के तेल में डुबाकर रखें। धारण करने के दिन उसे कुछ समय के लिए गाय के कच्चे दूध में रख कर पवित्र कर लें। फिर प्रातः काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का मन ही मन जप करते हुए रुद्राक्ष को पूजास्थल पर सामने रखें। फिर उसे पंचामृत (गाय का दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर) अथवा पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर) से अभिषिक्त कर गंगाजल से पवित्र करके अष्टगंध एवं केसर मिश्रित चंदन का लेप लगाकर धूप, दीप और पुष्प अर्पित कर विभिन्न शिव मंत्रों का जप करते हुए उसका संस्कार करें। तत्पश्चात संबद्ध रुद्राक्ष के शिव पुराण अथवा पद्म पुराण वर्णित या शास्त्रोक्त बीज मंत्र का 21, 11, 5 अथवा कम से कम 1 माला जप करें। फिर शिव पंचाक्षरी मंत्र नमः शिवाय अथवा शिव गायत्री मंत्र क्क तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् का 1 माला जप करके रुद्राक्ष-धारण करें। अंत में क्षमा प्रार्थना करें। रुद्राक्ष धारण के दिन उपवास करें अथवा सात्विक अल्पाहार लें। विद्गोष : उक्त क्रिया संभव नहीं हो, तो शुभ मुहूर्त या दिन में (विशेषकर सोमवार को) संबंधित रुद्राक्ष को कच्चे दूध, पंचगव्य, पंचामृत अथवा गंगाजल से पवित्र करके, अष्टगंध, केसर, चंदन, धूप, दीप, पुष्प आदि से उसकी पूजा कर शिव पंचाक्षरी अथवा शिव गायत्री मंत्र का जप करके पूर्ण श्रद्धा भाव से धारण करें। एक से चौदहमुखी रुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं- 1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:। निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है… रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए… इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है… रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्र का अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है… इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है.. रुद्राक्ष की माला श्रद्धापूर्वक विधि- विधानानुसार धारण करने से व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है। सांसारिक बाधाओं और दुखों से छुटकारा होता है। मस्तिष्क और हृदय को बल मिलता है। रक्तचाप संतुलित होता है। भूत-प्रेत की बाधा दूर होती है। मानसिक शांति मिलती है। शीत-पित्त रोग का शमन होता है। इसीलिए इतनी लाभकारी, पवित्र रुद्राक्ष की माला में भारतीय जन मानस की अनन्य श्रद्धा है। जो मनुष्य रुद्राक्ष की माला से मंत्रजाप करता है उसे दस गुणा फल प्राप्त होता है। अकाल मृत्यु का भय भी नहीं रहता है —————————————– शास्त्रों में एक से चौदह मुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है… इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है… एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है… इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है… एकदम गोल एकमुखीरुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है… एकमुखीरुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महा पाप तक भी नष्ट हो जाते हैं… समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है… भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है… दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें… इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथके साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है… इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है… दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है… तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है… इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है… विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है… चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है… नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योग का शमन होगा… कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं… पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है… कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं… सामान्यत:पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है… संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं…इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है… छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशक सिद्ध हुआ है…इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है… जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी… सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धक है… इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है… कुछ विद्वान सप्तमातृकाओं की सातमुखी रुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं… इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है… आठमुखी रुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूप होने से जीवन का रक्षक माना गया है… इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू- टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है… धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है… नौमुखी रुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है… इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है… शाक्तों (देवी के आराधकों) के लिये नौमुखी रुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है… इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है… दसमुखी रुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरि का स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है… इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है… ग्यारहमुखी रुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है… इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है… बारहमुखी रुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है… इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है… तेरहमुखी रुद्राक्ष विश्वेदेवों का स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है… कुछ साधक तेरहमुखी रुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं… चौदहमुखी रुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारक सिद्ध हुआ है… इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है… जन्म- जन्मान्तर के पापों का शमन होता है…
देवी धूमावती दस महाविद्याओं में सातवें स्थान में अवस्थित, भगवान शिव के विधवा स्वरूप में, कुरूप तथा अपवित्र देवी धूमावती। देवी धूमावती अकेली तथा स्व: नियंत्रक हें, देवी के स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हें तथा देवी विधवा हैं। दस महाविद्याओं में सातवे स्थान पर देवी अवस्थित है तथा उग्र स्वाभाव वाली अन्य देविओ के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात् उस स्थिति से हैं, जहा वो अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। देवी दरिद्रो, गरीबो के घरों में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से जानी जाती हैं। अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी कि ही बहन है, परन्तु इन के गुण तथा स्वाभाव पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त के प्रदोष काल से रात्रि में रहती है तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं या निवास करती हैं, अंधरे स्थानों में निवास करती हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वो शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामो में निऋति भी है, जिन का सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सडन, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से है जो जीवन में नकारात्मक भावनाओ को जन्म देता हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओ, सुख तथा समृद्धि का नाश कर देती है। देवी धूमावती धुऐ के स्वरूप में विद्यमान है तथा सती के भयंकर तथा उग्र स्वाभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी देवी का कोई संगी नहीं हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार, देवी आदि शक्ति ने एक बार प्रण किया, कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा वही मेरा पति होगा, मैं उसी से विवाह करुँगी। परन्तु ऐसा आज तक नहीं हो पाया, उन्हें युद्ध में कोई परास्त नहीं कर पाया, परिणामस्वरूप देवी अकेली हैं इन का कोई पति या स्वामी नहीं हैं। नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका तथा उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देविओ को अपने शरीर से प्रकट किया या उग्रता तथा भयंकरता देवी धूमावती ने ही प्रदान की। देवी की ध्वनि, हजारो गीदड़ो के एक साथ चिल्लाने जैसे हैं, जो महान भय दायक हैं। देवी ने स्वयं भगवान शिव को खा लिया था, देवी का सम्बन्ध भूख से भी हैं, देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी है परिणामस्वरूप देवी दुष्ट दैत्यों के मांस का भक्षण तक करती हैं, परन्तु सर्वदा भूखी या श्रुधा-ग्रस्त ही रहती हैं। देवी धूमावती, भगवान शिव के विधवा के रूप में विद्यमान हैं, अपने पति शिव को निगल जाने के कारन देवी विधवा हैं। देवी का भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करती हैं। इन्हें लक्ष्मी जी की ज्येष्ठ, ज्येष्ठा नाम से भी जाना जाता हैं जो स्वयं कई समस्याओं को उत्पन्न करती हैं। देवी धूमावती का भौतिक स्वरुप। देवी धूमावती का वास्तविक रूप धुऐ जैसा हैं तथा इसी स्वरूप में देवी विद्यमान हैं। शारीरिक स्वरूप से देवी; कुरूप, उबार खाबर या बेढ़ंग शरीर वाली, विचलित स्वाभाव वाली, लंबे कद वाली, तीन नेत्रों से युक्त तथा मैले वस्त्र धारण करने वाली हैं। देवी के दांत तथा नाक लम्बी कुरूप हैं, कान डरावने, लड़खड़ाते हुए हाथ-पैर, स्तन झूलते हुए प्रतीत होती हैं। देवी खुले बालो से युक्त, एक वृद्ध विधवा का रूप धारण की हुई हैं। अपने बायें हाथ में देवी ने सूप तथा दायें हाथ में मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण कर रखा हैं कही कही वो आशीर्वाद भी दे रही हैं। देवी का स्वाभाव अत्यंत अशिष्ट हैं तथा देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी-प्यासी हैं। देवी काले वर्ण की है तथा इन्होंने सर्पो, रुद्राक्षों को अपने आभूषण स्वरूप धारण कर रखा हैं। देवी श्मशान घाटो में मृत शरीर से निकले हुए स्वेत वस्त्रो को धारण करती हैं तथा श्मशान भूमि में ही निवास करती हैं, समाज से बहिष्कृत हैं। देवी कौवो द्वारा खीचते हुए रथ पर आरूढ़ हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः स्वेत वस्तुओं से ही हैं तथा लाल वर्ण से सम्बंधित वस्तुओं का पूर्णतः त्याग करती हैं। देवी धूमावती के उत्पत्ति से सम्बंधित कथा। देवी धूमावती के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो कथायें प्राप्त होती हैं। पहली प्रजापति दक्ष के यज्ञ से सम्बंधित हैं। भगवान शिव की पहली पत्नी सती के पिता, प्रजापति दक्ष ( जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे ), ने एक बृहस्पति श्रवा नाम के यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनो लोको से समस्त प्राणिओ को निमंत्रित किया। परन्तु दक्ष, भगवान शिव से घृणा करते थे तथा दक्ष ने भगवान शिव सहित उन से सम्बंधित किसी को भी, अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। देवी सती ने जब देखा की तीनो लोको से समस्त प्राणी उन के पिता जी के यज्ञ आयोजन में जा रहे है, उन्होंने अपने पति भगवान शिव ने अपने पिता के घर जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव दक्ष के व्यवहार से परिचित थे, उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की। परन्तु देवी सती नहीं मानी, अंततः भगवान शिव ने उन्हें अपने गणो के साथ जाने की अनुमति दे दी। सती अपने पिता दक्ष से उन के यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री सती को स्वामी सहित, खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी के अपमान से तिरस्कृत हो, सम्पूर्ण यजमानो के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुण्ड में दे दी तथा देवी की मृत्यु हो गई, तदनंतर यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया, सभी अत्यंत भयभीत हो गए। तब देवी सती, धुऐ के स्वरूप में यज्ञ कुण्ड से बहार निकली। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, अपने निवास स्थान कैलाश में बैठी हुई थी। देवी, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त थी (भूखी थी) तथा उन्होंने शिव जी से अपनी क्षुधा निवारण हेतु कुछ देने का निवेदन किया। भगवान शिव ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिया कहा, कुछ समय पश्चात् उन्होंने पुनः निवेदन किया। परन्तु शिव जी ने उन्हें कुछ प्रतीक्षा करने का पुनः आस्वासन दिया। बार बार भगवान शिव के इस तरह आस्वासन देने पर, देवी धैर्य खो क्रोधित हो गई तथा शिव जी को ही उठाकर निगल लिया। तदनंतर देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली तथा उन्हें धुऐ ने ढक लिया। भगवान शिव, देवी के शरीर से बहार आये तथा कहा, आपकी ये सुन्दर आकृति धुऐ से ढक जाने के कारन धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी। अपने पति भगवान शिव को खा लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हुई, देवी स्वामी हिना हैं। देवी धूमावती से सम्बंधित अन्य तथ्य। चुकी देवी ने क्रोध वश अपने ही पति को खा लिया, देवी का सम्बन्ध दुर्भाग्य, अपवित्र, बेडौल, कुरूप जैसे नकारात्मक तथ्यों से हैं। देवी श्मशान तथा अंधेरे स्थानों में निवास करने वाली है, समाज से बहिष्कृत है, (देवी से सम्बंधित चित्र घर में नहीं रखना चाहिए) अपवित्र स्थानों पर रहने वाली हैं। भगवान शिव ही धुऐ के रूप में देवी धूमावती में विद्यमान है तथा भगवान शिव से कलह करने के कारण देवी कलह प्रिया भी हैं। प्रत्येक कलहो में देवी के शक्ति ही उत्पात मचाती हैं। देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतिक स्वरूप है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी के आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं। देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध विजय, मारण, उच्चाटन इत्यादि कर्मों में की जाती हैं। देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा होते है। देवी प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग कर रहे कामनाओ का नाश कर देती हैं। आगम ग्रंथो के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं। संक्षेप में देवी धूमावती से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : धूमावती। अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया। भैरव : विधवा, कोई भैरव नहीं। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान मत्स्य अवतार। कुल : श्री कुल। दिशा : दक्षिण। स्वभाव : तामसी गुण सम्पन्न। कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुओ का विनाश करने वाली। शारीरिक वर्ण : काला।
ओम श्री कालभैरव तंत्र - सिध्दी कालभैरवाष्टकम् :---- देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥ फल श्रुति॥ कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ ॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् !!!!!!!!!!!!
मन्त्र : अफल अफल अफल दुश्मन के मुंह पर कुलफ मेरे हाँथ कुंजी रुपया तोर कर दुश्मन को जर कर और जब भी कभी अपने मुक़दमे के कारण आपको अदालत जाना हो .. आप विरोधी पक्ष की तरफ इस मन्त्र को 108 बार पढ़ कर फुक मार दे और .... उस दिन निश्चय ही आपका विरोधी पक्ष आपके विरोध में कुछ भी नहीं कर पायेगा. या कह पायेगा और यदि अपने केस से संबंधमे आपको कोई ने प्रार्थना पत्र लिख कर देना हो तो उस प्रार्थना .पत्र पर भी आप 108 बार इस मंत्र को पढ़ कर फूंक मार दे और आप पाएंगे की आप इन मुकदमो से जो आप पे केबल आपको परेशां करने केलिए आप पर लगाये गए हैं जल्द ही छुटकारा पा सकेंगे
निम्न मंत्र की २१ माला जाप करे. ॐ कालभैरव अमुक साधकानां रक्षय रक्षय भविष्यं दर्शय दर्शय हूं इसमें अमुक साधकानां की जगह स्वयं के नाम का उच्चारण करना चाहिए. भविष्य मे जब भी कोई समस्या या दुर्घटना होने वाली हो तो किसी न किसी रूप मे भगवान काल भैरव साधक को सूचना दे देते है. साधक अपने कार्यों को उस प्रकार से परावर्तित कर सकता है. यु तो भगवान भैरव साधक की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप मे मदद करते ही रहते है...
भगवान् आंजनेय से सम्बंधित या प्रयोग इन समस्त विपदा से आपकी रक्षा करता हैं ही मंत्र : हनुमान पहलवान , बारह वरस का जवान |मुख में वीरा हाँथ में कमान | लोहे की लाठ वज्र का कीला|जहँ बैठे हनुमान हठीला |बाल रे बाल राखो|सीस रे सीस रखो| आगे जोगिनी राखो| पाछे नरसिंह राखो | इनके पाछे मुह्मुदा वीर छल करे , कपट करे ,तिनकी कलक ,बहन बेटी पर परे | दोहाई महावीर स्वामी की | सामान्य नियम : • वस्त्र आसन दिशा का कोई प्रतिबंध तो नहीं हैं पर आप चाहे तो लाल रंग के उपयोग कर सकते हैं . • इस मंत्र से जप आप सुबह करे तो अच्छा हैं , • रुद्राक्ष माला का उपयोग आप जप कार्य के लिए कर सकते हैं . • जप संख्या केबल १०८ बार हैं ही , और इसके बाद आप जितनी आहुति हो इस मंत्र से हो सके करे .यदि गुगुल का प्रयोग करे तो उत्तम होगा . • भगवान् आंजनेय कृपा से आपके उपर से विपत्ति या दूर हो
ललाट पर तिलक का क्या महत्व है ? अक्सर मन में प्रश्न उठता है कि पूजा करते समय,या कोई धार्मिक कार्य करते समय तिलक क्यों लगाते है.कब,कैसे और किस प्रकार का चन्दन लगाना चाहिये. पूजा के समय तिलक लगाने का विशेष महत्व है और भगवान को स्नान करवाने के बाद उन्हें चन्दन का तिलक किया जाता है।पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है। भगवान को चंदन अर्पण भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता। मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्द्ेश्य से भी लगाया जाता है । चन्दन लगाने के प्रकार स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, शैव त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है, जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है। नारद पुराण में उल्लेख आया है- १.ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र, २. क्षत्रिय को त्रिपुण्ड, ३. वैश्य को अर्धचन्द्र, ४. शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये। योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है। १.ऊर्ध्वपुण्ड्र चन्दन - वैष्णव सम्प्रदायों का कलात्मक भाल तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र कहलाता है। चन्दन, गोपीचन्दन, हरिचन्दन या रोली से भृकुटि के मध्य में नासाग्र या नासामूल से ललाट पर केश पर्यन्त अंकित खड़ी दो रेखाएं ऊर्ध्वपुण्ड्र कही जाती हैं। | श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में - ऊर्ध्वपुण्ड्र राधिकाचरण चिन्ह् के रूप में धारण किया जाता है। इस सम्प्रदाय में गोस्वामी गण बिन्दु परम्परा तथा सेवक या विरक्तगण बाद परम्परा वाले माने जाते हैं। बिन्दु परम्परा वाले गोस्वामीगण लाल रोली के ऊर्ध्वपुण्ड्र के बीच में श्याम बिन्दु तथा सेवक या विरक्त त्यागी पीत या श्वेत बिन्दु धारण करते हैं। वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र के विषय में पुराणों में दो प्रकार की मान्यताएं मिलती हैं। नारद पुराण में - इसे विष्णु की गदा का द्योतक माना गया है. ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषद में - ऊर्ध्वपुण्ड्र को विष्णु के चरण पाद का प्रतीक बताकर विस्तार से इसकी व्याख्या की है। | वैष्णव साहित्य में- राम और कृष्ण को विष्णु का ही अवतार माना है। इसलिये विष्णु के चरणपादों को मध्ययुगीन वैष्णव मतावलम्बियों ने राम और कृष्ण के चरण पाद के रूप में ही ग्रहण किया है इस युग के भक्ति साहित्य के व्याख्याकार नाभादास भी इसी बात को स्वीकार करते हैं। अतः सम्पूर्ण वैष्णव भक्ति वाङ्गमय के इस सत्य को वैष्णव समाज विष्णु के युगल चरण तल की विभूति को ललाट पर धारण कर उसके करूणामय सौन्दर्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र के कलात्मक अंकन द्वारा मन, वचन तथा कर्म में उतारता है। पुराणों में - ऊर्ध्वपुण्ड्र की दक्षिण रेखा को विष्णु अवतार राम या कृष्ण के "दक्षिण चरण तल" का प्रतिबिम्ब माना गया है, जिसमें वज्र, अंकुश, अंबर, कमल, यव, अष्टकोण, ध्वजा, चक्र, स्वास्तिक तथा ऊर्ध्वरेख है. तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र की बायीं केश पर्यन्त रेखा विष्णु का "बायाँ चरण तल" है जो गोपद, शंख, जम्बूफल, कलश, सुधाकुण्ड, अर्धचन्द्र, षटकोण, मीन, बिन्दु, त्रिकोण तथा इन्द्रधनुष के मंगलकारी चिन्हों से युक्त है। इन मंगलकारी चिन्हों के धारण करने से वज्र से - बल तथा पाप संहार, अंकुश से - मनानिग्रह, अम्बर से - भय विनाश, कमल से - भक्ति, अष्टकोण से - अष्टसिद्धि, ध्वजा से - ऊर्ध्व गति, चक्र से - शत्रुदमन, स्वास्तिक से- कल्याण, ऊर्ध्वरेखा से - भवसागर तरण, पुरूष से - शक्ति और सात्त्विक गुणों की प्राप्ति, गोपद से - भक्ति, शंख से - विजय और बुद्धि से - पुरूषार्थ, त्रिकोण से - योग्य, अर्धचन्द्र से - शक्ति, इन्द्रधनुष से - मृत्यु भय निवारण होता है। 2. त्रिपुण्ड चन्दन - विष्णु उपासक वैष्णवों के समान ही शिव उपासक ललाट पर भस्म या केसर युक्त चन्दन द्वारा भौहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ तक भौहों का अन्त है उतना बड़ा त्रिपुण्ड और ठीक नाक के ऊपर लाल रोली का बिन्दु या तिलक धारण करते हैं। मध्यमा, अनामिका और तर्जनी से तीन रेखाएँ तथा बीच में रोली का अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। शिवपुराण में त्रिपुण्ड को योग और मोक्ष दायक बताया गया है। शिव साहित्य में त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं के नौ-नौ के क्रम में सत्ताईस देवता बताए गये हैं। वैष्णव द्वादय तिलक के समान ही त्रिपुण्ड धारण करने के लिये बत्तीस या सोलह अथवा शरीर के आठ अंगों में लगाने का आदेश है तथा स्थानों एवं अवयवों के देवों का अलग-अलग विवेचन किया गया है। शैव ग्रन्थों में विधिवत त्रिपुण्ड धारण कर रूद्राक्ष से महामृत्युजंय का जप करने वाले साधक के दर्शन को साक्षात रूद्र के दर्शन का फल बताया गया है। अप्रकाशिता उपनिषद के बहिवत्रयं तच्च जगत् त्रय, तच्च शक्तित्रर्य स्यात् द्वारा तीन अग्नि, तीन जगत और तीन शक्ति ज्ञान इच्छा और क्रिया का द्योतक बताकर कहा है कि जिसने त्रिपुण्ड धारण कर रखा है, उसे देवात् कोई देख ले तो वह सभी बाधाओं से विमुक्त हो जाता है। त्रिपुण्ड के बीच लाल तिलक या बिन्दु कारण तत्त्व बिन्दु माना जाता है। गणेश भक्त गाणपत्य अपनी भुजाओं पर गणेश के एक दाँत की तप्त मुद्रा दागते हैं तथा गणपति मुख की छाप लगाकर मस्तक पर लाल रोली या सिन्दूर का तिलक धारण कर गजवदन की उपासना करते हैं। चन्दन के प्रकार १. हरि चन्दन - पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है। २. गोपीचन्दन- गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है, जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था, जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है। इसी पुराण के पाताल खण्ड में कहा गया है कि गोपीचन्दन का तिलक धारण करने मात्र से ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक पवित्र हो जाता है। जिसे वैष्णव सम्प्रदाय में गोपी चन्दन के समान पवित्र माना गया है. स्कन्दपुराण में गोमती, गोकुल और गोपीचन्दन को पवित्र और दुर्लभ बताया गया है तथा कहा गया है कि जिसके घर में गोपीचन्दन की मृत्तिका विराजमान हैं, वहाँ श्रीकृष्ण सहित द्वारिकापुरी स्थित है। सामान्य तिलक का आकार धार्मिक तिलक के समान ही हमारे पारिवारिक या सामाजिक चर्या में तिलक इतना समाया हुआ है कि इसके अभाव में हमारा कोई भी मंगलमय कार्य हो ही नहीं सकता। इसका रूप या आकार दीपक की ज्याति, बाँस की पत्ती, कमल, कली, मछली या शंख के समान होना चाहिए। धर्म शास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार इसका आकार दो से दस अंगुल तक हो सकता है। तिलक से पूर्व ‘श्री’ स्वरूपा बिन्दी लगानी चाहिये उसके पश्चात् अंगुठे से विलोम भाव से तिलक लगाने का विधान है। अंगुठा दो बार फेरा जाता है। किस उँगली से लगाना चाहिये ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तिलक में "अंगुठे के प्रयोग से - शक्ति, मध्यमा के प्रयोग से - दीर्घायु, अनामिका के प्रयोग से- समृद्धि तथा तर्जनी से लगाने पर - मुक्ति प्राप्त होती है" तिलक विज्ञान विषयक समस्त ग्रन्थ तिलक अंकन में नाखून स्पर्श तथा लगे तिलक को पौंछना अनिष्टकारी बतलाते हैं। देवताओं पर केवल अनामिका से तिलक बिन्दु लगाया जाता है। तिलक की विधि सांस्कृतिक सौन्दर्य सहित जीवन की मंगल दृष्टि को मनुष्य के सर्वाधिक मूल्यवान् तथा ज्ञान विज्ञान के प्रमुख केन्द्र मस्तक पर अंकित करती है। तिलक के मध्य में चावल तिलक के मध्य में चावल लगाये जाते हैं। तिलक के चावल शिव के परिचायक हैं। शिव कल्याण के देवता हैं जिनका वर्ण शुक्ल है। लाल तिलक पर सफेद चावल धारण कर हम जीवन में शिव व शक्ति के साम्य का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इच्छा और क्रिया के साथ ज्ञान का समावेश हो। सफेद गोपी चन्दन तथा लाल बिन्दु इसी सत्य के साम्य का सूचक है। शव के मस्तक पर रोली तिलक के मध्य चावल नहीं लगाते, क्योंकि शव में शिव तत्त्व तिरोहित है। वहाँ शिव शक्ति साम्य की मंगल कामना का कोई अर्थ ही नहीं है।
ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं। गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं। गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा। वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है। इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।
श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ “नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥ पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड) ‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति केसामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।
किस ग्रह के लिए कौन सा रत्न धारण करना चाहिए सूर्य का रत्न माणिक्य है जिसे अंग्रेजी में इसे रूबी कहते हैं। चंद्र का रत्न मोती अर्थात पर्ल, मंगल का मूंगा अर्थात कोरल, बुध का पन्ना अर्थात ऐमरल्ड, बृहस्पति का पुखराज अर्थात येलो सैफायर, शुक्र का हीरा अर्थात डायमंड, शनि का नीलम अर्थात ब्लू सैफायर, राहु का गोमेद, केतु का लहसुनिया अर्थात कैट्सआई। किस रत्न को किस रत्न के साथ धारण करें शत्रु ग्रह का रत्न धारण नहीं करना चाहिए जैसे :- मूंगे के साथ नीलम, पन्ना या हीरा धारण नहीं करना चाहिए।हीरे के साथ पुखराज, मूंगा या मोती, पन्ने के साथ मूंगा, पुखराज, माणिक्य या मोती, मोती के साथ पन्ना, हीरा, माणिक्य या नीलम, और नीलम के साथ मोती, पुखराज माणिक्य, मूंगा धारण नहीं करें। इसी तरह गोमेद के साथ माण् िाक्य या मूंगा और लहसुनिया के साथ माणिक्य, मोती या नीलम धारण नहीं करना चाहिए। 5……संचित कर्म, प्रारब्धल कर्म तथा क्रियमाण कर्म ये कर्म के तीन प्रकार हैं. पूर्व जन्म़ में किये गये कर्म संचित कर्म कहे जाते हैं. पूर्व जन्मय के कर्मों में जिन कर्मों का फल इस जन्म. में भोगना पड़ता है वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं. व्याक्तिर द्वारा वर्तमान जीवन में किया जा रहा कर्म क्रियमाण कर्म कहलाता है.
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