Tuesday, 16 April 2019

स्वयं रक्षा शाबर मन्त्र साधना यह मंत्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में साधक की रक्षा करता है । कोई भी व्यक्ति इसे सिद्ध करके स्वयं को सुरक्षित कर सकता है । जिसने इसे सिद्ध कर लिया हो, ऐसा व्यक्ति कहीं भी जाए, उसको किसी प्रकार की शारीरिक हानि की आशंका नहीं रहेगी । केवल आततायी से सुरक्षा ही नहीं, बल्कि रोग-व्याधि से मुक्ति दिलाने में भी यह मंत्र अद्भुत प्रभाव दिखाता है । इसके अतिरिक्त किसी दूकान या मकान में प्रेत-बाधा, तांत्रिक-अभिचार प्रयोग, कुदृष्टि आदि कारणों से धन-धान्य, व्यवसाय आदि की वृद्धि न होकर सदैव हानिकारक स्थिति हो, ऐसी स्थिति में इस मंत्र का प्रयोग करने से उस द्थान के समस्त दोष-विघ्न और अभिशाप आदि दुष्प्रभाव समाप्त हो जाते हैं । मन्त्रः- “ॐ नमो आदेश गुरु को। ईश्वर वाचा अजपी बजरी बाड़ा, बज्जरी में बज्जरी बाँधा दसौं दुवार छवा और के घालो तो पलट बीर उसी को मारे । पहली चौकी गणपति, दूजी चौकी हनुमन्त, तिजी चौकी भैंरो, चौथी चौकी देत रक्षा करन को आवे श्री नरसिंह देवजी । शब्द साँचा पिण्ड काँचा, ऐ वचन गुरु गोरखनाथ का जुगोही जुग साँचा, फुरै मन्त्र ईशवरी वाचा ।” विधिः- इस मंत्र को मंत्रोक्त किसी भी एक देवता के मंदिर में या उसकी प्रतिमा के सम्मुख देवता का पूजन कर २१ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार जप कर सिद्ध करें । प्रयोगः- साधक कहीं भी जाए, रात को सोते समय इस मंत्र को पढ़कर अपने आसन के चारों ओर रेखा खींच दे या जल की पतली धारा से रेखा बना ले, फिर उसके भीतर निश्चित होकर बैठे अथवा सोयें । रोग व्याधि में इस मंत्र को पढ़ते हुए रोगी के शरीर पर हाथ फेरा जाए तो मात्र सात बार यह क्रिया करने से ही तत्काल वह व्यक्ति व्याधि से मुक्त हो जाता है । घर में जितने द्वार हो उतनी लोहे की कील लें । जितने कमरे हों, प्रति कमरा दस ग्राम के हिसाब से साबुत काले उड़द लें । थोड़ा-सा सिन्दूर तेल या घी में मिलाकर कीलों पर लगा लें । कीलों और उड़द पर 7-7 बार अलग-अलग मंत्र पढ़कर फूंक मारकर अभिमंत्रित कर लें । व्याधि-ग्रस्त घर के प्रत्येक कमरे या दुकान में जाकर मंत्र पढ़कर उड़द के दाने सब कमरे के चारों कोनों में तथा आँगन में बिखेर दें और द्वार पर कीलें ठोक दें । बालक या किसी व्यक्ति को नजर लग जाए, तो उसको सामने बिठाकर मोरपंख या लोहे की छुरी से मंत्र को सात बार पढ़ते हुए रोगी को झाड़ना चाहिए । यह क्रिया तीन दिन तक सुबह-शाम दोनों समय करें ।

बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र – || ह्लीं || इसे स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है । (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति, क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति । गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः, श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे । विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर ‘शाम्यति’ । बगलामुखी त्र्यक्षर मंत्र - || ॐ ह्लीं ॐ || बगलामुखी चतुरक्षर मन्त्र - || ॐ आं ह्लीं क्रों || (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य चतुरक्षर बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, आं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, आं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ॐ ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ॐ ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ॐ ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ॐ ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ॐ ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ॐ ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - कुटिलालक-संयुक्तां मदाघूर्णित-लोचनां, मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधराम् । सुवर्ण-कलश-प्रख्य-कठिन-स्तन-मण्डलां, आवर्त्त-विलसन्नाभिं सूक्ष्म-मध्यम-संयुताम् । रम्भोरु-पाद-पद्मां तां पीत-वस्त्र-समावृताम् ।। पुरश्चरण में चार लाख जप कर, मधूक-पुष्प-मिश्रित जल से दशांश तर्पण कर घृत-शर्करा-युक्त पायस से दशांश हवन ।

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय । त्र्यम्बक सदा-शिव ! नमस्ते-नमस्ते । ॐ ह्रीं ह्लीं लूं अः एं ऐं महा-घोरेशाय नमः । ह्रीं ॐ ह्रौं शं नमो भगवते सदा-शिवाय । सकल-तत्त्वात्मकाय, आनन्द-सन्दोहाय, सर्व-मन्त्र-स्वरूपाय, सर्व-यंत्राधिष्ठिताय, सर्व-तंत्र-प्रेरकाय, सर्व-तत्त्व-विदूराय,सर्-तत्त्वाधिष्ठिताय, ब्रह्म-रुद्रावतारिणे, नील-कण्ठाय, पार्वती-मनोहर-प्रियाय, महा-रुद्राय, सोम-सूर्याग्नि-लोचनाय, भस्मोद्-धूलित-विग्रहाय, अष्ट-गन्धादि-गन्धोप-शोभिताय, शेषाधिप-मुकुट-भूषिताय, महा-मणि-मुकुट-धारणाय, सर्पालंकाराय, माणिक्य-भूषणाय, सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल-रौद्रावताराय, दक्षाध्वर-ध्वंसकाय, महा-काल-भेदनाय, महा-कालाधि-कालोग्र-रुपाय, मूलाधारैक-निलयाय । तत्त्वातीताय, गंगा-धराय, महा-प्रपात-विष-भेदनाय, महा-प्रलयान्त-नृत्याधिष्ठिताय, सर्व-देवाधि-देवाय, षडाश्रयाय, सकल-वेदान्त-साराय, त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायकायानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्ख-कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-महा-नाग-कुल-भूषणाय, प्रणव-स्वरूपाय । ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, हां हीं हूं हैं हौं हः । चिदाकाशायाकाश-दिक्स्वरूपाय, ग्रह-नक्षत्रादि-सर्व-प्रपञ्च-मालिने, सकलाय, कलङ्क-रहिताय, सकल-लोकैक-कर्त्रे, सकल-लोकैक-भर्त्रे, सकल-लोकैक-संहर्त्रे, सकल-लोकैक-गुरवे, सकल-लोकैक-साक्षिणे, सकल-निगम-गुह्याय, सकल-वेदान्त-पारगाय, सकल-लोकैक-वर-प्रदाय, सकल-लोकैक-सर्वदाय, शर्मदाय, सकल-लोकैक-शंकराय । शशाङ्क-शेखराय, शाश्वत-निजावासाय, निराभासाय, निराभयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय, निरहङ्काराय, निरंकुशाय, निष्कलंकाय, निर्गुणाय, निष्कामाय, निरुपप्लवाय, निरवद्याय, निरन्तराय, निष्कारणाय, निरातङ्काय, निष्प्रपंचाय, निःसङ्गाय, निर्द्वन्द्वाय, निराधाराय, नीरागाय, निष्क्रोधाय, निर्मलाय, निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय, निस्तुलाय, निःसंशयाय, निरञ्जनाय, निरुपम-विभवाय, नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय, ॐ हसौं ॐ हसौः ह्रीम सौं क्षमलक्लीं क्षमलइस्फ्रिं ऐं क्लीं सौः क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः । परम-शान्त-स्वरूपाय, सोहं-तेजोरूपाय, हंस-तेजोमयाय, सच्चिदेकं ब्रह्म महा-मन्त्र-स्वरुपाय, श्रीं ह्रीं क्लीं नमो भगवते विश्व-गुरवे, स्मरण-मात्र-सन्तुष्टाय, महा-ज्ञान-प्रदाय, सच्चिदानन्दात्मने महा-योगिने सर्व-काम-फल-प्रदाय, भव-बन्ध-प्रमोचनाय, क्रों सकल-विभूतिदाय, क्रीं सर्व-विश्वाकर्षणाय । जय जय रुद्र, महा-रौद्र, वीर-भद्रावतार, महा-भैरव, काल-भैरव, कल्पान्त-भैरव, कपाल-माला-धर, खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-ब्रह्मास्त्र-पाशुपतास्त्रादि-महास्त्र-चक्रायुधाय । भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-विस्फारित ब्रह्माण्ड-मंडल नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्र-हार नागेन्द्र-वलय नागेन्द्र-चर्म-धर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्व-रूप विरूपाक्ष विश्वम्भर विश्वेश्वर वृषभ-वाहन वृष-विभूषण, विश्वतोमुख ! सर्वतो रक्ष रक्ष, ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्फुर स्फुर आवेशय आवेशय, मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय, प्रस्फुर प्रस्फुर । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय, चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय, विष-सर्प-भयं शमय शमय, चोरान् मारय मारय, मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय, मम क्रोधादि-सर्व-सूक्ष्म-तमात् स्थूल-तम-पर्यन्त-स्थितान् शत्रूनुच्चाटय, त्रिशूलेन विदारय विदारय, कुठारेण भिन्धि भिन्धि, खड्गेन छिन्धि छिन्धि, खट्वांगेन विपोथय विपोथय, मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय, वाणैः सन्ताडय सन्ताडय, रक्षांसि भीषय भीषय, अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय, कूष्माण्ड-वेताल-मारीच-गण-ब्रह्म-राक्षस-गणान् संत्रासय संत्रासय, सर्व-रोगादि-महा-भयान्ममाभयं कुरु कुरु, वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय, नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर, सञ्जीवय सञ्जीवय, क्षुत्-तृषा-ईर्ष्यादि-विकारेभ्यो मामाप्याययाप्यायय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय । मृत्युञ्जय त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते, शं ह्रीं ॐ ह्रों । विशेषः नित्य-पाठ ही फल-दायक

॥अथ योगिनीहृदयम्॥ श्रीदेव्युवाच देवदेव महदेव परिपूर्णप्रथामय । वामकेश्वरतन्त्रेऽस्मिन्नज्ञातर्थास्त्वनेकशः ।। १ ।। तांस्तानर्थानशेषेण वक्तुमर्हसि भैरव । श्रीभैरव उवाच शृणु देवि महागुह्यं योगिनिहृदयं परम् ।। २ ।। त्वत्प्रीत्या कथयाम्यद्य गोपनीयं विशेषतः । कर्णात्कर्णोर्पदेशेन सम्प्राप्तमवनीतलम् ।। ३ ।। न देयं परशिष्येभ्यो नास्तिकेभ्यो न चेश्वरि । न शुश्रूषालसानाञ्च नैवानर्थप्रदायिनाम् ।। ४ ।। परीक्षिताय दातव्यं वत्सरार्धोषिताय च । एतज्ज्ञात्वा वररोहे सद्यः खेचरतां व्रजेत् ।। ५ ।। चक्रसङ्केतको मन्त्रपूजासङ्केतकौ तथा । त्रिविधस्त्रिपुरादेव्याः सङ्केतः परमेश्वरि ।। ६ ।। यावदेतन्न जानाति सङ्केतत्रयमुत्तमम् । न तावत्रिपुराचक्रे परमाज्ञाधरो भवेत् ।। ७ ।। तच्छक्तिपञ्चकं सृष्ट्या लयेनाग्निचतुष्टयम् । पञ्चशक्तिचतुर्वह्निसंयोगाच्चक्रसम्भवः ।। ८ ।। एतच्चक्रावतारन्तु कथयामि तवानघे । यदा सा परमा शक्तिः स्वेच्छया विश्वरूपिणी ।। ९ ।। स्फुरत्तामात्मनः पश्येत्तदा चक्रस्य सम्भवः । शून्याकाराद्विसर्गान्ताद् बिन्दोः प्रस्पन्दसंविदः ।। १० ।। प्रकाशपरमार्थत्वात् स्फुरत्तालहरीयुतात् । प्रसृतं विश्वलहरीस्थानं मातृत्रयात्मकम् ।। ११ ।। बैन्दवं चक्रमेतस्य त्रिरूपत्वं पुनर्भवेत् । धर्माधर्मौ तथात्मानो मातृमेयौ तथा प्रमा ।। १२ ।। नवयोन्यात्मकं चक्रं चिदानन्दघनं महत् । चक्रं नवात्मकमिदं नवधा भिन्नमन्त्रकम् ।। १३ ।। बैन्दवासनसंरूढसंवर्तानलचित्कलम् । अम्बिकारूपमेवेदमष्टारस्थं स्वरावृतम् ।। १४ ।। नवत्रिकोणस्फुरितप्रभारूपदशारकम् । शक्त्यादिनवपर्यन्तदशार्णस्फूर्तिकारकम् ।। १५ ।। भूततन्मात्रदशकप्रकाशालम्बनत्वतः । द्विदशारस्फुरद्रूपं क्रोधीशादिदशारकम् ।। १६ ।। चतुश्चक्रप्रभारूपसंयुक्तपरिणामतः । चतुर्दशाररूपेण संवित्तिकरणात्मना ।। १७ ।। खेचर्यादिजयान्तार्णपरमार्थप्रथामयम् । एवं शक्त्यनलाकारस्फुरद्रौद्रीप्रभामयम् ।। १८ ।। ज्येष्टारूपचतुष्कोणं वामारूपभ्रमित्रयम् । चिदंशान्तस्त्रिकोणं च शान्त्यतिताष्टकोणकं ।। १९ ।। शान्त्यंशद्विदशारञ्च तथैव भुवनारकम् । विद्याकलाप्रमारूपदलाष्टकसमावृतम् ।। २० ।। प्रतिष्टावपुषा सृष्टस्फुरद्द्व्यष्टदलाम्बुजम् । निवृत्त्याकारविलसच्चतुस्ष्कोणविराजितम् ।। २१ ।। त्रैलोक्यमोहनाद्ये तु नवचक्रे सुरेश्वरि । नादो बिन्दुः कला ज्येष्टा रौद्रीई वामा तथा पुनः ।। २२ ।। विषघ्नीई दूतरी चैव सर्वानन्दा क्रमात् स्थिताः । निरंशौ नादबिन्दू च कला चेच्छास्वरूपकम् ।। २३ ।। ज्येष्टा ज्ञानं क्रिया शेषमित्येवं त्रितयात्मकम् । चक्रं कामकलारूपं प्रसारपर, मार्थतः ।। २४ ।। अकुले विषुसंज्ञे च शक्ते वह्नौ तथा पुनः । नाभावनाहते शुद्धे लम्बिकाग्रे भ्रुवोऽन्तरे ।। २५ ।। बिन्दौ तदर्धे रोधिन्यां नादे नादान्त एव च । शक्तौ पुनर्व्यापिकायां समनोन्मनि गोचरे ।। २६ ।। महाबिन्दौ पुनश्चैव त्रिधा चक्रं तु भावयेत् । आज्ञान्तं सकलं प्रोक्तं ततः सकलनिष्कलम् ।। २७ ।। उन्मन्यन्तं परे स्थाने निष्कलञ्च त्रिधा स्थितम् । दीपाकारोऽर्धमात्रश्च ललाटे वृत्त इष्यते ।। २८ ।। अर्धचन्द्रस्तथाकारः पादमात्रस्तदूर्ध्वके । ज्योत्स्नाकारा तदष्टांशा रोधिनी त्र्यस्रविग्रहा ।। २९ ।। बिन्दुद्वयान्तरे दण्डः शेवरूपो मणिप्रभः । कलांशो द्विगुणांशश्च नादान्तो विद्युदुज्ज्वलः ।। ३० ।। हलाकारस्तु सव्यस्थबिन्दुयुक्तो विराजते । शक्तिर्वामस्थबिन्दुद्यत्स्थिराकारा तथा पुनः ।। ३१ ।। व्यापिका बिन्दुविलसत्त्रिकोणाकारतां गता । बिन्दुद्वयान्तरालस्था ऋजुरेखामयी पुनः ।। ३२ ।। समना बिन्दुविलसदृजुरेखा तथोन्मना । शक्त्यादीनां वपुः स्फूर्जद्द्वादशादित्यसन्निभम् ।। ३३ ।। चतुःषष्टिस्तदूर्ध्वं तु द्विगुणं दिगुणं ततः । शक्त्यादीनां तु मात्रांशो मनोन्मन्यास्तथोन्मनी ।। ३४ ।। दैशकालानवच्छिन्नं तदूर्ध्वे परमं महत् । निसर्गसुन्दरं तत्तु परानन्दविघूर्णितम् ।। ३५ ।। आत्मनह स्फुरणं पश्येद्यदा सा परमा कला । अम्बिकारूपमापन्न परा वाक् ससुदीरिता ।। ३६ ।। बीजभावस्थितं विश्वं स्फुटीकर्तुं यदोन्मुखी ।। वामा विश्वस्य वमनादङ्कुशाकारतां गता ।। ३७ ।। इच्छाशक्तिस्तदा सेयं पश्यन्ती वपुषा स्थिता । ज्ञानशक्तिस्तथा ज्येष्टा मध्यमा वागुदीरिता ।। ३८ ।। ऋजुरेखामयी विश्वस्थितौइ प्रथितविग्रहा । तत्संहृतिदशायां तु बैन्दवं रूपमास्थिता ।। ३९ ।। प्रत्यावृत्तिक्रमेणैवं शृङ्गटवपुरुज्ज्वला । क्रियाशक्तिस्तु रौद्रीयं वैखरी विश्वविग्रहा ।। ४० ।। भासनाद्विश्वरूपस्य स्वरूपे बाह्यतोऽपि च । एताश्चतस्त्रः शक्त्यस्तु का पू जा ओ इति क्रमात् ।। ४१ ।। पीठाः कन्दे पदे रूपे रूपातीते क्रमात् स्थिताः । चतुरस्त्रं तथ बिन्दुषट्कयुक्तं च वृत्तकम् ।। ४२ ।। अर्धचन्द्रं त्रिकोणं च रूपाण्येषां क्रमेण तु । पीतो धूम्रस्तथा श्वेतो रक्तो रूपं च कीर्तितम् ।। ४३ ।। स्वयम्भुर्बाणलिङ्गं च इतरं च परं पुनः । पीठेष्वेतानि लिङ्गानि संस्थितानि वरानने ।। ४४ ।। हेमबन्धृककुसुमशरच्चन्द्रनिभानि तु । स्वावृतं त्रिकूटं च महालिङ्गं स्वयम्भुवम् ।। ४५ ।। कादितान्ता क्षरोपेतं बाणलिङ्गं त्रिकोणकम् । कदम्बगोलकाकारं थादिसान्ताक्षरावृतम् ।। ४६ ।। सूक्ष्मरूपं समस्तार्णवृतं परमलिङ्गकम् । बिन्दुरूपं परानन्दकन्दं नित्यपओदितम् ।। ४७ बीअत्रितययुक्तास्य सकस्य मनोः पुनः । एतानि वाच्यरूपाणि कुलकौलमयानि तु ।। ४८ ।। जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्यतुर्यरूपाण्यमूनि तु । अतितं तु परं तेजः स्वसंविदुदयात्मकम् ।। ४९ ।। स्वेच्छाविश्वमयोल्लेखखचितं विश्वरूपकम् । चैतन्यमात्मनो रूपं निसर्गानन्दसुन्दरम् ।। ५० ।। मेयमातृप्रमामानप्रसरैः संकुचत्प्रभम् । शृङ्गाटरूपमापन्नमिच्छाज्ञानक्रियात्मकम् ।। ५१ ।। विश्वाकारप्रथाधारनिजरूपशिवाश्रयम् । कामेश्वराङ्कपर्यङ्कनिविष्टमतिसुन्दरम् ।। ५२ ।। इच्छाशक्तिमयं पाशमङ्कुशं ज्ञनरूपिणम् । क्रियाशक्तिमये बाणधनुषी दधदुज्ज्वलम् ।। ५३ ।। आश्रयाश्रयिभेदेन अष्टधा भिन्नहेतिमत् । अष्टारचक्रसंरूढं नवचक्रासनस्थितम् ।। ५४ ।। एवंरूपं परं तेजः श्रीचक्रवपुषा स्थितम् । तदीयशक्तिनिकरस्फुरदूर्मिसमावृतम् ।। ५५ ।। चिदात्मभित्तौ विश्वस्य प्रकाशामर्शने यदा । करोति स्वेच्छया पूर्णविचिकीर्षासमन्विता ।। ५६ ।। क्रियाशक्तिस्तु विश्वस्य मोदनाद् द्रावणात्तथा । मुद्राख्या सा यदा संविदम्बिका त्रिकलामयी ।। ५७ ।। त्रिखण्डारूपमापन्ना सदा सन्निधिकारिणी । सर्वस्य चक्रराजस्य व्यापिका परिकीर्तित ।। ५८ ।। योनिप्राचुर्यतः सैषा सर्वसंक्षोभिका पुनः । वामाशक्तिप्रधानेयं द्वारचक्रे स्थिता भवेत् ।। ५९ ।। क्षुब्धाविश्वस्थिततिर्करी ज्येष्टाप्राचुर्यमाश्रिता । स्थूलनादकलारूपा सर्वानुग्रहकारिणी ।। ६० ।। सर्वाशपूरणाख्ये तु सैषा स्फुरितविग्रहा । ज्येष्टावामासमन्त्वेन सृष्टेः प्राधान्यमाश्रिता ।। ६१ ।। आकर्षिणी तु मुद्रेयं सर्वसंक्षोभिणी स्मृता । व्योमद्वयान्तरालस्थबिन्दुरूपा महेश्वरि ।। ६२ ।। शिवशक्त्यात्मसंश्लेषाद्दिव्याकेशकरी स्मृता चतुर्दशारचक्रस्था संविदानन्दविग्रहा ।। ६३ ।। बिन्द्वन्तरालविलसत्सूक्ष्म रेखाशिखामयी । ज्येष्टाशक्तिप्रधाना तु सर्वोन्मादनकारिणी ।। ६४ ।। दशारचक्रमास्थाय संस्थिता वीरवन्दिते । वामाशक्तिप्रधाना तु महाङ्कुशमयी पुनः ।। ६५ ।। तद्वद्विश्वं वमन्ती सा दिव्तीये तु दशारके । संस्थिता मोदनपरा मुद्रारूपत्वमास्थिता ।। ६६ ।। धर्माधर्मस्य संघट्टादुत्थिता वित्तीरूपिणी । विकल्पोत्थक्रियालोपरूपदोषविधातिनी ।। ६७ ।। विकल्परूपरोगाणां हारिणी खेचरी परा । सर्वरोगहराख्ये तु चक्रे संविन्मयी स्थिता ।। ६८ ।। शिवशक्तिसमाश्लेषस्फुरद्व्योमान्तरे पुनः । प्रकाशयति विश्वं सा सूक्ष्मरूपस्थित सदा ।। ६९ ।। बीजरूपा महामुद्रा सर्वसिद्धिमये स्थिता । सम्पूर्णस्य प्रकाशस्य लाभभूमिरियं पुनः ।। ७० ।। योनिमुद्रा कलारूपा सर्वानन्दमये स्थिता । क्रिया चैतन्यरूपत्वादेवं चक्रमयं स्थितम् ।। ७१ ।। इच्छारूपं परं तेजाः सर्वदा भावयेद् बुधः । त्रिधा च नवधा चैव चक्रसङ्केतकः पुनः ।। ७२ ।। वह्निनैकेन शक्तिभ्यां द्वाभ्यां चैकोऽप्रः पुनः । तैश्च वह्नित्रयेणापि शक्तीनां त्रितयेन च ।। ७३ ।। पद्मद्वयेन चान्यः स्याद भूगृहत्रितयेन च । पञ्चशक्ति चतुर्वह्निपद्मद्वयमहीत्रयम् ।। ७४ ।। परिपूर्णं महचक्रं तत्प्रकारः प्रदर्श्यते । तत्राद्यं नवयोनि स्यात् तेन द्विदशासंयुतम् ।। ७५ ।। मनुयोनि परं विद्यात् तृतीयं तदनन्तरम् । अष्टद्व्यष्टदलोपेतं चतुरस्रत्रयान्वितम् ।। ७६ ।। चक्रस्य त्रिप्रकारत्वं कथितं परमेश्वरि । सृष्टिःस्यान्नवयोन्यादिपृथ्व्यन्तं संहृति पुनः ।। ७७ ।। पृथ्व्यादिनवयोन्यन्तमिति शास्त्रस्य निर्णयः । एतत्समष्टिरूपं तु त्रिपुराचक्रमुच्यते ।। ७८ ।। यस्य विज्ञानमात्रेण त्रिपुराज्ञानवान् भवेत् । चक्रस्य नवधात्वं च कथयामि तव प्रिये ।। ७९ ।। आदिमं भूत्रयेण स्याद द्वितीयं षोडशारकम् । अन्यदष्टदलं प्रोक्तं मनुकोणमनन्तरम् ।। ८० ।। पञ्चमं दशकोणं स्यात् षष्टं चापि दशारकम् ।। सप्तमं वसुकोणं स्यान्मध्यत्र्यस्रमथाष्टमम् ।। ८१ ।। नवमं त्र्यस्रमध्यं स्यात् तेषां नामान्यतः शृणु । त्रैलोक्यमोहनं चक्रं सर्वाशापरिपूरकम् ।। ८२ ।। सर्वसंक्षोभणं गौरि सर्वासौभाग्यदायकम् । सर्वार्थसाधकं चक्रं सर्वरक्षाकरं परम् ।। ८३ ।। सर्वरोगहरं देवि सर्वसिद्धिमयं तथा । सर्वानन्दमयं चापि नवमं शृणु सुन्दरि ।। ८४ ।। अत्र पुज्या महादेवी महात्रिपुरसुन्दरी । परिपूर्णं महाचक्रमजरामरकारकम् ।। ८५ ।। एतमेव महाचक्रसङ्केतः परमेश्वरि । कथितस्त्रिपुरादेव्या जीवन्मुक्तिप्रवर्तकः ।। ८६ ।।

शरभ उपनिषद उपासना । शिवस्वरूप शरभावतार की उपासना करने से व्यक्ति को मनोवांच्छित शक्तियों की प्राप्ति होती है. भगवान रूद्र ही काम क्रोध को नष्ट करके विकारों का शमन करते हैं, रुद्र जिन्होंने ब्रह्मा का पांचवां सिर नष्ट करके उन्हें मुक्त किया. भगवान रुद्र को नमस्कार जो काल के भय को दूर करते हैं, जिनके भय से मृत्यु को भी भय लगता है, जिन्होंने विष को ग्रहण करके ब्रह्माण को जीवन दिया उन रूद्र को शत शत नमन है. भगवान शिव जिन्हें विष्णु भगवान ने पूजा और उनसे चक्र प्राप्त किया, जो समस्त दुखों को दूर करते हैं, जो आत्मा के रूप में प्राणियों के हृदय में समाए हुए हैं, वही सबसे बड़े हैं. रुद्र अपने हाथ में त्रिशूल थामे सभी को आशीर्वाद देते नजर आते हैं.

सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों? भारतीय देव परम्परा में गणेश आदिदेव हैं। हिन्दू धर्म में किसी भी शुभकार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी पूजा करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि- सिद्धि का स्वामी कहा जाता है। इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होती है व विघ्न का विनाश होता है। वे एकदन्त, विकट, लम्बोदर और विनायक है। वे शीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात् प्रणवरूप हैं। गणेश का अर्थ है- गणों का ईश। अर्थात् गणों का स्वामी। किसी पूजा, आराधना, अनुष्ठान व कार्य में गणेश जी के गण कोई बाधा न पहुंचाएं, इसलिए सर्वप्रथम गणेश पूजा करके उसकी कृपा प्राप्त की जाती है । प्रत्येक शुभकार्य के पूर्व "श्रीगणेशाय नम:" का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मन्त्र बोला जाता है – वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।। अर्थात् विशाल आकार और टेढ़ी सूण्ड वाले करोड़ों सूर्यों के समान तेज वाले हे! देव (गणेशजी), मेरे समस्त कार्यों को सदा विघ्नरहित पूर्ण करें। वेदों में भी गणेश की महत्ता व उनके विघ्नहर्ता स्वरूप की ब्रह्मरूप में स्तुति व आह्वान करते हुए कहा गया है --- गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कबीना मुपश्रवस्तमम्। ज्येष्ठरांज ब्रह्ममणस्पत आ न: श्रृण्वन्न् तिभि: सीदसादनम्।। -ऋग्वेद 2/23/1 गणेश जन आस्थाओं में अमूर्त रूप से जीवित थे, वह आस्थाओं से मूर्तियों में ढल गए। गजमुख, एकदन्त, लम्बोदर आदि नामों और आदिम समाजों के कुल लक्षणों से गणेश को जोड़कर जहाँ गुप्तों ने अपने साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं पूजकों को भी अपनी सीमा विस्तृत करने का अवसर मिला। गणेश सभी वर्गों की आस्थाओं का केन्द्र बन गए। एक प्रकार से देखा जाए तो गणेश व्यापक समाज और समुदाय को एकता के सूत्र में पिरोने का आधार बने, वहीं सभी धर्मों की आस्था का केन्द्र बिन्दु भी सिद्ध हुए। उनका मंगलकारी व विघ्नहर्ता रूप सभी वर्गों को भाया। इस विराट विस्तार ने ही गणेश को न केवल सम्पूर्ण भारत बल्कि विदेशों तक पूज्य बना दिया और अब तो विश्व का सम्भवतः ही ऐसा कोई कोना हो,जहाँ गणेश न हों। वेदों और पुराणों में सर्वत्र प्रथम पूजनीय गणपति बुद्धि, साहस और शक्ति के देवता के रूप में भी देखे जाते हैं। सिन्दूर वीरों का अलंकरण माना जाता है। गणेश, हनुमान और भैरव को इसलिए सिन्दूर चढ़ाया जाता है। गाणपत्य सम्प्रदाय के एकमात्र आराध्य के रूप में देश में गणेश की उपासना सदियों से प्रचलित है। आज भी गणपति मन्त्र उत्तर से दक्षिण तक सभी मांगलिक कार्यों मे बोले जाते हैं। नगर-नगर में गणेश मन्दिर हैं, जिनमें सिन्दूर, मोदक, दूर्वा और गन्ने चढ़ाए जाते हैं। सिन्दूर शौर्य के देवता के रूप में, मोदक तृप्ति और समृद्धि के देवता के रूप में तथा दूर्वा और गन्ना हाथी के शरीर वाले देवता के रूप में गणेश को प्रिय माना जाता है।

सिद्ध करने का तरीका रविवार के दिन एक किलो काले उडद अपने सामने रखकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक इस मंत्र का नियमित रूप से जप करने पर यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। जब यह मंत्र सिद्ध हो जाए तब उन काले उडदों को लेकर 21 दिन मंत्र पढकर दुकान में बिखेर देवें, इस प्रकार तीन रविवार तक करने पर दुकान की बिक्री दुगुनी-तिगुनी हो जाती है। यह निश्चित है। जैसा कि बताया गया है, शाबर मंत्र सरल भाषा में होते है और आज के अनास्था तथा वैज्ञानिक युग में विश्वास नहीं होता कि ये मंत्र इतने शक्तिशाली है और इन मंत्रों से कार्य सिद्ध किए जा सकते है। परंतु साधकों ने इन मंत्रों को सिद्ध किया है और पूरी तरह से लाभ उठाया है। आप भी चाहें तो इन सत्य को परख सकते है। धन प्राप्ति हेतु तांत्रिक मंत्र यह मंत्र महत्वपूर्ण है, इस मंत्र का जप अर्द्धरात्रि को किया जाता है। यह साधना 22 दिन की है और नित्य एक माला जप होना चाहिए। यदि शनिवार या रविवार में इस प्रयोग को प्रारम्भ किया जाए तो ज्यादा उचित रहता है। इसमें व्यक्ति को लाल वस्त्र पहनने चाहिए और पूजा में प्रयुक्त सभी समान को रंग लेना चाहिए। दीपावली के दिन भी इस मंत्र का प्रयोग किया जा सकता है और कहते हैं कि यदि दीपावली की रात्रि को इस मंत्र को 21 माला फेरें तो उसके व्यापार में उन्नति एवं आर्थिक सफलता प्राप्त होती है। मंत्र- ओम नमो पदमावती एद्मालये लक्ष्मीदायिनी वांछाभूत प्रेत बिन्ध्यवासिनी सर्व शत्रु संहारिणी दुर्जन मोहिनी ऋद्धि-सिद्ध वृद्धि कुरू कुरू स्वाहा। ओम क्लीं श्रीं पद्मावत्यै नम:। जब अनुष्ठान पूरा हो जाए तो साधक को चाहिए कि वह नित्य इसकी एक माला फेरे। ऎसा करने पर उसके आगे के जीवन में निरन्तर उन्नति होती रहती है। धन प्राप्ति का शाबर मंत्र नित्य प्रात: काल दन्त धावन करने के बाद इस मंत्र का 108 बार पाठ करने से व्यापार या किसी अनुकूल तरीके से धन प्राप्ति होती है। मंत्र- ओम ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मामगृहे धन पूरय चिन्ताम्तूरय स्वाहा।

दक्षिणा वर्ती गणेश उपासना ... भगवान गणेश के स्वरुप से भला कौन नहीं परिचित होगा..उनकी मधुर मुस्कान युक्त वरदायक छबि मानो हमारे हर मगलदायक कार्यों को अपना आशीर्वाद दे ही रही हैं .. और धन आये हमारे जीवन मे . उससे पहले कहीं ज्यदा आवश्यक हैं की उस धन का सदुपयोग करने लायक बुद्धि हो हमारे पास ..नहीं तो धन के जाने में कितना समय लगेगा . जब व्यक्ति के पास अनायास काफी धन आया पर वह उसे धन को रोकने के लिए भगवान गणपति की साधना उपासना से बढ़कर और कुछ भी नही हैं . और आजकल धन आगमन बना रहे इस हेतु दक्षिणा वर्ती शंख का तो घर घर में स्थापन हो गया हैं फिर वह चाहे छोटा या बड़ा ही शंख ही क्यों न हो.....और उचित प्राण प्रतिष्ठित दक्षिणा वर्ती शंख की महत्वता से तो सभी परिचित हैं ही . पर कहीं से आपको यदि दक्षिणावर्ती गणेश प्रतिमा मिल जाए तो आपके भाग्य का क्या कहना .. पर दक्षिणा वर्ती गणेश ..??? यह तो सुना ही नहीं .. यहाँ मतलब हैं भगवान गणेश की सूंड के घुमाव से हैं साधारणतः जो भी प्रतिमा उनकी प्राप्त होती हैं .उसमे उनकी सूंड का घुमाव सीधा होता हैं या उत्तर दिशा की ओर ..... पर किसी के भाग्य हैं जो उसे ऐसी प्रतिमा मिल जाए जिसमे उनकी सूंड का घुमाव उलटी दिशा में हो मतलब दक्षिण में . .तब बस उस प्रतिमा का स्थापन करे और जैसा भी और जो भी साधना भगवान गणेश की इस अद्भुत प्रतिमा के सामने करे ..उसे कई गुना लाभ मिलना चालू हो जायेंगे .. अनेको अपने देश के उच्च तंत्र साधको का कहना रहा हैं उन्होंने कई बार ऐसी प्रतिमा का निर्माण स्वयं कराया पर .हर बार जब भी दक्षिण दिशा की तरफ मुडी हुयि सूंड बनबाई गयी हर बार वह टूट ही गयी .. पर उन सभी का मानना यह भी हैं की हज़ारों लाखो में किसी किसी को ऐसी प्रतिमा का मिल जाना उसके परम भाग्य का प्रतीक हैं ..तो मित्रों देखिये शायद आपके घर में ही तो पहले से ऐसी प्रतिमा नहीं हैं,,अगर हैं तो विधि विधान से उसका पूजन कर अपन जीवन को यश लाभ युक्त बनाये .. या अभी तक कोई भी भगवान गणेश की प्रतिमा नहीं हैं तब खोज करे शायद ऐसा विग्रह आपको कहीं पर मिल ही जाए।

क्या आपके बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता? प्रत्येक अभिवावक की आकांक्षा होती है कि वह अपनी सन्तान को हर सम्भव साधन जुटाकर बेहतर से बेहतर शिक्षा उपलब्ध करा सके जिससे उसके व्यकितत्व में व्यापकता आये और वह स्वंय जीवनरूपी नैय्या का खेवनहार बनें। सारी सुविधायें होने के बावजूद भी जब बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता है एंव जो कुछ पढ़ते है, वह शीघ्र ही भूल जाते हैं या फिर अधिक परिश्रम करने के बावजूद भी परीक्षाफल सामान्य ही रहता है। ऐसी सिथतियों में वास्तु का सहयोग लेने से आश्चर्यचकित परिणाम सामने आते है। अध्ययन कक्ष में इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चों का पढ़ाई के प्रति रूझान बढ़े एंव मन एकाग्र होकर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हो सके। घर में अध्ययन कक्ष ईशान कोण अथवा पूर्व या उत्तर दिशा में बनवाना चाहिए। अध्ययन कक्ष शौचालय के निकट कदापि न बनवायें। पढ़ने की टेबल पूर्व या उत्तर दिशा में रखें तथा पढ़ते समय मुख उत्तर या पूर्व की दिशा में ही होना चाहिए। इन दिशाओं की ओर मुख करने से सकारात्मक उर्जा मिलती है जिससे स्मरण शकित बढ़ती है एंव बुद्धि का विकास होता है। पढ़ने वाली टेबल को दीवार से सटा कर न रखें। पढ़ते वक्त रीढ़ को हमेशा सीधा रखें। लेटकर या झुककर नहीं पढ़ना चाहिए। पढ़ने की सामग्री आखों से लगभग एक फीट की दूरी पर रखनी चाहिए। अध्ययन कक्ष में हल्के रंगों का प्रयोग करें। जैसे- हल्का पीला, गुलाबी, आसमानी, हल्का हरा आदि। राति्र को आधिक देर तक नहीं पढ़ना चाहिए क्योंकि इससे तनाव, चिड़चिड़ापन, क्रोध, दृषिट दोष, पेट रोग आदि समस्यायें होने की प्रबल आशंका रहती है। ब्रहममुहूर्त या प्रात:काल में 4 घन्टे अध्ययन करना राति्र के 10 घन्टे के बराबर होता है। क्योंकि प्रात:काल में स्वच्छ एंव सकारात्मक ऊर्जा संचरण होती है जिससे मन व तन दोनों स्वस्थ्य रहते हैं। अध्ययन कक्ष में किताबों की अलमारी को पूर्व या उत्तर दिशा में बनायें तथा उसकी सप्ताह में एक बार साफ-सफार्इ अवश्य करनी चाहिए। अलमारी में गणेश जी की फोटो लगाकर नित्य पूजा करनी चाहिए। बीएड, प्रशासनिक सेवा, रेलवे, आदि की तैयारी करने वाले छात्रो का अध्ययन कक्ष पूर्व दिशा में होना चाहिए। क्योंकि सूर्य सरकार एंव उच्च पद का कारक तथा पूर्व दिशा का स्वामी है। बीटेक, डाक्टरी, पत्रकारिता, ला, एमसीए, बीसीए आदि की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रो का अध्ययन कक्ष दक्षिण दिशा में होना चाहिए तथा पढ़ने वाली मेज आग्नेय कोण में रखनी चाहिए। क्योंकि मंगल अगिन कारक ग्रह है एंव दक्षिण दिशा का स्वामी है। एमबीए, एकाउन्ट, संगीत, गायन, और बैंक की आदि की तैयारी करने वाले छात्रों का अध्ययन कक्ष उत्तर दिशा में होना चाहिए क्योंकि बुध वाणी एंव गणित का संकेतक है एंव उत्तर दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। रिसर्च तथा गंभीर विषयों का अध्ययन करने वाले छात्रों का अध्ययन कक्ष पशिचम दिशा में होना चाहिए क्योंकि शनि एक खोजी एंव गंभीर ग्रह है तथा पशिचम दिशा का स्वामी है।

रोग एवं अपमृत्यु-निवारक प्रयोग ।। श्री अमृत-मृत्युञ्जय-मन्त्र प्रयोग ।। किसी प्राचीन शिवालय में जाकर गणेश जी की “ॐ गं गणपतये नमः” मन्त्र से षोडशोपचार पूजन करे । तदनन्तर “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र से महा-देव जी की पूजा कर हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़े - विनियोगः- ॐ अस्य श्री अमृत-मृत्युञ्जय-मन्त्रस्य श्री कहोल ऋषिः, विराट् छन्दः, अमृत-मृत्युञ्जय सदा-शिवो देवता, अमुक गोत्रोत्पन्न अमुकस्य-शर्मणो मम समस्त-रोग-निरसन-पूर्वकं अप-मृत्यु-निवारणार्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्री कहोल ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, अमृत-मृत्युञ्जय सदा-शिवो देवतायै नमः हृदि, मम समस्त-रोग-निरसन-पूर्वकं अप-मृत्यु-निवारणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । कर-न्यासः- ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः, जूं तर्जनीभ्यां नमः, सः मध्यमाभ्यां नमः, मां अनामिकाभ्यां नमः, पालय कनिष्ठिकाभ्यां नमः, पालय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । षडङ्ग-न्यासः- ॐ हृदयाय नमः, जूं शिरसे स्वाहा, सः शिखायै वषट्, मां कवचाय हुं, पालय नेत्र-त्रयाय वोषट्, पालय अस्त्राय फट् । ध्यानः- स्फुटित-नलिन-संस्थं, मौलि-बद्धेन्दु-रेखा-स्रवदमृत-रसार्द्र चन्द्र-वन्ह्यर्क-नेत्रम् । स्व-कर-लसित-मुद्रा-पाश-वेदाक्ष-मालं, स्फटिक-रजत-मुक्ता-गौरमीशं नमामि ।। मूल-मन्त्रः- “ॐ जूं सः मां पालय पालय ।” पुरश्चरणः- सवा लाख मन्त्र-जप के लिए पाँच हजार जप प्रतिदिन करना चाहिए । जप के बाद न्यास आदि करके पुनः ध्यान करे । फिर जल लेकर - ‘अनेन-मत् कृतेन जपेन श्री-अमृत-मृत्युञ्जयः प्रीयताम्’ कहकर जल छोड़ दे । जप का दशांश हवनादिक करे । ‘हवन’ हेतु ‘तिलाज्य’ में ‘गिलोय’ भी डालनी चाहिए । हवनादि न कर सकने पर ‘चतुर्गुणित जप’ करने से अनुष्ठान पूर्ण होता है एवं आरोग्यता मिलती है, अप-मृत्यु-निवारण होता है ।.....

.शत्रु नाशक प्रमाणिक प्रयोग शत्रु-बाधा निवारक ‘दारूण-सप्तक’ जब हिरण्यकश्यप को भगवान् नृसिंह ने अपनी गोद में रखकर अपने खर-तर नखों से उसके उदर को सर्वथा विदीर्ण कर चीर दिया और प्रह्लाद का दुःख दूर हो गया । तदनन्तर श्री भगवान् नृसिंह का वह क्रोध शान्त न हुआ, तब भगवान् विष्णु के आग्रह पर भगवान् रुद्र ने श्री शरभेश्वर (पक्षिराज, पक्षीन्द्र, पंखेश्वर) का रुप धारण कर, अपनी लौह के समान कठिन त्रोटी (चोंच) से, नृसिंह देव के ब्रह्म-रन्ध्र को विदीर्ण कर दिया, जिससे वे पुनः शान्त हो गए । संक्षिप्त अनुष्ठान विधि- स्वस्तिवाचन करके गुरु एवं गणपति पूजन करें। संकल्प करके श्री भैरव की पूजा करें- दक्षिण दिशा में मुख रखें। काले कम्बल का आसन प्रयुक्त करें। दो दीप रखें-एक घृत का देवता के दाँये और दूसरा सरसों के तेल का अथवा करंज का देवता के बाँये रखें। आकाश भैरव शरभ का चित्र मिल जाए तो सर्वोत्तम है, अन्यथा एक रक्तवर्ण वस्त्र पर गेहूँ की ढेरी लगाएँ, उस पर जल से पूर्ण ताम्र कलश रखें। उसपर श्रीफल रखकर शरभ भैरव का आवाहन, ध्यान एवं षोडशोपचार पूजन करे। नैवेद्य लगाएं और जप पाठ शुरु करें। इसके दो प्रकार के पाठ हैं- १॰ स्तोत्र पाठ, १०८ बार मन्त्र जप एवं पुनः स्तोत्र पाठ। २॰ १०८ बार मन्त्र जप, ७ बार स्तोत्र पाठ और पुनः १०८ बार मन्त्र जप। फल-श्रुति के अनुसार आदित्यवार से मंगलवार तक रात्रि में दस बार पढ़ने से शत्रु-बाधा दूर हो जाती है। हवन, तर्पण, मार्जन एवं ब्रह्मभोज दशांश क्रम से करें, संभव न हो तो इसके स्थान पर पाठ एवं जप अधिक संख्या में करें। निग्रह दारुण सप्तक स्तोत्र या शरभेश्वर स्तोत्र विनियोग- ॐ अस्य दारुण-सप्तक-महामन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषिः वृहती छन्सः श्री शरभो देवता ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः। ऋष्यादि-न्यास- श्रीसदाशिव ऋषये नमः शिरसि। वृहती छन्दसे नमः मुखे। श्रीशरभ-देवतायै नमः हृदि। ममाभिष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। ।। मूल स्तोत्र ।। कापोद्रेकाऽति वीर्यं निखिल-परिकरं तार-हार-प्रदीप्तम्। ज्वाला-मालाग्निदश्च स्मर-तनु-सकलं त्वामहं शालु-वेशं।। याचे त्वत्पाद्-पद्म-प्रणिहित-मनसं द्वेष्टि मां यः क्रियाभिः। तस्य प्राणावसानं कुरु शिव ! नियतं शूल-भिन्नस्य तूर्णम्।।१ शम्भो ! त्वद्धस्त-कुन्त-क्षत-रिपु-हृदयान्निस्स्त्रवल्लोहितौघम्। पीत्वा पीत्वाऽति-दर्पं दिशि-दिशि सततं त्वद्-गणाश्चण्ड-मुख्याः।। गर्ज्जन्ति क्षिप्र-वेगा निखिल-भय-हराः भीकराः खेल-लोलाः। सन्त्रस्त-ब्रह्म-देवा शरभ खग-पते ! त्राहि नः शालु-वेश ! ।।२ सर्वाद्यं सर्व-निष्ठं सकल-भय-हरं नानुरुप्यं शरण्यम्। याचेऽहं त्वाममोघं परिकर-सहितं द्वेष्टि योऽत्र स्थितं माम्।। श्रीशम्भो ! त्वत्-कराब्ज-स्थित-मुशल-हतास्तस्य वक्ष-स्थलस्थ- प्राणाः प्रेतेश-दूत-ग्रहण-परिभवाऽऽक्रोश-पूर्वं प्रयान्तु।।३ द्विष्मः क्षोण्यां वयं हि तव पद-कमल-ध्यान-निर्धूत-पापाः। कृत्याकृत्यैर्वियुक्ताः विहग-कुल-पते ! खेलया बद्ध-मूर्ते ! ।। तूर्णं त्वद्धस्त-पद्म-प्रधृत-परशुना खण्ड-खण्डी-कृताङ्गः। स द्वेष्टी यातु याम्यं पुरमति-कलुषं काल-पाशाग्र-बद्धः।।४ भीम ! श्रीशालुवेश ! प्रणत-भय-हर ! प्राण-हृद् दुर्मदानाम्। याचे-पञ्चास्य-गर्व-प्रशमन-विहित-स्वेच्छयाऽऽबद्ध-मूर्ते ! ।। त्वामेवाशु त्वदंघ्य्रष्टक-नख-विलसद्-ग्रीव-जिह्वोदरस्य। प्राणोत्क्राम-प्रयास-प्रकटित-हृदयस्यायुरल्पायतेऽस्य।।५ श्रीशूलं ते कराग्र-स्थित-मुशल-गदाऽऽवर्त-वाताभिघाता- पाताऽऽघातारि-यूथ-त्रिदश-रिपु-गणोद्भूत-रक्तच्छटार्द्रम्।। सन्दृष्ट्वाऽऽयोधने ज्यां निखिल-सुर-गणाश्चाशु नन्दन्तु नाना- भूता-वेताल-पुङ्गाः क्षतजमरि-गणस्याशु मत्तः पिवन्तु।।६ त्वद्दोर्दण्डाग्र-शुण्डा-घटित-विनमयच्चण्ड-कोदण्ड-युक्तै- र्वाणैर्दिव्यैरनेकैश्शिथिलित-वपुषः क्षीण-कोलाहलस्य।। तस्य प्राणावसानं परशिव ! भवतो हेति-राज-प्रभावै- स्तूर्णं पश्यामियो मां परि-हसति सदा त्वादि-मध्यान्त-हेतो।।७

!!अत्यंत दुर्लभ भैरव साबर मन्त्र साधना!! ॐ गुरु जी सत नाम आदेश आदि पुरुष को ! काला भैरूं, गोरा भैरूं, भैरूं रंग बिरंगा !! शिव गौरां को जब जब ध्याऊं, भैरूं आवे पास पूरण होय मनसा वाचा पूरण होय आस लक्ष्मी ल्यावे घर आंगन में, जिव्हा विराजे सुर की देवी ,खोल घडा दे दड़ा !! काला भैरूं खप्पर राखे,गौरा झांझर पांव लाल भैरूं,पीला भैरूं,पगां लगावे गाँव दशों दिशाओं में पञ्च पञ्च भैरूं !! पहरा लगावे आप !दोनों भैरूं मेरे संग में चालें बम बम करते जाप !! बावन भैरव मेरे सहाय हो गुरु रूप से ,धर्म रूप से,सत्य रूप से, मर्यादा रूप से, देव रूप से, शंकर रूप से, माता पिता रूप से, लक्ष्मी रूप से,सम्मान सिद्धि रूप से, स्व कल्याण जन कल्याण हेतु सहाय हो, श्री शिव गौरां पुत्र भैरव !! शब्द सांचा पिंड कांचा चलो मंत्र ईश्वरो वाचा प्रयोग व् साधना विधि सिद्धि की द्रष्टि से इस मन्त्र का विधि विधान अलग है, परन्तु साधारण रूप में मात्र 11 बार रोज जपने की आज्ञा है ! श्री शिव पुत्र भैरव आपकी सहायत करेंगे !चार लड्डू बूंदी के ,मन्त्र बोलकर 7 रविवार को काले कुत्ते को खिलाएं !! सर्व-कार्य सिद्ध करने वाला यह मंत्र अत्यन्त गुप्त और अत्यन्त प्रभावी है । इस मंत्र से केवल परोपकार के कार्य करने चाहिये २॰ उक्त मन्त्र का अनुष्ठान शनि या रविवार से प्रारम्भ करना चाहिए । एक पत्थर का तीन कोने वाला टुकड़ा लेकर उसे एकान्त में स्थापितबी करें । उसके ऊपर तेल-सिन्दूर का लेप करें । पान और नारियल भेंट में चढ़ाए । नित्य सरसों के तेल का दीपक जलाए । दीपक अखण्ड रहे, तो अधिक उत्तम फल होगा । मन्त्र को नित्य २७ बार जपे । चालिस दिन तक जप करें । इस प्रकार उक्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है । नित्य जप के बाद छार, छबीला, कपूर, केसर और लौंग की आहुति देनी चाहिए । भोग में बाकला, बाटी रखनी चाहिए । जब भैरव दर्शन दें, तो डरें नहीं, भक्ति-पूर्वक प्रणाम करें और उड़द के बने पकौड़े, बेसन के लड्डू तथा गुड़ मिला कर दूध बलि में अर्पित करें । मन्त्र में वर्णित सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।

जय श्रीराम आज आपके लिये यह हनुमत महा मंत्र देरहे है जिसके नियमित 21 बार सुवह पुजन के बाद चमेली की तेल का दीपक जलाकर पाठ करनेसे सभी समस्या पितृ दोष तथा रुके काम बनते जायेगे..... ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय वायु सुताय अञ्जनी गर्भ सम्भुताय अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन तत्पराय धवली कृत जगत् त्रितयाया ज्वलदग्नि सूर्यकोटी समप्रभाय प्रकट पराक्रमाय आक्रान्त दिग् मण्डलाय यशोवितानाय यशोऽलंकृताय शोभिताननाय महा सामर्थ्याय महा तेज पुञ्ज:विराजमानाय श्रीराम भक्ति तत्पराय श्रिराम लक्ष्मणानन्द कारकाय कपिसैन्य प्राकाराय सुग्रीव सौख्य कारणाय सुग्रीव साहाय्य कारणाय ब्रह्मास्त्र ब्रह्म शक्ति ग्रसनाय लक्ष्मण शक्ति भेद निबारणाय शल्य लिशल्यौषधि समानयनाय बालोदित भानु मण्डल ग्रसनाय अक्षयकुमार छेदनाय वन रक्षाकर समूह विभञ्जनाय द्रोण पर्वतोत्पाटनाय स्वामि वचन सम्पादितार्जुन संयुग संग्रामाय गम्भिर शव्दोदयाय दक्षिणाशा मार्तण्डाय मेरूपर्वत पीठिकार्चनाय दावानल कालाग्नी रूद्राय समुद्र लङ्घनाय सीताऽऽश्वासनाय सीता रक्षकाय राक्षसी सङ्घ विदारणाय अशोकबन विदारणाय लङ्कापुरी दहनाय दश ग्रीव शिर:कृन्त्तकाय कुम्भकर्णादि वधकारणाय बालि निबर्हण कारणाय मेघनादहोम विध्वंसनाय इन्द्रजीत वध कारणाय सर्व शास्त्र पारङ्गताय सर्व ग्रह विनाशकाय सर्व ज्वर हराय सर्व भय निवारणाय सर्व कष्ट निवारणाय सर्वापत्ती निवारणाय सर्व दुष्टादि निबर्हणाय सर्व शत्रुच्छेदनाय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी ध्वंसकाय सर्वकार्य साधकाय प्राणीमात्र रक्षकाय रामदुताय स्वाहा॥

दस महाविद्या रहस्य तंत्र के क्षेत्र में सबसे प्रभावी हैं दस महाविद्या। उनके नाम हैं-काली, तारा, षोडषी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला। गुण और प्रकृति के कारण इन सारी महाविद्याओं को दो कुल-कालीकुल और श्रीकुल में बांटा जाता है। साधकों का अपनी रूचि और भक्ति के अनुसार किसी एक कुल की साधना में अग्रसर हों। ब्रह्मांड की सारी शक्तियों की स्रोत यही दस महाविद्या हैं। इन्हें शक्ति भी कहा जाता है। मान्यता है कि शक्ति के बिना देवाधिदेव शिव भी शव के समान हो जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति भी इन्हीं में निहित हैं। सिक्के का दूसरी पहलू यह भी है कि शक्ति की पूजा शिव के बिना अधूरी मानी जाती है। इसी तरह शक्ति के विष्णु रूप में भी दस अवतार माने गए हैं। किसी भी महाविद्या के पूजन के समय उनकी दाईं ओर शिव का पूजन ज्यादा कल्याणकारी होता है। अनुष्ठान या विशेष पूजन के समय इसे अनिवार्य मानना चाहिए। उनका विवरण निम्न है-------- महाविद्या--------------शिव के रूप 1-काली------------------- महाकाल 2-तारा-------------------- अक्षोभ्य 3-षोडषी------------------ कामेश्वर 4-भुवनेश्वरी--------------- त्रयम्बक 5-त्रिपुर भैरवी------------ दक्षिणा मूर्ति 6-छिन्नमस्ता------------ क्रोध भैरव 7-धूमावती--------------- चूंकि विधवा रूपिणी हैं, अत: शिव नहीं हैं 8-बगला----------------- मृत्युंजय 9-मातंगी---------------- मातंग 10-कमला--------------- विष्णु रूप दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं-- महाविद्या----------- विष्णु के अवतार 1-काली--------------------कृष्ण 2-तारा---------------------मत्स्य 3-षोडषी--------------------परशुराम 4-भुवनेश्वरी----------------वामन 5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम 6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह 7-धूमावती-----------------वाराह 8-बगला---------------------कूर्म 9-मातंगी--------------------राम 10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है। दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।

अप्सरा साधना के नियम ================== अप्सराये अत्यंत सुंदर और जवान होती हैं. उनको सुंदरता और शक्ति विरासत में मिली है. वह गुलाब का इत्र और चमेली आदि की गंध पसंद करती हैं। तुमको उसके शरीर से बहुत प्रकार की खुशबू आती महसूस कर सकते हैं. यह गन्ध किसी भी पुरुष को आकर्षित कर सकती हैं। वह चुस्त कपड़े पहनना के साथ साथ अधिक गहने पहना पसंद करती है. इनके खुले-लंबे बाल होते है। वह हमेशा एक 16-17 साल की लड़की की तरह दिखती है। दरअसल, वह बहुत ही सीधी होती है। वह हमेशा उसके साधक को समर्पित रहती है। वह साधक को कभी धोखा नहीं देती हैं। इस साधना के दौरान अनुभव हो सकता है, कि वह साधना पूरी होने से पहले दिखाई दे। अगर ऐसा होता है, तो अनदेखा कर दें। आपको अपने मंत्र जाप पूरा करना चाहिए जैसा कि आप इसे नियमित रूप से करते थे। कोई जल्दबाजी ना करे जितने दिन की साधना बताई हैं उतने दिन पुरी करनी चाहिए। काम भाव पर नियंत्रण रखे। वासना का साधना मे कोई स्थान नहीं होता हैं। अप्सरा परीक्षण भी ले सकती हैं। जब सुंदर अप्सरा आती है तो साधक सोचता है, कि मेरी साधना पूर्ण हो गया है। लेकिन जब तक वो विवश ना हो जाये तब तक साधना जारी रखनी चाहिए। कई साधक इस मोड़ पर, अप्सरा के साथ यौन कल्पना लग जाते है। यौन भावनाओं से बचें, यह साधना ख़राब करती हैं। जब संकल्प के अनुसार मंत्र जाप समाप्त हो और वो आपसे अनुरोध करें तो आप उसे गुलाब के फूल और कुछ इत्र दे। उसे दूध का बनी मिठाई पान आदि भेंट दे। उससे वचन ले ले की वह जीवन-भर आपके वश में रहेगी। वो कभी आपको छोड़ कर नहीं जाएगी और आपक कहा मानेगी। जब तक कोई वचन न दे तब तक उस पर विश्वास नही किया जा सकता क्योंकि वचन देने से पहले तक वो स्वयं ही चाहती हैं कि साधक की साधना भंग हो जाये। किसी भी साधना मैं सबसे महत्वपुर्ण भाग उसके नियम हैं. सामान्यता सभी साधना में एक जैसे नियम होते हैं. परतुं मैं यहाँ पर विशेष तौर पर यक्षिणी और अप्सरा साधना में प्रयोग होने वाले नियम का उल्लेख कर रहा हूँ । 1. ब्रह्मचये : सभी साधना मैं ब्रह्मचरी रहना परम जरुरी होता हैं. सेक्स के बारे में सोचना, करना, किसी स्त्री के बारे में विचारना, सम्भोग, मन की अपवित्रा, गन्दे चित्र देखना आदि सब मना हैं, अगर कुछ विचारना हैं तो केवल अपने ईष्ट को, आप सदैव यह सोचे कि वो सुन्दर सी अलंकार युक्त अप्सरा या देवी आपके पास ही मौजुद हैं और आपको देख रही हैं. और उसके शरीर में से ग़ुलाब जैसी या अष्टगन्ध की खुशबू आ रही हैं । साकार रुप मैं उसकी कल्पना करते रहो. 2. भूमि शयन : केवल जमीन पर ही अपने सभी काम करें. जमीन पर एक वस्त्र बिछा सकते हैं और बिछना भी चाहिए 3. भोजन : मांस, शराब, अन्डा, नशे, तम्बाकू, लहसुन, प्याज आदि सभी का प्रयोग मना हैं. केवल सात्विक भोजन ही करें. 4. वस्त्र : वस्त्रो में उन्ही रंग का चुनाव करें जो देवता पसन्द करता हो.( आसन, पहनने और देवता को देने के लिये) (सफेद या पीला अप्सरा के लिये) 5. क्या करना हैं :- नित्य स्नान, नित्य गुरु सेवा, मौन, नित्य दान, जप में ध्यान- विश्वास, रोज पुजा करना आदि अनिवार्य हैं. और जप से कम से कम दो-तीन घंटे पहले भोजन करना चाहिए 6. क्या ना करें :- जप का समय ना बद्ले, क्रोध मत करो, अपना आसन किसी को प्रयोग मत करने दो, खाना खाते समय और सोकर जागते समय जप ना करें. बासी खाना ना खाये, चमडे का प्रयोग ना करना, साधना के अनुभव साधना के दोरान किसी को मत बताना (गुरु को छोडकर) 7. मंत्र जप के समय कृपा करके नींद्, आलस्य, उबासी, छींक, थूकना, डरना, लिंग को हाथ लगाना, बक्वास, सेल फोन को पास रखना, जप को पहले दिन निधारित संख्या से कम-ज्यादा जपना, गा-गा कर जपना, धीमे-धीमे जपना, बहुत् तेज-तेज जपना, सिर हिलाते रहना, स्वयं हिलते रहना, मंत्र को भुल जाना( पहले से याद नहीं किया तो भुल जाना ), हाथ-पैंर फैलाकर जप करना, पिछ्ले दिन के गन्दे वस्त्र पहनकर मंत्र जप करना, यह सब कार्य मना हैं (हर मंत्र की एक मुल ध्वनि होती हैं अगर मुल ध्वनि- लय में मंत्र जपा तो मज़ा ही जायेगा, मंत्र सिद्धि बहुत जल्द प्राप्त हो सकती हैं जो केवल गुरु से सिखी जा सकती हैं ) 8. यादि आपको सिद्धि करनी हैं तो श्री शिव शंकर भगवान के कथन को कभी ना भुलना कि “जिस साधक की जिव्हा परान्न (दुसरे का भोजन) से जल गयी हो, जिसका मन में परस्त्री (अपनी पत्नि के अलावा कोई भी) हो और जिसे किसी से प्रतिशोध लेना हो उसे भला केसै सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं” 9. एक सबसे महत्वपुर्ण कि आप जिस अप्सरा की साधना उसके बारे में यह ना सोचे कि वो आयेगी और आपसे सेक्स करेंगी क्योंकि वासना का किसी भी साधना में कोई स्थान नहीं हैं । बाद कि बातें बाद पर छोड दे । क्योंकि सेक्स में उर्जा नीचे (मुलाधार) की ओर चलती हैं जबकि साधना में उर्जा ऊपर (सहस्त्रार) की ओर चलती हैं 10. किसी भी स्त्री वर्ग से केवल माँ, बहन, प्रेमिका और पत्नी का सम्बन्ध हो सकता हैं । यही सम्बन्ध साधक का अप्सरा या देवी से होता हैं। 11.यह सब वाक सिद्ध होती हैं । किसी के नसिब में अगर कोई चीज़ ना हो तब भी देने का समर्थ रखती हैं । इनसे सदैव आदर से बात करनी चाहिए।.........................

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...