Wednesday, 15 September 2021

मंत्रों का पाठ 108 बार ही क्यों?

मंत्रों का पाठ 108 बार ही क्यों?
आखिर क्या है राज 108 का

* जप करने वाले व्यक्ति को एक बार में 108 जाप पूरे करने चाहिए। इसके बाद सुमेरु से माला पलटकर पुनः जाप आरंभ करना चाहिए। 

* तारक मंत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ माला तुलसी की मानी जाती है। 

* माला के 108 मनके हमारे हृदय में स्थित 108 नाड़ियों के प्रतीक स्वरूप हैं। 

* माला का 109वां मनका सुमेरु कहलाता है। 

* माला को अंगूठे और अनामिका से दबाकर रखना चाहिए और मध्यमा उंगली से एक मंत्र जपकर एक दाना हथेली के अंदर खींच लेना चाहिए। 

* माला के दाने कभी-कभी 54 भी होते हैं। ऐसे में माला फेर कर सुमेरु से पुनः लौटकर एक बार फिर एक माला अर्थात् 54 जप पूरे कर लेना चाहिए। 

* मानसिक रूप से पवित्र होने के बाद किसी भी सरल मुद्रा में बैठें जिससे कि वक्ष, गर्दन और सिर एक सीधी रेखा में रहे। 

* मंत्र जप पूरे करने के बाद अंत में माला का सुमेरु माथे से छुआकर माला को किसी पवित्र स्थान में रख देना चाहिए। 

* मंत्र जप में कर-माला का प्रयोग भी किया जाता है। 

* जिनके पास कोई माला नहीं है वह कर-माला से विधि पूर्वक जप करें। कर-माला से मंत्र जप करने से भी माला के बराबर जप का फल मिलता है।

देवी महाकाली

देवी महाकाली, काल भैरव और शनि देव ऐसे देवता हैं जिनकी उपासना के लिए बहुत कड़े परिश्रम, त्याग और ध्यान की आवश्यकता होती है। तीनों ही देव बहुत कड़क, क्रोधी और कड़ा दंड देने वाले माने जाते है। धर्म की रक्षा के लिए देवगणों की अपनी-अपनी विशेषताएं है। किसी भी अपराधी अथवा पापी को दंड देने के लिए कुछ कड़े नियमों का पालन जरूरी होता ही है। लेकिन ये तीनों देवगण अपने उपासकों, साधकों की मनाकामनाएं भी पूरी करते हैं। कार्यसिद्धि और कर्मसिद्धि का आशीर्वाद अपने साधकों को सदा देते रहते हैं।

भगवान भैरव की उपासना बहुत जल्दी फल देती है। इस कारण आजकल उनकी उपासना काफी लोकप्रिय हो रही है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि भैरव की उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है। शनि की पूजा बढ़ी है। अगर आप शनि या राहु के प्रभाव में हैं तो शनि मंदिरों में शनि की पूजा में हिदायत दी जाती है कि शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। मान्यता है कि 40 दिनों तक लगातार काल भैरव का दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है। इसे चालीसा कहते हैं। चन्द्रमास के 28 दिनों और 12 राशियां जोड़कर ये 40 बने हैं।

पूजा में शराब, मांस ठीक नहीं
हमारे यहां तीन तरह से भैरव की उपासना की प्रथा रही है। राजसिक, सात्त्विक और तामसिक। हमारे देश में वामपंथी तामसिक उपासना का प्रचलन हुआ, तब मांस और शराब का प्रयोग कुछ उपासक करने लगे। ऐसे उपासक विशेष रूप से श्मशान घाट में जाकर मांस और शराब से भैरव को खुश कर लाभ उठाने लगे।

लेकिन भैरव बाबा की उपासना में शराब, मांस की भेंट जैसा कोई विधान नहीं है। शराब, मांस आदि का प्रयोग राक्षस या असुर किया करते थे। किसी देवी-देवता के नाम के साथ ऐसी चीजों को जोड़ना उचित नहीं है। कुछ लोगों के कारण ही आम आदमी के मन में यह भावना जाग उठी कि काल भैरव बड़े क्रूर, मांसाहारी और शराब पीने वाले देवता हैं। किसी भी देवता के साथ ऐसी बातें जोड़ना पाप ही कहलाएगा।

काल भैरव

काल भैरव का नाम सुनते ही एक अजीब-सी भय मिश्रित अनुभूति होती है। एक हाथ में ब्रह्माजी का कटा हुआ सिर और अन्य तीनों हाथों में खप्पर, त्रिशूल और डमरू लिए भगवान शिव के इस रुद्र रूप से लोगों को डर भी लगता है, लेकिन ये बड़े ही दयालु-कृपालु और जन का कल्याण करने वाले हैं।

भैरव शब्द का अर्थ ही होता है भरण-पोषण करने वाला, जो भरण शब्द से बना है। काल भैरव की चर्चा रुद्रयामल तंत्र और जैन आगमों में भी विस्तारपूर्वक की गई है। शास्त्रों के अनुसार कलियुग में काल भैरव की उपासना शीघ्र फल देने वाली होती है। उनके दर्शन मात्र से शनि और राहु जैसे क्रूर ग्रहों का भी कुप्रभाव समाप्त हो जाता है। काल भैरव की सात्त्विक, राजसिक और तामसी तीनों विधियों में उपासना की जाती है।

इनकी पूजा में उड़द और उड़द से बनी वस्तुएं जैसे इमरती, दही बड़े आदि शामिल होते हैं। चमेली के फूल इन्हें विशेष प्रिय हैं। पहले भैरव को बकरे की बलि देने की प्रथा थी, जिस कारण मांस चढ़ाने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन अब परिवर्तन आ चुका है। अब बलि की प्रथा बंद हो गई है।

शराब इस लिए चढ़ाई जाती है क्योंकि मान्यता है कि भैरव को शराब चढ़ाकर बड़ी आसानी से मन मांगी मुराद हासिल की जा सकती है। कुछ लोग मानते हैं कि शराब ग्रहण कर भैरव अपने उपासक पर कुछ उसी अंदाज में मेहरबान हो जाते हैं जिस तरह आम आदमी को शराब पिलाकर अपेक्षाकृत अधिक लाभ उठाया जा सकता है। यह छोटी सोच है।

आजकल धन की चाह में स्वर्णाकर्षण भैरव की भी साधना की जा रही है। स्वर्णाकर्षण भैरव काल भैरव का सात्त्विक रूप हैं, जिनकी पूजा धन प्राप्ति के लिए की जाती है। यह हमेशा पाताल में रहते हैं, जैसे सोना धरती के गर्भ में होता है। इनका प्रसाद दूध और मेवा है। यहां मदिरा-मांस सख्त वर्जित है। भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। इस कारण इनकी साधना का समय मध्य रात्रि यानी रात के 12 से 3 बजे के बीच का है। इनकी उपस्थिति का अनुभव गंध के माध्यम से होता है। शायद यही वजह है कि कुत्ता इनकी सवारी है। कुत्ते की गंध लेने की क्षमता जगजाहिर है।

होरा कार्याऽकार्य विवेचना

होरा कार्याऽकार्य विवेचना
रवि की होरा - संगीत वाद्यादि शिक्षा, स्वास्थ्य, विचार औषधसेवन, मोअर यान, सवारी, नौकरी, पशु खरीदी, हवन मंत्र, उपदेश, शिक्षा, दीक्षा, अस्त्र, शस्त्र धातु की खरीद व बेचान, वाद-विवाद, न्याय विषयक सलाह कार्य, नवीन कार्य पद ग्रहण तथा राज्य प्रशासनिक कार्य, सेना संचालन आदि कार्य शुभ।

सोम की होरा - कृषि खेती यंत्र खरीदी, बीज बोना, बगीचा, फल, वृक्ष लगाना, वस्त तथा रत्न धारण, औषध क्रय-विक्रय, भ्रमण-यात्रा, कला-कार्य, नवीन कार्य, अलंकार धारण, पशुपालन, स्त्रीभूषण क्रय-विक्रय करने हेतु शुभ।

मंगल की होरा - भेद लेना, ऋण देना, गवाही, चोरी, सेना-संग्राम, युद्ध नीति-रीति, वाद-विवाद निर्णय, साहस कृत्य आदि कार्य शुभ, पर मंगल का ऋण लेना अशुभ है।

बुध की होरा -ऋण लेना अहितकर तथा शिक्षा-दीक्षा विष्ज्ञयक कार्य, विद्यारंभ, अध्ययन चातुर्य कार्य, सेवावृत्ति, बही-खाता, हिसाब विचार, शिल्प काय्र निर्माण कार्य, नोटिस देना, गृह -प्रवेश, राजनीति विचार, शालागमन शुभ है।

गुरू की होरा- ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा, धर्म-न्याय विषयक कार्य, अनुष्ठान, साइंस, कानूनी व कला संकाय शिक्षा आरंभ, शांति पाठ, मांगलिक कार्य, नवीन पद ग्रहण, वस्त आभूषण धारण, यात्रा, अंक, अेक्टर, इंजन, मोटर, यान, औषध सेवन व निर्माण शुीा साथ ही शपथ ग्रहण शुभद।

शुक्र की होरा - गुप्त विचार गोष्ठी, प्रेम-व्यवहार, मित्रता, वस्त्र, मणिरत्न धारण तथा निर्माण, अंक, इत्र, नाटक, छाया-चित्र, संगीत आदि कार्य शुभ, भंडार भरना, खेती करना, हल प्रवाह, धन्यरोपण, आयु, ठान, शिक्षा शुभ।

शनि की होरा - गृह प्रवेश व निर्माण, नौकर चाकर रखना, धातुलोह, मशीनरी, कलपुर्जों के कार्य, गवाही, व्यापार विचार, वाद-विवाद, वाहन खरीदना, सेवा विषयक कार्य करना शुभ। परन्तु बीज बोना, कृषि खेती कार्य शुभ नहीं।

भगवान शिव

भगवान शिव 
महेशान्ना परो देवो , महिम्नो ना परा स्तुति |
अघोरान्ना परो मंत्रो , नास्ति तत्वं गुरूः परम ||
महेश ( भगवान शंकर ) से बड़ा कोई देवता नहीं है , शिव महिम्न स्तोत्र से बड़ा कोई स्तोत्र नहीं है | अघोर मंत्र से बड़ा कोई मंत्र नहीं है | गुरु से बड़ा कोई तत्व नहीं है |
जिसके घर में नियमित रूप से,भक्ति-भाव से, शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ होता हो उसके बारे में श्री पुष्पदंत ऋषि कहते हैं कि वो व्यक्ति तो रूद्र का साक्षात रूप हो जाता है, शिव कि विशेष कृपा का वो अधिकारी हो जाता है |

कामाख्या देवी ध्यान

कामाख्या देवी ध्यान
जय कामेशि चामुण्डे जय भूतापहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
नमों देविमहाविद्ये ! सृष्टिस्थित्यन्त कारिणी ।
नमः कमल पत्राक्षि ! सर्वाधारे नमोऽस्तु ते ॥
सविश्वतैजसप्राज्ञ वराट्ं! सूत्रात्मिके नमः ।
नमोव्याकृतरुपायै कूटस्थायै नमो नमः ॥
कामाक्ष्ये सर्गादिरहिते दुष्टसंरोधनार्गले ! ।
निरर्गल प्रेमगम्ये ! भर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते ॥
नमः श्री कालिके ! मातर्नमो नील सरस्वति ।
उग्रतारे महोग्रे ते नित्यमेव नमोनमः ॥
छिन्नमस्ते ! नमस्तेऽस्तु क्षीरसागर कन्यके ।
नमः शाकम्भरि शिवे ! नमस्ते रक्तदन्तिके ॥
निशुम्भ शुम्भदलनि ! रक्तबीज विनाशिनि ।
धूम्रलोचन निर्णासे ! वृत्रासुरनिबर्हिणिं ॥
चण्डमुण्ड प्रमथिनि ! दानवान्त करे शिवे ! ।
नमस्ते विजये गंगे शारदे ! विकटानने ॥
पृथ्वीरुपे दयारुपे तेजोरुपे ! नमो नमः ।
प्राणरुपे महारुपे भूतरुपे ! नमोऽस्तु ते ॥
विश्वमूर्ते दयामूर्ते धर्ममूर्ते नमो नमः ।
देवमूर्ते ज्योतिमूर्ते ज्ञानमूर्ते नमोऽस्तु ते ॥
कामाख्ये काम रुपस्थे कामेश्वरी हर प्रिये ।
कामांश्च देहि मे नित्यं कामेश्वरि नमोस्तुते ॥

श्री काली-शाबर मंत्र

श्री काली-शाबर मंत्र
।। तृतीय ‘काली-शाबर’ पटल ।।
।। श्रीदेव्युवाच ।।
देवश ! श्रोतुमिच्छामि, काली-शाबर-साधनम् ।
ललाटे कुल-पुष्पं च, हस्ते दिव्य-कुशाः शिवे ! ।। १
कुलासनं कुल-पानं, कुल-शय्या कुल-गृहम् ।
कुल-द्रव्यं सदा पेयं, काली-मन्त्र-प्रजापकैः ।। २
दक्षस्था दक्ष-हस्ते च, वामस्था वाम-हस्तगाः ।
एवं कुशाश्च सन्धार्याः, सिद्धयर्थं कालिका-परैः ।। ३
शुक्रेण पूजनं कार्यं, शुक्रेण पूजनं सदा ।
शुक्रेण मार्जनं कुर्याच्छुक्रेण पाक-भोजने ।। ४
सर्वं शुक्रेण कर्त्तव्यं, काली-दर्शनमिच्छता ।
स्वयम्भू-कुसुमेनैव, सर्व-स्नानादिकं चरेत् ।। ५
स्नानं भग-जलैः कार्यं, कालिका-भग-चिन्तकैः ।
वरं काल्या नहेशानि ! बलि-दानं समाचरेत् ।। ६
ॐ हँ कालि ! क्रूं काली, पुलकित-पुलकित-स्त्री-पुरुष-राजा-कर्षिणि मे वश कर नु वर स्वाहा । ॐ नमो भगवति ! रुद्र-काली, महा-काली, महेश्वर-काली, नन्दीश्वर-काली, इन्द्र-काली, परितः काली, भद्र-काली, वज्र-काली सर-सर, पुर-पुर, हर-हर, तुरु-तुरु, धुन-धुन, आवेशय-आवेशय, गर्ज्ज-गर्ज्ज, भण-भण कपालेश्वरि ! शूल-धारिणि ! ॐ क्रों फ्रों हन-हन अह चामुण्डेश्वरि ! स्वाहा ।।
अनेन मन्त्र-राजेन, सर्वदा बलिमाचरेत् ।
ॐ ह्रीं कालि-कालि ! महा-काली मांसशो जने रक्त-कृष्ण-मुखि, देवि ! मांसे पश्यन्तु मानुषाः स्वाहा ।।
एवं बलि-प्रयोगेन, सर्वं सिद्धयति पार्वति ! ।। ७
चक्रवर्त्यादि जीवानां, बलि-दानमथो श्रृणु -
ॐ कंकाली-काली ! नव-नाड़ी, बहत्तरि-जाली ! माह्रो शत्रु, ताह्रो भक्ष्य-भक्ष्य, गृह्ण-गृह्ण फट् स्वाहा ।।
बलि मन्त्राख्यं चिता, शत्रूणां बलिमाहरेत् ।। ८
सिद्धोऽपि शत्रु-वर्यश्चेत्, सर्वदा नश्यतु ध्रुवम् ।
साधकस्य महा-काली, बलि-मात्रेण सिद्धिदा ।। ९
सैन्योच्चाटनं नामानं, बलिं संश्रृणु पार्वती !
काली-वने ततो गत्वा, काली-मन्त्र-परायणः ।। १०
शवं पादेन सम्पाड्य, शंख-माला कराम्बुजे ।
खड्ग-हस्तो दिशा-वासो, मुक्त-केशो लताऽन्वितः ।। ११
सिन्दूर-तिलको मतो, सदा घूर्णित-लोचनः ।
कामिनी-हृदयानन्द, वारीवज्जल-लोचनाम् ।। १२
स्वयम्भू-कुसमं भाले, ताम्बुलैः पूरिताननः ।
शनि-भौम-दिने वापि, जातं कुण्डं समाहरेत् ।। १३
तत्-कपाले बलिं दद्यात्, कृशरान्न-मधूपकौ ।
सुरा-घृतं मधु शिवे ! कदली-पुष्पमेव च ।। १४
कसली-वीचपूरश्च, पनसस्तित्तिडी-फलम् ।
आमलक्यभयारिष्टा, मूष-मार्जार-कुक्कुटा ।। १५
अजावि महिषी देवि ! एको दुष्ट-तरः शिवे !
नाना-जाति-पक्षिरन्नैर्नानाऽऽसव-रसैरपि ।। १६
बलिं श्मशाने सन्दद्यात्, विजयार्थं नरोत्तमैः ।
मन्त्रेणानेन देवशि ! बलि-दानं समाचरेत् ।। १७
ॐ कालिका देवो काल-रुपिणी, महा-काल-दमनी, अमुकोच्चाटनार्थं मद्-दृष्टया मम भयं हर-हर स्वाहा ।।
अनेनास्त्रेण देवशि ! शत्रु-सैन्य-बलिं हरेत् ।
सैन्यस्योच्चाटनं कुर्यात्, बिना वासादिना प्रिये ! ।। १८
सर्वत्र मदिरा-दानं, सर्वत्र सर्व-शाबरे ।
इति संक्षेपतः प्रोक्तं, किमन्यत् श्रोतुच्छसि ।। १९
।। इति श्रीकाली-शाबरे शिव-पार्वती-सम्वादे काली-शाबरस्तृतीयः पटलः ।।
।। पण्डित विनायक धर दुवेदेन लिपि-कृतं-सम्वत १९४९, मार्गशीर्ष-कृष्ण-दशम्यां, चन्द्र-वासरे, काश्याम् ।।

श्री काली-शाबर मंत्र

श्री काली-शाबर मंत्र
।। प्रथम ‘परिभाषा’ पटल ।।
श्रृणु पार्वति ! वक्ष्यामि, सिद्ध शाबर-साधनम् ।
षट्-पञ्चाशन् महा-देशाः, कादि-हादि-क्रमाद् द्विधाः ।। १
षट्-त्रिंशज्जाति-भेदैश्च, प्रत्येकं भेद-भाजितैः ।
अनन्त-संख्यं देवशि ! तत्रापि द्विविधं शिवे ! ।। २
नाथोक्तं शंकर-प्रोक्तं, नाथोक्तं देश-भेदतः ।
शिवोक्तं रुप भेदेन, तत्र नाथाभिधे शिवे ! ।। ३
चतुराशीति-सिद्धोक्तं, नाथोक्तं द्विविधं मतम् ।
तन्नामानि प्रवक्ष्यामि, श्रृणु सावहिता भव ।। ४
‘शाबरं’ प्रथमं देवि ! द्वितीयं ‘सिद्ध-शाबरम्’ ।
‘कुमारी-शाबरं’ देवि ! ‘विजया-शाबरं’ तथा ।। ५
‘कालिका-शाबरं’ चैव, षष्ठं च ‘काल-शाबरं’ ।
‘दिव्य-शाबर’ – नामानमष्टमं ‘वीर-शाबरम्’ ।। ६
‘श्रीनाथ-शाबरं’ देवि ! ‘योगिनी-शाबरं तथा ।
‘तारिणी-शाबरं’ देवि ! द्वादशं ‘शम्भु-शाबरम् ।। ७
सूर्य-संख्या-शाबरे तु, साधना सम-रुपिणी ।
‘अघोर-शाबरं’ देवि ! भिन्नमेव त्रयोदशम् ।। ८
अघोरेऽपि समा देवि ! तानहो वच्मि संश्रृणु ।
‘विडघोरो’ भवेद् वज्रो, चामरी मूत्र-योगतः ।। ९
पशु-योगे तु परमी, द्वितीया सुरभी मता ।
वटुके श्रीकरी ज्ञेया, महा-काले शिवन्धरो ।। १०
शुक्रे तु सुन्दरा रम्भा, रक्ते कैवल्य-वेतना ।
रक्ताघोरस्तु प्रथमः, शुक्राघोरो द्वितीयकः ।। ११
विरा-मूत्राघोरकौ देवि ! प्रत्येकं द्वि-विधौ शिवे !
पशो स्वस्य परस्याथ, प्रत्येकं त्रिविधा क्रमात् ।। १२
वटु-वीरे कुक्कुरस्य, शिवायोः काल-गोचरः ।
गो-जन्यस्तारिणी-मन्त्रे, काल्यां तु शुक्र-रक्तजः ।। १३
भक्ष्याघोरः पञ्चम स्याद्, वान्त्यघोरस्तदन्ततः ।
चीनाघोरस्तथा नीलाघोरोऽपि परमेश्वरि ! ।। १४
नवमः सर्व-भक्ष्याख्यो, घोरोघोरो हि दुर्लभः ।
सिद्धाघोरस्तथा प्रोक्तः, सर्व-घोरस्तदन्ततः ।। १५
तथैव गारुडं देवि ! दशधा परि-कीर्तितम् ।
श्रीवेद-गरुडं देवि ! गारुडं वीर-गारुडम् ।। १६
श्रीकृष्ण-गारुडं देवि ! तदन्ते मन्त्र-गारुडम् ।
यन्त्र-गारुडकं देवि ! तदन्ते सिद्ध गारुडम् ।। १७
श्रीनाथ-गारुडं देवि ! चाघोर-गारुडं तथा ।
दशमं शाबरं नाम, गारुडं दशधा मतम् ।। १८
दशधा गारुडे देवि ! साधना शाबरोद्-गता ।
पूर्वाम्नाये वीर-शैवाः, तदन्ते वीर-वैष्णवाः ।। १९
पिशाचोच्छिष्ट-गणपाः, पश्चिमे परिकीर्तिता ।
उत्तरे घोर-भेदाश्च, ऊर्ध्वे शाबर-जातयः ।। २०
पाताले च पाशुपतास्तथा कापालिकाः शिवे !
शाबरागम-नामाख्यो महाऽऽम्नायः प्रकीर्त्तितः ।। २१
इति संक्षेपतः प्रोक्तं, श्रृणुष्व काल-शाबरम् ।
सुरया होमयेद् देवि ! सर्व-शाबर-सिद्धये ।। २२
कुमार-शाबरे देवि ! काञ्जिक्या होममाचरेत् ।
कालिका-शाबरे देवि ! डाकिन्या होममाचरेत् ।। २३
तारिणी-शाबरे देवि ! स्फाटिक्या होममाचरेत् ।
योगिनी-शाबरे देवि ! विजया-वीजमीरितम् ।। २४
श्ेीनाथ-शाबर देवि ! विजया – पत्रमेव च ।
विजया-वीज-होमेन, सर्व-शाबर-साधनम् ।। २५
विजया-पुष्प-होमेन, चातुर्वर्ण्य-क्रमेण च ।
होमयेत् परमेशानि ! पुरुषार्थ – चतुष्टये ।। २६
विजया-शाबरे देवि ! मांषेन सर्व-साधनम् ।
वीर-शाबर-तन्त्रेण, गुग्गुलं प्रथमं हुनेत् ।। २७
लोह-वाण-सुराद्यैश्च, शम्भु-शाबर-साधनम् ।
कादम्बर्या महेशानि ! दिव्य-शाबर-साधनम् ।। २८
जटामांस्या हुनेद् देवि ! काल-शाबर-साधने ।
हुनेद् रोचनया देवि ! सिद्ध-शाबर-साधने ।। २९
अघोर-शाबरे देवि ! दाडिमी-पुष्प-पूजनम् ।
तुम्बी-फलं सदा भक्ष्यं, सर्वदा मद्य-भक्षकः ।। ३०
अघोरे शाबरस्यैषा, साधना परिकीर्त्तिता ।
धानको-पुष्प-होमेन, सर्व-शाबर-साधनम् ।। ३१
कुचन्दनं चन्दनं च, कर्वीर-कुसमानि च ।
बिल्व-पुष्पाणि देवेशि ! आरक्तानि विशेषतः ।। ३२
धूपो गुग्गुल-सम्भूतः, सुरा-धाता-हुतावचि ।
नैवेद्यो मांस-सम्भूतः, सम्विद्-वीजानि चर्वणम् ।। ३३
धातकी बिल्व-पुष्पेषु, सर्व-पुष्पोत्तमोत्तमे ।
आसनं व्याघ्र-चर्मादि, मुण्ड-वीरादिकं च वा ।। ३४
माला मुण्डास्थि-सम्भूता, सर्प-मत्स्यास्थि-मालिका ।
अरिष्टजां वा सर्वार्थे, कपालं पात्रमुत्तमम् ।। ३५
यत्र तुम्बी नारिकेलं, तथैव शर्करोद्भवम् ।
गन्धर्वाख्यो महा-वेषः, सिद्ध-वेषः शुभावहः ।। ३६
श्मशाने विजनेऽरण्ये, कामिनी-नृत्य-मण्डले ।
एडूके विपिने प्रान्ते, शय्यायामंगने गृहे ।। ३७
वेश्या-वेश्मनि नद्यां च, तडागे गिरि-गह्वरे ।
शाबरं साधयेद् देवि ! भूयो वा साधयेद् यती ।। ३८
नराणां क्षत्रियाणां च, वटुकः शाबरागमः ।
नेत्र-द्वयमिदं प्रोक्तं, कल्प-मार्गेण साधयेत् ।। ३९
नेत्र-द्वयं-विहीनो यः, क्षत्रियश्चात्महा कलौ ।
नेत्र-द्वयं सदा रक्ष्यं, क्षत्रियैर्मानवैरपि ।। ४०
विना मांसेन मद्येन्, सम्विद्-वीजैर्विना प्रिये !
यः शाबरं साधयितुं, समुद्युक्तः स नश्यति ।। ४१
सुधा-सीध्वासवारिष्टैः, स्फाटिक्याद्यैरपि प्रिये ।। ४२
कादम्बरी सुमाध्वीकैर्मैरेयाद्यैरपि प्रिये !
शाबरं नार्चयेद् यस्तु, स पापीयः सुखी कथम् ।। ४३
मद्य-मांसादिना देवि ! शाबरे सर्वदाऽर्चनम् ।
शाबराणामघोराणां, मद्यादौ साधना समा ।। ४४
न शाबरे ब्रह्म-चर्यां, ब्रह्मचर्यं क्वचिद् भवेत् ।
न विद्वेषो न वा शौचो, न वा मास-विकल्पना ।। ४५
न काल-नियमः क्वापि, शाबरागम-साधने ।
इक्षु-दण्डो गुडश्चैव, मिष्ठं सर्व-विधो शिवे ! ।। ४६
शाबरादौ प्रसिद्धं च, फल-मात्रं विशेषतः ।
विजया सर्वदा भक्ष्या, मांसं भक्ष्यं सदैव तु ।। ४७
इति संक्षेपतः प्रोक्तं, किमन्यत् श्रोतुमर्हसि ।। ४८
।। इति श्रीकाली-शाबरे शिव-पार्वती-सम्वादे वटुक-प्रोक्तं परिभाषा-पटलः प्रथमं समाप्तम् ।।

तिव्र चण्डिका स्तोत्र

तिव्र चण्डिका स्तोत्र

या देवी खड्गहस्ता सकलजनपदव्यापिनी विश्वदुर्गा,
श्यामांगी शुक्लपाश द्वीजगणगुणिता ब्रह्म देहार्थवासा।
ज्ञानानां साधयित्री यतिगिरीगमनज्ञान दिव्य प्रबोधा
सा देवी दिव्यमुर्ती: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।१।।

ह्रां ह्रीं ह्रुं चर्ममुण्डे शवगमनहते भीषणे भमवक्त्रे
क्रां क्रीं क्रुं क्रोधमुर्तीर्विकृत-कुचमुखे रौद्र द्रंष्ट्रांकराले।।
कं कं कंकाल धारीभ्रमसी जगदीदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती
हुंकार चोच्चरन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।२।। 

ह्रां ह्रीं ह्रुं रुद्ररुपे त्रिभुवनमिते पाशहस्ते त्रिनेत्रे
रां रिं रुं रंगरंगे किलिकिलीतरवे शुलहस्ते प्रचण्डे।
लां लीं लुं लम्बजिव्हे हसती कहकहा - शुद्धघोराट्टहासे
कंकाली काल रात्री: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।३।।

घ्रां घ्रीं घ्रुं घोररुपे घघघघघटिते धुर्धुरारावघोरे
निर्मांसी शुष्कजंघे पिबतु नरवसाधुम्र धुम्रायमाने।
ॐ द्रां द्रीं द्रुं द्रावयन्ती सकलभुवी तथा यक्ष गन्धर्वनागान्
क्षां क्षीं क्षुं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।४।।

भ्रां भ्रीं भ्रुं चण्डगर्वे हरिहरनमिते रुद्र मुर्तीश्च कीर्ती
श्चन्द्रादित्यौ च कर्णौ जडमुकुडशिरोवेष्टीता केतुमाला
स्त्रक् सर्वौ चोरगेन्द्रौ शशिकीरणनिभा तारकाहार कण्ठा
सा देवी दिव्य मुर्ती:प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।५।।

खं खं खं खड्ग हस्ते वरकनकनिभे सुर्यकान्ते स्वतेजो
विधुज्ज्वालाबलिनां नवनिशितमहाकृत्तिका दक्षिणे च।
वामे हस्ते कपालं वरविमलसुरापुरितं धारयन्ती
सा देवी दिव्यमुर्ती:प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।६।।

हुं हुं फट् काल रात्री रु रु सुरमथनी धुम्रमारी कुमारी
ह्रां ह्रीं ह्रुं हत्तीशोरौक्षपितु किलकिला शब्द अट्टा ट्टहासे।
हा हा भूत प्रसुते किलकिलतमुखा कलियन्ती ग्रसन्ती
हुंकार चोच्चरन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।७।।

भ्रींगी काली कपालीपरिजन सहिते चण्डीचामुण्डनित्वा
रों रों रों कार नित्ये शशिकरधवले काल कुटे दुरन्ते।
हुं हुं हुं कारकारी सुरगणनमिते कालकारी विकारी
वश्ये त्रैलोक्यकारी प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।८।।

वन्दे दण्ड प्रचण्डा डमरु रुणिमणिष्टोपटंकार घण्टै
र्न्रित्यन्ती याट्टपातैरुट पट विभवै र्निर्मला मंत्रमाला।
सुक्षौ कुक्षौ वहन्ती खरखरितसखा चार्चिनि प्रेत माला
मुच्चैस्तैश्चाट्टहासे धुरुं रितखा चर्म मुण्डा चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।९।।

त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री शवशिखीगमना त्वं च देवी कुमारी
त्वं चक्री चक्रहस्ता घुरघुरितरवा त्वं वराह स्वरुपा।
रौद्रे त्वं चर्ममुण्डा सकलभुवी परे संस्थिते स्वर्गमार्गे
पाताले शैलभ्रींगे हरिहरनमिते देवी चण्डे नमस्ते।।१०।।

रक्ष त्वं मुण्उधारि गिरिवरविवरे निर्झरे पर्वते वा
संग्रामे शत्रुमध्ये विशविशभविके संकटे कुत्सिते वा
व्याघ्रे चौरे च सर्पेप्युदधिभुवि तथा वहीमध्ये च दुर्गे
रक्षेत् सा दिव्यमुर्ती: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।११।।

इत्येवं बिजमन्त्रै: स्तवनमति शिवं पातकं व्याधीनाशं,
प्रतयक्षं दिव्य रुपं ग्रहणमथनं मर्दनं शाकीनिनाम्
इत्येवं वेगवेगं सकलभयहरं मन्त्रशक्तिश्च नित्यं
मन्त्राणां स्तोत्रकंय: पठती स लभते प्रार्थितां मन्त्र सिद्धीम्।।१२।।

श्रीयंत्र पूजा से मिलती है। अद्भुत शक्तियां

श्रीयंत्र पूजा से मिलती है। अद्भुत शक्तियां

शास्त्रों का कथन है कि श्रीयंत्र के दर्शन मात्र से ही इसकी अद्भुत शक्तियों का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।

* इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्रीसूक्त के 12 पाठ के जाप करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है।

* जन्मकुंडली में मौजूद विभिन्न कुयोग श्रीयंत्र की नियमित पूजा से दूर हो जाते हैं।

* इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्घियाँ और नौ निधियों की प्राप्ति होती है।

* श्रीयंत्र के पूजन से रोगों का नाश होता है।

* इस यंत्र की पूजा से मनुष्य को धन, समृद्घि, यश, कीर्ति की प्राप्ति होती है।

* रुके कार्य बनने लगते हैं। व्यापार की रुकावट खत्म होती है।

श्रीयंत्र की पूजा के मंत्र :-

* श्री महालक्ष्म्यै नमः

* श्री ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः

* श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः

श्री हनुमान

श्री हनुमान के 12 नाम, उनके गुण व शक्तियों को भी उजागर करते हैं , जिनका नाम प्रेम और श्रद्धा विश्वास के साथ लेने से यश कीर्ति के साथ बल भी मिलता है ..
ये नाम है -
हनुमान, अञ्जनीसुत, वायुपुत्र, महाबली, रामेष्ट यानी श्रीराम के प्यारे, फाल्गुनसख यानी अर्जुन के साथी, पिङ्गाक्ष यानी भूरे नयन वाले, अमित विक्रम, उदधिक्रमण यानी समुद्र पार करने वाले, सीताशोकविनाशक, लक्ष्मणप्राणदाता और दशग्रीवदर्पहा यानी रावण के दंभ को चूर करने वाले।
श्री हनुमान जी के चमत्कारिक और सर्व सिद्धिदायक मन्त्र :- श्री हनुमान् जी का यह मंत्र समस्त प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए प्रयोग किया जाता है । मन्त्र सिद्ध करने के लिए हनुमान जी के मन्दिर में जाकर हनुमान जी की पंचोपचार पूजा करें और शुद्ध घृत का दीपक जलाकर भीगी हुई चने की दाल और गुड़ का प्रसाद लगाकर निम्न मंत्र का जप करें । कार्य सिद्ध ले लिए एक माला का जप प्रतिदिन ११ दिन तक करे और अंत में दशमांश हवन करें ।
“ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहान् भूत भविष्यद्-वर्तमानान् दूरस्थ समीपस्यान् छिंधि छिंधि भिंधि भिंधि सर्वकाल दुष्ट बुद्धानुच्चाट्योच्चाट्य परबलान् क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्याणि साधय साधय । ॐ नमो हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् । देहि ॐ शिव सिद्धि ॐ । ह्रां ॐ ह्रीं ॐ ह्रूं ॐ ह्रः स्वाहा ।”

श्री बटुक-बलि-मन्त्र

श्री बटुक-बलि-मन्त्र-
घर के बाहर दरवाजे के बायीं ओर दो लौंग तथा गुड़ की डली रखें । निम्न तीनों में से किसी एक मन्त्र का उच्चारण करें -
१॰ “ॐ ॐ ॐ एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारण-बटुक-भैरव-नाथ, सर्व-विघ्नान् नाशय नाशय, इमं स्तोत्र-पाठ-पूजनं सफलं कुरु कुरु सर्वोपचार-सहितं बलि मिमं गृह्ण गृह्ण स्वाहा, एष बलिर्वं बटुक-भैरवाय नमः।”
२॰ “ॐ ह्रीं वं एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारक-बटुक-भैरव-नाथ कपिल-जटा-भारभासुर ज्वलत्पिंगल-नेत्र सर्व-कार्य-साधक मद्-दत्तमिमं यथोपनीतं बलिं गृह्ण् मम् कर्माणि साधय साधय सर्वमनोरथान् पूरय पूरय सर्वशत्रून् संहारय ते नमः वं ह्रीं ॐ ।।”
३॰ “ॐ बलि-दानेन सन्तुष्टो, बटुकः सर्व-सिद्धिदः।
रक्षां करोतु मे नित्यं, भूत-वेताल-सेवितः।।”.

एक लोटा जल किस्मत में भारी बदलाव ला सकता है।

एक लोटा जल किस्मत में भारी बदलाव ला सकता है।

यदि गंभीरता से केवल एक लोटे जल के साथ कुछ क्रियाएं कर दी जाए ,तो व्यक्ति के जीवन की बहुत सी समस्याएं ,दुःख ,रोग-शोक-कष्ट ,ग्रह बाधा दूर हो सकती है ,सफलता बढ़ सकती है और सुख प्राप्ति के साथ आय के साधन बढ़ सकते हैं |इसके लिए केवल नियमित कुछ क्रियाएं भर कर दें ,बिना किसी अतिरिक्त खर्च और श्रम के जीवन में बहुत कुछ अच्छा होने लगेगा |
इसके लिए करें बस इतना ही कि सुबह सूर्योदय पूर्व उठें और नित्यकर्मों से निवृत्त हो स्नान कर ले ,शुद्ध वस्त्र धारण कर एक लोटा शुद्ध जल लें ,उसमे एक चुटकी रोली ,थोड़ा गुड और लाल फूल डालें ,अब उगते सूर्य को यह जल अर्पित करें अपने हाथों को सर की उंचाई तक रखते हुए ,यहाँ केवल इतना ध्यान दें की सूर्य उगता हुआ हो जिसे आप देख सकें अर्थात लालिमा युक्त निकलता सूर्य हो न की तपता हुआ सूर्य ,दूसरा यह की इस चढ़ते जल के छींटे आपके पैरों पर न पड़ें अर्थात किसी ऐसे स्थान पर गिरें जिससे आपके पैरों पर छींटे न आयें ,न ही यह किसी अशुद्ध स्थान पर गिरें ,इस समय सूर्य का या गायत्री मंत्र बोल सकें तो और अच्छा है |,यह क्रिया किसी भी शुक्ल पक्ष के रविवार से शुरू करें और लगातार करते रहें ,यदि किसी कारणवश रोज संभव नहीं है तो रविवार-रविवार जरुर करें |,,इसके साथ एक क्रिया और केवल रविवार -रविवार करें ,रात्री में सोते समय अपने सिरहाने एक लोटा जल में थोड़ा सा दूध डालकर रख लें ,ध्यान दें की यह गिरे -फैले नहीं ,,सुबह[सोमवार ] उठाकर इसे किसी बबूल के वृक्ष को चढ़ा दें ,यहाँ यह ध्यान दें की कोई आपको टोके नहीं |
उपरोक्त एक लोटे जल की क्रियाओं से आपके ग्रह दोष ,बाधा दोष ,अशुभता ,रोग-शोक-कष्ट धीरे धीरे समाप्त होने लगेंगे ,जीवन में नवीन ऊर्जा और उमंग का संचार होने लगेगा ,दैनिक दिनचर्या व्यवस्थित-शुभ और मंगलमय हो जायेगी ,पित्र दोष में कमी आने लगेगी ,ईष्ट कृपा बढ़ जायेगी, स्वास्थय अच्छा होने लगेगा ,सफ़लता बढ़ जायेगी |

दूकान की बिक्री अधिक हो।

दूकान की बिक्री अधिक हो।
 
१॰ “श्री शुक्ले महा-शुक्ले कमल-दल निवासे श्री महालक्ष्मी नमो नमः। लक्ष्मी माई, सत्त की सवाई। आओ, चेतो, करो भलाई। ना करो, तो सात समुद्रों की दुहाई। ऋद्धि-सिद्धि खावोगी, तो नौ नाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई।”
विधि- घर से नहा-धोकर दुकान पर जाकर अगर-बत्ती जलाकर उसी से लक्ष्मी जी के चित्र की आरती करके, गद्दी पर बैठकर, १ माला उक्त मन्त्र की जपकर दुकान का लेन-देन प्रारम्भ करें। आशातीत लाभ होगा।
 
२॰ “भँवरवीर, तू चेला मेरा। खोल दुकान कहा कर मेरा।
उठे जो डण्डी बिके जो माल, भँवरवीर सोखे नहिं जाए।।”
 
विधि- १॰ किसीशुभ रविवार से उक्त मन्त्र की १० माला प्रतिदिन के नियम से दस दिनों में १०० माला जप कर लें। केवल रविवार के ही दिन इस मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। प्रातः स्नान करके दुकान पर जाएँ। एक हाथ में थोड़े-से काले उड़द ले लें। फिर ११ बार मन्त्र पढ़कर, उन पर फूँक मारकर दुकान में चारों ओर बिखेर दें। सोमवार को प्रातः उन उड़दों को समेट कर किसी चौराहे पर, बिना किसी के टोके, डाल आएँ। इस प्रकार चार रविवार तक लगातार, बिना नागा किए, यह प्रयोग करें।
 
२॰ इसके साथ यन्त्र का भी निर्माण किया जाता है। इसे लाल स्याही अथवा लाल चन्दन से लिखना है। बीच में सम्बन्धित व्यक्ति का नाम लिखें। तिल्ली के तेल में बत्ती बनाकर दीपक जलाए। १०८ बार मन्त्र जपने तक यह दीपक जलता रहे। रविवार के दिन काले उड़द के दानों पर सिन्दूर लगाकर उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर उन्हें दूकान में बिखेर दें।

कामाख्या स्तोत्र

कामाख्या स्तोत्र
जय कामेशि चामुण्डे जय भूतापहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
विश्वमूर्ते शुभे शुद्धे विरुपाक्षि त्रिलोचने ।
भीमरुपे शिवे विद्ये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
मालाजये जये जम्भे भूताक्षि क्षुभितेऽक्षये ।
महामाये महेशानि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कालि कराल विक्रान्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कालि कराल विक्रान्ते कामेश्वरि हरप्रिये ।
सर्व्वशास्त्रसारभूते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कामरुप - प्रदीपे च नीलकूट - निवासिनि ।
निशुम्भ - शुम्भमथनि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
कामाख्ये कामरुपस्थे कामेश्वरि हरिप्रिये ।
कामनां देहि में नित्यं कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
वपानाढ्यवक्त्रे त्रिभुवनेश्वरि ।
महिषासुरवधे देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
छागतुष्टे महाभीमे कामख्ये सुरवन्दिते ।
जय कामप्रदे तुष्टे कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
भ्रष्टराज्यो यदा राजा नवम्यां नियतः शुचिः ।
अष्टम्याच्च चतुदर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः ॥
संवत्सरेण लभते राज्यं निष्कण्टकं पुनः ।
य इदं श्रृणुवादभक्त्या तव देवि समुदभवम् ॥
सर्वपापविनिर्म्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।
श्रीकामरुपेश्वरि भास्करप्रभे, प्रकाशिताम्भोजनिभायतानने ।
सुरारि - रक्षः - स्तुतिपातनोत्सुके, त्रयीमये देवनुते नमामि ॥
सितसिते रक्तपिशङ्गविग्रहे, रुपाणि यस्याः प्रतिभान्ति तानि ।
विकाररुपा च विकल्पितानि, शुभाशुभानामपि तां नमामि ॥
कामरुपसमुदभूते कामपीठावतंसके ।
विश्वाधारे महामाये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
अव्यक्त विग्रहे शान्ते सन्तते कामरुपिणि ।
कालगम्ये परे शान्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
या सुष्मुनान्तरालस्था चिन्त्यते ज्योतिरुपिणी ।
प्रणतोऽस्मि परां वीरां कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
दंष्ट्राकरालवदने मुण्डमालोपशोभिते ।
सर्व्वतः सर्वंव्गे देवि कामेश्वरि नमोस्तु ते ॥
चामुण्डे च महाकालि कालि कपाल - हारिणी ।
पाशहस्ते दण्डहस्ते कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
चामुण्डे कुलमालास्ये तीक्ष्णदंष्ट्र महाबले ।
शवयानस्थिते देवि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
- योगिनीतन्त्र

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...