Saturday 28 September 2024

दुर्गा सप्तशती पाठ—अद्भुत शक्तियां प्रदान करता है-

 

दुर्गा सप्तशती पाठ—अद्भुत शक्तियां प्रदान करता है-
नवरात्र के दौरान माता को प्रसन्न करने के लिए साधक विभिन्न प्रकार के पूजन करते हैं जिनसे माता प्रसन्न उन्हें अद्भुत शक्तियां प्रदान करती हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का नियमित पाठ विधि-विधान से किया जाए तो माता बहुत प्रसन्न होती हैं। दुर्गा सप्तशती में (700) सात सौ प्रयोग है जो इस प्रकार है:- मारण के 90, मोहन के 90, उच्चाटन के दो सौ(200), स्तंभन के दो सौ(200), विद्वेषण के साठ(60) और वशीकरण के साठ(60)। इसी कारण इसे सप्तशती कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
– सर्वप्रथम साधक को स्नान कर शुद्ध हो जाना चाहिए।
– तत्पश्चात वह आसन शुद्धि की क्रिया कर आसन पर बैठ जाए।
– माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें।
– शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर चार बार आचमन करें।
– इसके बाद प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर देवी को अर्पित करें तथा मंत्रों से संकल्प लें।
– देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार विधि से पुस्तक की पूजा करें।
– फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए।
– इसके बाद उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है।
-इसके जप के पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए।
तत्पश्चात पूरे ध्यान के साथ माता दुर्गा का स्मरण करते हुए दुर्गा सप्तशती पाठ करने से सभी प्रकार की मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं।
“दुर्गा सप्तशती ” साल में चार नवरात्रें होते हैं, ये शायद बहुत कम लोगों को पत्ता होता है | सर्वोत्तम माह महिना की नवरात्री की मान्यता है | किन्तु क्रम इस प्रकार है -चैत्र ,आषाढ़ ,आश्विन ,और माह | प्रायः “उत्तर भारत” में चैत्र एवं आश्विन की नवरात्री लोग विशेष धूम धाम से मानते हैं ,किन्तु “दक्षिण भारत “में आषाढ़ और माह की नव्रत्रियाँ विशेष प्रकार से लोग मनाते हैं | सच तो यह भी है, कि जिनको पत्ता है ,वो चारो नवरात्रियों में विशेष पूजन इत्यादि करते हैं |
दुर्गा अर्थात दुर्ग शब्द से दुर्गा बना है , दुर्ग =किला ,स्तंभ , शप्तशती अर्थात सात सौ | जिस ग्रन्थ को सात सौ श्लोकों में समाहित किया गया हो उसका नाम शप्तशती है |
महत्व - जो कोई भी इस ग्रन्थ का अवलोकन एवं पाठ करेगा “माँ जगदम्बा” की उसके ऊपर असीम कृपा होगी |
कथा – “सुरथ और “समाधी ” नाम के राजा एवं वैश्य का मिलन किसी वन में होता है ,और वे दोनों अपने मन में विचार करते हैं, कि हमलोग राजा एवं सभी संपदाओं से युक्त होते हुए भी अपनों से विरक्त हैं ,किन्तु यहाँ वन में, ऋषि के आश्रम में, सभी जीव प्रसन्नता पूर्वक एकसाथ रहते हैं | यह आश्चर्य लगता है ,कि क्या कारण है ,जो गाय के साथ सिंह भी निवास करता है, और कोई भय नहीं है,जब हमें अपनों ने परित्याग कर दिए, तो फिर अपनों की याद क्यों आती है | वहाँ ऋषि के द्वारा यह ज्ञात होता है ,कि यह उसी ” महामाया ” की कृपा है ,सो पुनः ये दोनों ” दुर्गा” की आराधना करते हैं ,और “शप्तशती ” के बारहवे अध्याय में आशीर्वाद प्राप्त करते हैं ,और अपने परिवार से युक्त भी हो जाते हैं |
भाव - जो कोई भी” माँ जगदम्बा “की शरण लेगा ,उसके ऊपर माँ की असीम कृपा होगी ,संसार की समस्त बाधा का निवारण करेंगीं – अतः सभी को “दुर्गा शप्तशती ” का पाठ तो करने ही चाहिए ,और इस ग्रन्थ को अपने कुलपुरोहित से जानना भी चाहिए….
दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग प्रयोग से कामनापूर्ति—
– लक्ष्मी, ऐश्वर्य, धन संबंधी प्रयोगों के लिए पीले रंग के आसन का प्रयोग करें।
– वशीकरण, उच्चाटन आदि प्रयोगों के लिए काले रंग के आसन का प्रयोग करें। बल, शक्ति आदि प्रयोगों के लिए लाल रंग का आसन प्रयोग करें।
– सात्विक साधनाओं, प्रयोगों के लिए कुश के बने आसन का प्रयोग करें।
वस्त्र - लक्ष्मी संबंधी प्रयोगों में आप पीले वस्त्रों का ही प्रयोग करें। यदि पीले वस्त्र न हो तो मात्र धोती पहन लें एवं ऊपर शाल लपेट लें। आप चाहे तो धोती को केशर के पानी में भिगोंकर पीला भी रंग सकते हैं।
हवन करने से
जायफल से कीर्ति और किशमिश से कार्य की सिद्धि होती है।
आंवले से सुख और केले से आभूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथाविधि हवन करें।
खांड, घी, गेंहू, शहद, जौ, तिल, बिल्वपत्र, नारियल, किशमिश और कदंब से हवन करें।
गेंहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
खीर से परिवार, वृद्धि, चम्पा के पुष्पों से धन और सुख की प्राप्ति होती है।
आवंले से कीर्ति और केले से पुत्र प्राप्ति होती है।
कमल से राज सम्मान और किशमिश से सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
खांड, घी, नारियल, शहद, जौं और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।
व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यंत नम्रता के साथ प्रमाण करें और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दें। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति-
1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।
दुर्गा सप्तशती के लाभ–
वैदिक आहुति की सामग्री—
प्रथम अध्याय-एक पान पर देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।
द्वितीय अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष
तृतीय अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद
चतुर्थ अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।
पंचम अध्ययाय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।
षष्टम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।
सप्तम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।
अष्टम अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।
नवम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।
दशम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।
एकादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 में अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री।
द्वादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल
त्रयोदश अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।
साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है जबकि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारने का विधान है- चार बार चरणों पर से दो बार नाभिे पर से, एक बार मुख पर से, सात बार पूरे शरीर पर से। इस प्रकार चौदह बार आरती की जाती है। जहां तक हो सके विषम संख्या अर्थात 1, 5, 7 बत्तियॉं बनाकर ही आरती की जानी चाहिये।
शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।
ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।
चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।
कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
विभिनन मनोकामनाओं के लिए दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग श्लोक मंत्र रूप में प्रयुक्त होते हैं जिनका ज्ञान किसी योग्य विद्वान से पूछकर किया जा सकता है।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
दुर्गा सप्तशती का पाठ, विधि :-
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें, शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें। इस समय निम्न मंत्रों को बोलें-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्‌यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये/करिष्यामि।
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, (पुस्तक पूजा का मन्त्रः- “ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।” (वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता))। योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें। यह “शापोद्धार मंत्र” कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जप के पश्चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’
मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-
‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’
इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्‌यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर। चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः। आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।
जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।
।। देवी माहात्म्यम् ।।
श्रीचण्डिकाध्यानम्
ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् । स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ।।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् । पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ।। दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् ।
अथवा
या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी ।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ।। जय मां दुर्गे
जय मां आदिशक्ति मां दुर्गे....

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

 मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411

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महाकष्ट (महाबाधा)_निवारकमन्त्र! (पद्मपुराण)

महाकष्ट (महाबाधा)_निवारकमन्त्र! (पद्मपुराण)
   *हरं हरिं हरिश्चन्द्रं हनूमन्तं हलायुधम्।
पञ्चकं वै स्मरेन्नित्यं घोरसङकट नाशनम्॥१॥
रामं स्कन्दं हनूमन्तं वैनतेयं वृकोदरम्।
पञ्चैतान् संस्मरेन्नित्यं भवबाधा विनश्यति॥२॥
रामलक्ष्मणौ सीता च सुग्रीवो हनुमान् कपि:।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं महाबाधा प्रमुच्यते॥३॥
कष्टके अनुसार किसी भी एक या तीनों मन्त्रों की नित्य एक या अधिक माला जपकरें, अवश्य ही शांति का अनुभव होगा।आपत् कालमें कहीं भी, किसीभी समय, सतत जप आये हुए कष्ट से मुक्ति प्रदान करेगा।

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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Friday 27 September 2024

शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित

 


शिवमहिम्न स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित 
(श्री गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित)
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिब्रह्मादीनापि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ॥
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिमाणावधि गृणन् ।
ममाप्येव स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ।।१।।
हे हर ! (सभी दुःखों के हरने वाले) आपकी महिमा के अन्त को न जानने वाले मुझ अज्ञानी द्वारा की गई स्तुति यदि आपकी महिमा के अनुकुल न हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ब्रह्मा आदि भी आपकी महिमा के अन्त को नहीं जानते हैं। अतः उनकी स्तुति भी आपके योग्य नहीं है। "स वाग् यथा तस्य गुणान् गृणीते" के अनुसार मेरी यथामति स्तुति उचित ही है। "नमः पतन्त्यात्मसमं पतत्रिणः" इस न्याय से मेरी स्तुति आरम्भ करना क्षम्य हो ॥ १ ॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्‌मनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधिगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
हे हर ! आपकी निर्गुण और सगुण महिमा मन तथा वाणी के विषय से परे है, जिसे वेद भी संकुचित होकर कहते हैं। अतः आपकी उस महिमा की स्तुति करने में कौन समथ हो सकता है ? फिर भी भक्तों के अनुग्रहार्थ धारण किया हुआ आपका नवीन रूप भक्तों के मन और वाणी का विषय हो सकता है ।। २ ।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत- स्तवब्रह्मन्कवागपि सुरगुरोविस्मय पदम् ।। मम त्वेतां वाणों गुणकथनपुण्येन भवतः । पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
हे ब्रह्मन् ! जब कि आपने मधु के सदृश मधुर और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया है, तब ब्रह्मादि द्वारा की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है ? हे त्रिपुरमथन ! जब ब्रह्मादि भी आपके स्तुति-गान करने में असमर्थ हैं, तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है ? मैं तो केवल आपके गुण- गान से ही अपनी वाणी को पवित्र करने की इच्छा रखता हूँ ।।३।।
तवैश्वर्यं तत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासुतनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीम् ।
विहन्तु व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥४॥
हे वरद ! आपके ऐसे ऐश्वर्य की - जो संसार की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करने वाला है, तीनों वेदों द्वारा गाया गया है, तीनों गुणों (सत्, रज, तम) से परे है, एवं तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में व्याप्त है, कुछ नास्तिक लोग अनुचित निन्दा करते हैं। इससे उन्हीं का अधःपतन होता है, न कि आपके सुयश का ।। ४ ।।
किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतक्र्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥ ।
"अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तकेंण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करने वाले आपके ऐश्वर्य के विषय में नास्तिकों का यह कुतर्क कि वह ब्रह्या सृष्टि कर्ता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर, सहकारी कारण, आधार और समवायी कारण क्या है ? जगत् के कतिपय मन्द-मति वालों को भ्रान्ति करने वाला है ।। ५ ।।
अजन्भानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं कि भवविधिरनादृत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो
यतोमन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥
हे अमर वर ! यह सावयव लोक अवश्य ही जन्य है तथा इसका कर्ता भी कोई न कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता, क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री दूसरे के पास होना असम्भव है। इसलिये अज्ञानी लोग ही आपके विषय में सन्देह करते हैं ।।६।।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचिव्यादृजुकुटिलनानापथजुषां ।
नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
हे अमर वर ! वेदत्रयी, सांख्य, योग, शैव मत और वैष्णवमत ऐसे भिन्न-भिन्न मतों में कोई वैष्णवमत और कोई शैव मत को अच्छा कहते हैं, परन्तु रुचि की विचित्रता से टेढ़े-सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आप ही साक्षात् या परम्परया प्राप्त होते हैं, जैसे कि नदियाँ टेढ़ी-सीधी बहती हुई साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही जा मिलती हैं ।। ७ ।।
महोक्षः खट्‌वांग म्परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालंचेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धि दधति तु भवन प्रणिहिताम् ।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भभ्रमयति । ८।
हे वरद ! महोक्ष (बैल), खाट का पाया, परशु, गजचर्म, भस्म, सर्व, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियाँ हैं, परन्तु उन ऋद्धियों को जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग भोगते हैं, आप क्यों नहीं भोगते ! स्वात्माराम (आत्मज्ञानी) को विषय (रूपरसादि) रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती है ।। ८ ।।
ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध वमिदम् ।
परोध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।। समस्तेऽप्येतस्मिन्पुरमथन तैविस्मित इव ।
स्तुवञ्जिद्देमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता । ९।
हे पुरमथन ! सांख्य मतानुयायी "नह्यसत उत्पत्तिः सम्भवति" के अनुसार जगत् को ध्रुव (नित्य), बुद्धिमतानुयायी अध्रुव (क्षणिक) ताकिकजन नित्य (आकाश आदि पञ्च और पृथिव्यादि परमाणु और अनित्य कार्यद्रव्य) दोनों मानते हैं। इन मतान्तरों से विस्मित मैं भी आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचा- लता लज्जा को स्थान नहीं देती ।। ९ ।।
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरिविरंचिर्हरिरधः ।
परिच्छेत्तु यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः ।।
ततोभक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्तयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।१०।
हे गिरीश (गिरि में शयन करने वाले), तेजपु'ज आपकी विभूति को ढूँढ़ने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे, तत्पश्चात् उनकी कायिक, मार्नासक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चित् है कि आपकी सेवा से ही सब सुलभ है ।। १० ।।
अयत्नादापाद्यत्रिभुवनमवैरव्यतिकरम् ।
दशास्यो यद्वाहूनभूत रणकण्डूपरवशान् ।।्
शिरः पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर वियजितमिदम् ।११।
हे त्रिपुरहर ! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवत् चरणों में अर्पणकर के त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युद्ध के लिए सर्वदा उत्सुक रहने वाली भुजाओं को पाया था, वह आपकी अविरल भक्ति का ही परिणाम था ।। ११ ।
अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनम् ।
उक बलाप्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौविक्रमयतः ॥
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांग ष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितोमुर्ध्यात खलः ।१२।
रावण द्वारा उन्हीं भुजाओं से जिन्होंने आपकी सेवा से बल प्राप्त किया था, आपके घर कैलास को उखाड़ने के लिए हठात् प्रयोग करते ही आपके अँगूठे के अग्र भाग के संकेत मात्र पाताल में गिरा, निश्चय ही खल उपकार भूल जाते हैं ।। १२ ।।
यदृद्धि सुत्त्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- ।
मधश्चक्र बाणः परिजनविधैयस्त्रिभुवनः ।।
नतच्चित्त्रं तस्मिन्वरिवसिरित्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।१३।
हे वरद ! वाणासुर ने आपकों नमस्कार मात्र से इन्द्र की सम्पत्ति को नीचा दिखलाने वाली सम्पत्ति प्राप्त किया था और त्रिभुवनको अपना परिजन बना लिया था। यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आपके चरणों में नमस्कार करना किस उन्नति का कारण नहीं होता है ।। १३ ।।
अकाण्ड : ब्रह्माण्ड क्षयचकितदेवासुरकृपा । विधेयस्याऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।॥
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवनभयभगंव्यसनिनः ।१४।।
हे त्रिनयन ! सिन्धु विमंथन से उत्पन्न कालकूट से असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व असुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उसको (काल कूट को) पान करने से आपके कण्ठ की कालिमा भी शोभा देती है। ठीक ही है, जगत् के उपकार की कामना वाले दूषण भूषण समझे जाते हैं ।॥ १४ ॥असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरःस्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः। १५।
जो विजयी कामदेव अपने बाणों द्वारा जगत् के देव, मनुष्य और राक्षसों को जीतने में सर्वथा समर्थ रहा, उसी कामदेव अन्य देवों के समान आपको भी समझा, जिससे वह स्मरण मात्र के लिये ही रह गया (दग्ध हो गया), जितेन्द्रियों का अनादर करना अहितकारक ही होता है ।। १५ ।।
मही पादाघाताद्धजति सहसा संशयपदम् ।
पदं विष्णोर्भाम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ॥
मुहुर्योदौस्थ्यं यात्यनिभूतजटाताडिततटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ १६ ॥
हे ईण ! आप जगत् की रक्षा के लिए राक्षसों को मोहित करके नाण के लिए नृत्य करते हो, तब भी संसार का आपके ताण्डव से दुःख दूर होता है, क्योंकि आपके चरणों के आघात से पृथ्वी धंसने लगती है, विशाल बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्र आकाश पीड़ित हो जाता है तथा आपकी चंचल जटाओं से ताड़ित हुआ स्वर्ग लोक भी कम्पाय- मान हो जाता है। ठीक ही है, उपकार भी किसी के लिए अहितकारक हो जाता है ।॥ १६ ॥
वियद्व्यापीतारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः ॥ १७ ॥
हे ईश ! तारा गणों की कान्ति से अत्यन्त शोभायमान आकाश में व्याप्त तथा भूलोक को चारों ओर से घेरकर जम्बू द्वीप बनाने वाली गङ्गा का जल-प्रवाह आपके जटाकपाट में बूंद से भी लघु देखा जाता है। इतने से ही आपके दिव्य तथा श्रेष्ठ शरीर की कल्पना की जा सकती है ।। १७ ।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिनगेन्द्रो धनुरथा-
रथांगेचन्द्राकों रथचरणपाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि-
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।१८।
हे ईश ! तृण के समान त्रिपुर को जलाने के लिए पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, हिमालय को धनुष, सूर्य-चन्द्र को रथ का चक्र तथा विष्णु को विषघर बाण बनाना आपका आडम्बर मात्र है। विचित्र वस्तुओं से क्रीडा करते हुए समथर्थों की बुद्धि स्वतन्त्र होती है ।। १८ ॥
हरिस्ते साहस्त्र कमलबलिमाधाय पदयो-
र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्ने त्रकमलम् ।
गतो भक्त्युद्र कः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जार्गात जगताम् ॥१९॥
हे त्रिपुरहर ! विष्णु आपके चरणों में प्रति दिन सहस्र कमलों का उपहार देते थे । एक दिन एक की कमी होने के कारण उन्होंने अपने एक कमलवत् नेत्र को निकाल कर पूरा किया। यह भक्ति की चरम सीमा चक्र के रूप में आज भी संसार की रक्षा किया करती है । १९ ।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलतिपुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रक्ष्य ऋतुषु फलदानप्रतिभुवम् ।
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥
हे त्रिपुरहर ! आप ही को यज्ञ के फल का दाता समझ कर, वेद में दृढ़ विश्वास कर मनुष्य कर्मों का आरम्भ करते हैं। क्रिया रूप यज्ञ के समाप्त होने पर आपही फल देने वाले रहते हैं। आपकी आराधना के बिना नष्ट कर्म फलदायक नहीं होता ।। २० ।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता-
मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुन वस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥
हे शरणद ! कर्मकुशल यज्ञपति दक्ष के यज्ञ के ऋषिगण ऋत्विज, देवता सदस्य थे । फिर भी यज्ञ के फल देने वाले आप को अप्रसन्नता से वह ध्वंस हो गया । निश्चय है कि आप में श्रद्धा-रहित किया गया यज्ञ नाश के लिए ही होता है ।। २१ ।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्त्वां दुहितरम् ।
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुःपाणेर्यातं दिवपि सपत्नाकृतममुम् ।
वसन्तन्तेऽद्यापि त्यति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥
हे नाथ ! काल से प्रेरित मृगरूप धारण किये ब्रह्या को भय से मृगीरूपी धारण करने वाली अपनी कन्या में आसक्त देख, आपका उनके पीछे छोड़ा गया वाण आर्द्रा आज भी नक्षत्र रूप में मृगशिरा (ब्रह्‌मा) के पीछे वर्तमान है ।। २२ ।।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्‌वाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वापुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदिस्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्ध-घटनाद् ।
अवैति त्वामद्धावत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३।।
हे यम-नियम वाले त्रिपुरहर ! आपकी कृपा से आपका अर्धस्थान प्राप्त करने वाली, अपने सौन्दर्य रूपी धनुष को धारण करने वाले कामदेव को जला हुआ देखकर भी यदि पार्वती आपको अपने अधीन समझें तो ठीक ही है, क्योंकि प्रायः युवतियाँ ज्ञान-हीन होती हैं ।। २३ ।।
स्मशानेष्वाक्क्रीडारमरहर पिशाचाः सहचरा-
श्चिताभस्मालेपः स्प्रगपि नृकरोटीपरिकरः ।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु ना मैवमखिलम्
तथापि स्मतॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
हे स्मरहर ! आपका स्मशान में क्रीडा करना, भूत-प्रेत पिणा-
चादि को साथ रखना, शरीर में चिता-भस्म का लेपन करना तथा नर रुण्डों की माला पहिनना आदि वीभत्स कर्मों से यद्यपि आपका चरित अमगल मय लगता है, तथापि स्मरण करने वालों को हे वरद ! आप परम मंगलरूप हैं ।। २४ ।।
मनः प्रत्यक्चित्त सविधमवधायात्तमरुतः ।
प्रहृ ष्यद्रोमाणः प्रमदसलिल्लोत्संगितदृशः ।।
यदालोक्याह लादं हूद इव निमज्ज्यामृतमये ।
यधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ।२५।
हे दरद ! जिस प्रकार अमृतमय सरोवर में अवगाहन से (स्नान करने से, प्राणिमात्र तापत्रय से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से पृथक् करके मन का स्थिर कर, विधि पूर्वक प्राणायाम से, पुलकित तथा आनन्दाश्र से युक्त योगीजन ज्ञानदृष्टि से जिसे देखकर परमा- नन्द का अनुभव करते हैं, वह आपही हैं ।। २५ ।।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वंहुतवह-
स्त्वमापरत्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च ॥ परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता ब्रितिगिरम् । न विद्मस्तत्तत्त्वंवयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥
हे वरद, आपके विषय में ज्ञानीजनों की यह धारणा है "क्षिति हुत वह क्षेत्रज्ञाम्भः प्रभंजन चन्द्रमस्तपनवियदित्यष्टो मूतिर्नमोभव-विभ्रते ।" इस श्रुति के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल. आकाश, पृथ्वी और आत्मा भी आपही हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आप न हों ।। २६ ।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथोक्त्रीनपिसुरा ।
नकाराद्य र्वणैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः ॥
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् । २७।
हे शरणद ! व्यस्त [अ, उ. म. 'ॐ' पद, शक्ति द्वारा तीन वेद [ऋग्, यजुः और साम], तीन वृत्ति [जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति], त्रिभुवन [भूर्भुवः स्वः] तथा तीनों देव [ब्रह्मा, विष्णु, महश], इन प्रपञ्च। स व्यस्त आपका बोधक है और समस्त 'ॐ' पद, समुदाय शक्ति से सर्व विकार रहित अवस्थात्रयसे विलक्षण अखण्ड, चैतन्य आपको सूक्ष्म ध्वनि से व्यस्त करता है ।। २७ ।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।। अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देवः श्रुतिरपि । प्रियायास्मैधाम्नेप्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते ॥२८।।
हे देव ! भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान- यह जो आपके नाम का अष्टक है, इस प्रत्येक नाम में वेद और देवतागण [ब्रह्मा] आदि विहार करते हैं, इसलिये ऐसे प्रियधाम [आश्रय भूत] आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। २८।।
नमोनेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ॥
नमो विष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥२९॥
हे प्रियदव ! [निर्जन वन-विहरण शील], नेदिष्ठ [अत्यन्त समीप] दविष्ठ [अत्यन्त दूर [, क्षोदिष्ठ [अति सूक्ष्म], महिष्ठ [महान्], वषिष्ठ [अत्यन्त वृद्ध, यविष्ठ [अतियुवा], सव-त्वरूप और अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है ।। २९ ।।
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौमृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०।।
हे शिवजी ! जगत् की उत्पत्ति के लिये परम रजोगुण धारण किये भव [ब्रह्मा] रूप आपको बार-बार नमस्कार है और उस जगत् के सहार करने में तमोगुण को धारण करने वाले हर [रुद्र], आपके लिए पुनः-पुनः नमस्कार है, जगत् के सुख के लिए सत्त्व गुण का धारण करने वाले मृड (विष्णु), आपको बार-बार नमस्कार है। तीनों गुणों (सत्व, रज. तम) से परे जो अनिर्वचनीय पद से विशिष्ट हैं, ऐसे आपको बार-बार नमस्कार है ।। ३० ।।
कृशपरिणतिचेतः क्लेशवश्यं क्व चेदम् ।
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्ङ्घिनीशश्ववृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा-
द्वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥३१॥
हे वरद ! कहाँ तो रागद्वष आदि से कलुषित तथा तुच्छ मेरा मन, कहाँ आपकी अपरमित विभुति, तिसपर भी आपकी भक्ति ने मुझे निर्भय बनाकर इस वाक्रूपी पुष्पाञ्जलि को आपके चरण- कमलों में समर्पण करने के लिये वाध्य किया है ।। ३१ ।।
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।
सुरतरुवरशाखा लेखनीपत्रमुर्वी ।।
लिखित यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥३२॥
हे ईण ! असित अर्थात् काले पर्वत के समान कज्जल (स्याही) समुद्र के पात्र में हो, सुरवर (कल्पवृक्ष) के शाखा की उत्तम लेखनी हो और पृथ्वी कागज हो, इन साधनों को लेकर स्वयं शारदा यदि सर्वदा ही लिखती रहें तथापि वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकतीं, तो मैं कौन हैं ॥ ३२ ॥
असुरसुरमुनीन्द्र चितस्येन्दुमौले-
ग्रंथित गुणहिम्मो सकलगुणवरिष्ठः
रुचिरमलघुवृत्तःनिर्गुणस्येश्वरस्य ।
पुष्पदन्ताभिधानो स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
असुर, सुर और मुनियों से पूजित तथा विख्यात महिमा वाले ऐसे ईश्वर चन्द्रमौलि के इस स्तोत्र को अलघुवृत्त अर्थात् बड़े [शिख- रिणी] वृत्त में सकल गुण श्रेष्ठ पुष्पदंत नामक गन्धर्व ने बनाया ।। ३३ ।।
अहरहरनवद्य धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्-
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्य : ।
स भर्वात शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्न
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कोतिमांश्च ॥३४
शुद्धचित्त होकर अनवद्य महादेवजी के इस स्तोत्र को जो पुरुष प्रतिदिन परम भक्ति से पढ़ता है, वह इस लोक में धन-धान्य, आयु से युक्त, पुत्रवान् और कीर्तिमान होता है और अन्त में शिव-लोक में जाकर शिवस्वरूप हो जाता है ।। ३४ ।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्तत्वं गुरोः परम् । ३५।
महादेवजी से श्रष्ठ कोई देवता नहीं है, महिप्न से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं है, अघोर मंत्र से श्रेष्ठ कोई मन्त्र नहीं है और गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व (पदार्थ) नहीं है ।। ३५ ।।
दीक्षादानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।
दीक्षा, दान, तप, तीर्थादि तथा ज्ञान और यागादि क्रियाएँ इस शिवमहिम्नस्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं ।। ३६ ।।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्- स्तवनमिदमकार्षीवृदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥
सभी गंधों के राजा पुष्पदंत भाल में चन्द्रमा को धारण करते वाले देवाधि देव महादेवजी के दास थे. वे सुरगुरु महादेवजी के क्रोध से अपनी महिमा से भ्रष्ट हुए, तव उन्होंने शिवजी की प्रसन्नता के लिए इस परम दिव्य शिवमहिम्न स्तोत्र को बनाया ।। ३७ ।।
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षकहेतुम् पठति
यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेतः ।
ग्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोधं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८।।
यह पुष्पदंत का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र श्रेष्ठ देवताओं तथा मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है। इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त से हाथ जोड़कर पढ़ता है, वह किन्नरों द्वारा स्तुत्य होकर शिवजी के समीप जाता है ।। ३८ ।।
श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कर्जानर्गतेन
स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥३९॥
श्रीपुष्पदंत के मुख से निकले हुए इस पापहारी तथा महादेवजी के प्रिय स्तोत्र को सावधानी से कण्ठस्थ करके पाठ करने से प्राणी मात्र के स्वामी श्रीमहादेवजी प्रसन्न होते हैं ।। ३९ ।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्र ं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ।।४०।।
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।।
 तव तत्त्वं न जानाभि कीदृशोऽसि महेश्वरः ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
अनुपम और मन को हरने वाला यह ईश्वर वर्णनात्मक, एवं पुष्पदंत गंधर्व का कहा हुआ स्तोत्र अब समाप्त हुआ ।। ४० ।। तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥४१॥
हे महेश्वर ! मैं नहीं जानता कि आप कैसे हैं? आप चाहे जैसे हों, आपके लिये मेरा नमस्कार है ।। ४१ ।।
एकाकालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२।।
हे प्रभु ! प्रातःकाल या दोपहर या सायंकाल में या तीनों काल में जो आपकी महिमा का गान करेगा, वह सब पापों से छूटकर आपके लोक में सुख पूर्वक निवास करेगा ।। ४२ ।।
इत्येषा वाङ्‌मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः ।
अपिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।॥४३॥
इस प्रकार इस वाङ्‌मयी पूजा को मैं श्रीशङ्करजी के चरणों में अर्पण करता है, जिससे श्रीमहादेवजी मुझपर प्रसन्न रहें ।। ४३
।। ।। इति भाषाटीकोपेतं श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रं समाप्तम् ।।

शिव महिम्न स्तोत्र की दिव्य कथा
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तियों का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।

शिव महिम्न स्तोत्र के लाभ
शिव महिम्न स्तोत्र की रचना गंधर्वराज पुष्पदंत ने की थी. इस स्तोत्र में 43 छंद हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र के कई लाभ हैं, जिनमें से कुछ ये हैं:
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव की दिव्य कृपा मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन से बाधाएं और चुनौतियां दूर होती हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को डर पर काबू पाने में मदद मिलती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को अनंत आनंद मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को जीवन का कोई भी भय, रोग या शोक नहीं सताता.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को तमाम तरह के दान, तप और तीर्थाटन से ज़्यादा पुण्यफल मिलता है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को सभी सुखों की प्राप्ति होती है.
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है.

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

 मोबाईल नं- और व्हाट्सएप नंबर है।-9760924411

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जीवन-रक्षा के उपाय

 


जीवन-रक्षा के उपाय
महामृत्युंजय मंत्र द्वारा विभिन्न उपादानों से हवन करने पर मनुष्य के अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। इन्हें प्रतिदिन क्रमवार रूप में नीचे दिया जा रहा है-
रविवार को किसी भी महामृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, जौ, धतूरे के बीज व पुष्पादि से दशांश हवन करने पर स्तंभन होता है।
सोमवार को 10 हजार जप करके घी, जौ, लाजा और पत्ते वाले शाक से दशांश हवन करने पर मोहन होता है।
मंगलवार को जप के उपरांत घी, श्रीपर्णी, मधु, श्रीफल और इमली से हवन करने पर शत्रु द्वारा पहुंचाई जाने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती है।
बुधवार को मृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, शतावरी, त्रिकंटक और बिल्वप्रत्र द्वारा हवन करने से आकर्षण होता है।
गुरुवार को पूर्वोक्त संख्या में मंत्र का जप करके घी, कमलगट्टे और चंदन आदि से हवन करने पर वशीकरण होता है।
शुक्रवार को इतनी ही संख्या में जप करके, श्मशान में जाकर हवन करने से उच्चाटन होता है।
शनिवार को 10 हजार मंत्र जपकर घी, दूध, बैंगन और धतूरे के पुष्पादि से हवन करने पर परम शांति प्राप्त होती है।
शनिवार अथवा मंगलवार के दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर, उसका स्पर्श करते हुए मृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करें। तत्पश्चात् दूब, बरगद के पत्ते अथवा जटा, जवापुष्प, कनेर के पुष्प, बिल्वपत्र, ढाक की समिधा और काली अपराजिता के पुष्प के साथ घी मिलाकर दशांश हवन करें। इस क्रिया से शीघ्र ही रोग से मुक्ति मिलती है, मृत्यु का निवारण होता है तथा जीवन की रक्षा होती है।
महामृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करके नीम के पत्ते सरसों के तेल में मिलाकर हवन करने पर शत्रु द्वारा किए गए कुकृत्य मिटकर, जीवन की सुरक्षा हो जाती है।
सभी प्रकार के अभिचार दूर करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप के बाद पंचगव्य से हवन करना चाहिए। इससे मन को शांति भी प्राप्त होती है।
किसी भी बड़ी विपत्ति से मुक्ति हेतु, मृत्युंजय मंत्र के 10 हजार जप के पश्चात् जवापुष्प और विष्णुकांता के पुष्पों से हवन करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र की सिद्धि के लिए जायफल से हवन करना उत्तम है।
वैसे तो इस प्रकार के बहुत से उपाय हैं जो रोगों के निवारण तथा दीर्घ जीवन के लिए प्रयोग किए जाते हैं। मगर उन सभी का विस्तार यहां पर देना संभव नहीं है, क्योंकि महामृत्युंजय मंत्र के जप और उनका विधान यही हमारी पुस्तक का मुख्य विषय है। अतः इस विधान के अंतर्गत आने वाले कुछ विशेष उपायों की जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है। महामृत्युंजय साधना करने वाले प्रत्येक साधक को इसकी जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
मंत्र-जप और रुद्राभिषेक
जब रोगी बहुत कठिन स्थिति में होता है, तो आत्मीयजन और परिवार के लोग बड़ी बैचेनी का अनुभव करते हैं। सभी अपनी-अपनी बुद्धि और योग्यता के अनुसार रोगी को इस पीड़ादायक अवस्था से बाहर निकालने का उपाय खोजने में लग जाते हैं।
उस समय सभी का ध्यान अनायास भगवान महामृत्युंजय की ओर चला जाता है, क्योंकि वे कष्टों का निवारण करने और जीवन प्रदान करने वाले हैं। भगवान मृत्युंजय साक्षात् शिव हैं। तरह-तरह के जो भी उपाय होते हैं, वो सभी शिवजी को प्रसन्न करने और अपने अनुकूल बनान के लिए होते हैं। इन उपायों में दो उपाय प्रमुख हैं-
1. महामृत्युंजय मंत्र का जप
2. रुद्राभिषेक
हम पिछले पृष्ठों में महामृत्युंजय मत्रा के बारे में काफी कुछ बता चुके हैं (इनका संक्षिप्त वर्णन आगे भी करेंगे) और अब पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए 'रुद्राभिषेक' पर कुछ प्रकाश डालेंगे। 'रुद्राभिषेक' दो शब्दों से मिलकर बना है अर्थात् 'रुद्र' और 'अभिषेक'। रुद्र तो शिव हैं एवं अभिषेक का अर्थ है, स्नान करना या कराना। रुद्र और अभिषेक का संक्षिप्त रूप 'रुद्राभिषेक' है। शिवलिंग
पर जलधारा छोड़ना ही 'रुद्राभिषेक' कहलाता है। रुद्रमंत्रों का विधान वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में उद्धृत मंत्रों से होता है। इसके लिए रुद्राष्टाध्यायी का इसमें आश्रय लिया जाता है, क्योंकि इसमें सभी प्रकार के मंत्रों का समावेश है। किन्तु 'कैवल्योपनिषद्' और 'जाबालोपनिषद् ' में इसके बारे में बहुत स्पष्ट कहा गया है।
'कैवल्योपनिषद्' में शतरुद्रिमधीते सोऽग्निपूतो भवति इत्यादि वचनों द्वारा शतरुद्रिय के पाठ से अग्नि, वायु, सुरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्ण चोरी, कृत्य एवं अकृत्य से पवित्र होने तथा कैवल्यपद प्राप्ति तक का ज्ञान-फल मिलता है। लेकिन 'जाबालोपनिषद्' में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- शतरुद्रियेणेत्येतान्येव ह वा अमृतस्य नमानि एतैर्ह वा अमृतो भवतीति अर्थात् शतरुद्रिय के पाठ से, वस्तुतः इसके द्वारा अभिषेक करने से अमृत्व प्राप्त होता है। इसलिए शतरुद्रिय मंत्रों से अभिषेक का बड़ा माहात्म्य है।
कुछ पाठकगण यह जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभिषेक कब और कैसे किया जाता है। इस बारे में शास्त्रों में उल्लेख है कि गुरु-परम्परा का अनुसरण करते हुए शतरुद्रिय के पाठ द्वारा अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक साधारणतः शुद्ध जल या गंगाजल से होता है। किसी विशेष अवसर पर अथवा सोमवार के दिन, प्रदोष या शिवरात्रि आदि पर्वकालों में गाय का कच्चा दूध पानी में मिलाकर या केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है।
तांत्रिक प्रयोग की दृष्टि से रोग-शांति में अन्य वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान शास्त्रों में देखने को मिलता है।
यदि किसी व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति पर कोई अभिचार-कृत्य कराया हो, तो किसी भी मृत्युंजय मंत्र का पांच या सात माला जप कर, सरसों के तेल से अभिषेक करें। इसी प्रकार टायफाइड आदि ज्वरों से मुक्ति के लिए छाछ (मट्ठे) से, सभी प्रकार की सुख-शांति के लिए आम, गन्ना, मौसमी, संतरा व नारियल के रस के मिश्रण से या फिर भांग से तथा वर्षा न होने पर सहस्रधारा से अभिषेक करना चाहिए।
दान
हवन और अभिषेक के बाद दान का स्थान है। अनेक बार देखा गया है कि कुछ रोग विविध उपचार करने पर भी नहीं ठीक होते। ऐसी स्थिति में चिकित्सा और जप के अतिरिक्त शास्त्रकारों ने निम्न आज्ञा दी है-
तत्तद्दोष विनाशार्थं कुर्याद् यथोदितम्।
प्रतिरोगं च यद्दानं जप-होमादि कीर्तितम् ।।
प्रायश्चित्तं तु तन्कृत्वा चिकित्सामारमेत्ततः।
प्रदद्यात् सर्वरोगघ्नं छायापात्रं विधानतः ।।
छायापात्र दान-कर्मदोषों से उत्पन्न रोगों की शांति के लिए जिस-जिस दान का वर्णन किया गया है, उसका दान अवश्य करना चाहिए। प्रत्येक रोग के लिए निर्देशित दातव्य दान, जप, होमादि और प्रायश्चित करके चिकित्सा आरंभ करें। साथ ही सर्वरोगों के नाशक छायापात्र का विधानपूर्वक दान करें। छायापात्र दान का प्रयोग निम्नवत है-
चौंसठ पल कांसे की कटोरी में शुद्ध गाय का घृत (घी) भरकर, उसमें सुवर्ण का टुकड़ा अथवा कुछ दक्षिणा डाल दें। फिर रोगी उस घी में अपना चेहरा देखे। अच्छी तरह चेहरा देखने के बाद वह पात्र किसी ब्राह्मण को दे दें। दान से पूर्व तिथि और वार आदि का स्मरण करके यह संकल्प करें-
मम दीर्घायुरारोग्यसुतेजस्वित्व प्राप्ति पूर्वकं शरीरगत (अमुक) रोगनिवृत्तये अमुक नाम्ने ब्राह्मणाय सघृत-दक्षिणाकं छायापात्रदानमहं करिष्ये ।
इस संकल्प के बाद पात्र में जल डाल दें। फिर पात्र की पूजा करें। पूजा का मंत्र निम्नलिखित है-
ॐ आज्यं सुराणामाहारमाज्यं पापहरं परम्।
आज्ममध्ये मुखं दृष्ट्वा सर्वपापै प्रमुच्यते ।
घृतं नाशयते व्याधिं घृतं च हरते रुजम् ।
घृतं तेजोऽधिकरणं घृतमायुः प्रवर्धते ॥
तत्पश्चात् निम्न मंत्र पढ़कर उसमें अपना चेहरा देखें-
आयुर्बलं यशो वर्च आज्यं स्वर्णं तथामृतप्।
आधारं तेजसां यस्मादतः शांतिं प्रयच्छ मे ।।
फिर पात्र को भूमि से टिकाए बिना ब्राह्मण को दे दें और प्रणाम करके सम्मान के विदा करें।
साथ उसने का एक दूसरा उपाय इस प्रकार है-किसी पात्र अथवा वस्त्र में, अपनी श्रद्धा के अनुसार सवाया तौल में चावल लेकर उसमें कुछ द्रव्य अथवा वस्तु आम्रा फिर उसे रोगी के ऊपर 21 बार सिर से पैर तक उतारकर, निम्न मंत्र बोलकर ब्राह्मण को दान कर दें-
ये मां रोगाः प्रबाधन्ते देहस्थाः सततं मम।
गृहणीष्व प्रतिरूपेण तान् रोगान् द्विसत्तम ।।
तुलादान-यदि शरीर में किसी विशेष रोग ने घर कर लिया हो और अनेक प्रकार के उपचार करने पर भी कोई लाभ न होता हो, तो चंद्रग्रहण के अवसर पर तुलादान करना चाहिए। तुलादान का अर्थ है-तौलकर दान करना! अपनी सामथ्यं के अनुसार शरीर के वजन का द्रव्य, वस्तु या खाद्य सामग्री का दान करना ही तुलादान है। इस प्रकार के दान से रोगी का रोग दूर होकर वह पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है।
यह बात सदैव स्मरण रखें कि कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए कभी किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, बल्कि अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि अच्छे कर्म स्वयं ही करने चाहिए। आत्मकल्याणकारी कार्य-दान-पुण्य, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन और स्तुति-प्रार्थना आदि मनुष्य स्वयं करे। यदि किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक स्थिति ठीक न हो, तो अपने प्रतिनिधि द्वारा ऐसे कार्य कराए जा सकते हैं। प्रतिनिधि का अर्थ है-कोई निकट-संबंधी! यदि कोई ऐसा संबंधी न मिले, तो किसी नान-संध्याशील, पवित्र, सदाचारी अथवा मंत्रज्ञ ब्राह्मण द्वारा ये कार्य कराए जा सकते हैं।
मंत्र-जप एवं साधना-उपासना के लिए आंतरिक और बाह्य शुद्धि दोनों अत्यंत आवश्यक हैं। यदि ज्ञान न हो तो मरा मरा के जप से ही सिद्धि मिल जाती है। ज्ञान होने पर प्रातः से सायं तक कर्मकांड के विभिन्न सोपानों का पालन करते हुए विधि-विधान से जपानुष्ठान करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। अतः श्रद्धा-भाव रखते हुए जिज्ञासापूर्वक विषय को समझें और अपने कार्य में संलग्न हो जाएं।
आत्मज्ञान की ओर अभिमुख होने से विचारों में स्थिरता, भावनाओं में पवित्रता तथा कर्तव्यों में दृढ़ता आती है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः अर्थात् यह आत्मज्ञान बलहीन व्यक्ति के द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार व्यक्ति को अपना कार्य सफल बनाने के लिए कभी शिथिल, उदास,शंकाशील, हतोत्साह या चंचल नहीं होना चाहिए। इस सम्बंध में निम्न पंक्ति भी महत्वपूर्ण है-आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि। अर्थात् स्त्री-परिवार और धन-संपत्ति से भी पहले सदा अपने आपकी रक्षा करनी चाहिए। इस सूक्ति को मूलमंत्र मानकर अपने स्वास्थ्य एवं मनोबल की रक्षा में सदा जागरूक रहना प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है। और यह तभी हो सकता है, जब आप अपना कार्य स्वयं करें।
संभवतः यह विचार आपके मन में उठ सकते हैं कि इतने विस्तृत कर्मकांड तथा उससे संबंधित संस्कृत भाषा के मंत्रों का शुद्ध उच्चारण कैसे हो सकेगा ? नित्य इन नियमों का निर्वाह मैं कैसे कर सकूंगा ? क्या मैं यह सब कर पाऊंगा ? ऐसे ही कितने प्रश्न मन को झकझोर सकते हैं। परंतु इन सबका एक ही उत्तर है कि आप निश्चय ही यह सब कर सकते हैं और यह आपको करना ही चाहिए।
अपनी पात्रता और उत्साह के अनुसार शनैः शनैः मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति एक दिन शिखर पर पहुंच जाता है। पौराणिक एवं लौकिक आख्यानों से स्पष्ट है कि पहले छोटे-से-छोटे मंत्र का जप करें तथा जप-संबंधी निर्देशों का पालन अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें। इससे आपका मानसिक विकास होगा, धीरे-धीरे ज्ञान की वृद्धि होने लगेगी तथा उपासना के द्वार खुल जाएंगे।
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

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