महामृत्युंजय मंत्र द्वारा विभिन्न उपादानों से हवन करने पर मनुष्य के अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। इन्हें प्रतिदिन क्रमवार रूप में नीचे दिया जा रहा है-
रविवार को किसी भी महामृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, जौ, धतूरे के बीज व पुष्पादि से दशांश हवन करने पर स्तंभन होता है।
सोमवार को 10 हजार जप करके घी, जौ, लाजा और पत्ते वाले शाक से दशांश हवन करने पर मोहन होता है।
मंगलवार को जप के उपरांत घी, श्रीपर्णी, मधु, श्रीफल और इमली से हवन करने पर शत्रु द्वारा पहुंचाई जाने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती है।
बुधवार को मृत्युंजय मंत्र का 10 हजार जप करके घी, शतावरी, त्रिकंटक और बिल्वप्रत्र द्वारा हवन करने से आकर्षण होता है।
गुरुवार को पूर्वोक्त संख्या में मंत्र का जप करके घी, कमलगट्टे और चंदन आदि से हवन करने पर वशीकरण होता है।
शुक्रवार को इतनी ही संख्या में जप करके, श्मशान में जाकर हवन करने से उच्चाटन होता है।
शनिवार को 10 हजार मंत्र जपकर घी, दूध, बैंगन और धतूरे के पुष्पादि से हवन करने पर परम शांति प्राप्त होती है।
शनिवार अथवा मंगलवार के दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर, उसका स्पर्श करते हुए मृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करें। तत्पश्चात् दूब, बरगद के पत्ते अथवा जटा, जवापुष्प, कनेर के पुष्प, बिल्वपत्र, ढाक की समिधा और काली अपराजिता के पुष्प के साथ घी मिलाकर दशांश हवन करें। इस क्रिया से शीघ्र ही रोग से मुक्ति मिलती है, मृत्यु का निवारण होता है तथा जीवन की रक्षा होती है।
महामृत्युंजय मंत्र का एक हजार जप करके नीम के पत्ते सरसों के तेल में मिलाकर हवन करने पर शत्रु द्वारा किए गए कुकृत्य मिटकर, जीवन की सुरक्षा हो जाती है।
सभी प्रकार के अभिचार दूर करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप के बाद पंचगव्य से हवन करना चाहिए। इससे मन को शांति भी प्राप्त होती है।
किसी भी बड़ी विपत्ति से मुक्ति हेतु, मृत्युंजय मंत्र के 10 हजार जप के पश्चात् जवापुष्प और विष्णुकांता के पुष्पों से हवन करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र की सिद्धि के लिए जायफल से हवन करना उत्तम है।
वैसे तो इस प्रकार के बहुत से उपाय हैं जो रोगों के निवारण तथा दीर्घ जीवन के लिए प्रयोग किए जाते हैं। मगर उन सभी का विस्तार यहां पर देना संभव नहीं है, क्योंकि महामृत्युंजय मंत्र के जप और उनका विधान यही हमारी पुस्तक का मुख्य विषय है। अतः इस विधान के अंतर्गत आने वाले कुछ विशेष उपायों की जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है। महामृत्युंजय साधना करने वाले प्रत्येक साधक को इसकी जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
जब रोगी बहुत कठिन स्थिति में होता है, तो आत्मीयजन और परिवार के लोग बड़ी बैचेनी का अनुभव करते हैं। सभी अपनी-अपनी बुद्धि और योग्यता के अनुसार रोगी को इस पीड़ादायक अवस्था से बाहर निकालने का उपाय खोजने में लग जाते हैं।
उस समय सभी का ध्यान अनायास भगवान महामृत्युंजय की ओर चला जाता है, क्योंकि वे कष्टों का निवारण करने और जीवन प्रदान करने वाले हैं। भगवान मृत्युंजय साक्षात् शिव हैं। तरह-तरह के जो भी उपाय होते हैं, वो सभी शिवजी को प्रसन्न करने और अपने अनुकूल बनान के लिए होते हैं। इन उपायों में दो उपाय प्रमुख हैं-
1. महामृत्युंजय मंत्र का जप
हम पिछले पृष्ठों में महामृत्युंजय मत्रा के बारे में काफी कुछ बता चुके हैं (इनका संक्षिप्त वर्णन आगे भी करेंगे) और अब पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए 'रुद्राभिषेक' पर कुछ प्रकाश डालेंगे। 'रुद्राभिषेक' दो शब्दों से मिलकर बना है अर्थात् 'रुद्र' और 'अभिषेक'। रुद्र तो शिव हैं एवं अभिषेक का अर्थ है, स्नान करना या कराना। रुद्र और अभिषेक का संक्षिप्त रूप 'रुद्राभिषेक' है। शिवलिंग
पर जलधारा छोड़ना ही 'रुद्राभिषेक' कहलाता है। रुद्रमंत्रों का विधान वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में उद्धृत मंत्रों से होता है। इसके लिए रुद्राष्टाध्यायी का इसमें आश्रय लिया जाता है, क्योंकि इसमें सभी प्रकार के मंत्रों का समावेश है। किन्तु 'कैवल्योपनिषद्' और 'जाबालोपनिषद् ' में इसके बारे में बहुत स्पष्ट कहा गया है।
'कैवल्योपनिषद्' में शतरुद्रिमधीते सोऽग्निपूतो भवति इत्यादि वचनों द्वारा शतरुद्रिय के पाठ से अग्नि, वायु, सुरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्ण चोरी, कृत्य एवं अकृत्य से पवित्र होने तथा कैवल्यपद प्राप्ति तक का ज्ञान-फल मिलता है। लेकिन 'जाबालोपनिषद्' में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- शतरुद्रियेणेत्येतान्येव ह वा अमृतस्य नमानि एतैर्ह वा अमृतो भवतीति अर्थात् शतरुद्रिय के पाठ से, वस्तुतः इसके द्वारा अभिषेक करने से अमृत्व प्राप्त होता है। इसलिए शतरुद्रिय मंत्रों से अभिषेक का बड़ा माहात्म्य है।
कुछ पाठकगण यह जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभिषेक कब और कैसे किया जाता है। इस बारे में शास्त्रों में उल्लेख है कि गुरु-परम्परा का अनुसरण करते हुए शतरुद्रिय के पाठ द्वारा अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक साधारणतः शुद्ध जल या गंगाजल से होता है। किसी विशेष अवसर पर अथवा सोमवार के दिन, प्रदोष या शिवरात्रि आदि पर्वकालों में गाय का कच्चा दूध पानी में मिलाकर या केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है।
तांत्रिक प्रयोग की दृष्टि से रोग-शांति में अन्य वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान शास्त्रों में देखने को मिलता है।
यदि किसी व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति पर कोई अभिचार-कृत्य कराया हो, तो किसी भी मृत्युंजय मंत्र का पांच या सात माला जप कर, सरसों के तेल से अभिषेक करें। इसी प्रकार टायफाइड आदि ज्वरों से मुक्ति के लिए छाछ (मट्ठे) से, सभी प्रकार की सुख-शांति के लिए आम, गन्ना, मौसमी, संतरा व नारियल के रस के मिश्रण से या फिर भांग से तथा वर्षा न होने पर सहस्रधारा से अभिषेक करना चाहिए।
हवन और अभिषेक के बाद दान का स्थान है। अनेक बार देखा गया है कि कुछ रोग विविध उपचार करने पर भी नहीं ठीक होते। ऐसी स्थिति में चिकित्सा और जप के अतिरिक्त शास्त्रकारों ने निम्न आज्ञा दी है-
तत्तद्दोष विनाशार्थं कुर्याद् यथोदितम्।
प्रतिरोगं च यद्दानं जप-होमादि कीर्तितम् ।।
प्रायश्चित्तं तु तन्कृत्वा चिकित्सामारमेत्ततः।
प्रदद्यात् सर्वरोगघ्नं छायापात्रं विधानतः ।।
छायापात्र दान-कर्मदोषों से उत्पन्न रोगों की शांति के लिए जिस-जिस दान का वर्णन किया गया है, उसका दान अवश्य करना चाहिए। प्रत्येक रोग के लिए निर्देशित दातव्य दान, जप, होमादि और प्रायश्चित करके चिकित्सा आरंभ करें। साथ ही सर्वरोगों के नाशक छायापात्र का विधानपूर्वक दान करें। छायापात्र दान का प्रयोग निम्नवत है-
चौंसठ पल कांसे की कटोरी में शुद्ध गाय का घृत (घी) भरकर, उसमें सुवर्ण का टुकड़ा अथवा कुछ दक्षिणा डाल दें। फिर रोगी उस घी में अपना चेहरा देखे। अच्छी तरह चेहरा देखने के बाद वह पात्र किसी ब्राह्मण को दे दें। दान से पूर्व तिथि और वार आदि का स्मरण करके यह संकल्प करें-
मम दीर्घायुरारोग्यसुतेजस्वित्व प्राप्ति पूर्वकं शरीरगत (अमुक) रोगनिवृत्तये अमुक नाम्ने ब्राह्मणाय सघृत-दक्षिणाकं छायापात्रदानमहं करिष्ये ।
इस संकल्प के बाद पात्र में जल डाल दें। फिर पात्र की पूजा करें। पूजा का मंत्र निम्नलिखित है-
ॐ आज्यं सुराणामाहारमाज्यं पापहरं परम्।
आज्ममध्ये मुखं दृष्ट्वा सर्वपापै प्रमुच्यते ।
घृतं नाशयते व्याधिं घृतं च हरते रुजम् ।
घृतं तेजोऽधिकरणं घृतमायुः प्रवर्धते ॥
तत्पश्चात् निम्न मंत्र पढ़कर उसमें अपना चेहरा देखें-
आयुर्बलं यशो वर्च आज्यं स्वर्णं तथामृतप्।
आधारं तेजसां यस्मादतः शांतिं प्रयच्छ मे ।।
फिर पात्र को भूमि से टिकाए बिना ब्राह्मण को दे दें और प्रणाम करके सम्मान के विदा करें।
साथ उसने का एक दूसरा उपाय इस प्रकार है-किसी पात्र अथवा वस्त्र में, अपनी श्रद्धा के अनुसार सवाया तौल में चावल लेकर उसमें कुछ द्रव्य अथवा वस्तु आम्रा फिर उसे रोगी के ऊपर 21 बार सिर से पैर तक उतारकर, निम्न मंत्र बोलकर ब्राह्मण को दान कर दें-
ये मां रोगाः प्रबाधन्ते देहस्थाः सततं मम।
गृहणीष्व प्रतिरूपेण तान् रोगान् द्विसत्तम ।।
तुलादान-यदि शरीर में किसी विशेष रोग ने घर कर लिया हो और अनेक प्रकार के उपचार करने पर भी कोई लाभ न होता हो, तो चंद्रग्रहण के अवसर पर तुलादान करना चाहिए। तुलादान का अर्थ है-तौलकर दान करना! अपनी सामथ्यं के अनुसार शरीर के वजन का द्रव्य, वस्तु या खाद्य सामग्री का दान करना ही तुलादान है। इस प्रकार के दान से रोगी का रोग दूर होकर वह पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है।
यह बात सदैव स्मरण रखें कि कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए कभी किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, बल्कि अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि अच्छे कर्म स्वयं ही करने चाहिए। आत्मकल्याणकारी कार्य-दान-पुण्य, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन और स्तुति-प्रार्थना आदि मनुष्य स्वयं करे। यदि किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक स्थिति ठीक न हो, तो अपने प्रतिनिधि द्वारा ऐसे कार्य कराए जा सकते हैं। प्रतिनिधि का अर्थ है-कोई निकट-संबंधी! यदि कोई ऐसा संबंधी न मिले, तो किसी नान-संध्याशील, पवित्र, सदाचारी अथवा मंत्रज्ञ ब्राह्मण द्वारा ये कार्य कराए जा सकते हैं।
मंत्र-जप एवं साधना-उपासना के लिए आंतरिक और बाह्य शुद्धि दोनों अत्यंत आवश्यक हैं। यदि ज्ञान न हो तो मरा मरा के जप से ही सिद्धि मिल जाती है। ज्ञान होने पर प्रातः से सायं तक कर्मकांड के विभिन्न सोपानों का पालन करते हुए विधि-विधान से जपानुष्ठान करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। अतः श्रद्धा-भाव रखते हुए जिज्ञासापूर्वक विषय को समझें और अपने कार्य में संलग्न हो जाएं।
आत्मज्ञान की ओर अभिमुख होने से विचारों में स्थिरता, भावनाओं में पवित्रता तथा कर्तव्यों में दृढ़ता आती है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः अर्थात् यह आत्मज्ञान बलहीन व्यक्ति के द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार व्यक्ति को अपना कार्य सफल बनाने के लिए कभी शिथिल, उदास,शंकाशील, हतोत्साह या चंचल नहीं होना चाहिए। इस सम्बंध में निम्न पंक्ति भी महत्वपूर्ण है-आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि। अर्थात् स्त्री-परिवार और धन-संपत्ति से भी पहले सदा अपने आपकी रक्षा करनी चाहिए। इस सूक्ति को मूलमंत्र मानकर अपने स्वास्थ्य एवं मनोबल की रक्षा में सदा जागरूक रहना प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है। और यह तभी हो सकता है, जब आप अपना कार्य स्वयं करें।
संभवतः यह विचार आपके मन में उठ सकते हैं कि इतने विस्तृत कर्मकांड तथा उससे संबंधित संस्कृत भाषा के मंत्रों का शुद्ध उच्चारण कैसे हो सकेगा ? नित्य इन नियमों का निर्वाह मैं कैसे कर सकूंगा ? क्या मैं यह सब कर पाऊंगा ? ऐसे ही कितने प्रश्न मन को झकझोर सकते हैं। परंतु इन सबका एक ही उत्तर है कि आप निश्चय ही यह सब कर सकते हैं और यह आपको करना ही चाहिए।
अपनी पात्रता और उत्साह के अनुसार शनैः शनैः मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति एक दिन शिखर पर पहुंच जाता है। पौराणिक एवं लौकिक आख्यानों से स्पष्ट है कि पहले छोटे-से-छोटे मंत्र का जप करें तथा जप-संबंधी निर्देशों का पालन अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें। इससे आपका मानसिक विकास होगा, धीरे-धीरे ज्ञान की वृद्धि होने लगेगी तथा उपासना के द्वार खुल जाएंगे।
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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