Thursday, 7 April 2022

पीताम्बरा पीठ दतिया

पीताम्बरा पीठ दतिया 
पीताम्बरा पीठ दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश में स्थित है। यह देश के लोकप्रिय शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि कभी इस स्थान पर श्मशान हुआ करता था, लेकिन आज एक विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। स्थानील लोगों की मान्यता है कि मुकदमे आदि के सिलसिले में माँ पीताम्बरा का अनुष्ठान सफलता दिलाने वाला होता है। पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही 'माँ धूमावती देवी' का मन्दिर है, जो भारत में भगवती धूमावती का एक मात्र मन्दिर है।
स्थापना
मध्य प्रदेश के दतिया शहर में प्रवेश करते ही पीताम्बरा पीठ है। यहाँ पहले कभी श्मशान हुआ करता था, आज विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। पीताम्बरा पीठ की स्थापना एक सिद्ध संत, जिन्हें लोग स्वामीजी महाराज कहकर पुकारते थे, ने 1935 में की थी। श्री स्वामी महाराज ने बचपन से ही संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे यहाँ एक स्वतंत्र अखण्ड ब्रह्मचारी संत के रूप में निवास करते थे। स्वामीजी प्रकांड विद्वान व प्रसिद्ध लेखक थे। उन्हेंने संस्कृत, हिन्दी में कई किताबें भी लिखी थीं। गोलकवासी स्वामीजी महाराज ने इस स्थान पर 'बगलामुखी देवी' और धूमावती माई की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। यहाँ बना वनखंडेश्वर मन्दिर महाभारत कालीन मन्दिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। इसके अलावा इस मन्दिर परिसर में अन्य बहुत से मन्दिर भी बने हुए हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालुओं का यहाँ आना-जाना लगा रहता है|
प्रतिमा-9760924411
पीताम्बरा देवी की मूर्ति के हाथों में मुदगर, पाश, वज्र एवं शत्रुजिव्हा है। यह शत्रुओं की जीभ को कीलित कर देती हैं। मुकदमे आदि में इनका अनुष्ठान सफलता प्राप्त करने वाला माना जाता है। इनकी आराधना करने से साधक को विजय प्राप्त होती है। शुत्र पूरी तरह पराजित हो जाते हैं। यहाँ के पंडित तो यहाँ तक कहते हैं कि, जो राज्य आतंकवाद व नक्सलवाद से प्रभावित हैं, वह माँ पीताम्बरा की साधना व अनुष्ठान कराएँ, तो उन्हें इस समस्या से निजात मिल सकती है।
धूमावती मन्दिर
पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही माँ भगवती धूमावती देवी का देश का एक मात्र मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर परिसर में माँ धूमावती की स्थापना न करने के लिए अनेक विद्वानों ने स्वामीजी महाराज को मना किया था। तब स्वामी जी ने कहा कि- "माँ का भयंकर रूप तो दुष्टों के लिए है, भक्तों के प्रति ये अति दयालु हैं।" समूचे विश्व में धूमावती माता का यह एक मात्र मन्दिर है। जब माँ पीताम्बरा पीठ में माँ धूमावती की स्थापना हुई थी, उसी दिन स्वामी महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने की तैयारी शुरू कर दी थी। ठीक एक वर्ष बाद माँ धूमावती जयन्ती के दिन स्वामी महाराज ब्रह्मलीन हो गए। माँ धूमावती की आरती सुबह-शाम होती है, लेकिन भक्तों के लिए धूमावती का मन्दिर शनिवार को सुबह-शाम 2 घंटे के लिए खुलता है। माँ धूमावती को नमकीन पकवान, जैसे- मंगोडे, कचौड़ी व समोसे आदि का भोग लगाया जाता है।
ऐतिहासिक सत्य
माँ पीताम्बरा बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक है। पीताम्बरा पीठ मन्दिर के साथ एक ऐतिहासिक सत्य भी जुड़ा हुआ है। सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। भारत के मित्र देशों रूस तथा मिस्र ने भी सहयोग देने से मना कर दिया था। तभी किसी योगी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से स्वामी महाराज से मिलने को कहा। उस समय नेहरू दतिया आए और स्वामीजी से मिले। स्वामी महाराज ने राष्ट्रहित में एक यज्ञ करने की बात कही। यज्ञ में सिद्ध पंडितों, तांत्रिकों व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यज्ञ का यजमान बनाकर यज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ के नौंवे दिन जब यज्ञ का समापन होने वाला था तथा पूर्णाहुति डाली जा रही थी, उसी समय 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का नेहरू जी को संदेश मिला कि चीन ने आक्रमण रोक दिया है। मन्दिर प्रांगण में वह यज्ञशाला आज भी बनी हुई है।
श्री बगलामुखी का एक प्रसिद्ध नाम श्री पीताम्बरा भी है। यह त्रिपुर सुंदरी शक्ति श्री विष्णु की आराधना से ही माता बगला के रूप में प्रकट हुईं। यह वैष्णवी शक्ति हैं। यह शिव मृत्युंजय की शक्ति कहलाती हैं। यह सिद्ध विद्या श्रीकुल की ब्रह्म विद्या हैं। दश महाविद्या में आद्या महाकाली ही प्रथम उपास्य हैं। इनकी कृपा हो तो साधना में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। इनकी साधना वाम या दक्षिण मार्ग से किया जाता है, परंतु बगला शक्ति विशेषकर दक्षिण मार्ग से ही उपास्य हैं। श्री बगला पराशक्ति की साधना अति गोपनीयता के साथ की जाती है। इनकी उपासना ऋषि-मुनि के अतिरिक्त देवता भी करते हैं। जनमानस के हेतु इनकी साधना सुलभ बनाने के लिए साक्षात् शिव को 'श्री स्वामी' के रूप में मानव शरीर धारण कर दतिया, मध्य प्रदेश में श्री पीताम्बरा पीठ की स्थापना करनी पड़ी। श्री स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'श्री बगलामुखी रहस्य' अति सुंदर और साधकों के लिए कृपा स्वरूप है। श्री बगलामुखी के साधक को गंभीर एवं निडर होने के साथ-साथ शुद्ध एवं सरल चित्त का होना चाहिए। श्री बगला स्तंभन की देवी भी है त्रिशक्ति रूप के कारण स्तंभन के साथ-साथ भोग एवं मोक्षदायिनी भी हैं। बगलामुखी की साधना बिना गुरु के भूल कर भी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा थोड़ी सी भी चूक से साधक के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित हो जाता है। मणिद्वीप वासिनी काली भुवनेश्वरी माता ही बगलामुखी हैं। इनकी अंग पूजा में शिव, मृत्युंजय, श्री गणेश, बटुक भैरव और विडालिका यक्षिणी का पूजन किया जाता है। कई जन्मों के पुण्य प्रताप से ही इनकी उपासना सिद्ध होती है। विद्वानों का मत है कि विश्व की अन्य सारी शक्तियां संयुक्त होकर भी माता बगला की बराबरी नहीं कर सकती हैं। इनके मंत्र का जप सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। इनके मंत्र के जप से अनेक प्रकार की चमत्कारिक अनुभूतियां होने लगती हैं। अलग-अलग कामनाओं की सिद्धि हेतु जप के लिए हरिद्रा, पीले हकीक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए। देवी को चंपा, गुलाब, कनेल और कमल के फूल विशेष प्रिय हैं। इनकी साधना किसी शिव मंदिर या माता मंदिर में अथवा किसी पर्वत पर या पवित्र जलाशय के पास गुरु के सान्निध्य में विशेष सिद्धिप्रद होता है। वैसे घर में भी किसी एकांत स्थान पर दैनिक उपासना की जा सकती है। श्री बगला के एकाक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुराक्षरी, पंचाक्षरी, अष्टाक्षरी, नवाक्षरी, एकादशाक्षरी और षट्त्रिंशदाक्षरी मंत्र विशेष सिद्धिदायक हैं। सभी मंत्रों का विनियोग, न्यास और ध्यान अलग-अलग हैं। इनके अतिरिक्त 80, 100, 126 अक्षरों मंत्रों के साथा 514 अक्षरों के बगला माला मंत्र की भी विशेष महिमा है। 666 अक्षर का ब्रह्मास्त्र माला मंत्र भी है। इसके अलावा और भी अनेकानेक मंत्र हैं, जिनका उल्लेख सांखयायन तंत्र में मिलता है। मनोकामना की सिद्धि के लिए बगला स्तोत्र, कवच और बगलास्त्र का गोपनीय पाठ भी किया जाता है। साथ ही बगला गायत्री और कीलक भी है। घृत, शक्कर, मधु और नमक से हवन करने पर आकर्षण होता है। शहद, शक्कर मिश्रित दूर्वा, गुरुच और धान के लावा से हवन करने पर रोगों से मुक्ति मिलती है। कार्य विशेष के लिए विशेष माला, विशेष मंत्र और विशेष हवन का विशेष प्रयोग होता है।9760924411
'पीताम्बरा पीठ दतिया श्री बगलामुखी महिमा 
 पीताम्बरा पीठ दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश में स्थित है। यह देश के लोकप्रिय शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि कभी इस स्थान पर श्मशान हुआ करता था, लेकिन आज एक विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। स्थानील लोगों की मान्यता है कि मुकदमे आदि के सिलसिले में माँ पीताम्बरा का अनुष्ठान सफलता दिलाने वाला होता है। पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही 'माँ धूमावती देवी' का मन्दिर है, जो भारत में भगवती धूमावती का एक मात्र मन्दिर है। स्थापना मध्य प्रदेश के दतिया शहर में प्रवेश करते ही पीताम्बरा पीठ है। यहाँ पहले कभी श्मशान हुआ करता था, आज विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। पीताम्बरा पीठ की स्थापना एक सिद्ध संत, जिन्हें लोग स्वामीजी महाराज कहकर पुकारते थे, ने 1935 में की थी। श्री स्वामी महाराज ने बचपन से ही संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे यहाँ एक स्वतंत्र अखण्ड ब्रह्मचारी संत के रूप में निवास करते थे। स्वामीजी प्रकांड विद्वान व प्रसिद्ध लेखक थे। उन्हेंने संस्कृत, हिन्दी में कई किताबें भी लिखी थीं। गोलकवासी स्वामीजी महाराज ने इस स्थान पर 'बगलामुखी देवी' और धूमावती माई की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। यहाँ बना वनखंडेश्वर मन्दिर महाभारत कालीन मन्दिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। इसके अलावा इस मन्दिर परिसर में अन्य बहुत से मन्दिर भी बने हुए हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालुओं का यहाँ आना-जाना लगा रहता है| 
पीताम्बरा देवी की मूर्ति के हाथों में मुदगर, पाश, वज्र एवं शत्रुजिव्हा है। यह शत्रुओं की जीभ को कीलित कर देती हैं। मुकदमे आदि में इनका अनुष्ठान सफलता प्राप्त करने वाला माना जाता है। इनकी आराधना करने से साधक को विजय प्राप्त होती है। शुत्र पूरी तरह पराजित हो जाते हैं। यहाँ के पंडित तो यहाँ तक कहते हैं कि, जो राज्य आतंकवाद व नक्सलवाद से प्रभावित हैं, वह माँ पीताम्बरा की साधना व अनुष्ठान कराएँ, तो उन्हें इस समस्या से निजात मिल सकती है। धूमावती मन्दिर ।
 पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही माँ भगवती धूमावती देवी का देश का एक मात्र मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर परिसर में माँ धूमावती की स्थापना न करने के लिए अनेक विद्वानों ने स्वामीजी महाराज को मना किया था। तब स्वामी जी ने कहा कि- "माँ का भयंकर रूप तो दुष्टों के लिए है, भक्तों के प्रति ये अति दयालु हैं।" समूचे विश्व में धूमावती माता का यह एक मात्र मन्दिर है। जब माँ पीताम्बरा पीठ में माँ धूमावती की स्थापना हुई थी, उसी दिन स्वामी महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने की तैयारी शुरू कर दी थी। ठीक एक वर्ष बाद माँ धूमावती जयन्ती के दिन स्वामी महाराज ब्रह्मलीन हो गए। माँ धूमावती की आरती सुबह-शाम होती है, लेकिन भक्तों के लिए धूमावती का मन्दिर शनिवार को सुबह-शाम 2 घंटे के लिए खुलता है। माँ धूमावती को नमकीन पकवान, जैसे- मंगोडे, कचौड़ी व समोसे आदि का भोग लगाया जाता है। ऐतिहासिक सत्य है।
 माँ पीताम्बरा बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक है। पीताम्बरा पीठ मन्दिर के साथ एक ऐतिहासिक सत्य भी जुड़ा हुआ है। सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। भारत के मित्र देशों रूस तथा मिस्र ने भी सहयोग देने से मना कर दिया था। तभी किसी योगी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से स्वामी महाराज से मिलने को कहा। उस समय नेहरू दतिया आए और स्वामीजी से मिले। स्वामी महाराज ने राष्ट्रहित में एक यज्ञ करने की बात कही। यज्ञ में सिद्ध पंडितों, तांत्रिकों व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यज्ञ का यजमान बनाकर यज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ के नौंवे दिन जब यज्ञ का समापन होने वाला था तथा पूर्णाहुति डाली जा रही थी, उसी समय 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का नेहरू जी को संदेश मिला कि चीन ने आक्रमण रोक दिया है। मन्दिर प्रांगण में वह यज्ञशाला आज भी बनी हुई है। श्री बगलामुखी महिमा राज शिवम मा ता श्री बगलामुखी का एक प्रसिद्ध नाम श्री पीताम्बरा भी है। यह त्रिपुर सुंदरी शक्ति श्री विष्णु की आराधना से ही माता बगला के रूप में प्रकट हुईं। यह वैष्णवी शक्ति हैं। यह शिव मृत्युंजय की शक्ति कहलाती हैं। यह सिद्ध विद्या श्रीकुल की ब्रह्म विद्या हैं। दश महाविद्या में आद्या महाकाली ही प्रथम उपास्य हैं। इनकी कृपा हो तो साधना में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। इनकी साधना वाम या दक्षिण मार्ग से किया जाता है, परंतु बगला शक्ति विशेषकर दक्षिण मार्ग से ही उपास्य हैं। श्री बगला पराशक्ति की साधना अति गोपनीयता के साथ की जाती है। इनकी उपासना ऋषि-मुनि के अतिरिक्त देवता भी करते हैं। जनमानस के हेतु इनकी साधना सुलभ बनाने के लिए साक्षात् शिव को 'श्री स्वामी' के रूप में मानव शरीर धारण कर दतिया, मध्य प्रदेश में श्री पीताम्बरा पीठ की स्थापना करनी पड़ी। श्री स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'श्री बगलामुखी रहस्य' अति सुंदर और साधकों के लिए कृपा स्वरूप है। श्री बगलामुखी के साधक को गंभीर एवं निडर होने के साथ-साथ शुद्ध एवं सरल चित्त का होना चाहिए। श्री बगला स्तंभन की देवी भी है त्रिशक्ति रूप के कारण स्तंभन के साथ-साथ भोग एवं मोक्षदायिनी भी हैं। बगलामुखी की साधना बिना गुरु के भूल कर भी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा थोड़ी सी भी चूक से साधक के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित हो जाता है। मणिद्वीप वासिनी काली भुवनेश्वरी माता ही बगलामुखी हैं। इनकी अंग पूजा में शिव, मृत्युंजय, श्री गणेश, बटुक भैरव और विडालिका यक्षिणी का पूजन किया जाता है। कई जन्मों के पुण्य प्रताप से ही इनकी उपासना सिद्ध होती है। विद्वानों का मत है कि विश्व की अन्य सारी शक्तियां संयुक्त होकर भी माता बगला की बराबरी नहीं कर सकती हैं। इनके मंत्र का जप सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। इनके मंत्र के जप से अनेक प्रकार की चमत्कारिक अनुभूतियां होने लगती हैं। अलग-अलग कामनाओं की सिद्धि हेतु जप के लिए हरिद्रा, पीले हकीक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए। देवी को चंपा, गुलाब, कनेल और कमल के फूल विशेष प्रिय हैं। इनकी साधना किसी शिव मंदिर या माता मंदिर में अथवा किसी पर्वत पर या पवित्र जलाशय के पास गुरु के सान्निध्य में विशेष सिद्धिप्रद होता है। वैसे घर में भी किसी एकांत स्थान पर दैनिक उपासना की जा सकती है। श्री बगला के एकाक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुराक्षरी, पंचाक्षरी, अष्टाक्षरी, नवाक्षरी, एकादशाक्षरी और षट्त्रिंशदाक्षरी मंत्र विशेष सिद्धिदायक हैं। सभी मंत्रों का विनियोग, न्यास और ध्यान अलग-अलग हैं। इनके अतिरिक्त 80, 100, 126 अक्षरों मंत्रों के साथा 514 अक्षरों के बगला माला मंत्र की भी विशेष महिमा है। 666 अक्षर का ब्रह्मास्त्र माला मंत्र भी है। इसके अलावा और भी अनेकानेक मंत्र हैं, जिनका उल्लेख सांखयायन तंत्र में मिलता है। मनोकामना की सिद्धि के लिए बगला स्तोत्र, कवच और बगलास्त्र का गोपनीय पाठ भी किया जाता है। साथ ही बगला गायत्री और कीलक भी है। घृत, शक्कर, मधु और नमक से हवन करने पर आकर्षण होता है। शहद, शक्कर मिश्रित दूर्वा, गुरुच और धान के लावा से हवन करने पर रोगों से मुक्ति मिलती है। कार्य विशेष के लिए विशेष माला, विशेष मंत्र और विशेष हवन का विशेष प्रयोग होता है।'
9760924411

वनेश्वरी संहिता

वनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम गं्रथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ ह।ै 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। 'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगााणां शतद्वयम्॥ मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं। दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- सामान्य विधि : नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। वाकार विधि : यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। संपुट पाठ विधि : किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। सार्ध नवचण्डी विधि : इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। शतचण्डी विधि : मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
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Saturday, 2 April 2022

भगवती श्री काली

भगवती श्री काली
परमात्मा की पराशक्ति भगवती निराकार होकर भी देवताओं का दु:ख दूर करने के लिये युग-युग में साकार रूप धारण करके अवतार लेती हैं। उनका शरीर ग्रहण उनकी इच्छा का वैभव कहा गया है। सनातन शक्ति जगदम्बा ही महामाया कही गयी हैं। वे ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं। उनकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मादि समस्त देवता भी परम तत्त्व को नहीं जान पाते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? वे परमेश्वरी ही सत्त्व, रज और तस- इन तीनों गुणों का आश्रय लेकर समयानुसार सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन औ संहार किया करती हैं। शिव पुराण के अनुसार उनके काली रूप में अवतार की कथा इस प्रकार है- प्रलयकाल में सम्पूर्ण जगत के जलमग्न होने पर भगवान विष्णु योगनिद्रा में शेषशय्या पर शयन कर रहे थे। उन्हीं दिनों भगवान विष्णु के कानों के मल से दो असुर प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे। उनके जबड़े बहुत बड़े थे। उनके मुख दाढ़ों के कारण ऐसे विकराल दिखायी देते थे, मानो वे सम्पूर्ण विश्व को खा डालने के लिये उद्यम हों। उन दोनों ने भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुए कमल के ऊपर विराजमान ब्रह्मा जी को मारने के लिये तैयार हो गये। 
ब्रह्माजी ने देखा कि ये दोनों मेरे ऊपर आक्रमण करना चाहते हैं और भगवान विष्णु समुद्र के जल में शेषशय्या पर सो रहे हैं, तब उन्होंने अपनी रक्षा के लिये महामाया परमेश्वरी की स्तुति की और उनसे प्रार्थना किया- 'अम्बिके! तुम इन दोनों असुरों को मोहित करके मेरी रक्षा करो और अजन्मा भगवान नारायण को जगा दो।'
मधु और कैटभ के नाश के लिये ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिदेवी जगज्जननी महाविद्या काली फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को त्रैलोक्य-मोहिनी शक्ति के रूप में पहले आकाश में प्रकट हुईं। तदनन्तर आकाशवाणी हुई 'कमलासन ब्रह्मा डरो मत। युद्ध में मधु-कैटभ का विनाश करके मैं तुम्हारे संकट दूर करूँगी।' फिर वे महामाया भगवान श्रीहरि के नेत्र, मुख, नासिका और बाहु आदि से निकल कर ब्रह्मा जी के सामने आ खड़ी हुईं। उसी समय भगवान विष्णु भी योगनिद्रा से जग गये। फिर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने अपने सामने मधु और कैटभ दोनों दैत्यों को देखा। उन दोनों महादैत्यों के साथ अतुल तेजस्वी भगवान विष्णु का पाँच हज़ार वर्षों तक घोर युद्ध हुआ। अन्त में महामाया के प्रभाव से मोहित होकर उन असुरों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'हम तुम्हारे युद्ध से अत्यन्त प्रभावित हुए। तुम हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।'
भगवान विष्णु ने कहा- 'यदि तुम लोग मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे यह वर दो कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों से हो।' उन असुरों ने देखा कि सारी पृथ्वी एकार्णव जल में डूबी है। यदि हम सूखी धरती पर अपने मृत्यु का वरदान इन्हें देते हैं, तब यह चाह कर भी हम को नहीं मार पायेंगे और हमें वरदान देने का श्रेय भी प्राप्त हो जायगा। अत: उन दोनों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'तुम हमको ऐसी जगह मार सकते हो, जहाँ जल से भीगी हुई धरती न हो।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् विष्णु ने अपना परम तेजस्वी चक्र उठाया और अपनी जाँघ पर उनके मस्तकों को रखकर काट डाला। इस प्रकार भगवती महाकाली की कृपा से उन दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो जाने से उनका अन्त हुआ।
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ॐ दुं दुर्गायै नमःगुप्त-सप्तशती।

ॐ दुं दुर्गायै नमः
गुप्त-सप्तशती।
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्‌॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्‌।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्‌॥ 4॥
अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ । 
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
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मां काली तंत्र

मां काली तंत्र
*दस महाविद्याओं में काली प्रथम हैं। कालिका पुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने हिमालय पर जाकर महामाया का स्तवन किया। पुराणकार के अनुसार यह स्थान मतंगमुनि का आश्रम था। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने मतंग-वनिता बनकर देवताओं को दर्शन दिया और पुछा कि 'तुमलोग किस की स्तुति कर रहे हो।' तत्काल उनके श्रीविग्रह से काले पहाड के समान वर्ण वाली दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ। उस महा तेजस्विनी ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि 'ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे गाढ काजल के समान कृष्णा थी, इसलिए उनका नाम 'काली' पडा। महाकाली प्रलय काल से सम्बद्ध होने से अतएव कृष्णवर्णा है। वे शव पर आरुढ इसीलिए हैं कि शक्तिविहीन विश्व मृत ही हैं। शत्रुसंहारक शक्ति भयावह होती हैं, इसीलिए काली की मूर्ति भयावह हैं। शत्रु-संहार के बाद विजयी योद्धा का अट्टहास भीषणता के लिए होता हैं, इसलिए महाकाली हँसती रहती हैं।*
*माता काली शत्रु-संहारक है, वह कभी भक्तो को निराश नही करती।*
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मां नील तारा

मां नील तारा
*वास्तव में काली को ही नीलरुपा होने से 'तारा' भी कहाँ गया हैं। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी हैं कि वह सर्वदा मोक्ष देनेवाली-तारनेवाली है, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों में रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या उग्रतारा हैं।तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रुप की चर्चा हैं। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शवरुप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरुढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नीलकमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग है। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला हैं। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ हैं। इस कारण वह महाकरुणामयी है। तारा तन्त्र में कहाँ गया हैं-*
*समुद्र मथने देवि कालकूट समुपस्थितम्।।*
*समुद्रमंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीनेवाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं। शिव-शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट हैं। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करनेवाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करनेवाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भूत हैं। यह फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरुपा हैं। यही एकजटा हैं। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिंगल जटा धारिणी उग्रतारा एकजटा के रुप में पूजित हुई। वही उग्रतारा शव के ह्रदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई।*
*मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्प्रदे।*
*प्रत्यालीढपदस्थिते शिवह्रदि स्मेराननाम्भोरुहे।।*
*शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रुपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति स्वरुप है।*
*नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती।*
*तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी।।*
*उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता।*
*पिंगोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरुपिणी।।*
*सर्व प्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठाराधिता तारा' भी कहा जाता हैं। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधना की, जो सफल ना हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया हैं, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली।*
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श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र

श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र
(१), एकाक्षर मन्त्र-श्रीं
विनियोग-: अस्य श्री कमला मंत्रस्य भृगुऋषिः।। निवृच्छंद।। श्रीलक्ष्मीर्देवता।। मम् धनाप्तये जपे विनियोगः।।
ऋष्यादि न्यास
भृगुऋषये नमः शिरसि।।१।।
निवृच्छंदसे नमो मुखे।।२।।
श्री लक्ष्मी देवतायै नमो हृदि।।३।।
विनियोग नमः सर्वांगे।।४।।
करन्यास-
ॐ श्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।।१।।
ॐ श्रीं तर्जनीभ्यां नमः।।२।।
ॐ श्रूं मध्यमाभ्यां नमः।।३।।
ॐ श्रैं अनामिकाभ्यां नमः।।४।।
ॐ श्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।।५।।
ॐ कलतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।।६।।
ह्रदयादि षडंग न्यास
ॐ श्रां ह्रदयाय नमः।।१।।
ॐ श्रीं शिरसे स्वाहा।।२।।
ॐ श्रूं शिखायै वषट्।।३।।
ॐ श्रैं कवचाय हुं।।४।।
ॐ श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।।५।।
ॐ श्रः अस्त्राय फट् ।।६।।
ध्यान मन्त्र-
(श्री महालक्ष्मी का कोई भी ध्यान मंत्र कर सकते हैं।)
कान्तया कांचन सान्निभां हिमगिरि प्रख्यैश्चतुर्भिर्गजे हस्तोत्क्षिप्त हिरण्मया मृत घटै रासिच्यमानां श्रियम्। बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोजज्वलां।
क्षौमाबद्ध नितंब बिंब लसिता वंदेऽरविन्द स्थिताम्।।
इस तरह ध्यान कर पीठ स्थापन पूजन करें। यंत्र-स्थापन पूजन और यंत्राधिष्ठित देवताओं का आवरण पूजन करें। धूप-दिप-निराजन-नैवेद्य अर्पण करके, देवी का शुद्ध चित्त से ध्यान करते हुए मन्त्र जप आरंभ करें। यह एकाक्षर 'श्रीं' मन्त्र का पुरश्चरण बारह लाख (१२) मन्त्र का हैं।
चतुर्क्षर लक्ष्मीबीज मन्त्र ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं।।
बारह लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
दशाक्षर कमला मन्त्र
ॐ नमः कमलवासिन्यौ स्वाहा।।
इस मन्त्र का दस लाख जप करें।
श्री महालक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्ये स्वाहा।।
इस मन्त्र का एक लाख जप करें।
द्वादशाक्षर महालक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः जगत्यप्रसूत्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण १२ लाख मन्त्र का हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मीरागच्छागच्छ मम मंदिरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।।
इस मन्त्र का नित्य १०८ जप करें। १०८ दिन तक अविरत जप करने से धन-वैभव की प्राप्ति होती हैं।
श्री सिद्धलक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण एक लाख मन्त्र हैं।
श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं ज्येष्ठालक्ष्मि स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः।।
इस मन्त्र का १ लाख जप करें।
वसुधा लक्ष्मी मन्त्र
ॐ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नंमे देह्यन्नाधि पतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॐ।।
एक लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र (अन्य)
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंह वाहिन्यै स्वाहा।।
पुरश्चरण एक लाख मन्त्र।
नित्य जप श्री लक्ष्मी मन्त्र 
ॐ श्रीं नमः।।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः।।
नित्य श्रीसुक्त पाठ भी माता महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए अमोघ हैं।
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नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।

नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।
ब्राह्म मुहूर्त में 4 बजे से लेकर प्रातः 7 बजे तक इन मंत्रों की जप साधना करने पर ये मंत्र पूर्ण सिद्ध हो जाते हैं। इन मंत्रों को प्रतिदिन 1100 बार रुद्राक्ष या लाल चंदन की माला से ही जप करना चाहिए । नौ दिनों कुल 9 हजार मंत्रों के जप का विधान है।
प्रतिदिन दसवां अंश या जो भी संभव हो,मंत्रों की आहुति का यज्ञ करने चाहिए । यज्ञ करने से जप का फल शीघ्र मिलने लगता हैं। और कुछ ही समय में माता रानी भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी भी कर देती हैं ।

1. शैलपुत्री : ह्रीं शिवायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
ध्यान-मूलाधार चक्र। 
    शैलपुत्री देवी पार्वती का ही स्वरूप हैं। जो सहज भाव से पूजन करने से शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। कलश स्थापना के समय पीले वस्त्र पहनें और माँ को (आरोग्यता हेतु गाय के शुद्ध घी का भोग), सफ़ेद मिष्ठान व सफ़ेद पुष्प चढ़ाकर माँ की आरती करें।

2. ब्रह्मचारिणी :  ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:। 
 स्तवन मंत्र-
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ध्यान चक्र-स्वाधिष्ठान।
    देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें। सफेद और सुगंधित फूल, इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। (पूर्ण आयु प्राप्ति हेतु मिश्री), सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र बोलें।

3. चन्द्रघण्टा :  ऐं श्रीं शक्तयै नम:। 
स्तवन मंत्र-
पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।
ध्यान चक्र-मणिपुर।
   शुद्ध जल और पंचामृत से स्नान करायें। अलग-अलग तरह के फूल,अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर,अर्पित करें।(धन वैभव आनंद दुखनाश हेतु केसर-दूध से बनी मिठाइयों या खीर का भोग) लगाएं। मां को सफेद कमल,लाल गुडहल और गुलाब की माला अर्पण करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र जप करें।

4. कूष्मांडा : ऐं ह्री देव्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
ध्यान चक्र-अनाहत।
    नवरात्र में चौथे दिन कलश की पूजा कर माता कूष्मांडा को प्रणाम करें। देवी को पूरी श्रद्धा से फल,फूल, धूप, गंध, भोग चढ़ाएं। पूजन के पश्चात (मनोबल व सद्बुद्धि,उचित निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करने हेतु मां कुष्मांडा के दिव्य रूप को मालपुए का भोग) लगाकर किसी भी दुर्गा मंदिर में ब्राह्मणों को इसका प्रसाद देना चाहिए। पूजा के बाद अपने से बड़ों को प्रणाम कर प्रसाद वितरित करें और खुद भी प्रसाद ग्रहण करें।

5. स्कंदमाता : ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
ध्यान चक्र-विशुद्ध
     श्रृंगार केस्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि|| लिए खूबसूरत रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। स्कंदमाता और भगवान कार्तिकेय की पूजा विनम्रता के साथ करनी चाहिए। पूजा में कुमकुम,अक्षत,पुष्प,फल आदि से पूजा करें। चंदन लगाएं ,माता के सामने घी का दीपक जलाएं।आज के दिन (आरोग्यता एवं सद्बुद्धि हेतु भगवती दुर्गा को केले का भोग) लगाना चाहिए और यह प्रसाद ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

6. कात्यायनी : क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:।
स्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि||
ध्यान चक्र-आज्ञा।
पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में सुगन्धित पुष्प लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।माँ को श्रृंगार की सभी वस्तुएं अर्पित करें। (आकर्षण एवं सौंदर्य हेतु मां कात्यायनी को शहद  बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन मां को भोग में शहद अर्पित करें।)देवी की पूजा के साथ भगवान शिव की भी पूजा करनी चाहिए ।

7. कालरात्रि : क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।
वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
ध्यान चक्र-ललाट।
   कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष  दीपक जलाकर रोली, अक्षत,फल,पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए। देवी को लाल पुष्प बहुत प्रिय है। इसलिए पूजन में गुड़हल अथवा गुलाब का पुष्प अर्पित करने से माता अति प्रसन्न होती हैं। मां काली के ध्यान  मंत्र का उच्चारण करें,(संकट से रक्षा हेतु माता को  गुड़ का भोग) लगाएं तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।

8. महागौरी : श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
ध्यान चक्र- सिर में चोटी के स्थान  पर है, 
     अष्टमी तिथि के दिन प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् कलश पूजन के पश्चात् मां की विधि-विधान से पूजा करें। इस दिन मां को सफेद पुष्प अर्पित करें, मां की वंदना मंत्र का उच्चारण करें। आज के दिन (संतान के बाधा निवारण तता उनके सुख हेतु माँ को नारियल का भोग), हलुआ,पूरी,सब्जी,काले चने एवं नारियल का भोग लगाएं। माता रानी को चुनरी अर्पित करें।अगर आपके घर अष्टमी पूजी जाती है। तो आप पूजा के बाद कन्याओं को भोजन भी करा सकते हैं ये शुभ फल देने वाला माना गया है।

9. सिद्धिदात्री :  ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि,
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।
ध्यान चक्र-पिण्ड (शरीर) से बाहर सूक्ष्म शरीर में ।

     सर्वप्रथम कलश की पूजा करके व उसमें स्थापित सभी देवी-देवताओं का ध्यान करना चाहिए। रोली,मोली,कुमकुम,पुष्प चुनरी आदि से माँ की भक्ति भाव से पूजा करें। (मृत्युभय एवं दुर्घटना से रक्षा हेतु तिल से बनी मिठाई का भोग), हलुआ,पूरी, खीर, चने, नारियल से माता को भोग लगाएं। इसके पश्चात माता के मंत्रो का जाप करना चाहिए। इस दिन नौ कन्याओं को घर में भोजन करना चाहिए। कन्याओं की आयु दो वर्ष से ऊपर और 10 वर्ष तक होनी चाहिए और इनकी संख्या कम से कम 9 तो होनी ही चाहिए। नव-दुर्गाओं में सिद्धिदात्री अंतिम है। तथा इनकी पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इस तरह से की गई पूजा से माता अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न होती है। भक्तों को संसार में धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
विशेष नोट- मां के भोग हेतु जो भी भाग निकाला गया हो वह भाग दक्षिणा सहित मंदिर के पुजारी या किसी ब्राह्मण को अवश्य दीजिए।

 शरीर में कुल कितने कमल हैं और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
      शरीर में कुल कितने कमल हैं। और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
शरीर में 108 कमलदल याने कि चक्र माने गए है।

उनमें से 7 प्रमुख है। ऐसे तो 112 चक्र है परन्तु बाकी 4 शरीर के बहार है।

और पूर्ण परमात्मा ऐसे तो पूरे शरीर में है क्युकी वो हर कण में है। तो शरीर के भी हर कण में होंगे। बाकी शास्त्रों की माने तो अज्ञा चक्र से उसके अनुभूति शुरु होती है। और आप सहत्र दल चक्र पर उन्हें पूर्ण रूप से समझने लगते है। तो आप कह सकते है। कि पूर्ण परमात्मा का ज्ञान सहस्त्र दल से होता है। तो वहीं उनका निवास होना चाइए।

और यदि आप शरीर के बहार कहीं पूर्ण परमात्मा को ढूंढ़ रहे है। तो आपको साकार ब्रह्म की अवधारणा को देखना होगा, तो उसके हिसाब से हर त्रिदेव का अपना अपना लोक है। और वह तीनों परमात्मा कहे जा सकते है। वैसे ज्यादातर मनुष्य सदा शिव को परमात्मा मानते है तो वो शिवलोक में रहते है।

 पहले दिन पहनें पीले रंग के वस्त्र
नवरात्रि के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है. माना जाता है। कि माता शैलपुत्री को पीला रंग बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करने से मां शैलपुत्री प्रसन्न होती हैं।
हरे रंग के वस्त्र धारण करें । दूसरे दिन
नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना होती है। धार्मिक मान्यता है। कि माता ब्रह्मचारिणी को हरा रंग बेहद पसंद है। इसलिए उनकी चुनरी और श्रंगार भी हरे रंग से किया जाता है। भक्तों को उनकी पूजा हरे रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए।
मां चंद्रघंटा को प्रिय है। भूरा रंग
नवरात्र के तीसरे दिन मां दुर्गा के चंद्रघंटा स्वरूप की पूजा की जाती है। उन्हें भूरा रंग बहुत भाता है। इसलिए उनका वस्त्र विन्यास भी भूरे रंग के कपड़ों से किया जाता है। भक्तों को नवरात्र के तीसरे दिन भूरे रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करनी चाहिए।
चौथे दिन पहनें नारंगी रंग के वस्त्र
चौथे दिन मां कुष्मांडा की आराधना की जाती है। मान्यता है। कि उन्हें नारंगी रंग बहुत प्रिय है। उनकी पूजा के दौरान सारा श्रंगार भी नारंगी रंग के कपड़ों से किया जाता है। इसलिए भक्तों को उनकी पूजा नारंगी रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए इससे माता प्रसन्न होती हैं।

मां स्कंदमाता को सफेद रंग प्रिय
नवरात्रि के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की आराधना की जाती है। माना जाता है। कि मां स्कंदमाता को सफेद रंग से बेहद लगाव है। इसलिए उनकी पूजा करते हुए भक्तों को सफेद रंग के कपड़े जरूर पहनने चाहिएं. भक्तों को इस श्रद्धा का फल जरूर मिलता है।
छठे दिन धारण करें लाल रंग के कपड़े
नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का माना जाता है। मान्यता है कि मां कात्यायनी को लाल रंग काफी प्रिय है। इसे देखते हुए उनका श्रंगार भी लाल रंग के कपडों से किया जाता है। भक्तों को भी मां को प्रसन्न करने के लिए छठे दिन लाल रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
मां कालरात्रि को पसंद हैं। नीला रंग
सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा की जाती है। उन्हें नीला रंग बहुत प्रिय है। उनकी प्रतिमा के वस्त्रों और पूजा के दूसरे सामानों का रंग भी नीला ही रखा जाता है। भक्तों को उनकी आराधना करते हुए नीले रंग के कपड़े  धारण करने चाहिए।
आठवें दिन पहनें गुलाबी रंग के वस्त्र
नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। उन्हें गुलाबी रंग से बेहद लगाव माना जाता है। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए नवरात्र के आठवें दिन गुलाबी रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
आखिरी दिन पहनें जामुनी रंग के कपड़े  
नवरात्रि के नौवें और आखिरी दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाती है। माना जाता है। कि जामुनी रंग मां सिद्धिदात्री को बहुत भाता है। इसलिए उनकी पूजा करते समय जामुनी रंग के कपड़े  पहनने चाहिए।
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Wednesday, 16 March 2022

होली 2022- 18 या 19 मार्च को कब है।

होली 2022- 18 या 19 मार्च को कब है। होली ? सही डेट और होलिका दहन का शुभ मुहूर्त जान लें ।
इस बार होली की तारीख को लेकर लोग कंफ्यूज हो रहे हैं। वहीं पूर्णिमा वाले दिन भद्राकाल होने से होलिका दहन के शुभ समय को लेकर भी उलझन है। ऐसे में होलिका दहन के सही मुहूर्त के साथ यह जानना ।
होलिका दहन फाल्गुन मास  की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। होलिका दहन के दिन को कई जगहों पर छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है। होलिका दहन केे अगले दिन होली का त्योहार मनाया जाता है। जिसमें रंग-अबीर की होली खेली जाती है। इस बार भद्राकाल के कारण होलिका दहन के शुभ समय को लेकर लोग संशय में हैं। वहीं प्रतिपदा तिथि को लेकर होली की तारीख में भी उलझन में हैं। आप भी इसी उलझन में हैं। तो जान लें कि कब मनाई जाएगी  होलिका दहन का शुभ समय
इस बार पूर्णिमा तिथि दो दिन पड़ रही है। साथ ही पूर्णिमा तिथि पर भद्राकाल होने के कारण लोगों में होली और होलिका दहन को लेकर संशय की स्थिति है। हिंदू धर्म ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन पूर्णिमा तिथि में सूर्यास्त के बाद करना चाहिए लेकिन यदि इस बीच भद्राकाल हो, तो भद्राकाल में होलिका दहन नहीं करना चाहिए  इसके लिए भद्राकाल के समाप्त होने का इंतजार करना चाहिए होलिका दहन के लिए भद्रामुक्त पूर्णिमा तिथि का होना बहुत जरूरी है। हिंदू शास्त्रों में भद्राकाल को अशुभ माना गया है। ऐसी मान्यता है। कि भद्राकाल में किया गया कोई भी काम सफल नहीं होता और उसके अशुभ परिणाम मिलते हैं।
होलिका दहन का शुभ मुहूर्त
ज्योतिष के अनुसार पूर्णिमा तिथि 17 मार्च 2022 को दोपहर 01:29 बजे से शुरू होकर 18 मार्च दोपहर 12:52 मिनट तक रहेगी ।
जबकि 17 मार्च को ही 01:20 बजे से भद्राकाल शुरू हो जाएगा और देर रात 12:57 बजे तक रहेगा ऐसे में भद्राकाल होने के कारण शाम के समय होलिका दहन नहीं किया जा सकेगा ।
चूंकि होलिका दहन के लिए रात का समय उपर्युक्त माना गया है। ऐसे में 12:57 बजे भद्राकाल समाप्त होने के बाद होलिका दहन संभव हो सकेगा ।
रात के समय होलिका दहन करने के लिए शुभ समय 12:58 बजे से लेकर रात 2:12 बजे तक है। इसके बाद ब्रह्म मुहूर्त की शुरुआत हो जाएगी ।
होली कब है। इस बात को लेकर भी इस बार लोगों के मन में संशय है। इस बार पूर्णिमा तिथि 17 मार्च से शुरू होकर 18 मार्च को दोपहर 12:52 मिनट तक रहेगी इसके बाद प्रतिपदा तिथि लग जाएगी और प्रतिपदा तिथि 19 मार्च को दोपहर 12:13 बजे तक रहेगी रंगों की होली प्रतिपदा तिथि में ही खेली जाती है। ऐसे में कुछ लोग रंगोत्सव के लिए 18 मार्च को सही तिथि मान रहे हैं। वहीं कुछ लोग उदया तिथि को मानते हुए 19 मार्च को लेकिन इस मामले में  पंडित आशु बहुगुणा कहते हैं। कि पूर्णिमा तिथि में चूंकि चंद्रमा का महत्व होता है। इसलिए इसमें उदय काल का महत्व नहीं माना जाता ऐसे में पूर्णिमा तिथि 17 मार्च को ही मान्य होगी और 17 मार्च की रात को होलिका दहन के बाद 18 मार्च को प्रतिपदा तिथि में रंगों की होली खेली जा सकेगी ।
वहीं कुछ कुछ जगहों पर 18 और 19 मार्च को दोनों दिन रंगों की होली खेली जाएगी 
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होली और तंत्रविद्या और उपाय

होली और तंत्रविद्या और उपाय

 1-तांत्रिक क्रियाओं की दृष्टि से होली का दिन विशिष्ट माना गया है। होली पर्व को तंत्र के अभिचार कर्म का प्रयोग करने के लिए विशिष्ट माना जाता है। तंत्र के अभिचार कर्म का आशय वशीकरण, मोहन, मारण, उच्चाटन, स्तम्भन एवं विद्वेषण से है।

 2- होली का पर्व तांत्रिक प्रयोगों से रक्षा हेतु शुभ मुहूर्त है। तांत्रिक अभिचार कर्मों से मुक्ति के लिए होली के दिन की गई साधनाएँ एवं प्रयोग सरलता से सफल होते है।
तंत्र शास्त्र के अनुसार होली के दिन कुछ खास उपाय करने से मनचाहा काम हो जाता है। 

 3-तंत्र क्रियाओं के लिए प्रमुख चार रात्रियों में से एक रात ये भी है। चूंकि ये पर्व पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इसलिए इस दिन हनुमानजी को प्रसन्न करने वाले टोटके विशेष रूप से किए जाते हैं। इस दिन हनुमानजी को तांत्रिक विधि से चोला चढ़ाने से हर बिगड़ा काम बन जाता है। और साधक पर हनुमानजी की विशेष कृपा होती है। जानिए होली के दिन हनुमानजी को किस प्रकार चोला चढ़ाना चाहिए-

4-होली के दिन शाम के समय हनुमानजी को केवड़े का इत्र व गुलाब की माला चढ़ाएं। हनुमानजी को प्रसन्न करने का ये बहुत ही अचूक उपाय है। इस उपाय से हर मनोकामना पूरी हो जाती है।

5-होली के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद बड़ के पेड़ से 11 या 21 पत्ते तोड़े लें। ध्यान रखें कि ये पत्ते पूरी तरह से साफ व साबूत हों। अब इन्हें स्वच्छ पानी से धो लें और इनके ऊपर चंदन से भगवान श्रीराम का नाम लिखें। अब इन पत्तों की एक माला बनाएं। माला बनाने के लिए पूजा में उपयोग किए जाने वाले रंगीन धागे का इस्तेमाल करें। अब समीप स्थित किसी हनुमान मंदिर जाएं और हनुमान प्रतिमा को यह माला पहना दें।

 6- हनुमानजी को प्रसन्न करने का यह बहुत प्राचीन टोटका है।
– यदि आप पर कोई संकट है। तो होली के दिन नीचे लिखे हनुमान मंत्र का विधि:-विधान से जप करें।
मंत्र—-
“ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा”

जप विधि:—

1- सुबह जल्दी उठकर सर्वप्रथम स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनें। इसके बाद अपने माता-पिता, गुरु, इष्ट व कुलदेवता को नमन कर कुशा (एक प्रकार की घास) के आसन पर बैठें। पारद हनुमान प्रतिमा के सामने इस मंत्र का जप करेंगे, तो विशेष फल मिलता है। जप के लिए लाल हकीक की माला का प्रयोग करें।

2- होली के दिन तेल, बेसन और उड़द के आटे से बनाई हुई हनुमानजी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करके तेल और घी का दीपक जलाएं तथा विधिवत पूजन कर पूआ, मिठाई आदि का भोग लगाएं। इसके बाद 27 पान के पत्ते तथा सुपारी आदि मुख शुद्धि की चीजें लेकर इनका बीड़ा बनाकर हनुमानजी को अर्पित करें। इसके बाद इस मंत्र का जप करें ।
मंत्र- नमो भगवते आंजनेयाय महाबलाय स्वाहा।

 3-फिर आरती, स्तुति करके अपने इच्छा बताएं और प्रार्थना करके इस मूर्ति को विसर्जित कर दें। इसके बाद किसी योग्य ब्राह्मण को भोजन कराकर व दान देकर ससम्मान विदा करें।

यह टोटका करने से शीघ्र ही आपकी मनोकामना पूरी होगी।

तंत्र रक्षा कवच प्रयोग

 1-होली की रात्रि में एकांत स्थल पर कुश के आसन पर बैठकर सामने लकड़ी की चौकी पर काला वस्त्र बिछाकर ताम्रपत्र पर बना तंत्र रक्षा ताबीज रखकर नीचे दिए हुए मंत्र की ग्यारह मालाएँ हल्दी की माला के द्वारा जपकर सिद्ध कर लें-
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं

मंत्र जप के उपरांत काले धागे में ताबीज को डालकर गले में धारण कर लें। यदि किसी व्यक्ति को ऊपर बाधाओं से पीड़ा मिल रही हो, हो तो इस प्रयोग के द्वारा तंत्र रक्षा ताबीज करने से उससे मुक्ति मिलती है।

धन वृद्धि के लिए उपाय

1-अगर आप धन चाहते हैं। तो इसके लिए किए जाने वाले टोटके के लिए भी होली उपयुक्त दिन है। आप होली की रात अपने घर में एकांत स्थान पर बैठकर नीचे लिखे मंत्र का जप कमल गट्टे की माला से करें।
इस उपाय से आपके धन में वृद्धि होगी।
मंत्र-  नमो धनदाय स्वाहा

शत्रु बाधा नियंत्रण हेतु प्रयोग
1-होली की रात्रि में काँसे की थाली में कनेर के 11 पुष्प तथा गुग्गल की 11 गोलियाँ रखकर जलती हुई होली में नीचे दिए हुए मंत्र को जपते हुए जलती हुई होली में डालनी चाहिए।मंत्र इस पकार है।
ओम ह्लीं हुं फट्।

1-होली के दिन द्विमुखी दीपक जलाकर मुख्य द्वार पर गुलाल छिड़क कर रख देना चाहिए। जब वह जलना बंद हो जाए, तो उसे होली की अग्नि में डाल देना चाहिए। दीपक जलाते समय मन ही मन यह कामना करनी चाहिए कि आपको भविष्य में धनहानि का सामना नहीं करना पड़ेगा।

राजकार्य में सफलता
1-चौराहे पर होली के समीप जाकर होली की उल्टे सात फेरे करें तथा प्रत्येक चक्र पूर्ण होने पर आक का टुकड़ा होली में फेंक दें। इस प्रकार कुल मिलाकर आक की जड़ के सात टुकड़े होली में फेंक दें। यह प्रयोग उस समय करना चाहिए, जब होली में अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं हो। आंक का टुकड़ा इस प्रकार फेंके कि वह होली में जाकर गिरे, होली से बाहर नहीं। ऐसा करने से राजपक्ष से चली आ रही बाधाएं दूर होती हैं। यदि किसी विशेष राजधिकारी से परेशानी आ रही हो तो आक के टुकड़ों पर गोरोचन आ रही हो, तो आक के टुकड़ों पर गोरोचन द्वारा अनार की कलम से उसका नाम लिखकर होली में डालना चाहिए।

 दुर्घटना से बचाव
दुर्घटना से बचाव के लिए होली की रात्रि में होलिका दहन से पूर्व हाथ में पांच काली गुज्जा लेकर होली की पाँच परिक्रमा लगाकर अंत में होलिका की ओर पीठ करके पाँचों गुंजाओं को सिर के ऊपर पांच बार फेरकर हाथों को सिर के ऊपर उठाकर होली में फेंक देना चाहिए। स्वास्थ्य लाभ हेतु होलिका दहन के समय होली की ग्यारह परिक्रमा लगाते हुए मन ही मन निम्नलिखित मंत्र का जाप करना चाहिए ।
देहि सौभाग्यमारोग्यं, देहि मे परमं सुखं।
रुपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि।।

होली के बाद भी प्राय:काल इस मंत्र का ग्यारह बार जप अवश्य करना चाहिए।
शनि के दुष्प्रभावों से मुक्ति हेतु प्रयोग

होली की संध्या को काले कुत्ते को तेल की चुपड़ी हुई रोटी खिलानी चाहिए। यदि कुत्ता रोटी खा ले तो अवश्य ही शनि ग्रह द्वारा आपको मिल रही। पीड़ा शांत होती है। यदि कुत्ता रोटी नहीं खाए तो शनि को अशुभ मानना चाहिए। काले कुत्ते को घर के द्वार पर अथवा घर के अंदर नहीं लाना चाहिए, अपितु उसके पास जाकर सड़क पर ही रोटी खिलानी चाहिए।

 ग्रह दोष निवारण हेतु प्रयोग

1-होली की रात्रि में होलिका दहन में से जलती हुई लकड़ी घर पर लाकर नवग्रहों की लकडिय़ों एवं गाय के गोबर से बने उपलों की होली प्रज्ज्वलित की जानी चाहिए। उसमें घर के प्रत्येक सदस्य को देशी घी में भिगोई हुई दो लौैंग, एक बतासा, एक पान का पत्ता चढ़ाना चाहिए। परिक्रमा लगाते समय जौ के दाने उसमें डालते रहें। सर्वार्थसिद्ध योग के दिन होली की राख को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें या बहता हुआ कुएँ में डाल दें।

रोग नाश के लिए उपाय
1-अगर आप किसी बीमारी से पीडि़त हैं। तो इसके लिए भी होली की रात को खास उपाय करने से आपकी बीमारी दूर हो सकती है। होली की रात आप नीचे लिखे मंत्र का जप तुलसी की माला से करें।
मंत्र- ॐ नमो भगवेत रुद्राय मृतार्क मध्ये संस्थिताय मम शरीरं अमृतं कुरु कुरु स्वाहा।

 भाग्य चमकाने का शक्तिशाली टोटका
1- होली के पर्व से एक दिन पूर्व संध्या काल में जिस पलाश वृक्ष पर बांदा हो उसी पेड को निमंत्रण देकर आएं। कुंकुम-अक्षत, सुपारी नैवेद्य आदि भेंट कर निवेदन करें। कि कल्याणकारी कार्य के लिए मैं आपका बांदा ले जाऊंगा। क्षमा करें। होली वाले दिन प्रात: सूर्य उदय हो जाने से पूर्व वह बांदा ले आएं और गन्धाक्षत पुष्प से मंत्रोपचार पूजा करें, देवदारू की धूप दें, मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाएं। अब निम्न मंत्र को 1008 बार जप कर बांदे को अपनी तिजोरी में जहां रकम गहने आदि रखते हैं। रख दें।
ओम वृक्षराज! वमृद्धस्त्वं, त्रिषु लोकेशु वर्तसे।
करू धान्य समृद्धि त्वं, क्षेत्रे कौटोधवर्जिते।।

 शीघ्र विवाह के लिए उपाय
1-होली के दिन सुबह एक साबूत पान पर साबूत सुपारी एवं हल्दी की गांठ शिवलिंग पर चढ़ाएं तथा पीछे पलटे बगैर अपने घर आ जाएं यही प्रयोग अगले दिन भी करें।अतिशीघ्र ही आपके विवाह होने की संभावनाएं बनेगी ।

2-यदि आप बेरोजगार हैं। और बहुत प्रयत्न करने के बाद भी आपको रोजगार नहीं मिल रहा है। तो निराश होने की कोई जरुरत नहीं है। कुछ साधारण तांत्रिक उपाय कर आप रोजगार पा सकते हैं।

3-आप शनिवार को हनुमानजी के मंदिर में जाकर मोतीचूर के लड्डुओं का भोग लगाएं। घी का दीपक जलाएं और मंदिर में ही बैठकर लाल चंदन की या मूंगा की माला से 108 बार जप करे।
कवन सो काज कठिन जग माही।जो नहीं होय तात तुम पाहिं।।
मंत्र का जप करें और 40 दिनों तक रोज अपने घर के मंदिर में इस मंत्र का जप 108 बार करें। 40 दिनों के अंदर ही आपको रोजगार मिलेगा।

4-तंत्र शास्त्र के अनुसार होली के अगर इस दिन हनुमानजी को चोला चढ़ाया जाए तो साधक की किस्मत चमक जाती है। हनुमानजी को चोला चढ़ाते समय कुछ बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।

5-हनुमानजी को चोला होली की रात को चढ़ाना चाहिए। सबसे पहले स्वयं स्नान कर शुद्ध हो जाएं और साफ वस्त्र धारण करें। सिर्फ लाल रंग की धोती पहने तो और भी अच्छा रहेगा।

6-चोला चढ़ाने के लिए चमेली के तेल का उपयोग करें। साथ ही चोला चढ़ाते समय एक दीपक हनुमानजी के सामने जला कर रख दें। दीपक में भी चमेली के तेल का ही उपयोग करें।

7-चोला चढ़ाने के बाद हनुमानजी को गुलाब के फूल की माला पहनाएं और केवड़े का इत्र हनुमानजी की मूर्ति के दोनों कंधों पर थोड़ा-थोड़ा छिटक दें।

8-अब एक साबूत पान का पत्ता लें और इसके ऊपर थोड़ा गुड़ व चना रख कर हनुमानजी को इसका भोग लगाएं।
भोग लगाने के बाद उसी स्थान पर थोड़ी देर बैठकर तुलसी की माला से नीचे लिखे मंत्र का जप करें। कम से कम 5 माला जप अवश्य करें।
मंत्र:-
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने।

अब हनुमानजी को चढ़ाए गए गुलाब के फूल की माला से एक फूल तोड़ कर उसे एक लाल कपड़े में लपेटकर अपने धन स्थान यानी तिजोरी में रखें। आपको कभी धन की कमी नहीं होगी।

1-होली के एक दिन पहले एक ऐसे पेड़ के नीचे जाए जिस पर चमगादड़ लटकती हो उस पेड़ की एक डाल को निमंत्रण दे कि कल हम तुम्हें ले जाएंगे।होली वाले दिन सूर्योदय से पूर्व उस डाल को तोड़कर ले आए। रात को उस डाल एवं उसके पत्तों का पूजन कर अपनी गद्दी के नीचे रखें। आपका व्यवसाय खूब फलेगा-फुलेगा।

जानिए तांत्रिक दुष्कर्मों के प्रभाव से बचने हेतु सावधानियाँ -

1-तांत्रिक दुष्कर्मों के प्रभाव से बचने के लिए निम्नलिखित सावधानियां अवश्य बरतनी चाहिए—-

 2- होली के दिन प्रात:काल हींग के पानी से कुल्ला मुख शोधन करना चाहिए।

 3- प्रात:काल उठते ही किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई वस्तु नहीं खानी चाहिए। जो व्यक्ति आपसे मन ही मन विद्वेष भाव रखता हो, उसके द्वारा दी गई वस्तु को नहीं रखना, उसके द्वारा दी गई वस्तु का सेवन करने से बचना चाहिए।

 4- सिर पर साफा, टोपी आदि पहननी चाहिए। ऐसा करने से सिर पर चावल आदि तांत्रिक वस्तुएँ फेंकने के प्रयोगों से रक्षा होती है।

 5-यदि व्यक्ति आपका पहना हुआ वस्त्र, रूमाल आदि मांगे अथवा अन्य किसी युक्ति से ले जाना चाहे, तो उसे ऐसा करने से रोकना चाहिए, क्योंकि अनेक तांत्रिक प्रयोगों में पहने हुए वस्त्र, रुमाल आदि की आवश्यकता होती है। तथा उनका प्रयोग होने पर संबंधित व्यक्ति प्रभावित हो जाता है।

6-होली के दिन दूसरे व्यक्ति विरोधी के द्वारा दिया गया दान, इलायची, लौैंग आदि का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस दिन तांत्रिक क्रियाएँ शीघ्र प्रभावी होती हैं।
श्रीराम ज्योतिष सदन
पंडित आशु बहुगुणा
9760924411

Saturday, 12 February 2022

अमावस्या और पूर्णिमा का रहस्य

अमावस्या और पूर्णिमा का रहस्य"
हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं,जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं ~ पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।
माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है ~ *'शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष'*। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।
यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं~पूर्णिमा(पुरणमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है, जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता, ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे..!!
*'लेकिन इसके पीछे आखिर रहस्य क्या है'..??*
नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां :धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- 'सकारात्मक और नकारात्मक', दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।
इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।
हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं ~ शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।
पूर्णिमा का विज्ञान :पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।
कुछ मुख्य पूर्णिमा :कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
चेतावनी :~ इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।
अमावस्या' :~ वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।
धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को 'अमा' कहा गया है। चन्द्रमंडल की 'अमा' नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे 'कुहू अमावस्या' भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।
कुछ मुख्य अमावस्या :भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।
चेतावनी :- इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं। कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

अम्बिका माँ का स्वयं सिद्ध मन्त्र है।

अम्बिका माँ का स्वयं सिद्ध मन्त्र है।  
 मंत्र : ॐ आठ-भुजी अम्बिका,एक नाम ओंकार , खट्-दर्शन त्रिभुवन में, पाँच पण्डवा सात दीप , चार खूँट नौ खण्ड में, चन्दा सूरज दो प्रमाण , हाथ जोड़ विनती करूँ , मम करो कल्याण !!! 
जब आप यह स्वयं सिद्ध अम्बीका देवी के शाबर मंत्र की १ माला फेर ले तो इसे भी देवी माँ के बाएँ हाथ में समर्पित कर दें! बस आपकी पूजा समाप्त हुई! ऐसा कम से कम ४१ दिन करें! साधना लाभ: इस साधना के अनेकों लाभ हे जो आपको साधना करके पता चलेंगे! तब भी इस पूजा से आपको दुर्गा माँ की विशेष कृपा प्राप्त होती है! आपकी हर मनोकामना पूरी होती है! सुराक्षातमक शक्तियां प्राप्त होती है! समस्त परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती है!       नौकरी मिलती है। पदोन्नति होती है। धन का आवागमनहोता है। व्यापार ठीक चलता है। रोगी ठीक हो जाता है। विवाह भी शीघ्र ही होता है। अगर कोई स्त्री करे तो उसके सुहाग की रक्षा भी होती है! सभी कायॅ सिद्ध होते है। 

एक विशेष उपाय आप सभी के लिये

एक विशेष उपाय आप सभी के लिये ।
घर से नकारात्मक शक्ति हटाने का शक्तिशाली उपाय-
बहुत लोगो परेशानी होती है घर में आते मन नही लगना या छोटी सी बात पर लड़ाई हो जाना ,घर में मन नही लगना एक बैचेनी सी होना जैसे घर में कोई है ,पूजा पाठ से मन हट जाना ये सभी नकारात्मक शक्ति के कारण होता है । इन सबसे से बचने का एक बहुत ही प्रभावशाली उपाय आपको दे रहा हु ।
विधि-
सबसे पहले गंगाजल ,इत्र,गौ मूत्र ,हल्दी और कुंकुम ले। गंगाजल इत्र और गौ मूत्र मिलाये फिर उसमे हल्दी घोले फिर इस घोल से घर के किसी भी कमरे के बीच में एक स्वस्तिक का निर्माण करे । अब स्वस्तिक के मध्य में कुंकुम से एक टि्की लगाये अब इस स्वस्तिक की अक्षत और फूल से पूजा करे साथ में धुप में लगा देना  । अब आँखे बंद करके ये महसूस करे की सभी नेगेटिविटी इस स्वस्तिक में आ रही है 5 मिंट ऐसा सोचे ।इसके बाद उसे लाल कपड़े से ढक दे जिससे उस पर किसी का पैर ना पड़े । बस इतना सा करना है अगले दिन इसको नदी में प्रवाहित करदे ।

क्षेत्रपाल बलीदान मंत्र

क्षेत्रपाल बलीदान मंत्र, ऊँ यं यं यं यंक्ष रूपं दशदिशि वदनं भूमि कंपायमानं । सं सं सं संहार मूर्ति शिर मुकुट जटा शेखरं चंद्र बिम्बं । दं दं दं दीर्घकायं विकृत नखमुखं च उर्ध्व रेखा कपालं । पं पं पं पाप नाशं प्रणमत सततं पशुपतिं भैरवं क्षेत्रपालम। ऊँ आध्यो भैरवो भीषणो नीगदीतः श्री कालराजः क्रमात श्री संहारक भैरवो अप्यथ रूरूश्च उन्मन्तको भैरवः क्रोधश्च चंड कपाल भैरव मूर्तयः प्रतिदिनं दध्यु सदा मंगलम् दुन्दुभितीकृताऽवाहनम् समस्त रिपु भैरवं भैरवं शवारूढा दिगंबरमुपाश्रये । ऊँ ह्रीं बटुकाय आपद्उद्धारणाय कुरू कुरू बटुकाय ह्रीं ऊँ।
इस मंत्र का जाप करते हुए चौमुखा दिपक जला कर भैरव बाबा के लिए चौराहे पर छोड दें। दुर्भाग्य का नाश होता है।रविवार के दिन भी करना है सरसों के तेल से।किसी भी समय कर सकते हैं जब मन प्रसन्न हो। समय का बंधन नहीं है। दिपक को चौराहे पर रखने के बाद पिछे पलट कर ना देखें। दिपक जलाने के बाद 1 नीम्बू के 4 टुकडे काट कर चारों दिशाओ में दूर फेक सकते है क्या?? मन्त्र जाप घर में करने के बाद ही चोमुहं का दीपक चोराए पे छोड़ना हैं या चौराहे पे मन्त्र पढके छोड़ना हैं घर और चौराहे दोनों जगह करना है।सिंदूर का तिलक लगाएं।दिपक में और अपने मस्तक पर तिलक लगाएं।

शिवजी तंत्र विद्या के पुरोधा है।

शिवजी तंत्र विद्या के पुरोधा है। तंत्र में उड्डीश तंत्र विद्या महयोंगों के अनुष्ठानों  के माध्यम से क्षणभर में जातक की मनोकामना पूर्ण होती है।  इस विवद्या के माध्यम से ही अदिकाल में देवताओं एवं ऋषियों ने सिद्धियां प्राप्त किये है औरअनेकों शास्त्रों का शक्ति वरण करवाये है जैसे इंद्र का वज्र,वरुण का पाश,यमराज का दंड,अग्नि को दाहक शक्ति आदि तंत्र गन का उदाहरण है। छह प्रकार है  (१) शान्तिकर्म - जिस तंत्र कर्मप्रयोग करने से रोग,ग्रहपिड़ा बधा,कृत्या की से पैदा दोष शांत होते है उसे शान्ति कर्म कहा जाता है।  
(२) वशीकरण कर्म - जिस तंत्रकर्म का प्रयोग करने से समस्त जीव वशीभूत हो जाते है उसे वशीकरण कहा जाता है।  
 (३) स्तंभन - जिसमे तंत्रकर्म प्रयोग करके गति और मति पृवत्ति को रोक जाता है इसे स्तंभन कहा जाता है।  
(४) विद्वेषण  - इस तंत्र प्रयोग से दो प्रेमियों को, या फिर दो मित्रों को,अथवा दो व्यवहारियों को आपस में लादकर दूर हॉट दिया जाट है उसे विद्वेषण कहते है।  
(५) उच्चाटन - यहाँ तंत्र प्रयोग करके जब किसी व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति के व्यवहार से दूर हटाया जाता है या फिर एक साथ से दूसरे स्थान हटाया उसे  उच्चाटन कहते है।   
(६) मारण - जिस तंत्र विद्या के प्रयोग से  किसी भी जीव के प्राण हरण किये जाते है और मारडाला जाता है के मारण कहते है  आदि जो तंत्र प्रयोग मंगलकारी और अमंगलकारी  दोनों तरह से प्रयोग में आते है। जाकी जैसी रहे भावना वैसा ही फल देनेवाली विद्या है।
श्रीराम ज्योतिष सदन
पंडित आशु बहुगुणा । 9760924411

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...