Tuesday, 7 September 2021

मंत्र प्रयोग

मंत्र प्रयोग
गृह रक्षा- गाय का गोबर या लाल रंग का घोल लेकर उक्त मंत्र से १०८बार पढ़कर अभिमंत्रित कर लें फिर इसी मंत्र को पढ़ते हुए घर के चारों ओर रेखा खींच दें।ऐसा कर देने से घर में भूत,पिशाच,चोर डाकू के घुसने का भय नहीं रहता।साथ ही हिंसक जंतु,अग्नि भय से भी सुरक्षित रहा जा सकता हैं।
मंत्र- ॐ ह्रीं चण्डे!चामुण्डे भ्रुकुटि अट्टा ट्टे,भीम दर्शने!रक्ष रक्ष चौरेभ्यःवज्रेभ्यःअग्निभ्यःश्वापदेभ्यःदुष्टजनेभ्यःसर्वेभ्यःसर्वौपद्रवेभ्यःगण्डीःह्रीं ह्रीं ठःठः।
टोना टोटका तंत्र बाधा निवारण मंत्र- आज यह भी देखने को मिलता है कि कुछ दुष्ट लोग किसी टोना करने वाले से कोई प्रयोग करा देते है और लोग भयानक कष्ट भोगने लगते है।
दवा करने पर भी लाभ नहीं मिलता है,तब इस मंत्र को ११ माला से सिद्ध कर प्रयोग करे।लोग जादू टोना से प्रभावित होकर विक्षिप्त भी हो जाते है।किसी शुभ मूर्हूत मे ईस मंत्र का प्रयोग करें।एक दीपक जलाकर किशमिश का भोग लगा कर मंत्र सिद्ध करे,फिर प्रयोग करते समय ७बार मंत्र पढ़ फूंक मारकर उतारा कर दें।ऐसा ७बार कर देने पर सभी जादू टोना नष्ट हो जाता हैं।बाद मे एक सफेद भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही से अनार के कलम से मंत्र लिख ताँबा या चाँदी की ताबीज मे यंत्र भरकर काला धागा लगाकर स्त्री हो तो बांया पुरूष हो तो दांये बांह मे ७बार मंत्र पढ़ बाँध ले।
शाबर मंत्र- ॐ नमो आदेश गुरू को।ॐ अपर केश विकट भेष।खम्भ प्रति पहलाद राखे,पाताल राखे पाँव।देवी जड़घा राखे,कालिका मस्तक रखें।महादेव जी कोई या पिण्ड प्राण को छोड़े,छेड़े तो देवक्षणा भूत प्रेत डाकिनी,शाकिनी गण्ड ताप तिजारी जूड़ी एक पहरूँ साँझ को सवाँरा को कीया को कराया को,उल्टा वाहि के पिण्ड पर पड़े।इस पिण्ड की रक्षा श्री नृसिंह जी करे।शब्द साँचा,पिण्ड काचा।फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।..................

अष्टचिरंजीवी पवनपुत्र हनुमानजी

अष्टचिरंजीवी पवनपुत्र हनुमानजी
तीन युग बीत चुके हैं सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग। अभी कलयुग चल रहा है। कलयुग में मात्र भगवान का नाम लेने से ही कई जन्मों के पाप स्वत: नष्ट हो जाते हैं। सामान्य पूजा से देवी-देवता प्रसन्न हो जाते हैं। शीघ्र कृपा करने वाले हनुमानजी प्रमुख देव माने गए हैं। बजरंगबली सभी सुख-संपत्ति और सुविधाएं प्रदान करते हैं। हनुमानजी सभी प्रतिमाओं और फोटो की पूजा का अलग-अलग महत्व बताया गया है। धन या पैसों से जुड़ी समस्याओं से निजात पाना है, दुर्भाग्य को दूर करना है तो हनुमानजी के ऐसे फोटो की पूजा करनी चाहिए जिसमें वे स्वयं श्रीराम, लक्ष्मण और सीता माता की आराधना कर रहे हैं। पवनपुत्र के भक्ति भाव वाली प्रतिमा या फोटो की पूजा करने से उनकी कृपा तो प्राप्त होती है साथ ही श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता की कृपा भी प्राप्त होती है। दुर्भाग्य भी सौभाग्य में परिवर्तित हो जाता है। श्रीरामचरित मानस के अनुसार माता सीता द्वारा पवनपुत्र हनुमानजी को अमरता का वरदान दिया गया है। इसी वरदान के प्रभाव से इन्हें अष्टचिरंजीवी में शामिल किया जाता है। हनुमानजी भक्तों की मनोकामनाएं तुरंत ही पूर्ण करते हैं। श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमानजी की कृपा प्राप्त होते ही भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। पैसों से जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई रोग हो तो वह भी नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में कोई ग्रह दोष हो तो पवनपुत्र की पूजा से वह भी दूर हो जाता है। कोई व्यक्ति पैसों की तंगी का सामना करना रहा है तो उसे मंगलवार और शनिवार यह उपाय अपनाना चाहिए। सभी समस्याएं धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं और व्यक्ति मालामाल हो सकता है। उपाय - सप्ताह के प्रति मंगलवार और शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में उठें। इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर किसी पीपल के पेड़ से 11 पत्ते तोड़ लें। पत्ते पूरे होने चाहिए, कहीं से टूटे या खंडित नहीं होने चाहिए। इन पत्तों पर स्वच्छ जल में कुमकुम या अष्टगंध या चंदन मिलाकर इससे श्रीराम का नाम लिखें। नाम लिखते से हनुमान चालिसा का पाठ करें। इसके बाद श्रीराम नाम लिखे हुए इन पत्तों की एक माला बनाएं। इस माला को किसी भी हनुमानजी के मंदिर जाकर वहां बजरंगबली को अर्पित करें। कुछ समय में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे।किसी भी प्रकार के अधार्मिक कार्य न करें।....................

दुश्मन चाहते हुए भी आपका विरोध ना कर पाए

दुश्मन चाहते हुए भी आपका विरोध ना कर पाए
कभी सुख तो कभी दुख, कभी फायदा तो कभी नुकसान। जिंदगी एक जैसी कभी नहीं रहती। परिवर्तन जिंदगी का नियम है। उतार-चढ़ाव जिंदगी में आते जाते रहते हैं। कई बार हमें बिना किसी कारण के ही नुकसान और अपमान का सामना करना पड़ता है कई बार ना चाहते हुए भी कई लोग अनजाने में या किसी गलतफहमी के कारण भी हमारे दुश्मन बन जाते हैं। किसी भी दुश्मन से निपटने के लिए लड़ाई- झगड़ा करने से अच्छा है कि आपका दुश्मन चाहते हुए भी आपका विरोध ना कर पाए इसके लिए बगलामुखी साधना सबसे सरल उपाय है। इस दुर्लभ बगलामुखी साधना की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है।आधी रात के समय दक्षिणाभिमुख होकर बैठें। साधना प्रारंभ करने से पूर्व गणपति, इष्ट देवता और गुरु को नमन स्मरण कर प्रार्थना करें। साधक पद्मासन में बैठकर मां बगलामुखी के समक्ष वस्त्र, गंध, फल, तांबूल, धूप, दीप, नैवेध समर्पित करें। इसके बाद नीचे दिए मंत्र का पूर्ण विधि-विधान से 11 माला जप करें। मंत्र:
ओम् ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानाम वाचं, मुखं करं पदं स्तंभेय जिव्हाम कीलय कीलय बुद्धिय नाशय ह्रीं ओम्।

पूर्ण नियम कायदों और शास्त्रीय तरीके से करने पर यह साधना जरूर सफल होती है।

जीवन साथी कहां मिलेगा ?

जीवन साथी कहां मिलेगा ?
शादी के लिए माता-पिता को लड़की या लड़के की तलाश करते समय काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अगर यह पता हो कि विवाह किस दिशा और कितनी दूर होना है तो वर या वधू की तलाश करना माता-पिता के लिए आसान हो जाता है. सप्तम स्थान यानि सातवें भाव को विवाह, पति-पत्नी और दाम्पत्य जीवन के लिए देखा जाता है।
सप्तम भाव में ग्रह और राशि की स्थिति से जानिए, कहां होगी आपकी शादी?
कहां होगी शादी- अगर सप्तम भाव यानि कुंडली में सातवें स्थान में वृष (2 नंबर लिखा हो तो), कुंभ(11) या फिर वृश्चिक राशि(8) है तो यह समझना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनसाथी माता-पिता के घर से लगभग 70-75 किलोमीटर दूर है।
मिथुन(3), कन्या(6), धनु(9) या फिर मीन(12) राशि सप्तम भाव में है तो जीवनसाथी की तलाश के लिए लगभग 125 किलोमीटर तक जाना पड़ सकता है। सप्तम भाव में मेष(1), कर्क (4), तुला(7) या मकर(10) राशि होने पर जीवनसाथी 200 किलोमीटर या उससे और अधिक दूर होता है।

किस दिशा में होगी शादी:-यदि सप्तम भाव में मेष राशि के साथ सूर्य हो तो पूर्व दिशा में शादी होने के योग बनते हैं।- शुक्र यदि तुला राशि के साथ हो तो पश्चिम दिशा में शादी होती है। - मीन राशि उत्तर दिशा में उदय होती है यदि यह राशि अपने स्वामी गुरु के साथ सातवें भाव में हो तो उत्तर दिशा विवाह के लिए उचित रहती है।- सप्तम भाव में कन्या राशि के साथ बुध का होना दक्षिण दिशा में विवाह होने का संकेत देता है।

कब करें शादी

कब करें शादी
पत्नीअतिप्रिय होगी 
यदि...
शास्त्रों में शादी के लिए चार माह शुभ बताए गए हैं। जिसमें विवाह करने से अलग-अलग लाभ हैं। आइए जानें किस माह में विवाह करने से क्या लाभ हैं?
माघे धनवती कन्या, फाल्गुने शुभगा भवेत,
वैशाखे तथा ज्येष्ठे पतिउत्यन्तवल्लभा।
मार्गशिर्ष मपिच्छती, अन्यये मासाश्च वर्जिता।।
यानि जिस स्त्री का विवाह माघ मास में होता है, वह धनवान होती है, फाल्गुन में विवाह होने पर वह सौभाग्यवती होती है। वैशाख तथा ज्येष्ठ में विवाह होने पर पति को प्यारी होती है। अकस्मात बहुत आवश्यक होने पर ही मार्गशिर्ष मास में भी विवाह कर सकते है। बाकी सभी माह विवाह हेतु वर्जित है।
वर्तमान में वैशाख मास चल रहा है।इसके अलावा सूर्य जब गुरुकी राशि धनु एवं मीन में होने पर, गुरु-शुक्र तारा अस्त होने पर, मलमास या अधिमास होने पर विवाह निषेध होता है।भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विवाह को पवित्र बंधन माना जाता है। हमारे शास्त्रों में तलाक जैसा कोई शब्द ही नहीं है।

शिव की पंचामृत पूजा है।

शिव की पंचामृत पूजा है।
फलदायी
कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान शिव की उपासना बहुत ही फलदायी मानी गई है। भगवान शिव की प्रसन्नता के इन खास दिनों में सोमवार का दिन बहुत महत्व रखता है।शास्त्रों में अलग-अलग कामनाओं की पूर्ति के लिए शिव की अलग-अलग तरह की पूजा बताई गई है। किंतु सोमवार के दिन शिव की पंचामृत पूजा हर मनौती को पूरा करने वाली मानी गई है। इस पूजा में खासतौर पर शिव को दूध, दही, घी, शक्कर और शहद से स्नान कराया जाता है। पंचामृत स्नान व पूजा न केवल मनौतियां पूरी करती है, बल्कि वैभव भी देती है। साथ ही अनेक परेशानियों और पीड़ा का अंत होता है। भगवान शिव की पंचामृत स्नान और पूजन का तरीका -
- सुबह जल्दी उठकर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन घर या देवालय में शिवलिंग के सामने बैठें।- सबसे पहले शिवलिंग पर जल और उसके बाद क्रम से दूध, दही, घी, शहद और शक्कर चढ़ाएं। हर सामग्री के बाद शिवलिंग का जल से स्नान कराएं। पूजा के दौरान पंचाक्षरी या षडाक्षरी मंत्र ऊँ नम: शिवाय बोलते रहें। - आखि़र में पांच सामग्रियों को मिलाकर शिव को स्नान कराएं। - पंचामृत स्नान के बाद गंगाजल या शुद्धजल से स्नान कराएं।- पंचामृत पूजन के साथ रुद्राभिषेक पूजा शीघ्र मनोवांछित फलदायक मानी जाती है। यह पूजन किसी विद्वान ब्राह्मण से कराया जाना श्रेष्ठ होता है। - पंचामृत स्नान और पूजा के बाद पंचोपचार पूजा करें। गंध, चंदन, अक्षत, सफेद फूल और बिल्वपत्र चढ़ाएं। नैवेद्य अर्पित करें।- शिव की धूप या अगरबत्ती और दीप से आरती करें। - शिव रुद्राष्टक, शिवमहिम्र स्त्रोत, पंचाक्षरी मंत्र का पाठ और जप करें या कराएं।
- आरती के बाद पूजा में हुई गलतियों के लिए क्षमा मांगे और मनौती करें।- शिव की पंचामृत पूजा ब्राह्मण से कराने पर पूर्ण फल तभी मिलता है जब दान-दक्षिणा भेंट की जाए। इसलिए ऐसा करना न भूलें।

बाबा भैरव साधना

दर्शन हेतु बाबा भैरव साधना ।महा भैरव मंत्र:- नमो काली कंकाली महाकाली के पूत कंकाली भैरव हुक्मे हाजिर रहे मेरा भेजा तुरत करे रछा करे । आन बांधू बान बांधू चलते फूल मेँ जाये काठेजी पड़े थर थर काँपे , हल हल हिलै , गिर गिर परै उठ उठ भागै , बक बक बकै । मेरा भेजा सवा घड़ी सवा पहर सवा दिन सवा मास सवा बरस को बाबला न करै तो माता काली की शय्या पै पग धरै । वाचा को चूके तो ऊमा सूखे । वाचा छोड़ कुवाचा करै. धोबी की नाद चमार के कूंडे मेँ परै । मेरा भेजा बाबला न करै तो रुद्र के नेत्र के आग की ज्वाला कढ़ै. सिर की जटा टूट भूमि मेँ गिरै . माता पार्वती के चीर पे चोट पड़ै । बिना हुकुम नहीँ मारना हो काली के पुत्र कंकाल भैरव फुरो मंत्र इशवरो वाचा सत्य नाम आदेश गुरु को ।। विधी:-रात्र मे ग्यारह बजे काले वस्त्र धारण कर काला अश एक बेजोट पै काला वस्त्र बिछाकर भागवान भैरव की स्थापना करे फिर उनकी षोडशोपचार पुजन करना है । फिर रुद्राछ माला से भैरव के 108 नामो का जाप करना है । फिर ईस साबर मंत्र की भी 1 माला मंत्र जाप करना है जप पुर्ण होने के बाद बाबा भैरव की आरती करना हैँ । कांशे या तांबे की थाली मेँ पान का पत्ता रखकर, उस पर कपूर ढेली जलाकर आरती उतारना हैँ । आरती के पश्चात भगवान भैरव को नमस्कार कर , आसन से उठ जावेँ । यह साधना 41 दिनो की हैँ 41 दिनो मेँ 41 माला मंत्र जाप करना हैँ मतलब रोज 1 माला मंत्र जाप करना हैँ । भगवान भैरव का आसन पहले दिन का लगा हुआ 41 दिन तक रहेगा । परन्तु दुसरे दिन से षोड़शोपचार पुजन करने की आवाश्यक्ता नही हैँ ।केवल पंचोपचार पुजन कर सक्ते हैँ । दिपक सुद्ध देशी घी का होगा या फिर तिल के तेल का भी दिपक जगा सक्ते हैँ । अन्तिम रात्रि मतलब 41 वे रात्रि को जप सम्पन्न होने के बाद एक माला मंत्र का हवन करना हैँ । हवन के बाद आरती करेँ । तभी भगवान भैरव प्रकट होँगे तो उन्हैँ लाल पुष्पो की माला उन्के गले मे डाल दे और वो खुश होकर वरदान माँगने को कहेंगे तो उनसे डरे ना जो वर माँगना हो माँग ले ।

सर्व रोग नाशक हनुमान शाबर मंत्र

।।सर्व रोग नाशक हनुमान शाबर मंत्र ।। 
शाबर मंत्र:- ओम नमो आदेश गुरु को वीर बली हनुमन्त जी मुगदर दाहिने हाथ । मार मार पछाड़िये,पर्वत बायेँ हाथ ।। भूत प्रेत अरु डाकिनी, जिल्द खईस मसान । बचै न इनमेँ एकहू , निराकार की आन ।। दुहाई अंजनी की , दुहाई राजा राम चन्द्र की , दुहाई लछमण यती की । मेरी भक्ति गुरु की शक्ति , फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा ।। विधि :- ईस मंत्र का मंगलवार से जप चालु कर के 21 दिन तक रोज 1,3,या5 माला जप करने से सभी रोगो से मुक्ति मिल्ती है । जप के समय अगरबत्ती जलती रहनी चाहिये और हो सके तो तो तिल के तेल का दिपक भी जला सक्ते है वस्त्र लाल हो तो ज्यादा अच्छा और माला लाल मुंगे की आखरी दिन हनुमान जी के मंदिर मेँ नारियल और लंगोट चढ़ाये । अगर किसी और के रोग के लिये जप कर रहे है तो उसके नाम से संकल्प जरुर ले।

चतुर्थी को ही गणेश व्रत क्यों?

चतुर्थी को ही गणेश व्रत क्यों?
ज्योतिषशास्त्र में सूर्य के साथ विशेष संबंध स्थापित किया गया है। सूर्य ब्रह्मांड की प्राणशक्ति का केन्द्र है और चंद्रमा ब्रह्मांड की मनःशक्ति का सर्वस्व है। जिस प्रकार अमावस्या के दिन चंद्र सूर्य की कक्षा में विलीन रहता है और पूर्णिमा को दोनों ग्रह क्षितिज पर ठीक आमने-सामने उदित होने से समान रेखा पर रहते हैं, वैसे ही शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को चंद्र और सूर्य अर्द्ध सम रेखा पर यानि कि परस्पर ९० अंश पर रहते हैं। इस तरह सूर्य चंद्रमा की दूरी के आधार पर तिथियाँ निर्मित होती हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म जगत पर तिथियों के अधिष्ठाताओं का आधिपत्य है। इसलिए हिन्दुओं के सभी सकाम व्रत चंद्र तिथियों के साथ संबंधित हैं। इसी तरह एकम् अर्थात प्रतिपदा आदि पंद्रह तिथियों का भी किसी न किसी दैवी शक्ति के साथ विशेष संबंध है। इन तिथियों के अधिष्ठाता निर्धारित किये गये हैं। चतुर्थी के दिन अवकाश में सूर्य और चंद्र की स्थिति कुछ ऐसी कक्षा में होती है कि उस दिन मानव मन सहज कृत्यों को करने के लिए प्रेरित होता है जो मानव के जीवन और प्रगति में अवरोध रूप बन सकता है। गणेशजी सभी विघ्नों को हरने वाले और रिद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसलिए चतुर्थी के दिन उपस्थित होने वाली संबंधित बाधाएँ और विघ्नों को रोकने के लिए गणेशजी की उपासना की जाती है, ताकि मन उस दिन संयमित रहे और किसी अनिष्ट कार्य का आचरण न हो।

गणेश चतुर्थी का व्रत किस तरह करें?
गणेश चतुर्थी के दिन प्रातःकाल उठ कर दैनिक क्रियाओं को पूरा कर के, स्नान कर के शुद्ध वस्त्र धारण करें। पूजा के स्थान पर पूर्व दिशा की ओर मुँह रख कर कुश के आसन पर बैठें। अपने सामने छोटी चौकी के आसन पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर एक थाली में कुंकुं से ‘शुभ लाभ’ लिखें या स्वस्तिक का चिह्न बनाएँ और उस पर मूर्ति स्थापित करें। थाली में कुंकुं और केसर से रंगे अक्षत का ढेर करें और उस पर गणेशजी कॊ मूर्ति रख कर उन की पूजा करें और शुद्ध घी का दीपक जलाएँ तथा दिन के दौरान उपवास करके रात में चंद्रमा का दर्शन कर के श्री गणेशजी को लड्डू का भोग लगाएँ और नेत्र बंद करके पूरी श्रद्धाभाव से गणेशजी का व्रत पूरा करें।

संकट चतुर्थी व्रत करने से आप के जीवन में आए हुए हरेक प्रकार के संकट दूर होते हैं और यदि किसी भी प्रकार का दोषारोपण लगा हो तो दूर होता है। समाज में मान-प्रतिष्ठा मिलती है। आयुष्य और बल में वृद्धि होती है और सर्वत्र आप की कीर्ति फैलती है।
जलस्नान कराने से जीवन से दुःख का नाश होता है और सुख का आगमन होता है। जीवन में विद्या, धन संतान और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सफेद पुष्प अथवा जासुद अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।

दुर्वा अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, आर्थिक उन्नति होती है और संतान का सुख मिलता है।
सिंदूर अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
धूप अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।
लड्डू अर्पण करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।

सुगंध का महत्त्व

।। सुगंध का महत्त्व ।।
जहाँ चंदन का वृक्ष होगा वहाँ सर्प अपने आप लिपट जाते है चन्दन की खुशबु के कारण|इसी प्रकार हर सुगंध को कोई ना कोई पसंद करता है फिर वो जिव-जन्तु हो या देवता-मानव-दानव।सब की दो सोच होती है एक पसंदिता सुगंध जिससे जिव आकर्षित होता है और दूसरी वह गंध जिससे उच्चाटन होता है या विकर्षण होता है।
पूजन संस्कार,भक्ति में सुगंध का महत्त्व सबसे ज्यादा होता है अपने आराध्य को अपनी और रिझाने के लिए या आकर्षित करने के लिए।किन्तु पहले ये जानना आवश्यक होता है की आपके आराध्य देवता या गुरु की पसंद की सुगंध क्या है।जिस प्रकार चमेली के पेड़ से सर्प आकर्षित नहीं होता उसी प्रकार यदि विपरीत सुगंध का प्रयोग करने से आपके आराध्य आकर्षित नहीं होते।
हर देवता का एक विशेष सुगंध से प्रेम होता है जैसे हनुमान जी को गूगूल,भैरवजी को गुलाब , शिवजी को चन्दन एवम् देवी को धुप प्रिय होती है।
मृतक आत्माओ को भी चन्दन की एवम् लुभान की खुशबु पसंद होती है।इसी कारण पूजन -विधि के पहले संकलप की आवश्यकता होती है या फिर उस देवता के नाम के उच्चारन की आवश्यकता होती है जिनको आप आकर्षित करना चाहते है अन्यथा नाम उच्चारण के अभाव में उस सुगंध को पसंद करने वाल कोई और देवता या असुर आकर्षित हो कर साधना या पूजन-विधि को भंग कर देता है।
अतः सावधानी एवम् चेतन रहना आवश्यक होता है।


साधना काल के नियम इस प्रकार है ।

साधना काल के नियम इस प्रकार है ।
• साधनाओं को कोई भी गृहस्थ संपन्न कर सकता है, इसके लिये किसी भी विशेष वर्ग या जाति के आधार पर कोई बन्धन नहीं है, जिसको भी इस प्रकार की साधनाओं में आस्था हो, वह इन साधनाओं को संपन्न कर सकता है
• इस प्रकार की साधनाओं में पुरुष या स्त्री, युवा या वृद्ध, विवाहित या अविवाहित जैसा कोई भेद नहीं है, कोई भी साधना संपन्न कर सकता है
महिलाओं के लिये रजस्वला-समय किसी भी प्रकार की साधना के लिए वर्जित है, जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से अगले पांच दिनों तक वह किसी भी प्रकार की साधना या पूजा अनुष्ठान संपन्न न करे, परन्तु यदि उसने अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया हो और बीच में रजस्वला हो गयी हो, तो उस अनुष्ठान या साधना को पांच दिनों के लिये छोड़ दे और छटे दिन स्नान कर, सर को धो कर, पवित्र होकर पुनः साधना या अनुष्ठान प्रारम्भ कर सकती है, ऐसा होने पर साधना में व्यवधान नहीं माना जाता पीछे जहां तक साधना की है या जीतनी संख्या में जप कर ली है, उसके आगे की गणना की जा सकती है
• प्रत्येक साधना की जप संख्या, दिनों की संख्या निश्चित होती है; तब तक साधना चलती रहे, उस अवधि में साधक को चाहिए कि एक समय भोजन करें और सात्त्विक आहार ग्रहण करें, मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि वर्जित है; भोजन का सीधा सम्बन्ध है, अतः शुद्ध खान-पान के मामले में सतर्कता बरतें, होटल में खाना यथासंभव टालें, क्योंकि वहां पर शुद्धता का पूरा ध्यान नहीं रह पाता, जो कि इस कार्य के लिये आवश्यक होता है
• साधना करते समय किसी भी प्रकार की वस्तु खाना या सेवन करना अनुकूल नहीं हैं, व्यक्ति मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दूध, चाय या भोजन ले सकता है
जब मंत्र जप चालू हो तब चाय, जल, भी पीना वर्जित है, यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न भी हो जाये, तो इसके बाद पवित्रीकरण करने के उपरांत ही पुनः मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए
• साधनाकाल में यथासंभव भूमि पर सोना उचित रहता है, भूमि पर किसी भी प्रकार का बिछौना सो सकते हैं, विशेष परिस्थितियों में पलंग आदि का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु जहां तक संभव हो भूमि शयन ही करें
• साधनाकाल में स्त्री संसर्ग सर्वथा वर्जित है, इस अवधि में पूरी तरह से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें, इस अवधि में फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ना, सिनेमा देखना, अन्य स्त्रियों से लम्बिई बातचीत करना आदि निषेध है, यथासंभव मन को संयत और शांत बनाए रखें
• साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्नान कर लेता उचित रहता है, यदि बीमार हो या अशक्त हो, तो ऐसी परिस्थिति में कपड़ा भिगोकर पुरे शरीर को पौंछ लेता चाहिए, परन्तु जहां तक हो सके स्नान करना ही उत्तम माना जाता है
• पैंट, निकर या पायजामा पहन कर साधना नहीं की जा सकती, इसके लिये धोती पहनना उचित माना गया है
• एक धोती कमर के नीची पहिन लें और गुरु पीताम्बर ओढ़ लें, परन्तु यदि सर्दी का मौसम हो, तो उनी कम्बल भी ओढ़ सकता है, धोती हमेशा धूलि हुई स्वच्छ हो
• साधना काल में क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए, अर्थात सर के या दाढ़ी के बाल नहीं कटावें
• साधना काल में बीडी-सिगरेट, तम्बाकू, पान आदि का सेवन वर्जित है, जितने दिन तक साधना चले उतने दिन तक किसी प्रकार का व्यसन न करें
• साधना काल में स्नान करते समय साबुन का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इत्र आदि का प्रयोग न करें, साधना के बाद कहीं बहार जाते समय जूतों का प्रयोग किया जा सकता है
• यदि साधक नौकरी या व्यापार कर रहा हो और रात्रिकालीन साधना हो, तो दिन में नौकरी कर सकतें, यदि साधना पूरी होने तक व्यापार अथवा नौकरी से अवकाश ले लें, तो ज्यादा उचित रहता है
• साधना काल में सिनेमा देखना या किसी राग-रंग, गायन, संगीत महफिल आदि में भाग लेता वर्जित है
• साधना काल में कम से कम बोलें, बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही बातचीत करें और उतनी ही बातचीत करें, जीतनी जरूरी है, व्यर्थ में गप्पे लगाना बहस करना सर्वथा वर्जित हैं
• साधना घर के एकांत कक्ष में, किसी मन्दिर, नदी तट आदि स्थान पर जाकर की जा सकती है, पर इस बात का ध्यान रखें कि साधना स्थल ऐसा हो, जो शांत और कोलाहल से दूर हो; वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न होता हो
• साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधना संबंदी सारे उपकरण चित्र, यंत्र, माला आदि एक स्थान पर एकत्र कर लेनी चाहिए, पूजन सामग्री की व्यवस्था भी पहले से ही कर लेनी चाहिए, साथ ही साथ अपने गुरु या साधना बताने वाले व्यक्ति से साधना से सम्बंधित सरे तथ्य पहले से ही भली प्रकार समझ लेने चाहिए
• कभी-कभी साधना काल में आखोने के सामने कई अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ते हैं, कई बार विचित्र आवाजें सुनाई पड़ती है, कई बार ऐसा भी अनुभव होता है, कि जैसे आपको कोई आवाज दे रहा हो, परन्तु इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए और बराबर अपनी जप के तरफ ध्यान देना चाहिए ।

Sunday, 5 September 2021

श्री काली प्रत्यंगिरा स्तोत्र

।। श्री काली प्रत्यंगिरा स्तोत्र।।
।।विनियोग ।। 
ॐ ॐ ॐ अस्य श्री प्रत्यंगिरा मंत्रस्य,श्री अंगिरा ऋषिः,अनुष्टुप छन्दः,श्री प्रत्यंगिरा देवता, हूं बीजम्, ह्रीं शक्तिः,क्रीं कीलकं ममाभीष्ट सिद्धये पाठे विनियोगः।

।।अंगन्यास ।।
श्री अंगिरा ऋषये नमः शिरसि,अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे
श्री प्रत्यंगिरा देवतायै नमः हृदि,हूं बीजाय नमः गुह्ये
ह्रीं शक्तये नमः पादयो,क्रीं कीलकं नमः सर्वांगे
ममाभीष्ट सिद्धये पाठे विनियोगाय नमः अंजलौ। 

।।ध्यान ।।
भुजैश्चतुर्भिधृत तीक्ष्ण बाण,धनुर्वरा - भीश्च शवांघ्रि-युग्मा। 
रक्ताम्बरा रक्त तनस्त्रि-नेत्रा,प्रत्यंगिरेयं प्रणतं पुनातु।।

।।स्तोत्र ।।

ॐ नमः सहस्र सूर्येक्षणाय श्रीकण्ठानादि रुपाय पुरुषाय पुरू हुताय ऐं महा सुखय व्यापिने महेश्वराय जगत सृष्टि कारिणे ईशानाय सर्व व्यापिने महा घोराति घोराय ॐ ॐ ॐ प्रभावं दर्शय दर्शय। 

ॐ ॐ ॐ हिल हिल ॐ ॐ ॐ विद्द्युतज्जिव्हे बंध-बंध मथ-मथ प्रमथ-प्रमथ विध्वंसय-विध्वंसय ग्रस-ग्रस पिव-पिव नाशय-नाशय त्रासय-त्रासय विदारय-विदारय मम शत्रून खाहि -खाहि मारय-मारय मां सपरिवारं रक्ष-रक्ष कर कुम्भस्तनि सर्वापद्र-वेभ्यः। 

ॐ महा मेघौघ राशि सम्वर्तक विद्युदन्त कपर्दिनी दिव्य कनकाम्भो- रुहविकच माला धारिणी परमेश्वरि प्रिये। छिन्दि-छिन्दि विद्रावय-विद्रावय देवि! पिशाच नागासुर गरुण किन्नर विद्याधर गन्धर्व यक्ष राक्षस लोकपालान् स्तम्भय-स्तम्भय कीलय-कीलय घातय-घातय विश्वमूर्ति महा तेजसे। 
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां विद्यां स्तम्भय-स्तम्भय। 
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां मुखं स्तम्भय-स्तम्भय। 
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां हस्तौ स्तम्भय-स्तम्भय। 
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां पादौ स्तम्भय-स्तम्भय। 
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां गृहागत कुटुंब मुखानि स्तम्भय-स्तम्भय। 
स्थानम् कीलय-कीलय, ग्रामं कीलय-कीलय मंडलम कीलय-कीलय देशं कीलय-कीलय सर्वसिद्धि महाभागे। धारकस्य सपरिवारस्य शांतिम कुरु कुरु फट स्वाहा। 

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अं अं अं अं अं हूं हूं हूं हूं हूं खं खं खं खं खं फट स्वाहा। जय प्रत्यंगिरे। 
धारकस्य सपरिवारस्य मम रक्षाम् कुरु कुरु ॐ हूं सः जय जय स्वाहा।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ब्रह्माणि! मम शिरो रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वैष्णवि! मम कण्ठं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कौमारी! मम वक्त्रं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नारसिंही! ममोदरं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इंद्राणी! मम नाभिं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चामुण्डे! मम गुह्यं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा 

ॐ नमो भगवति उच्छिष्ट चाण्डालिनि, त्रिशूल वज्रांकुशधरे मांस भक्षिणी, खट्वांग कपाल वज्रांसि-धारिणी। दह-दह, धम-धम, सर्व दुष्टान् ग्रस-ग्रस, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं फट स्वाहा।
।।महर्षि अंगिराकृत श्री काली प्रत्यंगिरा स्तोत् संपूर्णम् ।।
विशेष:-शत्रु बाधा,शरीर रक्षा,ग्रहबाधा इत्यादि के लिए यह स्तोत्र अमोघ है।

महाविद्यास्तोत्रम्-सप्रयोग

॥ महाविद्यास्तोत्रम्-सप्रयोग।।    
   श्री गणेशाय नमः
संस्कृतम्
सप्रयोग-महाविद्यास्तोत्रम्
      भाषाटीकासहितम्
महाविद्यां प्रवक्ष्यामि महादेवेन निर्मिताम् ।
उत्तमां सर्वविद्यानां सर्वभूताघशङ्करीम् ॥
सङ्कल्पः -
ॐ तत्सदद्याऽमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे
अमुकगोत्रः - अमुकशर्माऽहं मम (अथवाऽमुकयजमानस्य)
गृहे उत्पन्न भूत-प्रेत-पिशाचादि-सकलदोषशमनार्थं
झटित्यारोग्यताप्राप्त्यर्थं च महाविद्यास्तोत्रस्य पाठं करिष्ये ।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीमहाविद्यास्तोत्रमन्त्रस्याऽर्यमा ऋषिः,
कालिका देवता, गायत्री छन्दः, श्रीसदाशिवदेवताप्रीत्यर्थे
मनोवाञ्छितसिद्ध्यर्थे च जपे (पाठे) विनियोगः ।

भगवान् शङ्कर द्वारा निर्मित उस महाविद्या को मैं कहता
हूं, जो सब विद्याओं में श्रेष्ठ तथा सब जीवों को वश में
करनेवाली हैं । पाठकर्ता दाहिने हाथ में पुष्प, अक्षत,
जल लेकर - ॐ तत्सदद्याऽमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ
अमुकवासरे अमुकगोत्रः अमुकशर्माहं मम (अथवाऽमुकयजमानस्य)
गृहे उत्पन्न भूत-प्रेत-पिशाचादि-सकलदोषशमनार्थं
झटित्यारोग्यताप्राप्त्यर्थं च महाविद्यास्तोत्रस्य पाठं करिष्ये
इति पाठ का सङ्कल्प करे ।
     
*ध्यानम्*
उद्यच्छीतांशु-रश्मि-द्युतिचय-सदृशीं फुल्लपद्मोपविष्टां
वीणा-नागेन्द्र-शङ्खायुध-परशुधरां दोर्भिरीड्यैश्चतुर्भिः ।
मुक्ताहारांशु-नानामणियुतहृदयां सीधुपात्रं वहन्तीं
वन्देऽभीज्यां भवानीं प्रहसितवदनां साधकेष्टप्रदात्रीम् ॥
 
पश्चात् 
ॐ अस्य श्रीमहाविद्यास्तोत्रमन्त्रस्य - से विनियोगः तक
पढकर भूमि पर जल छोड दे ।
     
उसके बाद
 उद्यच्छीतांशु से साधकेष्टप्रदात्रीं  तक श्लोक
पढकर महाविद्या का ध्यान कर,  ॐ कुलकरीं गोत्रकरीं से आरम्भ कर,
प्रेतशान्तिर्विशेषतः तक स्तोत्र का पाठ करे ।
           
ॐ कुलकरीं गोत्रकरीं धनकरीं पुष्टिकरीं वृद्धिकरीं हलाकरीं
सर्वशत्रुक्षयकरीं उत्साहकरीं बलवर्धिनीं सर्ववज्रकायाचितां
सर्वग्रहोत्पाटिनीं पुत्र-पौत्राभिवर्द्धिनीमायुरारोग्यैश्वर्याभिवर्द्धिनीं
सर्वभूतस्तम्भिनीं द्राविणीं मोहिनीं सर्वाकर्षिणीं सर्वलोकवशङ्करीं
सर्वराजवश्ङ्करीं सर्वयन्त्र-मन्त्र-प्रभेदिनीमेकाहिकं
द्व्याहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं पाञ्चाहिकं
साप्ताहिकमार्द्धमासिकं मासिकं चातुर्मासिकं षाण्मासिकं
सांवत्सरिकं वैजयन्तिकं पैत्तिकं वातिकं श्लैष्मिकं सान्निपातिकं
कुष्ठरोगजठररोगमुखरोगगण्डरोगप्रमेहरोगशुल्काविशिक्षयकरीं
विस्फोटकादिविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ वेतालादिज्वर-रात्रिज्वर-दिवसज्वराग्निज्वर-प्रत्यग्निज्वर-
राक्षसज्वर-पिशाचज्वर-ब्रह्मराक्षसज्वर-प्रस्वेदज्वर-
विषमज्वर-त्रिपुरज्वर-मायाज्वर-आभिचारिकज्वर-वष्टिअज्वर-
स्मरादिज्वर-दृष्टिज्वर-प्रोगादिविनाशनाय
स्वाहा । सर्वव्याधिविनाशनाय स्वाहा । सर्वशत्रुविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ अक्षिशूल-कुक्षिशूल-कर्णशूल-घ्राणशूलोदरशूल-गलशूल-
गण्डशूल-पादशूल-पादार्धशूल-सर्वशूलविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ सर्वशत्रुविनाशनाय स्वाहा ।
सर्वस्फोटक-सर्वक्लेशविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ आत्मरक्षा ॐ परमात्मरक्षा मित्ररक्षा अग्निरक्षा प्रत्यग्निरक्षा
परगतिवातोरक्षा तेषां सकलबन्धाय स्वाहा । ॐ हरदेहिनी स्वाहा ।
ॐ इन्द्रदेहिनी स्वाहा । ॐ स्वस्य ब्रह्मदण्डं विश्रामय । ॐ विश्रामय
विष्णुदण्डम् । ॐ ज्वर-ज्वरेश्वर-कुमारदण्डम् । ॐ हिलि मिलि
मायादण्डम् । ॐ नित्यं नित्यं विश्रामय विश्रामय वारुणी  शूलिनी
गारुडी रक्षा स्वाहा ।

गंगादिपुलिने जाता पर्वते च वनान्तरे ।
रुद्रस्य हृदये जाता विद्याऽहं कामरूपिणी ॥

ॐ ज्वल ज्वल देहस्य देहेन सकललोहपिङ्गिलि कटि मपुरी
किलि किलि किलि महादण्ड कुमारदण्ड नृत्य नृत्य विष्णुवन्दितहंसिनी
शङ्खिनी चक्रिणी गदिनी शूलिनी रक्ष रक्ष स्वाहा ।

अथ बीजमन्त्राः

ॐ ह्राँ स्वाहा । ॐ ह्राँ ह्राँ स्वाहा ।
ॐ ह्रीँ स्वाहा । ॐ ह्रीँ ह्रीँ स्वाहा ।
ॐ ह्रूँ स्वाहा । ॐ ह्रूँ ह्रूँ स्वाहा ।
ॐ ह्रेँ स्वाहा । ॐ ह्रेँ ह्रेँ स्वाहा ।
ॐ ह्रैँ स्वाहा । ॐ ह्रैँ ह्रैँ स्वाहा ।
ॐ ह्रोँ स्वाहा । ॐ ह्रोँ ह्रोँ स्वाहा ।
ॐ ह्रौँ स्वाहा । ॐ ह्रौँ ह्रौँ स्वाहा ।
ॐ ह्रँ स्वाहा । ॐ ह्रँ ह्रँ स्वाहा ।
ॐ ह्रः स्वाहा । ॐ ह्रः ह्रः स्वाहा  ।
ॐ क्राँ स्वाहा । ॐ क्राँ क्राँ स्वाहा ।
ॐ क्रीँ स्वाहा । ॐ क्रीँ क्रीँ स्वाहा ।
ॐ क्रूँ स्वाहा । ॐ क्रूँ क्रूँ स्वाहा ।
ॐ क्रेँ स्वाहा । ॐ क्रेँ क्रेँ स्वाहा ।
ॐ क्रैँ स्वाहा । ॐ क्रैँ क्रैँ स्वाहा  ।
ॐ क्रोँ स्वाहा । ॐ क्रोँ क्रोँ स्वाहा ।
ॐ क्रौँ स्वाहा । ॐ क्रौँ क्रौँ स्वाहा ।
ॐ क्रँ स्वाहा । ॐ क्रँ क्रँ स्वाहा ।
ॐ क्रः स्वाहा । ॐ क्रः क्रः स्वाहा ।
ॐ कँ स्वाहा । ॐ कँ कँ स्वाहा ।
ॐ खँ स्वाहा । ॐ खँ खँ स्वाहा ।
ॐ गँ स्वाहा । ॐ गँ गँ स्वाहा ।
ॐ घँ स्वाहा । ॐ घँ घँ स्वाहा  ।
ॐ ङँ स्वाहा  । ॐ ङँ ङँ स्वाहा ।
ॐ चँ स्वाहा । ॐ चँ चँ स्वाहा ।
ॐ छँ स्वाहा । ॐ छँ छँ स्वाहा ।
ॐ जँ स्वाहा । ॐ जँ जँ स्वाहा  ।
ॐ झँ स्वाहा । ॐ झँ झँ स्वाहा ।
ॐ ञँ स्वाहा । ॐ ञँ ञँ स्वाहा ।
ॐ टँ स्वाहा । ॐ टँ टँ स्वाहा ।
ॐ ठँ स्वाहा । ॐ ठँ ठँ स्वाहा  ।
ॐ डँ स्वाहा । ॐ डँ डँ स्वाहा ।
ॐ ढँ स्वाहा । ॐ ढँ ढँ स्वाहा ।
ॐ णँ स्वाहा । ॐ णँ णँ स्वाहा ।
ॐ तँ स्वाहा । ॐ तँ तँ स्वाहा  ।
ॐ थँ स्वाहा । ॐ थँ थँ स्वाहा ।
ॐ दँ स्वाहा । ॐ दँ दँ स्वाहा ।
ॐ धँ स्वाहा । ॐ धँ धँ स्वाहा ।
ॐ नँ स्वाहा । ॐ नँ नँ स्वाहा  ।
ॐ पँ स्वाहा । ॐ पँ पँ स्वाहा ।
ॐ फँ स्वाहा । ॐ फँ फँ स्वाहा ।
ॐ बँ स्वाहा । ॐ बँ बँ स्वाहा ।
ॐ भँ स्वाहा । ॐ भँ भँ स्वाहा  ।
ॐ मँ स्वाहा । ॐ मँ मँ स्वाहा ।
ॐ यँ स्वाहा । ॐ यँ यँ स्वाहा ।
ॐ रँ स्वाहा । ॐ रँ रँ स्वाहा ।
ॐ लँ स्वाहा । ॐ लँ लँ स्वाहा  ।
ॐ वँ स्वाहा । ॐ वँ वँ स्वाहा ।
ॐ शँ स्वाहा । ॐ शँ शँ स्वाहा ।
ॐ षँ स्वाहा । ॐ षँ षँ स्वाहा  ।
ॐ सँ स्वाहा । ॐ सँ सँ स्वाहा ।
ॐ हँ स्वाहा । ॐ हँ हँ स्वाहा ।
ॐ क्षँ स्वाहा । ॐ क्षँ क्षँ स्वाहा ।

ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ लेषाय स्वाहा । ॐ गणेश्वराय स्वाहा  ।
ॐ दुर्गे महाशक्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-
सर्ववेताल-वृश्चिकादिभयविनाशनाय स्वाहा  ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।

ॐ ब्रं ब्रह्मणे स्वाहा । 
ॐ विं विष्णवे स्वाहा ।
ॐ शिं शिवाय स्वाहा  । 
ॐ सूं सूर्याय स्वाहा ।
ॐ सों सोमाय स्वाहा ।
ॐ विं विष्णवे स्वाहा । 
ॐ शिं शिवाय स्वाहा ।
ॐ सूं सूर्याय स्वाहा  । 
ॐ सों सोमाय स्वाहा  ।
ॐ मं मंगलाय स्वाहा । 
ॐ बुं बुधाय स्वाहा ।
ॐ बृं बृहस्पतये स्वाहा । 
ॐ शुं शुक्राय  स्वाहा ।
ॐ शं शनैश्चराय स्वाहा । 
ॐ रां राहवे स्वाहा ।
ॐ कें केतवे  स्वाहा । 
ॐ महाशान्तिक-भूत प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-वेताल-वृश्चिकभयविनाशनाय  स्वाहा ।
ॐ सिंह-शार्दूल-गजेन्द्र-ग्राह-व्याघ्रादिमृगान् बध्नामि स्वाहा ।
ॐ शस्त्रं बध्नामि स्वाहा । 
ॐ अस्त्रं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ  आशां बध्नामि स्वाहा । 
ॐ सर्वं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ सर्वजन्तून् बध्नामि स्वाहा ।
ॐ बन्ध बन्ध मोचनं कुरु कुरु स्वाहा ।
       
दिग्बन्धनम्

ॐ नमो भगवते रुद्राय
महेन्द्रदिशायामैरावतारूढं हेमवर्णं वज्रहस्तं
परिवारसहितं इन्द्रदेवताधिपतिमैन्द्रमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ ऐन्द्रमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा । ॐ भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै स्वाहा ।

ॐ नमो भगवते रुद्राय
अग्निदिशायां मार्जारारूढं शक्तिहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिमग्निमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अग्निमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भैरवाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ  नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।

ॐ नमो भगवते रुद्राय
दक्षिणदिशायां महिषारूढं कृष्णवर्णं दण्डहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं यममण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ यममण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भैरवाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते रूद्राय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।

ॐ नैरृत्यदिशायां प्रेतारूढं खड्गहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं नैरृत्यमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ नैरृत्यमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्रां क्रीं क्रूं क्रैं क्रौं क्रः स्वाहा ।

ॐ पश्चिमदिशायां मकरारूढं पाशहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं वरुणमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा । ॐ भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।
ॐ वरुणमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा  ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ दुर्गे महाशान्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-वेताल-वृश्चिकादिभयविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ पूर्वदिशायां व्रजको नाम राक्षसस्तस्य
व्रजकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहाअ । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ अग्निदिशायामग्निज्वालो नाम राक्षसस्तस्याग्निज्वालस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां वध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ दक्षिणदिशायामेकपिङ्गलिको नाम राक्षसस्तस्यैकपिङ्गलिकस्याष्टा-
दशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ नैरृत्यदिशायां मरीचिको नाम राक्षसस्तस्य
मरीचिकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ पश्चिमदिशायां मकरो नाम राक्षसस्तस्य
मकरस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ वायव्यदिशायां तक्षको नाम राक्षसस्तस्य
तक्षकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ उत्तरदिशायां महाभीमो नाम राक्षसस्तस्य
भीमस्याष्टादसकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ ईशानदिशायां भैरवो नाम राक्षसस्तस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।

ॐ अधः दिशायां पातालनिवासिनो नाम राक्षसस्तस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य तस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।

ॐ ब्रह्मदिशायां ब्रह्मरूपो नाम राक्षसस्तस्य
ब्रह्मरूपस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रूद्राय स्वाहा । ॐ नमो भगवते भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै स्वाहा ।
ॐ नमो महाशान्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-
वेताल-वृश्चिकभयविनाशनाय स्वाहा ।

ॐ शिखायां मे क्लीं ब्रह्माणी रक्षतु ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ शिरो मे रक्षतु माहेश्वरी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ भुजौ रक्षतु सर्वाणी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ उदरे रक्षतु रुद्राणी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ जङ्घे रक्षतु नारसिंही ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ पादौ रक्षतु महालक्ष्मी  ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ सर्वाङ्गे रक्षतु सुन्दरी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।

परिणामे महाविद्या महादेवस्य सन्निधौ ।
एकविंशतिवारं च पठित्वा सिद्धिमाप्नुयात् ॥ १॥

स्त्रियो वा पुरुषो वापि पापं भस्म समाचरेत् ।
दुष्टानां मारणं चैव सर्वग्रहनिवारणम् ।
सर्वकार्येषु सिद्धिः स्यात् प्रेतशान्तिर्विशेषतः  ॥ २॥

इति श्रिभैरवीतन्त्रे शिवप्रोक्ता महाविद्या समाप्ता ।

अथाऽस्य स्तोत्रस्योत्कीलनमन्त्रः -

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्  ॥

अष्टोत्तरशतमभिमन्त्र्य जलं पाययेत् अथवा कुशैर्मार्जयेत् ।

इति सप्रयोगमहाविद्यास्तोत्रं समाप्तम् ।।
***
महादेव के समीप में इस महाविद्यास्तोत्र के इक्कीस बार पाठ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।
दुष्टों का मारण तथा सब ग्रहों की शान्ति भी होती है ।
और सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है । 
विशेष करके प्रेतबाधा की शान्ति निश्चित रूप से होती है।
*****
जय जय श्रीभैरवी तन्त्र में भगवान शंकर से कही गयी महाविद्या समाप्त हुई।
*****
इस स्तोत्र का उत्कीलन मन्त्र है - ॐ उग्रं वीरं से - नमाम्यहम्  तक।

षोड्श मातृकाएं

षोड्श मातृकाएं

सूर्य में जो तेज है वह इन्हीं का रूप है। ये शंकर भगवान को सदा शक्ति  संपन्न बनाए रखती हैं। सिद्धेश्वरी सिद्धिरूपा सिद्धिदा ईश्वरी आदि इनके सार्थक नाम हैं। ये दुख शोक भय उद्वेग को नष्ट कर देती हैं…

मंगल कार्यों में भगवान गणपति के साथ षोड्श मातृकाओं का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए। इससे कार्य सिद्धि एवं अभ्युदय की प्राप्ति होती है। ये षोडश मातृकाएं इस प्रकार हैं-

गौर पदमा शयी मेघा सावित्री विजया जया।
 देवसेना स्वधा स्वाहामातरो लोक मातरः।।

धृति पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता।
 गणेशेनाधिका ह्योता वृद्धौ पूज्याश्रचः षोडश।।

गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, वैधृति, धृति, पुष्टि , तुष्टी , आद्या तथा कुल देवता - लोकमाताएं हैं। इकना संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है।

1. माता गौरी

अप्रतिम गौर- वर्ण होने के कारण पार्वती गौरी कही जाती है। ये नारायण, विष्णुमाया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूप जी नाम से प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मा आगि गेनका सनक आदि मुनिगण तथा मनु प्रभृति सभी इनकी ुपूजा करते हैं। माता गौरी सबकी देखभाल और व्यवस्था करती है। यश मंगल सुख सुविधा आदि व्यावहारिक पदार्थ तथा मोक्ष करना इनका स्वाभाविक गुण है। यह शरणागत वत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी हैं। सूर्य में जो तेज है वह इन्हीं का रूप है। ये शंकर भगवान को सदा शक्ति  संपन्न बनाए रखती हैं। सिद्धेश्वरी सिद्धिरूपा सिद्धिदा ईश्वरी आदि इनके सार्थक नाम हैं। ये दुख शोक भय उद्वेग को नष्ट कर देती हैं। देवी के 108 नामों में गौरी नाम भी परिगणित है। यह नामावली स्वयं भगवती ने अपने पिता दक्ष को बताई थी। उनके कल्याण के लिए (मत्सय पुराण अ. 13)। यह नामावली बहुत ही प्रभावशाली है। जिस स्थान पर यह नामावली लिखकर रख दी जाती है अथवा (किसी देवता के समीप रखकर पूजित होती है। वहां शोक) और दुर्गति प्रवेश नहं हो पाता है। माता गौरी की पूर्ति कान्य कुब्ज के सिद्ध पीठ पर विराजमान है। देवी के 108 पीठों में यह अन्यतम पीठ है। (देवी भा. 7/30/58) विश्व पर जब-जब संकट आया है, तब-तब पराम्बाने उसे दरकर विश्व को बचाया है। (मार्क 68, 79)। माता गौरी ने विश्व को यह वरदान दे रखा है कि जब-जब दानवों से बाधा उपस्थित होगी, तब मैं प्रकट होकर उसका विनाश कर दिया करूंगी।गौरी गणेश की पूजा के बिना कोई कार्य सफल नहीं हो पाता। स्त्रियों के लिए प्रतिदिन पूजा करने का विधान है। आवाहन के मंत्र में माता गौरी इस तरह परिचय दिया गया है। ये हिमालय पुत्री, शंकर की प्रिया और गणेश की जननी हैं-

हमाद्रिनयां देवी वरदां शंकरप्रियाम।
लंबोदरस्य जननींगौरीमावाहयाम्यहम्।।

2. माता पद्मा

लक्ष्मी का एक नाम पद्मा भी है। (खचृक परि. श्री सूक्त श्रीमदभा. 10/46/13) श्री सूक्त में माता लक्ष्मी के लिए पद्मस्थिता, पद्मवर्णा पद्मिनी, पद्ममालिनी, पुष्करीणी, पद्मानना, मद्मोरू, पद्माक्षि, पद्मसंभवा, सरसिजनिलया, सरोजहस्ता, पद्मविद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मवलायतीक्ष्थाज्ञी आइद पदों का प्रयोग हुआ है। (त्रचृक, परि, श्री सूकत 4/26) इससे पता चलता है कि लक्ष्मी देवी का कमल से बहुत घनिष्ठ संबंध है। ये सुगंधित कमल की माला पहनती हैं।

3.  माता शची

एक बार इनके सतीत्व पर संकट की घड़ी आ गई। इंद्र की अनुपस्थिति में राजा नहुष को इंद्र के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। राजा नहुष धर्म पथ पर चलने वाले योग्य शासक थे। किंतु इंद्र जैसे महत्त्वपूण्र पद के लिए वह अपने को योग्य नहीं समझते थे…

वेद की अन्य ऋचाओं में माता शची का वर्णन आया है। एक ऋचा में स्वयं देवराज इंद्र ने शची की प्रशंसा में कहा है कि विश्व में जितनी सौभाग्यवती नारियां हैं, उनमें मैंने इंद्राणी को सबसे अधिक सौभाग्यवती सुना है। माता शची अंतर्यामिणी हैं। जैसे सभी अवयवों में सिर प्रधान होता है, वैसे ही माता शची सब में प्रधान हैं।  ये षोड्श शक्तियों में एक शक्ति मानी गई हैं इनकी रूप संपत्ति पर मुग्ध होकर देवताओं के राजा इंद्र ने इनसे विवाह किया था। इंद्र को ये बहुत प्रिय हैं। शची इंद्र सभा में उनके साथ सिंहावन पर विराजती हैं। शची लक्ष्मी के समान प्रतीत होती हैं। ये पतिव्रताओं में श्रेष्ठ और स्त्री जाति की आदर्श हैं ।  एक बार इनके सतीत्व पर संकट की घड़ी आ गई। इंद्र की अनुपस्थिति में राजा नहुष को इंद्र के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। राजा नहुष धर्म पथ पर चलने वाले योग्य शासक थे। किंतु इंद्र जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए वे अपने को योग्य नहीं समझते थे। परंतु सभी देवताओं ने इन्हें अपना-अपना तेज प्रदान कर समर्थ बनाया और एक वरदान भी दिया कि जिसको तुम देख लोगे उसकी शक्ति तुम में आ जाएगी। यह वरदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। अब देवों, दानवों, दैत्यों में से कोई नहुष का सामना नहीं कर सकता था। समर्थ नहुष से देवताओं का कार्य अच्छी तरह संपन्न हो रहा था। देवता प्रसन्न थे। राजा नहुष भी प्रसन्न थे, क्योंकि वे भी मनुष्य देह से दुलर्भ स्वर्ग सुख और ऐश्वर्य का भोग कर रहे थे। धीरे-धीरे भोग विलास ने इनको अपने में लिप्त कर लिया। इनकी विवेक शक्ति क्षीण होने लगी। एक बार शची देवी पर इनकी दृष्टि पड़ी। इनकी दृष्टि कलुषित होने लगी। माता शची ने इनको सावधान किया, किंतु नहुष की आंखें नहीं खुलीं। फलतः स्वर्ग से च्युत होकर नहुष को सर्प बनना पड़ा। माता शची का आवाहन मंत्र इस प्रकार है-

दिव्य रूपां विशालाक्षीं शुचिकुंडलधारिणीम्।
रत्नमुक्ताद्यलाष्टङ्। रांशचीभावाहयाम्यहम्।।

विश्व कल्याण के लिए आदि शक्ति ने अपने को उंचास रूपों में अभिव्यक्त किया था। इन्हीं में माता मेधा की भी गणना है। आदि शक्ति जैसे वाराणसी में विशालाक्षी रूप से, विंध्य पर्वत पर विन्ध्यवासिनी रूप से कान्यकुब्ज में गौरी रूप से और देवलोक में शची रूप में विराजती हैं।  यद्यपि माता मेधा सभी स्थलों में और सभी प्राणियों में अनुस्यूत हैं, इसलिए सभी स्थलों में और सभी प्राणियों में इनका प्राकट्य होता रहता है, फिर भी पीठ विशेष में इनका दर्शन प्राप्त शीघ्र फलप्रद होता है। यही आदि शक्ति प्राणी मात्र में शक्ति रूप में विद्यमान हैं। हममें जो निर्णयात्मिका बुद्धिशक्ति है या धाराणात्मिका मेधा शक्ति है, वह आदिशक्ति रूप हैं। माता मेधा के आह्वान के लिए जो मंत्र पढ़ा जाता है, उसमें बतलाया गया है कि माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती रहती हैं, इनकी आभा सूर्योदय कालीन सद्यः विकसित कमल की तरह है और ये कमल पर रहती हैं। इनका स्वरूप बहुत ही सौम्य है-

वैवस्वतकृतफुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवासिनीम्।
बुद्धिप्रसादिनीं सौभ्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।

 4. मेधा: 

मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो निर्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए। 

आराधना स्त्रोत- 
वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्।
 बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।

  5. सावित्री-: 

सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है। इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है। सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से ही प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है।

 आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा।

  6. विजया-: 
विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है। 

आराधना स्त्रोत- 
विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्।
 त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।

  7. जया-: 

प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-' जया में चाग्रत: पातु विजया पातु पृष्ठत:Ó। अर्थात हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें। 

आवाहन स्त्रोत: 
सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्। 
त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।

  8. षष्ठी-: 
लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती हंै। ये जगत पर शासन करती है। इनकी सेना के प्रधान सेनापति कुमार स्कन्द है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता पष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया-पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। 

आवाहन स्त्रोत :

 मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्। 
आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।

  9. स्वधा-: 
पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है। ब्राह्मण वायपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है। 

आराधना स्त्रोत:
 ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्। 
पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।

  10. स्वाहा: 
मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही मदद करती है। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है। इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है। 

आराधना स्त्रोत:
 स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम।
 सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।

  11. मातर:(मातृगण:) 
शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त-वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं। 

आवाहन स्त्रोत: 
आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:।
 सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।

  12. लोक माताएं-:
 राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हंै। समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं। 

आवाहन स्त्रोत: 
आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा: शुभा:।
 नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।।

 आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:।
 शक्राद्यैरर्चिता देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।

  13. घृति-: 
माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै। माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।

  14. पुष्टि-: 
माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हंै।

 आवाहन स्त्रोत : 
पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम ।
 बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।

  15. तुष्टि-: 
माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं।

 आवाहन स्त्रोत:
 आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्।
 संतोष भावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।

  16. कुलदेवता-: 
मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है। 

आवाहन स्त्रोत: 
चूंकि अलग-अलग कुल के अलग-अलग देवता व देवियां होते हंै।
 इसलिए सबका मंत्र अलग-अलग है।

चमत्कारी यक्षिणी साधना

।। चमत्कारी यक्षिणी साधना ।।
यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं. यक्षिणी साधना को करने से साधक की मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं तथा इस साधना को करने से साधक को दुसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति भी प्राप्त होती हैं, साधक की बुद्धि तेज होती हैं. यक्षिणी साधना को करने से कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि जल्द ही हो जाती हैं.
बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, नाग आदि। ये सभी मानवों से कुछ अलग थे। इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे। देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है। कहते हैं कि यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं तो पिशाचिनियां नकारात्मक। बहुत से लोग यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी की तरह मानते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। रावण के सौतेला भाई कुबेर एक यक्ष थे, जबकि रावण एक राक्षस।  महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की दो पत्नियां थीं- इलविला और कैकसी। इलविला से कुबेर और कैकसी से रावण, विभीषण, कुंभकर्ण का जन्म हुआ। इलविला यक्ष जाति से थीं तो कैकसी राक्षस। जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह प्रमुख 8 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं। गंधर्व और यक्ष जातियां देवताओं की ओर थीं तो राक्षस, दानव आदि जातियां दैत्यों की ओर। यदि आप देवताओं की साधना करने की तरह किसी यक्ष या यक्षिणियों की साधना करते हैं तो यह भी देवताओं की तरह प्रसन्न होकर आपको उचित मार्गदर्शन या फल देते हैं। उत्लेखनीय है कि जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे। उपनिषद की एक कथा अनुसार एक यक्ष ने ही अग्नि, इंद्र, वरुण और वायु का घमंड चूर-चूर कर दिया था।यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। किसी योग्य गुरु या जानकार से पूछकर ही यक्षिणी साधना करनी चाहिए। यहां प्रस्तुत है यक्षिणियों की चमत्कारिक जानकारी। यह जानकारी मात्र है साधक अपने विवेक से काम लें। शास्त्रों में 'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों की है।
 
ये प्रमुख यक्षिणियां है - 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी।
 
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होकर सहायता करती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों  यक्षिणियों को ही सिद्ध करने के लिए किसी योग्य गुरु या जानकार से इसके बारे में जानें।
 मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र :॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः॥

सुर सुन्दरी यक्षिणी : इस यक्षिणी की विशेषता है कि साधक उन्हें जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होती ही है- चाहे वह मां का स्वरूप हो, चाहे वह बहन या प्रेमिका का। जैसी रही भावना जिसकी वैसे ही रूप में वह उपस्थित होती है या स्वप्न  में आकर बताती है। यदि साधना नियमपूर्वक अच्छे उद्देश्य के लिए की गई  है तो वह दिखाई भी देती है। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है। देव योनी के समान सुन्दर सुडौल होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है।
 सुर सुन्दरी मंत्र : ॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी यक्षिणी : मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के बाद यह यक्षिणी साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहक बना देती है कि वह दुनिया को अपने सम्मोहन पाश में बांधने की क्षमता हासिल कर लेता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट करती है।  मनोहारिणी यक्षिणी का चेहरा अण्डाकार, नेत्र हरिण के समान और रंग गौरा है। उनके शरीर से निरंतर चंदन की सुगंध निकलती रहती है।
 मनोहारिणी मंत्र :॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती यक्षिणी : कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह यक्षिणी साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है। माना जाता है कि यह यक्षिणी यह लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा है।
कनकावती मंत्र : ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी यक्षिणी : यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख की कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में उपस्थित होकर साधक की इच्छापूर्ण करती है। साधक को जब भी किसी चीज की आवश्यकता होती है तो वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है। यह यक्षिणी सदैव चंचल रहने वाली मानी गई है। इसकी यौवन युक्त देह मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है।
कामेश्वरी मंत्र : ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया यक्षिणी : इस यक्षि़णी को प्रफुल्लता प्रदान करने वाली माना गया है। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक-साधिका को यह कामदेव और रति के समान सौन्दर्य की उपलब्धि कराती है। इस यक्षिणी की देह स्वर्ण के समान है जो सभी तरह के मंगल आभूषणों से सुसज्जित है।
रति प्रिया मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पदमिनी यक्षिणी : पद्मिनी यक्षिणी अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान करती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति की ओर अग्रसर करती है। यह हमेशा साधक के साथ रहकर हर कदम पर उसका हौसला बढ़ाती है। श्यामवर्णा, सुंदर नेत्र और सदा प्रसन्नचित्र करने वाली यह यक्षिणी अत्यक्षिक सुंदर देह वाली मानी गई है।
 पद्मिनी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी यक्षिणी : यह यक्षिणी अपने साधक की पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है। यह सभी तरह की घटना-दुर्घटना से भी साधक को सुरक्षित बचा ले आती है। उल्लेखनीय है कि नटी यक्षिणी को विश्वामित्र ने भी सिद्ध किया था।
नटी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥

अनुरागिणी यक्षिणी : यह यक्षिणी यदि साधक पर प्रसंन्न हो जाए तो वह उसे नित्य धन, मान, यश आदि से परिपूर्ण तृप्त कर देती है। अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है और यह साधक की इच्छा होने पर उसके साथ रास-उल्लास भी करती है।
अनुरागिणी मंत्र : ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥

तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।

साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।

साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है -

1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी 5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी

प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

।।यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन ।।

ज्योतिषों के अनुसार यदि आषाढ़ माह में शुक्रवार के दिन पूर्णिमा हैं तो यक्षिणी साधना को करने का सबसे शुभ दिन अगले सप्ताह में आने वाला गुरुवार हैं. 
इसके अलावा यक्षिणी साधना को करने की शुभ तिथि श्रावण मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा हैं. यह यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन इसलिए माना जाता हैं. क्योंकि इस दिन चंद्रमा में शक्ति अधिक होती हैं. जिससे साधक को उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं.

यक्षिणी साधना की विधि –यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं
शिवजी का मन्त्र –ऊँ रुद्राय नम: स्वाहा-ऊँ त्रयम्बकाय नम: स्वाहा
ऊँ यक्षराजाय स्वाहा-ऊँ त्रयलोचनाय स्वाहा

1.       यक्षिणी साधना को करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और पूजा की सारी सामग्री को इकट्ठा कर लें.
2.       यक्षिणी साधना का आरम्भ करने के लिए सबसे पहले शिव जी की पूजा सामान्य विधि से करें. 
3.       इसके बाद एक केले के पेड़ या बेलगिरी के पेड़ के नीचे यक्षिणी की साधना करें.
4.       यक्षिणी साधना को करने से आपका मन स्थिर और एकाग्र हो जायेगा. इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों का जाप पांच हजार बार करें.
5.       जाप करने के बाद घर पहुंच कर कुंवारी कन्याओं को खीर का भोजन करायें.
।।यक्षिणी साधना की दूसरी विधि ।।

यक्षिणी साधना को करने का एक और तरीका हैं. इस विधि के अनुसार यक्षिणी साधना करने के लिए वट के या पीपल के पेड़ नीचे शिवजी की तस्वीर या मूर्ति की स्थापना कर लें. अब निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण पांच हजार बार करते हुए पेड़ की जड में जल चढाए।
।।यक्षिणी साधना के नियम ।।

1.यक्षिणी साधना को करने लिए ब्रहमचारी रहना बहुत ही जरूरी हैं.
2. इस साधना को प्राम्भ करने के बाद साधक को अपने सभी कार्य भूमि पर करने चाहिए.
3.यक्षिणी साधना की सिद्धि हेतु साधक को नशीले पदार्थों का एवं मांसाहारी भोजन का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
4.यक्षिणी साधना को करते समय सफेद या पीले रंग के वस्त्रों को ही केवल धारण करना चाहिए.
5.इस साधना को करने वाले साधक को साबुन, इत्र या किसी प्रकार के सुगन्धित तेल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए तथा उसे अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए।

चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की  वे बिना किसी योग्य व सफ़ल गुरु के निर्देशन के बिना साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।बिना गुरु के साधना करने पर अहित होने से हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...