शाबर मंत्र:- ओम नमो आदेश गुरु को वीर बली हनुमन्त जी मुगदर दाहिने हाथ । मार मार पछाड़िये,पर्वत बायेँ हाथ ।। भूत प्रेत अरु डाकिनी, जिल्द खईस मसान । बचै न इनमेँ एकहू , निराकार की आन ।। दुहाई अंजनी की , दुहाई राजा राम चन्द्र की , दुहाई लछमण यती की । मेरी भक्ति गुरु की शक्ति , फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा ।। विधि :- ईस मंत्र का मंगलवार से जप चालु कर के 21 दिन तक रोज 1,3,या5 माला जप करने से सभी रोगो से मुक्ति मिल्ती है । जप के समय अगरबत्ती जलती रहनी चाहिये और हो सके तो तो तिल के तेल का दिपक भी जला सक्ते है वस्त्र लाल हो तो ज्यादा अच्छा और माला लाल मुंगे की आखरी दिन हनुमान जी के मंदिर मेँ नारियल और लंगोट चढ़ाये । अगर किसी और के रोग के लिये जप कर रहे है तो उसके नाम से संकल्प जरुर ले।
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Tuesday, 7 September 2021
चतुर्थी को ही गणेश व्रत क्यों?
ज्योतिषशास्त्र में सूर्य के साथ विशेष संबंध स्थापित किया गया है। सूर्य ब्रह्मांड की प्राणशक्ति का केन्द्र है और चंद्रमा ब्रह्मांड की मनःशक्ति का सर्वस्व है। जिस प्रकार अमावस्या के दिन चंद्र सूर्य की कक्षा में विलीन रहता है और पूर्णिमा को दोनों ग्रह क्षितिज पर ठीक आमने-सामने उदित होने से समान रेखा पर रहते हैं, वैसे ही शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को चंद्र और सूर्य अर्द्ध सम रेखा पर यानि कि परस्पर ९० अंश पर रहते हैं। इस तरह सूर्य चंद्रमा की दूरी के आधार पर तिथियाँ निर्मित होती हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म जगत पर तिथियों के अधिष्ठाताओं का आधिपत्य है। इसलिए हिन्दुओं के सभी सकाम व्रत चंद्र तिथियों के साथ संबंधित हैं। इसी तरह एकम् अर्थात प्रतिपदा आदि पंद्रह तिथियों का भी किसी न किसी दैवी शक्ति के साथ विशेष संबंध है। इन तिथियों के अधिष्ठाता निर्धारित किये गये हैं। चतुर्थी के दिन अवकाश में सूर्य और चंद्र की स्थिति कुछ ऐसी कक्षा में होती है कि उस दिन मानव मन सहज कृत्यों को करने के लिए प्रेरित होता है जो मानव के जीवन और प्रगति में अवरोध रूप बन सकता है। गणेशजी सभी विघ्नों को हरने वाले और रिद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसलिए चतुर्थी के दिन उपस्थित होने वाली संबंधित बाधाएँ और विघ्नों को रोकने के लिए गणेशजी की उपासना की जाती है, ताकि मन उस दिन संयमित रहे और किसी अनिष्ट कार्य का आचरण न हो।
गणेश चतुर्थी का व्रत किस तरह करें?
गणेश चतुर्थी के दिन प्रातःकाल उठ कर दैनिक क्रियाओं को पूरा कर के, स्नान कर के शुद्ध वस्त्र धारण करें। पूजा के स्थान पर पूर्व दिशा की ओर मुँह रख कर कुश के आसन पर बैठें। अपने सामने छोटी चौकी के आसन पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर एक थाली में कुंकुं से ‘शुभ लाभ’ लिखें या स्वस्तिक का चिह्न बनाएँ और उस पर मूर्ति स्थापित करें। थाली में कुंकुं और केसर से रंगे अक्षत का ढेर करें और उस पर गणेशजी कॊ मूर्ति रख कर उन की पूजा करें और शुद्ध घी का दीपक जलाएँ तथा दिन के दौरान उपवास करके रात में चंद्रमा का दर्शन कर के श्री गणेशजी को लड्डू का भोग लगाएँ और नेत्र बंद करके पूरी श्रद्धाभाव से गणेशजी का व्रत पूरा करें।
संकट चतुर्थी व्रत करने से आप के जीवन में आए हुए हरेक प्रकार के संकट दूर होते हैं और यदि किसी भी प्रकार का दोषारोपण लगा हो तो दूर होता है। समाज में मान-प्रतिष्ठा मिलती है। आयुष्य और बल में वृद्धि होती है और सर्वत्र आप की कीर्ति फैलती है।
जलस्नान कराने से जीवन से दुःख का नाश होता है और सुख का आगमन होता है। जीवन में विद्या, धन संतान और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सफेद पुष्प अथवा जासुद अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।
दुर्वा अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, आर्थिक उन्नति होती है और संतान का सुख मिलता है।
सिंदूर अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
धूप अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।
लड्डू अर्पण करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
सुगंध का महत्त्व
जहाँ चंदन का वृक्ष होगा वहाँ सर्प अपने आप लिपट जाते है चन्दन की खुशबु के कारण|इसी प्रकार हर सुगंध को कोई ना कोई पसंद करता है फिर वो जिव-जन्तु हो या देवता-मानव-दानव।सब की दो सोच होती है एक पसंदिता सुगंध जिससे जिव आकर्षित होता है और दूसरी वह गंध जिससे उच्चाटन होता है या विकर्षण होता है।
पूजन संस्कार,भक्ति में सुगंध का महत्त्व सबसे ज्यादा होता है अपने आराध्य को अपनी और रिझाने के लिए या आकर्षित करने के लिए।किन्तु पहले ये जानना आवश्यक होता है की आपके आराध्य देवता या गुरु की पसंद की सुगंध क्या है।जिस प्रकार चमेली के पेड़ से सर्प आकर्षित नहीं होता उसी प्रकार यदि विपरीत सुगंध का प्रयोग करने से आपके आराध्य आकर्षित नहीं होते।
हर देवता का एक विशेष सुगंध से प्रेम होता है जैसे हनुमान जी को गूगूल,भैरवजी को गुलाब , शिवजी को चन्दन एवम् देवी को धुप प्रिय होती है।
मृतक आत्माओ को भी चन्दन की एवम् लुभान की खुशबु पसंद होती है।इसी कारण पूजन -विधि के पहले संकलप की आवश्यकता होती है या फिर उस देवता के नाम के उच्चारन की आवश्यकता होती है जिनको आप आकर्षित करना चाहते है अन्यथा नाम उच्चारण के अभाव में उस सुगंध को पसंद करने वाल कोई और देवता या असुर आकर्षित हो कर साधना या पूजन-विधि को भंग कर देता है।
अतः सावधानी एवम् चेतन रहना आवश्यक होता है।
साधना काल के नियम इस प्रकार है ।
• साधनाओं को कोई भी गृहस्थ संपन्न कर सकता है, इसके लिये किसी भी विशेष वर्ग या जाति के आधार पर कोई बन्धन नहीं है, जिसको भी इस प्रकार की साधनाओं में आस्था हो, वह इन साधनाओं को संपन्न कर सकता है
• इस प्रकार की साधनाओं में पुरुष या स्त्री, युवा या वृद्ध, विवाहित या अविवाहित जैसा कोई भेद नहीं है, कोई भी साधना संपन्न कर सकता है
महिलाओं के लिये रजस्वला-समय किसी भी प्रकार की साधना के लिए वर्जित है, जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से अगले पांच दिनों तक वह किसी भी प्रकार की साधना या पूजा अनुष्ठान संपन्न न करे, परन्तु यदि उसने अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया हो और बीच में रजस्वला हो गयी हो, तो उस अनुष्ठान या साधना को पांच दिनों के लिये छोड़ दे और छटे दिन स्नान कर, सर को धो कर, पवित्र होकर पुनः साधना या अनुष्ठान प्रारम्भ कर सकती है, ऐसा होने पर साधना में व्यवधान नहीं माना जाता पीछे जहां तक साधना की है या जीतनी संख्या में जप कर ली है, उसके आगे की गणना की जा सकती है
• प्रत्येक साधना की जप संख्या, दिनों की संख्या निश्चित होती है; तब तक साधना चलती रहे, उस अवधि में साधक को चाहिए कि एक समय भोजन करें और सात्त्विक आहार ग्रहण करें, मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि वर्जित है; भोजन का सीधा सम्बन्ध है, अतः शुद्ध खान-पान के मामले में सतर्कता बरतें, होटल में खाना यथासंभव टालें, क्योंकि वहां पर शुद्धता का पूरा ध्यान नहीं रह पाता, जो कि इस कार्य के लिये आवश्यक होता है
• साधना करते समय किसी भी प्रकार की वस्तु खाना या सेवन करना अनुकूल नहीं हैं, व्यक्ति मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दूध, चाय या भोजन ले सकता है
जब मंत्र जप चालू हो तब चाय, जल, भी पीना वर्जित है, यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न भी हो जाये, तो इसके बाद पवित्रीकरण करने के उपरांत ही पुनः मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए
• साधनाकाल में यथासंभव भूमि पर सोना उचित रहता है, भूमि पर किसी भी प्रकार का बिछौना सो सकते हैं, विशेष परिस्थितियों में पलंग आदि का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु जहां तक संभव हो भूमि शयन ही करें
• साधनाकाल में स्त्री संसर्ग सर्वथा वर्जित है, इस अवधि में पूरी तरह से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें, इस अवधि में फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ना, सिनेमा देखना, अन्य स्त्रियों से लम्बिई बातचीत करना आदि निषेध है, यथासंभव मन को संयत और शांत बनाए रखें
• साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्नान कर लेता उचित रहता है, यदि बीमार हो या अशक्त हो, तो ऐसी परिस्थिति में कपड़ा भिगोकर पुरे शरीर को पौंछ लेता चाहिए, परन्तु जहां तक हो सके स्नान करना ही उत्तम माना जाता है
• पैंट, निकर या पायजामा पहन कर साधना नहीं की जा सकती, इसके लिये धोती पहनना उचित माना गया है
• एक धोती कमर के नीची पहिन लें और गुरु पीताम्बर ओढ़ लें, परन्तु यदि सर्दी का मौसम हो, तो उनी कम्बल भी ओढ़ सकता है, धोती हमेशा धूलि हुई स्वच्छ हो
• साधना काल में क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए, अर्थात सर के या दाढ़ी के बाल नहीं कटावें
• साधना काल में बीडी-सिगरेट, तम्बाकू, पान आदि का सेवन वर्जित है, जितने दिन तक साधना चले उतने दिन तक किसी प्रकार का व्यसन न करें
• साधना काल में स्नान करते समय साबुन का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इत्र आदि का प्रयोग न करें, साधना के बाद कहीं बहार जाते समय जूतों का प्रयोग किया जा सकता है
• यदि साधक नौकरी या व्यापार कर रहा हो और रात्रिकालीन साधना हो, तो दिन में नौकरी कर सकतें, यदि साधना पूरी होने तक व्यापार अथवा नौकरी से अवकाश ले लें, तो ज्यादा उचित रहता है
• साधना काल में सिनेमा देखना या किसी राग-रंग, गायन, संगीत महफिल आदि में भाग लेता वर्जित है
• साधना काल में कम से कम बोलें, बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही बातचीत करें और उतनी ही बातचीत करें, जीतनी जरूरी है, व्यर्थ में गप्पे लगाना बहस करना सर्वथा वर्जित हैं
• साधना घर के एकांत कक्ष में, किसी मन्दिर, नदी तट आदि स्थान पर जाकर की जा सकती है, पर इस बात का ध्यान रखें कि साधना स्थल ऐसा हो, जो शांत और कोलाहल से दूर हो; वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न होता हो
• साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधना संबंदी सारे उपकरण चित्र, यंत्र, माला आदि एक स्थान पर एकत्र कर लेनी चाहिए, पूजन सामग्री की व्यवस्था भी पहले से ही कर लेनी चाहिए, साथ ही साथ अपने गुरु या साधना बताने वाले व्यक्ति से साधना से सम्बंधित सरे तथ्य पहले से ही भली प्रकार समझ लेने चाहिए
• कभी-कभी साधना काल में आखोने के सामने कई अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ते हैं, कई बार विचित्र आवाजें सुनाई पड़ती है, कई बार ऐसा भी अनुभव होता है, कि जैसे आपको कोई आवाज दे रहा हो, परन्तु इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए और बराबर अपनी जप के तरफ ध्यान देना चाहिए ।
Sunday, 5 September 2021
श्री काली प्रत्यंगिरा स्तोत्र
।।विनियोग ।।
ॐ ॐ ॐ अस्य श्री प्रत्यंगिरा मंत्रस्य,श्री अंगिरा ऋषिः,अनुष्टुप छन्दः,श्री प्रत्यंगिरा देवता, हूं बीजम्, ह्रीं शक्तिः,क्रीं कीलकं ममाभीष्ट सिद्धये पाठे विनियोगः।
।।अंगन्यास ।।
श्री अंगिरा ऋषये नमः शिरसि,अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे
श्री प्रत्यंगिरा देवतायै नमः हृदि,हूं बीजाय नमः गुह्ये
ह्रीं शक्तये नमः पादयो,क्रीं कीलकं नमः सर्वांगे
ममाभीष्ट सिद्धये पाठे विनियोगाय नमः अंजलौ।
।।ध्यान ।।
भुजैश्चतुर्भिधृत तीक्ष्ण बाण,धनुर्वरा - भीश्च शवांघ्रि-युग्मा।
रक्ताम्बरा रक्त तनस्त्रि-नेत्रा,प्रत्यंगिरेयं प्रणतं पुनातु।।
।।स्तोत्र ।।
ॐ नमः सहस्र सूर्येक्षणाय श्रीकण्ठानादि रुपाय पुरुषाय पुरू हुताय ऐं महा सुखय व्यापिने महेश्वराय जगत सृष्टि कारिणे ईशानाय सर्व व्यापिने महा घोराति घोराय ॐ ॐ ॐ प्रभावं दर्शय दर्शय।
ॐ ॐ ॐ हिल हिल ॐ ॐ ॐ विद्द्युतज्जिव्हे बंध-बंध मथ-मथ प्रमथ-प्रमथ विध्वंसय-विध्वंसय ग्रस-ग्रस पिव-पिव नाशय-नाशय त्रासय-त्रासय विदारय-विदारय मम शत्रून खाहि -खाहि मारय-मारय मां सपरिवारं रक्ष-रक्ष कर कुम्भस्तनि सर्वापद्र-वेभ्यः।
ॐ महा मेघौघ राशि सम्वर्तक विद्युदन्त कपर्दिनी दिव्य कनकाम्भो- रुहविकच माला धारिणी परमेश्वरि प्रिये। छिन्दि-छिन्दि विद्रावय-विद्रावय देवि! पिशाच नागासुर गरुण किन्नर विद्याधर गन्धर्व यक्ष राक्षस लोकपालान् स्तम्भय-स्तम्भय कीलय-कीलय घातय-घातय विश्वमूर्ति महा तेजसे।
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां विद्यां स्तम्भय-स्तम्भय।
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां मुखं स्तम्भय-स्तम्भय।
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां हस्तौ स्तम्भय-स्तम्भय।
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां पादौ स्तम्भय-स्तम्भय।
ॐ हूं सः मम् शत्रूणां गृहागत कुटुंब मुखानि स्तम्भय-स्तम्भय।
स्थानम् कीलय-कीलय, ग्रामं कीलय-कीलय मंडलम कीलय-कीलय देशं कीलय-कीलय सर्वसिद्धि महाभागे। धारकस्य सपरिवारस्य शांतिम कुरु कुरु फट स्वाहा।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अं अं अं अं अं हूं हूं हूं हूं हूं खं खं खं खं खं फट स्वाहा। जय प्रत्यंगिरे।
धारकस्य सपरिवारस्य मम रक्षाम् कुरु कुरु ॐ हूं सः जय जय स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ब्रह्माणि! मम शिरो रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वैष्णवि! मम कण्ठं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कौमारी! मम वक्त्रं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नारसिंही! ममोदरं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इंद्राणी! मम नाभिं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चामुण्डे! मम गुह्यं रक्ष-रक्ष, हूं स्वाहा
ॐ नमो भगवति उच्छिष्ट चाण्डालिनि, त्रिशूल वज्रांकुशधरे मांस भक्षिणी, खट्वांग कपाल वज्रांसि-धारिणी। दह-दह, धम-धम, सर्व दुष्टान् ग्रस-ग्रस, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं फट स्वाहा।
।।महर्षि अंगिराकृत श्री काली प्रत्यंगिरा स्तोत् संपूर्णम् ।।
विशेष:-शत्रु बाधा,शरीर रक्षा,ग्रहबाधा इत्यादि के लिए यह स्तोत्र अमोघ है।
महाविद्यास्तोत्रम्-सप्रयोग
श्री गणेशाय नमः
संस्कृतम्
सप्रयोग-महाविद्यास्तोत्रम्
भाषाटीकासहितम्
महाविद्यां प्रवक्ष्यामि महादेवेन निर्मिताम् ।
उत्तमां सर्वविद्यानां सर्वभूताघशङ्करीम् ॥
सङ्कल्पः -
ॐ तत्सदद्याऽमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे
अमुकगोत्रः - अमुकशर्माऽहं मम (अथवाऽमुकयजमानस्य)
गृहे उत्पन्न भूत-प्रेत-पिशाचादि-सकलदोषशमनार्थं
झटित्यारोग्यताप्राप्त्यर्थं च महाविद्यास्तोत्रस्य पाठं करिष्ये ।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीमहाविद्यास्तोत्रमन्त्रस्याऽर्यमा ऋषिः,
कालिका देवता, गायत्री छन्दः, श्रीसदाशिवदेवताप्रीत्यर्थे
मनोवाञ्छितसिद्ध्यर्थे च जपे (पाठे) विनियोगः ।
भगवान् शङ्कर द्वारा निर्मित उस महाविद्या को मैं कहता
हूं, जो सब विद्याओं में श्रेष्ठ तथा सब जीवों को वश में
करनेवाली हैं । पाठकर्ता दाहिने हाथ में पुष्प, अक्षत,
जल लेकर - ॐ तत्सदद्याऽमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ
अमुकवासरे अमुकगोत्रः अमुकशर्माहं मम (अथवाऽमुकयजमानस्य)
गृहे उत्पन्न भूत-प्रेत-पिशाचादि-सकलदोषशमनार्थं
झटित्यारोग्यताप्राप्त्यर्थं च महाविद्यास्तोत्रस्य पाठं करिष्ये
इति पाठ का सङ्कल्प करे ।
*ध्यानम्*
उद्यच्छीतांशु-रश्मि-द्युतिचय-सदृशीं फुल्लपद्मोपविष्टां
वीणा-नागेन्द्र-शङ्खायुध-परशुधरां दोर्भिरीड्यैश्चतुर्भिः ।
मुक्ताहारांशु-नानामणियुतहृदयां सीधुपात्रं वहन्तीं
वन्देऽभीज्यां भवानीं प्रहसितवदनां साधकेष्टप्रदात्रीम् ॥
पश्चात्
ॐ अस्य श्रीमहाविद्यास्तोत्रमन्त्रस्य - से विनियोगः तक
पढकर भूमि पर जल छोड दे ।
उसके बाद
उद्यच्छीतांशु से साधकेष्टप्रदात्रीं तक श्लोक
पढकर महाविद्या का ध्यान कर, ॐ कुलकरीं गोत्रकरीं से आरम्भ कर,
प्रेतशान्तिर्विशेषतः तक स्तोत्र का पाठ करे ।
ॐ कुलकरीं गोत्रकरीं धनकरीं पुष्टिकरीं वृद्धिकरीं हलाकरीं
सर्वशत्रुक्षयकरीं उत्साहकरीं बलवर्धिनीं सर्ववज्रकायाचितां
सर्वग्रहोत्पाटिनीं पुत्र-पौत्राभिवर्द्धिनीमायुरारोग्यैश्वर्याभिवर्द्धिनीं
सर्वभूतस्तम्भिनीं द्राविणीं मोहिनीं सर्वाकर्षिणीं सर्वलोकवशङ्करीं
सर्वराजवश्ङ्करीं सर्वयन्त्र-मन्त्र-प्रभेदिनीमेकाहिकं
द्व्याहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं पाञ्चाहिकं
साप्ताहिकमार्द्धमासिकं मासिकं चातुर्मासिकं षाण्मासिकं
सांवत्सरिकं वैजयन्तिकं पैत्तिकं वातिकं श्लैष्मिकं सान्निपातिकं
कुष्ठरोगजठररोगमुखरोगगण्डरोगप्रमेहरोगशुल्काविशिक्षयकरीं
विस्फोटकादिविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ वेतालादिज्वर-रात्रिज्वर-दिवसज्वराग्निज्वर-प्रत्यग्निज्वर-
राक्षसज्वर-पिशाचज्वर-ब्रह्मराक्षसज्वर-प्रस्वेदज्वर-
विषमज्वर-त्रिपुरज्वर-मायाज्वर-आभिचारिकज्वर-वष्टिअज्वर-
स्मरादिज्वर-दृष्टिज्वर-प्रोगादिविनाशनाय
स्वाहा । सर्वव्याधिविनाशनाय स्वाहा । सर्वशत्रुविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ अक्षिशूल-कुक्षिशूल-कर्णशूल-घ्राणशूलोदरशूल-गलशूल-
गण्डशूल-पादशूल-पादार्धशूल-सर्वशूलविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ सर्वशत्रुविनाशनाय स्वाहा ।
सर्वस्फोटक-सर्वक्लेशविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ आत्मरक्षा ॐ परमात्मरक्षा मित्ररक्षा अग्निरक्षा प्रत्यग्निरक्षा
परगतिवातोरक्षा तेषां सकलबन्धाय स्वाहा । ॐ हरदेहिनी स्वाहा ।
ॐ इन्द्रदेहिनी स्वाहा । ॐ स्वस्य ब्रह्मदण्डं विश्रामय । ॐ विश्रामय
विष्णुदण्डम् । ॐ ज्वर-ज्वरेश्वर-कुमारदण्डम् । ॐ हिलि मिलि
मायादण्डम् । ॐ नित्यं नित्यं विश्रामय विश्रामय वारुणी शूलिनी
गारुडी रक्षा स्वाहा ।
गंगादिपुलिने जाता पर्वते च वनान्तरे ।
रुद्रस्य हृदये जाता विद्याऽहं कामरूपिणी ॥
ॐ ज्वल ज्वल देहस्य देहेन सकललोहपिङ्गिलि कटि मपुरी
किलि किलि किलि महादण्ड कुमारदण्ड नृत्य नृत्य विष्णुवन्दितहंसिनी
शङ्खिनी चक्रिणी गदिनी शूलिनी रक्ष रक्ष स्वाहा ।
अथ बीजमन्त्राः
ॐ ह्राँ स्वाहा । ॐ ह्राँ ह्राँ स्वाहा ।
ॐ ह्रीँ स्वाहा । ॐ ह्रीँ ह्रीँ स्वाहा ।
ॐ ह्रूँ स्वाहा । ॐ ह्रूँ ह्रूँ स्वाहा ।
ॐ ह्रेँ स्वाहा । ॐ ह्रेँ ह्रेँ स्वाहा ।
ॐ ह्रैँ स्वाहा । ॐ ह्रैँ ह्रैँ स्वाहा ।
ॐ ह्रोँ स्वाहा । ॐ ह्रोँ ह्रोँ स्वाहा ।
ॐ ह्रौँ स्वाहा । ॐ ह्रौँ ह्रौँ स्वाहा ।
ॐ ह्रँ स्वाहा । ॐ ह्रँ ह्रँ स्वाहा ।
ॐ ह्रः स्वाहा । ॐ ह्रः ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ स्वाहा । ॐ क्राँ क्राँ स्वाहा ।
ॐ क्रीँ स्वाहा । ॐ क्रीँ क्रीँ स्वाहा ।
ॐ क्रूँ स्वाहा । ॐ क्रूँ क्रूँ स्वाहा ।
ॐ क्रेँ स्वाहा । ॐ क्रेँ क्रेँ स्वाहा ।
ॐ क्रैँ स्वाहा । ॐ क्रैँ क्रैँ स्वाहा ।
ॐ क्रोँ स्वाहा । ॐ क्रोँ क्रोँ स्वाहा ।
ॐ क्रौँ स्वाहा । ॐ क्रौँ क्रौँ स्वाहा ।
ॐ क्रँ स्वाहा । ॐ क्रँ क्रँ स्वाहा ।
ॐ क्रः स्वाहा । ॐ क्रः क्रः स्वाहा ।
ॐ कँ स्वाहा । ॐ कँ कँ स्वाहा ।
ॐ खँ स्वाहा । ॐ खँ खँ स्वाहा ।
ॐ गँ स्वाहा । ॐ गँ गँ स्वाहा ।
ॐ घँ स्वाहा । ॐ घँ घँ स्वाहा ।
ॐ ङँ स्वाहा । ॐ ङँ ङँ स्वाहा ।
ॐ चँ स्वाहा । ॐ चँ चँ स्वाहा ।
ॐ छँ स्वाहा । ॐ छँ छँ स्वाहा ।
ॐ जँ स्वाहा । ॐ जँ जँ स्वाहा ।
ॐ झँ स्वाहा । ॐ झँ झँ स्वाहा ।
ॐ ञँ स्वाहा । ॐ ञँ ञँ स्वाहा ।
ॐ टँ स्वाहा । ॐ टँ टँ स्वाहा ।
ॐ ठँ स्वाहा । ॐ ठँ ठँ स्वाहा ।
ॐ डँ स्वाहा । ॐ डँ डँ स्वाहा ।
ॐ ढँ स्वाहा । ॐ ढँ ढँ स्वाहा ।
ॐ णँ स्वाहा । ॐ णँ णँ स्वाहा ।
ॐ तँ स्वाहा । ॐ तँ तँ स्वाहा ।
ॐ थँ स्वाहा । ॐ थँ थँ स्वाहा ।
ॐ दँ स्वाहा । ॐ दँ दँ स्वाहा ।
ॐ धँ स्वाहा । ॐ धँ धँ स्वाहा ।
ॐ नँ स्वाहा । ॐ नँ नँ स्वाहा ।
ॐ पँ स्वाहा । ॐ पँ पँ स्वाहा ।
ॐ फँ स्वाहा । ॐ फँ फँ स्वाहा ।
ॐ बँ स्वाहा । ॐ बँ बँ स्वाहा ।
ॐ भँ स्वाहा । ॐ भँ भँ स्वाहा ।
ॐ मँ स्वाहा । ॐ मँ मँ स्वाहा ।
ॐ यँ स्वाहा । ॐ यँ यँ स्वाहा ।
ॐ रँ स्वाहा । ॐ रँ रँ स्वाहा ।
ॐ लँ स्वाहा । ॐ लँ लँ स्वाहा ।
ॐ वँ स्वाहा । ॐ वँ वँ स्वाहा ।
ॐ शँ स्वाहा । ॐ शँ शँ स्वाहा ।
ॐ षँ स्वाहा । ॐ षँ षँ स्वाहा ।
ॐ सँ स्वाहा । ॐ सँ सँ स्वाहा ।
ॐ हँ स्वाहा । ॐ हँ हँ स्वाहा ।
ॐ क्षँ स्वाहा । ॐ क्षँ क्षँ स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ लेषाय स्वाहा । ॐ गणेश्वराय स्वाहा ।
ॐ दुर्गे महाशक्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-
सर्ववेताल-वृश्चिकादिभयविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ ब्रं ब्रह्मणे स्वाहा ।
ॐ विं विष्णवे स्वाहा ।
ॐ शिं शिवाय स्वाहा ।
ॐ सूं सूर्याय स्वाहा ।
ॐ सों सोमाय स्वाहा ।
ॐ विं विष्णवे स्वाहा ।
ॐ शिं शिवाय स्वाहा ।
ॐ सूं सूर्याय स्वाहा ।
ॐ सों सोमाय स्वाहा ।
ॐ मं मंगलाय स्वाहा ।
ॐ बुं बुधाय स्वाहा ।
ॐ बृं बृहस्पतये स्वाहा ।
ॐ शुं शुक्राय स्वाहा ।
ॐ शं शनैश्चराय स्वाहा ।
ॐ रां राहवे स्वाहा ।
ॐ कें केतवे स्वाहा ।
ॐ महाशान्तिक-भूत प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-वेताल-वृश्चिकभयविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ सिंह-शार्दूल-गजेन्द्र-ग्राह-व्याघ्रादिमृगान् बध्नामि स्वाहा ।
ॐ शस्त्रं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्रं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ आशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ सर्वं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ सर्वजन्तून् बध्नामि स्वाहा ।
ॐ बन्ध बन्ध मोचनं कुरु कुरु स्वाहा ।
दिग्बन्धनम्
ॐ नमो भगवते रुद्राय
महेन्द्रदिशायामैरावतारूढं हेमवर्णं वज्रहस्तं
परिवारसहितं इन्द्रदेवताधिपतिमैन्द्रमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ ऐन्द्रमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा । ॐ भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय
अग्निदिशायां मार्जारारूढं शक्तिहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिमग्निमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अग्निमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भैरवाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय
दक्षिणदिशायां महिषारूढं कृष्णवर्णं दण्डहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं यममण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ यममण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ नमो भैरवाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते रूद्राय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।
ॐ नैरृत्यदिशायां प्रेतारूढं खड्गहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं नैरृत्यमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ नैरृत्यमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्रां क्रीं क्रूं क्रैं क्रौं क्रः स्वाहा ।
ॐ पश्चिमदिशायां मकरारूढं पाशहस्तं परिवारसहितं
दिग्देवताधिपतिं वरुणमण्डलं बध्नामि स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा । ॐ भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै नमः स्वाहा ।
ॐ वरुणमण्डलं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष माचल माचल
माक्रम्य माक्रम्य स्वाहा ।
ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रैँ ह्रौँ ह्रः स्वाहा ।
ॐ क्राँ क्रीँ क्रूँ क्रैँ क्रौँ क्रः स्वाहा ।
ॐ दुर्गे महाशान्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-वेताल-वृश्चिकादिभयविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ पूर्वदिशायां व्रजको नाम राक्षसस्तस्य
व्रजकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहाअ । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ अग्निदिशायामग्निज्वालो नाम राक्षसस्तस्याग्निज्वालस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां वध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ दक्षिणदिशायामेकपिङ्गलिको नाम राक्षसस्तस्यैकपिङ्गलिकस्याष्टा-
दशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ नैरृत्यदिशायां मरीचिको नाम राक्षसस्तस्य
मरीचिकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ पश्चिमदिशायां मकरो नाम राक्षसस्तस्य
मकरस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ वायव्यदिशायां तक्षको नाम राक्षसस्तस्य
तक्षकस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ उत्तरदिशायां महाभीमो नाम राक्षसस्तस्य
भीमस्याष्टादसकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ ईशानदिशायां भैरवो नाम राक्षसस्तस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वाहा ।
ॐ अधः दिशायां पातालनिवासिनो नाम राक्षसस्तस्या-
ष्टादशकोटिसहस्रस्य तस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ ब्रह्मदिशायां ब्रह्मरूपो नाम राक्षसस्तस्य
ब्रह्मरूपस्याष्टादशकोटिसहस्रस्य पिशाचस्य दिशां बध्नामि स्वाहा ।
ॐ अस्त्राय फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते रूद्राय स्वाहा । ॐ नमो भगवते भैरवाय स्वाहा ।
ॐ नमो गणेश्वराय स्वाहा । ॐ नमो दुर्गायै स्वाहा ।
ॐ नमो महाशान्तिक-भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस-ब्रह्मराक्षस-
वेताल-वृश्चिकभयविनाशनाय स्वाहा ।
ॐ शिखायां मे क्लीं ब्रह्माणी रक्षतु ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ शिरो मे रक्षतु माहेश्वरी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ भुजौ रक्षतु सर्वाणी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ उदरे रक्षतु रुद्राणी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ जङ्घे रक्षतु नारसिंही ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ पादौ रक्षतु महालक्ष्मी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
ॐ सर्वाङ्गे रक्षतु सुन्दरी ।
ॐ ह्रां ह्रीं व्रीं व्लीं क्षौं हुं फट् स्वाहा ।
परिणामे महाविद्या महादेवस्य सन्निधौ ।
एकविंशतिवारं च पठित्वा सिद्धिमाप्नुयात् ॥ १॥
स्त्रियो वा पुरुषो वापि पापं भस्म समाचरेत् ।
दुष्टानां मारणं चैव सर्वग्रहनिवारणम् ।
सर्वकार्येषु सिद्धिः स्यात् प्रेतशान्तिर्विशेषतः ॥ २॥
इति श्रिभैरवीतन्त्रे शिवप्रोक्ता महाविद्या समाप्ता ।
अथाऽस्य स्तोत्रस्योत्कीलनमन्त्रः -
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
अष्टोत्तरशतमभिमन्त्र्य जलं पाययेत् अथवा कुशैर्मार्जयेत् ।
इति सप्रयोगमहाविद्यास्तोत्रं समाप्तम् ।।
***
महादेव के समीप में इस महाविद्यास्तोत्र के इक्कीस बार पाठ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।
दुष्टों का मारण तथा सब ग्रहों की शान्ति भी होती है ।
और सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है ।
विशेष करके प्रेतबाधा की शान्ति निश्चित रूप से होती है।
*****
जय जय श्रीभैरवी तन्त्र में भगवान शंकर से कही गयी महाविद्या समाप्त हुई।
*****
इस स्तोत्र का उत्कीलन मन्त्र है - ॐ उग्रं वीरं से - नमाम्यहम् तक।
षोड्श मातृकाएं
सूर्य में जो तेज है वह इन्हीं का रूप है। ये शंकर भगवान को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखती हैं। सिद्धेश्वरी सिद्धिरूपा सिद्धिदा ईश्वरी आदि इनके सार्थक नाम हैं। ये दुख शोक भय उद्वेग को नष्ट कर देती हैं…
मंगल कार्यों में भगवान गणपति के साथ षोड्श मातृकाओं का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए। इससे कार्य सिद्धि एवं अभ्युदय की प्राप्ति होती है। ये षोडश मातृकाएं इस प्रकार हैं-
गौर पदमा शयी मेघा सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहामातरो लोक मातरः।।
धृति पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता।
गणेशेनाधिका ह्योता वृद्धौ पूज्याश्रचः षोडश।।
गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, वैधृति, धृति, पुष्टि , तुष्टी , आद्या तथा कुल देवता - लोकमाताएं हैं। इकना संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है।
1. माता गौरी
अप्रतिम गौर- वर्ण होने के कारण पार्वती गौरी कही जाती है। ये नारायण, विष्णुमाया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूप जी नाम से प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मा आगि गेनका सनक आदि मुनिगण तथा मनु प्रभृति सभी इनकी ुपूजा करते हैं। माता गौरी सबकी देखभाल और व्यवस्था करती है। यश मंगल सुख सुविधा आदि व्यावहारिक पदार्थ तथा मोक्ष करना इनका स्वाभाविक गुण है। यह शरणागत वत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी हैं। सूर्य में जो तेज है वह इन्हीं का रूप है। ये शंकर भगवान को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखती हैं। सिद्धेश्वरी सिद्धिरूपा सिद्धिदा ईश्वरी आदि इनके सार्थक नाम हैं। ये दुख शोक भय उद्वेग को नष्ट कर देती हैं। देवी के 108 नामों में गौरी नाम भी परिगणित है। यह नामावली स्वयं भगवती ने अपने पिता दक्ष को बताई थी। उनके कल्याण के लिए (मत्सय पुराण अ. 13)। यह नामावली बहुत ही प्रभावशाली है। जिस स्थान पर यह नामावली लिखकर रख दी जाती है अथवा (किसी देवता के समीप रखकर पूजित होती है। वहां शोक) और दुर्गति प्रवेश नहं हो पाता है। माता गौरी की पूर्ति कान्य कुब्ज के सिद्ध पीठ पर विराजमान है। देवी के 108 पीठों में यह अन्यतम पीठ है। (देवी भा. 7/30/58) विश्व पर जब-जब संकट आया है, तब-तब पराम्बाने उसे दरकर विश्व को बचाया है। (मार्क 68, 79)। माता गौरी ने विश्व को यह वरदान दे रखा है कि जब-जब दानवों से बाधा उपस्थित होगी, तब मैं प्रकट होकर उसका विनाश कर दिया करूंगी।गौरी गणेश की पूजा के बिना कोई कार्य सफल नहीं हो पाता। स्त्रियों के लिए प्रतिदिन पूजा करने का विधान है। आवाहन के मंत्र में माता गौरी इस तरह परिचय दिया गया है। ये हिमालय पुत्री, शंकर की प्रिया और गणेश की जननी हैं-
हमाद्रिनयां देवी वरदां शंकरप्रियाम।
लंबोदरस्य जननींगौरीमावाहयाम्यहम्।।
2. माता पद्मा
लक्ष्मी का एक नाम पद्मा भी है। (खचृक परि. श्री सूक्त श्रीमदभा. 10/46/13) श्री सूक्त में माता लक्ष्मी के लिए पद्मस्थिता, पद्मवर्णा पद्मिनी, पद्ममालिनी, पुष्करीणी, पद्मानना, मद्मोरू, पद्माक्षि, पद्मसंभवा, सरसिजनिलया, सरोजहस्ता, पद्मविद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मवलायतीक्ष्थाज्ञी आइद पदों का प्रयोग हुआ है। (त्रचृक, परि, श्री सूकत 4/26) इससे पता चलता है कि लक्ष्मी देवी का कमल से बहुत घनिष्ठ संबंध है। ये सुगंधित कमल की माला पहनती हैं।
3. माता शची
एक बार इनके सतीत्व पर संकट की घड़ी आ गई। इंद्र की अनुपस्थिति में राजा नहुष को इंद्र के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। राजा नहुष धर्म पथ पर चलने वाले योग्य शासक थे। किंतु इंद्र जैसे महत्त्वपूण्र पद के लिए वह अपने को योग्य नहीं समझते थे…
वेद की अन्य ऋचाओं में माता शची का वर्णन आया है। एक ऋचा में स्वयं देवराज इंद्र ने शची की प्रशंसा में कहा है कि विश्व में जितनी सौभाग्यवती नारियां हैं, उनमें मैंने इंद्राणी को सबसे अधिक सौभाग्यवती सुना है। माता शची अंतर्यामिणी हैं। जैसे सभी अवयवों में सिर प्रधान होता है, वैसे ही माता शची सब में प्रधान हैं। ये षोड्श शक्तियों में एक शक्ति मानी गई हैं इनकी रूप संपत्ति पर मुग्ध होकर देवताओं के राजा इंद्र ने इनसे विवाह किया था। इंद्र को ये बहुत प्रिय हैं। शची इंद्र सभा में उनके साथ सिंहावन पर विराजती हैं। शची लक्ष्मी के समान प्रतीत होती हैं। ये पतिव्रताओं में श्रेष्ठ और स्त्री जाति की आदर्श हैं । एक बार इनके सतीत्व पर संकट की घड़ी आ गई। इंद्र की अनुपस्थिति में राजा नहुष को इंद्र के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। राजा नहुष धर्म पथ पर चलने वाले योग्य शासक थे। किंतु इंद्र जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए वे अपने को योग्य नहीं समझते थे। परंतु सभी देवताओं ने इन्हें अपना-अपना तेज प्रदान कर समर्थ बनाया और एक वरदान भी दिया कि जिसको तुम देख लोगे उसकी शक्ति तुम में आ जाएगी। यह वरदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। अब देवों, दानवों, दैत्यों में से कोई नहुष का सामना नहीं कर सकता था। समर्थ नहुष से देवताओं का कार्य अच्छी तरह संपन्न हो रहा था। देवता प्रसन्न थे। राजा नहुष भी प्रसन्न थे, क्योंकि वे भी मनुष्य देह से दुलर्भ स्वर्ग सुख और ऐश्वर्य का भोग कर रहे थे। धीरे-धीरे भोग विलास ने इनको अपने में लिप्त कर लिया। इनकी विवेक शक्ति क्षीण होने लगी। एक बार शची देवी पर इनकी दृष्टि पड़ी। इनकी दृष्टि कलुषित होने लगी। माता शची ने इनको सावधान किया, किंतु नहुष की आंखें नहीं खुलीं। फलतः स्वर्ग से च्युत होकर नहुष को सर्प बनना पड़ा। माता शची का आवाहन मंत्र इस प्रकार है-
दिव्य रूपां विशालाक्षीं शुचिकुंडलधारिणीम्।
रत्नमुक्ताद्यलाष्टङ्। रांशचीभावाहयाम्यहम्।।
विश्व कल्याण के लिए आदि शक्ति ने अपने को उंचास रूपों में अभिव्यक्त किया था। इन्हीं में माता मेधा की भी गणना है। आदि शक्ति जैसे वाराणसी में विशालाक्षी रूप से, विंध्य पर्वत पर विन्ध्यवासिनी रूप से कान्यकुब्ज में गौरी रूप से और देवलोक में शची रूप में विराजती हैं। यद्यपि माता मेधा सभी स्थलों में और सभी प्राणियों में अनुस्यूत हैं, इसलिए सभी स्थलों में और सभी प्राणियों में इनका प्राकट्य होता रहता है, फिर भी पीठ विशेष में इनका दर्शन प्राप्त शीघ्र फलप्रद होता है। यही आदि शक्ति प्राणी मात्र में शक्ति रूप में विद्यमान हैं। हममें जो निर्णयात्मिका बुद्धिशक्ति है या धाराणात्मिका मेधा शक्ति है, वह आदिशक्ति रूप हैं। माता मेधा के आह्वान के लिए जो मंत्र पढ़ा जाता है, उसमें बतलाया गया है कि माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती रहती हैं, इनकी आभा सूर्योदय कालीन सद्यः विकसित कमल की तरह है और ये कमल पर रहती हैं। इनका स्वरूप बहुत ही सौम्य है-
वैवस्वतकृतफुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवासिनीम्।
बुद्धिप्रसादिनीं सौभ्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।
4. मेधा:
मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो निर्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए।
आराधना स्त्रोत-
वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्।
बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।
5. सावित्री-:
सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है। इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है। सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से ही प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है।
आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा।
6. विजया-:
विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है।
आराधना स्त्रोत-
विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्।
त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।
7. जया-:
प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-' जया में चाग्रत: पातु विजया पातु पृष्ठत:Ó। अर्थात हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें।
आवाहन स्त्रोत:
सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्।
त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।
8. षष्ठी-:
लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती हंै। ये जगत पर शासन करती है। इनकी सेना के प्रधान सेनापति कुमार स्कन्द है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता पष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया-पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है।
आवाहन स्त्रोत :
मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्।
आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।
9. स्वधा-:
पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है। ब्राह्मण वायपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है।
आराधना स्त्रोत:
ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्।
पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।
10. स्वाहा:
मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही मदद करती है। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है। इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है।
आराधना स्त्रोत:
स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम।
सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।
11. मातर:(मातृगण:)
शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त-वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं।
आवाहन स्त्रोत:
आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:।
सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।
12. लोक माताएं-:
राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हंै। समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं।
आवाहन स्त्रोत:
आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा: शुभा:।
नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।।
आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:।
शक्राद्यैरर्चिता देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।
13. घृति-:
माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै। माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।
14. पुष्टि-:
माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हंै।
आवाहन स्त्रोत :
पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम ।
बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।
15. तुष्टि-:
माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं।
आवाहन स्त्रोत:
आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्।
संतोष भावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।
16. कुलदेवता-:
मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है।
आवाहन स्त्रोत:
चूंकि अलग-अलग कुल के अलग-अलग देवता व देवियां होते हंै।
इसलिए सबका मंत्र अलग-अलग है।
चमत्कारी यक्षिणी साधना
यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं. यक्षिणी साधना को करने से साधक की मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं तथा इस साधना को करने से साधक को दुसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति भी प्राप्त होती हैं, साधक की बुद्धि तेज होती हैं. यक्षिणी साधना को करने से कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि जल्द ही हो जाती हैं.
बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, नाग आदि। ये सभी मानवों से कुछ अलग थे। इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे। देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है। कहते हैं कि यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं तो पिशाचिनियां नकारात्मक। बहुत से लोग यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी की तरह मानते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। रावण के सौतेला भाई कुबेर एक यक्ष थे, जबकि रावण एक राक्षस। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की दो पत्नियां थीं- इलविला और कैकसी। इलविला से कुबेर और कैकसी से रावण, विभीषण, कुंभकर्ण का जन्म हुआ। इलविला यक्ष जाति से थीं तो कैकसी राक्षस। जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह प्रमुख 8 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं। गंधर्व और यक्ष जातियां देवताओं की ओर थीं तो राक्षस, दानव आदि जातियां दैत्यों की ओर। यदि आप देवताओं की साधना करने की तरह किसी यक्ष या यक्षिणियों की साधना करते हैं तो यह भी देवताओं की तरह प्रसन्न होकर आपको उचित मार्गदर्शन या फल देते हैं। उत्लेखनीय है कि जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे। उपनिषद की एक कथा अनुसार एक यक्ष ने ही अग्नि, इंद्र, वरुण और वायु का घमंड चूर-चूर कर दिया था।यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। किसी योग्य गुरु या जानकार से पूछकर ही यक्षिणी साधना करनी चाहिए। यहां प्रस्तुत है यक्षिणियों की चमत्कारिक जानकारी। यह जानकारी मात्र है साधक अपने विवेक से काम लें। शास्त्रों में 'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों की है।
ये प्रमुख यक्षिणियां है - 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी।
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होकर सहायता करती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध करने के लिए किसी योग्य गुरु या जानकार से इसके बारे में जानें।
मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र :॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः॥
सुर सुन्दरी यक्षिणी : इस यक्षिणी की विशेषता है कि साधक उन्हें जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होती ही है- चाहे वह मां का स्वरूप हो, चाहे वह बहन या प्रेमिका का। जैसी रही भावना जिसकी वैसे ही रूप में वह उपस्थित होती है या स्वप्न में आकर बताती है। यदि साधना नियमपूर्वक अच्छे उद्देश्य के लिए की गई है तो वह दिखाई भी देती है। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है। देव योनी के समान सुन्दर सुडौल होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है।
सुर सुन्दरी मंत्र : ॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥
मनोहारिणी यक्षिणी : मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के बाद यह यक्षिणी साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहक बना देती है कि वह दुनिया को अपने सम्मोहन पाश में बांधने की क्षमता हासिल कर लेता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट करती है। मनोहारिणी यक्षिणी का चेहरा अण्डाकार, नेत्र हरिण के समान और रंग गौरा है। उनके शरीर से निरंतर चंदन की सुगंध निकलती रहती है।
मनोहारिणी मंत्र :॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥
कनकावती यक्षिणी : कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह यक्षिणी साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है। माना जाता है कि यह यक्षिणी यह लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा है।
कनकावती मंत्र : ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥
कामेश्वरी यक्षिणी : यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख की कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में उपस्थित होकर साधक की इच्छापूर्ण करती है। साधक को जब भी किसी चीज की आवश्यकता होती है तो वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है। यह यक्षिणी सदैव चंचल रहने वाली मानी गई है। इसकी यौवन युक्त देह मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है।
कामेश्वरी मंत्र : ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥
रति प्रिया यक्षिणी : इस यक्षि़णी को प्रफुल्लता प्रदान करने वाली माना गया है। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक-साधिका को यह कामदेव और रति के समान सौन्दर्य की उपलब्धि कराती है। इस यक्षिणी की देह स्वर्ण के समान है जो सभी तरह के मंगल आभूषणों से सुसज्जित है।
रति प्रिया मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥
पदमिनी यक्षिणी : पद्मिनी यक्षिणी अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान करती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति की ओर अग्रसर करती है। यह हमेशा साधक के साथ रहकर हर कदम पर उसका हौसला बढ़ाती है। श्यामवर्णा, सुंदर नेत्र और सदा प्रसन्नचित्र करने वाली यह यक्षिणी अत्यक्षिक सुंदर देह वाली मानी गई है।
पद्मिनी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥
नटी यक्षिणी : यह यक्षिणी अपने साधक की पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है। यह सभी तरह की घटना-दुर्घटना से भी साधक को सुरक्षित बचा ले आती है। उल्लेखनीय है कि नटी यक्षिणी को विश्वामित्र ने भी सिद्ध किया था।
नटी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
अनुरागिणी यक्षिणी : यह यक्षिणी यदि साधक पर प्रसंन्न हो जाए तो वह उसे नित्य धन, मान, यश आदि से परिपूर्ण तृप्त कर देती है। अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है और यह साधक की इच्छा होने पर उसके साथ रास-उल्लास भी करती है।
अनुरागिणी मंत्र : ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥
तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।
साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।
साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।
ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।
'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।
ये प्रमुख यक्षिणियां है -
1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी 5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।
।।यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन ।।
ज्योतिषों के अनुसार यदि आषाढ़ माह में शुक्रवार के दिन पूर्णिमा हैं तो यक्षिणी साधना को करने का सबसे शुभ दिन अगले सप्ताह में आने वाला गुरुवार हैं.
इसके अलावा यक्षिणी साधना को करने की शुभ तिथि श्रावण मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा हैं. यह यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन इसलिए माना जाता हैं. क्योंकि इस दिन चंद्रमा में शक्ति अधिक होती हैं. जिससे साधक को उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं.
यक्षिणी साधना की विधि –यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं
शिवजी का मन्त्र –ऊँ रुद्राय नम: स्वाहा-ऊँ त्रयम्बकाय नम: स्वाहा
ऊँ यक्षराजाय स्वाहा-ऊँ त्रयलोचनाय स्वाहा
1. यक्षिणी साधना को करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और पूजा की सारी सामग्री को इकट्ठा कर लें.
2. यक्षिणी साधना का आरम्भ करने के लिए सबसे पहले शिव जी की पूजा सामान्य विधि से करें.
3. इसके बाद एक केले के पेड़ या बेलगिरी के पेड़ के नीचे यक्षिणी की साधना करें.
4. यक्षिणी साधना को करने से आपका मन स्थिर और एकाग्र हो जायेगा. इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों का जाप पांच हजार बार करें.
5. जाप करने के बाद घर पहुंच कर कुंवारी कन्याओं को खीर का भोजन करायें.
।।यक्षिणी साधना की दूसरी विधि ।।
यक्षिणी साधना को करने का एक और तरीका हैं. इस विधि के अनुसार यक्षिणी साधना करने के लिए वट के या पीपल के पेड़ नीचे शिवजी की तस्वीर या मूर्ति की स्थापना कर लें. अब निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण पांच हजार बार करते हुए पेड़ की जड में जल चढाए।
।।यक्षिणी साधना के नियम ।।
1.यक्षिणी साधना को करने लिए ब्रहमचारी रहना बहुत ही जरूरी हैं.
2. इस साधना को प्राम्भ करने के बाद साधक को अपने सभी कार्य भूमि पर करने चाहिए.
3.यक्षिणी साधना की सिद्धि हेतु साधक को नशीले पदार्थों का एवं मांसाहारी भोजन का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
4.यक्षिणी साधना को करते समय सफेद या पीले रंग के वस्त्रों को ही केवल धारण करना चाहिए.
5.इस साधना को करने वाले साधक को साबुन, इत्र या किसी प्रकार के सुगन्धित तेल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए तथा उसे अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए।
चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना किसी योग्य व सफ़ल गुरु के निर्देशन के बिना साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।बिना गुरु के साधना करने पर अहित होने से हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
रोग निवारक महामंत्र
मैं एक महा मंत्र देने जा रहा हूँ जो अगर पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ रोज़ जपा जाए तो सर्व प्रकार के रोगों को हरने वाला है । असाध्य रोगों को भी हरने कि क्षमता इस महा मंत्र में है । १०८ पाठ करने पर यह सिद्ध हो जाता है ।
विधि: रोज़ सुबह स्नान करके और स्वच्छ धुले हुए कपड़े पहन कर एक लाल रंग के कपडे पर बैठिये पूर्व दिशा की और मुख करके और फिर नीचे दिए हुआ मंत्र 108 बार पूरी श्रद्धा और विशवास के साथ जपिये । अवश्य लाभ प्राप्ति होगी ।
नीलकंठ अघोर मंत्र स्तोत्र
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विनियोग-------
ओम अस्य श्री नीलकंठ स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्म ऋषि अनुष्टुप छंद :नीलकंठो सदाशिवो देवता ब्रह्म्बीजम पार्वती शक्ति:शिव इति कीलकं मम काय जीव स्वरक्षनार्थे सर्वारिस्ट विनाशार्थे श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थे च जपे पाठे विनियोग: ।
मंत्र --------------
ओम नमो नीलकंठाय श्वेत शरीराय नमःसर्पलिंकृत भूषनाय नमः भुजंग परिकराय नाग यग्योपविताय नमः,अनेककाल मृत्यु विनाशनाय नमः,युगयुगान्त काल प्रलय प्रचंडाय नमः ज्वलंमुखाय नमः दंष्ट्रा कराल घोर रुपाय नमःहुं हुं फट स्वाहा,ज्वालामुख मंत्र करालाय नमः,प्रचंडार्क सह्स्त्रान्शु प्रचंडाय नमः
कर्पुरामोद परिमलांग सुगंधीताय नमः इन्द्रनील महानील वज्र वैदूर्यमणि माणिक्य मुकुट भूषणाय नमः श्री अघोरास्त्र मूल मन्त्रस्य नमःओम ह्रां स्फुर स्फुर ओम ह्रीं स्फुर स्फुर ओम ह्रूं स्फुर स्फुर अघोर घोरतरस्य नमः रथ रथ तत्र तत्र चट चट कह कह मद मदन दहनाय नमः ।
श्री अघोरास्य मूल मन्त्राय नमः ज्वलन मरणभय क्षयं हूं फट स्वाहा अनंत घोर ज्वर मरण भय कुष्ठ व्याधि विनाशनाय नमः डाकिनी शाकिनी ब्रह्मराक्षस दैत्य दानव बन्धनाय नमः अपर पारभूत वेताल कुष्मांड सर्वग्रह विनाशनाय नमः यन्त्र कोष्ठ करालाय नमः सर्वापद विच्छेदाय नमः हूं हूं फट स्वाहा आत्म मंत्र सुरक्ष्नाय नमः ।
ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं नमो भूत डामर ज्वाला वश भूतानां द्वादश भूतानां त्रयोदश भूतानां पंचदश डाकिनीना हन् हन् दह दह नाशय नाशय एकाहिक द्याहिक चतुराहिक पंच्वाहिक व्यप्ताय नमः।
आपादंत सन्निपात वातादि हिक्का कफादी कास्श्वासादिक दह दह छिन्दि छिन्दि श्री महादेव निर्मित स्तम्भन मोहन वश्यआकर्षणों उच्चाटन किलन उद्दासन इति षटकर्म विनाशनाय नमः।
अनंत वासुकी तक्षक कर्कोटक शंखपाल विजय पद्म महापद्म एलापत्र नाना नागानां कुलकादी विषं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि प्रवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा ।
वातज्वर मरणभय छिन्दि छिन्दि हन् हन्:भूतज्वर प्रेतज्वर पिशाचाज्वर रात्रिज्वर शीतज्वर सन्निपातज्वर ग्रह ज्वर विषमज्वर कुमारज्वर तापज्वर ब्रह्मज्वर विष्णुज्वर महेशज्वर आवश्यकज्वर कामाग्निविषय ज्वर मरीची- ज्वारादी प्रबल दंडधराय नमः परमेश्वराय नमः।
आवेशय आवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा चोर मृत्यु ग्रह व्यघ्रासर्पादी विषभय विनाशनाय नमः मोहन मन्त्राणा पर विद्या छेदन मन्त्राणा, ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं कुली लीं लीं हूं क्ष कूं कूं हूं हूं फट स्वाहा, नमो नीलकंठाय नमः दक्षाध्वरहराय नमः श्री नीलकंठाय नमः ओम ।।
नजर उतारने के उपाय
१॰ बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से ‘आठ’ बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।
२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें। ‘नजर’ लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।
३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।
४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते ‘टच वुड’ कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।
५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।
६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से ‘अण्डा’ या ‘जानवर की कलेजी’ उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।
७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।
८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।
९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति को काटता जाए।
१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।
११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।
१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।
१३॰ “नमो सत्य आदेश। गुरु का ओम नमो नजर, जहाँ पर-पीर न जानी। बोले छल सो अमृत-बानी। कहे नजर कहाँ से आई ? यहाँ की ठोर ताहि कौन बताई ? कौन जाति तेरी ? कहाँ ठाम ? किसकी बेटी ? कहा तेरा नाम ? कहां से उड़ी, कहां को जाई ? अब ही बस कर ले, तेरी माया तेरी जाए। सुना चित लाए, जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलिन-तमोलिन, चूड़ी-चमारी, कायस्थनी, खत-रानी, कुम्हारी, महतरानी, राजा की रानी। जाको दोष, ताही के सिर पड़े। जाहर पीर नजर की रक्षा करे। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- मन्त्र पढ़ते हुए मोर-पंख से व्यक्ति को सिर से पैर तक झाड़ दें।
१४॰ “वन गुरु इद्यास करु। सात समुद्र सुखे जाती। चाक बाँधूँ, चाकोली बाँधूँ, दृष्ट बाँधूँ। नाम बाँधूँ तर बाल बिरामनाची आनिङ्गा।”
विधि- पहले मन्त्र को सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहण में सिद्ध करें। फिर प्रयोग हेतु उक्त मन्त्र के यन्त्र को पीपल के पत्ते पर किसी कलम से लिखें। “देवदत्त” के स्थान पर नजर लगे हुए व्यक्ति का नाम लिखें। यन्त्र को हाथ में लेकर उक्त मन्त्र ११ बार जपे। अगर-बत्ती का धुवाँ करे। यन्त्र को काले डोरे से बाँधकर रोगी को दे। रोगी मंगलवार या शुक्रवार को पूर्वाभिमुख होकर ताबीज को गले में धारण करें।
१५॰ “ॐ नमो आदेश। तू ज्या नावे, भूत पले, प्रेत पले, खबीस पले, अरिष्ट पले- सब पले। न पले, तर गुरु की, गोरखनाथ की, बीद याहीं चले। गुरु संगत, मेरी भगत, चले मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- उक्त मन्त्र से सात बार ‘राख’ को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी के कपाल पर टिका लगा दें। नजर उतर जायेगी।
१६॰ “ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय, ह्रीं धरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय। आत्म-चक्षु, प्रेत-चक्षु, पिशाच-चक्षु-सर्व नाशाय, सर्व-ज्वर-नाशाय, त्रायस त्रायस, ह्रीं नाथाय स्वाहा।”
विधि- उक्त जैन मन्त्र को सात बार पढ़कर व्यक्ति को जल पिला दें।
१७॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।
१८॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।
१९॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।
२०॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्ती भभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।
नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´
Saturday, 4 September 2021
बटुक भैरव उतारा
किसी बुरी आत्मा के प्रभाव अथवा किसी ग्रह के अशुभ प्रभाव के फलस्वरूप संतान सुख में बाधा से मुक्ति हेतु श्री बटुक का उतारा करना चाहिए। यह क्रिया निम्नलिखित विधि से रविवार, सोमवार, मंगलवार तीन दिन लगातार करें।
विधि : उतारे के स्थान पर एक पात्र में सरसों के तेल में बने उड़द के ११ बड़े, उड़द की दाल भरी ११ कचौड़ियां, ७ प्रकार की मिठाइयां, लाल फूल, सिंदूर, ४ बत्तियों का दीपक, 1 नींबू और 1 कुल्हर जल रखें। सिंदूर को चार बत्तियों वाले दीपक के तेल में डालें। फिर फूल, कचौड़ी, बड़े, मिठाइयां सभी सामग्री एक पत्तल पर रखें तथा मन ही मन यह कहें कि ''यह भोग हम श्री बटुक भैरव जी को दे रहे हैं, वे अपने भूत- प्रेतादिकों को खिला दें और संकट ग्रस्त व्यक्ति के ऊपर जो बुरी आत्मा या ग्रहों की कुदृष्टि है, उसका शमन कर दें।'' समस्त सामग्री को पीड़ित व्यक्ति के सिर के ऊपर ७ बार उतारा करके किसी चौराहे पर रखवा दें। सामग्री रखवाकर लौट आएं। ध्यान रहे, लौटते समय पीछे न देखें। उतारा परिवार के सदस्य करें। यह क्रिया यदि अपने लिए करनी हो, तो स्वयं करें।
Thursday, 2 September 2021
श्री गणेशास्त्र महास्त्रोत्र
इस स्त्रोत में भगवान गणपति के 32 रूपों की शक्ति समाहित है
इसके नित्य एक पाठ से गणेश जी के विभिन्न रूप जागृत होकर साधक को मनोवांछित लाभ देते हैं
सर्व कार्य सिद्धि हेतु इसका पाठ किया जाता है
गणेश मंत्र-- ओम श्रीं ह्लीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनम्मे वशमानय ठ: ठ:
1., ओम नमो बाल गणपतये सूर्य वर्णाय चतुर्भुजाय बाल मुखाय शीघ्र प्रसन्नाय मम सर्वान विघ्नान नाशय नाशय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
2.: ओम नमो तरुण गणपतये रक्त वर्णाय मध्यकालीन सूर्य स्वरूपाय षडहस्ताय प्रचंड सम्मोहनाय सदा माम रक्ष रक्ष मम ह्रदये सुस्थिरो भव ,वरप्रदो भव ,साक्षात्कार सिद्धि प्रदो भव ,,चर्म चक्षुष्क दर्शन प्रदो भव, चतु: षष्टि विद्याप्रवीणां कुरु कुरु गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
3.ओम नमो भक्ति गणपतये पूर्ण चंद्र स्वरूपाय चंद्र वर्णाय चतुर्हस्ताय दुग्ध प्रियाय मम शरीरे अमृत वर्षा कुरु कुरु गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
4. ओम नमो ़वीर गणपतये रक्त बर्णाय कवच, टंक ,पाश,खड़ग, परशु ,शक्ति ,धनुष ,भालसर्प, बेताल ,बाण गदा, खेटक,उत्पल, चक्र ,ध्वजा धारणाय षोडश हस्ताय मम् समस्त शत्रून मारय मारय काटय काटय छेदय छेदय पाशय पाशय भंजय भंजय उन्मूलय उन्मूलय घातय घातय कम्पय कम्पय भक्षय भक्षय गां गीं गूं गें गौं ग: हूं फट स्वाहा
:5. ओम नमो शक्ति गणपतये ,हरित वर्ण शक्ति सहिताय, अस्त सूर्य वर्णाय, अभय मुद्रा धारणाय, मम जन्मांगे स्थित समस्त क्रूर ग्रह बाधा उच्चाटय उच्चाटय शांतय शांतय, गां, गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
6.ओम नमो द्धिज गणपतये ब्रहम स्वरूपाय चतुर्मुखाय कमंडलु पुस्तक अक्षमाला दंड धारणाय, चतुर्हस्ताय स्वतंत्र स्वमंत्र स्वयंत्र स्वज्ञान प्रकाशय प्रकाशय गुप्त ज्ञान उदघाटय उदघाटय पर तंत्र, पर मंत्र ,पर यंत्र , नाशय नाशय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
7.ओम नमो सिद्धि गणपतये स्वर्ण वर्णाय चतुर्हस्ताय, शुण्डाग्रे दाडिम फल धारणाय, सर्व सिद्धिम कुरु कुरु गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
8.ओम नमो उच्छिष्ट गणपतये शक्ति सहिताय षट हस्ताय नीलवर्णाय , दक्षिण शुण्ड युक्ताय,तंत्र क्षेत्राधिपतये मारण मोहन उच्चाटन आकर्षण वश्यं सम्मोहन विद्या सहित सर्व तंत्र सिद्धिम कुरु कुरु गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
:9. ओम नमो विघ्न गणपतये पिंगल वर्णाय अष्टभुजाय विष्णु स्वरूपाय शंख चक्र पुष्प इच्छुपात्र, पुष्पवाण परशु पाश माला युक्ताय रत्न आभूषण सुसज्जिताय मम शरीरे सर्वान रोगान नाशय नाशय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट स्वाहा
10.ओम नमो क्षिप्र गणपतये रक्त वर्णाय चतुर्भुजाय भग्नदंत पाश, परशु कल्पवृक्ष धारणाय शुण्डाग्रे रत्न कलश सहिताय सर्व शांति कुरु कुरु स्वस्तिम कुरु कुरु पुष्टिम कुरु कुरु श्रियम देहि देहि यशो देही देही आयुष्य देहि देहि आरोग्यं देहि देहि पुत्र पौत्रान देहि देहि सर्व कामांश्च देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
11.ओम नमो हेरम्ब गणपतये सिंहवाहिने पंचमुखाय गौरवर्णाय दशभुजाय परराष्ट् गजाश्वम, रथसैन्य शस्त्रास्त्र बलम् स्तम्भय स्तम्भय उच्चाटय उच्चाटय मारय मारय खादय खादय विदारय विदारय भीषय भीषय कम्पय कम्पय भक्षय भक्षय त्वरित त्वरित बन्धय बन्धय प्रमुख प्रमुख स्फुट स्फुट ठं ठं ठं ठं गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
12.ओम नमो लक्ष्मी गणपतये अष्टभुजाय सिद्धि बुद्धि सहिताय श्वैत वर्णाय मम सर्व दुखं हर हर दारिद्रम निवारय निवारय यशम देही यौवनम देही धनं देही राज्यम देही गां गीं गूं गैं गौं ग हूं फट् स्वाहा
13..ओम नमो महागणपतये पीत वर्णाय दक्षिण शुण्डयुक्ताय बामांगे शक्ति सहिताय
अर्धचंद्र मुकुट धारणाय दशभुजाय मम जन्मांगे स्थित देवग्रह योनि ग्रह योगिनी ग्रह, दैत्यग्रह , दानव ग्रह, राक्षसग्रह, ब्रह्मराक्षस ग्रह,सिद्धग्रह, यक्ष ग्रह,
विद्याधर ग्रह ,किन्नर ग्रह , गंधर्व ग्रह, अप्सरा ग्रह, भूत ग्रह पिशाच ग्रह, ,कुष्मांडग्रह, गजादि ग्रह, पूतनाग्रह, बालग्रह सूर्यादि नवग्रह मुद्गगल ग्रह, पितृग्रह बेताल ग्रह, शत्रुग्रह राजग्रह चोरवैरी ग्रह, नेतृगृह देवता ग्रह, आधिग्रह व्याधिग्रह अपस्मरादि ग्रह, गृह ग्रह , पुर ग्रह, उरग ग्रह सरज ग्रह उक्तग्रह ,डामर ग्रह , उदकग्रह ,अग्नि ग्रह ,आकाश ग्रह, भू : ग्रह, वायु ग्रह , शालि ग्रह, धान्यादि ग्रह बिषय ग्रह, ग्रहानाति ग्रह, घोर ग्रह, छायाग्रह, सर्प ग्रह, विषजीव ग्रह, वृश्चिक ग्रह, काल ग्रह, शाल्य ग्रहादि सर्वान ग्रहान नाशय नाशय कालाग्निरूद्र स्वरूपेण दह दह अनुनय अनुनय शोषय शोषय मूकय मूकय कम्पय कम्पय भक्षय भक्षय निमीलय निमीलय मर्दय मर्दय विद्रावय विद्रावय निधन निधन स्तम्भय स्तम्भय उच्चाटय उच्चाटय उष्टन्धय उष्टन्धय मारय मारय चण्ड चण्ड प्रचण्ड प्रचण्ड क्रोध क्रोध ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ज्वालादित्य वदने उग्र ग्रस उग्र ग्रस विजृम्भय विजृम्भय घोषय घोषय मारय मारय हन हन गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
14..ओम नमो विजय गणपतये रक्तवर्णाय मूषकवाहिने चतुर्भुजाय सर्व क्षेत्रे विजयं देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
15..ओम नमो नृत्य गणपतये दक्षिण शुण्ड युक्ताय कल्पवृक्ष समीपे नृत्यमयाय सर्वदिशो बंधनामि महेश्वर बंधनामि, पितामह बंधनामि महाविष्णु बंंधनामि, कार्तिकेय बंधनामि, दशदिकपाल बंधनामि ,सर्वान असुरान बंधनामि, ब्रहमास्त्रान बंधनामि अघोरं बंधनामि , सर्वान सुरान बंधनामि सर्वान द्बिजान बंधनामि केशरीम बंधनामि सत्वान बंधनामि व्याघा्न बंधनामि गजान बंधनामि चौरान बंधनामि शत्रुन बंधनामि महामारीं बंधनामि,
सर्वा यक्षिणी बंधनामि, आब्रहं स्तम्भ पर्यंतं सर्वान चराचार जीवान बंधनामि माया ज्वालिनी स्तम्भय स्तम्भय सर्व वाणीम मूकय मूकय , कीलय कीलय गतिं स्तम्भय स्तम्भय, चौरादि सर्वान दुष्ट पुरूषान बंधय बंधय दिशा विदिशा रात्र्याकर्षण पाताल घा्ण भ्रूचक्ष: शिर: श्रोत्रे हस्तौ पादौं गतिं मतिं मुखं जिव्हां वाचां शब्द पंचाशत कोटि योजन विस्तीर्णान, भू-ब्रहमांड देवान बंधनामि, मंडलं बंधनामि व्याधान क्रमय क्रमय रक्ष रक्ष हुं फट स्वाहा
16..ओम नमो ऊर्ध्व गणपतये वामांगे हरित शक्ति सहिताय अष्टभुजाय कनकवर्णाय मम शरीरे कुंडलिनी शक्तिम प्रकाशय प्रकाशय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
17..: ओम नमो एकाक्षर गणपतये रक्तपुष्प माला धारिण्ये त्रिनेत्राय अर्ध चंद्र मुकुट धारणाय मूषकवाहिने पदमासन स्थिताय योग सिद्धिम देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
18.. ओम नमो वर गणपतये वामांगे शक्ति सहिताय त्रिनेत्राय अर्ध चंद्र मुकुट धारणाय वरं देही देही अभयं देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
19.ओम नमो त्रयक्षर गणपतये ॐकार स्वरूपाय स्वर्णप्रकाश युक्ताय शूप कर्णाय मोक्षं कुरू कुरू गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
20..ओम नमो क्षिप्र प्रसाद गणपतये रक्तचंदन अंकिताय षट्भुजाय कुशासन स्थिताय कल्पवृक्ष सहिताय त्वरित कार्य सिद्धि प्रदानाय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
21..ओम नमो हरिद्रा गणपतये पीत वर्णाय चतुर्भुजाय शत्रु वाक् स्तम्भनाय आत्म विरोधिणाम शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिकोरू पाद रेणु दंतोष्ठ जिव्हाम तालु गुह्म गुदा कटि सर्वागेषुं केशादि पाद पर्यंतं स्तम्भय स्तम्भय मारय मारय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
22.ओम नमो एकदंत गणपतये नीलवर्णाय चतुर्भुजाय भग्नदंत सहिताय गारूण वारूण सर्प पर्वत वह्मि दैवत अघोर नारायण विष्णु ब्रह्मा रूद्र वजा्स्त्राणि भंजय भंजय निवारय निवारय तेषां मंत्र यंत्र तंत्राणि विध्वंसय विध्वंसय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
23.ओम नमो सृष्टि गणपतये रक्तवर्णाय मूषकवाहिने चतुर्भुजाय आम्रफल पाश अंकुश भग्नदंत युक्ताय आयुष्मन्तं कुरू कुरू सततं मम ह्रदय चिंतित मनोरथ सिद्धिम कुरू कुरू चिदानंदकांत कुरू वाक् सिद्धिम देही देही अकाल मृत्यु विनाशनम कुरू कुरू,अपमृत्यु निर्दलनं कुरू कुरू अकालमृत्यु भय निवारय निवारय ममैव कर स्पर्शान नाना रोगान नाशय नाशय गां गीं गूं गैं गौं ग; हूं फट् स्वाहा
24. ओम नमो उद्दण्ड गणपतये वामांगे हरित वर्ण शक्ति युक्ताय दसभुजाय मम सर्व दुष्टान मर्दय मर्दय मारय मारय शोषय शोषय चण्डय चण्डय प्रचण्डय प्रचण्डय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
25.ओम नमो ऋणमोचन गणपतये शुक्लवर्णाय चतुर्हस्तायै मम कर्म क्षेत्रे स्थित पितृ ऋण , मातृऋण, स्त्रीऋण, पुत्र ऋण,मित्र ऋण,राज्य ऋण, देव ऋण, ग्रह ऋण, पंचभूत इत्यादि समस्त ऋणान उन्मूलन उन्मूलन गां गीं गूं गैं गौं ग:हूं फट् स्वाहा
: 26.ओम नमो ढुण्डी गणपतये सिंदूरवर्णाय चतुर्भुजाय रत्नकुम्भ धारणाय मम सर्व दोष हारिणे सर्व विघ्न छेदिने सर्व पाप निकृन्तिने सर्व श्रृंखला त्रोटिने, सर्व यंत्र स्फोटिने गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
27.ओम नमो द्बिमुख गणपतये चतुर्हस्ताय ,नील हरित वर्णाय, रत्न मुकुट सुशोभिताय सपरिवारम मां रक्ष रक्ष क्षमस्वापराधं क्षमस्वापराधं नमस्ते नमस्ते गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
28.ओम नमो त्रिमुख गणपतये स्वर्ण कमलासन स्थिताय रक्तवर्णाय अभयं कुरू कुरू कृपां कुरू कुरू सिद्धिम कुरू कुरू गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
29.ओम नमो सिंह गणपतये श्वेत वर्णाय सिंहवाहिने अष्टभुजाय मम शरीरे सर्वान बिषान् शोकान् हर हर गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
30.ओम नमो योग गणपतये योगासन स्थिताय इन्द्र स्वरूपाय रस सिद्धिम देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
31.ओम नमो दुर्गा गणपतये स्वर्ण आभा युक्ताय, रक्तवर्ण वस्त्र सुशोभिताय , मम समस्त प्रकट अप्रकट भयान् नाशय नाशय गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
32..ओम नमो संकष्ट हरण गणपतये उदित सूर्य स्वरूपाय वामांगे हरित वर्ण शक्ति सहिताय नीलवस्त्र सुशोभिताय शक्तिम देही देही गां गीं गूं गैं गौं ग: हूं फट् स्वाहा
ग्रहो से आजीविका का चुनाव लग्न कुन्डली
ग्रहो से आजीविका का चुनाव लग्न कुन्डली
लग्न कुन्डली , चन्द्र कुंडली ओर सूर्य कुंडली मे जो सर्वाधिक बली हो उस कुंडली से जो ग्रह 10 भाव मे बेठा हो उस ग्रह से सम्बंधित कार्य का चुनाव करना चाईए . यदि कोई ग्रह ना हो तो उस राशी का राशी पती नवांश मे जिस राशी मे बेठा हो. उस राशी पती से सम्बंधित कार्य करना चाईए.
सूर्य से संबंधित व्यापार
सरकारी नौकरी, सरकारी सेवा, उच्च स्तरीय प्रशासनिक सेवा, मजिस्ट्रेट, राजनीति, सोने का काम करने वाले, जौहरी, फाइनेंस, प्रबंधक, राजदूत, चिकित्सक (फिजिशियन), दवाइयों से संबंधी मैनेजमेंट, उपदेशक, मंत्र कार्य, फल विक्रेता, वस्त्र, घास फूस ( नारियल रेशा, बांस तृण आदि) से निर्मित सामग्री, तांबा, स्वर्ण, माणिक, सींग या हड्डी के बने समान, खेती बाड़ी, धन विनियोग, बीमा एजेंट, गेहूं से संबंधी, विदेश सेवा, उड्डयन, औषधि, चिकित्सा, सभी प्रकार के अनाज, लाल रंग के पदार्थ, शहद, लकड़ी व प्लाई वुड का कार्य, इमारत बनाने में काम आने वाला लकड़ी, सर्राफा, वानिकी, ऊन व ऊनी वस्त्र, पदार्थ विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, फोटोग्राफी, नाटक, फिल्मों का निर्देशन इत्यादि
चंद्रमा से संबंधित व्यापार
जल से उपरत्न वस्तुएं, पेय पदार्थ, दूध, डेयरी प्रोडक्ट (दही, घी, मक्खन) खाद्य पदार्थ, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स, मिनरल वाटर, आइस क्रीम, श्वेत पदार्थ, चांदी, चावल, नमक,चीनी, पुष्प सज्जा, मोती, मूंगा, शंख, क्रॉकरी ( चीनी मिट्टी ), कोमल मिट्टी ( मुलतानी ), प्लास्टर ऑफ पेरिस, सब्जी, वस्त्र व्यवसाय, रेडीमेड वस्त्र, जादूगर, फोटोग्राफिक्स व वीडियो मिक्सिंग, विदेशी कार्य, आयुर्वेदिक दवाएं, मनोविनोद के कार्य, आचार -चटनी -मुरब्बे, जल आपूर्ति विभाग, नहरी एवं सिंचाई विभाग, पुष्प सज्जा, मशरूम, मत्स्य से संबंधित क्षेत्र, सब्जियां, लांड्री, आयात -निर्यात, शीशा, चश्मा, महिला कल्याण, नेवी ( नौ सेना ), जल आपूर्ति विभाग, नहरी एवं सिंचाई विभाग, आबकारी विभाग, नाविक, यात्रा से संबंधित कार्य, अस्पताल, नर्सिंग, परिवहन, जनसंपर्क अधिकारी,
मंगल से संबंधित व्यापार
पुलिस व सेना की नौकरी, अग्नि कार्य, बिजली का कार्य, विद्युत् विभाग, साहसिक कार्य, धातु कार्य, जमीन का क्रय –विक्रय, भूमि के कार्य, भूमि विज्ञान, रक्षा विभाग, खनिज पदार्थ, इलेक्ट्रिक एवं इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर, मकेनिक, वकालत, ब्लड बैंक, शल्य चिकित्सक, केमिस्ट, दवा विक्रेता, खून बेचना, सिविल इंजीनियरिंग, शस्त्र निर्माण, बॉडी बिल्डिंग, साहसिक खेल, कुश्ती, स्पोर्टस, खिलाड़ी, फायर ब्रिगेड, आतिशबाजी, रसायन शास्त्र, सर्कस, नौकरी दिलवाने के कार्य, शक्तिवर्धक कार्य, अग्नि बीमा, चूल्हा, ईंधन, पारा, पत्थर, मिट्टी का समान, तांबे से संबंधित कार्य, धातुओं से संबंधित कार्य क्षेत्र, लाल रंग के पदार्थ, बेकरी, कैटरिंग, हलवाई, रसोइया, इंटों का भट्ठा, बर्तनों का कार्य, होटल एवं रेस्तरां,फास्ट -फ़ूड, जूआ, मिटटी के बर्तन व खिलौने, नाई, औज़ार, भट्ठी इत्यादि ।
बुध ग्रह से संबंधित व्यापार
व्यापार कार्य, वेदों का अध्यापन, लेखन कार्य ( लेखक ), ज्योतिष कार्य, प्रकाशन का कार्य, चार्टड एकाउटेंट, मुनीम, शिक्षक, गणितज्ञ, कन्सलटैंसी, वकील, ब्याज, बट्टा, पूंजी निवेश, शेयर मार्केट, कम्प्यूटर जॉब, लेखन, वाणीप्रधान कार्य, एंकरिंग, शिल्पकला, काव्य रचना, पुरोहित का कार्य, कथा वाचक, गायन विद्या, वैद्य, गणित व कॉमर्स के अध्यापक, वनस्पति, बीजों व पौधों का कार्य, समाचार पत्र, दलाली के कार्य, वाणिज्य संबंधी, टेलीफोन विभाग, डाक, कोरियर, यातायात, पत्रकारिता, मीडिया, बीमा कंपनी, संचार क्षेत्र, दलाली, आढ़त, हरे पदार्थ, सब्जियां, लेखाकार, कम्प्यूटर,फोटोस्टेट, मुद्रण, डाक -तार, समाचार पत्र, दूत कर्म, टाइपिस्ट, कोरियर सेवा, बीमा, सेल्स टैक्स, आयकर विभाग, सेल्स मैन, हास्य व्यंग के चित्रकार या कलाकार इत्यादि।
बृहस्पति ग्रह से सम्बन्धित व्यापार
ब्राह्मण का कार्य, धर्मोपदेश का कार्य, धर्मार्थ संस्थान, धार्मिक व्यवसाय, कर्मकाण्ड, ज्योतिष, राजनीति, न्यायालय संबंधित कार्य, न्यायाधीश, कानून, वकील, बैंकिंग कार्य, कोषाध्यक्ष, राजनीति, अर्थशास्त्र, पुराण, मांगलिक कार्य, अध्यापन कार्य, शिक्षक, शिक्षण संस्थाएं, पुस्तकालय, प्रकाशन, प्रबंधन, पुरोहित, शिक्षण संस्थाएं, किताबों से संबंधित कार्य, परामर्श कार्य, पीले पदार्थ, स्वर्ण, पुरोहित, संपादन, छपाई, कागज से संबंधित कार्य, ब्याज कार्य, गृह निर्माण, उत्तम फर्नीचर, शयन उपकरण, गर्भ संबंधित कार्य, खाने पीने की वस्तुएं, स्वर्ण कार्य, वस्त्रों से संबंधित, लकड़ी से संबंधित कार्य, सभी प्रकार के फल, मिठाइयाँ, मोम, घी, किराना इत्यादि|
शुक्र ग्रह से संबंधित व्यापार
कलात्मक कार्य, संगीत (गायन , वादन , नृत्य), अभिनय, चलचित्र संबंधी डेकोरेशन, ड्रेस डिजायनिंग, मनोरंजन के साधन, फिल्म उद्योग, वीडियो पार्लर, मैरिज ब्यूरो, इंटीरियर डेकोरेशन, फैशन डिजाइनिंग, पेंटिंग, श्रृंगार के साधन, कॉस्मेटिक, इत्र, गिफ्ट हॉउस, चित्रकला तथा स्त्रियों के काम में आने वाले पदार्थ, विवाह से संबंधित कार्य, महिलाओं से संबंधित कार्य, विलासितापूर्ण वस्तु, गाड़ी, वाहन व्यापारी, ट्रांसपोर्ट, सजावटी वस्तुएं, मिठाई संबंधी, रेस्टोरेंट, होटल, खाद्य पदार्थ, श्वेत पदार्थ, दूध से बने पदार्थ, दूध उत्पादन ( दुग्धशाला ), दही, चावल, धान, गुड़, खाद्य पदार्थ, सोना, चांदी, हीरा, जौहरी, वस्त्र निर्माता, गारमेंट्स, पशु चिकित्सा, हाथी घोड़ा पालना, टूरिज्म, चाय – कॉफी, शुक्र + मंगल – रत्न व्यापारी, शुक्र + राहु या शनि – ब्यूटी पार्लर, शुक्र + चन्द्र – सोडावाटर फेक्ट्री, तेल, शर्बत, फल, तरल रंग आदि।
शनि ग्रह से संबंधित व्यापार
लोहा संबंधित कार्य, मशीनी के कार्य , केमिकल प्रोडक्ट , ज्वलनशील तेल ( पेट्रोल, डीजल आदि), कुकिंग गैस, प्राचीन वस्तुएं, पुरातत्व विभाग, अनुसंधान कार्य, ज्योतिष कार्य, लोहे से संबंधित कच्ची धातु, कोयला, चमड़े का काम, जूते, अधिक श्रम वाला कार्य, नौकरी, मजदूरी, ठेकेदारी, दस्तकारी, मरम्मत के कार्य, लकड़ी का कार्य, मोटा अनाज, प्लास्टिक एवं रबर उद्योग, काले पदार्थ, स्पेयर पार्ट्स, भवन निर्माण सामग्री, पत्थर एवं चिप्स, ईंट, शीशा, टाइल्स, राजमिस्त्री, बढ़ई, श्रम एवं समाज कल्याण विभाग, टायर उद्योग, पलम्बर, घड़ियों का काम, कबाड़ी का काम, जल्लाद, तेल निकालना, पीडब्लूडी, सड़क निर्माण, सीमेंट। शनि + गुरु + मंगल – इलेक्ट्रिक इंजीनियर । शनि + बुध + गुरु – मेकेनिकल इंजीनियर । शनि + शुक्र – पत्थर की मूर्ति इत्यादि
राहु से संबंधित व्यवसाय
कम्प्युटर, बिजली, अनुसंधान, आकस्मिक लाभ वाले कार्य, मशीनों से संबंधित, तामसिक पदार्थ, जासूसी गुप्त कार्य, विषय संबंधी, कीट नाशक, एण्टी बायोटिक दवाईयां, पहलवानी, जुआ, सट्टा, मुर्दाघर, सपेरा, पशु वधशाला, जहरीली दवा, चमड़ा व खाल आदि।
केतु से संबंधित व्यापार
केतु को यदि कुंडली में एकल अवस्था में गिना जाए तो के तो धर्म का कारक होता है ऐसी स्थिति में जातक धर्म से संबंधित कार्य भक्ति चिकित्सा आदि कार्य करता है।
यजुर्वेद में वर्णित है नवग्रहों के सुंदर मंत्र
वैदिक काल से ग्रहों की अनुकूलता के प्रयास किए जाते रहे हैं। यजुर्वेद में 9 ग्रहों की प्रसन्नता के लिए उनका आह्वान किया गया है। यह मंत्र चमत्कारी रूप से प्रभावशाली हैं।
प्रस्तुत है नवग्रहों के लिए विलक्षण वैदिक मंत्र-
* सूर्य- ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् (यजु. 33। 43, 34। 31)
* चन्द्र- ॐ इमं देवा असपत्नं सुवध्यं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्ये पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा।।
(यजु. 10। 18)
* भौम- ॐ अग्निमूर्धा दिव: ककुत्पति: पृथिव्या अयम्। अपां रेतां सि जिन्वति।। (यजु. 3।12)
* बुध- ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेधामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यशमानश्च सीदत।। (यजु. 15।54)
* गुरु- ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवस ऋतुप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।। (यजु. 26।3)
* शुक्र- ॐ अन्नात्परिस्त्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपित्क्षत्रं पय: सोमं प्रजापति:। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु।। (यजु. 19।75)
* शनि- ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु न:।। (यजु. 36।12)
* राहु- ॐ कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता।। (यजु. 36।4)
* केतु- ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:।। (यजु. 29।37)
कनकधारा मंत्र यंत्र
हम सभी जीवन में आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं। इस यंत्र की विशेषता भी यही है कि यह किसी भी प्रकार की विशेष माला, जाप, पूजन, विधि-विधान की माँग नहीं करता बल्कि सिर्फ दिन में एक बार इसको पढ़ना पर्याप्त है।
साथ ही प्रतिदिन इसके सामने दीपक और अगरबत्ती लगाना आवश्यक है। अगर किसी दिन यह भी भूल जाएँ तो बाधा नहीं आती क्योंकि यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है। वेबदुनिया के यूजर्स के लिए हम दे रहे हैं कनकधारा स्तोत्र का संस्कृत पाठ एवं हिन्दी अनुवाद। आपको सिर्फ कनकधारा यंत्र कहीं से लाकर पूजाघर में रखना है।
यह किसी भी तंत्र-मंत्र संबंधी सामग्री की दुकान पर आसानी से उपलब्ध है। माँ लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए जितने भी यंत्र हैं, उनमें कनकधारा यंत्र तथा स्तोत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली एवं अतिशीघ्र फलदायी है।हम सभी जीवन में आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं।
।। श्री कनकधारा स्तोत्रम् ।।
अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:।।1।।
मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:।।2।।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:।।3।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:।।4।।
बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:।।5।।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।
प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:।।7।।
दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:।।8।।
इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:।।9।।
गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।
श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।
नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।
सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।
यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।
सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।
दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ।।17।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:।।18।।
इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम
कनकधारा स्तोत्रम् (हिन्दी पाठ)
* जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कटाक्ष मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।
* जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करे ।।2।।
* जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मधुहन्ता श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े।।3।।
* शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पुतली तथा बरौनियाँ अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।
* जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।।5।।
* जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।।6।
* समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।।7।।
* भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।।8।।
* विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्मालसना पद्मार की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।।9।।
जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।
* मात:। शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।
* कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। (12)
* कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय माँ! आपके चरणों में किए गए प्रणाम संपत्ति प्रदान करने वाले, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे ही अवलम्बन दें। (मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे)।।13।।
* जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।।14।।
* भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।
* दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ।।16।।
* कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले!
मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।।17।।
* जो मनुष्य इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।
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