Tuesday, 24 August 2021

।। दुर्लभ शरभेश्वर स्तोत्रं ।।

।।    दुर्लभ शरभेश्वर स्तोत्रं   ।।   
इस मंत्र प्रयोग के फल को गुप्त रखा जा रहा हैं क्योंकि इसके लाभ कोई 1,2 नही हैं ये अपार शक्तिशाली प्रयोग हैं साधना की पूर्ण जानकारी ना होने पर बिल्कुल भी ध्यान नही करे दुःखो में यह बहुत लाभ कारी हैं ।।

विनियोग- ॐ अस्य दारुण-सप्तक-महामन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषिः वृहती छन्सः श्री शरभो देवता ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यास- श्रीसदाशिव ऋषये नमः शिरसि। वृहती छन्दसे नमः मुखे। श्रीशरभ-देवतायै नमः हृदि। ममाभिष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।

मूल स्तोत्र
कापोद्रेकाति विर्यं निखिल परिकरं तार-हार-प्रदीप्तम्।
ज्वाला-मालाग्निदश्च स्मरतनुसकलं त्वामहं शालुवेशं।।
याचे त्वत्पाद्-पद्म-प्रणिहित-मनसं द्वेष्टि मां यः क्रियाभि।
तस्य प्राणावसानं कुरु शिव नियतं शूल-भिन्नस्य तूर्णम्।।१

शम्भो त्वद्धस्त-कुन्त-क्षत-रिपु-हृदयान्निस्स्त्रवल्लोहियौघम्।
पीत्वा पीत्वाऽति-दर्पं दिशि सततं त्वद्-गणाश्चण्ड-मुख्याः।।
गर्ज्जन्ति क्षिप्र-वेगा निखिल-भय-हराः भीकराः खेल-लोलाः।
सन्त्रस्त-ब्रह्म-देवा शरभ खग-पते त्राहि नः शालु-वेश।।२

सर्वाद्यं सर्व-निष्ठं सकल-भय-हरं नानुरुप्यं शरण्यम्।
याचेऽहं त्वाममोघं परिकर-सहितं द्वेष्टि योऽत्र स्थितं माम्।।
श्रीशम्भो त्वत्-कराब्ज-स्थित-मुशल-हतास्तस्य वक्ष-स्थलस्थ-
प्राणाः प्रेतेश-दूत-ग्रहण-परिभवाऽऽक्रोश-पूर्वं प्रयान्तु।।३

द्विष्मः क्षोण्यां वयं हि तव पद-कमल-ध्यान-निर्धूत-पापाः।
कृत्याकृत्यैर्वियुक्ताः विहग-कुल-पते खेलया बद्ध-मूर्ते।।
तूर्णं त्वद्धस्त-पद्मप्रधृत-परशुना खण्ड-खण्डी-कृताङ्गः।
स द्वेष्टी यातु याम्यं पुरमति-कलुषं काल-पाशाग्र-बद्धः।।४

भीम श्रीशालुवेश प्रणत-भय-हर प्राण-हृद् दुर्मदानाम्।
याचे-पञ्चास्य-गर्वं-प्रशमन-विहित-स्वेच्छयाऽऽबद्ध-मूर्ते।।
त्वामेवाशु त्वदंघ्य्रष्टक-नख-विलसद्-ग्रीव-जिह्वोदरस्य।
प्राणोत्क्राम-प्रयास-प्रकटित-हृदयस्यायुरल्पायतेऽस्य।।५

श्रीशूलं ते कराग्र-स्थित-मुशल-गदाऽऽवर्त-वाताभिघाता-
पाताऽऽघातारि-यूथ-त्रिदश-रिपु-गणोद्भूत-रक्तच्छटार्द्रम्।।
सन्दृष्ट्वाऽऽयोधने ज्यां निखिल-सुर-गणाश्चाशु नन्दन्तु नाना-
भूता-वेताल-पुङ्गाः क्षतजमरि-गणस्याशु मत्तः पिवन्तु।।६

त्वद्दोर्दण्डाग्र-शुण्डा-घटित-विनमयच्चण्ड-कोदण्ड-युक्तै-
र्वाणैर्दिव्यैरनेकैश्शिथिलित-वपुषः क्षीण-कोलाहलस्य।।
तस्य प्राणावसानं परशिव भवतो हेति-राज-प्रभावै-
स्तूर्णं पश्यामियो मां परि-हसति सदा त्वादि-मध्यान्त-हेतो।।७

फल-श्रुति
इति निशि प्रयतस्तु निरामिषो, यम-दिशं शिव-भावमनुस्मरन्।
प्रतिदिनं दशधाऽपि दिन-त्रयं, जपति यो ग्रह-दारुण-सप्तकम्।।८
इति गुह्यं महाबीजं परमं रिपुनाशनम्।
भानुवारं समारभ्य मंगलान्तं जपेत् सुधीः।।९
इत्याकाश भैरव कल्पे प्रत्यक्ष सिद्धिप्रदे नरसिंह कृता शरभस्तुति।।

।। श्री अष्ट भैरव देव ।।

॥ भैरव  ॥
भैरव जी के अमुक स्त्रोत मंत्र का पाठ करने से जातक जीवन मे सभी समस्याओं से छुटकारा पाता हैं तथा व्यवसाय रोजगार में उन्नति पाता हैं , धन वैभव से सर्व शक्तिशाली बन जाता हैं । इसमे कोई संदेह नही हैं । शत्रु से छुटकारा, जैल बंधन, पीड़ा ग्रह पीड़ा, रोगों से छुटकारा होता हैं । अखिल सर्व सुखों का उपभोग करता हैं । इस जीवन मे राजा के समान द्रव की प्राप्ति होती है।।

आगमोक्त श्रुति कहती है ” भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:। मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥ ”

ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नमः।

नमस्कार मंत्र-
ॐ श्री भैरव्यै , ॐ मं महाभैरव्यै , ॐ सिं सिंह भैरव्यै , ॐ धूं धूम्र भैरव्यै,  ॐ भीं भीम भैरव्यै , ॐ उं उन्मत्त भैरव्यै , ॐ वं वशीकरण भैरव्यै , ॐ मों मोहन भैरव्यै |

॥ अष्टभैरव ध्यानम् ॥
असिताङ्गोरुरुश्चण्डः क्रोधश्चोन्मत्तभैरवः ।
कपालीभीषणश्चैव संहारश्चाष्टभैरवम् ॥

१) असिताङ्ग भैरव ध्यानम्
रक्तज्वालजटाधरं शशियुतं रक्ताङ्ग तेजोमयंअस्ते शूलकपालपाशडमरुं लोकस्य रक्षाकरम् ।
निर्वाणं शुनवाहनन्त्रिनयनं अनन्दकोलाहलं
वन्दे भूतपिशाचनाथ वटुकं क्षेत्रस्य पालं शिवम् ॥ १ ॥

२) रूरुभैरव ध्यानम्
निर्वाणं निर्विकल्पं निरूपजमलं निर्विकारं क्षकारंहुङ्कारं वज्रदंष्ट्रं हुतवहनयनं रौद्रमुन्मत्तभावम् ।
भट्कारं भक्तनागं भृकुटितमुखं भैरवं शूलपाणिं
वन्दे खड्गं कपालं डमरुकसहितं क्षेत्रपालन्नमामि॥ २ ॥

३) चण्डभैरव ध्यानम्
बिभ्राणं शुभ्रवर्णं द्विगुणदशभुजं पञ्चवक्त्रन्त्रिणेत्रं
दानञ्छत्रेन्दुहस्तं रजतहिममृतं शङ्खभेषस्यचापम् ।
शूलं खड्गञ्च बाणं डमरुकसिकतावञ्चिमालोक्य मालां सर्वाभीतिञ्च दोर्भीं भुजतगिरियुतं भैरवं सर्वसिद्धिम् ॥ ३ ॥

४)  क्रोधभैरव ध्यानम्
उद्यद्भास्कररूपनिभन्त्रिनयनं रक्ताङ्ग रागाम्बुजं
भस्माद्यं वरदं कपालमभयं शूलन्दधानं करे ।
नीलग्रीवमुदारभूषणशतं शन्तेशु मूढोज्ज्वलं
बन्धूकारुण वास अस्तमभयं देवं सदा भावयेत् ॥ ४ ॥

५) उन्मत्तभैरव ध्यानम्
एकं खट्वाङ्गहस्तं पुनरपि भुजगं पाशमेकन्त्रिशूलं
कपालं खड्गहस्तं डमरुकसहितं वामहस्ते पिनाकम् ।
चन्द्रार्कं केतुमालां विकृतिसुकृतिनं सर्वयज्ञोपवीतं
कालं कालान्तकारं मम भयहरं क्षेत्रपालन्नमामि ॥ ५ ॥

६) कपालभैरव ध्यानम्
वन्दे बालं स्फटिक सदृशं कुम्भलोल्लासिवक्त्रं
दिव्याकल्पैफणिमणिमयैकिङ्किणीनूपुनञ्च ।
दिव्याकारं विशदवदनं सुप्रसन्नं द्विनेत्रं
हस्ताद्यां वा दधानान्त्रिशिवमनिभयं वक्रदण्डौ कपालम् ॥ ६ ॥

७) भीषणभैरव ध्यानम्
त्रिनेत्रं रक्तवर्णञ्च सर्वाभरणभूषितम्
कपालं शूलहस्तञ्च वरदाभयपाणिनम् ।
सव्ये शूलधरं भीमं खट्वाङ्गं वामकेशवम् ॥ रक्तवस्त्रपरिधानं रक्तमाल्यानुलेपनम् ।
नीलग्रीवञ्च सौम्यञ्च सर्वाभरणभूषितम् ॥

नीलमेख समाख्यातं कूर्चकेशन्त्रिणेत्रकम् ।
नागभूषञ्च रौद्रञ्च शिरोमालाविभूषितम् ॥
नूपुरस्वनपादञ्च सर्प यज्ञोपवीतिनम् ।
किङ्किणीमालिका भूष्यं भीमरूपं भयावहम् ॥ ७ ॥
८)  संहार भैरव ध्यानम्
एकवक्त्रन्त्रिणेत्रञ्च हस्तयो द्वादशन्तथा ।
डमरुञ्चाङ्कुशं बाणं खड्गं शूलं भयान्वितम् ॥
धनुर्बाण कपालञ्च गदाग्निं वरदन्तथा ।
वामसव्ये तु पार्श्वेन आयुधानां विधन्तथा ॥
नीलमेखस्वरूपन्तु नीलवस्त्रोत्तरीयकम् ।
कस्तूर्यादि निलेपञ्च श्वेतगन्धाक्षतन्तथा ॥
श्वेतार्क पुष्पमालां त्रिकोट्यङ्गण सेविताम् ।
सर्वालङ्कार संयुक्तां संहारञ्च प्रकीर्तितम् ॥ ८ ॥

इति श्री भैरव स्तुति निरुद्र कुरुते ।

इन्द्र द्वारा राज्यलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए की गयी महालक्ष्मी स्तुति।

इन्द्र द्वारा राज्यलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए की गयी महालक्ष्मी स्तुति।
नित्य पाठ के लिए महालक्ष्मी स्तोत्र
पद्मा, पद्मालया, पद्मवनवासिनी, श्री, कमला, हरिप्रिया, इन्दिरा, रमा, समुद्रतनया, भार्गवी और जलधिजा आदि नामों से पूजित देवी महालक्ष्मी वैष्णवी शक्ति हैं। ये सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री और समस्त सम्पत्तियों को देने वाली हैं। इनकी कृपा के बिना मनुष्य में ऐश्वर्य का अभाव हो जाता है और इनकी कृपादृष्टि से गुणहीन मनुष्य को भी शील, विद्या, विनय, ओज, गाम्भीर्य और कान्ति आदि समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य सम्पूर्ण विश्व का आदर और प्रेम प्राप्तकर श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

इन्द्र कृत महालक्ष्मी स्तोत्र से सम्बन्धित कथा

एक बार देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर जा रहे थे। रास्ते में दुर्वासा मुनि मिले। मुनि ने अपने गले में पड़ी माला निकालकर इन्द्र के ऊपर फेंक दी। जिसे इन्द्र ने ऐरावत हाथी को पहना दिया। तीव्र गंध से आकर्षित होकर ऐरावत हाथी ने सूंड से माला उतारकर पृथ्वी पर फेंक दी। यह देखकर दुर्वासा मुनि ने इन्द्र को शाप देते हुए कहा–’इन्द्र! ऐश्वर्य के घमण्ड में तुमने मेरी दी हुई माला का आदर नहीं किया। यह माला नहीं, लक्ष्मी का धाम थी। इसलिए तुम्हारे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।’

महर्षि दुर्वासा के शाप से त्रिलोकी श्रीहीन हो गयी और इन्द्र की राज्यलक्ष्मी समुद्र में प्रविष्ट हो गयीं। देवताओं की प्रार्थना से जब वे प्रकट हुईं, तब उनका सभी देवता, ऋषि-मुनियों ने अभिषेक किया। देवी महालक्ष्मी के कृपाकटाक्ष से सम्पूर्ण विश्व समृद्धिशाली और सुख-शान्ति से सम्पन्न हो गया। इससे प्रभावित होकर देवराज इन्द्र ने उनकी स्तुति की–

महालक्ष्म्यष्टकम्

इन्द्र उवाच
नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।१।।

इन्द्र बोले–श्रीपीठ पर स्थित और देवताओं से पूजित होने वाली हे महामाये। तुम्हें नमस्कार है। हाथ में शंख, चक्र और गदा धारण करने वाली हे महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयंकरि।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।२।।

गरुड़ पर आरुढ़  हो कोलासुर को भय देने वाली और समस्त पापों को हरने वाली हे भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरि।
सर्वदु:खहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।३।।

सब कुछ जानने वाली, सबको वर देने वाली, समस्त दुष्टों को भय देने वाली और सबके दु:खों को दूर करने वाली, हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।४।।

सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें सदा प्रणाम है।

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।५।।

हे देवि! हे आदि-अन्तरहित आदिशक्ति! हे महेश्वरि! हे योग से प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।६।।

हे देवि! तुम स्थूल, सूक्ष्म एवं महारौद्ररूपिणी हो, महाशक्ति हो, महोदरा हो और बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली हो। हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणी।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।७।।

हे कमल के आसन पर विराजमान परब्रह्मस्वरूपिणी देवि! हे परमेश्वरि! हे जगदम्ब! हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।

श्वेताम्बरधरे देवि नानालंकारभूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।८।।

हे देवि तुम श्वेत वस्त्र धारण करने वाली और नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषिता हो। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त एवं अखिल लोक को जन्म देने वाली हो। हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।

स्तोत्र पाठ का फल

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर:।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा।।९।।

जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर इस महालक्ष्म्यष्टक स्तोत्र का सदा पाठ करता है, वह सारी सिद्धियों और राजवैभव को प्राप्त कर सकता है।

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन्यधान्यसमन्वित:।।१०।।

जो प्रतिदिन एक समय पाठ करता है, उसके बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है। जो दो समय पाठ करता है, वह धन-धान्य से सम्पन्न होता है।

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा।।११।।

जो प्रतिदिन तीन काल पाठ करता है उसके महान शत्रुओं का नाश हो जाता है और उसके ऊपर कल्याणकारिणी वरदायिनी महालक्ष्मी सदा ही प्रसन्न होती हैं।

ऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र

ऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र मन्त्रस्य भगवान् शुक्राचार्य
ऋषिः, ऋण-मोचन-गणपतिः देवता, मम-ऋण-मोचनार्थं जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- भगवान् शुक्राचार्य ऋषये नमः शिरसि, ऋण-मोचन-गणपति देवतायै नमः
हृदि, मम-ऋण-मोचनार्थे जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।
॥मूल-स्तोत्र॥
ॐस्मरामिदेव-देवेश! वक्र-तुणडंमहा-बलम्।षडक्षरंकृपा-सिन्धु, नमामिऋण-मुक्तये॥१॥
महा-गणपतिंदेवं, महा-सत्त्वंमहा-बलम्।महा-विघ्न-हरंसौम्यं, नमामिऋण-मुक्तये॥२॥
एकाक्षरंएक-दन्तं, एक-ब्रह्मसनातनम्।एकमेवाद्वितीयंच, नमामिऋण-मुक्तये॥३॥
शुक्लाम्बरंशुक्ल-वर्णं, शुक्ल-गन्धानुलेपनम्।सर्व-शुक्ल-मयंदेवं, नमामिऋण-मुक्तये॥४॥
रक्ताम्बरंरक्त-वर्णं, रक्त-गन्धानुलेपनम्।रक्त-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥५॥
कृष्णाम्बरंकृष्ण-वर्णं, कृष्ण-गन्धानुलेपनम्।कृष्ण-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥६॥
पीताम्बरंपीत-वर्णं, पीत-गन्धानुलेपनम्।पीत-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥७॥
नीलाम्बरंनील-वर्णं, नील-गन्धानुलेपनम्।नील-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥८॥
धूम्राम्बरंधूम्र-वर्णं, धूम्र-गन्धानुलेपनम्।धूम्र-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥९॥
सर्वाम्बरंसर्व-वर्णं, सर्व-गन्धानुलेपनम्।सर्व-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥१०॥
भद्र-जातंचरुपंच, पाशांकुश-धरंशुभम्।सर्व-विघ्न-हरंदेवं, नमामिऋण-मुक्तये॥११॥
॥फल-श्रुति॥
यःपठेत्ऋण-हरं-स्तोत्रं, प्रातः-कालेसुधीनरः।षण्मासाभ्यन्तरेचैव, ऋणच्छेदोभविष्यति॥
भावार्थ: जोव्यक्तिउक्त ऋणमोचनस्तोत्र काविधि-विधानवपूर्णनिष्ठासेनियमितप्रातःकालपाठकरताहैंउसकेसमस्तप्रकारके
ऋणोंसेमुक्तिमिलजातीहैं।

अथ श्रीनृसिंह कवच तंत्र दोष विनाशक

अथ श्रीनृसिंह कवच तंत्र दोष विनाशक
विधि :-
नृसिंह कवच और महाकली कवच, हनुमत कवच, का मंगलवार, गुरुवार, शनिवार से पाठ शुरु करें, जो भी कार्य हो उसका संकल्प कर नित्य एक – २ पाठ करें जब आपका मनवांछित कार्य पूर्ण हो जावे तब नरसिंह भैरव के लिए सवासेर का रोट और माता के लिए सवासेर की कडाही करें !!

ॐ नमोनृसिंहाय सर्व दुष्ट विनाशनाय सर्वंजन मोहनाय सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु स्वाहा ! ॐ नमो नृसिंहाय नृसिंहराजाय नरकेशाय नमो नमस्ते ! ॐ नमः कालाय काल द्रष्टाय कराल वदनाय च !! ॐ उग्राय उग्र वीराय उग्र विकटाय उग्र वज्राय वज्र देहिने रुद्राय रुद्र घोराय भद्राय भद्रकारिणे ॐ ज्रीं ह्रीं नृसिंहाय नमः स्वाहा !! ॐ नमो नृसिंहाय कपिलाय कपिल जटाय अमोघवाचाय सत्यं सत्यं व्रतं महोग्र प्रचण्ड रुपाय ! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ॐ ह्रुं ह्रु ह्रु ॐ क्ष्रां क्ष्रीं क्ष्रौं फट् स्वाहा ! ॐ नमो नृसिंहाय कपिल जटाय ममः सर्व रोगान् बन्ध बन्ध, सर्व ग्रहान बन्ध बन्ध, सर्व दोषादीनां बन्ध बन्ध, सर्व वृश्चिकादिनां विषं बन्ध बन्ध, सर्व भूत प्रेत, पिशाच, डाकिनी शाकिनी, यंत्र मंत्रादीन् बन्ध बन्ध, कीलय कीलय चूर्णय चूर्णय, मर्दय मर्दय, ऐं ऐं एहि एहि, मम येये विरोधिन्स्तान् सर्वान् सर्वतो हन हन, दह दह, मथ मथ, पच पच, चक्रेण, गदा, वज्रेण भष्मी कुरु कुरु स्वाहा ! ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं ह्रीं क्ष्रीं क्ष्रीं क्ष्रौं नृसिंहाय नमः स्वाहा !! ॐ आं ह्रीं क्षौ क्रौं ह्रुं फट्, ॐ नमो भगवते सुदर्शन नृसिंहाय मम विजय रुपे कार्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यमेनकार्य शीघ्रं साधय साधय एनं सर्व प्रतिबन्धकेभ्यः सर्वतो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा !! ॐ क्षौं नमो भगवते नृसिंहाय एतद्दोषं प्रचण्ड चक्रेण जहि जहि स्वाहा !! ॐ नमो भगवते महानृसिंहाय कराल वदन दंष्ट्राय मम विघ्नान् पच पच स्वाहा !! ॐ नमो नृसिंहाय हिरण्यकश्यप वक्षस्थल विदारणाय त्रिभुवन व्यापकाय भूत-प्रेत पिशाच डाकिनी-शाकिनी कालनोन्मूलनाय मम शरीरं स्थन्भोद्भव समस्त दोषान् हन हन, शर शर, चल चल, कम्पय कम्पय, मथ मथ, हुं फट् ठः ठः !!

ॐ नमो भगवते भो भो सुदर्शन नृसिंह ॐ आं ह्रीं क्रौं क्ष्रौं हुं फट् ॐ सहस्त्रार मम अंग वर्तमान अमुक रोगं दारय दारय दुरितं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रैं ह्रौं ह्रुं ह्रुं फट् मम शत्रु हन हन द्विष द्विष तद पचयं कुरु कुरु मम सर्वार्थं साधय साधय !! ॐ नमो भगवते नृसिंहाय ॐ क्ष्रौं क्रौं आं ह्रीं क्लीं श्रीं रां स्फ्रें ब्लुं यं रं लं वं षं स्त्रां हुं फट् स्वाहा !! ॐ नमः भगवते नृसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे अविराभिर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् !! रंधय रंधय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा अभयमभयात्मनि भूयिष्ठाः ॐ क्षौम् !! ॐ नमो भगवते तुभ्य पुरुषाय महात्मने हरिंऽद्भुत सिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने !! ॐ उग्रं उग्रं महाविष्णुं सकलाधारं सर्वतोमुखम् !! नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम् !! इति नृसिंह कवच !! ब्रह्म सावित्री संवादे नृसिंह पुराण अर्न्तगत कवच सम्पूर्णम !!

श्री कुबेरजी महाराज धन के स्वामी

श्री कुबेरजी महाराज धन के स्वामी एक ऐसा देश भारत है। जहां हमारे हिंदू धर्म में हर वस्तु विशेष की पूजा देवी-देवताओं के रुप में की जाती है जो चीजें हमारे जीवन की जरूरत है या जिनके बिना हम जी नहीं सकते उन्हें हम देवी-देवताओं के रूप में पूजते हैं जैसे अग्नि, पानी, वायु ,सूर्य, वर्षा आदि आज का युग जिसमें हम सब के लिए सबसे जरूरी और सर्वश्रेष्ठ जो चीज है वह है धन। हर इंसान सारा जीवन धन के लिए जूझता है कभी-कभी तो खुद की सेहत और रिश्तो को धन के लिए दांव पर लगा देता है, इसलिए आज के युग में जहां धन इतना जरूरी है वहां धन के देवता की पूजा करना भी उतना ही आवश्यक है।
कुबेर कलयुग में ही नहीं उससे भी पहले कई युगों से पूजे जाते हैं वैसे तो कुबेर की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं, परंतु उनकी एक कथा जो पुराणों में मिलती है वह यह है कि पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्रवा थे और विश्रवा की 4 पत्नियां थी जिनमें से एक पत्नी का नाम इडविडा था जिनसे कुबेर का जन्म हुआ। इडविडा राजा की पुत्री थी और कैकसी से रावण का जन्म हुआ, कैकसी राक्षसी थी। रावण और कुबेर दोनों सोतेले भाई थे, कहते हैं ब्रह्मा जी ने वरदान में विश्वकर्मा से सोने की लंका बनवाकर कुबेर को भेंट की थी और मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान भी दिया था परंतु रावण ने उस से ना केवल लंका बल्कि पुष्पक विमान भी छीन लिया था।
हमारे देश में विद्या और ज्ञान को ज्यादा महत्व दिया जाता है कोई भी देवी देवता है ऐसे नहीं है जो ज्ञान के प्रारूप ना हो यहां धन को इतना महत्व नहीं दिया जाता जितना ज्ञान को, अक्सर हम सुनते हैं कि ज्यादा धन होना अच्छा नहीं है ज्यादा धन होने से व्यक्ति धन के बोझ के नीचे दब जाता है इसलिए कथा वाचकों ने और मूर्तिकारों ने कुबेर को तीन टांग वाला और कुबड़ा दिखाया है परंतु वेदों में इसका कोई वृतांत नहीं मिलता कि कुबेर कुरूप थे ।
कुबेर के लिए एक और कहानी प्रचलित है कि कुबेर अपने पिछले जन्म में चोर थे, वह देर रात मंदिरों में चोरी करते थे, एक बार वो चोरी करने शिव मंदिर में घुसे,तब मंदिर में अंधेरा था और उन्होंने मंदिर में रोशनी के लिए दीपक जलाया लेकिन हवा ज्यादा चलने के कारण दीपक बुझ गया,कुबेर ने फिर दीपक जलाया,वह दीपक फिर बुझ गया। यह क्रम उन्होंने कई बार किया, वहां विराजमान भोले शंकर ने अपने दीपक को बुझने से बचाने के लिए खुश होकर कुबेर को धनपति होने का वरदान दिया इसी कारण अपने अगले जन्म में उनका जन्म कुबेर के रूप में हुआ।
एक और कथा बहुत प्रसिद्ध है कि एक बार कुबेर जी के मन में अहंकार आ गया कि मेरे पास अपार धन संपदा है मैं इससे कुछ भी कर सकता हूं जितने चाहे उतने लोगों का पेट भर सकता हूं मेरा खजाना कभी खाली नहीं हो सकता।इस बात के अहंकार में आकर उन्होंने कई देवों को खाने का निमंत्रण दिया। कुबेर शिवभक्त थे इसलिए सबसे पहले वह शिवजी के पास कैलाश गए और उनको खाने का निमंत्रण दिया परंतु शिवजी ने बड़ी विनम्रता के साथ उनका निमंत्रण यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वह कैलाश छोड़कर नहीं जा सकते इतने में पार्वती जी ने शिव भगवान से कहा कि आप निमंत्रण को अस्वीकार ना करें,हम अपने पुत्र गणेश को खाने पर भेज सकते हैं। फिर कुबेर जी गणेश जी का निमंत्रण सविकार करके वहां से चले गए अगले दिन कुबेर जी सभी देवताओं का स्वागत करने के लिए अपने महल के बाहर खड़े थे तभी गणेश जी वहां पधारें।कुबेर ने कहा कि आईए गजानन ,आप पेट भर कर खाइए यहां पर सब चीजें मौजूद हैं जब गणेश जी खाना खाने बैठे तो वह खाते ही रहे सब देवता खाना खा कर चले गए, परंतु गणेश जी खाते ही रहे ,अंदर पका हुआ सारा भोजन समाप्त हो गया ।
फिर कुबेर जी गणेश जी के पास आए उन्होंने कहा कि आपके लिए और भोजन पकाया जा रहा है आप इंतजार करें, गणेश जी गुस्से में आ गए वह रसोई घर में गए वहां सभी सब्जियां जो अधपकी थी वह सब उन्होंने खा ली। फिर भी उनका पेट नहीं भरा, इतने में वह गुस्से में आकर कुबेर के पीछे भागने लगे,दोनों भागते-भागते कैलाश पर्वत पर पहुंच गए वह शिव भगवान के पास जाकर कुबेर जी ने उनके पांव पकड़ लिए भगवान शिव ने गणेश जी से पूछा क्या आप ऐसा क्यों कर रहे हैं, गणेश जी ने कहा के कुबेर ने कहा था कि उनके पास खाने का सब सामान है जिससे उनका पेट भर जाएगा परंतु मेरा पेट अभी तक नहीं भरा भगवान शिव ने गणेश जी को मोदक खाने को दिए जिनसे उनका पेट भर गया ।इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है की अहंकार करने से किसी का पेट नहीं भरता सब कुछ होते हुए भी कुबेर भगवान गणेश का पेट नहीं भर सके उनके पास कभी न खत्म होने वाला धन है परंतु फिर भी वह गणेशजी जी की भूख नहीं मिटा पाए। यह कहानी उन व्यक्तियों के लिए शिक्षा है जो धनवान होने का अभिमान करते हैं इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि धन होना अच्छा है परंतु धन का अहंकार हो ना बहुत बुरा है अगर कुबेर धन के देवता होकर भी परीक्षा में पड़ सकते हैं तो हम इंसान क्या हैं।
कुबेर जी नौ निधियों के देवता माने गए है इसके लिए एक कहानी प्रचलित है कि ऋषि पुलस्त्य के ऊपर एक विपदा आ गई, उनके गांव में सूखा पड़ गया उनके पास धन की कमी हो गई ,जिसके लिए उन्होंने गणपति जी की आराधना की क्योंकि वेदों के नियम के अनुसार कुबेर जी कि सीधे आराधना नहीं की जाती थी इसलिए गणपति जी ने कुबेर को ऋषि की मदद करने के लिए कहा।
कुबेर जी ने प्रकट होकर ऋषि पुलसत्य को कहा कि अगर मेरे नौ रूपों में से किसी एक रूप की आराधना की जाएगी तो आप को अपार धन लाभ होगा। इसी कथा के अनुसार जो भी कुबेर जी के नौ रूपों में से किसी भी रूप की प्रार्थना करता है उसे धन की कभी कमी नहीं होती कुबेर के नौ रूपों में से पहला रूप है
धनकुबेर — धनकुबेर की धन प्राप्त करने के लिए आराधना की जाती है इनकी आराधना मंगलवार के दिन की जाती है इनकी आराधना के समय पूर्व दिशा मैं मुख होना चाहिए।
पुष्प कुबेर —  रिश्तो को सौम्या बनाने के लिए पुष्प रूप कुबेर की आराधना की जाती है इनका दिन मंगलवार है और इनकी दिशा उत्तर दिशा मानी गई है।
चंद्र कुबेर — चंद्र कुबेर की आराधना संतान प्राप्ति के लिए की जाती है इनकी आराधना रविवार के दिन की जाती है इस आराधना के लिए मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
पीत कुबेर — पीत कुबेर को संपत्ति के लिए पूजा जाता है जिन लोगों को प्रॉपर्टी चाहिए, उन्हें पीत कुबेर की पूजा करनी चाहिए पीत कुबेर की पूजा करने के लिए बुधवार का दिन शुभ माना गया है इसके लिए मुख पश्चिम दिशा की तरफ होना चाहिए।
हंस कुबेर — कानूनी दावपेंच,मुकदमे में जीत आदि के लिए हंस कुबेर की पूजा की जाती है इनकी आराधना शनिवार के दिन की जाती है, और मुख दक्षिण दिशा की तरफ होना चाहिए।
राग कुबेर — राग कुबेर की आराधना शिक्षा प्राप्ति के लिए लेखन,चित्र कला,नृत्य आदि में प्रसिद्धि के लिए की जाती है इसका दिन वीरवार है और दिशा पूर्व दिशा मानी गई है।
अमृत कुबेर — सभी रोगों की के नाश के लिए अमृत कुबेर की पूजा की जाती है इनकी आराधना शुक्रवार के दिन की जाती है और मुख पश्चिम दिशा में होना चाहिए।
प्राण कुबेर — ऋण नाशक प्राण कुबेर की आराधना सोमवार के दिन उत्तर दिशा की तरफ मुख करके करनी चाहिए इससे सभी प्रकार के ऋणों का नाश होता है।
उग्र कुबेर — उग्र कुबेर की आराधना शत्रु नाश के लिए की जाती है इनकी आराधना शनिवार के दिन की जाती है इस आराधना के समय मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
इस प्रकार कुबेर के नौ रुपों में से किसी भी रूप की आराधना करने से मनचाहा फल प्राप्त होता है दीपावली और धनतेरस के दिन कुबेर साधना का महत्व और भी बढ़ जाता है।

कुलदेवी दोष , देवीदोष दूर करने के लिये

कुलदेवी दोष , देवीदोष के लिये
श्री मंगलचंडिकास्तोत्रम्
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवी मङ्गलचण्डिके I
ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविन्शाक्षरो मनुः II
पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः I
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् II
मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः I
ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्व सम्मतम् II
देवीं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् I
सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् II
श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् I
वन्हिशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् II
बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् I
बिम्बोष्टिं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् II
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोल्पललोचनाम् I
जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् II
संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे II
देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने I
प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः II
शंकर उवाच रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके I
हारिके विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके II
हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके I
शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गलचण्डिके II
मङ्गले मङ्गलार्हे च सर्व मङ्गलमङ्गले I
सतां मन्गलदे देवि सर्वेषां मन्गलालये II
पूज्या मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदैवते I
पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य संततम् II
मङ्गलाधिष्टातृदेवि मङ्गलानां च मङ्गले I
संसार मङ्गलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि II
सारे च मङ्गलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् I
प्रतिमङ्गलवारे च पूज्ये च मङ्गलप्रदे II
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मङ्गलचण्डिकाम् I
प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः II
देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः श्रुणोति समाहितः I
तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमङ्गलम् II
II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते मङ्गलचण्डिका स्तोत्रं संपूर्णम् II

Monday, 23 August 2021

भैरव जी की कृपा प्राप्ति हेतु एक दुर्लभ प्रयोग --


भैरव जी की कृपा प्राप्ति हेतु एक दुर्लभ प्रयोग --

कुछ थोड़ी लॉन्ग-इलायची-सौंफ पीसकर एक सेर आटे में मिला ले ! पाव भर देशी खांड और ओउ उतना ही पानी मिला ले की जिससे आटा सुलभता से गुंथा जा सके ! इस गुंथे आटे से केवल एक ही रोटी बनानी है !

 जब रोटी बन जाये तो उसमे कुछ सरसों का तेल चुपड़ दे ! इस रोटी के ठीक बीच में सिंदूर का एक टीका लगाये ! टीके से कुछ दूरी पर रोटी का एक गोलाकार टुकड़ा काटे -[यानि गोल टुकड़े के बीच में टीका आना चाहिए] ! अब इस गोलाकार टुकड़े को भी बीच में से काटकर-[निम्बू की तरह] दो भाग बना ले , किन्तु ऐसा काटे की एक भाग में टीका पूरा आना चाहिए ! अब इन टुकडो को फिर से जोड़ -मिलाकर रोटी के बीच में रख दे ! अब भैरव मंदिर जाकर भगवान को धूप-दीप दे ! रोटी के सभी भागो को भगवान के भोग हेतु अर्पित कीजिये और अपने किसी भी कार्य की सिद्धि हेतु प्रार्थना कीजिये ! अब टीका लगा हुवा टुकड़ा श्वान-[कुत्ता] को खिला दे , बचा हुवा आधा गोल टुकड़ा किसी कुए में फेंक दे ! शेष बची हुयी रोटी को भी टुकड़े करके श्वान को ही दे ,,, किन्तु एक टुकड़ा बचाकर अपने घर ले आये ! और घर में ही किसी सुरक्षित स्थान में रख दे ! इस क्रिया के फल स्वरूप प्रयोगकर्ता का असाध्य कार्य में सफलता सिद्ध होगी ! और उस पर भैरव जी की विशिष्ट कृपा बनी रहेगी ! प्रयोगकर्ता को चाहिए की अपने और अपने परिवार की प्रसन्नता -सुख समृद्धि हेतु ही ये प्रयोग करे ।

-किसी के अनिष्ट की कामना को ध्यान में कदापि भी न रखे ।।।
पंडित आशु बहुगुणा 
मोबाइल--9760924411

पंचांगुली मंत्र यंत्र साधना

पंचांगुली साधना
पंचांगुली साधना....यह साधना किसी भी समय से प्रारम्भ की जा सकती है, परन्तु साधकको चाहिए कि वह पूर्ण विधि विधान के साथ इस साधना को सम्पन्नकरेँ, मन्त्र जप तीर्थ भूमि, गंगा-यमुना संगम, नदी-तीर, पर्वत,गुफा, या किसी मन्दिर मे की जा सकती है, साधक चाहे तो साधना केलिए घर के एकांत कमरे का उपयोग भी कर सकते हैँ ।इस साधना मेँ यन्त्र आवश्यक है, शुभ दिन शुद्ध , समय मेसाधना स्थान को स्वच्छ पानी से धो ले, कच्चा आंगन हो तो लीप लेँ ,तत्पश्चात लकडी के एक समचौरस पट्टे पर श्वेत वस्त्र धो करबिछा देँ, और उस पर चावलोँ से यन्त्र का निर्माण करेँचावलोँ को अलग-अलग 5 रंगो मे रंग देँ , यन्त्र को सुघडता से सही रुपमेँ बनावे यन्त्र की बनावट मे जरा सी भी गलती सारे परिश्रम को व्यर्थकर देती है ।तत्पश्चात यन्त्र के मध्य ताम्र कलश स्थापित करेँ और उस पर लालवस्त्र आच्छादित कर ऊपर नारियल रखेँ और फिर उस परपंचागुली देवी की मूर्ति स्थापित करे इसके बाद पूर्ण षोडसोपचार से 9दिन तक पूजन करेँ और नित्य पंचागुली मन्त्र का जप तरेँ ।सर्व प्रथम मुख शोधन कर पंचागुली मन्त्र चैतन्य करेँ ,पंचांगुली की साधना मेँ मन्त्र चैतन्य ' ई ' है अतः मन्त्र के प्रारम्भऔर अन्त मे ' ई ' सम्पुट देने से मंत्र चैतन्य हो जाता है ।मन्त्र चैतन्य के बाद योनि-मुद्रा का अनुष्ठान किया जाय यदि योनि-मुद्रा अनुष्ठान का ज्ञान न हो तो भूत लिपि - विधान करना चाहिए ।इसके बाद यन्त्र पूजा कर पंचांगुली ध्यान करेँ ।पंचांगुली ध्यान-पंचांगुली महादेवीँ श्री सोमन्धर शासने ।अधिष्ठात्री करस्यासौ शक्तिः श्री त्रिदशोशितुः ।।पंचांगुली देवी के सामने यह ध्यान करके पंचांगुली मन्त्र का जपकरना चाहिए -

पंचांगुली मन्त्र -

ॐ नमो पंचागुली पंचांगुली परशरी माता मयंगल वशीकरणी लोहमयदडमणिनी चौसठ काम विहंडनी रणमध्ये राउलमध्ये शत्रुमध्येदीपानमध्ये भूतमध्ये प्रेतमध्ये पिशाचमध्ये झोटिगमध्ये डाकिनिमध्येशाखिनीमध्ये यक्षिणीमध्ये दोषणिमध्ये गुणिमध्ये गारुडीमध्येविनारिमध्ये दोषमध्ये दोषशरणमध्ये दुष्टमध्ये घोर कष्ट मुझ ऊपरबुरो जो कोई करे करावे जडे जडावे चिन्ते चिन्तावे तस माथेश्री माता पंचांगुली देवी ताणो वज्र निर्घार पडे ॐ ठं ठं ठं स्वाहा

।वस्तुतः यह साधना लम्बी और श्रम साध्य है, प्रारम्भ मेगणपति पूजन, संकल्प, न्यास , यन्त्र-पूजा , प्रथम वरण पूजा ,द्वतिया, तृतिया , चतुर्थ, पंचम, षष्ठम् सप्तम, अष्टम औरनवमावरण के बाद भूतीपसंहार करके यन्त्र से प्राण-प्रतिष्ठाकरनी चाहिए ।इसके बाद पंचागुली देवी को संजीवनी बनाने के लिए ध्यान ,अन्तर्मातृका न्यास , कर न्यास, बहिर्मातृका न्यास करनी चाहिए ,यद्यपि इन सारी विधि को लिखा जाय तो लगभग 40-50 पृष्ठो मेआयेगी , यहां मेरा उद्देश्य आप सब को मात्र इस साधना से
परिचितकराना है ।

देश के श्रेष्ठ साधको का मत है कि यदि साधक ये सारे क्रियाकलाप नकरके केवल घर मे मन्त्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त पंचांगुली यन्त्रतथा चित्र स्थापित कर उसके सामने नित्य पंचांगुली मंत्र 21 बार जपकरें तो कुछ समय बाद स्वतः पंचांगुली साधना सिद्ध हो जाती है ।सामान्य साधक को लम्बे चौडे जटिल विधि विधान मे न पड कर अपनेघर मे पंचांगुली देवी का चित्र स्थापना चाहिए और प्रातः स्नान कर गुरुमंत्र जप कर पंचांगुली मन्त्र का 21 बार उच्चारण करना चाहिए ।कुछ समय बाद मन्त्र सिद्ध हो जाता है और यह साधना सिद्ध करसाधक सफल भविष्यदृष्टा बन जाता है ,

 साधक मेजितनि उज्जवला और पवित्रता होती है उसी के अनुसार उसे फलमिलता है ।वर्तमान समय मे यह श्रैष्ठतम और प्रभावपूर्ण मानी जाती हैतथा प्रत्येक मन्त्र मर्मज्ञ और तांत्रिक साधक इस बात को स्वीकारकरते है कि वर्तमान समय मे यह साधना अचूक फलदायक है ।

इस साधना में कार्तिक माह के हस्त नक्षत्र का ज्यादा महत्व है क्योंकि ये हस्तरेखा और भविष्य दर्शन से जुडी है। ज्यादा उचित ये रहेगा की गुरु के सानिंध्य में साधना करें यह ।।

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥

 वन्दे सिन्दूरवर्णाभं लोहिताम्बरभूषितम् ।

 रक्ताङ्गरागशोभाढ्यं शोणापुच्छं कपीश्वरम्॥ 

भजे समीरनन्दनं,

 सुभक्तचित्तरञ्जनं, 

दिनेशरूपभक्षकं,

 समस्तभक्तरक्षकम् । 

सुकण्ठकार्यसाधकं, 

विपक्षपक्षबाधकं, 

समुद्रपारगामिनं, 

नमामि सिद्धकामिनम्

 ॥ १॥ सुशङ्कितं सुकण्ठभुक्तवान् हि यो हितं वचस्त्वमाशु धैर्य्यमाश्रयात्र वो भयं कदापि न । इति प्लवङ्गनाथभाषितं निशम्य वानराऽधिनाथ आप शं तदा, स रामदूत आश्रयः 

॥ २॥ सुदीर्घबाहुलोचनेन, पुच्छगुच्छशोभिना, भुजद्वयेन सोदरीं निजांसयुग्ममास्थितौ । कृतौ हि कोसलाधिपौ, कपीशराजसन्निधौ, विदहजेशलक्ष्मणौ, स मे शिवं करोत्वरम्

 ॥ ३॥ सुशब्दशास्त्रपारगं, विलोक्य रामचन्द्रमाः, कपीश नाथसेवकं, समस्तनीतिमार्गगम् । प्रशस्य लक्ष्मणं प्रति, प्रलम्बबाहुभूषितः कपीन्द्रसख्यमाकरोत्, स्वकार्यसाधकः प्रभुः

 ॥ ४॥ प्रचण्डवेगधारिणं, नगेन्द्रगर्वहारिणं, फणीशमातृगर्वहृद्दृशास्यवासनाशकृत् । विभीषणेन सख्यकृद्विदेह जातितापहृत्, सुकण्ठकार्यसाधकं, नमामि यातुधतकम्

 ॥ ५॥ नमामि पुष्पमौलिनं, सुवर्णवर्णधारिणं गदायुधेन भूषितं, किरीटकुण्डलान्वितम् । सुपुच्छगुच्छतुच्छलंकदाहकं सुनायकं विपक्षपक्षराक्षसेन्द्र-सर्ववंशनाशकम्

 ॥ ६॥ रघूत्तमस्य सेवकं नमामि लक्ष्मणप्रियं दिनेशवंशभूषणस्य मुद्रीकाप्रदर्शकम् । विदेहजातिशोकतापहारिणम् प्रहारिणम् सुसूक्ष्मरूपधारिणं नमामि दीर्घरूपिणम्

 ॥ ७॥ नभस्वदात्मजेन भास्वता त्वया कृता महासहा यता यया द्वयोर्हितं ह्यभूत्स्वकृत्यतः । सुकण्ठ आप तारकां रघूत्तमो विदेहजां निपात्य वालिनं प्रभुस्ततो दशाननं खलम् 

॥ ८॥ इमं स्तवं कुजेऽह्नि यः पठेत्सुचेतसा नरः कपीशनाथसेवको भुनक्तिसर्वसम्पदः । प्लवङ्गराजसत्कृपाकताक्षभाजनस्सदा न शत्रुतो भयं भवेत्कदापि तस्य नुस्त्विह

 ॥ ९॥ नेत्राङ्गनन्दधरणीवत्सरेऽनङ्गवासरे । लोकेश्वराख्यभट्टेन हनुमत्ताण्डवं कृतम् 

॥ १०॥ इति श्री हनुमत्ताण्डव स्तोत्रम्॥

तीव्र विलक्षण कारी दुर्लभ गोपनीय माता बगलामुखी मंत्र:-

तीव्र विलक्षण कारी दुर्लभ गोपनीय माता बगलामुखी मंत्र:-
इसका प्रयोग स्वविवेक पर किसी गुरू के सानिध्य में करें।
ऊं नमो भगवती ऊं नमो वीर प्रताप विजय भगवती बगलामुखी मम सर्व निन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां मुद्रय मुद्रय बुद्धिं विनाशय विनाशय अपर बुद्धिं कुरू कुरू आत्म विरोधिनां शत्रूणां शीशे ललाटं मुखं नेत्रं कर्णं नासिकोरू पद अणु अणु दंतोष्ठ जिह्वां तालु गुह्य गुदा कटि जानु सर्वांगेषु केशादि पादांत पादादिके शपर्यंतं स्तंभय स्तंभय खें रखीं मारय मारय परमंत्र परयंत्र परतंत्राणि छेदय छेदय आत्म मंत्र तंत्राणि रक्ष रक्ष ग्रहं निवारय निवारय व्याधिं विनाशय विनाशय दुःखं हर हर दारिद्रयं निवारय निवारय सर्वमंत्र स्वरुपिणी दुष्ट ग्रह भूत ग्रह पाषाण ग्रह सर्व चाण्डाल ग्रह यक्ष किन्नर किम्पुरूष ग्रह भूत प्रेत पिशाचानां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्व दिशं बंधय स्वप्न वर्तालि मां रक्ष रक्ष पश्चिम दिशय बंधय बंधय उग्र कालि मां रक्ष रक्ष पाताल दिशं बंधय बंधय बगला परमेश्वरी मां रक्ष रक्ष सकल रोगान विनाशय विनाशय शत्रु पलायनं पंचयोजन मध्ये राज जन स्व पचं कुरू कुरू शत्रून दह दह पच पच स्तंभय स्तंभय मोहय मोहय आकर्षय आकर्षय मम शत्रून उच्चाटय उच्चाटय ह्रीं फट स्वाहा।

ओं क्ष्रौं‘श्रीसुदर्शन-चक्र’ भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है।

जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। ‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि ‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें, क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के ‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया।

‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी।

‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है कि एक बार भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा था कि ‘आप लोगों के पास जो अस्त्र हैं, उनसे असुरों का वध नहीं किया जा सकता। आप सब अपना-अपना तेज दें।’ इस पर सभी देवताओं ने अपना-अपना तेज दिया। सब तेज एकत्र होने पर भगवान् विष्णु ने भी अपना तेज दिया। फिर महादेव शंकर ने इस एकत्रित तेज के द्वारा अत्युत्तम शस्त्र बनाया और उसका नाम ‘सुदर्शन-चक्र’ रखा। भगवान् शिव ने ‘सुदर्शन-चक्र’ को दुष्टों का संहार करने तथा साधुओं की रक्षा करने के लिए विष्णु को प्रदान किया।

‘हरि-भक्ति-विलास’ में लिखा है कि ‘सुदर्शन-चक्र’ बहुत पुज्य है। वैष्णव लोग इसे चिह्न के रुप में धारण करें। ‘गरुड़-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का महत्त्व बताया गया है और इसकी पूजा-विधि दी गई है। ‘श्रीमद्-भागवत’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ की स्तुति इस प्रकार की गई है- ‘हे सुदर्शन! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलय-कालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् विष्णु की प्रेरणा से सभी ओर घूमते हैं। जिस प्रकार अग्नि वायु की सहायता से शुष्क तृण को जला डालती है, उसी प्रकार आप हमारी शत्रु-सेना को तत्काल जला दीजिए।’
‘विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का वर्णन एक पुरुष के रुप में हुआ है। इसकी दो आँखें तथा बड़ा-सा पेट है। चक्र का यह रुप अनेक अलंकारों से सुसज्जित तथा चामर से युक्त है।

वल्लभाचार्य कृत ‘सुदर्शन-कवच’—–

वैष्णवानां हि रक्षार्थं, श्रीवल्लभः-निरुपितः। सुदर्शन महामन्त्रो, वैष्णवानां हितावहः।।
मन्त्रा मध्ये निरुप्यन्ते, चक्राकारं च लिख्यते। उत्तरा-गर्भ-रक्षां च, परीक्षित-हिते-रतः।।
ब्रह्मास्त्र-वारणं चैव, भक्तानां भय-भञ्जनः। वधं च सुष्ट-दैत्यानां, खण्डं-खण्डं च कारयेत्।।
वैष्णवानां हितार्थाय, चक्रं धारयते हरिः। पीताम्बरो पर-ब्रह्म, वन-माली गदाधरः।।
कोटि-कन्दर्प-लावण्यो, गोपिका-प्राण-वल्लभः। श्री-वल्लभः कृपानाथो, गिरिधरः शत्रुमर्दनः।।
दावाग्नि-दर्प-हर्ता च, गोपीनां भय-नाशनः। गोपालो गोप-कन्याभिः, समावृत्तोऽधि-तिष्ठते।।
वज्र-मण्डल-प्रकाशी च, कालिन्दी-विरहानलः। स्वरुपानन्द-दानार्थं, तापनोत्तर-भावनः।।
निकुञ्ज-विहार-भावाग्ने, देहि मे निज दर्शनम्। गो-गोपिका-श्रुताकीर्णो, वेणु-वादन-तत्परः।।
काम-रुपी कला-वांश्च, कामिन्यां कामदो विभुः। मन्मथो मथुरा-नाथो, माधवो मकर-ध्वजः।।
श्रीधरः श्रीकरश्चैव, श्री-निवासः सतां गतिः। मुक्तिदो भुक्तिदो विष्णुः, भू-धरो भुत-भावनः।।
सर्व-दुःख-हरो वीरो, दुष्ट-दानव-नाशकः। श्रीनृसिंहो महाविष्णुः, श्री-निवासः सतां गतिः।।
चिदानन्द-मयो नित्यः, पूर्ण-ब्रह्म सनातनः। कोटि-भानु-प्रकाशी च, कोटि-लीला-प्रकाशवान्।।
भक्त-प्रियः पद्म-नेत्रो, भक्तानां वाञ्छित-प्रदः। हृदि कृष्णो मुखे कृष्णो, नेत्रे कृष्णश्च कर्णयोः।।
भक्ति-प्रियश्च श्रीकृष्णः, सर्वं कृष्ण-मयं जगत्। कालं मृत्युं यमं दूतं, भूतं प्रेतं च प्रपूयते।।

“ॐ नमो भगवते महा-प्रतापाय महा-विभूति-पतये, वज्र-देह वज्र-काम वज्र-तुण्ड वज्र-नख वज्र-मुख वज्र-बाहु वज्र-नेत्र वज्र-दन्त वज्र-कर-कमठ भूमात्म-कराय, श्रीमकर-पिंगलाक्ष उग्र-प्रलय कालाग्नि-रौद्र-वीर-भद्रावतार पूर्ण-ब्रह्म परमात्मने, ऋषि-मुनि-वन्द्य-शिवास्त्र-ब्रह्मास्त्र-वैष्णवास्त्र-नारायणास्त्र-काल-शक्ति-दण्ड-कालपाश-अघोरास्त्र-निवारणाय, पाशुपातास्त्र-मृडास्त्र-सर्वशक्ति-परास्त-कराय, पर-विद्या-निवारण अग्नि-दीप्ताय, अथर्व-वेद-ऋग्वेद-साम-वेद-यजुर्वेद-सिद्धि-कराय, निराहाराय, वायु-वेग मनोवेग श्रीबाल-कृष्णः प्रतिषठानन्द-करः स्थल-जलाग्नि-गमे मतोद्-भेदि, सर्व-शत्रु छेदि-छेदि, मम बैरीन् खादयोत्खादय, सञ्जीवन-पर्वतोच्चाटय, डाकिनी-शाकिनी-विध्वंस-कराय महा-प्रतापाय निज-लीला-प्रदर्शकाय निष्कलंकृत-नन्द-कुमार-बटुक-ब्रह्मचारी-निकुञ्जस्थ-भक्त-स्नेह-कराय दुष्ट-जन-स्तम्भनाय सर्व-पाप-ग्रह-कुमार्ग-ग्रहान् छेदय छेदय, भिन्दि-भिन्दि, खादय, कण्टकान् ताडय ताडय मारय मारय, शोषय शोषय, ज्वालय-ज्वालय, संहारय-संहारय, (देवदत्तं) नाशय नाशय, अति-शोषय शोषय, मम सर्वत्र रक्ष रक्ष, महा-पुरुषाय सर्व-दुःख-विनाशनाय ग्रह-मण्डल-भूत-मण्डल-प्रेत-मण्डल-पिशाच-मण्डल उच्चाटन उच्चाटनाय अन्तर-भवादिक-ज्वर-माहेश्वर-ज्वर-वैष्णव-ज्वर-ब्रह्म-ज्वर-विषम-ज्वर-शीत-ज्वर-वात-ज्वर-कफ-ज्वर-एकाहिक-द्वाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थिक-अर्द्ध-मासिक मासिक षाण्मासिक सम्वत्सरादि-कर भ्रमि-भ्रमि, छेदय छेदय, भिन्दि भिन्दि, महाबल-पराक्रमाय महा-विपत्ति-निवारणाय भक्र-जन-कल्पना-कल्प-द्रुमाय-दुष्ट-जन-मनोरथ-स्तम्भनाय क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपी-जन-वल्लभाय नमः।।

पिशाचान् राक्षसान् चैव, हृदि-रोगांश्च दारुणान् भूचरान् खेचरान् सर्वे, डाकिनी शाकिनी तथा।।
नाटकं चेटकं चैव, छल-छिद्रं न दृश्यते। अकाले मरणं तस्य, शोक-दोषो न लभ्यते।।
सर्व-विघ्न-क्षयं यान्ति, रक्ष मे गोपिका-प्रियः। भयं दावाग्नि-चौराणां, विग्रहे राज-संकटे।।

।।फल-श्रुति।।

व्याल-व्याघ्र-महाशत्रु-वैरि-बन्धो न लभ्यते। आधि-व्याधि-हरश्चैव, ग्रह-पीडा-विनाशने।।
संग्राम-जयदस्तस्माद्, ध्याये देवं सुदर्शनम्। सप्तादश इमे श्लोका, यन्त्र-मध्ये च लिख्यते।।
वैष्णवानां इदं यन्त्रं, अन्येभ्श्च न दीयते। वंश-वृद्धिर्भवेत् तस्य, श्रोता च फलमाप्नुयात्।।

सुदर्शन-महा-मन्त्रो, लभते जय-मंगलम्।।

सर्व-दुःख-हरश्चेदं, अंग-शूल-अक्ष-शूल-उदर-शूल-गुद-शूल-कुक्षि-शूल-जानु-शूल-जंघ-शूल-हस्त-शूल-पाद-शूल-वायु-शूल-स्तन-शूल-सर्व-शूलान् निर्मूलय, दानव-दैत्य-कामिनि वेताल-ब्रह्म-राक्षस-कालाहल-अनन्त-वासुकी-तक्षक-कर्कोट-तक्षक-कालीय-स्थल-रोग-जल-रोग-नाग-पाश-काल-पाश-विषं निर्विषं कृष्ण! त्वामहं शरणागतः। वैष्णवार्थं कृतं यत्र श्रीवल्लभ-निरुपितम्।।
ओं रां रामाय नम:
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श्री राम ज्योतिष सदन 
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।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।
देवकार्य सिध्यर्थं सभस्तंभं समुद् भवम।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।1।।
लक्ष्म्यालिन्गितं वामांगं, भक्ताम्ना वरदायकं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।2।।
अन्त्रांलादरं शंखं, गदाचक्रयुध धरम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।3।।
स्मरणात् सर्व पापघ्नं वरदं मनोवाञ्छितं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।4।।
सिहंनादेनाहतं, दारिद्र्यं बंद मोचनं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।5।।
प्रल्हाद वरदं श्रीशं, धनः कोषः परिपुर्तये।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।6।।
क्रूरग्रह पीडा नाशं, कुरुते मंगलं शुभम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।7।।
वेदवेदांगं यद्न्येशं, रुद्र ब्रम्हादि वंदितम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।8।।
व्याधी दुखं परिहारं, समूल शत्रु निखं दनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।9।।
विद्या विजय दायकं, पुत्र पोत्रादि वर्धनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।10।।
भुक्ति मुक्ति प्रदायकं, सर्व सिद्धिकर नृणां।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।11।।
उर्ग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तम् सर्वतोमुखं।
नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्य मृत्युं नमाम्यहम।।
य: पठेत् इंद् नित्यं संकट मुक्तये।
अरुणि विजयी नित्यं, धनं शीघ्रं माप्नुयात्।।
।।श्री शंकराचार्य विरचित सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र संपूर्णं।।
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||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||


||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||
नृसिंहकवचं वक्ष्ये प्रह्लादेनोदितं पुरा |
सर्वरक्षकरं पुण्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ||१||
सर्व सम्पत्करं चैव स्वर्गमोक्षप्रदायकम् |
ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितम् ||२||
विवृतास्यं त्रिनयनं शरदिन्दुसमप्रभम् |
लक्ष्म्यालिङ्गितवामाङ्गम् विभूतिभिरुपाश्रितम् ||३||
चतुर्भुजं कोमलाङ्गं स्वर्णकुण्डलशोभितम् |
सरोजशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमुद्रितम् ||४||
तप्त काञ्चनसंकाशं पीतनिर्मलवाससम् |
इन्द्रादिसुरमौलिष्ठः स्फुरन्माणिक्यदीप्तिभिः ||५||
विरजितपदद्वन्द्वम् च शङ्खचक्रादिहेतिभिः |
गरुत्मत्मा च विनयात् स्तूयमानम् मुदान्वितम् ||६||
स्व हृत्कमलसंवासं कृत्वा तु कवचं पठेत् |
नृसिंहो मे शिरः पातु लोकरक्षार्थसम्भवः ||७||
सर्वगेऽपि स्तम्भवासः फलं मे रक्षतु ध्वनिम् |
नृसिंहो मे दृशौ पातु सोमसूर्याग्निलोचनः ||८||
स्मृतं मे पातु नृहरिः मुनिवार्यस्तुतिप्रियः |
नासं मे सिंहनाशस्तु मुखं लक्ष्मीमुखप्रियः ||९||
सर्व विद्याधिपः पातु नृसिंहो रसनं मम |
वक्त्रं पात्विन्दुवदनं सदा प्रह्लादवन्दितः ||१०||
नृसिंहः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ भूभृदनन्तकृत् |
दिव्यास्त्रशोभितभुजः नृसिंहः पातु मे भुजौ ||११||
करौ मे देववरदो नृसिंहः पातु सर्वतः |
हृदयं योगि साध्यश्च निवासं पातु मे हरिः ||१२||
मध्यं पातु हिरण्याक्ष वक्षःकुक्षिविदारणः |
नाभिं मे पातु नृहरिः स्वनाभिब्रह्मसंस्तुतः ||१३||
ब्रह्माण्ड कोटयः कट्यां यस्यासौ पातु मे कटिम् |
गुह्यं मे पातु गुह्यानां मन्त्राणां गुह्यरूपदृक् ||१४||
ऊरू मनोभवः पातु जानुनी नररूपदृक् |
जङ्घे पातु धराभर हर्ता योऽसौ नृकेशरी ||१५||
सुर राज्यप्रदः पातु पादौ मे नृहरीश्वरः |
सहस्रशीर्षापुरुषः पातु मे सर्वशस्तनुम् ||१६||
महोग्रः पूर्वतः पातु महावीराग्रजोऽग्नितः |
महाविष्णुर्दक्षिणे तु महाज्वलस्तु नैरृतः ||१७||
पश्चिमे पातु सर्वेशो दिशि मे सर्वतोमुखः |
नृसिंहः पातु वायव्यां सौम्यां भूषणविग्रहः ||१८||
ईशान्यां पातु भद्रो मे सर्वमङ्गलदायकः |
संसारभयतः पातु मृत्योर्मृत्युर्नृकेशई ||१९||
इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखमण्डितम् |
भक्तिमान् यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ||२०||
पुत्रवान् धनवान् लोके दीर्घायुरुपजायते |
कामयते यं यं कामं तं तं प्राप्नोत्यसंशयम् ||२१||
सर्वत्र जयमाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् |
भूम्यन्तरीक्षदिव्यानां ग्रहाणां विनिवारणम् ||२२||
वृश्चिकोरगसम्भूत विषापहरणं परम् |
ब्रह्मराक्षसयक्षाणां दूरोत्सारणकारणम् ||२३||
भुजेवा तलपात्रे वा कवचं लिखितं शुभम् |
करमूले धृतं येन सिध्येयुः कर्मसिद्धयः ||२४||
देवासुर मनुष्येषु स्वं स्वमेव जयं लभेत् |
एकसन्ध्यं त्रिसन्ध्यं वा यः पठेन्नियतो नरः ||२५||
सर्व मङ्गलमाङ्गल्यं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति |
द्वात्रिंशतिसहस्राणि पठेत् शुद्धात्मनां नृणाम् ||२६||
कवचस्यास्य मन्त्रस्य मन्त्रसिद्धिः प्रजायते |
अनेन मन्त्रराजेन कृत्वा भस्माभिर्मन्त्रानाम् ||२७||
तिलकं विन्यसेद्यस्तु तस्य ग्रहभयं हरेत् |
त्रिवारं जपमानस्तु दत्तं वार्याभिमन्त्र्य च ||२८||
प्रसयेद् यो नरो मन्त्रं नृसिंहध्यानमाचरेत् |
तस्य रोगः प्रणश्यन्ति ये च स्युः कुक्षिसम्भवाः ||२९||
गर्जन्तं गार्जयन्तं निजभुजपतलं स्फोटयन्तं हतन्तं
रूप्यन्तं तापयन्तं दिवि भुवि दितिजं क्षेपयन्तं क्षिपन्तम् |
क्रन्दन्तं रोषयन्तं दिशि दिशि सततं संहरन्तं भरन्तं
वीक्षन्तं पूर्णयन्तं करनिकरशतैर्दिव्यसिंहं नमामि ||३०||
||इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे प्रह्लादोक्तं श्रीनृसिंहकवचं सम्पूर्णम् ||
ओं रां रामाय नम:
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।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
ओं रां रामाय नम:
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...