Tuesday, 24 August 2021

श्रीहनुमान जी की पूजा से मिलते हैं कई लाभ, जानें किस मूर्ति से कौन सी मनोकामना होती है पूरी ।

श्रीहनुमान जी की पूजा से मिलते हैं कई लाभ, जानें किस मूर्ति से कौन सी मनोकामना होती है पूरी ।

1. पूर्वमुखी हुनमान जी- पूर्व की तरफ मुख वाले बजरंबली को वानर रूप में पूजा जाता है। इस रूप में भगवान को बेहद शक्तिशाली और करोड़ों सूर्य के तेज के समान बताया गया है। शत्रुओं के नाश के बजरंगबली जाने जाते हैं। दुश्मन अगर आप पर हावी हो रहे तो पूर्वमूखी हनुमान की पूजा शुरू कर दें।

2. पश्चिममुखी हनुमान जी- पश्चिम की तरफ मुख वाले हनुमानजी को गरूड़ का रूप माना जाता है। इसी रूप संकटमोचन का स्वरूप माना गया है। मान्यता है कि भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ अमर है उसी के समान बजरंगबली भी अमर हैं। यही कारण है कि कलयुग के जाग्रत देवताओं में बजरंगबली को माना जाता है।

3. उत्तरामुखी हनुमान जी- उत्तर दिशा की तरफ मुख वाले हनुमान जी की पूजा शूकर के रूप में होती है। एक बात और वह यह कि उत्तर दिशा यानी ईशान कोण देवताओं की दिशा होती है। यानी शुभ और मंगलकारी। इस दिशा में स्थापित बजरंगबली की पूजा से इंसान की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। इस ओर मुख किए भगवान की पूजा आपको धन-दौलत, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, लंबी आयु के साथ ही रोग मुक्त बनाती है।

4. दक्षिणामुखी हनुमान जी- दक्षिण मुखी हनुमान जी को भगवान नृसिंह का रूप माना जाता है। दक्षिण दिशा यमराज की होती है और इस दिशा में हनुमान जी की पूजा से इंसान के डर, चिंता और दिक्कतों से मुक्ति मिलती है। दक्षिणमुखी हनुमान जी बुरी शक्तियों से बचाते हैं।

5.ऊर्ध्वमुख- इस ओर मुख किए हनुमान जी को ऊर्ध्वमुख रूप यानी घोड़े का रूप माना गया है। इस स्वरूप की पूजाकरने वालों को दुश्मनों और संकटों से मुक्ति मिलती है। इस स्वरूप को भगवान ने ब्रह्माजी के कहने पर धारण कर हयग्रीवदैत्य का संहार किया था।

6. पंचमुखी हनुमान- पंचमुखी हनुमान के पांच रूपों की पूजा की जाती है। इसमें हर मुख अलग-अलग शक्तियों का परिचायक है। रावण ने जब छल से राम लक्ष्मण बंधक बना लिया था तो हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण कर अहिरावण से उन्हें मुक्त कराया था। पांच दीये एक साथ बुझाने पर ही श्रीराम-लक्षमण मुक्त हो सकते थे इसलिए भगवान ने पंचमुखी रूप धारण किया था। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की तरफ हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख में वह विराजे हैं।

7. एकादशी हनुमान- ये रूप भगवान शिव का स्वरूप भी माना जाता है। एकादशी रूप रुद्र यानी शिव का 11वां अवतार है। ग्यारह मुख वाले कालकारमुख के राक्षस का वध करने के लिए भगवान ने एकादश मुख का रुप धारण किया था। चैत्र पूर्णिमा यानी हनमान जयंती के दिन उस राक्षस का वध किया था। यही कारण है कि भक्तों को एकादशी और पंचमुखी हनुमान जी पूजा सारे ही भगवानों की उपासना समना माना जाता है।

8. वीर हनुमान- हनुमान जी के इस स्वरूप की पूजा भक्त साहस और आत्मविश्वास पाने के लिए करते हें। इस रूप के जरिये भगवान के बल, साहस, पराक्रम को जाना जाता है। अर्थात तो भगवान श्रीराम के काज को संवार सकता है वह अपने भक्तों के काज और कष्ट क्षण में दूर कर देते हैं।

9. भक्त हनुमान- भगवान का यह स्वरूप में श्रीरामभक्त का है। इनकी पूजा करने से आपको भगवान श्रीराम का भी आर्शीवद मिलता है। बजरंगबली की पूजा अड़चनों को दूर करने वाली होती है। इस पूजा से भक्तों में एग्राता और भक्ति की भावना जागृत होती है।

10. दास हनुमान- बजरंबली का यह स्वरूप श्रीराम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति को दिखाता है। इस स्वरूप की पूजाकरने वाले भक्तों को धर्म कार्य और रिश्ते-नाते निभाने में निपुणता हासिल होती है। सेवा और समर्णण का भाव भक्त इस स्वरूप के जरिये ही पाते हैं।

11. सूर्यमुखी हनुमान- यह स्वरूप भगवान सूर्य का माना गया है। सूर्य देव बजरंगबली के गुरु माने गए हैं। इस स्वरूप की पूजा से ज्ञान, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और उन्नति का रास्ता खोलता है। क्योंकि श्रीहनुमान के गुरु सूर्य देव अपनी इन्हीं शक्तियों के लिए जाने जाते हैं।

!! जय श्री राम!!
ईश्वर का अस्तित्व तुम्हें साकार नजर आ जाएगा
श्रद्धा से नतमस्तक हो आधार नजर आ जाएगा
!! जय श्री राम!!

कैसे करें श्रीगणेश का ध्यान,जिससे मिले विद्या और बुद्धि का वरदान ।

कैसे करें श्रीगणेश का ध्यान,जिससे मिले विद्या और बुद्धि का वरदान ।

श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं । अक्षरों को ‘गण’ कहा जाता है, उनके ईश होने के कारण इन्हें ‘गणेश’ कहा जाता है । इसलिए श्रीगणेश ‘विद्या-बुद्धि के दाता’ कहे गये हैं ।

आदिकवि वाल्मीकि ने श्रीगणेश की वन्दना करते हुए कहा है—‘गणेश्वर ! आप चौंसठ कोटि विद्याओं के दाता तथा देवताओं के आचार्य बृहस्पतिजी को भी विद्या प्रदान करने वाले हैं । कठ को भी अभीष्ट विद्या देने वाले आप है (अर्थात् कठोपनिषद् के दाता है) । आप द्विरद हैं, कवि हैं और कवियों की बुद्धि के स्वामी हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।’

श्रीगणेश असाधारण बुद्धि व विवेक से सम्पन्न होने के कारण अपने भक्तों को सद्बुद्धि व विवेक प्रदान करते हैं । इसीलिए हमारे ऋषियों ने मनुष्य के अज्ञान को दूर करने, बुद्धि शुद्ध रखने व काम में एकाग्रता प्राप्त करने के लिए बुद्धिदाता श्रीगणेश की सबसे पहले पूजा करने का विधान किया है । 

श्रीगणेश की कृपा से कैसे मिलता है तेज बुद्धि का वरदान ?

श्रीगणेश की कृपा से तीव्र बुद्धि और असाधारण प्रतिभा कैसे प्राप्त होती है, इसको योग की दृष्टि से समझा जा सकता है । योगशास्त्र के अनुसार मनुष्य के शरीर में छ: चक्र होते हैं । इनमें सबसे पहला चक्र है ‘मूलाधार चक्र’ है  जिसके देवता हैं—श्रीगणेश । प्रत्येक मनुष्य के शरीर में रीढ़ की हड्डी के मूल में, गुदा से दो अंगुल ऊपर मूलाधार चक्र है । इसमें सम्पूर्ण जीवन की शक्ति अव्यक्त रूप में रहती है । इसी चक्र के मध्य में चार कोणों वाली आधारपीठ है जिस पर श्रीगणेश विराजमान हैं ।

यह ‘गणेश चक्र’ कहलाता है, इसी के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति सोयी रहती है । श्रीगणेश का ध्यान करने मात्र से  कुण्डलिनी जग कर (प्रबुद्ध होकर) स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा चक्र में प्रविष्ट होकर सहस्त्रार चक्र में परमशिव के साथ जा मिलती है जिसका अर्थ है सिद्धियों की प्राप्ति । अत: मूलाधार के जाग्रत होने का फल है असाधारण प्रतिभा की प्राप्ति । 

इस प्रकार गणेशजी की आकृति का ध्यान करने से मूलाधार की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । ध्यान योग के द्वारा योगियों को इसका दर्शन होता है । श्रीगणेश का ध्यान करने से भ्रमित मनुष्य को सुमति और विवेक का वरदान मिलता है और श्रीगणेश का गुणगान करने से सरस्वती प्रसन्न होती हैं ।
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तीव्र बुद्धि और स्मरण-शक्ति के लिए श्रीगणेश का करें प्रात:काल ध्यान!!!!!!

विद्या प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को प्रात:काल इस श्लोक का पाठ करते हुए श्रीगणेश के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए—

प्रात: स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं 
सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् 
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड- 
माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम् ।।

अर्थात्—जो अनाथों के बन्धु हैं, जिनके दोनों कपोल सिन्दूर से शोभायमान हैं, जो प्रबल विघ्नों का नाश करने में समर्थ हैं और इन्द्रादि देव जिनकी वन्दना करते हैं, उन श्रीगणेश का मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ ।
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विद्या प्राप्ति और तीव्र स्मरण-शक्ति के लिए बुधवार को करें श्रीगणेश के ये उपाय !!!!!!

बुध ग्रह भी बुद्धि देने वाले हैं । बुधवार के दिन गणेशजी की पूजा बहुत फलदायी होती है । श्रीगणेश अपनी संक्षिप्त अर्चना से ही संतुष्ट हो भक्त को ऋद्धि-सिद्धि प्रदान कर देते हैं । गणेशजी को प्रसन्न करना बहुत ही सरल है । इसमें ज्यादा खर्च की आवश्यकता नही है । 

स्नान आदि करके पूजा शुद्ध पीले वस्त्र पहन कर करें ।  

पूजा-स्थान में गणेशजी की तस्वीर या मूर्ति पूर्व दिशा में विराजित करें । श्रीगणेश को रोली, चावल आदि चढ़ाएं । कुछ न मिले तो दो दूब ही चढ़ा दें । घर में लगे लाल (गुड़हल, गुलाब) या सफेद पुष्प (सदाबहार, चांदनी) या गेंदा का फूल चढ़ा दें ।

श्रीगणेश को सिंदूर अवश्य लगाना चाहिए । 

श्रीगणेश को बेसन के लड्डू बहुत प्रिय हैं यदि लड्डू या मोदक न हो तो केवल गुड़ या बताशे का भोग लगा देना चाहिए । 

एक दीपक जला कर धूप दिखाएं और हाथ जोड़ कर छोटा-सा एक श्लोक बोल दें–

तोहि मनाऊं गणपति हे गौरीसुत हे । 
करो विघ्न का नाश, जय विघ्नेश्वर हे ।। 
विद्याबुद्धि प्रदायक हे वरदायक हे । 
रिद्धि-सिद्धिदातार जय विघ्नेश्वर हे ।।

एक पीली मौली गणेशजी को अर्पित करते हुए कहें—‘करो बुद्धि का दान हे विघ्नेश्वर हे’ । पूजा के बाद उस मौली को माता-पिता, गुरु या किसी आदरणीय व्यक्ति के पैर छूकर अपने हाथ में बांध लें।

श्रीगणेश पर चढ़ी दूर्वा को अपने पास रखें, इससे एकाग्रता बढ़ती है ।

‘ॐ गं गणपतये नम:’ इस गणेश मन्त्र का १०८ बार जाप करने से बुद्धि तीव्र होती है । 

गणपति अथर्वशीर्ष में कहा गया है—‘जो लाजों (धान की खील) से श्रीगणेश का पूजन करता है, वह यशस्वी व मेधावी होता है ।’ अत: गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने से भी विद्या, बुद्धि, विवेक व एकाग्रता बढ़ती है ।

बुद्धि के सागर और शुभ गुणों के घर गणेशजी का स्मरण करने से ही समस्त सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।

क्यों चढ़ाते है शनि देव को तेल, क्या रखे सावधानी ।

क्यों चढ़ाते है शनि देव को तेल, क्या रखे सावधानी ।

 प्राचीन मान्यता है की शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए हर शनिवार को शनि देव को तेल चढ़ाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करते है उन्हें साढ़ेसाती और ढय्या में भी शनि की कृपा प्राप्त होती है। लेकिन शनि देव को तेल क्यों चढ़ाते इसको लेकर हमारे ग्रंथो में अनेक कथाएँ है। इनमे से सर्वाधिक प्रचलित कथा का संबंध रामयण काल और हनुमानजी से है।

पौराणिक कथा –

क्यों चढ़ाते है शनि देव को तेल :-

कथा इस प्रकार है शास्त्रों के अनुसार रामायण काल में एक समय शनि को अपने बल और पराक्रम पर घमंड हो गया था। उस काल में हनुमानजी के बल और पराक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई थी। जब शनि को हनुमानजी के संबंध में जानकारी प्राप्त हुई तो शनि बजरंग बली से युद्ध करने के लिए निकल पड़े। एक शांत स्थान पर हनुमानजी अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में लीन बैठे थे, तभी वहां शनिदेव आ गए और उन्होंने बजरंग बली को युद्ध के ललकारा।

युद्ध की ललकार सुनकर हनुमानजी शनिदेव को समझाने का प्रयास किया, लेकिन शनि नहीं माने और युद्ध के लिए आमंत्रित करने लगे। अंत में हनुमानजी भी युद्ध के लिए तैयार हो गए। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। हनुमानजी ने शनि को बुरी तरह परास्त कर दिया।

युद्ध में हनुमानजी द्वारा किए गए प्रहारों से शनिदेव के पूरे शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी। इस पीड़ा को दूर करने के लिए हनुमानजी ने शनि को तेल दिया। इस तेल को लगाते ही शनिदेव की समस्त पीड़ा दूर हो गई। तभी से शनिदेव को तेल अर्पित करने की परंपरा प्रारंभ हुई। शनिदेव पर जो भी व्यक्ति तेल अर्पित करता है, उसके जीवन की समस्त परेशानियां दूर हो जाती हैं और धन अभाव खत्म हो जाता है।

जबकि एक अन्य कथा के अनुसार जब भगवान की सेना ने सागर सेतु बांध लिया, तब राक्षस इसे हानि न पहुंचा सकें, उसके लिए पवन सुत हनुमान को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय अपने इष्टदेव राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरूप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्ण कहा- हे वानर मैं देवताओ में शक्तिशाली शनि हूँ। सुना हैं, तुम बहुत बलशाली हो। आँखें खोलो और मेरे साथ युद्ध करो, मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- इस समय मैं अपने प्रभु को याद कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विघन मत डालिए। आप मेरे आदरणीय है। कृपा करके आप यहा से चले जाइए।

जब शनि देव लड़ने पर उतर आए, तो हनुमान जी ने अपनी पूंछ में लपेटना शुरू कर दिया। फिर उन्हे कसना प्रारंभ कर दिया जोर लगाने पर भी शनि उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे।  हनुमान ने फिर सेतु की परिक्रमा कर शनि के घमंड को तोड़ने के लिए पत्थरो पर पूंछ को झटका दे-दे कर पटकना शुरू कर दिया।  इससे शनि का शरीर लहुलुहान हो गया, जिससे उनकी पीड़ा बढ़ती गई।

तब शनि देव ने हनुमान जी से प्रार्थना की कि मुझे बधंन मुक्त कर दीजिए। मैं अपने अपराध की सजा पा चुका हूँ, फिर मुझसे ऐसी गलती नही होगी ! तब हनुमान जी ने जो तेल दिया, उसे घाव पर लगाते ही शनि देव की पीड़ा मिट गई।  उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता हैं, जिससे उनकी पीडा शांत हो जाती हैं और वे प्रसन्न हो जाते हैं।

हनुमानजी की कृपा से शनि की पीड़ा शांत हुई थी, इसी वजह से आज भी शनि हनुमानजी के भक्तों पर विशेष कृपा बनाए रखते हैं।

शनि को तेल अर्पित करते समय ध्यान रखें ये बात 

शनि देव की प्रतिमा को तेल चढ़ाने से पहले तेल में अपना चेहरा अवश्य देखें। ऐसा करने पर शनि के दोषों से मुक्ति मिलती है। धन संबंधी कार्यों में आ रही रुकावटें दूर हो जाती हैं और सुख-समृद्धि बनी रहती है।

शनि पर तेल चढ़ाने से जुड़ी वैज्ञानिक मान्यता 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर के सभी अंगों में अलग-अलग ग्रहों का वास होता है। यानी अलग-अलग अंगों के कारक ग्रह अलग-अलग हैं। शनिदेव त्वचा, दांत, कान, हड्डियां और घुटनों के कारक ग्रह हैं। यदि कुंडली में शनि अशुभ हो तो इन अंगों से संबंधित परेशानियां व्यक्ति को झेलना पड़ती हैं। इन अंगों की विशेष देखभाल के लिए हर शनिवार तेल मालिश की जानी चाहिए।

शनि को तेल अर्पित करने का यही अर्थ है कि हम शनि से संबंधित अंगों पर भी तेल लगाएं, ताकि इन अंगों को पीड़ाओं से बचाया जा सके। मालिश करने के लिए सरसो के तेल का उपयोग करना श्रेष्ठ रहता है।

सिद्धि-चण्डी महा-विद्या सहस्राक्षर मन्त्र ।

सिद्धि-चण्डी महा-विद्या सहस्राक्षर मन्त्र ।

वन्दे परागम-विद्यां, सिद्धि-चण्डीं सङ्गिताम् ।
महा-सप्तशती-मन्त्र-स्वरुपां सर्व-सिद्धिदाम् ।।

विनियोग ॐ अस्य सर्व-विज्ञान-महा-राज्ञी-सप्तशती रहस्याति-रहस्य-मयी-परा-शक्ति श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डिका-सहस्राक्षरी-महा-विद्या-मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्दांसि, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवता, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यास  श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषिभ्यां नमः शिरसि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्देभ्यो नमः मुखे, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवतायै नमः हृदि, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे।
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।

महा-विद्या-न्यास ॐ श्रीं नमः सहस्रारे । ॐ ह्रीं नमः भाले। क्लीं नमः नेत्र-युगले। ॐ ऐं नमः कर्ण-द्वये। ॐ सौं नमः नासा-पुट-द्वये। ॐ ॐ नमो मुखे।ॐ ह्रीं नमः कण्ठे। ॐ श्रीं नमो हृदये। ॐ ऐं नमो हस्त-युगे। ॐ क्लीं नमः उदरे। ॐ सौं नमः कट्यां। ॐ ऐं नमो गुह्ये। ॐ क्लीं नमो जङ्घा-युगे। ॐ ह्रीं नमो जानु-द्वये। ॐ श्रीं नमः पादादि-सर्वांगे।।

ॐ या माया मधु-कैटभ-प्रमथनी, या माहिषोन्मूलनी,
या धूम्रेक्षण-चण्ड-मुण्ड-दलनी, या रक्त-बीजाशनी।
शक्तिः शुम्भ-निशुम्भ-दैत्य-मथनी, या सिद्ध-लक्ष्मी परा,
सा देवी नव-कोटि-मूर्ति-सहिता, मां पातु विश्वेश्वरी।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्मौं श्रीं ह्रीं क्लौं ऐं सौं ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं जय जय महा-लक्ष्मि जगदाद्ये बीज-सुरासुर-त्रिभुवन-निदाने दयांकुरे सर्व-तेजो-रुपिणि महा-महा-महिमे महा-महा-रुपिणि महा-महा-माये महा-माया-स्वरुपिणि विरञ्चि-संस्तुते ! विधि-वरदे सच्चिदानन्दे विष्णु-देह-व्रते महा-मोहिनि मधु-कैटभ-जिह्वासिनि नित्य-वरदान-तत्परे ! महा-स्वाध्याय-वासिनि महा-महा-तेज्यधारिणि ! सर्वाधारे सर्व-कारण-करणे अचिन्त्य-रुपे ! इन्द्रादि-निखिल-निर्जर-सेविते ! साम-गानं गायन्ति पूर्णोदय-कारिणि! विजये जयन्ति अपराजिते सर्व-सुन्दरि रक्तांशुके सूर्य-कोटि-शशांकेन्द्र-कोटि-सुशीतले अग्नि-कोटि-दहन-शीले यम-कोटि-क्रूरे वायु-कोटि-वहन-सुशीतले !
ॐ-कार-नाद-बिन्दु-रुपिणि निगमागम-मार्ग-दायिनि महिषासुर-निर्दलनि धूम्र-लोचन-वध-परायणे चण्ड-मुण्डादि-सिरच्छेदिनि रक्त-बीजादि-रुधिर-शोषणि रक्त-पान-प्रिये महा-योगिनि भूत-वैताल-भैरवादि-तुष्टि-विधायनि शुम्भ-निशुम्भ-शिरच्छेदिनि ! निखिला-सुर-बल-खादिनि त्रिदश-राज्य-दायिनि सर्व-स्त्री-रत्न-रुपिणि दिव्य-देह-निर्गुणे सगुणे सदसत्-रुप-धारिणि सुर-वरदे भक्त-त्राण-तत्परे।
वर-वरदे सहस्त्राक्षरे अयुताक्षरे सप्त-कोटि-चामुण्डा-रुपिणि नव-कोटि-कात्यायनी-रुपे अनेक-लक्षालक्ष-स्वरुपे इन्द्राग्नि ब्रह्माणि रुद्राणि ईशानि भ्रामरि भीमे नारसिंहे ! त्रय-त्रिंशत्-कोटि-दैवते अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायिके चतुरशीति-मुनि-जन-संस्तुते ! सप्त-कोटि-मन्त्र-स्वरुपे महा-काले रात्रि-प्रकाशे कला-काष्ठादि-रुपिणि चतुर्दश-भुवन-भावाविकारिणि गरुड-गामिनि ! कों-कार हों-कार ह्रीं-कार श्रीं-कार दलेंकार जूँ-कार सौं-कार ऐं-कार क्लें-कार ह्रीं-कार ह्रौं-कार हौं-कार-नाना-बीज-कूट-निर्मित-शरीरे नाना-बीज-मन्त्र-राग-विराजते ! सकल-सुन्दरी-गण-सेवते करुणा-रस-कल्लोलिनि कल्प-वृक्षाधिष्ठिते चिन्ता-मणि-द्वीपेऽवस्थिते मणि-मन्दिर-निवासे ! चापिनि खडिगनि चक्रिणि गदिनि शंखिनि पद्मिनि निखिल-भैरवाधिपति-समस्त-योगिनी-परिवृते !
कालि कङ्कालि तोर-तोतले सु-तारे ज्वाला-मुखि छिन्न-मस्तके भुवनेश्वरि ! त्रिपुरे लोक-जननि विष्णु-वक्ष-स्थलालङ्कारिणि ! अजिते अमिते अमराधिपे अनूप-सरिते गर्भ-वासादि दुःखापहारिणि मुक्ति-क्षेमाधिषयनि शिवे शान्ति-कुमारि देवि ! सूक्त-दश-शताक्षरे चण्डि चामुण्डे महा-कालि महा-लक्ष्मि महा-सरस्वति त्रयी-विग्रहे ! प्रसीद-प्रसीद सर्व-मनोरथान् पूरय सर्वारिष्ट-विघ्नं छेदय-छेदय, सर्व-ग्रह-पीडा-ज्वरोग्र-भयं विध्वंसय-विध्वंसय, सर्व-त्रिभुवन-जातं वशय-वशय, मोक्ष-मार्गं दर्शय-दर्शय, ज्ञान-मार्गं प्रकाशय-प्रकाशय, अज्ञान-तमो नाशय-नाशय, धन-धान्यादि कुरु-कुरु, सर्व-कल्याणानि कल्पय-कल्पय, मां रक्ष-रक्ष, सर्वापद्भ्यो निस्तारय-निस्तारय। मम वज्र-शरीरं साधय-साधय, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमोऽस्तु ते स्वाहा।।

१॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमो दैव्यै महा-देव्यै, शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै, नियताः प्रणताः स्म ताम्।।

२॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सर्व-मंगल-माङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थ-साधिके !
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि ! नारायणि नमोऽस्तु ते ।।

३॰ सर्व-स्वरुपे सर्वेशे, सर्व-शक्ति-समन्विते !
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते।।
सिद्धि-चण्डी-महा-मन्त्रं, यः पठेत् प्रयतो नरः। सर्व-सिद्धिमवाप्नोति, सर्वत्र विजयी भवेत्।।
संग्रामेषु जयेत् शत्रून्, मातंगं इव केसरी। वशयेत् सदा निखिलान्, विशेषेण महीपतीन्।।
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं, सर्वेश्वर्य-पुरःसरम्। तस्य नश्यन्ति विघ्नानि, ग्रह-पीडाश्च वारणम्।।
पराभिचार-शमनं, तीव्र-दारिद्रय-नाशनं। सर्व-कल्याण-निलयं, देव्याः सन्तोष-कारकम्।।
सहस्त्रावृत्तितस्तु, देवि ! मनोरथ-समृद्धिदम्। द्वि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, सर्व-संकट-नाशनम्।।
त्रि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, वशयेद् राज-योषितम्।
अयुतं प्रपठेद् यस्तु, सर्वत्र चैवातन्द्रितः। स पश्येच्चण्डिकां साक्षात्, वरदान-कृतोद्यमाम्।।
इदं रहस्यं परमं, गोपनीयं प्रयत्नतः। वाच्यं न कस्यचित् देवि ! विधानमस्थ सुन्दरि।।
।।श्रीसिद्धि-डामरे शिव-देवी-संवादे सहस्त्राक्षरं सिद्धि-चण्डी-महा-विद्योत्तमाम् सम्पूर्णम्।।

शिव सहस्र नाम स्तोत्रम्

शिव सहस्र नाम स्तोत्रम्

स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः प्रवरो वरदो वरः ।
सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः ॥ 1 ॥

जटी चर्मी शिखंडी च सर्वांगः सर्वांगः सर्वभावनः ।
हरिश्च हरिणाक्शश्च सर्वभूतहरः प्रभुः ॥ 2 ॥

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः ।
श्मशानचारी भगवानः खचरो गोचरोऽर्दनः ॥ 3 ॥

अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूत भावनः ।
उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः ॥ 4 ॥

महारूपो महाकायो वृषरूपो महायशाः ।
महाऽऽत्मा सर्वभूतश्च विरूपो वामनो मनुः ॥ 5 ॥

लोकपालोऽंतर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः ।
पवित्रश्च महांश्चैव नियमो नियमाश्रयः ॥ 6 ॥

सर्वकर्मा स्वयंभूश्चादिरादिकरो निधिः ।
सहस्राक्शो विरूपाक्शः सोमो नक्शत्रसाधकः ॥ 7 ॥

चंद्रः सूर्यः गतिः केतुर्ग्रहो ग्रहपतिर्वरः ।
अद्रिरद्\{\}र्यालयः कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः ॥ 8 ॥

महातपा घोर तपाऽदीनो दीनसाधकः ।
संवत्सरकरो मंत्रः प्रमाणं परमं तपः ॥ 9 ॥

योगी योज्यो महाबीजो महारेता महातपाः ।
सुवर्णरेताः सर्वघ्यः सुबीजो वृषवाहनः ॥ 10 ॥

दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकंठ उमापतिः ।
विश्वरूपः स्वयं श्रेष्ठो बलवीरोऽबलोगणः ॥ 11 ॥

गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम एव च ।
पवित्रं परमं मंत्रः सर्वभाव करो हरः ॥ 12 ॥

कमंडलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवानः ।
अशनी शतघ्नी खड्गी पट्टिशी चायुधी महानः ॥ 13 ॥

स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः ।
उष्णिषी च सुवक्त्रश्चोदग्रो विनतस्तथा ॥ 14 ॥

दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च ।
सृगाल रूपः सर्वार्थो मुंडः कुंडी कमंडलुः ॥ 15 ॥

अजश्च मृगरूपश्च गंधधारी कपर्द्यपि ।
उर्ध्वरेतोर्ध्वलिंग उर्ध्वशायी नभस्तलः ॥ 16 ॥

त्रिजटैश्चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः ।
अहश्चरोऽथ नक्तं च तिग्ममन्युः सुवर्चसः ॥ 17 ॥

गजहा दैत्यहा लोको लोकधाता गुणाकरः ।
सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्मांबरावृतः ॥ 18 ॥

कालयोगी महानादः सर्ववासश्चतुष्पथः ।
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः ॥ 19 ॥

बहुभूतो बहुधनः सर्वाधारोऽमितो गतिः ।
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलासकः ॥ 20 ॥

घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरि चरो नभः ।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यनिंदितः ॥ 21 ॥

अमर्षणो मर्षणात्मा यघ्यहा कामनाशनः ।
दक्शयघ्यापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा ॥ 22 ॥

तेजोऽपहारी बलहा मुदितोऽर्थोऽजितो वरः ।
गंभीरघोषो गंभीरो गंभीर बलवाहनः ॥ 23 ॥

न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्शकर्णस्थितिर्विभुः ।
सुदीक्श्णदशनश्चैव महाकायो महाननः ॥ 24 ॥

विष्वक्सेनो हरिर्यघ्यः संयुगापीडवाहनः ।
तीक्श्ण तापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवितः ॥ 25 ॥

विष्णुप्रसादितो यघ्यः समुद्रो वडवामुखः ।
हुताशनसहायश्च प्रशांतात्मा हुताशनः ॥ 26 ॥

उग्रतेजा महातेजा जयो विजयकालवितः ।
ज्योतिषामयनं सिद्धिः संधिर्विग्रह एव च ॥ 27 ॥

शिखी दंडी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली ।
वैणवी पणवी ताली कालः कालकटंकटः ॥ 28 ॥

नक्शत्रविग्रह विधिर्गुणवृद्धिर्लयोऽगमः ।
प्रजापतिर्दिशा बाहुर्विभागः सर्वतोमुखः ॥ 29 ॥

विमोचनः सुरगणो हिरण्यकवचोद्भवः ।
मेढ्रजो बलचारी च महाचारी स्तुतस्तथा ॥ 30 ॥

सर्वतूर्य निनादी च सर्ववाद्यपरिग्रहः ।
व्यालरूपो बिलावासी हेममाली तरंगवितः ॥ 31 ॥

त्रिदशस्त्रिकालधृकः कर्म सर्वबंधविमोचनः ।
बंधनस्त्वासुरेंद्राणां युधि शत्रुविनाशनः ॥ 32 ॥

सांख्यप्रसादो सुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः ।
प्रस्कंदनो विभागश्चातुल्यो यघ्यभागवितः ॥ 33 ॥

सर्वावासः सर्वचारी दुर्वासा वासवोऽमरः ।
हेमो हेमकरो यघ्यः सर्वधारी धरोत्तमः ॥ 34 ॥

लोहिताक्शो महाऽक्शश्च विजयाक्शो विशारदः ।
संग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः ॥ 35 ॥

मुख्योऽमुख्यश्च देहश्च देह ऋद्धिः सर्वकामदः ।
सर्वकामप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृकः ॥ 36 ॥

सर्वकामवरश्चैव सर्वदः सर्वतोमुखः ।
आकाशनिधिरूपश्च निपाती उरगः खगः ॥ 37 ॥

रौद्ररूपोंऽशुरादित्यो वसुरश्मिः सुवर्चसी ।
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः ॥ 38 ॥

सर्वावासी श्रियावासी उपदेशकरो हरः ।
मुनिरात्म पतिर्लोके संभोज्यश्च सहस्रदः ॥ 39 ॥

पक्शी च पक्शिरूपी चातिदीप्तो विशांपतिः ।
उन्मादो मदनाकारो अर्थार्थकर रोमशः ॥ 40 ॥

वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्शिणश्च वामनः ।
सिद्धयोगापहारी च सिद्धः सर्वार्थसाधकः ॥ 41 ॥

भिक्शुश्च भिक्शुरूपश्च विषाणी मृदुरव्ययः ।
महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवांपतिः ॥ 42 ॥

वज्रहस्तश्च विष्कंभी चमूस्तंभनैव च ।
ऋतुरृतु करः कालो मधुर्मधुकरोऽचलः ॥ 43 ॥

वानस्पत्यो वाजसेनो नित्यमाश्रमपूजितः ।
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी सुचारवितः ॥ 44 ॥

ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकधृकः ।
निमित्तस्थो निमित्तं च नंदिर्नंदिकरो हरिः ॥ 45 ॥

नंदीश्वरश्च नंदी च नंदनो नंदिवर्धनः ।
भगस्याक्शि निहंता च कालो ब्रह्मविदांवरः ॥ 46 ॥

चतुर्मुखो महालिंगश्चारुलिंगस्तथैव च ।
लिंगाध्यक्शः सुराध्यक्शो लोकाध्यक्शो युगावहः ॥ 47 ॥

बीजाध्यक्शो बीजकर्ताऽध्यात्मानुगतो बलः ।
इतिहास करः कल्पो गौतमोऽथ जलेश्वरः ॥ 48 ॥

दंभो ह्यदंभो वैदंभो वैश्यो वश्यकरः कविः ।
लोक कर्ता पशु पतिर्महाकर्ता महौषधिः ॥ 49 ॥

अक्शरं परमं ब्रह्म बलवानः शक्र एव च ।
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो मनोगतिः ॥ 50 ॥

बहुप्रसादः स्वपनो दर्पणोऽथ त्वमित्रजितः ।
वेदकारः सूत्रकारो विद्वानः समरमर्दनः ॥ 51 ॥

महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः ।
अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः ॥ 52 ॥

वृषणः शंकरो नित्यो वर्चस्वी धूमकेतनः ।
नीलस्तथाऽंगलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः ॥ 53 ॥

स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः ।
उत्संगश्च महांगश्च महागर्भः परो युवा ॥ 54 ॥

कृष्णवर्णः सुवर्णश्चेंद्रियः सर्वदेहिनामः ।
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः ॥ 55 ॥

महामूर्धा महामात्रो महानेत्रो दिगालयः ।
महादंतो महाकर्णो महामेढ्रो महाहनुः ॥ 56 ॥

महानासो महाकंबुर्महाग्रीवः श्मशानधृकः ।
महावक्शा महोरस्को अंतरात्मा मृगालयः ॥ 57 ॥

लंबनो लंबितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः ।
महादंतो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः ॥ 58 ॥

महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः ।
असपत्नः प्रसादश्च प्रत्ययो गिरि साधनः ॥ 59 ॥

स्नेहनोऽस्नेहनश्चैवाजितश्च महामुनिः ।
वृक्शाकारो वृक्श केतुरनलो वायुवाहनः ॥ 60 ॥

मंडली मेरुधामा च देवदानवदर्पहा ।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋकःसहस्रामितेक्शणः ॥ 61 ॥

यजुः पाद भुजो गुह्यः प्रकाशो जंगमस्तथा ।
अमोघार्थः प्रसादश्चाभिगम्यः सुदर्शनः ॥ 62 ॥

उपहारप्रियः शर्वः कनकः काझ्ण्चनः स्थिरः ।
नाभिर्नंदिकरो भाव्यः पुष्करस्थपतिः स्थिरः ॥ 63 ॥

द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यघ्यो यघ्यसमाहितः ।
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः ॥ 64 ॥

सगणो गण कारश्च भूत भावन सारथिः ।
भस्मशायी भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः ॥ 65 ॥

अगणश्चैव लोपश्च महाऽऽत्मा सर्वपूजितः ।
शंकुस्त्रिशंकुः संपन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः ॥ 66 ॥

आश्रमस्थः कपोतस्थो विश्वकर्मापतिर्वरः ।
शाखो विशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यमुजालः सुनिश्चयः ॥ 67 ॥

कपिलोऽकपिलः शूरायुश्चैव परोऽपरः ।
गंधर्वो ह्यदितिस्तार्क्श्यः सुविघ्येयः सुसारथिः ॥ 68 ॥

परश्वधायुधो देवार्थ कारी सुबांधवः ।
तुंबवीणी महाकोपोर्ध्वरेता जलेशयः ॥ 69 ॥

उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिंदितः ।
सर्वांगरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः ॥ 70 ॥

बंधनो बंधकर्ता च सुबंधनविमोचनः ।
सयघ्यारिः सकामारिः महादंष्ट्रो महाऽऽयुधः ॥ 71 ॥

बाहुस्त्वनिंदितः शर्वः शंकरः शंकरोऽधनः ।
अमरेशो महादेवो विश्वदेवः सुरारिहा ॥ 72 ॥

अहिर्बुध्नो निरृतिश्च चेकितानो हरिस्तथा ।
अजैकपाच्च कापाली त्रिशंकुरजितः शिवः ॥ 73 ॥

धन्वंतरिर्धूमकेतुः स्कंदो वैश्रवणस्तथा ।
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः ॥ 74 ॥

प्रभावः सर्वगो वायुरर्यमा सविता रविः ।
उदग्रश्च विधाता च मांधाता भूत भावनः ॥ 75 ॥

रतितीर्थश्च वाग्मी च सर्वकामगुणावहः ।
पद्मगर्भो महागर्भश्चंद्रवक्त्रोमनोरमः ॥ 76 ॥

बलवांश्चोपशांतश्च पुराणः पुण्यचझ्ण्चुरी ।
कुरुकर्ता कालरूपी कुरुभूतो महेश्वरः ॥ 77 ॥

सर्वाशयो दर्भशायी सर्वेषां प्राणिनांपतिः ।
देवदेवः मुखोऽसक्तः सदसतः सर्वरत्नवितः ॥ 78 ॥

कैलास शिखरावासी हिमवदः गिरिसंश्रयः ।
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः ॥ 79 ॥

वणिजो वर्धनो वृक्शो नकुलश्चंदनश्छदः ।
सारग्रीवो महाजत्रु रलोलश्च महौषधः ॥ 80 ॥

सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्चंदो व्याकरणोत्तरः ।
सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः ॥ 81 ॥

प्रभावात्मा जगत्कालस्थालो लोकहितस्तरुः ।
सारंगो नवचक्रांगः केतुमाली सभावनः ॥ 82 ॥

भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिंदितः ॥ 83 ॥

वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः ।
अमोघः संयतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः ॥ 84 ॥

धृतिमानः मतिमानः दक्शः सत्कृतश्च युगाधिपः ।
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरः ॥ 85 ॥

हिरण्यबाहुश्च तथा गुहापालः प्रवेशिनामः ।
प्रतिष्ठायी महाहर्षो जितकामो जितेंद्रियः ॥ 86 ॥

गांधारश्च सुरालश्च तपः कर्म रतिर्धनुः ।
महागीतो महानृत्तोह्यप्सरोगणसेवितः ॥ 87 ॥

महाकेतुर्धनुर्धातुर्नैक सानुचरश्चलः ।
आवेदनीय आवेशः सर्वगंधसुखावहः ॥ 88 ॥

तोरणस्तारणो वायुः परिधावति चैकतः ।
संयोगो वर्धनो वृद्धो महावृद्धो गणाधिपः ॥ 89 ॥

नित्यात्मसहायश्च देवासुरपतिः पतिः ।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च द्विविधश्च सुपर्वणः ॥ 90 ॥

आषाढश्च सुषाडश्च ध्रुवो हरि हणो हरः ।
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः ॥ 91 ॥

शिरोहारी विमर्शश्च सर्वलक्शण भूषितः ।
अक्शश्च रथ योगी च सर्वयोगी महाबलः ॥ 92 ॥

समाम्नायोऽसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः ।
निर्जीवो जीवनो मंत्रः शुभाक्शो बहुकर्कशः ॥ 93 ॥

रत्न प्रभूतो रक्तांगो महाऽर्णवनिपानवितः ।
मूलो विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपो निधिः ॥ 94 ॥

आरोहणो निरोहश्च शलहारी महातपाः ।
सेनाकल्पो महाकल्पो युगायुग करो हरिः ॥ 95 ॥

युगरूपो महारूपो पवनो गहनो नगः ।
न्याय निर्वापणः पादः पंडितो ह्यचलोपमः ॥ 96 ॥

बहुमालो महामालः सुमालो बहुलोचनः ।
विस्तारो लवणः कूपः कुसुमः सफलोदयः ॥ 97 ॥

वृषभो वृषभांकांगो मणि बिल्वो जटाधरः ।
इंदुर्विसर्वः सुमुखः सुरः सर्वायुधः सहः ॥ 98 ॥

निवेदनः सुधाजातः सुगंधारो महाधनुः ।
गंधमाली च भगवानः उत्थानः सर्वकर्मणामः ॥ 99 ॥

मंथानो बहुलो बाहुः सकलः सर्वलोचनः ।
तरस्ताली करस्ताली ऊर्ध्व संहननो वहः ॥ 100 ॥

छत्रं सुच्छत्रो विख्यातः सर्वलोकाश्रयो महानः ।
मुंडो विरूपो विकृतो दंडि मुंडो विकुर्वणः ॥ 101 ॥

हर्यक्शः ककुभो वज्री दीप्तजिह्वः सहस्रपातः ।
सहस्रमूर्धा देवेंद्रः सर्वदेवमयो गुरुः ॥ 102 ॥

सहस्रबाहुः सर्वांगः शरण्यः सर्वलोककृतः ।
पवित्रं त्रिमधुर्मंत्रः कनिष्ठः कृष्णपिंगलः ॥ 103 ॥

ब्रह्मदंडविनिर्माता शतघ्नी शतपाशधृकः ।
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः ॥ 104 ॥

गभस्तिर्ब्रह्मकृदः ब्रह्मा ब्रह्मविदः ब्राह्मणो गतिः ।
अनंतरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयंभुवः ॥ 105 ॥

ऊर्ध्वगात्मा पशुपतिर्वातरंहा मनोजवः ।
चंदनी पद्ममालाऽग्\{\}र्यः सुरभ्युत्तरणो नरः ॥ 106 ॥

कर्णिकार महास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृकः ।
उमापतिरुमाकांतो जाह्नवी धृगुमाधवः ॥ 107 ॥

वरो वराहो वरदो वरेशः सुमहास्वनः ।
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिंगलः ॥ 108 ॥

प्रीतात्मा प्रयतात्मा च संयतात्मा प्रधानधृकः ।
सर्वपार्श्व सुतस्तार्क्श्यो धर्मसाधारणो वरः ॥ 109 ॥

चराचरात्मा सूक्श्मात्मा सुवृषो गो वृषेश्वरः ।
साध्यर्षिर्वसुरादित्यो विवस्वानः सविताऽमृतः ॥ 110 ॥

व्यासः सर्वस्य संक्शेपो विस्तरः पर्ययो नयः ।
ऋतुः संवत्सरो मासः पक्शः संख्या समापनः ॥ 111 ॥

कलाकाष्ठा लवोमात्रा मुहूर्तोऽहः क्शपाः क्शणाः ।
विश्वक्शेत्रं प्रजाबीजं लिंगमाद्यस्त्वनिंदितः ॥ 112 ॥

सदसदः व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्शद्वारं त्रिविष्टपमः ॥ 113 ॥

निर्वाणं ह्लादनं चैव ब्रह्मलोकः परागतिः ।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः ॥ 114 ॥

देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः ।
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः ॥ 115 ॥

देवासुरगणाध्यक्शो देवासुरगणाग्रणीः ।
देवातिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः ॥ 116 ॥

देवासुरेश्वरोदेवो देवासुरमहेश्वरः ।
सर्वदेवमयोऽचिंत्यो देवताऽऽत्माऽऽत्मसंभवः ॥ 117 ॥

उद्भिदस्त्रिक्रमो वैद्यो विरजो विरजोऽंबरः ।
ईड्यो हस्ती सुरव्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः ॥ 118 ॥

विबुधाग्रवरः श्रेष्ठः सर्वदेवोत्तमोत्तमः ।
प्रयुक्तः शोभनो वर्जैशानः प्रभुरव्ययः ॥ 119 ॥

गुरुः कांतो निजः सर्गः पवित्रः सर्ववाहनः ।
शृंगी शृंगप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः ॥ 120 ॥

अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधनः ।
ललाटाक्शो विश्वदेहो हरिणो ब्रह्मवर्चसः ॥ 121 ॥

स्थावराणांपतिश्चैव नियमेंद्रियवर्धनः ।
सिद्धार्थः सर्वभूतार्थोऽचिंत्यः सत्यव्रतः शुचिः ॥ 122 ॥

व्रताधिपः परं ब्रह्म मुक्तानां परमागतिः ।
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमानः श्रीवर्धनो जगतः ॥ 123 ॥

श्रीमानः श्रीवर्धनो जगतः ॐ नम इति ॥

इति श्री महाभारते अनुशासन पर्वे श्री शिव सहस्रनाम स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥

हनुमानजी के इन बारह नामों को, दूर होगी हर बाधा ।

कंठस्थ कर लें हनुमानजी के इन बारह नामों को, दूर होगी हर बाधा ।

* अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥
कलियुग में हनुमानजी ही एकमात्र ऐसे देवता है जो बड़ी शीघ्रता से प्रसन्न हो जाते हैं। साधारण पूजा और राम नाम के जाप से भी लोगों को बजरंग बली के दर्शन होने की भी कई कहानियां सुनने को मिलती हैं। इनकी आराधना से कुंडली के सभी ग्रहदोष समाप्त होकर व्यक्ति के सौभाग्य का उदय होता है।

हनुमानजी को प्रसन्न करने और उनके दर्शन करने का एक ऐसा ही सरल उपाय है प्रतिदिन उनके 12 विशेष नामों का स्मरण करना। इस उपाय को सभी राशियों के लोग कर सकते हैं। इससे पवनपुत्र बहुल जल्दी प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। आनन्द रामायण में बताए गए हनुमानजी के ये 12 नाम इस प्रकार हैं-

हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल:। रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम:।।
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशन:। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।।
एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मन:। स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च य: पठेत्।।
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भेवत्। राजद्वारे गह्वरे च भयं नास्ति कदाचन।।

इस छोटी सी स्तुति में भगवान महावीर के 12 नाम हैं। इसके प्रतिदिन नियमित जप से व्यक्ति को सभी कष्टों से मुक्ति मिलती हैं तथा शनि की साढ़े साती व ढैय्या का असर समाप्त होता है। यदि इस श्लोक का जप नहीं करना चाहते हैं तो आगे दिए सभी बारह नामों का जप भी कर सकते हैं।

ये है इस स्तुति का अर्थ और स्तुति में दिए गए सभी बारह नाम

श्लोक की शुरुआत में ही पहला नाम हनुमान दिया गया है, दूसरा नाम है अंजनीसूनु, तीसरा नाम है वायुपुत्र, चौथा नाम है महाबल, पांचवां नाम है रामेष्ट यानी श्रीराम के प्रिय, छठा नाम है फाल्गुनसुख यानी अर्जुन के मित्र, सातवां नाम है पिंगाक्ष यानी भूरे नेत्रवाले, आठवां नाम है अमितविक्रम, नवां नाम है उदधिक्रमण यानी समुद्र को अतिक्रमण करने वाले, दसवां नाम है सीताशोकविनाशन यानी सीताजी के शोक का नाश करने वाले, ग्याहरवां नाम है लक्ष्मणप्राणदाता यानी लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवित करने वाले और बाहरवां नाम है

 दशग्रीवदर्पहा यानी रावण के घमंड को दूर करने वाले।
इन सभी नामों से हनुमानजी की शक्तियों तथा गुणों का बोध होता है। साथ ही भगवान राम के प्रति उनकी सेवा भक्ति भी स्पष्ट दिखाई देती है। इसी कारण इन नामों के जप से पवनपुत्र बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं।

यदि किसी व्यक्ति के जीवन में कठिन समय चल रहा है, कुंडली में किसी प्रकार का ग्रह दोष है, कार्यों में सफलता नहीं मिल पा रही है, घर-परिवार में सुख-शांति नहीं है या किसी प्रकार का भय सता रहा है, बुरे सपने आते हैं, विचारों की पवित्रता भंग हो गई है तो यहां दिए गए हनुमानजी बारह नामों का जप करना चाहिए।

-प्रात: काल सो कर उठते ही जिस अवस्था में भी हो बारह नामों को 11 बार लेनेवाला व्यक्ति दीर्घायु होता है।
-नित्य नियम के समय नाम लेने से इष्ट की प्राप्ति होती है।
-दोपहर में नाम लेनेवाला व्यक्ति धनवान होता है। दोपहर संध्या के समय नाम लेनेवाला व्यक्ति पारिवारिक सुखों से तृप्त होता है।

-रात्रि को सोते समय नाम लेनेवाले व्यक्ति की शत्रु से जीत होती है।

-उपरोक्त समय के अतिरिक्त इन बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश पाताल से रक्षा करते हैं।
-लाल स्याही से मंगलवार को भोजपत्र पर ये बारह नाम लिखकर मंगलवार के दिन ही ताबीज बांधने से कभी सिरदर्द नहीं होता। गले या बाजू में तांबे का ताबीज ज्यादा उत्तम है। भोजपत्र पर लिखने के लिए अनार की कलम होनी चाहिए।

॥ श्रीगरुडदण्दकम् ॥

हिंदू धर्म के अनुसार गरुड़ पक्षियों के राजा और भगवान विष्णु के वाहन हैं । गरुड़ कश्यप ऋषि और उनकी दूसरी पत्नी विनता की सन्तान हैं । श्री गरुड़ दण्डकम् का नियमित पाठ करने से साधक भयमुक्त व् शक्तिशाली के साथ साथ उसके जीवन की बहुत सी समस्या का समाधान हो जाता हैं , शनि की दशा का फल भी शुभ मिलता हैं पाप जनित ग्रह भी शुभ फल को प्रदान करते हैं !

॥ श्रीगरुडदण्दकम् ॥

ॐ नमो नारायणाय नमः 
श्रीमते निगमान्तमहादेशिकाय नमः ।
श्रीमान् वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी ।
वेदान्तचार्यवर्यो मे सन्निधत्ताम् सदाहृदि ॥
नमः पन्नगनद्धाय वैकुण्ठवशवर्तिने ।
श्रुतिसिन्धु सुधोत्पादमन्दराय गरुत्मते ॥ १॥

गरुडमखिलवेदनीडाधिरूढम् द्विषत्पीडनोत्कण्ठिताकुण्ठवैकुण्ठपीठीकृत ,
स्कन्धमीडे स्वनीडागतिप्रीतरुद्रासुकीर्तिस्तनाभोगगाढोपगूढ स्फुरत्कण्टकव्रात। वेधव्यथावेपमान द्विजिह्वाधिपाकल्पविष्फार्यमाण स्फटावाटिका,
रत्नरोचिश्छटा राजिनीराजितं कान्तिकल्लोलिनीराजितम् ॥ २॥

जयगरुड सुपर्ण दर्वीकराहार देवाधिपाहारहारिन्,
दिवौकस्पतिक्षिप्तदम्भोळिधाराकिणाकल्प कल्पान्तवातूल कल्पोदयानल्प। वीरायितोद्यच्चमत्कार दैत्यारि जैत्रध्वजारोहनिर्धारितोत्कर्ष, सङ्कर्षणात्मन् गरुत्मन् मरुत्पञ्च काधीश सत्यादिमूर्ते न कश्चित् समस्ते नमस्ते पुनस्ते नमः ॥ ३॥

नम इदमजहत्सपर्याय पर्यायनिर्यातपक्षानिलास्फालनोद्वेलपाथोधि,
चीचपेटाहतागाधपाताळभाङ्कारसंक्रुद्धनागेन्द्रपीडासृणीभावभास्वन्नखश्रेणये । चण्डतुण्डाय नृत्यद्भुजङ्गभ्रुवे वज्रिणे दंष्ट्रय तुभ्यमध्यात्मविद्या, विधेया विधेया भवद्दास्यमापादयेथा दयेथाश्च मे ॥ ४॥

मनुरनुगत पक्षिवक्त्र स्फुरत्तारकस्तावकश्चित्रभानुप्रियाशेखरस्त्रायतां,
नस्त्रिवर्गापवर्गप्रसूतिः परव्योमधामन् वलद्वेषिदर्पज्वलद्वालखिल्यप्रतिज्ञावतीर्ण स्थिरां तत्त्वबुद्धिं परां । भक्तिधेनुं जगन्मूलकन्दे मुकुन्दे म्हानन्ददोग्ध्रीं दधीथा, मुधाकामहीनामहीनामहीनान्तक ॥ ५॥

षट्त्रिंशद्गणचरणो नरपरिपाटीनवीनगुम्भगणः ।
विष्णुरथदण्डकोऽयं विघटयतु विपक्षवाहिनीव्यूहम् ॥ ६॥

विचित्रसिद्धिदः सोऽयं वेङ्कटेशविपश्चिता ।
गरुडध्वजतोषाय गीतो गरुडदण्डकः ॥ ७॥

कवितार्किकसिंहाय कल्यणगुणशालिने ।
श्रीमते वेङ्कटेशाय वेदान्तगुरवे नमः ॥

श्रीमते निगमान्तमहादेशिकाय नमः ॥

ॐ नमः चण्डिकायै स्वयं सिद्ध स्त्रोत

इंसान जीवन मे ने जाने कितने अक्षम्य अपराध करता हैं। साथ ही जीवन को व्यतीत करते हुए ने जाने वो कितनी समस्याओं से गिरा रहता हैं । समस्या का कोई नाम या उम्र या किसके किस प्रकार ही हैं। यह सिर्फ ऊपरवाला जानता हैं। अगर कोई जातक रविवार को निम्न पाठ करता हैं या संध्या काल मे प्रतिदिन करता हैं। वो जीवन मे किसी समस्याओं में नही गिरता साथ ही यश,कीर्ति,धन,ऐश्वर्य, भोग,सुख,आयु,निरोग, आदि से युक्त बन जाता हैं। , उग्र शक्ति चण्डिका होने से जीवन मे हो रहे क्लेश बंधन रोग पीड़ा से छुटकारा मिलता हैं।  निरंतर जाप करिए लाभ देखिए ।
ॐ नमः चण्डिकायै
ऊं ऊं ऊं उग्रचण्डं चचकितचकितं चंचला दुर्गनेत्रं हूँ हूँ हूंकाररूपं प्रहसितवदनं खङ्गपाशान् धरन्तम्।
दं दं दं दण्डपाणिं डमरुडिमिडिमां डण्डमानं भ्रमन्तंभ्रं भ्रं भ्रं भ्रान्तनेत्रं जयतु विजयते सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ १॥

घ्रं घ्रं घ्रं घोररूपं घुघुरितघुरितं घर्घरीनादघोषं हुं हुं हुं हास्यरूपं त्रिभुवनधरितं खेचरं क्षेत्रपालम्।
भ्रूं भ्रूं भ्रूं भूतनाथं सकलजनहितं तस्य देहापिशाचं हूँ हूँ हूंकारनादैः सकलभयहरं सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ २॥

व्रं व्रं व्रं व्योमघोरं भ्रमति भुवनतः सप्तपातालतालं क्रं क्रं क्रं कामरूपं धधकितधकितं तस्य हस्ते त्रिशूलम्।
द्रुं द्रुं द्रुं दुर्गरूपं भ्रमति च चरितं तस्य देहस्वरूपं मं मं मं मन्त्रसिद्धं सकलभयहरं सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ३॥

झं झं झंकाररूपं झमति झमझमा झंझमाना समन्तात्कं कं कंकालधारी धुधुरितधुरितं धुन्धुमारी कुमारी।
धूं धूं धूं धूम्रवर्णा भ्रमति भुवनतः कालपास्त्रिशूलं तं तं तं तीव्ररूपं मम भयहरणं सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ४॥

रं रं रं रायरुद्रं रुरुधितरुधितं दीर्घजिह्वाकरालंपं पं पं प्रेतरूपं समयविजयिनं शुम्भदम्भे निशुुम्भे।
संग्रामे प्रीतियाते जयतु विजयते सृष्टिसंहारकारीह्रीं ह्रीं ह्रींकारनादे भवभयहरणं सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ५॥

हूंकारी कालरुपी नरपिशितमुखा सान्द्ररौद्रारजिह्वे हूँकारी घोरनादे परमशिरशिखा हारती पिङ्गलाक्षे।
पङ्के जाताभिजाते चुरु चुरु चुरुते कामिनी काण्डकण्ठे कङ्काली कालरात्री भगवति वरदे सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ६॥

ष्ट्रीं ष्ट्रीं ष्ट्रींकारनादे त्रिभुवननमिते घोरघोरातिघोरं कं कं कं कालरूपं घुघुरितघुरितं घुं घुमा बिन्दुरूपी।
धूं धूं धूं धूम्रवर्णा भ्रमति भुवनतः कालपाशत्रिशूलं तं तं तं तीव्ररूपं मम भयहरणं सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ७॥

झ्रीं झ्रीं झ्रींकारवृन्दे प्रचरितमहसा वामहस्ते कपालं खं खं खं खङ्गहस्ते डमरुडिमडिमां मुण्डमालासुशोभाम्।
रुं रुं रुं रुद्रमालाभरणविभूषिता दिर्घजिह्वा कराला देवि श्री उग्रचण्डी भगवति वरदे सिद्धिचण्डी नमस्ते॥ ८॥

आरुणवर्णसङ्काशा खड्गफेटकबिन्दुका।
कामरूपी महादेवी उग्रचण्डी नमोऽस्तुते॥९॥

॥ श्री चण्डिकादण्डकस्तोत्रं सुसंपूर्णम्॥

।। दुर्लभ शरभेश्वर स्तोत्रं ।।

।।    दुर्लभ शरभेश्वर स्तोत्रं   ।।   
इस मंत्र प्रयोग के फल को गुप्त रखा जा रहा हैं क्योंकि इसके लाभ कोई 1,2 नही हैं ये अपार शक्तिशाली प्रयोग हैं साधना की पूर्ण जानकारी ना होने पर बिल्कुल भी ध्यान नही करे दुःखो में यह बहुत लाभ कारी हैं ।।

विनियोग- ॐ अस्य दारुण-सप्तक-महामन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषिः वृहती छन्सः श्री शरभो देवता ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यास- श्रीसदाशिव ऋषये नमः शिरसि। वृहती छन्दसे नमः मुखे। श्रीशरभ-देवतायै नमः हृदि। ममाभिष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।

मूल स्तोत्र
कापोद्रेकाति विर्यं निखिल परिकरं तार-हार-प्रदीप्तम्।
ज्वाला-मालाग्निदश्च स्मरतनुसकलं त्वामहं शालुवेशं।।
याचे त्वत्पाद्-पद्म-प्रणिहित-मनसं द्वेष्टि मां यः क्रियाभि।
तस्य प्राणावसानं कुरु शिव नियतं शूल-भिन्नस्य तूर्णम्।।१

शम्भो त्वद्धस्त-कुन्त-क्षत-रिपु-हृदयान्निस्स्त्रवल्लोहियौघम्।
पीत्वा पीत्वाऽति-दर्पं दिशि सततं त्वद्-गणाश्चण्ड-मुख्याः।।
गर्ज्जन्ति क्षिप्र-वेगा निखिल-भय-हराः भीकराः खेल-लोलाः।
सन्त्रस्त-ब्रह्म-देवा शरभ खग-पते त्राहि नः शालु-वेश।।२

सर्वाद्यं सर्व-निष्ठं सकल-भय-हरं नानुरुप्यं शरण्यम्।
याचेऽहं त्वाममोघं परिकर-सहितं द्वेष्टि योऽत्र स्थितं माम्।।
श्रीशम्भो त्वत्-कराब्ज-स्थित-मुशल-हतास्तस्य वक्ष-स्थलस्थ-
प्राणाः प्रेतेश-दूत-ग्रहण-परिभवाऽऽक्रोश-पूर्वं प्रयान्तु।।३

द्विष्मः क्षोण्यां वयं हि तव पद-कमल-ध्यान-निर्धूत-पापाः।
कृत्याकृत्यैर्वियुक्ताः विहग-कुल-पते खेलया बद्ध-मूर्ते।।
तूर्णं त्वद्धस्त-पद्मप्रधृत-परशुना खण्ड-खण्डी-कृताङ्गः।
स द्वेष्टी यातु याम्यं पुरमति-कलुषं काल-पाशाग्र-बद्धः।।४

भीम श्रीशालुवेश प्रणत-भय-हर प्राण-हृद् दुर्मदानाम्।
याचे-पञ्चास्य-गर्वं-प्रशमन-विहित-स्वेच्छयाऽऽबद्ध-मूर्ते।।
त्वामेवाशु त्वदंघ्य्रष्टक-नख-विलसद्-ग्रीव-जिह्वोदरस्य।
प्राणोत्क्राम-प्रयास-प्रकटित-हृदयस्यायुरल्पायतेऽस्य।।५

श्रीशूलं ते कराग्र-स्थित-मुशल-गदाऽऽवर्त-वाताभिघाता-
पाताऽऽघातारि-यूथ-त्रिदश-रिपु-गणोद्भूत-रक्तच्छटार्द्रम्।।
सन्दृष्ट्वाऽऽयोधने ज्यां निखिल-सुर-गणाश्चाशु नन्दन्तु नाना-
भूता-वेताल-पुङ्गाः क्षतजमरि-गणस्याशु मत्तः पिवन्तु।।६

त्वद्दोर्दण्डाग्र-शुण्डा-घटित-विनमयच्चण्ड-कोदण्ड-युक्तै-
र्वाणैर्दिव्यैरनेकैश्शिथिलित-वपुषः क्षीण-कोलाहलस्य।।
तस्य प्राणावसानं परशिव भवतो हेति-राज-प्रभावै-
स्तूर्णं पश्यामियो मां परि-हसति सदा त्वादि-मध्यान्त-हेतो।।७

फल-श्रुति
इति निशि प्रयतस्तु निरामिषो, यम-दिशं शिव-भावमनुस्मरन्।
प्रतिदिनं दशधाऽपि दिन-त्रयं, जपति यो ग्रह-दारुण-सप्तकम्।।८
इति गुह्यं महाबीजं परमं रिपुनाशनम्।
भानुवारं समारभ्य मंगलान्तं जपेत् सुधीः।।९
इत्याकाश भैरव कल्पे प्रत्यक्ष सिद्धिप्रदे नरसिंह कृता शरभस्तुति।।

।। श्री अष्ट भैरव देव ।।

॥ भैरव  ॥
भैरव जी के अमुक स्त्रोत मंत्र का पाठ करने से जातक जीवन मे सभी समस्याओं से छुटकारा पाता हैं तथा व्यवसाय रोजगार में उन्नति पाता हैं , धन वैभव से सर्व शक्तिशाली बन जाता हैं । इसमे कोई संदेह नही हैं । शत्रु से छुटकारा, जैल बंधन, पीड़ा ग्रह पीड़ा, रोगों से छुटकारा होता हैं । अखिल सर्व सुखों का उपभोग करता हैं । इस जीवन मे राजा के समान द्रव की प्राप्ति होती है।।

आगमोक्त श्रुति कहती है ” भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:। मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥ ”

ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नमः।

नमस्कार मंत्र-
ॐ श्री भैरव्यै , ॐ मं महाभैरव्यै , ॐ सिं सिंह भैरव्यै , ॐ धूं धूम्र भैरव्यै,  ॐ भीं भीम भैरव्यै , ॐ उं उन्मत्त भैरव्यै , ॐ वं वशीकरण भैरव्यै , ॐ मों मोहन भैरव्यै |

॥ अष्टभैरव ध्यानम् ॥
असिताङ्गोरुरुश्चण्डः क्रोधश्चोन्मत्तभैरवः ।
कपालीभीषणश्चैव संहारश्चाष्टभैरवम् ॥

१) असिताङ्ग भैरव ध्यानम्
रक्तज्वालजटाधरं शशियुतं रक्ताङ्ग तेजोमयंअस्ते शूलकपालपाशडमरुं लोकस्य रक्षाकरम् ।
निर्वाणं शुनवाहनन्त्रिनयनं अनन्दकोलाहलं
वन्दे भूतपिशाचनाथ वटुकं क्षेत्रस्य पालं शिवम् ॥ १ ॥

२) रूरुभैरव ध्यानम्
निर्वाणं निर्विकल्पं निरूपजमलं निर्विकारं क्षकारंहुङ्कारं वज्रदंष्ट्रं हुतवहनयनं रौद्रमुन्मत्तभावम् ।
भट्कारं भक्तनागं भृकुटितमुखं भैरवं शूलपाणिं
वन्दे खड्गं कपालं डमरुकसहितं क्षेत्रपालन्नमामि॥ २ ॥

३) चण्डभैरव ध्यानम्
बिभ्राणं शुभ्रवर्णं द्विगुणदशभुजं पञ्चवक्त्रन्त्रिणेत्रं
दानञ्छत्रेन्दुहस्तं रजतहिममृतं शङ्खभेषस्यचापम् ।
शूलं खड्गञ्च बाणं डमरुकसिकतावञ्चिमालोक्य मालां सर्वाभीतिञ्च दोर्भीं भुजतगिरियुतं भैरवं सर्वसिद्धिम् ॥ ३ ॥

४)  क्रोधभैरव ध्यानम्
उद्यद्भास्कररूपनिभन्त्रिनयनं रक्ताङ्ग रागाम्बुजं
भस्माद्यं वरदं कपालमभयं शूलन्दधानं करे ।
नीलग्रीवमुदारभूषणशतं शन्तेशु मूढोज्ज्वलं
बन्धूकारुण वास अस्तमभयं देवं सदा भावयेत् ॥ ४ ॥

५) उन्मत्तभैरव ध्यानम्
एकं खट्वाङ्गहस्तं पुनरपि भुजगं पाशमेकन्त्रिशूलं
कपालं खड्गहस्तं डमरुकसहितं वामहस्ते पिनाकम् ।
चन्द्रार्कं केतुमालां विकृतिसुकृतिनं सर्वयज्ञोपवीतं
कालं कालान्तकारं मम भयहरं क्षेत्रपालन्नमामि ॥ ५ ॥

६) कपालभैरव ध्यानम्
वन्दे बालं स्फटिक सदृशं कुम्भलोल्लासिवक्त्रं
दिव्याकल्पैफणिमणिमयैकिङ्किणीनूपुनञ्च ।
दिव्याकारं विशदवदनं सुप्रसन्नं द्विनेत्रं
हस्ताद्यां वा दधानान्त्रिशिवमनिभयं वक्रदण्डौ कपालम् ॥ ६ ॥

७) भीषणभैरव ध्यानम्
त्रिनेत्रं रक्तवर्णञ्च सर्वाभरणभूषितम्
कपालं शूलहस्तञ्च वरदाभयपाणिनम् ।
सव्ये शूलधरं भीमं खट्वाङ्गं वामकेशवम् ॥ रक्तवस्त्रपरिधानं रक्तमाल्यानुलेपनम् ।
नीलग्रीवञ्च सौम्यञ्च सर्वाभरणभूषितम् ॥

नीलमेख समाख्यातं कूर्चकेशन्त्रिणेत्रकम् ।
नागभूषञ्च रौद्रञ्च शिरोमालाविभूषितम् ॥
नूपुरस्वनपादञ्च सर्प यज्ञोपवीतिनम् ।
किङ्किणीमालिका भूष्यं भीमरूपं भयावहम् ॥ ७ ॥
८)  संहार भैरव ध्यानम्
एकवक्त्रन्त्रिणेत्रञ्च हस्तयो द्वादशन्तथा ।
डमरुञ्चाङ्कुशं बाणं खड्गं शूलं भयान्वितम् ॥
धनुर्बाण कपालञ्च गदाग्निं वरदन्तथा ।
वामसव्ये तु पार्श्वेन आयुधानां विधन्तथा ॥
नीलमेखस्वरूपन्तु नीलवस्त्रोत्तरीयकम् ।
कस्तूर्यादि निलेपञ्च श्वेतगन्धाक्षतन्तथा ॥
श्वेतार्क पुष्पमालां त्रिकोट्यङ्गण सेविताम् ।
सर्वालङ्कार संयुक्तां संहारञ्च प्रकीर्तितम् ॥ ८ ॥

इति श्री भैरव स्तुति निरुद्र कुरुते ।

इन्द्र द्वारा राज्यलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए की गयी महालक्ष्मी स्तुति।

इन्द्र द्वारा राज्यलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए की गयी महालक्ष्मी स्तुति।
नित्य पाठ के लिए महालक्ष्मी स्तोत्र
पद्मा, पद्मालया, पद्मवनवासिनी, श्री, कमला, हरिप्रिया, इन्दिरा, रमा, समुद्रतनया, भार्गवी और जलधिजा आदि नामों से पूजित देवी महालक्ष्मी वैष्णवी शक्ति हैं। ये सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री और समस्त सम्पत्तियों को देने वाली हैं। इनकी कृपा के बिना मनुष्य में ऐश्वर्य का अभाव हो जाता है और इनकी कृपादृष्टि से गुणहीन मनुष्य को भी शील, विद्या, विनय, ओज, गाम्भीर्य और कान्ति आदि समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य सम्पूर्ण विश्व का आदर और प्रेम प्राप्तकर श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

इन्द्र कृत महालक्ष्मी स्तोत्र से सम्बन्धित कथा

एक बार देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर जा रहे थे। रास्ते में दुर्वासा मुनि मिले। मुनि ने अपने गले में पड़ी माला निकालकर इन्द्र के ऊपर फेंक दी। जिसे इन्द्र ने ऐरावत हाथी को पहना दिया। तीव्र गंध से आकर्षित होकर ऐरावत हाथी ने सूंड से माला उतारकर पृथ्वी पर फेंक दी। यह देखकर दुर्वासा मुनि ने इन्द्र को शाप देते हुए कहा–’इन्द्र! ऐश्वर्य के घमण्ड में तुमने मेरी दी हुई माला का आदर नहीं किया। यह माला नहीं, लक्ष्मी का धाम थी। इसलिए तुम्हारे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।’

महर्षि दुर्वासा के शाप से त्रिलोकी श्रीहीन हो गयी और इन्द्र की राज्यलक्ष्मी समुद्र में प्रविष्ट हो गयीं। देवताओं की प्रार्थना से जब वे प्रकट हुईं, तब उनका सभी देवता, ऋषि-मुनियों ने अभिषेक किया। देवी महालक्ष्मी के कृपाकटाक्ष से सम्पूर्ण विश्व समृद्धिशाली और सुख-शान्ति से सम्पन्न हो गया। इससे प्रभावित होकर देवराज इन्द्र ने उनकी स्तुति की–

महालक्ष्म्यष्टकम्

इन्द्र उवाच
नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।१।।

इन्द्र बोले–श्रीपीठ पर स्थित और देवताओं से पूजित होने वाली हे महामाये। तुम्हें नमस्कार है। हाथ में शंख, चक्र और गदा धारण करने वाली हे महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयंकरि।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।२।।

गरुड़ पर आरुढ़  हो कोलासुर को भय देने वाली और समस्त पापों को हरने वाली हे भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें प्रणाम है।

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरि।
सर्वदु:खहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।३।।

सब कुछ जानने वाली, सबको वर देने वाली, समस्त दुष्टों को भय देने वाली और सबके दु:खों को दूर करने वाली, हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।४।।

सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें सदा प्रणाम है।

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।५।।

हे देवि! हे आदि-अन्तरहित आदिशक्ति! हे महेश्वरि! हे योग से प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।६।।

हे देवि! तुम स्थूल, सूक्ष्म एवं महारौद्ररूपिणी हो, महाशक्ति हो, महोदरा हो और बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली हो। हे देवि महालक्ष्मि! तुम्हें नमस्कार है।

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणी।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।७।।

हे कमल के आसन पर विराजमान परब्रह्मस्वरूपिणी देवि! हे परमेश्वरि! हे जगदम्ब! हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।

श्वेताम्बरधरे देवि नानालंकारभूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।८।।

हे देवि तुम श्वेत वस्त्र धारण करने वाली और नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषिता हो। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त एवं अखिल लोक को जन्म देने वाली हो। हे महालक्ष्मि! तुम्हें मेरा प्रणाम है।

स्तोत्र पाठ का फल

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर:।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा।।९।।

जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर इस महालक्ष्म्यष्टक स्तोत्र का सदा पाठ करता है, वह सारी सिद्धियों और राजवैभव को प्राप्त कर सकता है।

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन्यधान्यसमन्वित:।।१०।।

जो प्रतिदिन एक समय पाठ करता है, उसके बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है। जो दो समय पाठ करता है, वह धन-धान्य से सम्पन्न होता है।

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा।।११।।

जो प्रतिदिन तीन काल पाठ करता है उसके महान शत्रुओं का नाश हो जाता है और उसके ऊपर कल्याणकारिणी वरदायिनी महालक्ष्मी सदा ही प्रसन्न होती हैं।

ऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र

ऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीऋण मोचन महा गणपति स्तोत्र मन्त्रस्य भगवान् शुक्राचार्य
ऋषिः, ऋण-मोचन-गणपतिः देवता, मम-ऋण-मोचनार्थं जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- भगवान् शुक्राचार्य ऋषये नमः शिरसि, ऋण-मोचन-गणपति देवतायै नमः
हृदि, मम-ऋण-मोचनार्थे जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।
॥मूल-स्तोत्र॥
ॐस्मरामिदेव-देवेश! वक्र-तुणडंमहा-बलम्।षडक्षरंकृपा-सिन्धु, नमामिऋण-मुक्तये॥१॥
महा-गणपतिंदेवं, महा-सत्त्वंमहा-बलम्।महा-विघ्न-हरंसौम्यं, नमामिऋण-मुक्तये॥२॥
एकाक्षरंएक-दन्तं, एक-ब्रह्मसनातनम्।एकमेवाद्वितीयंच, नमामिऋण-मुक्तये॥३॥
शुक्लाम्बरंशुक्ल-वर्णं, शुक्ल-गन्धानुलेपनम्।सर्व-शुक्ल-मयंदेवं, नमामिऋण-मुक्तये॥४॥
रक्ताम्बरंरक्त-वर्णं, रक्त-गन्धानुलेपनम्।रक्त-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥५॥
कृष्णाम्बरंकृष्ण-वर्णं, कृष्ण-गन्धानुलेपनम्।कृष्ण-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥६॥
पीताम्बरंपीत-वर्णं, पीत-गन्धानुलेपनम्।पीत-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥७॥
नीलाम्बरंनील-वर्णं, नील-गन्धानुलेपनम्।नील-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥८॥
धूम्राम्बरंधूम्र-वर्णं, धूम्र-गन्धानुलेपनम्।धूम्र-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥९॥
सर्वाम्बरंसर्व-वर्णं, सर्व-गन्धानुलेपनम्।सर्व-पुष्पैपूज्यमानं, नमामिऋण-मुक्तये॥१०॥
भद्र-जातंचरुपंच, पाशांकुश-धरंशुभम्।सर्व-विघ्न-हरंदेवं, नमामिऋण-मुक्तये॥११॥
॥फल-श्रुति॥
यःपठेत्ऋण-हरं-स्तोत्रं, प्रातः-कालेसुधीनरः।षण्मासाभ्यन्तरेचैव, ऋणच्छेदोभविष्यति॥
भावार्थ: जोव्यक्तिउक्त ऋणमोचनस्तोत्र काविधि-विधानवपूर्णनिष्ठासेनियमितप्रातःकालपाठकरताहैंउसकेसमस्तप्रकारके
ऋणोंसेमुक्तिमिलजातीहैं।

अथ श्रीनृसिंह कवच तंत्र दोष विनाशक

अथ श्रीनृसिंह कवच तंत्र दोष विनाशक
विधि :-
नृसिंह कवच और महाकली कवच, हनुमत कवच, का मंगलवार, गुरुवार, शनिवार से पाठ शुरु करें, जो भी कार्य हो उसका संकल्प कर नित्य एक – २ पाठ करें जब आपका मनवांछित कार्य पूर्ण हो जावे तब नरसिंह भैरव के लिए सवासेर का रोट और माता के लिए सवासेर की कडाही करें !!

ॐ नमोनृसिंहाय सर्व दुष्ट विनाशनाय सर्वंजन मोहनाय सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु स्वाहा ! ॐ नमो नृसिंहाय नृसिंहराजाय नरकेशाय नमो नमस्ते ! ॐ नमः कालाय काल द्रष्टाय कराल वदनाय च !! ॐ उग्राय उग्र वीराय उग्र विकटाय उग्र वज्राय वज्र देहिने रुद्राय रुद्र घोराय भद्राय भद्रकारिणे ॐ ज्रीं ह्रीं नृसिंहाय नमः स्वाहा !! ॐ नमो नृसिंहाय कपिलाय कपिल जटाय अमोघवाचाय सत्यं सत्यं व्रतं महोग्र प्रचण्ड रुपाय ! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ॐ ह्रुं ह्रु ह्रु ॐ क्ष्रां क्ष्रीं क्ष्रौं फट् स्वाहा ! ॐ नमो नृसिंहाय कपिल जटाय ममः सर्व रोगान् बन्ध बन्ध, सर्व ग्रहान बन्ध बन्ध, सर्व दोषादीनां बन्ध बन्ध, सर्व वृश्चिकादिनां विषं बन्ध बन्ध, सर्व भूत प्रेत, पिशाच, डाकिनी शाकिनी, यंत्र मंत्रादीन् बन्ध बन्ध, कीलय कीलय चूर्णय चूर्णय, मर्दय मर्दय, ऐं ऐं एहि एहि, मम येये विरोधिन्स्तान् सर्वान् सर्वतो हन हन, दह दह, मथ मथ, पच पच, चक्रेण, गदा, वज्रेण भष्मी कुरु कुरु स्वाहा ! ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं ह्रीं क्ष्रीं क्ष्रीं क्ष्रौं नृसिंहाय नमः स्वाहा !! ॐ आं ह्रीं क्षौ क्रौं ह्रुं फट्, ॐ नमो भगवते सुदर्शन नृसिंहाय मम विजय रुपे कार्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यमेनकार्य शीघ्रं साधय साधय एनं सर्व प्रतिबन्धकेभ्यः सर्वतो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा !! ॐ क्षौं नमो भगवते नृसिंहाय एतद्दोषं प्रचण्ड चक्रेण जहि जहि स्वाहा !! ॐ नमो भगवते महानृसिंहाय कराल वदन दंष्ट्राय मम विघ्नान् पच पच स्वाहा !! ॐ नमो नृसिंहाय हिरण्यकश्यप वक्षस्थल विदारणाय त्रिभुवन व्यापकाय भूत-प्रेत पिशाच डाकिनी-शाकिनी कालनोन्मूलनाय मम शरीरं स्थन्भोद्भव समस्त दोषान् हन हन, शर शर, चल चल, कम्पय कम्पय, मथ मथ, हुं फट् ठः ठः !!

ॐ नमो भगवते भो भो सुदर्शन नृसिंह ॐ आं ह्रीं क्रौं क्ष्रौं हुं फट् ॐ सहस्त्रार मम अंग वर्तमान अमुक रोगं दारय दारय दुरितं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रैं ह्रौं ह्रुं ह्रुं फट् मम शत्रु हन हन द्विष द्विष तद पचयं कुरु कुरु मम सर्वार्थं साधय साधय !! ॐ नमो भगवते नृसिंहाय ॐ क्ष्रौं क्रौं आं ह्रीं क्लीं श्रीं रां स्फ्रें ब्लुं यं रं लं वं षं स्त्रां हुं फट् स्वाहा !! ॐ नमः भगवते नृसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे अविराभिर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् !! रंधय रंधय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा अभयमभयात्मनि भूयिष्ठाः ॐ क्षौम् !! ॐ नमो भगवते तुभ्य पुरुषाय महात्मने हरिंऽद्भुत सिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने !! ॐ उग्रं उग्रं महाविष्णुं सकलाधारं सर्वतोमुखम् !! नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम् !! इति नृसिंह कवच !! ब्रह्म सावित्री संवादे नृसिंह पुराण अर्न्तगत कवच सम्पूर्णम !!

श्री कुबेरजी महाराज धन के स्वामी

श्री कुबेरजी महाराज धन के स्वामी एक ऐसा देश भारत है। जहां हमारे हिंदू धर्म में हर वस्तु विशेष की पूजा देवी-देवताओं के रुप में की जाती है जो चीजें हमारे जीवन की जरूरत है या जिनके बिना हम जी नहीं सकते उन्हें हम देवी-देवताओं के रूप में पूजते हैं जैसे अग्नि, पानी, वायु ,सूर्य, वर्षा आदि आज का युग जिसमें हम सब के लिए सबसे जरूरी और सर्वश्रेष्ठ जो चीज है वह है धन। हर इंसान सारा जीवन धन के लिए जूझता है कभी-कभी तो खुद की सेहत और रिश्तो को धन के लिए दांव पर लगा देता है, इसलिए आज के युग में जहां धन इतना जरूरी है वहां धन के देवता की पूजा करना भी उतना ही आवश्यक है।
कुबेर कलयुग में ही नहीं उससे भी पहले कई युगों से पूजे जाते हैं वैसे तो कुबेर की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं, परंतु उनकी एक कथा जो पुराणों में मिलती है वह यह है कि पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्रवा थे और विश्रवा की 4 पत्नियां थी जिनमें से एक पत्नी का नाम इडविडा था जिनसे कुबेर का जन्म हुआ। इडविडा राजा की पुत्री थी और कैकसी से रावण का जन्म हुआ, कैकसी राक्षसी थी। रावण और कुबेर दोनों सोतेले भाई थे, कहते हैं ब्रह्मा जी ने वरदान में विश्वकर्मा से सोने की लंका बनवाकर कुबेर को भेंट की थी और मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान भी दिया था परंतु रावण ने उस से ना केवल लंका बल्कि पुष्पक विमान भी छीन लिया था।
हमारे देश में विद्या और ज्ञान को ज्यादा महत्व दिया जाता है कोई भी देवी देवता है ऐसे नहीं है जो ज्ञान के प्रारूप ना हो यहां धन को इतना महत्व नहीं दिया जाता जितना ज्ञान को, अक्सर हम सुनते हैं कि ज्यादा धन होना अच्छा नहीं है ज्यादा धन होने से व्यक्ति धन के बोझ के नीचे दब जाता है इसलिए कथा वाचकों ने और मूर्तिकारों ने कुबेर को तीन टांग वाला और कुबड़ा दिखाया है परंतु वेदों में इसका कोई वृतांत नहीं मिलता कि कुबेर कुरूप थे ।
कुबेर के लिए एक और कहानी प्रचलित है कि कुबेर अपने पिछले जन्म में चोर थे, वह देर रात मंदिरों में चोरी करते थे, एक बार वो चोरी करने शिव मंदिर में घुसे,तब मंदिर में अंधेरा था और उन्होंने मंदिर में रोशनी के लिए दीपक जलाया लेकिन हवा ज्यादा चलने के कारण दीपक बुझ गया,कुबेर ने फिर दीपक जलाया,वह दीपक फिर बुझ गया। यह क्रम उन्होंने कई बार किया, वहां विराजमान भोले शंकर ने अपने दीपक को बुझने से बचाने के लिए खुश होकर कुबेर को धनपति होने का वरदान दिया इसी कारण अपने अगले जन्म में उनका जन्म कुबेर के रूप में हुआ।
एक और कथा बहुत प्रसिद्ध है कि एक बार कुबेर जी के मन में अहंकार आ गया कि मेरे पास अपार धन संपदा है मैं इससे कुछ भी कर सकता हूं जितने चाहे उतने लोगों का पेट भर सकता हूं मेरा खजाना कभी खाली नहीं हो सकता।इस बात के अहंकार में आकर उन्होंने कई देवों को खाने का निमंत्रण दिया। कुबेर शिवभक्त थे इसलिए सबसे पहले वह शिवजी के पास कैलाश गए और उनको खाने का निमंत्रण दिया परंतु शिवजी ने बड़ी विनम्रता के साथ उनका निमंत्रण यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वह कैलाश छोड़कर नहीं जा सकते इतने में पार्वती जी ने शिव भगवान से कहा कि आप निमंत्रण को अस्वीकार ना करें,हम अपने पुत्र गणेश को खाने पर भेज सकते हैं। फिर कुबेर जी गणेश जी का निमंत्रण सविकार करके वहां से चले गए अगले दिन कुबेर जी सभी देवताओं का स्वागत करने के लिए अपने महल के बाहर खड़े थे तभी गणेश जी वहां पधारें।कुबेर ने कहा कि आईए गजानन ,आप पेट भर कर खाइए यहां पर सब चीजें मौजूद हैं जब गणेश जी खाना खाने बैठे तो वह खाते ही रहे सब देवता खाना खा कर चले गए, परंतु गणेश जी खाते ही रहे ,अंदर पका हुआ सारा भोजन समाप्त हो गया ।
फिर कुबेर जी गणेश जी के पास आए उन्होंने कहा कि आपके लिए और भोजन पकाया जा रहा है आप इंतजार करें, गणेश जी गुस्से में आ गए वह रसोई घर में गए वहां सभी सब्जियां जो अधपकी थी वह सब उन्होंने खा ली। फिर भी उनका पेट नहीं भरा, इतने में वह गुस्से में आकर कुबेर के पीछे भागने लगे,दोनों भागते-भागते कैलाश पर्वत पर पहुंच गए वह शिव भगवान के पास जाकर कुबेर जी ने उनके पांव पकड़ लिए भगवान शिव ने गणेश जी से पूछा क्या आप ऐसा क्यों कर रहे हैं, गणेश जी ने कहा के कुबेर ने कहा था कि उनके पास खाने का सब सामान है जिससे उनका पेट भर जाएगा परंतु मेरा पेट अभी तक नहीं भरा भगवान शिव ने गणेश जी को मोदक खाने को दिए जिनसे उनका पेट भर गया ।इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है की अहंकार करने से किसी का पेट नहीं भरता सब कुछ होते हुए भी कुबेर भगवान गणेश का पेट नहीं भर सके उनके पास कभी न खत्म होने वाला धन है परंतु फिर भी वह गणेशजी जी की भूख नहीं मिटा पाए। यह कहानी उन व्यक्तियों के लिए शिक्षा है जो धनवान होने का अभिमान करते हैं इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि धन होना अच्छा है परंतु धन का अहंकार हो ना बहुत बुरा है अगर कुबेर धन के देवता होकर भी परीक्षा में पड़ सकते हैं तो हम इंसान क्या हैं।
कुबेर जी नौ निधियों के देवता माने गए है इसके लिए एक कहानी प्रचलित है कि ऋषि पुलस्त्य के ऊपर एक विपदा आ गई, उनके गांव में सूखा पड़ गया उनके पास धन की कमी हो गई ,जिसके लिए उन्होंने गणपति जी की आराधना की क्योंकि वेदों के नियम के अनुसार कुबेर जी कि सीधे आराधना नहीं की जाती थी इसलिए गणपति जी ने कुबेर को ऋषि की मदद करने के लिए कहा।
कुबेर जी ने प्रकट होकर ऋषि पुलसत्य को कहा कि अगर मेरे नौ रूपों में से किसी एक रूप की आराधना की जाएगी तो आप को अपार धन लाभ होगा। इसी कथा के अनुसार जो भी कुबेर जी के नौ रूपों में से किसी भी रूप की प्रार्थना करता है उसे धन की कभी कमी नहीं होती कुबेर के नौ रूपों में से पहला रूप है
धनकुबेर — धनकुबेर की धन प्राप्त करने के लिए आराधना की जाती है इनकी आराधना मंगलवार के दिन की जाती है इनकी आराधना के समय पूर्व दिशा मैं मुख होना चाहिए।
पुष्प कुबेर —  रिश्तो को सौम्या बनाने के लिए पुष्प रूप कुबेर की आराधना की जाती है इनका दिन मंगलवार है और इनकी दिशा उत्तर दिशा मानी गई है।
चंद्र कुबेर — चंद्र कुबेर की आराधना संतान प्राप्ति के लिए की जाती है इनकी आराधना रविवार के दिन की जाती है इस आराधना के लिए मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
पीत कुबेर — पीत कुबेर को संपत्ति के लिए पूजा जाता है जिन लोगों को प्रॉपर्टी चाहिए, उन्हें पीत कुबेर की पूजा करनी चाहिए पीत कुबेर की पूजा करने के लिए बुधवार का दिन शुभ माना गया है इसके लिए मुख पश्चिम दिशा की तरफ होना चाहिए।
हंस कुबेर — कानूनी दावपेंच,मुकदमे में जीत आदि के लिए हंस कुबेर की पूजा की जाती है इनकी आराधना शनिवार के दिन की जाती है, और मुख दक्षिण दिशा की तरफ होना चाहिए।
राग कुबेर — राग कुबेर की आराधना शिक्षा प्राप्ति के लिए लेखन,चित्र कला,नृत्य आदि में प्रसिद्धि के लिए की जाती है इसका दिन वीरवार है और दिशा पूर्व दिशा मानी गई है।
अमृत कुबेर — सभी रोगों की के नाश के लिए अमृत कुबेर की पूजा की जाती है इनकी आराधना शुक्रवार के दिन की जाती है और मुख पश्चिम दिशा में होना चाहिए।
प्राण कुबेर — ऋण नाशक प्राण कुबेर की आराधना सोमवार के दिन उत्तर दिशा की तरफ मुख करके करनी चाहिए इससे सभी प्रकार के ऋणों का नाश होता है।
उग्र कुबेर — उग्र कुबेर की आराधना शत्रु नाश के लिए की जाती है इनकी आराधना शनिवार के दिन की जाती है इस आराधना के समय मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
इस प्रकार कुबेर के नौ रुपों में से किसी भी रूप की आराधना करने से मनचाहा फल प्राप्त होता है दीपावली और धनतेरस के दिन कुबेर साधना का महत्व और भी बढ़ जाता है।

कुलदेवी दोष , देवीदोष दूर करने के लिये

कुलदेवी दोष , देवीदोष के लिये
श्री मंगलचंडिकास्तोत्रम्
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवी मङ्गलचण्डिके I
ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविन्शाक्षरो मनुः II
पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः I
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् II
मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः I
ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्व सम्मतम् II
देवीं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् I
सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् II
श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् I
वन्हिशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् II
बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् I
बिम्बोष्टिं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् II
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोल्पललोचनाम् I
जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् II
संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे II
देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने I
प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः II
शंकर उवाच रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके I
हारिके विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके II
हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके I
शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गलचण्डिके II
मङ्गले मङ्गलार्हे च सर्व मङ्गलमङ्गले I
सतां मन्गलदे देवि सर्वेषां मन्गलालये II
पूज्या मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदैवते I
पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य संततम् II
मङ्गलाधिष्टातृदेवि मङ्गलानां च मङ्गले I
संसार मङ्गलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि II
सारे च मङ्गलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् I
प्रतिमङ्गलवारे च पूज्ये च मङ्गलप्रदे II
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मङ्गलचण्डिकाम् I
प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः II
देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः श्रुणोति समाहितः I
तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमङ्गलम् II
II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते मङ्गलचण्डिका स्तोत्रं संपूर्णम् II

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...