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Tuesday, 16 April 2019
दस महाविद्या रहस्य तंत्र के क्षेत्र में सबसे प्रभावी हैं दस महाविद्या। उनके नाम हैं-काली, तारा, षोडषी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला। गुण और प्रकृति के कारण इन सारी महाविद्याओं को दो कुल-कालीकुल और श्रीकुल में बांटा जाता है। साधकों का अपनी रूचि और भक्ति के अनुसार किसी एक कुल की साधना में अग्रसर हों। ब्रह्मांड की सारी शक्तियों की स्रोत यही दस महाविद्या हैं। इन्हें शक्ति भी कहा जाता है। मान्यता है कि शक्ति के बिना देवाधिदेव शिव भी शव के समान हो जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति भी इन्हीं में निहित हैं। सिक्के का दूसरी पहलू यह भी है कि शक्ति की पूजा शिव के बिना अधूरी मानी जाती है। इसी तरह शक्ति के विष्णु रूप में भी दस अवतार माने गए हैं। किसी भी महाविद्या के पूजन के समय उनकी दाईं ओर शिव का पूजन ज्यादा कल्याणकारी होता है। अनुष्ठान या विशेष पूजन के समय इसे अनिवार्य मानना चाहिए। उनका विवरण निम्न है-------- महाविद्या--------------शिव के रूप 1-काली------------------- महाकाल 2-तारा-------------------- अक्षोभ्य 3-षोडषी------------------ कामेश्वर 4-भुवनेश्वरी--------------- त्रयम्बक 5-त्रिपुर भैरवी------------ दक्षिणा मूर्ति 6-छिन्नमस्ता------------ क्रोध भैरव 7-धूमावती--------------- चूंकि विधवा रूपिणी हैं, अत: शिव नहीं हैं 8-बगला----------------- मृत्युंजय 9-मातंगी---------------- मातंग 10-कमला--------------- विष्णु रूप दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं-- महाविद्या----------- विष्णु के अवतार 1-काली--------------------कृष्ण 2-तारा---------------------मत्स्य 3-षोडषी--------------------परशुराम 4-भुवनेश्वरी----------------वामन 5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम 6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह 7-धूमावती-----------------वाराह 8-बगला---------------------कूर्म 9-मातंगी--------------------राम 10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है। दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।
अप्सरा साधना के नियम ================== अप्सराये अत्यंत सुंदर और जवान होती हैं. उनको सुंदरता और शक्ति विरासत में मिली है. वह गुलाब का इत्र और चमेली आदि की गंध पसंद करती हैं। तुमको उसके शरीर से बहुत प्रकार की खुशबू आती महसूस कर सकते हैं. यह गन्ध किसी भी पुरुष को आकर्षित कर सकती हैं। वह चुस्त कपड़े पहनना के साथ साथ अधिक गहने पहना पसंद करती है. इनके खुले-लंबे बाल होते है। वह हमेशा एक 16-17 साल की लड़की की तरह दिखती है। दरअसल, वह बहुत ही सीधी होती है। वह हमेशा उसके साधक को समर्पित रहती है। वह साधक को कभी धोखा नहीं देती हैं। इस साधना के दौरान अनुभव हो सकता है, कि वह साधना पूरी होने से पहले दिखाई दे। अगर ऐसा होता है, तो अनदेखा कर दें। आपको अपने मंत्र जाप पूरा करना चाहिए जैसा कि आप इसे नियमित रूप से करते थे। कोई जल्दबाजी ना करे जितने दिन की साधना बताई हैं उतने दिन पुरी करनी चाहिए। काम भाव पर नियंत्रण रखे। वासना का साधना मे कोई स्थान नहीं होता हैं। अप्सरा परीक्षण भी ले सकती हैं। जब सुंदर अप्सरा आती है तो साधक सोचता है, कि मेरी साधना पूर्ण हो गया है। लेकिन जब तक वो विवश ना हो जाये तब तक साधना जारी रखनी चाहिए। कई साधक इस मोड़ पर, अप्सरा के साथ यौन कल्पना लग जाते है। यौन भावनाओं से बचें, यह साधना ख़राब करती हैं। जब संकल्प के अनुसार मंत्र जाप समाप्त हो और वो आपसे अनुरोध करें तो आप उसे गुलाब के फूल और कुछ इत्र दे। उसे दूध का बनी मिठाई पान आदि भेंट दे। उससे वचन ले ले की वह जीवन-भर आपके वश में रहेगी। वो कभी आपको छोड़ कर नहीं जाएगी और आपक कहा मानेगी। जब तक कोई वचन न दे तब तक उस पर विश्वास नही किया जा सकता क्योंकि वचन देने से पहले तक वो स्वयं ही चाहती हैं कि साधक की साधना भंग हो जाये। किसी भी साधना मैं सबसे महत्वपुर्ण भाग उसके नियम हैं. सामान्यता सभी साधना में एक जैसे नियम होते हैं. परतुं मैं यहाँ पर विशेष तौर पर यक्षिणी और अप्सरा साधना में प्रयोग होने वाले नियम का उल्लेख कर रहा हूँ । 1. ब्रह्मचये : सभी साधना मैं ब्रह्मचरी रहना परम जरुरी होता हैं. सेक्स के बारे में सोचना, करना, किसी स्त्री के बारे में विचारना, सम्भोग, मन की अपवित्रा, गन्दे चित्र देखना आदि सब मना हैं, अगर कुछ विचारना हैं तो केवल अपने ईष्ट को, आप सदैव यह सोचे कि वो सुन्दर सी अलंकार युक्त अप्सरा या देवी आपके पास ही मौजुद हैं और आपको देख रही हैं. और उसके शरीर में से ग़ुलाब जैसी या अष्टगन्ध की खुशबू आ रही हैं । साकार रुप मैं उसकी कल्पना करते रहो. 2. भूमि शयन : केवल जमीन पर ही अपने सभी काम करें. जमीन पर एक वस्त्र बिछा सकते हैं और बिछना भी चाहिए 3. भोजन : मांस, शराब, अन्डा, नशे, तम्बाकू, लहसुन, प्याज आदि सभी का प्रयोग मना हैं. केवल सात्विक भोजन ही करें. 4. वस्त्र : वस्त्रो में उन्ही रंग का चुनाव करें जो देवता पसन्द करता हो.( आसन, पहनने और देवता को देने के लिये) (सफेद या पीला अप्सरा के लिये) 5. क्या करना हैं :- नित्य स्नान, नित्य गुरु सेवा, मौन, नित्य दान, जप में ध्यान- विश्वास, रोज पुजा करना आदि अनिवार्य हैं. और जप से कम से कम दो-तीन घंटे पहले भोजन करना चाहिए 6. क्या ना करें :- जप का समय ना बद्ले, क्रोध मत करो, अपना आसन किसी को प्रयोग मत करने दो, खाना खाते समय और सोकर जागते समय जप ना करें. बासी खाना ना खाये, चमडे का प्रयोग ना करना, साधना के अनुभव साधना के दोरान किसी को मत बताना (गुरु को छोडकर) 7. मंत्र जप के समय कृपा करके नींद्, आलस्य, उबासी, छींक, थूकना, डरना, लिंग को हाथ लगाना, बक्वास, सेल फोन को पास रखना, जप को पहले दिन निधारित संख्या से कम-ज्यादा जपना, गा-गा कर जपना, धीमे-धीमे जपना, बहुत् तेज-तेज जपना, सिर हिलाते रहना, स्वयं हिलते रहना, मंत्र को भुल जाना( पहले से याद नहीं किया तो भुल जाना ), हाथ-पैंर फैलाकर जप करना, पिछ्ले दिन के गन्दे वस्त्र पहनकर मंत्र जप करना, यह सब कार्य मना हैं (हर मंत्र की एक मुल ध्वनि होती हैं अगर मुल ध्वनि- लय में मंत्र जपा तो मज़ा ही जायेगा, मंत्र सिद्धि बहुत जल्द प्राप्त हो सकती हैं जो केवल गुरु से सिखी जा सकती हैं ) 8. यादि आपको सिद्धि करनी हैं तो श्री शिव शंकर भगवान के कथन को कभी ना भुलना कि “जिस साधक की जिव्हा परान्न (दुसरे का भोजन) से जल गयी हो, जिसका मन में परस्त्री (अपनी पत्नि के अलावा कोई भी) हो और जिसे किसी से प्रतिशोध लेना हो उसे भला केसै सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं” 9. एक सबसे महत्वपुर्ण कि आप जिस अप्सरा की साधना उसके बारे में यह ना सोचे कि वो आयेगी और आपसे सेक्स करेंगी क्योंकि वासना का किसी भी साधना में कोई स्थान नहीं हैं । बाद कि बातें बाद पर छोड दे । क्योंकि सेक्स में उर्जा नीचे (मुलाधार) की ओर चलती हैं जबकि साधना में उर्जा ऊपर (सहस्त्रार) की ओर चलती हैं 10. किसी भी स्त्री वर्ग से केवल माँ, बहन, प्रेमिका और पत्नी का सम्बन्ध हो सकता हैं । यही सम्बन्ध साधक का अप्सरा या देवी से होता हैं। 11.यह सब वाक सिद्ध होती हैं । किसी के नसिब में अगर कोई चीज़ ना हो तब भी देने का समर्थ रखती हैं । इनसे सदैव आदर से बात करनी चाहिए।.........................
तांत्रिक मायाजाल वापिस करने का मंत्र ========================== मंत्र ------ एक ठो सरसों ,सौला राई | मोरो पटवल को रोजाई | खाय खाय पड़े भार | जे करै ते मरै उलट विद्या ताहि पर परे | शब्द साँचा ,पिंड काँचा | हनुमान का मंत्र साँचा | फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा | -- यदि किसी के ऊपर किसी ने तांत्रिक अभिचार कर दिया हो और बार बार करता हो तो थोड़ी सी राई ,सरसों और नमक मिलाकर रख ले |इसके बाद इस मंत्र का जप करते हुए सात बार रोगी को उतारा करे और फिर जलती हुई भट्ठी में यह सामग्री झटके से झोक दे तो सारा मायाजाल वापस चला जायेगा |.........................
क्या हैं बंधन ,कैसे बचें इससे ===================== बंधन अर्थात् बांधना। जिस प्रकार रस्सी से बांध देने से व्यक्ति असहाय हो कर कुछ कर नहीं पाता, उसी प्रकार किसी व्यक्ति, घर, परिवार, व्यापार आदि को तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अदृश्य रूप से बांध दिया जाए तो उसकी प्रगति रुक जाती है और घर परिवार की सुख शांति बाधित हो जाती है। ये बंधन क्या हैं और इनसे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है जानने केलिए पढ़िए यह आलेख... मानव अति संवेदनशील प्राणी है। प्रकृति और भगवान हर कदम पर हमारी मदद करते हैं। आवश्यकता हमें सजग रहने की है। हम अपनी दिनचर्या में अपने आस-पास होने वाली घटनाओं पर नजर रखें और मनन करें। यहां बंधन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। किसी के घर में ८-१० माह का छोटा बच्चा है। वह अपनी सहज बाल हरकतों से सारे परिवार का मन मोह रहा है। वह खुश है, किलकारियां मार रहा है। अचानक वह सुस्त या निढाल हो जाता है। उसकी हंसी बंद हो जाती है। वह बिना कारण के रोना शुरू कर देता है, दूध पीना छोड़ देता है। बस रोता और चिड़चिड़ाता ही रहता है। हमारे मन में अनायास ही प्रश्न आएगा कि ऐसा क्यों हुआ? किसी व्यवसायी की फैक्ट्री या व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है। लोग उसके व्यापार की तरक्की का उदाहरण देते हैं। अचानक उसके व्यापार में नित नई परेशानियां आने लगती हैं। मशीन और मजदूर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जो फैक्ट्री कल तक फायदे में थी, अचानक घाटे की स्थिति में आ जाती है। व्यवसायी की फैक्ट्री उसे कमा कर देने के स्थान पर उसे खाने लग गई। हम सोचेंगे ही कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी परिवार का सबसे जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति, जो उस परिवार का तारणहार है, समस्त परिवार की धुरी उस व्यक्ति के आस-पास ही घूम रही है, अचानक बिना किसी कारण के उखड़ जाता है। बिना कारण के घर में अनावश्यक कलह करना शुरू कर देता है। कल तक की उसकी सारी समझदारी और जिम्मेदारी पता नहीं कहां चली जाती है। वह परिवार की चिंता बन जाता है। आखिर ऐसा क्यों हो गया? कोई परिवार संपन्न है। बच्चे ऐश्वर्यवान, विद्यावान व सर्वगुण संपन्न हैं। उनकी सज्जनता का उदाहरण सारा समाज देता है। बच्चे शादी के योग्य हो गए हैं, फिर भी उनकी शादी में अनावश्यक रुकावटें आने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है? आपके पड़ोस के एक परिवार में पति-पत्नी में अथाह प्रेम है। दोनों एक दूसरे के लिए पूर्ण समर्पित हैं। आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हैं। अचानक उनमें कटुता व तनाव उत्पन्न हो जाता है। जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के लिए पूर्ण सम्मान रखते थे, आज उनमें झगड़ा हो गया है। स्थिति तलाक की आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? हमारे घर के पास हरा भरा फल-फूलों से लदा पेड़ है। पक्षी उसमें चहचहा रहे हैं। इस वृक्ष से हमें अच्छी छाया और हवा मिल रही है। अचानक वह पेड़ बिना किसी कारण के जड़ से ही सूख जाता है। निश्चय ही हमें भय की अनुभूति होगी और मन में यह प्रश्न उठेगा कि ऐसा क्यों हुआ? हमें अक्सर बहुत से ऐसे प्रसंग मिल जाएंगे जो हमारी और हमारे आसपास की व्यवस्था को झकझोर रहे होंगे, जिनमें 'क्यों'' की स्थिति उत्पन्न होगी। विज्ञान ने एक नियम प्रतिपादित किया है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें निश्चय ही मनन करना होगा कि उपर्युक्त घटनाएं जो हमारे आसपास घटित हो रही हैं, वे किन क्रियाओं की प्रतिक्रियाएं हैं? हमें यह भी मानना होगा कि विज्ञान की एक निश्चित सीमा है। अगर हम परावैज्ञानिक आधार पर इन घटनाओं को विस्तृत रूप से देखें तो हम निश्चय ही यह सोचने पर विवश होंगे कि कहीं यह बंधन या स्तंभन की परिणति तो नहीं है ! यह आवश्यक नहीं है कि यह किसी तांत्रिक अभिचार के कारण हो रहा हो। यह स्थिति हमारी कमजोर ग्रह स्थितियों व गण के कारण भी उत्पन्न हो जाया करती है। हम भिन्न श्रेणियों के अंतर्गत इसका विश्लेषण कर सकते हैं। इनके अलग-अलग लक्षण हैं। इन लक्षणों और उनके निवारण का संक्षेप में वर्णन यहां प्रस्तुत है। कार्यक्षेत्र का बंधन, स्तंभन या रूकावटें ------------------------------------------- दुकान/फैक्ट्री/कार्यस्थल की बाधाओं के लक्षण :- किसी दुकान या फैक्ट्री के मालिक का दुकान या फैक्ट्री में मन नहीं लगना। ग्राहकों की संख्या में कमी आना। आए हुए ग्राहकों से मालिक का अनावश्यक तर्क-वितर्क-कुतर्क और कलह करना। श्रमिकों व मशीनरी से संबंधित परेशानियां। मालिक को दुकान में अनावश्यक शारीरिक व मानसिक भारीपन रहना। दुकान या फैक्ट्री जाने की इच्छा न करना। तालेबंदी की नौबत आना। दुकान ही मालिक को खाने लगे और अंत में दुकान बेचने पर भी नहीं बिके। कार्यालय बंधन के लक्षण :- कार्यालय बराबर नहीं जाना। साथियों से अनावश्यक तकरार। कार्यालय में मन नहीं लगना। कार्यालय और घर के रास्ते में शरीर में भारीपन व दर्द की शिकायत होना। कार्यालय में बिना गलती के भी अपमानित होना। घर-परिवार में बाधा के लक्षण ---------------------------------- परिवार में अशांति और कलह। बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना। आर्थिक परेशानियां। योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन। विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना। परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो। घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना। इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना। भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना। पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना। व्यक्ति विशेष का बंधन ---------------------------- हर कार्य में विफलता। हर कदम पर अपमान। दिल और दिमाग का काम नहीं करना। घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना। शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना।सर का भारी रहना |घर बाहर हर स्थान पर उद्विग्नता |स्त्रियों की संतान न होना ,अपमान होना |संतान का गर्भ में ही क्षय अथवा गर्भ ही न ठहरना |आय होने पर भी पता न चलना की धन गया कहाँ |अनावश्यक शारीरिक कष्ट |मन चिडचिडा होना |निर्णयों का गलत होना |हानि और पराजय | हमें मानना होगा कि भगवान दयालु है। हम सोते हैं पर हमारा भगवान जागता रहता है। वह हमारी रक्षा करता है। जाग्रत अवस्था में तो वह उपर्युक्त लक्षणों द्वारा हमें बाधाओं आदि का ज्ञान करवाता ही है, निद्रावस्था में भी स्वप्न के माध्यम से संकेत प्रदान कर हमारी मदद करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम होश व मानसिक संतुलन बनाए रखें। हम किसी भी प्रतिकूल स्थिति में अपने विवेक व अपने इष्ट की आस्था को न खोएं, क्योंकि विवेक से बड़ा कोई साथी और भगवान से बड़ा कोई मददगार नहीं है। इन बाधाओं के निवारण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं। उपाय : ---------- पूजा एवं भोजन के समय कलह की स्थिति बनने पर घर के पूजा स्थल की नियमित सफाई करें और मंदिर में नियमित दीप जलाकर पूजा करें। एक मुट्ठी नमक पूजा स्थल से वार कर बाहर फेंकें, पूजा नियमित होनी चाहिए। इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें। स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें। गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें। इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें। जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें। कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें। घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें। हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें। व्यक्तिगत बाधा निवारण के लिए --------------------------------------- व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें और उसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा। हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा। अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं। गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर ॐ नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें। यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें। बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें। पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है। विशेष ===== उपरोक्त समस्त उपाय सामान्य उपाय और टोटके हैं जो टोटकों द्वारा उत्पन्न की गई बंधन को रोक अथवा हटा सकते हैं ,किन्तु यदि टोना अथवा अनुष्ठान करके बंधन किया गया है तो यह सामान्य टोटके उसे नहीं हटा सकते |आप विभिन्न टोटके कर चुके हों और लाभ न मिला हो तो किसी अच्छे और योग्य तांत्रिक से संपर्क करना चाहिए और उसके बताये उपाय करने चाहिए अथवा उसके द्वारा बंधन हटवाना चाहिए |साथ ही आपको बगलामुखी ,काली जैसी उग्र शक्तियों के यन्त्र कवच धारण करने चाहिए जिससे बंधन का प्रभाव रुके अथवा हटे |आपके शरीर को बंधन प्रभावित न करे और आप कम से कम किसी प्रभाव से मुक्त रहकर कार्य कर सके |घर का बंधना हटाने के लिए या प्रतिष्ठान का बंधन हटाने के लिए तो विशेष प्रयास ही करने होंगे |...................................
भगवान शिव से जुड़ी 12 रोचक बातें और उनके पिछे छिपे अर्थ =========================================== भगवान शिव जितने रहस्यमयी हैं, उनकी वेश-भूषा व उनसे जुड़े तथ्य उतने ही विचित्र हैं। शिव श्मशान में निवास करते हैं, गले में नाग धारण करते हैं, भांग व धतूरा ग्रहण करते हैं। आदि न जाने कितने रोचक तथ्य इनके साथ जुड़े हैं। आज हम आपको भगवान शिव से जुड़ी ऐसी ही रोचक बातें व इनमें छिपे लाइफ मैनेजमेंट के सूत्रों के बारे में बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं- 1- क्यों हैं भगवान शिव की तीन आंखें? धर्म ग्रंथों के अनुसार सभी देवताओं की दो आंखें हैं, लेकिन एकमात्र शिव ही ऐसे देवता हैं जिनकी तीन आंखें हैं। तीन आंखों वाला होने के कारण इन्हें त्रिनेत्रधारी भी कहते हैं। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो शिव का तीसरा नेत्र प्रतीकात्मक है। आंखों का काम होता है रास्ता दिखाना और रास्ते में आने वाली मुसीबतों से सावधान करना। जीवन में कई बार ऐसे संकट भी आ जाते हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पाते। ऐसे समय में विवेक और धैर्य ही एक सच्चे मार्गदर्शक के रूप में हमें सही-गलत की पहचान कराता है। यह विवेक अत:प्रेरणा के रूप में हमारे अंदर ही रहता है। बस ज़रुरत है उसे जगाने की। भगवान शिव का तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का स्थान है। यह आज्ञा चक्र ही विवेक बुद्धि का स्रोत है। यही हमें विपरीत परिस्थिति में सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है। 2- शिव अपने शरीर पर भस्म क्यों लगाते हैं? हमारे धर्म शास्त्रों में जहां सभी देवी-देवताओं को वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित बताया गया है वहीं भगवान शंकर को सिर्फ मृग चर्म (हिरण की खाल) लपेटे और भस्म लगाए बताया गया है। भस्म शिव का प्रमुख वस्त्र भी है क्योंकि शिव का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक कारण भी हैं। भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। 3- भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल क्यों? त्रिशूल भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र है। यदि त्रिशूल का प्रतीक चित्र देखें तो उसमें तीन नुकीले सिरे दिखते हैं। यूं तो यह अस्त्र संहार का प्रतीक है पर वास्तव में यह बहुत ही गूढ़ बात बताता है। संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां होती हैं- सत, रज और तम। सत मतलब सात्विक, रज मतलब सांसारिक और तम मतलब तामसी अर्थात निशाचरी प्रवृति। हर मनुष्य में ये तीनों प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी मात्रा में अंतर होता है। त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते हैं कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो। यह त्रिशूल तभी उठाया जाए जब कोई मुश्किल आए। तभी इन तीन गुणों का आवश्यकतानुसार उपयोग हो। 4- भगवान शिव ने क्यों पीया था जहर? देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण किया था। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथ कर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही निकलेंगे। यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कंठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पीना हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए। शिव द्वारा विष पीना यह भी सीख देता है कि यदि कोई बुराई पैदा हो रही हो तो हम उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने दें। 5- क्यों है भगवान शंकर का वाहन बैल? भगवान शंकर का वाहन नंदी यानी बैल है। बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है। वह शक्तिशाली होने के बावजूद शांत एवं भोला होता है। वैसे ही भगवान शिव भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुए भी परम शांत एवं इतने भोले हैं कि उनका एक नाम ही भोलेनाथ जगत में प्रसिद्ध है। भगवान शंकर ने जिस तरह काम को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता। उसका काम पर पूरा नियंत्रण होता है। साथ ही नंदी पुरुषार्थ का भी प्रतीक माना गया है। कड़ी मेहनत करने के बाद भी बैल कभी थकता नहीं है। वह लगातार अपने कर्म करते रहता है। इसका अर्थ है हमें भी सदैव अपना कर्म करते रहना चाहिए। कर्म करते रहने के कारण जिस तरह नंदी शिव को प्रिय है, उसी प्रकार हम भी भगवान शंकर की कृपा पा सकते हैं। 6- क्यों है भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा? भगवान शिव का एक नाम भालचंद्र भी प्रसिद्ध है। भालचंद्र का अर्थ है मस्तक पर चंद्रमा धारण करने वाला। चंद्रमा का स्वभाव शीतल होता है। चंद्रमा की किरणें भी शीतलता प्रदान करती हैं। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो भगवान शिव कहते हैं कि जीवन में कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न आ जाए, दिमाग हमेशा शांत ही रखना चाहिए। यदि दिमाग शांत रहेगा तो बड़ी से बड़ी समस्या का हल भी निकल आएगा। ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को मन का कारक ग्रह माना गया है। मन की प्रवृत्ति बहुत चंचल होती है। भगवान शिव का चंद्रमा को धारण करने का अर्थ है कि मन को सदैव अपने काबू में रखना चाहिए। जिसने मन पर नियंत्रण कर लिया, वह अपने जीवन में कठिन से कठिन लक्ष्य भी आसानी से पा लेता है। 7- भगवान शिव को क्यों कहते श्मशान का निवासी? भगवान शिव को वैसे तो परिवार का देवता कहा जाता है, लेकिन फिर भी श्मशान में निवास करते हैं। भगवान शिव के सांसारिक होते हुए भी श्मशान में निवास करने के पीछे लाइफ मैनेजमेंट का एक गूढ़ सूत्र छिपा है। संसार मोह-माया का प्रतीक है जबकि श्मशान वैराग्य का। भगवान शिव कहते हैं कि संसार में रहते हुए अपने कर्तव्य पूरे करो, लेकिन मोह-माया से दूर रहो। क्योंकि ये संसार तो नश्वर है। एक न एक दिन ये सबकुछ नष्ट होने वाला है। इसलिए संसार में रहते हुए भी किसी से मोह मत रखो और अपने कर्तव्य पूरे करते हुए वैरागी की तरह आचरण करो। 8- भगवान शिव गले में क्यों धारण करते हैं नाग? भगवान शिव जितने रहस्यमयी हैं, उनका वस्त्र व आभूषण भी उतने ही विचित्र हैं। सांसारिक लोग जिनसे दूर भागते हैं। भगवान शिव उसे ही अपने साथ रखते हैं। भगवान शिव एकमात्र ऐसे देवता हैं जो गले में नाग धारण करते हैं। देखा जाए तो नाग बहुत ही खतरनाक प्राणी है, लेकिन वह बिना कारण किसी को नहीं काटता। नाग पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपूर्ण जीव है। जाने-अंजाने में ये मनुष्यों की सहायता ही करता है। कुछ लोग डर कर या अपने निजी स्वार्थ के लिए नागों को मार देते हैं। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो भगवान शिव नाग को गले में धारण कर ये संदेश देते हैं कि जीवन चक्र में हर प्राणी का अपना विशेष योगदान है। इसलिए बिना वजह किसी प्राणी की हत्या न करें। भटकेगा तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाएगा। 9- भगवान शिव को क्यों चढ़ाते हैं भांग-धतूरा? भगवान शिव को भांग-धतूरा मुख्य रूप से चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान को भांग-धतूरा चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं। भांग व धतूरा नशीले पदार्थ हैं। आमजन इनका सेवन नशे के लिए करते हैं। लाइफ मैनेजमेंट के अनुसार भगवान शिव को भांग-धतूरा चढ़ाने का अर्थ है अपनी बुराइयों को भगवान को समर्पित करना। यानी अगर आप किसी प्रकार का नशा करते हैं तो इसे भगवान को अर्पित करे दें और भविष्य में कभी भी नशीले पदार्थों का सेवन न करने का संकल्प लें। ऐसा करने से भगवान की कृपा आप पर बनी रहेगी और जीवन सुखमय होगा। 10- भगवान शिव को क्यों चढ़ाते हैं बिल्व पत्र? शिवपुराण आदि ग्रंथों में भगवान शिव को बिल्व पत्र चढ़ाने का विशेष महत्व बताया गया है। 3 पत्तों वाला बिल्व पत्र ही शिव पूजन में उपयुक्त माना गया है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बिल्वपत्र के तीनों पत्ते कहीं से कटे-फटे न हो। लाइफ मैनेजमेंट के दृष्टिकोण से देखा जाए तो बिल्व पत्र के ये तीन पत्ते चार पुरुषार्थों में से तीन का प्रतीक हैं- धर्म, अर्थ व काम। जब आप ये तीनों निस्वार्थ भाव से भगवान शिव को समर्पित कर देते हैं तो चौथा पुरुषार्थ यानी मोक्ष अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। 11- कैलाश पर्वत क्यों है भगवान शिव को प्रिय? शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पर्वतों पर आम लोग नहीं आते-जाते। सिद्ध पुरुष ही वहां तक पहुंच पाते हैं। भगवान शिव भी कैलाश पर्वत पर योग में लीन रहते हैं। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो पर्वत प्रतीक है एकांत व ऊंचाई का। यदि आप किसी प्रकार की सिद्धि पाना चाहते हैं तो इसके लिए आपको एकांत स्थान पर ही साधना करनी चाहिए। ऐसे स्थान पर साधना करने से आपका मन भटकेगा नहीं और साधना की उच्च अवस्था तक पहुंच जाएगा। 12- क्यों है भूत-प्रेत शिव के गण? शिव को संहार का देवता कहा गया है। अर्थात जब मनुष्य अपनी सभी मर्यादाओं को तोडऩे लगता है तब शिव उसका संहार कर देते हैं। जिन्हें अपने पाप कर्मों का फल भोगना बचा रहता है वे ही प्रेतयोनि को प्राप्त होते हैं। चूंकि शिव संहार के देवता हैं। इसलिए इनको दंड भी वे ही देते हैं। इसलिए शिव को भूत-प्रेतों का देवता भी कहा जाता है। दरअसल यह जो भूत-प्रेत है वह कुछ और नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। भगवान शिव का यह संदेश है कि हर तरह के जीव जिससे सब घृणा करते हैं या भय करते हैं वे भी शिव के समीप पहुंच सकते हैं |....................
भुवनेश्वरी दरिद्रता नाशक साधना ======================= ( ग्रहण काल का अचूक प्रयोग ) नाम से ही स्पष्ट है की ये साधना कितनी महत्वपूर्ण है,जिस पर माँ भुवनेश्वरी की कृपा हो जाये,वो कभी दरिद्र नहीं रह सकता,क्युकी माँ कभी अपनी संतान को दुखी नहीं देख सकती है।अतः ज्यादा न लिखते हुए विधान दे रहा हु। *********** ग्रहण काल में स्नान कर सफ़ेद वस्त्र धारण करे,और उत्तर की और मुख कर सफ़ेद आसन पर बैठ जाये।सामने ज़मीन पर सफ़ेद वस्त्र बिछाये और उस पर,अक्षत से बीज मंत्र " ह्रीं " लिखे और उस पर एक कोई भी रुद्राक्ष स्थापित करे,गुरु तथा गणेश पूजन संपन्न करे,अब रुद्राक्ष का सामान्य पूजन करे,तथा निम्न मंत्र को २१ बार पड़े और अक्षत अर्पण करते जाये,अक्षत भी २१ बार अर्पण करने होंगे। मंत्र : ||ॐ ह्रीं भुवनेश्वरी इहागच्छ इहतिष्ठ इहस्थापय मम सकल दरिद्रय नाशय नाशय ह्रीं ॐ|| अब पुनः रुद्राक्ष का सामान्य पूजन कर मिठाई का भोग लगाये,तील के तेल का दीपक लगाये।और बिना किसी माला के निम्न मंत्र का लगातार २ घंटे तक जाप करे,जाप करते वक़्त लगातार अक्षत रुद्राक्ष पर अर्पण करते रहे।साधना के बाद भोग स्वयं खा ले,और रुद्राक्ष को स्नान कराकर लाल धागे में पिरो ले और गले में धारण कर ले।और सारे अक्षत उसी वस्त्र में बांध कर कुछ दक्षिणा के साथ देवी मंदिर में रख आये और दरिद्रता नाश की प्रार्थना कर ले। मंत्र : ||हूं हूं ह्रीं ह्रीं दारिद्रय नाशिनी भुवनेश्वरी ह्रीं ह्रीं हूं हूं फट|| यह साधना अद्भूत है,अतः स्वयं कर अनुभव प्राप्त करे। सभी बीजाक्षरों मे मकार का उच्चारन होगा।..........
शाबर धूमावती साधना : ================= दस महाविद्याओं में माँ धूमावती का स्थान सातवां है और माँ के इस स्वरुप को बहुत ही उग्र माना जाता है ! माँ का यह स्वरुप अलक्ष्मी स्वरूपा कहलाता है किन्तु माँ अलक्ष्मी होते हुए भी लक्ष्मी है ! एक मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया तो उस यज्ञ में शिव जी को आमंत्रित नहीं किया ! माँ सती ने इसे शिव जी का अपमान समझा और अपने शरीर को अग्नि में जला कर स्वाहा कर लिया और उस अग्नि से जो धुआं उठा )उसने माँ धूमावती का रूप ले लिया ! इसी प्रकार माँ धूमावती की उत्पत्ति की अनेकों कथाएँ प्रचलित है जिनमे से कुछ पौराणिक है और कुछ लोक मान्यताओं पर आधारित है ! नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध योगी सिद्ध चर्पटनाथ जी माँ धूमावती के उपासक थे ! उन्होंने माँ धूमावती पर अनेकों ग्रन्थ रचे और अनेकों शाबर मन्त्रों की रचना भी की ! यहाँ मैं माँ धूमावती का एक प्रचलित शाबर मंत्र दे रहा हूँ जो बहुत ही शीघ्र प्रभाव देता है ! कोर्ट कचहरी आदि के पचड़े में फस जाने पर अथवा शत्रुओं से परेशान होने पर इस मंत्र का प्रयोग करे ! माँ धूमावती की उपासना से व्यक्ति अजय हो जाता है और उसके शत्रु उसे मूक होकर देखते रह जाते है ! || मंत्र || ॐ पाताल निरंजन निराकार आकाश मंडल धुन्धुकार आकाश दिशा से कौन आई कौन रथ कौन असवार थरै धरत्री थरै आकाश विधवा रूप लम्बे हाथ लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव डमरू बाजे भद्रकाली क्लेश कलह कालरात्रि डंका डंकिनी काल किट किटा हास्य करी जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाया जीया आकाश तेरा होये धुमावंतीपुरी में वास ना होती देवी ना देव तहाँ ना होती पूजा ना पाती तहाँ ना होती जात न जाती तब आये श्री शम्भु यती गुरु गोरक्षनाथ आप भई अतीत ॐ धूं: धूं: धूमावती फट स्वाहा ! || विधि || 41 दिन तक इस मंत्र की रोज रात को एक माला जाप करे ! तेल का दीपक जलाये और माँ को हलवा अर्पित करे ! इस मंत्र को भूल कर भी घर में ना जपे, जप केवल घर से बाहर करे ! मंत्र सिद्ध हो जायेगा ! || प्रयोग विधि १ || जब कोई शत्रु परेशान करे तो इस मंत्र का उजाड़ स्थान में 11 दिन इसी विधि से जप करे और प्रतिदिन जप के अंत में माता से प्रार्थना करे – “ हे माँ ! मेरे (अमुक) शत्रु के घर में निवास करो ! “ ऐसा करने से शत्रु के घर में बात बात पर कलह होना शुरू हो जाएगी और वह शत्रु उस कलह से परेशान होकर घर छोड़कर बहुत दुर चला जायेगा ! || प्रयोग विधि २ || शमशान में उगे हुए किसी आक के पेड़ के साबुत हरे पत्ते पर उसी आक के दूध से शत्रु का नाम लिखे और किसी दुसरे शमशान में बबूल का पेड़ ढूंढे और उसका एक कांटा तोड़ लायें ! फिर इस मंत्र को 108 बार बोल कर शत्रु के नाम पर चुभो दे ! ऐसा 5 दिन तक करे , आपका शत्रु तेज ज्वर से पीड़ित हो जायेगा और दो महीने तक इसी प्रकार दुखी रहेगा ! नोट – इस मंत्र के और भी घातक प्रयोग है जिनसे शत्रु के परिवार का नाश तक हो जाये ! किसी भी प्रकार के दुरूपयोग के डर से मैं यहाँ नहीं लिखना चाहता ! इस मंत्र का दुरूपयोग करने वाला स्वयं ही पाप का भागी होगा !कोई भी जप-अनुष्ठान करने से पूर्व मंत्र की शुद्धि जांचा लें ,विधि की जानकारी प्राप्त कर लें तभी प्रयास करें |गुरु की अनुमति बिना और सुरक्षा कवच बिना तो कदापि कोई साधना न करें |उग्र महाशक्तियां गलतियों को क्षमा नहीं करती कितना भी आप सोचें की यह तो माँ है |उलट परिणाम तुरत प्राप्त हो सकते हैं |अतः बिना सोचे समझे कोई कार्य न करें |पोस्ट का उद्देश्य मात्र जानकारी उपलब्ध करना है ,अनुष्ठान या प्रयोग करना नहीं |अतः कोई समस्या होने पर हम जिम्मेदार नहीं होंगे |................................
महाविद्या छिन्नमस्ता प्रयोग शोक ताप संताप होंगे छिन्न-भिन्न जीवन के परम सत्य की होगी प्राप्ति संसार का हर्रेक सुख आपकी मुट्ठी में होगा अपार सफलताओं के शिखर पर जा पहुंचेंगे आप जीवन मरण दोनों से हो जायेंगे पार "महाविद्या छिन्नमस्ता" एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था गुरु गोरक्षनाथ की सभी सिद्धियों का मूल भी देवी छिन्नमस्ता ही है देवी नें एक हाथ में अपना ही मस्तक पकड़ रखा हैं और दूसरे हाथ में खडग धारण किया है देवी के गले में मुंडों की माला है व दोनों और सहचरियां हैं देवी आयु, आकर्षण,धन,बुद्धि,रोगमुक्ति व शत्रुनाश करती है देवी छिन्नमस्ता मूलतया योग की अधिष्ठात्री देवी हैं जिन्हें ब्ज्रावैरोचिनी के नाम से भी जाना जाता है सृष्टि में रह कर मोह माया के बीच भी कैसे भोग करते हुये जीवन का पूरण आनन्द लेते हुये योगी हो मुक्त हो सकता है यही सामर्थ्य देवी के आशीर्वाद से मिलती है सम्पूरण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है स्तुति छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम, प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम, पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम, विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम, दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम, दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम, अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम, डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:, देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है महाविद्या छिन्मस्ता के मन्त्रों से होता है आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है- श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे- 1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है 2.बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है 3.सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है 4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है 5.कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है 6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है 7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"4" विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा चदएं दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम: देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र १)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा २)देवी रेणुका शबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें यन्त्र के पूजन की रीति है- पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं छिन्नमस्ता शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए- प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी, चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी, ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना, चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा, देदेवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र 1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें नवैद्य प्रसाद,पुष्प,धूप दीप आरती आदि से पूजन करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें देवी मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें दक्षिण दिशा की ओर मुख रखें अखरो व अन्य फलों का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 2) देवी छिन्नमस्ता का धन प्रदाता मंत्र ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं वज्रवैरोचिनिये फट गुड, नारियल, केसर, कपूर व पान देवी को अर्पित करें शहद से हवन करें रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें 3) देवी छिन्नमस्ता का प्रेम प्रदाता मंत्र ॐ आं ह्रीं श्रीं वज्रवैरोचिनिये हुम देवी पूजा का कलश स्थापित करें देवी को सिन्दूर व लोंग इलायची समर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें किसी नदी के किनारे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है भगवे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें खीर प्रसाद रूप में चढ़ाएं 4) देवी छिन्नमस्ता का सौभाग्य बर्धक मंत्र ॐ श्रीं श्रीं ऐं वज्रवैरोचिनिये स्वाहा देवी को मीठा पान व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें किसी ब्रिक्ष के नीचे बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है संतरी रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें पेठा प्रसाद रूप में चढ़ाएं 5) देवी छिन्नमस्ता का ग्रहदोष नाशक मंत्र ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं वं वज्रवैरोचिनिये हुम देवी को पंचामृत व पुष्प अर्पित करें रुद्राक्ष की माला से 4 माला का मंत्र जप करें मंदिर के गुम्बद के नीचे या प्राण प्रतिष्ठित मूर्ती के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है पीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें उत्तर दिशा की ओर मुख रखें नारियल व तरबूज प्रसाद रूप में चढ़ाएं देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध- बिना "कबंध शिव" की पूजा के महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना न करें सन्यासियों व साधू संतों की निंदा बिलकुल न करें साधना के दौरान अपने भोजन आदि में हींग व काली मिर्च का प्रयोग न करें देवी भक्त ध्यान व योग के समय भूमि पर बिना आसन कदापि न बैठें सरसों के तेल का दीया न जलाएं
प्रथम महाविद्या काली (दस महाविद्या) दस महाविद्या में काली का स्थान पहला है। उनके बारे में सबसे ज्यादा ग्रंथ लिखे गए हैं। उनमें से अधिकतर लुप्त हो चुके हैं। उनकी महिमा निराली है। क्रोध में भरी एवं दुष्टों के संहार में करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली माता भक्तों पर हमेशा कृपा बरसाती रहती हैं। वह अपने साधक भक्तों को समय-समय पर अपनी उपस्थिति का आभास भी कराती रहती हैं। विभिन्न ग्रंथों में इनके कई नाम और भेद हैं जो विशिष्ट ज्ञान के लिए ही जरूरी है। सामान्य तौर पर इनके दो रूप ही अधिक प्रचलित हैं। वे श्यामा काली (दक्षिण काली) और सिद्धिकाली (गुह्य काली) जिन्हें काली नाम से भी पुकारा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, वरुण, कुबेर, यम,, महाकाल, चंद्र, राम, रावण, यम, राजा बलि, बालि, वासव, विवस्वान सरीखों ने इनकी उपासना कर शक्तियां अर्जित की हैं। इनके रूपों की तरह मंत्र भी अनेक हैं लेकिन सामान्य साधकों को उलझन से बचाने के लिए उनका जिक्र न कर सीधे मूल मंत्रों पर आता हूं। एकाक्षरी मंत्र-- क्रीं इसके ऋषि भैरव ऋषि, गायत्री छंद, दक्षिण काली देवी, कं बीज, ईं शक्ति: एवं रं कीलकं है। यह अत्यंत प्रभावी व कल्याणकारी मंत्र है। इसकी साधना से ही राजा विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई थी। शवरूढ़ां महाभीमां घोरद्रंष्ट्रां वरप्रदम् से ध्यान कर एक लाख जप कर दशांश हवन करें। करन्यास व हृदयादि न्यास-- ऊं क्रां, ऊं क्रीं, ऊं क्रूं, ऊं क्रैं, ऊं क्रौं, ऊं क्रं, ऊं क्र: से करन्यास व हृदयादि न्यास करें। द्वयक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं ऋषि भैरव, छंद गायत्री, बीज क्रीं, शक्ति स्वाहा, कीलकं हूं है। बाकी पूर्वोक्त तरीके से करें। काली पूजा प्रयोग काली पूजा के सभी मंत्रों में 22 अक्षर वाले मंत्र को सबसे प्रभावी माना गया है। अन्य मंत्रों के प्रयोग में इसी मंत्र के अनुरूप पूजाविधान और यंत्रार्चन किया जाता है। इसका प्रयोग बेहद उग्र और आज की स्थिति में थोड़ी कठिन है। अत: मैं सामान्य जानकारी तो दूंगा पर साथ ही सलाह भी है कि सामान्य साधक इसके कठिन प्रयोग से बचें। यदि तीव्र इच्छा हो और उसी क्षेत्र में आगे बढऩा चाहते हों तो योग्य गुरु के निर्देशन में इसे करें। बाइस अक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। विनियोग-- अस्य मंत्रस्य भैरव ऋषि:, उष्णिक् छंद:, दक्षिण कालिका देवता, ह्रीं बीजं, हूं शक्ति:, क्रीं कीलकं सर्वाभिष्ट सिद्धेयर्थे जपे विनियोग:। अंगन्यास-- ऊं कुरुकुल्लायै नम: मुखे, ऊं विरोधिन्यै नम: दक्षिण नासिकायां, ऊं विप्रचित्तायै नम: वाम नासिकायां, ऊं उग्रायै नम: दक्षिण नेत्रे, ऊं उग्रप्रभायै नम: वाम नेत्रे, ऊं दीप्तायै नम: दक्षिण कर्णे, ऊं नीलायै नम: वाम कर्णे, ऊं घनायै नम: नाभौ, ऊं बालाकायै नम: हृदये, ऊं मात्रायै नम: ललाटे, ऊं मुद्रायै नम: दक्षिण स्कंधे, ऊं मीतायै नम: वाम स्कंधे। इसके बाद बूतशुदिध आदि कर्म करें। ह्रीं बीज से प्राणायाम करें। ऋष्यादि न्यास-- भैरव ऋषिये नम: शिरसि, उष्णिक छंदसे नम: हृदि, दक्षिणकालिकायै नम: हृदये, ह्रीं बीजाय नम: गुह्ये, हूं शक्तये नम: पादयो:, क्रीं कीलकाय नम: नाभौ। विनियोगाय नम: सर्वांगे। षडंगन्यास-- ऊं क्रां हृदयाय नम:, ऊं क्रीं शिरसे स्वाहा, ऊं क्रूं शिखायै वषट्, ऊं क्रैं कवचाय हुं, ऊं क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ऊं क्र: अस्त्राय फट्। ध्यान चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुंडमाला विभूषिताम्, खडग च दक्षिणो पाणौ विभ्रतीन्दीवर-द्वयम्। द्यां लिखंती जटायैकां विभतीशिरसाद्वयीम्, मुंडमाला धरां शीर्षे ग्रीवायामय चापराम्।। वक्षसा नागहारं च विभ्रतीं रक्तलोचनां, कृष्ण वस्त्रधरां कट्यां व्याघ्राजिन समन्विताम्। वामपदं शव हृदि संस्थाप्य दक्षिण पदम्, विलसद् सिंह पृष्ठे तु लेलिहानासव पिबम्।। सट्टहासा महाघोरा रावै मुक्ता सुभीषणा।। विधि एवं फल-- सूने घर, निर्जन स्थान, वन, मंदिर (काली को हो तो श्रेष्ठ), नदी के किनारे एवं श्मशान में इस मंत्र के जप से विशेष और शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। 22 अक्षर मंत्र का दो लाख जप कर कनेर के फूलों से दशांश हवन करना चाहिए। काली की नियमित उपासना करने का मतलब यही होत है कि साधक उच्चकोटि का है और उसने पहले ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गौरी, गणेश, सूर्य और कुछ महाविद्या की उपासना कर ली है और अब वह साधना के चरम की ओर अग्रसर हो रहा है। कुछ कठिन प्रयोग-- जो साधक स्त्री की योनि को देखते हुए दस हजार जप करता है, वह ब़हस्पति के समान होकर लंबी आयु और काफी धन पाता है। बिखरे बालों के साथ नग्न होकर श्मशान में दस हजार जप करने से सभी कामनाएं सिद्ध होती हैं। हविष्यान्न का सेवन करता हुआ जप करे तो विद्या, लक्ष्मी एवं यंश को प्राप्त करेगा। गुह्यकाली के कुछ मंत्र 1-नवाक्षर-- क्रीं गुह्ये कालिका क्रीं स्वाहा। 2-चतुर्दशाक्षर मंत्र-- क्रौं हूं ह्रीं गुह्ये कालिके हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। 3-पंचदशाक्षर मंत्र-- हूं ह्रीं गुह्ये कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। ध्यान द्यायेन्नीलोत्पल श्यामामिन्द्र नील समुद्युतिम्। धनाधनतनु द्योतां स्निग्ध दूर्वादलद्युतिम्।। ज्ञानरश्मिच्छटा- टोप ज्योति मंडल मध्यगाम्। दशवक्त्रां गुह्य कालीं सप्त विंशति लोचनाम्।।
पीताम्बरा नाम से प्रसिद्ध, पीले रंग से सम्बंधित, पूर्ण स्तंभन शक्ति से युक्त, देवी बगलामुखी। बगलामुखी, दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'बगला' तथा दूसरा 'मुखी'। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और वक या वगुला पक्षी, जिस की क्षमता एक जगह पर अचल खड़े हो शिकार करना है, मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वो मनुष्य या शत्रु हो या कोई प्राकृतिक आपदा। देवी महाप्रलय जैसे महाविनाश को भी स्तंभित करने की क्षमता रखती हैं। देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं। स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनो लोको में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं। देवी, पीताम्बरा नाम से भी त्रि-भुवन में प्रसिद्ध है, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'पीत' तथा दूसरा 'अम्बरा', अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली। देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिया है, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती है तथा देवी को पीले वस्त्र ही प्रिय है, पीले फूलों की माला धारण करती है, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ हैं, जिन में से पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पिला रंग अत्यंत प्रिय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती है, उर्ध्वमना स्वरुप में देवी दो भुजाओ से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाये हैं। देवी बगलामुखी का सम्बन्ध अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तियों से हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध अलौकिक, पारलौकिक जादुई शक्तिओ से भी हैं, जिसे इंद्रजाल काहा जाता हैं। उच्चाटन, स्तम्भन, मारन जैसे घोर कृत्यों तथा इंद्रजाल विद्या, देवी की कृपा के बिना संपूर्ण नहीं हो पाते हैं। देवी ही समस्त प्रकार के ऋद्धि तथा सिद्धि प्रदान करने वाली है, विशेषकर, तीनो लोको में किसी को भी आकर्षित करने की शक्ति, वाक् शक्ति, स्तंभन शक्ति। देवी के भक्त अपने शत्रुओ को ही नहीं बल्कि तीनो लोको को वश करने में समर्थ होते हैं, विशेषकर झूठे अभियोग प्रकरणो में अपने आप को निर्दोष प्रतिपादित करने हेतु देवी की अराधना उत्तम मानी जाती हैं। किसी भी प्रकार के झूठे अभियोग (मुकदमा) में अपनी रक्षा हेतु देवी के शरणागत होना सबसे अच्छा साधन हैं। देवी ग्रह गोचर से उपस्थित समस्याओं का भी विनाश करने में समर्थ हैं। देवी का सम्बन्ध आकर्षण से भी हैं, काम वासनाओ से युक्त कार्यो में भी देवी आकर्षित करने हेतु विशेष बल प्रदान करती हैं। व्यष्टि रूप में शत्रुओ को नष्ट करने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार करने वाली देवी हैं बगलामुखी। देवी बगलामुखी के भैरव महा मृत्युंजय हैं। देवी शत्रुओ को पथ तथा बुद्धि भ्रष्ट कर, उन्हें हर प्रकार से स्तंभित करती हैं। देवी का भौतिक स्वरुप वर्णन देवी बगलामुखी, समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय द्वीप में अमूल्य रत्नो से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी त्रिनेत्रा हैं, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती है, पीले शारीरिक वर्ण की है, देवी ने पिला वस्त्र तथा पीले फूलो की माला धारण की हुई है, देवी के अन्य आभूषण भी पीले रंग के ही हैं तथा अमूल्य रत्नो से जड़ित हैं। देवी, विशेषकर चंपा फूलों, हल्दी के गाठों इत्यादि पीले रंग से सम्बंधित तत्वों की माला धारण करती हैं। देवी ने अपने बायें हाथ से शत्रु या दैत्य के जिव्हा को पकड़ कर खींच रखा है तथा दये हाथ से गदा उठाये हुए हैं, जो शत्रु को भय भीत कर रहे हैं। कई स्थानों में देवी ने मृत शरीर या शव को अपना आसन बना रखा हैं तथा शव पर ही आरूढ़ हैं तथा दैत्य या शत्रु के जिव्हा को पकड़ रखा हैं। देवी वचन या बोल-चाल से गलतियों तथा अशुद्धियों को निकल कर सही करती हैं। देवी पीताम्बरा या बगलामुखी मुखी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, सत्य युग में इस चराचर संपूर्ण जगत को नष्ट करने वाला भयानक वातक्षोम (तूफान, घोर अंधी) आया। समस्त प्राणिओ तथा स्थूल वस्तुओं के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा था तथा सब काल का ग्रास बनने जा रहे थे। संपूर्ण जगत पर संकट को ए हुआ देख, जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हो गए। तदनंतर, भगवान विष्णु सौराष्ट्र प्रान्त में गए तथा हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर, अपनी सहायतार्थ देवी श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी को प्रसन्न करने हेतु तप करने लगे। उस समय देवी श्री विद्या, सौराष्ट्र के एक हरिद्रा सरोवर में वास करती थी। भगवान विष्णु के तप से संतुष्ट हो देवी आद्या शक्ति, बगलामुखी स्वरूप में, भगवान विष्णु के सन्मुख अवतरित हुई तथा उनसे तप करने का कारण ज्ञात किया। तुरंत ही अपनी शक्तिओ का प्रयोग कर, देवी बगलामुखी ने विनाशकारी तूफान को शांत किया तथा इस सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा की। मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकार, कुल नक्षत्रों से युक्त वीर रात्रि कही जाती हैं इसी की अर्धरात्रि में श्री बगलामुखी देवी का आविर्भाव हुआ। देवी बगलामुखी के प्रादुर्भाव की दूसरी कथा, देवी धूमावती के प्रादुर्भाव के समय से सम्बंधित हैं। क्रोध में आ देवी पार्वती ने अपने पति शिव का ही भक्षण किया था। देवी पार्वती का वो उग्र स्वरूप जिसने अपने पति का भक्षण किया, वो बगलामुखी नाम की ही शक्ति थी तथा भक्षण पश्चात् देवी, धूमावती नाम से विख्यात हुई। देवी बगलामुखी से सम्बंधित अन्य तथ्य। कुब्जिका तंत्र के अनुसार, बगला नाम तीन अक्षरो से निर्मित है व, ग, ला। व अक्षर देवी वारुणी, ग अक्षर सिद्धिदा तथा ला अक्षर पृथ्वी को सम्बोधित करता हैं। देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु से सम्बंधित हैं परिणामस्वरूप देवी सत्व गुण से सम्पन्न तथा वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित हैं तथा इनकी साधन में पवित्रता का विशेष महत्व हैं। परन्तु कुछ अन्य परिस्थितिओं में देवी तामसी गुण से भी सम्बंधित है, आकर्षण, मारन तथा स्तंभन कर्म तामसी प्रवृति से सम्बंधित हैं क्योंकि इस तरह के कार्य दुसरो को हानि पहुँचने हेतु ही की जाती हैं। सर्वप्रथम देवी की आराधना भगवान ब्रह्मा ने की, पश्चात् ब्रह्मा जी ने बगला साधना का उपदेश सनकादिक मुनिओ को किया, सनत कुमार से प्रेरित हो देवर्षि नारद ने भी बगला देवी की साधना की। देवी के दूसरे उपासक स्वयं जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु हुए तथा तीसरे भगवान परशुराम। देवी का सम्बन्ध शव साधना, श्मशान इत्यादि से भी हैं। दैवीय प्रकोप शांत करने हेतु शांति कर्म में, धन-धान्य के लिये पौष्टिक कर्म में, वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने हेतु तथा शत्रु नाश के लिये आभिचारिक कर्म में देवी की शक्तिओ का प्रयोग किया जाता हैं। देवी का साधक भोग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त कर लेते हैं। बगलामुखी स्तोत्र के अनुसार देवी समस्त प्रकार के स्तंभन कार्यों हेतु प्रयोग में लायी जाती हैं जैसे, अगर शत्रु वादी हो तो गुंगा, छत्रपति हो तो रंक, दावानल या भीषण अग्नि कांड शांत करने हेतु, क्रोधी का क्रोध शांत करवाने हेतु, धावक को लंगड़ा बनाने हेतु, सर्व ज्ञाता को जड़ बनाने हेतु, गर्व युक्त के गर्व भंजन करने हेतु। सादहरण तौर पर व्यक्ति अच्छा या बुरा कैसा भी कर्म करे और अगर व्यक्ति विशेष की सु या कु ख्याति हो, निंदा चर्चा करने वाले या अहित कहने वाले उस के बनेंगे ही, ऐसे परिस्थिति में देवी बगलामुखी की कृपा ही समस्त निंदको, अहित कहने वालों के मुख या कार्य का स्तंभन करती हैं। कही तीव्र वर्षा हो रही हो या भीषण अग्नि कांड हो गया हो, देवी का साधक बड़ी ही सरलता से समस्त प्रकार के कांडो का स्तंभन कर सकता हैं। बामा ख्यपा ने अपने माता के श्राद्ध कर्म में इसी प्रकार तीव्र वृष्टि का स्तंभन किया था। साथ ही, उग्र विघ्नों को शांत करने वाली, दरिद्रता का नाश करने वाली, भूपतियों के गर्व का दमन, मृग जैसे चंचल चित्तवन वालो के चित्त का भी आकर्षण करने वाली, मृत्यु का भी मरण करने में समर्थ हैं देवी बगलामुखी। संक्षेप में देवी बगलामुखी से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : बगलामुखी। अन्य नाम : पीताम्बरा (सर्वाधिक जनमानस में प्रचलित नाम), श्री वगला। भैरव : मृत्युंजय। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : कूर्म अवतार। तिथि : वैशाख शुक्ल अष्टमी। कुल : श्री कुल। दिशा : उत्तर। स्वभाव : उग्र, राजसी गुण सम्पन्न। कार्य : स्तम्भन विद्या के रूप हैं देवी का प्रयोग किया जाता हैं। शारीरिक वर्ण : पिला।
जय गोरख नाथ का चेला की,,,,,जय गुरू गोरख योगी की जीवन मे दोस्त दुशमन दोनो मिलते है यह पयोग तब करे जब दुशमन शरीरिक या मानसिक परेशानी दे रहा हो यह एक शाबर मंत्र है इसे सिदॄ करने की अावशकता नही बस नेक मन से गुरू पर पूणॅ यकीन करके तीन दिवस की मंत्र जाप से यह कायॅ करने लगता है इसके प्रभाव से दुशमन दोस्त बन जाता है या कुछ उलटा कमँ करके मानसिक परेशानी दे रहा हो तो मन से दुशमनी भूल जाता है मंत्र :- असगंध का जोता गोरख नाथ का चेला, गुरू गोरख ने दाँव है खेला, अछतर बछतर तीर कमंदर, तीन मछंदर तीन कमंदर, पांच गुरू का पांच ही चेला, एक गोरख का यह सब खेला, शब्द सांचा पिन्ड कांचा फूरो मंत्र ईसवरो वाचा विधि:- इस मंत्र की विधि के लिए आप एक निम्बू ले एक दिया ले ले कोई माला की जरुरत नहीं है बस दक्षिण दिशा की और निम्बू रख के दिया निम्बू के सामने रख के इस मंत्र को 108 बार जाप करे जिस दुश्मन से मित्र बनाना है उसका नाम लेके 3 दिन मंत्र का 3 माला जाप करे 3 दिन 108 बार ही जाप करे आखिर में निम्बू और दिया किसी पीपल के पेड़ के निचे रख आये विधि पूरी हो गयी मानो
II माला चयन II तन्त्र सिद्धि के लिए शमशान में लागे हुए धतूरे की माला सर्वश्रेष्ठ होती है I सभी सिद्धियों के लिए, सभी मंत्रों के लिए रुद्राक्ष की माला प्रयोग कर सकते हैं I महालक्ष्मी की प्राप्ति के लिए कमलगट्टे की माला प्रयोग करनी चाहिए I पाप नाश के लिए कुशमूल की माला से जाप करना चाहिए I भक्ति की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए तुलसी की माला प्रयोग करनी चाहिए I वशीकरण से संबंधित कार्यों में मूंगे की माला से जाप करना चाहिए I पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रजीवा की माला से जाप करें I नौकरी की प्राप्ति के लिए लाल हकीक की माला से जाप करें I विद्या प्राप्ति के लिए स्फटिक माला से मन्त्र जपें I माला जाप करते वक्त सावधानियां माला के मनके एक जैसे होँ, छोटे- बड़े नहीं I माला में साधारणतया 108 मनके एक सुमेरु मिलाकर कुल 109 दानें होने चाहियें I माला का धागा शुरू से अंत तक एक ही होना चाहिए बीच में गांठ नहीं आनी चाहिए I सुमेरु को बाँधनें के लिए ढाई फेरों वाली ब्रह्म ग्रंथि का प्रयोग करना चाहिए न की साधारण गांठ का I रुद्राक्ष की माला को बनाते समय मुख से मुख और पुच्छ से पुच्छ मिलाने चाहियें तभी सिद्धि होती है I वशीकरण के कार्यों में लाल, शांति कार्यों में सफ़ेद, धन प्राप्ति के लिए पीले रेशमी सूत का प्रयोग करना चाहिए I अच्छी सिद्धि के लिए कुंवारी ब्राह्मण कन्या के हाथ से कता हुआ सूत प्रयोग करना चाहिए I भली प्रकार से बनी हुई माला को संस्कारित करना चाहिए तभी मन्त्र चैतन्य होकर मनोकामना को पूर्ण करते हैं I जाप करते हुए न तो माला को हिलाएं न स्वयं हिलें I मन्त्र जाप करते हुए आवाज न आएँ I माला फेरते समय इसे गौमुखी या वस्त्र के अन्दर रखें ताकि माला किसी को दिखे नहीं I माला को हमेशा शुद्ध जगह रखें और माला एवं आसन किसी से शेयर न करें I जाप करते वक्त इसे तर्जनी उंगली का (अंगूठे के साथ वाली) स्पर्श न होने देन I
। बगला उत्पत्ति ।। एक बार समुद्र में संशय नामक राक्षस ने बहुत बड़ा प्रलय मचाया, विष्णु उसका संहार नहीं कर सके तो उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप महा-त्रिपुर-सुन्दरी की आराधना की तो श्रीविद्या ने ही ‘बगला’ रुप में प्रकट होकर संशय राक्षस का वध किया । मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकर-कुल नक्षत्रों से युक्त वीर-रात्रि कही जाती है । इसी अर्द्ध-रात्रि में श्री बगला का आविर्भाव हुआ था । मकर-कुल नक्षत्र – भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण तथा उत्तर-भाद्रपद नक्षत्र है । बगलामुखी देवी दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है । वैदिक शब्द ‘वल्गा’ कहा है, जिसका अर्थ कृत्या सम्बन्ध है, जो बाद में अपभ्रंश होकर बगला नाम से प्रचारित हो गया । बगलामुखी शत्रु-संहारक विशेष है अतः इसके दक्षिणाम्नायी पश्चिमाम्नायी मंत्र अधिक मिलते हैं । नैऋत्य व पश्चिमाम्नायी मंत्र प्रबल संहारक व शत्रु को पीड़ा कारक होते हैं । इसलिये इसका प्रयोग करते समय व्यक्ति घबराते हैं । वास्तव में इसके प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिये । ऐसी बात नहीं है कि यह विद्या शत्रु-संहारक ही है, ध्यान योग में इससे विशेष सहयता मिलती है । यह विद्या प्राण-वायु व मन की चंचलता का स्तंभन कर ऊर्ध्व-गति देती है, इस विद्या के मंत्र के साथ ललितादि विद्याओं के कूट मंत्र मिलाकर भी साधना की जाती है । बगलामुखी मंत्रों के साथ ललिता, काली व लक्ष्मी मंत्रों से पुटित कर व पदभेद करके प्रयोग में लाये जा सकते हैं । इस विद्या के ऊर्ध्व-आम्नाय व उभय आम्नाय मंत्र भी हैं, जिनका ध्यान योग से ही विशेष सम्बन्ध रहता है । त्रिपुर सुन्दरी के कूट मन्त्रों के मिलाने से यह विद्या बगलासुन्दरी हो जाती है, जो शत्रु-नाश भी करती है तथा वैभव भी देती है । बगलामुखी की साधना :- बगलामुखी देवी की गणना दस महाविद्याओं में है तथा संयम-नियमपूर्वक बगलामुखी के पाठ-पूजा, मंत्र जाप, अनुष्ठान करने से उपासक को सर्वाभीष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है। शत्रु विनाश, मारण-मोहन, उच्चाटन, वशीकरण के लिए बगलामुखी से बढ़ कर कोई साधना नहीं है। मुकद्दमे में इच्छानुसार विजय प्राप्ति कराने में तो यह रामबाण है। बाहरी शत्रुओं की अपेक्षा आंतरिक शत्रु अधिक प्रबल एवं घातक होते हैं। अतः बगलामुखी साधना की, मानव कल्याण, सुख-समृद्धि हेतु, विशेष उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। यथेच्छ धन प्राप्ति, संतान प्राप्ति, रोग शांति, राजा को वश में करने हेतु कारागार (जेल) से मुक्ति, शत्रु पर विजय, मारण आदि प्रयोगों हेतु प्राचीन काल से ही बगलामुखी प्रयोग द्वारा लोगों की इच्छा पूर्ति होती रही है। आज भी राजनीतिज्ञगण इस महाविद्या की साधना करते हैं। चुनावों के दौरान प्रत्याशीगण मां का आशीर्वाद लेने उनके मंदिर अवश्य जाते हैं। भारतवर्ष में इस शक्ति के केवल तीन ही शक्ति पीठ हैं – 1)कामाख्या 2) हिमाचल में ज्वालामुखी से 22 किमी दूर वनखंडी नामक स्थान पर। और 3) दतिया में पीतांबरा पीठ महर्षि च्यवन ने इसी विद्या के प्रभाव से इन्द्र के वज्र को स्तम्भित कर दिया था । आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु श्रीमद्-गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने पर रेवा नदी का स्तम्भन इसी विद्या के प्रभाव से किया था । महामुनि निम्बार्क ने एक परिव्राजक को नीम के वृक्ष पर सूर्य के दर्शन इसी विद्या के प्रभाव से कराए थे । इसी विद्या के कारण ब्रह्मा जी सृष्टि की संरचना में सफल हुए । श्री बगला शक्ति कोई तामसिक शक्ति नहीं है, बल्कि आभिचारिक कृत्यों से रक्षा ही इसकी प्रधानता है । इस संसार में जितने भी तरह के दुःख और उत्पात हैं, उनसे रक्षा के लिए इसी शक्ति की उपासना करना श्रेष्ठ होता है । शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन संहिता के पाँचवें अध्याय की २३, २४ एवं २५वीं कण्डिकाओं में अभिचारकर्म की निवृत्ति में श्रीबगलामुखी को ही सर्वोत्तम बताया है । शत्रु विनाश के लिए जो कृत्या विशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उन्हें नष्ट करने वाली महा-शक्ति श्रीबगलामुखी ही है । त्रयीसिद्ध विद्याओं में आपका पहला स्थान है । आवश्यकता में शुचि-अशुचि अवस्था में भी इसके प्रयोग का सहारा लेना पड़े तो शुद्धमन से स्मरण करने पर भगवती सहायता करती है । लक्ष्मी-प्राप्ति व शत्रुनाश उभय कामना मंत्रों का प्रयोग भी सफलता से किया जा सकता है । देवी को वीर-रात्रि भी कहा जाता है, क्योंकि देवी स्वम् ब्रह्मास्त्र-रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र-महारुद्र तथा मृत्युञ्जय-महादेव कहा जाता है, इसीलिए देवी सिद्ध-विद्या कहा जाता है । विष्णु भगवान् श्री कूर्म हैं तथा ये मंगल ग्रह से सम्बन्धित मानी गयी हैं । शत्रु व राजकीय विवाद, मुकदमेबाजी में विद्या शीघ्र-सिद्धि-प्रदा है । शत्रु के द्वारा कृत्या अभिचार किया गया हो, प्रेतादिक उपद्रव हो, तो उक्त विद्या का प्रयोग करना चाहिये । ।। बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना ।। बगला उपासना व दश महाविद्याओं में मंत्र जाग्रति हेतु शापोद्धार मंत्र, सेतु, महासेतु, कुल्कुलादि मंत्र का जप करना जरुरी है । अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी व अन्य विषय साधकों के लिये आवश्यक है । नाम – बगलामुखी, पीताम्बरा, ब्रह्मास्त्र-विद्या । आम्नाय - मुख आम्नाय दक्षिणाम्नाय हैं इसके उत्तर, ऊर्ध्व व उभयाम्नाय मंत्र भी हैं । आचार - इस विद्या का वामाचार क्रम मुख्य है, दक्षिणाचार भी है । कुल - यह श्रीकुल की अंग-विद्या है । शिव - इस विद्या के त्र्यंबक शिव हैं । भैरव – आनन्द भैरव हैं । कई विद्वान आनन्द भैरव को प्रमुख शिव व त्र्यंबक को भैरव बताते हं । गणेश – इस विद्या के हरिद्रा-गणपति मुख्य गणेश हैं । स्वर्णाकर्षण भैरव का प्रयोग भी उपयुक्त है । यक्षिणी - विडालिका यक्षिणी का मेरु-तंत्र में विधान है । प्रयोग हेतु अंग-विद्यायें -मृत्युञ्जय, बटुक, आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, पार्जन्यास्त्र, संमोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, कुल्लुका, तारा स्वप्नेश्वरी, वाराही मंत्र की उपासना करनी चाहिये । कुल्लुका – “ॐ क्ष्रौं” अथवा “ॐ हूँ क्षौं” शिर में १० बार जप करना । सेतु - कण्ठ में १० बार “ह्रीं” मंत्र का जप करें । महासेतु – “स्त्रीं” इसका हृदय में १० बार जप करें । निर्वाण – हूं, ह्रीं श्रीं से संपुटित करे एवं मंत्र जप करें । दीपन पुरश्चरण आदि में “ईं” से सम्पुटित मंत्र का जप करें । जीवन – मूल मंत्र के अंत में ” ह्रीं ओं स्वाहा” १० बार जपे । नित्य आवश्यक नहीं है । मुख-शोधन - (दातून) करने के बाद “हं ह्रीं ऐं” जलसंकेत से जिह्वा पर अनामिका से लिखें एवं १० बार मंत्र जप करें । शापोद्धार – “ॐ ह्लीं बगले रुद्रशायं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा” १० बार जपे । उत्कीलन - “ॐ ह्लीं स्वाहा” मंत्र के आदि में १० बार जपे ।.... बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र – || ह्लीं || बगलामुखी त्र्यक्षर मंत्र - || ॐ ह्लीं ॐ || ‘’ ह्लीं ‘’ को स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है । (सांख्यायन तन्त्र) विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ह्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ह्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ह्लूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ह्लैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं ह्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ह्लः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे - वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति, क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति । गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः, श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे । विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर ‘शाम्यति’ । मंत्र महोदधि में बगलामुखी साधना के बारे में विस्तार से दिया हुआ है। साधना में सावधानियां बगलामुखी तंत्र के विषय में बतलाया गया है - बगलासर्वसिद्धिदा सर्वाकामना वाप्नुयात’ अर्थात बगलामुखी देवी का स्तवन पूजा करने वालों की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। ‘सत्ये काली च अर्थात बगला शक्ति को त्रिशक्तिरूपिणी माना गया है। वस्तुतः बगलामुखी की साधना में साधक भय से मुक्त हो जाता है। किंतु बगलामुखी की साधना में कुछ विशेष सावधानियां बरतना अनिवार्य है जो इस प्रकार हैं। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। साधना क्रम में स्त्री का स्पर्श या चर्चा नहीं करनी चाहिए। साधना डरपोक या बच्चों को नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक को कभी-कभी भयभीत भी करती हैं। अतः दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति वाले साधक ही साधना करें। साधना आरंभ करने से पूर्व गुरु का ध्यान और पूजा अनिवार्य है। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं। अतः साधना से पूर्व महामृत्यंजय का कम से कम एक माला जप अवश्य करें। वस्त्र, आसन आदि पीले होने चाहिए। साधना उत्तर की ओर मुंह कर के ही करें। मंत्र जप हल्दी की माला से करें। जप के बाद माला गले में धारण करें। ध्यान रखें, साधना कक्ष में कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न करे, न ही कोई माला का स्पर्श करे। साधना रात्रि के 8.00 से भोर 3.00 बजे के बीच ही करें। मंत्र जप की संख्या अपनी क्षमतानुसार निश्चित करें, फिर उससे न तो कम न ही अधिक जप करें। मंत्र जप 16 दिन में पूरा हो जाना चाहिए। मंत्र जप के लिए शुक्ल पक्ष या नवरात्रि सर्वश्रेष्ठ समय है। मंत्र जप से पहले संकल्प हेतु जल हाथ में लेकर अपनी इच्छा स्पष्ट रूप से बोल कर व्यक्त करें। साधना काल में इसकी चर्चा किसी से न करें। साधना काल में अपने बायीं ओर तेल का तथा अपने दायीं ओर घी का अखंड दीपक जलाएं। उपासना विधि :- किसी भी शुभ मुहूर्त में सोने, चांदी, या तांबे के पत्र पर मां बगलामुखी के यंत्र की रचना करें। यंत्र यथासंभव उभरे हुए रेखांकन में हो। इस यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर नियमित रूप से पूजा करें। इस यंत्र को रविपुष्य या गुरुपुष्य योग में मां बगलामुखी के चित्र के साथ स्थापित करें। फिर सब से पहले बगला माता का ध्यान कर विनियोग करें गणेशजी का पूजन, संकल्प , गुरुजी का पूजन , पंचदेवता पूजन, भैरव पूजन , भूतशुद्धि , कलशस्थापन प्राणप्रतिस्ठा , पीठमातृका न्यास , पीठपूजन करें | निम्न मंत्र पढ़कर विनियोग करें :- विनियोग मंत्र :- ॐ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषिः त्रिष्टुपछंदः श्री बगलामुखी देवता ह्लीं बीजं स्वाहा शक्तिः प्रणवः कीलकं ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।( दाएं हाथ में जल में जल लेकर मंत्र का उच्चारण करते हुए चित्र के आगे छोड़ दें )-- करन्यास :- ॐ ह्ल्रीम अगुष्ठाभ्यां नमः | बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः | वाचं मुखं पदं स्तंभय अनामिकाभ्यां नमः | जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः | बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः | षडअंगन्यास :- ॐ ह्ल्रीम हृदयाम नमः | बगलामुखी शिरसे स्वाहा | सर्वदुष्टानां शिखायै वषट् | वाचं मुखं पदं स्तम्भयं कवचाय हुंम | जिह्वां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् | बुद्धि विनाशय ह्ल्रीम ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्। ध्यान :- मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेद्यां | सिंहासनो परिगतां परिपीतवर्णाम् || पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी | देवी नजामि घृतमुद्गर वैरिजिहवाम्।। जिह्नाग्रमादाय करेण देवीं। वामेन शत्रून् परिपीडयंतीम् || गदाभिघातेन व दक्षिणेन। पीतांबराढ्यां द्विभुजां नमामि।। अब षोडशोपचार पूजन करने के बाद स्तोत्र , सहस्त्रनाम , बगलहृदय पाठ करें पश्चात उपरोक्त उद्धृत बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना एवं प्राणायाम करके 36 अक्षर का मूल मंत्र जप करे ( प्रतिदिन कम से कम 5000 मंत्र जप आवश्यक है ) 36 अक्षर का मंत्र - “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” इस अंतिम दिन दशांश हवन , ततदशांश तर्पण ततदशांश मार्जन ततदशांश ब्राह्मण भोजन भी करना आवश्यक है विशेष :- 1)माँ बगलामुखी का बीज ‘’ ह्लीं ‘’ है , परंतु इसमे अग्नि बीज का संयुक्त कर ‘’ ह्ल्रीम ‘’ का जप करने पर मंत्र और भी शक्ति प्रदान करता है | 2) माँ बगलामुखी दशमहाविद्या में से हैं अतः गुरुवर के सान्निध्य में ही साधना करें अन्यथा हानि की आशंका रहती है यदि शत्रु का प्रयोग या प्रेतोपद्रव भारी हो, तो मंत्र क्रम में निम्न विघ्न बन सकते हैं - १॰ जप नियम पूर्वक नहीं हो सकेंगे । २॰ मंत्र जप में समय अधिक लगेगा, जिह्वा भारी होने लगेगी । ३॰ मंत्र में जहाँ “जिह्वां कीलय” शब्द आता है, उस समय स्वयं की जिह्वा पर संबोधन भाव आने लगेगा, उससे स्वयं पर ही मंत्र का कुप्रभाव पड़ेगा । ४॰ ‘बुद्धिं विनाशय’ पर परिभाषा का अर्थ मन में स्वयं पर आने लगेगा । सावधानियाँ :- १॰ ऐसे समय में तारा मंत्र पुटित बगलामुखी मंत्र प्रयोग में लेवें, अथवा कालरात्रि देवी का मंत्र व काली अथवा प्रत्यंगिरा मंत्र पुटित करें । तथा कवच मंत्रों का स्मरण करें । सरस्वती विद्या का स्मरण करें अथवा गायत्री मंत्र साथ में करें । २॰ बगलामुखी मंत्र में “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” इस मंत्र में ‘सर्वदुष्टानां’ शब्द से आशय शत्रु को मानते हुए ध्यान-पूर्वक आगे का मंत्र पढ़ें । ३॰ यही संपूर्ण मंत्र जप समय ‘सर्वदुष्टानां’ की जगह काम, क्रोध, लोभादि शत्रु एवं विघ्नों का ध्यान करें तथा ‘वाचं मुखं …….. जिह्वां कीलय’ के समय देवी के बाँयें हाथ में शत्रु की जिह्वा है तथा ‘बुद्धिं विनाशय’ के समय देवी शत्रु को पाशबद्ध कर मुद्गर से उसके मस्तिष्क पर प्रहार कर रही है, ऐसी भावना करें । ४॰ बगलामुखी के अन्य उग्र-प्रयोग वडवामुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी, भानुमुखी, वृहद्-भानुमुखी, जातवेदमुखी इत्यादि तंत्र ग्रथों में वर्णित है । समय व परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करना चाहिये । ५॰ बगला प्रयोग के साथ भैरव, पक्षिराज, धूमावती विद्या का ज्ञान व प्रयोग करना चाहिये । ६॰ बगलामुखी उपासना पीले वस्त्र पहनकर, पीले आसन पर बैठकर करें । गंधार्चन में केसर व हल्दी का प्रयोग करें, स्वयं के पीला तिलक लगायें । दीप-वर्तिका पीली बनायें । पीत-पुष्प चढ़ायें, पीला नैवेद्य चढ़ावें । हल्दी से बनी हुई माला से जप करें । अभाव में रुद्राक्ष माला से जप करें | अन्य किसी माला से जप कभी न करें |
शरीर रक्षा शाबर मन्त्र ‘मन्त्र-विद्या’ का प्रयोग करने वाले को देहाती भाषा में ‘ओझा’ कहते हैं : ‘ओझा’ भी जब झाड़-फूँक ले लिए कहीं जाता है, तो घर से चलते समय या उस स्थान पर पहुँच कर सबसे पहले अपने शरीर की रक्षा के लिए शरीर-रक्षा का मन्त्र पढ़ लेता है, जिससे यदि उस स्थान पर भूत-प्रेतादि का उपद्रव हो, तो उसे हानि न पहुँचा सके । शरीर-रक्षा का ऐसा ही एक मन्त्र यहाँ उद्धृत है - ” उत्तर बाँधों, दक्खिन बाँधों, बाँधों मरी मसानी, डायन भूत के गुण बाँधों, बाँधों कुल परिवार, नाटक बाँधों, चाटक बाँधों, बाँधों भुइयाँ वैताल, नजर गुजर देह बाँधों, राम दुहाई फेरों ।” प्रयोग विधिः- उक्त मन्त्र को अधिक-से-अधिक संख्या में किसी पर्व-काल में जप लेने से वह सिद्ध हो जाता है । शरीर-रक्षा की आवश्यकता पड़े, तो सिद्ध मन्त्र का नौ बार उच्चारण करके हाथ की हथेली पर नौ बार फूँक मारे और हथेली को पूरे शरीर पर फिरा दें । इससे देह बँध जाएगी೦
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