Tuesday, 17 August 2021

सनातन धर्म में श्री गणेश को आदि पंच देवों मेंं से एक देव और प्रथम पूज्य देव माना गया है।

ऊँ श्री गणेशाय नमः-
सनातन धर्म में श्री गणेश को आदि पंच देवों मेंं से एक देव और प्रथम पूज्य देव माना गया है। वहीं सप्ताह में इनका दिन बुधवार माना जाता है। दरअसल गजानन गणपति का ध्यान आते ही मन में स्वत: ही ऐसा अनुभव होने लगता है कि समस्त संकटों का नाश होने वाला है।
यूं तो भगवान शिव की तरह ही श्री गणेश जी भी बड़ी ही आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं परन्तु कुछ मंत्र और तंत्र प्रयोग इस प्रक्रिया में बड़े चमत्कारी सिद्ध होते हैं और चुटकी बजाते अपना असर दिखाने लगते हैं। ऐसा ही एक मंत्र गणपति गायत्री मंत्र जिसे बहुत ही बड़े संकट के समय प्रयोग किया जाता है।
गणेश गायत्री मंत्र : ऐसे समझें
यह वास्तव में गायत्री मंत्र में ही गणेश जी के मंत्रों को जोड़कर बना हुआ है। आम तौर पर इसका प्रयोग किसी बड़े अनुष्ठान के समय ही किया जाता है अथवा तांत्रिक बड़ी विलक्षण सिद्धियां पाने की इच्छा से इस मंत्र का प्रयोग करते हैं।
इस मंत्र का प्रयोग बहुत ही साधारण है परन्तु इसे करते समय कुछ खास बातों का ध्यान रखना होता है, जिनकी पालना न करने पर यह लाभ के स्थान पर हानि भी दे सकता है। गणेश गायत्री मंत्र इस प्रकार है...
एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
ऐसे करें इस मंत्र का पाठ...
सुबह सूर्योदय से पूर्व जाग कर स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त हो कर नए स्वच्छ वस्त्र पहनें। वस्त्र पीले या गेरुएं रंग के होने चाहिए। इसके बाद घर के पूजा कक्ष अथवा किसी मंदिर में एक आसन पर बैठ कर गणेश जी का आह्वान करें।
उनकी पूजा करें तथा सिंदूर, दर्वा, गंध, अक्षत (चावल), सुगंधित फूल, जनेऊ, सुपारी, पान, फल, प्रसाद आदि अर्पित करें। इसके बाद उपरोक्त गणेश गायत्री मंत्र का 21 बार जप करें। कुछ ही दिनों में आपको इसका असर दिखाई देगा और आपके सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।
मंत्र के प्रयोग में ये सावधानियां हैं आवश्यक...
इस मंत्र के प्रयोग में ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है। साथ ही मांस, मदिरा, अंडे, नशा आदि से पूरी तरह से दूर रहना होगा, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है।
साथ ही इस मंत्र का प्रयोग से कोई भी बुरी इच्छा पूरी करने के लिए नहीं किया जा सकता वरना स्वयं पर कोई बहुत बड़ा संकट आ सकता है। वहीं यदि आप पर कोई बड़ी विपत्ति आ जाए तो उसे टालने के लिए ही इस मंत्र के प्रयोग का सहारा लिया जा सकता है।

तंत्र मे वनस्पति यक्षिणियां साधना

वनस्पति यक्षिणियां
कुछ ऐसी यक्षिणियां भी होती हैं , जिनका वास किसी विशेष वनस्पति ( वृक्ष - पौधे ) पर होता है । उस वनस्पति का प्रयोग करते समय उस यक्षिणी का मंत्र जपने से विशेष लाभ प्राप्त होता है । वैसे भी वानस्पतिक यक्षिणी की साधना की जा सकती है । अन्य यक्षिणियों की भांति वे भी साधक की कामनाएं पूर्ण करती हैं ।

वानस्पतिक यक्षिणियों के मंत्र भी भिन्न हैं । कुछ बंदों के मंत्र भी प्राप्त होते हैं । इन यक्षिणियों की साधना में काल की प्रधानता है और स्थान का भी महत्त्व है ।

जिस ऋतु में जिस वनस्पति का विकास हो , वही ऋतु इनकी साधना में लेनी चाहिए । वसंत ऋतु को सर्वोत्तम माना गया है । दूसरा पक्ष श्रावण मास ( वर्षा ऋतु ) का है । स्थान की दृष्टि से एकांत अथवा सिद्धपीठ कामाख्या आदि उत्तम हैं । साधक को उक्त साध्य वनस्पति की छाया में निकट बैठकर उस यक्षिणी के दर्शन की उत्सुकता रखते हुए एक माह तक मंत्र - जप करने से सिद्धि प्राप्त होती हैं ।

साधना के पूर्व आषाढ़ की पूर्णिमा को क्षौरादि कर्म करके शुभ मुहूर्त्त में बिल्वपत्र के नीचे बैठकर शिव की षोडशोपचार पूजा करें और पूरे श्रावण मास में इसी प्रकार पूजा - जप के साथ प्रतिदिन कुबेर की पूजा करके निम्नलिखित कुबेर मंत्र का एक सौ आठ बार जप करें -

'' ॐ यक्षराज नमस्तुभ्यं शंकर प्रिय बांधव ।

एकां मे वशगां नित्यं यक्षिणी कुरु ते नमः ॥

इसके पश्चात् अभीष्ट यक्षिणी के मंत्र का जप करें । ब्रह्मचर्य और हविष्यान्न भक्षण आदि नियमों का पालन आवश्यक है । प्रतिदिन कुमारी - पूजन करें और जप के समय बलि नैवेद्य पास रखें । जब यक्षिणी मांगे , तब वह अर्पित करें । वर मांगने की कहने पर यथोचित वर मांगें । द्रव्य - प्राप्त होने पर उसे शुभ कार्य में भी व्यय करें ।

यह विषय अति रहस्यमय है । सबकी बलि सामग्री , जप - संख्या , जप - माला आदि भिन्न - भिन्न हैं । अतः साधक किसी योग्य गुरु की देख - रेख में पूरी विधि जानकर सधना करें , क्योंकि यक्षिणी देवियां अनेक रुप में दर्शन देती हैं उससे भय भी होता है । वानस्पतिक यक्षिणियों के वर्ग में प्रमुख नाम और उनके मंत्र इस प्रकार हैं -

बिल्व यक्षिणी - ॐ क्ली ह्रीं ऐं ॐ श्रीं महायक्षिण्यै सर्वेश्वर्यप्रदात्र्यै ॐ नमः श्रीं क्लीं ऐ आं स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।

निर्गुण्डी यक्षिणी - ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः ।

इस यक्षिणी की साधना से विद्या - लाभ होता है ।

अर्क यक्षिणी - ॐ ऐं महायक्षिण्यै सर्वकार्यसाधनं कुरु कुरु स्वाहा ।

सर्वकार्य साधन के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।

श्वेतगुंजा यक्षिणी - ॐ जगन्मात्रे नमः ।

इस यक्षिणी की साधना से अत्याधिक संतोष की प्राप्ति होती है ।

तुलसी यक्षिणी - ॐ क्लीं क्लीं नमः ।

राजसुख की प्राप्ति के लिए इस यक्षिणी की साधना की जाती है ।

कुश यक्षिणी - ॐ वाड्मयायै नमः ।

वाकसिद्धि हेतु इस यक्षिणी की साधना करें ।

पिप्पल यक्षिणी - ॐ ऐं क्लीं मे धनं कुरु कुरु स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से पुत्रादि की प्राप्ति होती है । जिनके कोई पुत्र न हो , उन्हें इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।

उदुम्बर यक्षिणी - ॐ ह्रीं श्रीं शारदायै नमः ।

विद्या की प्राप्ति के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करें ।

अपामार्ग यक्षिणी - ॐ ह्रीं भारत्यै नमः ।

इस यक्षिणी की साधना करने से परम ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

धात्री यक्षिणी - ऐं क्लीं नमः ।

इस यक्षिणी के मंत्र - जप और करने से साधना से जीवन की सभी अशुभताओं का निवारण हो जाता है ।

सहदेई यक्षिणी - ॐ नमो भगवति सहदेई सदबलदायिनी सदेववत् कुरु कुरु स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से धन - संपत्ति की प्राप्ति होती है । पहले के धन की वृद्धि होती है तथा मान - सम्मान आदि इस यक्षिणी की कृपा से सहज ही प्राप्त हो जाता है ।

बगलामुखी [ब्रह्मास्त्र विद्या ]महासाधना और प्रभाव


बगलामुखी [ब्रह्मास्त्र विद्या ]महासाधना और प्रभाव 
महाविद्या श्री बगलामुखी दश महाविद्या के अंतर्गत श्री कुल की महाविद्या है ,जिनकी पूजा साधना से सर्वाभीष्ट की प्राप्ति होती है ,,ग्रह दोष ,शत्रु बाधा ,रोग-शोक-दुष्ट प्रभाव ,वायव्य बाधा से मुक्ति मिलती है ,सर्वत्र विजय ,सम्मान ,ऐश्वर्य प्राप्त होता है ,वाद-विवाद ,मुकदमे में विजय मिलती है ,अधिकारी वर्ग वशीभूत होता है ,सामने वाले का वाक् स्तम्भन होता है और साधक को वाक् सिद्धि प्राप्त होती है ,,इनकी साधना से लौकिक और अलौकिक फलो की प्राप्ति होती है ,,
...........महाविद्या श्री बगलामुखी की साधना दक्शिनाम्नाय अथवा उर्ध्वाम्नाय से होती है ,,दक्सिनाम्नाय में इनकी दो भुजाये मानी जाती है और मंत्र में ह्ल्रिम बीज का प्रयोग होता है ,,उर्ध्वाम्नाय में इनकी चार भुजाये मानी जाती है और इनका स्वरुप ब्रह्मास्त्र स्वरूपिणी बगला का हो जाता है ,इस स्वरुप में ह्रीं बीज का प्रयोग होता है ,,.
.........बगलामुखी साधना में इनके मंत्र का सवा लाख जप ,दशांश हवन ,तर्पण ,मार्जन ,ब्राह्मण भोजन का विधान है इनकी साधना में सभी वस्तुए पीली ही उपयोग में लाने का विधान है यथा पीले फुल ,फल ,वस्त्र ,मिष्ठान्न आदि ,जप हल्दी की माला पर किया जाता है ,,.
........साधना के प्रारंभ के लिए सर्वोत्तम मुहूर्त कृष्ण चतुर्दशी और मंगलवार का संयोग होता है ,,किन्तु कृष्ण चतुर्दशी ,नवरात्र ,चतुर्थी ,नवमी [शनि-मंगल-भद्रा योग ]अथवा किसी शुभ मुहूर्त में साधना प्रारंभ की जा सकती है ,,अपने सामर्थ्य के अनुसार १५,२१,अथवा ४१ दिन में साधना पूर्ण की जा सकती है ,मंत्र संख्या प्रतिदिन बराबर होनी चाहिए ,साधना में शुचिता ,शुद्धता ,ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है ,.
...
..ब्रह्मास्त्र स्वरूपिणी बगला का पूर्ण मंत्र
""ओउम ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्ट|नाम वाचं मुखम पदम स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ओउम स्वाहा ""
होता है ..
......जिस दिन साधना प्रारंभ करे सर्वप्रथम स्नानादि से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम -पवित्री करण के बाद बगलामुखी देवी का चित्र स्थापित करे ,एक २ फीट लंबे-चौड़े लकड़ी के तख्ते या चौकी पर पीला कपडा बिछाकर उस पर रंगे हुए पीले चावलों से बगलामुखी यन्त्र बनाए |बगलामुखी यन्त्र के सामने पीले गंधक की सात ढेरिया बनाकर प्रत्येक पर दो दो लौंग रखे ,,अब गणेश-
गौरी,नवग्रह,कलश,अर्ध्यपात्र स्थापित करे ,,शान्ति पाठ, संकल्प के बाद एक अखंड दीप [जो संकल्पित दिनों तक जलता रहेगा ]देवी के सामने रखे ,चौकी पर बने यन्त्र के सामने ताम्र-स्वर्ण या रजत पत्र पर बना बगलामुखी यंत्र स्थापित करे ,,अब भोजपत्र पर अपनी आवश्यकतानुसार अष्टगंध से कनेर की कलम से बगला यंत्र बनाकर चौकी पर रखे ,इसके बाद न्यासादीकर गुरु यंत्र , कलश,नवग्रह ,देवी पूजन ,यंत्रो की प्राण प्रतिष्ठा ,यंत्र पूजन ,आदि करे ,,इस प्रक्रिया में किसी जानकार की मदद ले सकते है किन्तु जप आप स्वयं करेगे
,,,पूजनोपरांत जप हल्दी की माला पर निश्चित संख्या में निश्चित दिनों तक होगा ,प्रतिदिन के पूजन में आप पंचोपचार या दशोपचार पूजन अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते है ,,प्रतिदिन जप के बाद दशांश जप महामृत्युंजय का करे ,जप रात्री में करे ,प्रथम दिन पूजन षोडशोपचार करे ,,निश्चित दिनों और संख्या तक जप होने पर हवंन प्रक्रिया पूर्ण करे ,हवन के बाद तर्पण-मार्जा-ब्राह्मण भोजन या दान करे,धातु यन्त्र को पूजा स्थान पर स्थापित कर भोजपत्र यंत्र को ताबीज में भर ले ,,अब साधना में त्रुटी के लिए क्षमा माँगते हुए विसर्जन करे ..अब आपकी साधना पूर्ण होती है ,,,कलाशादी को हटाकर शेष सामग्री बहते जल में प्रवाहित कर दे ,,..
.....अतिरिक्त भोजपत्र यंत्रो को ताबीज में भरकर आप जिसे भी प्रदान करेगे उसे बगला कृपा प्राप्त होगी ,उसके काम बनने लगेगे ,विजय -सफलता बढ़ जायेगी ,ग्रह दोष -दुष्प्रभाव समाप्त होगे ,,वायव्य बाधा से मुक्ति,मुकदमे में विजय,शत्रु-विरोधी की पराजय ,अधिकारी वर्ग का समर्थन ,विरोधी का वाक् स्तम्भन होगा ,ऐश्वर्य वृद्धि होगी ,सभी दोष समाप्त हो सुखी होगा, उसका कल्याण होगा ,,आपको उपरोक्त परिणाम स्वयमेव प्राप्त होगे ,,,,,,आप भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त में बगला यंत्र भोजपत्र पर बनाकर पूजन कर २१०० जपादि कर ताबीज में भर जिसे भी प्रदान करेगे ,देवी कृपा उसको उपरोक्त फल प्राप्त होगे ,उसका कल्याण होगा ।
ओं रां रामाय नम:
श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता 
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

श्री भैरव स्वरूप

भैरव स्वरुप
इस जगत में सबसे ज्यादा जीव पर करूणा शिव करते है और शक्ति तो सनातनी माँ है इन दोनो में भेद नहीं है कारण दोनों माता पिता है,इस लिए करूणा,दया जो इनका स्वभाव है वह भैरव जी में विद्यमान है।सृष्टि में आसुरी शक्तियां बहुत उपद्रव करती है,उसमें भी अगर कोई विशेष साधना और भक्ति मार्ग पर चलता हो तो ये कई एक साथ साधक को कष्ट पहुँचाते है,इसलिए अगर भैरव कृपा हो जाए तो सभी आसुरी शक्ति को भैरव बाबा मार भगाते है,इसलिये ये साक्षात रक्षक है।
काल भैरव....(वाराणसी)
भूत बाधा हो या ग्रह बाधा,शत्रु भय हो रोग बाधा सभी को दूर कर भैरव कृपा प्रदान करते है।अष्ट भैरव प्रसिद्ध है परन्तु भैरव के कई अनेको रूप है सभी का महत्व है परन्तु बटुक सबसे प्यारे है।नित्य इनका ध्यान पूजन किया जाय तो सभी काम बन जाते है,जरूरत है हमें पूर्ण श्रद्धा से उन्हें पुकारने की,वे छोटे भोले शिव है ,दौड़ पड़ते है भक्त के रक्षा और कल्याण के लिए।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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जो माता बहन समस्त प्रयत्नो के पश्चात भी संतानसुख से वंचित है उनके लिए "संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र" बहुतही लाभदायक है।

जो माता बहन समस्त प्रयत्नो के पश्चात भी संतान
सुख से वंचित है उनके लिए "संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र" बहुत
ही लाभदायक है। नि:संतान दंपति इसे अवश्य
आजमाये और श्री गणेशजी का आशिर्वाद
प्राप्त करे. आशा करते है की भगवान
श्री गणेशजी नि:संतान दंपति
की इच्छा पूर्ण करेगे.
स्तोत्र के अनुष्ठान की विधि:
- हर रोज प्रात: स्नान आदि से निवृत होकर गणेश
की प्रतिमा या तस्वीर के सामने पूर्व या
उत्तर की तरफ़ मुख रखकर स्वच्छ आसन पर बैठ
जाये. तत पश्चात गणेशजी का पंचोपचार विधि (चंदन,
पुष्प, धूप-दीप और नैवेध) द्वारा पूजन करे.फ़िर इस
स्तोत्र का ह्रदय से अनुष्ठान करे.
संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र :
" नमोस्तु गणनाथाय सिद्धिबुद्धि युताय च !
सर्व प्रदाय देवाय पुत्र वृद्धि प्रदाय च !!१!!
गुरुदराय गुरुवे गोप्त्त्रे गुह्या सिताय ते !
गोप्याय गोपिता शेष भुवनाथ चिदात्मने !!२!!
विश्वमूलाय भव्याय विश्वसृष्टि कराय ते !
नमो नमस्ते सत्याय सत्यपूर्णायशुन्डिने !!३!!
एक दन्ताय शुद्धाय सुमुबाय नमो नम: !
प्रपन्न जन पालाय प्रणातार्ति विनाशने !!४!!
शरणं भय देवेश सन्तति सुद्रढां कुरु !
भविष्यन्ति च ये पुत्रा मत्कुले गणनायक !!५!!
ते सर्वे तव पूजार्थ निरता: स्युर्वरोमत: !
पुत्र प्रदमिंद स्तोत्रं सर्व सिद्धि प्रदायकम !!६!! "
उपर्युक्त 'संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र' का भक्तिपूर्वक नित्य
पाठ करने से संतान प्राप्ति होती है पति-पत्नि को साथ
बैठकर इस स्तोत्र का प्रतिदिन अनुष्ठान करना चाहिये अथवा इस
स्तोत्र का प्रार्थना के रुप में भी पाठ किया जाये तो
भी फ़लदायी सिद्ध होगा।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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श्रीगणेश जी मंत्र प्रयोग


श्री गणेश को सभी देवताओं में सबसे पहले प्रसन्न किया जाता है. श्री गणेश विध्न विनाशक है. श्री गणेश जी बुद्धि के देवता है, इनका उपवास रखने से मनोकामना की पूर्ति के साथ साथ बुद्धि का विकास व कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है. श्री गणेश को भोग में लडडू सबसे अधिक प्रिय है. इस चतुर्थी उपवास को करने वाले जन को चन्द्र दर्शन से बचना चाहिए।
ॐ ग्लां ग्लीं ग्लूं गं गणपतये नम : सिद्धिं मे देहि बुद्धिं
प्रकाशय ग्लूं गलीं ग्लां फट् स्वाहा||
विधि :- —-
इस मंत्र का जप करने वाला साधक सफेद वस्त्र धारण कर सफेद रंग के आसन पर बैठकर पूर्ववत् नियम का पालन करते हुए इस मंत्र का सात हजार जप करे| जप के समय दूब, चावल, सफेद चन्दन सूजी का लड्डू आदि रखे तथा जप काल में कपूर की धूप जलाये तो यह मंत्र ,सर्व मंत्रों को सिद्ध करने की ताकत (Power, शक्ति) प्रदान करता है|
ॐ रां रामाय नमः
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महाकाल तंत्र उद्धृत चतुर्भुज तीव्र महाकाल साधना

जय शिव शंकर शम्भू
महाकाल तंत्र उद्धृत चतुर्भुज तीव्र महाकाल साधना

गोपनीय तंत्र ग्रंथो मे महाकाल तंत्र का नाम प्रसिद्द है. ५० पटलो मे यह ग्रन्थ अपने आप मे अद्भुत है. जिसमे मुख्य रूप से महाकाल से सबंधित साधनाए, देवी साधनाए तथा तंत्र चिकित्सा के ऊपर लिखा गया है. यह ग्रन्थ मे निहित ज्यदातर साधनाए बौद्ध वज्रयान पद्धति पर ही आधारित है. मूल रूप से देखा जाए तो यह पद्धति भारतीय वाममार्ग पद्धति पर आधारित है. लेकिन समयानुसार इसमें परिवर्तन होता गया जो की तिब्बती लामाओ की शोध तथा अनुभवगम्य रहा होगा. भगवान महाकाल जिस प्रकार भारतीय साधना पद्धति मे एक उग्र देव के रूप मे प्रचलित है ठीक उसी प्रकार तिब्बती वज्रयानी साधना मे भी उनका स्थान उतना ही महत्वपूर्ण रहा है. वज्रयान मे महाकाल से सबंधित मंडल को ब्स्कांगग्सो कहा जाता है जिसमे कई उपासक एक साथ महाकाल की साधना मे प्रवृत होते है. लेकिन इस ग्रन्थ मे मंत्र तिब्बती भाषा मे न हो कर संस्कृत मे दिये है जो की इसका मूल आधार भारतीय पद्दति को ही दर्शाता है. खैर, भगवान महाकाल नित्यकल्याणमय है. महाकाल आदि शिव का ही रूप है

और अघोर पंथ मे महाकाल का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है. उग्र देवता की श्रेणी मे होने से इनकी साधनाए महत्तम तीक्ष्ण ही होती है. इस ग्रन्थ मे महाकाल के विविध मंत्रो को दिया गया है. जिसमे से एक रूप हे चतुर्भुज रूप. भगवान महाकाल स्मशानाधिस्थ बेठे है जिनकी चार भुजाए है. यह साधना मूल रूप से साधक मे आत्मिक शक्ति का विकास करती है तथा साधक मे साधना के विषयक मुख्य गुणों का विकास कराती है. जेसे की निर्भयता एवं एकाग्रता. इस चतुर्भुज महाकाल मंत्र को साधक सोमवार की रात्री मे ११.३० के बाद जपना शुरू करे. इससे पहले भगवान महाकाल का चित्र अपने सामने स्थापित करे और पूजन करे. उसके बाद रुद्राक्ष माला से निम्न चतुर्भुज महाकाल मंत्र का २१ माला जाप करे. यह क्रम अगले सोमवार तक जारी रहे. वस्त्र तथा आसान काले रंग का हो. दिशा उत्तर रहे.

ॐ ह्रीं ह्रीं हूं फट स्वाहा

इस मंत्र के प्रभाव से साधक को शरीर मे तापमान बढ़ता हुआ लग सकता है लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है, इस साधना मे यह सफलता का ही एक लक्षण है।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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सर्व सिद्धि प्रदायक प्रत्यक्ष दुर्गा सिद्धि प्रयोग


सर्व सिद्धि प्रदायक प्रत्यक्ष दुर्गा सिद्धि प्रयोग     

यह प्रयोग किसी भी दिन सम्पन्न किया जा सकता है । दुर्गा पूजा के लिए किसी भी प्रकार के मुहूर्त की आवश्यकता नहीँ रहती । 

देवी रहस्य तन्त्र के अनुसार-दुर्गा पूजा मेँ न तो कोई विशेष विधान है । न विध्न है और न कठिन आचार । प्रातः र्सूयोदय से र्पुव उठ कर साधक स्नान कर शुद्ध पीले वस्त्र धारण कर अपने पूजा स्थान को स्वच्छ करेँ । जल से धोकर स्थान शुद्धि और भूमि शुद्धि कर अपना आसन बिछाएं । आसन पर बैठ कर ध्यान करेँ और अपने चित को एकाग्र करेँ । कार्य सिद्धि साधना के संबंध मेँ पूरे विश्वाश के आधार पर कार्य करते हुए संकल्प लेँ ।  ..                                                          

   अपने सामने सिँह पर स्थित देवी का एक चित्र स्थापित करेँ और "श्री गणेशाय नमः" बोले फिर एक ओर घी का दीपक तथा दूसरी ओर धूप अगरबत्ती इत्यादि जयाएं ।

 अब बाएं हाथ मे जल लेकर दाएं हाथ से अपने मुख, शरीर इत्यादि पर छिडकते हुए निम्न मंत्रों के उच्चारण के साथ तत्व-न्यास सम्पन्न करते हुए, थोडा जल दोनो आखो मे लगा कर भूमि पर छोड देँ                                                 
ॐ आत्म तत्वाय नमः । ॐ ह्रीँ विद्या तत्वाय नमः । ॐ दुं शिव तत्वाय नमः । ॐ गुं गुरु तत्वाय नमः । ॐ ह्रीं शक्ति तत्वाय नमः । ॐ श्रीँ शक्ति तत्वाय नमः ।  

 सामने चौकी पर पीला वस्त्र बिछा कर उस पर पुष्प की पंखुडियोँ का आसन बनाएं तथा दुर्गा यंत्र को दुग्ध धारा से फिर जल धारा से धोकर साफ कपडे से पोछ कर ॥                                                             

ॐ ह्रीँ वज्रनख दंष्ट्रायुधाय महासिँहाय फट् ॥                                            

इस मंत्र का उच्चारण करते हुए दुर्गा यंत्र को पुष्प के आसन पर स्थापित कर अबीर, गुलाल, कुंकुंम, केशर, मौली, सिंन्दूर अर्पित करेँ । 

इसके  पश्चात् एक पुष्प माला देवी के चित्र पर चढाए तथा दूसरी माला इस देवी यंत्र के सामने रख देँ 
 अब दुर्गा की शक्तियो का पूजन कार्य सम्पन्न करेँ, सामने दुर्गा यंत्र के आगे 9 गोमती चक्र स्थापित करेँ । (गोमती चक्र के आभाव मे यंत्र पे ही) प्रत्येक चक्र के नीचे पुष्प की एक एक पंखुडी रखे तथा चावल को कुंकुंम से रंग कर मंत्र जप करते हुए इन 9 शक्तियो का जप करेँ ।                              
 
ॐ प्रभायै नमः । ॐ जयायै नमः । ॐ विशुद्धाय नमः । ॐ सुप्रभायै नमः  ॐ मायायै नमः । ॐ सूक्ष्मायै नमः । ॐ नन्दिन्यै नमः । ॐ विजयायै नमः । ॐ र्सव सिद्धिदायै नमः ।                                                        
अब गणेश पूजन कर देवी का पूजन सम्पन्न करेँ ।                                     

अपने हाथ मे धूप लेकर 21 बार धूप करेँ ।                                               

फिर दुर्गा अष्टाक्षर मंत्र का जप प्रारम्भ करेँ ।                                        

॥ ॐ ह्रीँ दुं दुर्गायै नमः ॥
   शारदा तिलक तंत्र शास्त्र
मे लिखा है कि शान्त ह्रदय से चित्त मे शान्ति तथा एकाग्रता रखते हुए साधक इस मंत्र की रोज 51 माला का जप 121 दिन उसी स्थान पर बैठ कर करेँ तो उसे साक्षात स्वरुप मेँ प्रगट होकर माँ अष्ट सिद्धि वरदान देती है । साधक को जो वर प्राप्त होता है, उस से साधक भैरव के समान हो जाता है । उसे अभय का वह स्वरुप प्राप्त हो जाता है कि उसके मन से भय पूण रुप से समाप्त हो जाता है । शरीर की व्याधियो का निवारण तथा दीर्धायु प्राप्ति के लिए भी यही र्सवश्रेष्ठ विधान है । प्रतिदिन पूजा के पश्चात साधक देवी की आरती तथा ताम्रपात्र मे जल को आचमनी मे लेकर ग्रहण करेँ तो उसके भीतर शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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श्री गणपति देव प्रयोग


हिन्दू धर्मशास्त्रों में सुखी जीवन, दीर्घायु और धन सुख के लिए ही बुद्धिदाता श्री गणेश व मां लक्ष्मी की उपासना का महत्व है। इन खास पदार्थो की मूर्तियां अपार धनलाभ देने वाली मानी गई है।
हरिद्रा गणपति - हल्दी से बनी गणेश मूर्ति बहुत ही मंगलकारी मानी गई है। खासतौर पर इसे लक्ष्मी का रूप माना गया है। पुराणों के मुताबिक धनलक्ष्मी देने वाली सोने की गणेश प्रतिमा न होने पर उसकी जगह हल्दी से बनी गणेश प्रतिमा की पूजा का महत्व बताया गया है।
श्वेतार्क गणेश - सफेद आंकडे की जड़ में बनी गणेश की प्रतिमा अपार सुख-सौभाग्य देने वाली ही नहीं चमत्कारी रूप से मनचाहे फल देने वाली भी मानी गई है। रविवार या पुष्य नक्षत्र में मिली अंगूठे के आकार की इस गणेश मूर्ति की पूजा लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये बहुत ही शुभ है।
गोमय गणेश मूर्ति - हिन्दू धर्म परंपराओं में गो मातृशक्ति और पवित्र मानी गई है। यहां तक कि गाय के गोबर यानी गोमय में लक्ष्मी का वास माना गया है। यही कारण है कि गोमय से बनी गणेश मूर्ति की पूजा घर में अपार धन लाभ देने वाली मानी गई है।
काष्ठ या लकड़ी के गणेश - हिन्दू धर्म में अनेक पेड़-पौधे पूजनीय और पवित्र माने गए हैं। इसलिए प्राकृतिक रूप में लकड़ी धार्मिक दृष्टि से भी बहुत पवित्र मानी गई है। पवित्रता में ही लक्ष्मी का वास माना गया है। इसी कारण धार्मिक मान्यताओं में काष्ठ यानी लकड़ी से बने भगवान गणेश की मूर्ति को घर के बाहरी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में स्थापित कर पूजने पर घर में मंगल होने के साथ ही श्री यानी लक्ष्मी का वास बना रहता है।

तंत्र मे छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रम् प्रयोग

छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रम् 
              ।। ॐ हूं ॐ ।।
छिन्नग्रीवा छिन्नमस्ता छिन्नमुण्डधराऽक्षता ।
क्षोदक्षेमकरी स्वक्षा क्षोणीशाच्छादनक्षमा ॥ १॥
वैरोचनी वरारोहा बलिदानप्रहर्षिता ।
बलिपूजितपादाब्जा वासुदेवप्रपूजिता ॥ २॥
इति द्वादशनामानि छिन्नमस्ताप्रियाणि यः ।
स्मरेत्प्रातः समुत्थाय तस्य नश्यन्ति शत्रवः ॥ ३॥
इति छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
अर्थात् - 
१) छिन्नग्रीवा - जिन्होंने अपने भक्तों के लिए अपना कंठ काट लिया है।
२) छिन्नमस्ता - जिन्होंने अपने भक्तों के लिए अपना मस्तक काट लिया है, अर्थात् अपना जीवन ही भक्तों के निमित्त अर्पित कर दिया है।
३) छिन्नमुण्डधरा - जो अपना मस्तक काटकर अपने बाएं हाथ मे धारण करती हैं।
४) अक्षता - जो पूर्ण है, जिनका कभी पराभव नही होता, जो सम्पूर्ण हैं। 
५) क्षोदक्षेमकरी - उपद्रव शांत करने में प्रवीण ।
६) स्वक्षा - सुंदर नेत्रो वाली।
७) क्षोणीशाच्छादनक्षमा - राजाओं का पालन-रक्षण करने वाली । 
८) वैरोचनी - इंद्र की पत्नी ( भगवान शंकर को उपनिषद में इंद्र कहा गया है अतः शंकर पत्नी भावार्थ लगायें)
९) वरारोहा - अत्यंत सुंदर वपु वाली 
१०) बलिदान प्रहर्षिता - भक्तो द्वारा अर्पित विभिन्न पूजन सामग्रियों, फल, मिष्ठान्न, नारियल, फूल आदि से प्रसन्न होने वाली।
११) बलिपूजितपादाब्जा - जिनके चरण कमलों में विभिन्न पदार्थ अर्पित किए जाते हैं या इन उत्तम।पदार्थों से पूजित चरण कमल वाली (फल, फूल, मिष्ठान्न, मेवा, रत्न, स्वर्ण आदि आदि) 
१२) वासुदेवप्रपूजिता - श्रीकृष्ण द्वारा पूजित व उपसित।
 जो भी साधक इन १२ नामो को प्रातःकाल उठते ही स्मरण करता है। उसके सभी शत्रुओं का नाश होता है। इन १२ नामो का निरंतर चिंतन करने वाले के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
आपकी जो भी समस्या है। उस समस्या का समाधान।
मैं केवल आपकी जन्मकुंडली देख कर ही आपकी समस्याओं का समाधान कर सकता हूं। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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तंत्र मे श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम्

श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम् 
श्रीगणेशाय नमः ।
श्रीउमामहेश्वराभ्यां नमः ।
श्रीगुरवे नमः ।
श्रीभैरवाय नमः ॥
अथ श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम् ।
ॐ चण्डं प्रतिचण्डं करधृतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरं
लोकं सुखयन्तं विलसितवन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम् ।
डमरुध्वनिशङ्खं तरलवतंसं मधुरहसन्तं लोकभरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम् ॥ १॥
चर्चितसिन्दूरं रणभूविदूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरं
किङ्किणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्प्परसावं पुण्यभरम् ।
करुणामयवेशं सकलसुरेशं मुक्तसुकेशं पापहरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ २॥
कलिमलसंहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीघ्रकरं
कलुषं शमयन्तं परिभृतसन्तं मत्तदृगन्तं शुद्धतरम् ।
गतिनिन्दितकेशं नर्तनदेशं स्वच्छकशं सन्मुण्डकरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ॥ ३॥
कठिनस्तनकुम्भं सुकृतं सुलभं कालीडिम्भं खड्गधरं
वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम् ।
तनुभाजितशेषं विलमसुदेशं कष्टसुरेशं प्रीतिनरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ॥ ४॥
ललिताननचन्द्रं सुमनवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरं
सुखिताखिललोकं परिगतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम् ।
वरदाभयहारं तरलिततारं क्षुद्रविदारं तुष्टिकरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ५॥
सकलायुधभारं विजनविहारं सुश्रविशारं भ्रष्टमलं
शरणागतपालं मृगमदभालं सञ्जितकालं स्वेष्टबलम् ।
पदनूपूरसिञ्जं त्रिनयनकञ्जं गुणिजनरञ्जन कुष्टहरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ६॥
मर्दयितुसरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदं
रक्तांशुकजोषं परिकृततोषं नाशितदोषं सन्मतिदम् ।
कुटिलभ्रुकुटीकं ज्वरधननीकं विसरन्धीकं प्रेमभरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ७॥
परिनिर्जितकामं विलसितवामं योगिजनाभं योगेशं
बहुमद्यपनाथं गीतसुगाथं कष्टसुनाथं वीरेशम् ।
कलयन्तमशेषं भृतजनदेशं नृत्यसुरेशं वीरेशं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ८॥
इति श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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मां काली प्रातः स्मरणस्तोत्रम्

मां काली प्रातः स्मरणस्तोत्रम् 
ॐ प्रातर्नमामि मनसा त्रिजगद्-विधात्रीं 
कल्याणदात्रीं कमलायताक्षीम् ।
कालीं कलानाथ-कलाभिरामां कादम्बिनी-मेचक-काय-कान्तिम् ॥ १॥
अर्थात् तीनों भुवनों की रचना करनेवाली, कल्याण की देनेवाली, कमल-सी सुन्दर आँखोंवाली, चन्द्रमा की कला से सुशोभित, सघन मेघ-सी साँवली काली को मैं प्रातःकाल मन से नमन करता हूँ ॥ १॥
जगत्प्रसूते द्रुहिणो यदर्च्चा-प्रसादतः 
पाति सुरारिहन्ता ।
अन्ते भवो हन्ति भव-प्रशान्त्यै 
तां कालिकां प्रातरहं भजामि ॥ २॥
संसार से शान्ति पाने के लिए प्रातःकाल मैं उस काली का भजन करता हूँ, जिसकी पूजा के बल से ब्रह्मा संसार की सृष्टि करते हैं, विष्णु उसका
पालन करते हैं और प्रलय-काल में रुद्र नाश करते हैं ॥ २॥
शुभाशुभैः कर्म-फलैरनेक-जन्मनि
 मे सञ्चरतो महेशि ।
माभूत् कदाचिदपि मे पशुभिश्च 
गोष्ठी दिवानिशं स्यात् कुल-मार्ग-सेवा ॥ ३॥
हे महेशि ! अच्छे-बुरे कर्मों के फल से अनेक जन्मों में घूमता हुआ मैं कभी भी पशुओं (अज्ञानियों) का संग न प्राप्त करूं और हमेशा मैं कुल-क्रम से ही तुम्हारी सेवा करता रहूँ ॥ ३॥
वामे प्रिया शाम्भव-मार्ग-निष्ठा
 पात्रं करे स्तोत्रमये मुखाब्जे ।
ध्यानं हृदब्जे गुरु-कौल-
सेवा स्युर्मे महाकालि ! तव प्रसादात् ॥ ४॥
हे महाकाली ! तुम्हारी कृपा से बायीं तरफ मनोनुकूला शक्ति, शिवजी के दिखलाये हुये मार्ग में श्रद्धा, हाथ में पात्र, मुखारविन्द में स्तुति, हृदय में ध्यान, गुरु और कौलों की सेवा, ये सब हों ॥ ४॥
श्रीकालि, मातः, परमेश्वरि !
 त्वां प्रातः समुत्थाय नमामि नित्यम् ।
दीनोऽस्म्यनाथोऽस्मि भवातुरोऽस्मि 
मां पाहि संसार-समुद्र-मग्नम् ॥ ५॥
हे काली ! हे मां ! हे परमेश्वरि ! नित्य मैं सबेरे उठ कर तुम्हें प्रणाम करता हूँ। मैं दीन हूँ, अनाथ हूँ, संसार से व्याकुल हूँ, संसार-रूपी सागर में डूबे हुए मेरी रक्षा करो ॥ ५॥
प्रातः-स्तवं यः पर-देवतायाः 
श्रीकालिकायाः शयनावसाने ।
नित्यं पठेत् तस्य 
मुखावलोकादानन्दकन्दाङ्कुरितं मनस्स्यात् ॥ ६॥
सोते से उठकर जो सबसे बडी देवता श्री कालिका के प्रातः-स्तव का पाठ करता है, उसका मुख देखने से मन में आनन्द जाग उठता है ॥ ६॥
इति श्रीकालीप्रातःस्मरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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अथ श्रीमहाभैरवाष्टकम्

अथ श्रीमहाभैरवाष्टकम् 
श्रीगणेशाय नमः । श्रीउमामहेश्वराभ्यां नमः । श्रीगुरवे नमः । श्रीभैरवाय नमः ।
अस्य श्रीबटुकभैरवाष्टकस्तोत्रमन्त्रस्य ईश्वर ऋषिः । गायत्री छन्दः । बटुकभैरवो देवताः । ह्रीं बीजम् । बटुकायेतिशक्तिः । प्रणवः कीलकम् । धर्मार्म्मार्थकाममोक्षार्थे पाठे विनियोगः ॥ 
अथ करन्यासः । कं अङ्गुष्टाभ्यां नमः । हं तर्जनीभ्यां स्वाहा । खं मध्यमाभ्यां वषट् । सं अनामिकाभ्यां हूं ।गं कनिष्टिकाभ्यां वौषट् । क्षं करतलकरपृष्टाभ्यां फट् ॥ अथ हृदयादिन्यासः । कं हृदयाय नमः । हं शिरसे स्वाहा । खं शिखायै वषट् । सं कवचाय हूं । गं नेत्रत्रयाय वौषट् । क्षं अस्त्राय फट् ॥ अथाङ्ग न्यासः ।क्षं नमः हृदि । कं नमः नासिकयोः । हं नमः ललाटे । खं नमः मुखे । सं नमः जिह्वायाम् । रं नमः कण्ठे ।मं नमः स्तनयोः । नमः नमः सर्वाङ्गेषु । आज्ञा ।तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पान्त दहनोपम । भैरवाय नमस्तुभ्यमनु ज्ञान्दातुमर्हसि ॥ १॥ अथ ध्यानम् ।  करकलितकपालः कुण्डलीदण्डपाणि  स्तरुणतिमिरनीलोव्यालयज्ञोपवीती ।क्रतुसमयसपर्या विघ्नविच्छेदहेतु- र्जयतिबटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ॥ २॥ इति ध्यानम् ।पूर्वे आसिताङ्गभैरवाय नमः पूर्वदिशि मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । आग्नेये रुरुभैरवाय नमः आग्नेये मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । दक्षिणे चण्डभैरवाय नमः दक्षिणे मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । नैऋत्ये क्रोधभैरवाय नमः नैऋत्यां मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । प्रतिच्यां उन्मत्तभैरवाय नमः प्रतिच्यां मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । वायव्ये कपालभैरवाय नमः वायव्ये मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।  उदिच्यां भीषण भैरवाय नमःउदिच्यां मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्षआवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । ईशान्यां संहारभैरवाय नमः ईशाने मां रक्ष रक्ष कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा । ॥ नमो भगवते भैरवाय नमः क्लीं क्लीं क्लीं ॥ इति मन्त्रमष्टोत्तर शतं जप्त्वा चतुर्विध पुरुषार्थसिद्धये महासिद्धिकरभैरवाष्टकस्तोत्र पाठे विनियोगः ॥ 
यं यं यं यक्षरूपं दिशिचकृतपदं भूमिकम्पायमानं सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुट्जटा भालदेशेऽर्धचन्द्रम् ।दं दं दं दीर्घकायं विकृतनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं पं पं पं पापनाशं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥रं रं रं रक्तवर्णं कटिनतनुमयं तीक्ष्णदंष्ट्रं च भीमं घं घं घं घोरघोषं घ घ घनघटितं घुर्घुरा घोरनादम् ।कं कं कं कालपाशं ध्रिकि ध्रिकि चकितं कालमेघावभासं तं तं तं दिव्यदेहं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥लं लं लं लम्बदन्तं ल ल ल लितल ल्लोलजिह्वा करालं धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकृतनखमुखं भास्वरं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं रुधिरमयतनुं ताम्रनेत्रं सुभीमं नं नं नं नग्नरूपं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥वं वं वं वायुवेगं ग्रहगणनमितं ब्रह्मरुद्रैस्सुसेव्यं खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवननिलयं घोररूपं महोग्रम् ।चं चं चं व्यालहस्तं चालित चल चला चालितं भूतचक्रं मं मं मं मातृरूपं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥शं शं शं शङ्खहस्तं शशिशकलयरं सर्पयज्ञोपवीतं मं मं मं मन्त्रवर्णं सकलजननुतं मन्त्र सूक्ष्मं सुनित्यम् ।भं भं भं भूतनाथं किलिकिलिकिलितं गेहगेहेरटन्तं अं अं अं मुख्यदेवं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥
खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं कालकालं सुकालं क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं दहदहदहनं तप्तसन्तप्तमानम् ।हं हं हं कारनादं प्रकटितदपातं गर्जितां भोपिभूमिं बं बं बं बाललीलं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥सं सं सं सिद्धियोगं सकलगुणमयं रौद्ररूपं सुरौद्रं पं पं पं पद्मनाभं हरिहरनुतं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यरूपं सततभयहरं सर्वदेवस्वरूपं रौं रौं रौं रौद्रनादं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥हं हं हं हंसहास्यं कलितकरतलेकालदण्डं करालं थं थं थं स्थैर्यरूपं शिरकपिलजटं मुक्तिदं दीर्घहास्यम् ।टं टं टंकारभीमं त्रिदशवरनुतं लटलटं कामिनां दर्पहारं भूं भूं भूं भूतनाथं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥
भैरवस्याष्टकं स्तोत्रं पवित्रं पापनाशनम् । महाभयहरं दिव्यं सिद्धिदं रोगनाशनम् ॥ 
। इति श्रीरुद्रयामलेतन्त्रे महाभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
आपकी जो भी समस्या है। उस समस्या का समाधान।
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श्रीबगलामुखीशत्रुविनाशककवचम्

श्रीबगलामुखीशत्रुविनाशककवचम् 

श्रीगणेशाय नमः । श्रीपीताम्बरायै नमः ।

श्रीदेव्युवाच -
नमस्ते शम्भवे तुभ्यं नमस्ते शशिशेखर ।
त्वत्प्रसादाच्छ्रुतं सर्वमधुना कवचं वद ॥ १॥

श्रीशिव उवाच -
श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं परमाद्भुतम् ।
यस्य स्मरणमात्रेण रिपोः स्तम्भो भवेत् क्षणात् ॥ २॥

कवचस्य च देवेशि महामायाप्रभावतः ।
पङ्क्तिः छन्दः समुद्दिष्टं देवता बगलामुखी ॥ ३॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।

ॐकारो मे शिरः पातु ह्रीङ्कारो वदनेऽवतु ॥ ४॥

बगलामुखी दोर्युग्मं कण्ठे सर्वदाऽवतु ।
दुष्टानां पातु हृदयं वाचं मुखं ततः पदम् ॥ ५॥

उदरे सर्वदा पातु स्तम्भयेति सदा मम ।
जिह्वां कीलय मे मातर्बगला सर्वसदाऽवतु ॥ ६॥

बुद्धिं विनाशय पादौ तु ह्लीं ॐ मे दिग्विदिक्षु  च ।
स्वाहा मे सर्वदा पातु सर्वत्र सर्वसन्धिषु ॥ ७॥

इति ते कथितं देवि कवचं परमाद्भुतम् ।
यस्य स्मरणमात्रेण सर्वस्थम्भो भवेत् क्षणात् ॥ ८॥

यद् धृत्वा विविधा दैत्या वासवेन हताः पुरा ।
यस्य प्रसादात् सिद्धोऽहं हरिः सत्त्वगुणान्वितः ॥ ९॥

वेधा सृष्टिं वितनुते कामः सर्वजगज्जयी ।
लिखित्वा धारयेद्यस्तु कण्ठे वा दक्षिणे भुजे ॥ १०॥

षट्कर्मसिद्धीस्तस्याशु मम तुल्यो भवेद्ध्रुवम् ।
अज्ञात्वा कवचं देवि तस्य मन्त्रो न सिध्यति ॥ ११॥

इति श्रीबगलामुखीशत्रुविनाशकं कवचं समाप्तम् ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
आपकी जो भी समस्या है। उस समस्या का समाधान।
मैं केवल आपकी जन्मकुंडली देख कर ही आपकी समस्याओं का समाधान कर सकता हूं। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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तंत्र में मांश्रीधूमावतीकवचम्

श्रीधूमावतीकवचम् 

श्रीगणेशाय नमः ।
अथ धूमावती कवचम् ।
श्रीपार्वत्युवाच -
धूमावत्यर्चनं शम्भो श्रुतं विस्तरतोमया ।
कवचं श्रोतुमिच्छामि तस्या देव वदस्व मे ॥ १॥

श्रीभैरव उवाच -
श‍ृणुदेवि परं गुह्यं न प्रकाश्यं कलौयुगे ।
कवचं श्रीधूमावत्याश्शत्रुनिग्रहकारकम् ॥ २॥

ब्रह्माद्यादेवि सततं यद्वशादरिघातिनः ।
योगिनोभवछत्रुघ्ना यस्याध्यान प्रभावतः ॥ ३॥

ॐ अस्य श्रीधूमावतीकवचस्य पिप्पलाद ऋषिः
अनुष्टुप्छन्दः श्रीधूमावती देवता धूं बीजम् स्वाहाशक्तिः
धूमावती कीलकम् शत्रुहनने पाठे विनियोगः ।

ॐ धूं बीजं मे शिरः पातु धूं ललाटं सदावतु ।
धूमानेत्रयुगं पातु वती कर्णौसदावतु ॥ ४॥

दीर्घातूदरमध्ये तु नाभिं मे मलिनाम्बरा ।
शूर्पहस्ता पातु गुह्यं रूक्षारक्षतु जानुनी ॥ ५॥

मुखं मे पातु भीमाख्या स्वाहा रक्षतु नासिकाम् ।
सर्वं विद्यावतु कष्टं विवर्णा बाहुयुग्मकम् ॥ ६॥

चञ्चला हृदयं पातु दुष्टा पार्श्वं सदावतु ।
धूतहस्ता सदा पातु पादौ पातु भयावहा ॥ ७॥

प्रवृद्धरोमा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा ।
क्षृत्पिपासार्दिता देवी भयदा कलहप्रिया ॥ ८॥

सर्वाङ्गं पातु मे देवी सर्वशत्रुविनाशिनी ।
इति ते कवचं पुण्यं कथितं भुवि दुर्लभम् ॥ ९॥

न प्रकाश्यं न प्रकाश्यं न प्रकाश्यं कलौ युगे ।
पठनीयं महादेवि त्रिसन्ध्यं ध्यानतत्परैः ।
दुष्टाभिचारो देवेशि तद्गात्रं नैव संस्पृशेत् ॥ १०॥

इति भैरवी भैरव संवादे धूमावती तत्त्वे धूमावती कवचं सम्पूर्णम्
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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तंत्र मे मां ताराकवचम्

ताराकवचम् 

श्रीगणेशाय नमः ।
ईश्वर उवाच ।
कोटितन्त्रेषु गोप्या हि विद्यातिभयमोचिनी ।
दिव्यं हि कवचं तस्याः श‍ृणुष्व सर्वकामदम् ॥ १॥

अस्य ताराकवचस्य अक्षोभ्य ऋषिः , त्रिष्टुप् छन्दः ,
भगवती तारा देवता , सर्वमन्त्रसिद्धिसमृद्धये जपे विनियोगः ।
प्रणवो मे शिरः पातु ब्रह्मरूपा महेश्वरी ।
ललाटे पातु ह्रींकारो बीजरूपा महेश्वरी ॥ २॥

स्त्रींकारो वदने नित्यं लज्जारूपा महेश्वरी ।
हूँकारः पातु हृदये भवानीरूपशक्तिधृक् ॥ ३॥

फट्कारः पातु सर्वाङ्गे सर्वसिद्धिफलप्रदा ।
खर्वा मां पातु देवेशी गण्डयुग्मे भयापहा ॥ ४॥

निम्नोदरी सदा स्कन्धयुग्मे पातु महेश्वरी ।
व्याघ्रचर्मावृता कट्यां पातु देवी शिवप्रिया ॥ ५॥

पीनोन्नतस्तनी पातु पार्श्वयुग्मे महेश्वरी ।
रक्तवर्तुलनेत्रा च कटिदेशे सदाऽवतु ॥ ६॥

ललजिह्वा सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी ।
करालास्या सदा पातु लिङ्गे देवी हरप्रिया ॥ ७॥

पिङ्गोग्रैकजटा पातु जङ्घायां विघ्ननाशिनी ।
प्रेतखर्परभृद्देवी जानुचक्रे महेश्वरी ॥ ८॥

नीलवर्णा सदा पातु जानुनी सर्वदा मम ।
नागकुण्डलधर्त्री च पातु पादयुगे ततः ॥ ९॥

नागहारधरा देवी सर्वाङ्गं पातु सर्वदा ।
नागकङ्कधरा देवी पातु प्रान्तरदेशतः ॥ १०॥

चतुर्भुजा सदा पातु गमने शत्रुनाशिनी ।
खड्गहस्ता महादेवी श्रवणे पातु सर्वदा ॥ ११॥

नीलाम्बरधरा देवी पातु मां विघ्ननाशिनी ।
कर्त्रिहस्ता सदा पातु विवादे शत्रुमध्यतः ॥ १२॥

ब्रह्मरूपधरा देवी सङ्ग्रामे पातु सर्वदा ।
नागकङ्कणधर्त्री च भोजने पातु सर्वदा ॥ १३॥

शवकर्णा महादेवी शयने पातु सर्वदा ।
वीरासनधरा देवी निद्रायां पातु सर्वदा ॥ १४॥

धनुर्बाणधरा देवी पातु मां विघ्नसङ्कुले ।
नागाञ्चितकटी पातु देवी मां सर्वकर्मसु ॥ १५॥

छिन्नमुण्डधरा देवी कानने पातु सर्वदा ।
चितामध्यस्थिता देवी मारणे पातु सर्वदा ॥ १६॥

द्वीपिचर्मधरा देवी पुत्रदारधनादिषु ।
अलङ्कारान्विता देवी पातु मां हरवल्लभा ॥ १७॥

रक्ष रक्ष नदीकुञ्जे हूं हूं फट् सुसमन्विते ।
बीजरूपा महादेवी पर्वते पातु सर्वदा ॥ १८॥

मणिभृद्वज्रिणी देवी महाप्रतिसरे तथा ।
रक्ष रक्ष सदा हूं हूं ॐ ह्रीं स्वाहा महेश्वरी ॥ १९॥

पुष्पकेतुरजार्हेति कानने पातु सर्वदा ।
ॐ ह्रीं वज्रपुष्पं हुं फट् प्रान्तरे सर्वकामदा ॥ २०॥

ॐ पुष्पे पुष्पे महापुष्पे पातु पुत्रान्महेश्वरी ।
हूं स्वाहा शक्तिसंयुक्ता दारान् रक्षतु सर्वदा ॥ २१॥

ॐ आं हूं स्वाहा महेशानी पातु द्यूते हरप्रिया ।
ॐ ह्रीं सर्वविघ्नोत्सारिणी देवी विघ्नान्मां सदाऽवतु ॥ २२॥

ॐ पवित्रवज्रभूमे हुंफट्स्वाहा समन्विता ।
पूरिका पातु मां देवी सर्वविघ्नविनाशिनी ॥ २३॥

ॐ आः सुरेखे वज्ररेखे हुंफट्स्वाहासमन्विता ।
पाताले पातु सा देवी लाकिनी नामसंज्ञिका ॥ २४॥

ह्रींकारी पातु मां पूर्वे शक्तिरूपा महेश्वरी ।
स्त्रींकारी पातु देवेशी वधूरूपा महेश्वरी ॥ २५॥

हूंस्वरूपा महादेवी पातु मां क्रोधरूपिणी ।
फट्स्वरूपा महामाया उत्तरे पातु सर्वदा ॥ २६॥

पश्चिमे पातु मां देवी फट्स्वरूपा हरप्रिया ।
मध्ये मां पातु देवेशी हूंस्वरूपा नगात्मजा ॥ २७॥

नीलवर्णा सदा पातु सर्वतो वाग्भवा सदा ।
भवानी पातु भवने सर्वैश्वर्यप्रदायिनी ॥ २८॥

विद्यादानरता देवी वक्त्रे नीलसरस्वती ।
शास्त्रे वादे च सङ्ग्रामे जले च विषमे गिरौ ॥ २९॥

भीमरूपा सदा पातु श्मशाने भयनाशिनी ।
भूतप्रेतालये घोरे दुर्गमा श्रीघनाऽवतु ॥ ३०॥

पातु नित्यं महेशानी सर्वत्र शिवदूतिका ।
कवचस्य माहात्म्यं नाहं वर्षशतैरपि ॥ ३१॥

शक्नोमि गदितुं देवि भवेत्तस्य फलं च यत् ।
पुत्रदारेषु बन्धूनां सर्वदेशे च सर्वदा ॥ ३२॥

न विद्यते भयं तस्य नृपपूज्यो भवेच्च सः ।
शुचिर्भूत्वाऽशुचिर्वापि कवचं सर्वकामदम् ॥ ३३॥

प्रपठन् वा स्मरन्मर्त्यो दुःखशोकविवर्जितः ।
सर्वशास्त्रे महेशानि कविराड् भवति ध्रुवम् ॥ ३४॥

सर्ववागीश्वरो मर्त्यो लोकवश्यो धनेश्वरः ।
रणे द्यूते विवादे च जयस्तत्र भवेद् ध्रुवम् ॥ ३५॥

पुत्रपौतान्वितो मर्त्यो विलासी सर्वयोषिताम् ।
शत्रवो दासतां यान्ति सर्वेषां वल्लभः सदा ॥ ३६॥

गर्वी खर्वी भवत्येव वादी स्खलति दर्शनात् ।
मृत्युश्च वश्यतां याति दासास्तस्यावनीभुजः ॥ ३७॥

प्रसङ्गात्कथितं सर्वं कवचं सर्वकामदम् ।
प्रपठन्वा स्मरन्मर्त्यः शापानुग्रहणे क्षमः ॥ ३८॥

आनन्दवृन्दसिन्धूनामधिपः कविराड् भवेत् ।
सर्ववागिश्वरो मर्त्यो लोकवश्यः सदा सुखी ॥ ३९॥

गुरोः प्रसादमासाद्य विद्यां प्राप्य सुगोपिताम् ।
तत्रापि कवचं देवि दुर्लभं भुवनत्रये ॥ ४०॥

गुरुर्देवो हरः साक्षात्तत्पत्नी तु हरप्रिया ।
अभेदेन भजेद्यस्तु तस्य सिद्धिदूरतः ॥ ४१॥

मन्त्राचारा महेशानि कथिताः पूर्ववत्प्रिये ।
नाभौ ज्योतिस्तथा रक्तं हृदयोपरि चिन्तयेत् ॥ ४२॥

ऐश्वर्यं सुकवित्वं च महावागिश्वरो नृपः ।
नित्यं तस्य महेशानि महिलासङ्गमं चरेत् ॥ ४३॥

पञ्चाचाररतो मर्त्यः सिद्धो भवति नान्यथा ।
शक्तियुक्तो भवेन्मर्त्यः सिद्धो भवति नान्यथा ॥ ४४॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ये देवासुरमानुषाः ।
तं दृष्ट्वा साधकं देवि लज्जायुक्ता भवन्ति ते ॥ ४५॥

स्वर्गे मर्त्ये च पाताले ये देवाः सिद्धिदायकाः ।
प्रशंसन्ति सदा देवि तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम् ॥ ४६॥

विघ्नात्मकाश्च ये देवाः स्वर्गे मर्त्ये रसातले ।
प्रशंसन्ति सदा सर्वे तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम् ॥ ४७॥

इति ते कथितं देवि मया सम्यक्प्रकीर्तितम् ।
भुक्तिमुक्तिकरं साक्षात्कल्पवृक्षस्वरूपकम् ॥ ४८॥

आसाद्याद्यगुरुं प्रसाद्य य इदं कल्पद्रुमालम्बनं
मोहेनापि मदेन चापि रहितो जाड्येन वा युज्यते ।
सिद्धोऽसौ भुवि सर्वदुःखविपदां पारं प्रयात्यन्तके
मित्रं तस्य नृपाश्च देवि विपदो नश्यन्ति तस्याशु च ॥ ४९॥

तद्गात्रं प्राप्य शस्त्राणि ब्रह्मास्त्रादीनि वै भुवि ।
तस्य गेहे स्थिरा लक्ष्मीर्वाणी वक्त्रे वसेद् ध्रुवम् ॥ ५०॥

इदं कवचमज्ञात्वा तारां यो भजते नरः ।
अल्पायुर्निर्द्धनो मूर्खो भवत्येव न संशयः ॥ ५१॥

लिखित्वा धारयेद्यस्तु कण्ठे वा मस्तके भुजे ।
तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याद्यद्यन्मनसि वर्तते ॥ ५२॥

गोरोचनाकुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा ।
यावकैर्वा महेशानि लिखेन्मन्त्रं समाहितः ॥ ५३॥

अष्टम्यां मङ्गलदिने चतुर्द्दश्यामथापि वा ।
सन्ध्यायां देवदेवेशि लिखेद्यन्त्रं समाहितः ॥ ५४॥

मघायां श्रवणे वापि रेवत्यां वा विशेषतः ।
सिंहराशौ गते चन्द्रे कर्कटस्थे दिवाकरे ॥ ५५॥

मीनराशौ गुरौ याते वृश्चिकस्थे शनैश्चरे ।
लिखित्वा धारयेद्यस्तु उत्तराभिमुखो भवेत् ॥ ५६॥

श्मशाने प्रान्तरे वापि शून्यागारे विशेषतः ।
निशायां वा लिखेन्मन्त्रं तस्य सिद्धिरचञ्चला ॥ ५७॥

भूर्जपत्रे लिखेन्मन्त्रं गुरुणा च महेश्वरि ।
ध्यानधारणयोगेन धारयेद्यस्तु भक्तितः ॥ ५८॥

अचिरात्तस्य सिद्धिः स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥ ५९॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे उग्रताराकवचं सम्पूर्णम् ॥
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
आपकी जो भी समस्या है। उस समस्या का समाधान।
मैं केवल आपकी जन्मकुंडली देख कर ही आपकी समस्याओं का समाधान कर सकता हूं। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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दशमहाविद्यास्तोत्रम्

दशमहाविद्यास्तोत्रम् 

श्रीपार्वत्युवाच -

नमस्तुभ्यं महादेव! विश्वनाथ ! जगद्गुरो ! ।
श्रुतं ज्ञानं महादेव ! नानातन्त्र तवाननत् ॥

इदानीं ज्ञानं महादेव ! गुह्यस्तोत्रं वद प्रभो ! ।
कवचं ब्रूहि मे नाथ ! मन्त्रचैतन्यकारणम् ॥

मन्त्रसिद्धिकरं गुह्याद्गुह्यं मोक्षैधायकम् ।
श्रुत्वा मोक्षमवाप्नोति ज्ञात्वा विद्यां महेश्वर ! ॥

श्री शिव उवाच -
दुर्लभं तारिणीमार्गं दुर्लभं तारिणीपदम् ।
मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं दुर्लभं शवसाधनम् ॥

श्मशानसाधनं योनिसाधनं ब्रह्मसाधनम् ।
क्रियासाधनकं भक्तिसाधनं मुक्तिसाधनम् ॥

तव प्रसादाद्देवेशि! सर्वाः सिद्ध्यन्ति सिद्धयः ।

ॐ नमस्ते चण्डिके चण्डि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
नमस्ते कालिके कालमहाभयविनाशिनि ॥ १॥

शिवे रक्ष जगद्धात्रि प्रसीद हरवल्लभे ।
प्रणमामि जगद्धात्रीं जगत्पालनकारिणीम् ॥ २॥

जगत् क्षोभकरीं विद्यां जगत्सृष्टिविधायिनीम् ।
करालां विकटां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् ॥ ३॥

हरार्चितां हराराध्यां नमामि हरवल्लभाम् ।
गौरीं गुरुप्रियां गौरवर्णालङ्कारभूषिताम् ॥ ४॥

हरिप्रियां महामायां नमामि ब्रह्मपूजिताम् ।
सिद्धां सिद्धेश्वरीं सिद्धविद्याधरङ्गणैर्युताम् ॥ ५॥

मन्त्रसिद्धिप्रदां योनिसिद्धिदां लिङ्गशोभिताम् ।
प्रणमामि महामायां दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् ॥ ६॥

उग्रामुग्रमयीमुग्रतारामुग्रगणैर्युताम् ।
नीलां नीलघनश्यामां नमामि नीलसुन्दरीम् ॥ ७॥

श्यामाङ्गीं श्यामघटितां श्यामवर्णविभूषिताम् ।
प्रणमामि जगद्धात्रीं गौरीं सर्वार्थसाधिनीम् ॥ ८॥

विश्वेश्वरीं महाघोरां विकटां घोरनादिनीम् ।
आद्यामाद्यगुरोराद्यामाद्यनाथप्रपूजिताम् ॥ ९॥

श्रीं दुर्गां धनदामन्नपूर्णां पद्मां सुरेश्वरीम् ।
प्रणमामि जगद्धात्रीं चन्द्रशेखरवल्लभाम् ॥ १०॥

त्रिपुरां सुन्दरीं बालामबलागणभूषिताम् ।
शिवदूतीं शिवाराध्यां शिवध्येयां सनातनीम् ॥ ११॥

सुन्दरीं तारिणीं सर्वशिवागणविभूषिताम् ।
नारायणीं विष्णुपूज्यां ब्रह्मविष्णुहरप्रियाम् ॥ १२॥

सर्वसिद्धिप्रदां नित्यामनित्यां गुणवर्जिताम् ।
सगुणां निर्गुणां ध्येयामर्चितां सर्वसिद्धिदाम् ॥ १३॥

विद्यां सिद्धिप्रदां विद्यां महाविद्यां महेश्वरीम् ।
महेशभक्तां माहेशीं महाकालप्रपूजिताम् ॥ १४॥

प्रणमामि जगद्धात्रीं शुम्भासुरविमर्दिनीम् ।
रक्तप्रियां रक्तवर्णां रक्तबीजविमर्दिनीम् ॥ १५॥

भैरवीं भुवनां देवीं लोलजिह्वां सुरेश्वरीम् ।
चतुर्भुजां दशभुजामष्टादशभुजां शुभाम् ॥ १६॥

त्रिपुरेशीं विश्वनाथप्रियां विश्वेश्वरीं शिवाम् ।
अट्टहासामट्टहासप्रियां धूम्रविनाशिनीम् ॥ १७॥

कमलां छिन्नभालाञ्च मातङ्गीं सुरसुन्दरीम् ।
षोडशीं विजयां भीमां धूमाञ्च वगलामुखीम् ॥ १८॥

सर्वसिद्धिप्रदां सर्वविद्यामन्त्रविशोधिनीम् ।
प्रणमामि जगत्तारां साराञ्च मन्त्रसिद्धये ॥ १९॥

इत्येवञ्च वरारोहे स्तोत्रं सिद्धिकरं परम् ।
पठित्वा मोक्षमाप्नोति सत्यं वै गिरिनन्दिनि ॥ २०॥

कुजवारे चतुर्दश्याममायां जीववासरे ।
शुक्रे निशिगते स्तोत्रं पठित्वा मोक्षमाप्नुयात् ॥

त्रिपक्षे मन्त्रसिद्धि स्यात्स्तोत्रपाठाद्धि शंकरि ।
चतुर्दश्यां निशाभागे निशि भौमेऽष्टमीदिने ॥

निशामुखे पठेत्स्तोत्रं मन्त्र सिद्धिमवाप्नुयात् ।
केवलं स्तोत्रपाठाद्धि तन्त्रसिद्धिरनुत्तमा ।
जागर्ति सततं चण्डी स्तवपाठाद्भुजङ्गिनी ॥

इति मुण्डमालातन्त्रोक्त पञ्चदशपटलान्तर्गतं
                      दशमहाविद्यास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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नवग्रहों को शांत करने के लिए श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी अत्‍यंत प्रभावकारी है।


नवग्रहों को शांत करने के लिए श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी अत्‍यंत प्रभावकारी है। जीवन पर सौरमंडल के नौ ग्रहों का अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी नवग्रहों को प्रतिबिंबित करता है। इस यंत्र की पूजा से मनुष्‍य को जीवन के हर पड़ाव और पहलू पर सफलता मिलती है।

इस यंत्र से सभी ग्रह शांत रहते हैं और आपके जीवन में सुख-समृ‍द्धि प्रदान करते हैं। श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी नवग्रहों के अशुभ प्रभाव को कम करता है।

श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी के लाभ
श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी के पूजन से नवग्रहों का अशुभ प्रभाव कम होता है और आपको ग्रहों के शुभ प्रभाव मिलने लगते हैं। 
जिस व्‍यक्‍ति की कुंडली में कोई भी ग्रह अशुभ या नीच स्‍थान में बैठा हो तो श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी की स्‍थापना और पूजन अवश्‍य करना चाहिए। इस यंत्र के पूजन से आपके जीवन की सभी समस्‍याएं दूर होती हैं।
किसी भी ग्रह के प्रकोप से पीडित हैं तो आपको श्री नवग्रह शक्‍ति यंत्र चौकी की पूजा करनी चाहिए।
इस यंत्र की सहायता से जीवन में शांति, सुख और पॉजिटीविटी आती है।
कैसे करें पूजा
अपने घर के पूजन स्‍थल पर पूर्व दिशा में इस चौकी को स्‍थापित करें। इसके आगे धूप और दीप जलाएं।

अपने ईष्‍ट देव की आराधना करें और नवग्रहों से आप और आपके परिवार के ऊपर कृपा बरसाने की प्रार्थना करें। गंगाजल छिड़क कर घी का दीया जलाएं।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
अपनी समस्याओं के समाधान हेतु संपर्क करें। 
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अगर शत्रु पीछे पड़ा हो यह उपाय करे।

अगर शत्रु पीछे पड़ा हो, किसी को बिना किसी कारण से परेशान कर रहा हो तो हनुमान जी की शरण में जाएँ । नित्य हनुमान जी को गुड़ या बूंदी का भोग लगाएं, हनुमान जी को लाल गुलाब चढ़ाकर हनुमान चालीसा , बजरंग बाण का पाठ करें और प्रतिदिन कच्ची धानी के तेल के दीपक में लौंग डालकर हनुमान जी की आरती करें , और अपने उनसे शत्रु को नष्ट करने / परास्त करने की प्रार्थना करें। अपनी कमीज़ की सामने वाली जेब में लाल रंग की छोटी हनुमान चालीसा रखें ,इससे संकटमोचन की कृपा से सभी तरह के अनिष्ट दूर होते है, मनोबल बढ़ता है, जातक निर्भय हो जाता है, नए और शक्तिशाली मित्र बनते है। शत्रु कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता है और शांत हो जाता है।
ॐ रां रामाय नमः
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यह फ्री सेवा नही है। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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रुका फंसा हुआ धन वापस पाने के उपाए।

रुका फंसा हुआ धन वापस पाने के उपाए

1. किसी बुधवार के दिन, हो सके तो कृष्ण पक्ष के किसी बुधवार या बुधवार को पड़ने वाली अमावस्या पर शाम के समय मीठे तेल की पाँच पूड़ियाँ बना लें। सबसे ऊपर की पूड़ी पर रोली से एक स्वास्तिक का चिन्ह बनायें और उसपर गेहूं के आटे का एक दिया सरसों का तेल डाल कर रख लें। दिया जलाएं और फिर उसपर भी रोली से तिलक करें। पीले या लाल रंग का एक पुष्प अर्पित करें। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान भगवान श्री गणेश से उस व्यक्ति से अपना धन वापस दिलाने की प्रार्थना करते रहें। फिर बाएं हाथ में सरसों और उड़द के कुछ दाने लेकर निम्न मंत्र का जप करते जाएँ और पूड़ी तथा दिए पर छोड़ते जाएँ । ये मन्त्र 21 बार जपना है
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रैं ह्रूं ह्रः हेराम्बाय नमो नमः। मम धनं प्रतिगृहं कुरु कुरु स्वाहा। 
तत्पश्चात इस सामग्री को लेजाकर उस व्यक्ति के घर के पास यानि मुख्य द्वार के सामने या ऐसे स्थान पर रख दें जहाँ से उसका मुख्यद्वार या घर नज़र आता हो। मुख्यद्वार के सामने रखने का अर्थ ये है के सड़क के दूसरी ओर यदि वहां भी कोई घर हो और रखने का मौका न मिले तो एक निश्चित दुरी पर रख दें जहाँ से कम से कम उसका घर नज़र आता हो।ॐ रां रामाय नमः
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धनवान बनने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है ।

धनवान बनने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि धन की देवी यानी महालक्ष्मी आप पर प्रसन्न हो। क्योंकि जब तक महालक्ष्मी प्रसन्न नहीं होगी आप धनवान नहीं बन सकते। यदि आप महालक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहते हैं तो नीचे लिखे श्री महालक्ष्मी बीज मंत्र का विधि-विधान से जप करें। इस मंत्र का जप करने से महालक्ष्मी प्रसन्न होगी और साधक की धन-संपत्ति आदि सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी। मंत्र इस प्रकार है---
बीज मंत्र
ऊँ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:
जप विधि :--
- शुक्रवार के दिन सुबह जल्दी उठकर नहाकर व साफ वस्त्र पहनकर सबसे पहले मां महालक्ष्मी की पूजा करें।
- मां महालक्ष्मी को कमल का फूल, चंदन, केसर, पीला वस्त्र, इत्र व मिठाई अर्पित करें।
- इसके बाद एकांत में कुश के आसन पर बैठकर कमल गट्टे की माला से इस मंत्र का जप 11 बार करें।
- अब प्रति शुक्रवार इस मंत्र की 11 माला जप करने से अति शीघ्र आपकी समस्या का समाधान हो जाएगा।

कभी-कभी उधार में बहुत-सा पैसा फंस जाता है।

कभी-कभी उधार में बहुत-सा पैसा फंस जाता है। ऐसी स्थिति में यह प्रयोग करे
किसी भी शुक्ल पक्ष की अष्टमी को रुई धुनने वाले से थोड़ी साफ रुई खरीदकर ले आएँ। उसकी चार बत्तियाँ बना लें। बत्तियों को जावित्री, नागकेसर तथा काले तिल (तीनों अल्प मात्रा में) थोड़ा-सा गीला करके सान लें। यह चारों बत्तियाँ किसी चौमुखे दिए में रख लें। रात्रि को सुविधानुसार किसी भी समय दिए में तिल का तेल डालकर चौराहे पर चुपके से रखकर जला दें। अपनी मध्यमा अंगुली का साफ पिन से एक बूँद खून निकाल कर दिए पर टपका दें। मन में सम्बन्धित व्यक्ति या व्यक्तियों के नाम, जिनसे कार्य है, तीन बार पुकारें। मन में विश्वास जमाएं कि परिश्रम से अर्जित आपकी धनराशि आपको अवश्य ही मिलेगी। इसके बाद बिना पीछे मुड़े चुपचाप घर लौट आएँ। अगले दिन सर्वप्रथम एक रोटी पर गुड़ रखकर गाय को खिला दें। यदि गाय न मिल सके तो उसके नाम से निकालकर घर की छत पर रख दें।

।। नवार्ण तांत्रिक महामंत्र ।।

।।  नवार्ण तांत्रिक महामंत्र  ।।
ओम ऐं ह्रीं क्लीं महादुर्गे नवाक्षरी नवदुर्गे नवात्मिके नवचन्डी महामाये महायोगनिंद्न्जये मधूकैटभ विद्राविणी महिषासुरमर्दिनी धूम्रल़ोचन संहंत्री चंड मुंड विनाशिनी रक्तबीजान्तके निशुम्भध्वंशिनी शुम्भ दर्पघ्नी देवी अष्टादशबाहुके  कपाल खट्वांग शूल खडग खेटकधारिणी छिन्नमस्तकधारिणी रूधिरमांसभोजिनी समस्त भूतप्रेतादियोगध्वंसिनी ब्रम्हा इन्दा्दिक स्तुते देवी माम रक्ष रक्ष मम शत्रून नाशय नाशय ह्रीं फट् हूं फट्।
ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुन्डायै विच्चे नमः

इस मंत्र का सिर्फ नित्य एक 108 बार जप करना चाहिये।
समस्त प्रकार की अभिलाषा को पूर्ण करता है।
अधिक जानकारी के लिए आप संपर्क कर सकते है।
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श्री राम ज्योतिष सदन 
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आपकी जो भी समस्या है। उस समस्या का समाधान।
मैं केवल आपकी जन्मकुंडली देख कर ही आपकी समस्याओं का समाधान कर सकता हूं। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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श्रीलक्ष्मी नरसिंह सुप्रभात स्तोत्रम

श्रीलक्ष्मी नरसिंह सुप्रभातस्तोत्रम् 
। श्री यादगिरि लक्ष्मीनृसिंह सुप्रभातम्
श्री वङ्गीपुरम् नरसिंहाचार्यरचित ।
कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते ।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल! कर्तव्यं दैवमाह्निकम् ॥ १॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविंद उत्तिष्ठ गरुडध्वज ।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मङ्गळं कुरु ॥ २॥

यादाद्रिनाथशुभमन्दिरकल्पवल्लि
पद्मालये जननि पद्मभवादिवन्द्ये ।
भक्तार्तिभञ्जनि दयामयदिव्यरूपे
लक्ष्मीनृसिंहदयिते तव सुप्रभातम् ॥ ३॥

ज्वालानृसिंह करुणामय दिव्यमूर्ते
योगाभिनन्दन नृसिंह दयासमुद्र! ।
लक्ष्मीनृसिंह शरणागतपारिजात
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ४॥

श्रीरङ्गवेङ्कटमहीधरहस्तिशैल
श्री यादवाद्रिमुखसत्त्वनिकेतनानि ।
स्थानानि तेकिल वदन्ति परावरज्ञाः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ५॥

ब्रह्मादयस्सुरवर मुनिपुङ्गवाश्च
त्वां सेवितुं विविधमङ्गळवस्तुहस्ताः ।
द्वारे वसन्ति नरसिंह भवाब्धिपोत
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ६॥

प्रह्लाद नारद पराशर पुण्डरीक
व्यासादिभक्तरसिका भवदीयसेवाम् ।
वाञ्छन्त्यनन्यहृदया करुणासमुद्र
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ७॥

त्वद्दास्यभोगरसिकाश्शठजिन्मुखार्याः
रामानुजादिमहनीयगुरुप्रधानाः ।
सेवार्थ मत्र भवदीयगृहाङ्गणस्थाः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ८॥

भक्ता स्त्वदीयपदपङ्कजसक्तचित्ताः
काल्यं विधाय तवकन्दर मन्दिराग्रे ।
त्वद्दर्शनोत्सुकतया निबिडं श्रयन्ते
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ९॥

दिव्यावतारदशके नरसिंह ते तु
दिव्यावतारमहिमा नहि देवगम्यः ।
प्रह्लाददानवशिशोःकिल भक्तिगम्यः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १०॥

श्रीयादवाद्रिशिखरे त्वमहोबिलेऽपि
सिंहाचले च शुभमङ्गळशैलराजे ।
वेदाचलादि गिरि मूर्धसु सुस्थितोसि
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ११॥

काम्यार्थिनो वरदकल्पक कल्पकं त्वां
सेवार्थिनः स्सुजनसेव्यपदद्वयं त्वाम् ।
भक्त्या विनम्र शिरसा प्रणमन्ति सर्वे
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १२॥

त्वन्नाममन्त्रपठनेन लुठन्ति पापाः
त्वन्नाममन्त्रपठनेन लुठन्ति दैत्याः ।
त्वन्नाममन्त्रपठनेन लुठन्तिरोगाः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १३॥

लक्ष्मीनृसिंह! जगदीश! सुरेश! विष्णो
जिष्णो! जनार्दन! परात्पर विश्वरूप ।
विश्वप्रभातकरणाय कृतावतार
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १४॥

त्वन्नाममन्त्र पठनंकिलसुप्रभातं
अस्माकमस्तु तवचास्तु च सुप्रभातम् ।
अस्मत्समुद्धरणमेव विचित्रगाध
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १५॥

त्वत् पूजका परिव्रुढा परिचारकाश्च
नित्यार्चनाय विधिवद्विहित स्वक्रुत्याः ।
यत्तस्त्वदीय शुभगह्वर मन्दिराग्रे
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १६॥

प्राभातकीमुपचितिम् परिकल्पयन्तः
कुण्डाश्च पूर्णजलकुम्भमुपाहरन्तः ।
श्रीवैष्णवाः समुपयान्तिहरे! नृसिंह
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १७॥

सूर्योऽभ्युदेति विकसन्ति सरोरुहाणि
नीलोत्पलानि हि भवन्ति निमीलितानि ।
प्राग्दिङ्मुखेरुणगभस्तिगणोऽभ्युदेति
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १८॥

मन्दानिलस्सुर नदीकमलोदरेशु
मन्दंविगाह्य शुभसौरभ मादधानः ।
हर्षप्रकर्षमुपयाति च सेवितुं त्वां
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ १९॥

तारागणोवियति मज्जति सुप्रभाते
सूर्येणसाकमवलोकयितुं त्वदीयम् ।
श्रीसुप्रभातमवभासित सर्वलोकं
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २०॥

पक्षिस्वनाश्चपरितःपरिसम्पतन्ति
कूजन्तिकोकिलगणाःकलकंठरावैः ।
वाचा विशुद्धकलयानुवदन्तिकीराः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २१॥

पल्लीषु वल्लवजनाःस्वगृहाङ्गणेषु
धेनूर्दुहन्ति विनिभान्ति विशेषदृष्ट्या ।
गोपालबाल इव भक्तहृदम्बुजेषु
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २२॥

गाढांधकारपटलम् गगनंजहाति
मोहान्धकार इव सन्मनुजम् समस्तम् ।
रागोविराग इव संविशति प्रकामं
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २३॥

निद्राजहाति हि जनान् सुमुनिं यधावत्
प्रज्ञाप्युदेति हि जनेषु मुनौयधावत् ।
सक्तिर्जनेषु हि यथा च मुनौविरक्तिः
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २४॥

फुल्लानिपङ्कजवनानि विशुद्धसत्त्व
फुल्लानि सज्जनमनःकमलानि यद्वत् ।
भाश्शुद्धसत्वमिव भाति विदिक्षु दिक्षु
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २५॥

ब्रह्मास्वयंसुरगणैस्सहलोकपालैः
धामप्रविश्य तव मण्डपगोपुराढ्यम् ।
पञ्चाङ्गशुद्धिमभिवर्णयति त्वदीयां
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २६॥

विख्यातवैद्यजन वञ्चकरोगजाल
विख्यातवैद्य इति रोगनिपीडितास्त्वाम् ।
निश्चित्यधाम तव दूरत आपतन्ति
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २७॥

भूतग्रहादि बलवत्तर तापयुक्ताः
बाणावतीमुख महोग्रपिशाच विद्धाः ।
स्नाताःप्रदक्षिणविधा वुपयान्तिनाथ
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २८॥

सन्तानहीन वनितास्सरसि त्वदीये
स्नात्वाजलार्द्रवसनास्तव दर्शनाय ।
आयान्तिसन्ततिवरप्रद देवदेव
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ २९॥

यद्दुष्ट संहरणमुत्तमलोकरक्षा
दीक्षां व्यनक्ति तवरूप महोनृसिंह ।
तच्चात्र यादगिरिमूर्थनिसंविभाति
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ३०॥

प्रह्लाद पुण्यजनि पुण्यबलात्प्रतीतं
रूपं जनस्तवहरे निगमान्तवेद्यम् ।
प्रातःस्मरंस्तरति संस्मारणाम्बुराशिं
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ३१॥

श्रीसुप्रभातमिदमच्युतकैतवोक्त
मप्यच्युतं भवतुभक्तजनैकवेद्यम् ।
लक्ष्मीनृसिंह तव नामशुभप्रभावात्
यादाद्रिनाथ नृहरे! तव सुप्रभातम् ॥ ३२॥

इत्थं यादाद्रिनाथस्य सुप्रभात मतन्द्रिताः ।
ये पठन्ति सदा भक्त्या ते नरास्सुखभागिनः ॥ ३३॥

इति श्री लक्ष्मी नरसिंह सुप्रभातम् ।

नरसिंह माला सिद्ध मंत्र

श्रीनृसिंहमालामन्त्रः -
श्री गणेशाय नमः ।
अस्य श्री नृसिंहमालामन्त्रस्य नारदभगवान् ऋषिः ।
अनुष्टुभ् छन्दः । श्री नृसिंहोदेवता । आं बीजम् ।
लं शवित्तः । मेरुकीलकम् ।
श्रीनृसिंहप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥
ॐ नमो नृसिंहाय ज्वलामुखग्निनेत्रय शङ्खचक्रगदाप्र्हस्ताय ।
योगरूपाय हिरण्यकशिपुच्छेदनान्त्रमालाविभुषणाय हन हन दह
दह वच वच रक्ष वो नृसिंहाय पुर्वदिषां बन्ध बन्ध
रौद्रभसिंहाय दक्षिणदिशां बन्ध बन्ध पावननृसिंहाय
पश्चिमदिशां बन्ध बन्ध दारुणनृसिंहाय उत्तरदिशां बन्ध
बन्ध ज्वालानृसिंहाय आकाशदिशां बन्ध बन्ध लक्ष्मीनृसिंहाय
पातालदिशां बन्ध बन्ध कः कः कम्पय कम्पय आवेशय आवेशय
अवतारय अवतारय शीघ्रं शीघ्रं ।

ॐ नमो नारसिंहाय नवकोटिदेवग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय अष्टकोटिगन्धर्व ग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय षट्कोटिशाकिनीग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय पञ्चकोटि पन्नगग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय चतुष्कोटि ब्रह्मराक्षसग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय द्विकोटिदनुजग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय कोटिग्रहोच्चाटनाय ।
ॐ नमो नारसिंहाय अरिमूरीचोरराक्षसजितिः वारं वारं ॥

श्रीभय चोरभय व्याधिभय सकलभयकण्टकान् विध्वंसय विध्वंसय ।
शरणागत वज्रपञ्जराय विश्वहृदयाय प्रह्लादवरदाय
क्षरौं श्रीं नृसिंहाय स्वाहा ।
ॐ नमो नारसिंहाय मुद्गलशङ्खचक्रगदापद्महस्ताय
नीलप्रभाङ्गवर्णाय भीमाय भीषणाय ज्वालाकरालभयभाषित
श्रीनृसिंहहिरण्यकश्यपवक्षस्थलविदार्णाय ।
जय जय एहि एहि भगवन् भवन गरुडध्वज गरुडध्वज
मम सर्वोपद्रवं वज्रदेहेन चूर्णय चूर्णय
       आपत्समुद्रं शोषय शोषय ।
असुरगन्धर्वयक्षब्रह्मराक्षस भूतप्रेत
       पिशाचदिन विध्वन्सय् विध्वन्सय् ।
पूर्वाखिलं मूलय मूलय ।
प्रतिच्छां स्तम्भय परमन्त्रपयन्त्र परतन्त्र परकष्टं
छिन्धि छिन्धि भिन्धि हं फट् स्वाहा ।
इति श्रीअथर्वण वेदोवत्तनृसिंहमालामन्त्रः समाप्तः ।
श्री नृसिंहार्पणमस्तु ॥

होली की पूजा का महत्व

होली की पूजा मुखयतः भगवान विष्णु (नरसिंह अवतार) को ध्यान में रखकर की जाती है।

घर के प्रत्येक सदस्य को होलिका दहन में देशी घी में भिगोई हुई दो लौंग, एक बताशा और एक पान का पत्ता अवश्य चढ़ाना चाहिए। होली की ग्यारह परिक्रमा करते हुए होली में सूखे नारियल की आहुति देनी चाहिए। इससे सुख-समृद्धि बढ़ती है, कष्ट दूर होते हैं। 
होली पर पूरे दिन अपनी जेब में काले कपड़े में बांधकर काले तिल रखें। रात को जलती होली में उन्हें डाल दें। यदि पहले से ही कोई टोटका होगा तो वह भी खत्म हो जाएगा।

होली दहन के समय ७ गोमती चक्र लेकर भगवान से प्रार्थना करें कि आपके जीवन में कोई शत्रु बाधा न डालें। प्रार्थना के पश्चात पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ गोमती चक्र दहन में डाल दें।

होली दहन के दूसरे दिन होली की राख को घर लाकर उसमें थोडी सी राई व नमक मिलाकर रख लें। इस प्रयोग से भूतप्रेत या नजर दोष से मुक्ति मिलती है।
होली के दिन से शुरु होकर बजरंग बाण का ४० दिन तक नियमित पाठ करनें से हर मनोकामना पूर्ण होगी।
यदि व्यापार या नौकरी में उन्नति न हो रही हो, तो २१ गोमती चक्र लेकर होली दहन के दिन रात्रि में शिवलिंग पर चढा दें।

नवग्रह बाधा के दोष को दूर करने के लिए होली की राख से शिवलिंग की पूजा करें तथा राख मिश्रित जल से स्नान करें।

होली वाले दिन किसी गरीब को भोजन अवश्य करायें।
होली की रात्रि को सरसों के तेल का चौमुखी दीपक जलाकर पूजा करें व भगवान से सुख - समृद्धि की प्रार्थना करें। इस प्रयोग से बाधा निवारण होता है।
यदि बुरा समय चल रहा हो, तो होली के दिन पेंडुलम वाली नई घडी पूर्वी या उत्तरी दीवार पर लगाए। परिणाम स्वयं देखे।

होम की साधारण विधि इस प्रकार है।

होम की साधारण विधि इस प्रकार है।
सभी होम के प्रारंभ में सात प्रायश्‍चित आहुतियाँ पाँच पंचवारुणी कुल बारह आहुतियाँ दी जाती है। वह इस प्रकार है :
(1) ओं प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये न मम।
(2) ओं इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय न मम।
(3) ओं अग्नये स्वाहा इदमग्नये न मम।
(4) ओं सोमाय स्वाहा इदं सोमाय न मम।
(5) ओं भू: स्वाहा इदमग्नये न मम।
(6) ओं भुव: स्वाहा इदं वायवे न मम।
(7) ओं स्व: स्वाहा इदं सूर्याय न मम।
इसके बाद नीचे लिखा मन्त्र पढ़ कर जल छिड़के, या केवल मन्त्र ही पढ़ दे :
यथा वाण महाराणां कवचंवारकं भवेत्। तद्वद्दैवोपघातानां शांतिर्भवति वारिका। शांतिरस्तु पुष्टिरस्तु वृद्धिरस्तु यत्पापं तत्प्रतिहतमस्तु द्विपदे चतुष्पदे सुशांतिर्भवतु।
फिर पंचवाणी से होम करे :
(1) ओं त्वन्नोअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठा। यजिष्ठो वद्दितम: शोशुचानो विश्‍वा द्वेषांसि प्रमुमुग्धयस्मत्स्वाहा इदमग्नीवरुणायाभ्यां न मम।
(2) ओं सत्वन्नोऽअग्नेवमोभवीती नेदिष्ठो अस्या उषसोव्युष्टौ। अवयक्ष्वनोवरुण-रंराणो वीहि मृडीकं सुहवो न एधिस्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
(3) ओं अयाश्‍चाग्येस्यनभि शस्तिपाश्‍च सत्वमित्तवमयाअसि। अयानो यज्ञं वहास्ययानो धोहि भेषजं स्वाहा इदमग्नये न मम।
(4) ओं येते शतं यं सहस्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्‍वे मुंचन्तु मरुत: स्वर्का: स्वाहा इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्‍वेभ्यो देभ्यो मरुद्‍भय: स्वर्केभ्यश्‍च न मम।
(5) ओं उदुत्तामं वरुणपाशमस्मदवाधामं विमध्यमं श्रथाय। अथावयमादित्यव्रते तवानागसोऽअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणाय न मम।
इसके बाद थोड़ा जल गिरा कर नवग्रह आदि देवताओं के नाम ले कर और जिस देवता का होम करना हो उसका भी नाम ले कर स्वाहा शब्द के साथ चतरुथ्यंत उच्चारण कर के आहुतियाँ दे और अन्त में ‘ओं अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इदमग्नये स्विष्टकृते न मम’ पढ़ कर आहुति दे और पूर्णाहुति करे। होम के आरंभ में संकल्प कर के होम शुरू करे और अन्त में पूर्णाहुति का संकल्प करे। यदि दूसरा आदमी होम करनेवाला हो तो भी संकल्प स्वयं पढ़ना चाहिए और ‘इदं प्रजापतये न मम’ इत्यादि प्रतिमन्त्र के अन्त में स्वयं बोलना चाहिए और उसी के साथ आहुति छोड़नी चाहिए, न कि ‘स्वाहा’ के साथ। इनका नाम त्याग है और इसके बोलने का अधिकार केवल यजमान को ही है। इसके बिना आहुति अधूरी रह जाती है।

चौर गणपति सटीक साधना करे।

चौर गणपति साधना प्रकरण
जय मां बगलामुखी,मां भगवती पीतांबरा की कृपा आप सब भक्तजनों के ऊपर बनी रहे..!
अधिकतर साधकों का मुझसे प्रश्न रहता है, कि विशाल जी हमने अमुक नाम के देवता के अनेक मंत्र पुरश्चरण किए परंतु हर बार निराशा ही हाथ लगी !
इस प्रश्न का उत्तर मैंने उन साधकों को निजी तौर पर दीया परंतु आज मेरे एक शुभचिंतक बड़े भाई ने मुझसे कहा कि विशाल जी जो जानकारी आपने मुझे प्रदान की है यह मेरी साधना के मध्य में बहुत लाभकारी सिद्ध हुई है कृपया कर इस गुढ ज्ञान को अधिकतर से अधिकतर 
साधकों तक पहुंचाएं
तो साधकों आपको विदीत होगा की सोशल नेटवर्किंग साइट पर मेरे जितने भी आर्टिकल्स है अधिकतर शाबर विद्या को छोड़कर प्रमाणिकता की दृष्टि से वह किसी ना किसी प्रमाणित ग्रंथ से संबंध रखते ही है!
और जो आज का प्रश्न साधकों का हुआ था इसका उत्तर हमें तंत्र के महानतम प्रमाणित ग्रंथ "वर्णबिल" मे स्पष्ट "चौर गणपति साधना प्रकरण" मे अध्ययन करने को मिलता है इसमे स्पष्ट लिखा है कि साधक के शरीर में कुंडलिनी कमल के प्रत्येक द्वार के प्रत्येक पथ पर पचास गण देवता के रूप में मुनि गण खड़े रहते हैं और जप का दिव्य तेज कुंडलिनी के जिस कमल दल में स्थित होगा यह ऋषि उस जप के तेज  का हरण कर लेते हैं परिणाम स्वरुप अधिकतर मेरे साधक जीवन में भी मुझे देखने को  मिला है कि जप के तेज के हरण होने के पर्यंत कुछ साधकों को संबंधित कुंडलिनी कमल दल के अंग क्षेत्र में विकार उत्पन्न होना प्रारंभ हो गया जिसके परिणाम स्वरुप हृदय गति का वढ जाना, पाचन में समस्या आना, बिना किसी अर्थ के भयभीत होना मस्तिष्क में हर समय दबाब महसूस होना, एंग्जाइटी जैसे परिणाम सामने आए हैं!
इसीलिए तंत्र में बार बार कहा गया है कि बिना गुरु के किसी भी मंत्र का जप ना करें फिर भी अगर किसी साधक भाई के साथ इस प्रकार की घटनाएं घटित हो रही है तो वह इस चौर गणपति के छोटे से प्रयोग को करके पुनः स्वस्थ हो सकता है!
कुंडलिनी कमल दल के गणों के अधिष्ठात्री देव चौर गणपति माने जाते हैं मंत्र जप करने से पहले इन गणपति कि इस छोटी सी विधि को करके आप अपने प्रत्येक कुंडलिनी द्वार माने जाने वाले अंग को बंधित कर सकते हैं विधि इस प्रकार से है परंतु मैं पुनः कहता हूं कि अगर इस प्रकार से किसी भी साधक के साथ घटनाएं घटित हो तो योग्य गुरु से परामर्श अवश्य लें मेरे इस आर्टिकल का हेतु आप सबको इस गूढ़ विद्या से अवगत करवाना है.!
तो आइए जानते हैं की कुंडलिनी कमलदल से प्रवाहित होने वाली यत्र तत्र ऊर्जा को कैसे एक जगह स्थापित किया जा सकता है._!
 जप आसन पर बैठ कर सर्वप्रथम इस विधि को करने के पश्चात ही अपने मंत्र जप को प्रारंभ करें.....!
● हृदय पर दाएं हाथ को स्पर्श कर - दस बार "क्रों " बीज मंत्र जपे!
■ दक्षिण नेत्र को स्पर्श कर - दस बार "ह्रीं ह्रीं" का जप करें!
● बाम नेत्र - दस बार "ह्रीं ह्रीं" जपे !
■ दक्षिण कान - दस बार "ह्रीं ह्रीं" जपे !
● बाम कान  - दस बार "ह्रीं ह्रीं" जपे !
■ दक्षिण नासिका - दस बार"ह्रुं ह्रुं जपे !
● बाम नासिका - दस बार"ह्रुं ह्रुं जपे !
■ मुख पर  -  दस बार "ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं" जपे !
● नाभि पर - दस बार "ऐं क्लीं"जपे !
■ लिंग पर - दस बार हसौ: जपे !
●  भ्रुमध्य पर - दस बार हुं जपे !

काल सर्प दोष के सटीक उपाय

कालसर्प योग निवारण के अनेक उपाय हैं । इस योग की शांति विधि विधान के साथ योग्य विद्धान एवं अनुभवी ज्योतिषी, कुल गुरू या पुरोहित के परामर्श के अनुसार किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से यथा योग्य समयानुसार करा लेने से दोष का निवारण हो जाता हैं । कुछ साधारण उपाय निम्न हैं:-
1. घर में वन तुलसी के पौधे लगाने से कालसर्प योग वालों को शान्ति प्राप्त होती हैं ।
2. प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं ।
3. विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं।
4. इलाहाबाद संगम पर व नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं ।
5. ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें । नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें ।
7. कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये ।
8. ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें ।
9. महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए ।
10. नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए ।
11. पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए ।
12. पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए ।
कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
13. शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं ।
14. सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें ।
15. 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं ।
16. गेहू या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं ।
17. राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं
केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं ।
18. हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें ।
19. हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें ।
20. राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में
धारण करें । शिव लिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए ।

॥ श्री प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्रम् ॥

॥ श्री प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्रम् ॥ विनियोग — ‘ॐ अस्य श्री प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्र मंत्रस्य सनत् कुमार ऋषिः स्वामी कार्तिकेयो देवता अनुष्टुप् छन्दः । मम सकल विद्या सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ ॥ श्री स्कंद उवाच ॥ योगीश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनंदनः । स्कन्दः कुमारः सेनानी स्वामी शंकरसंभवः ॥ गाङ्गेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः । तारकारिरुमापुत्रः क्रौञ्चारिस्च षडाननः ॥ शब्दब्रह्म समुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः । सनत्कुमारो भगवान् भोग मोक्ष फलप्रदः ॥ शरजन्मा गुणादीशः पूर्वजो मुक्ति मार्गकृत् । सर्वागम प्रणेता च वांछितार्थ प्रदर्शनः ॥ ॥ फलश्रुति ॥ अष्‍टाविंशतिनामानि मदीयानीति यः पठेत् । प्रत्यूषं श्रद्धया युक्‍तो मूको वाचस्पतिर्भवेत् ॥ महामंत्रमया नीति मम नामानुकीर्तनम् । महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥ पुष्यनक्षत्रमारभ्य दशवारं पठेन्नरः । पुष्यनक्षत्र पयंताश्वत्थमुले दिने दिने ॥ पुरश्‍चरणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ॥ इति श्री रुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्याम् श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रम् संपुर्णम् ॥ ॥ श्रीकार्तिकेयार्पणमस्तु ॥ ॥ मंत्रः ॥ “नमस्ते शारदे देवि सरस्वति मतिप्रदे । वस त्वं मम जिह्वाग्रे सर्वविद्याप्रदा भव ॥”

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...