१॰ गायत्री-तन्त्रः ग्रहण में जप करने से साधक ब्रह-भाव से मुक्त हो जाता है। ‘ग्रहण-कालीन जप’ के बाद दशांश आदि की आवश्यकता नहीं है। ग्रहण-कालीन जप अनन्त-स्वरुप होता है। अतः अनन्त का दशांश सम्भव नहीं है।
२॰ शाक्तानन्द-तरंगिणीः ग्रहण-काल को देखकर स्नान, सन्ध्या, प्राणायाम, भूत-शुद्धि, पूजा आदि सबको छोड़कर, केवल ‘मानस संकल्प’ कर जप करे, अन्यथा ‘पुण्य-काल हाथ से निकल जायेगा। पञ्चांग से विहीन होने पर भी ‘ग्रहण-कालीन जप’ सिद्ध होता है।
ग्रहण-काल में मन्त्र, कवच, स्तव, ध्यान आदि का एक बार उच्चारण करने पर ही दश कोटि बार उच्चारण का फल मिलता है। अतः ग्रहण-कालीन जप-पाठ की संख्या का ध्यान न रखे। जितना भी जप सम्भव हो, करें। होम, अभिषेक, तर्पण, ब्राह्मण-भोजन आदि ‘ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण’ के सम्बन्ध में आवश्यक नहीं है। संकल्प भी मानस ही करना चाहिये।
३॰ गन्धर्व-तन्त्रः ग्रहण-काल के पूर्व उपवास रखकर, समुद्र-गामी नदी में नाभि तक गहरे जल में खड़े होकर, ग्रहण के आदि से लेकर मोक्ष तक एकाग्र होकर मन्त्र का जप करे। जप के दशांश से यथा-विधि होम करे। होम न कर सके तो दशांश का दोगुना जप करे। होम का दशांश तर्पण तद्दशांश ब्राह्मण-भोजन कराए। गुरु-देव को दक्षिणा प्रदान कर, विप्रों को तर्पण कराए।
४॰ यामलः शुद्ध जल में स्नान करे। पवित्र स्थान में बैठकर ‘ग्रहण-ग्रास’ से ‘ग्रहण-मुक्ति’ तक एकाग्र मन से जप करे।
ग्रहण से पूर्व उपवास करे अथवा फल, दुग्धादि भोजन करे। ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण उपवास के बगैर भी किया जा सकता है।
५॰ काली तन्त्रः ग्रहण में ग्रास से मोक्ष होने तक जप करे। ग्रहण के बाद होम, तर्पण, अभिषेक और ब्राह्मण-भिजन का विधान है। यह ग्रहण-पुरश्चरण ‘पशु’ और ‘वीर’ दोनों भावों से कर सकते हैं।
६॰ पुरश्चरण-रसोल्लासः बुद्धिमान् साधक चन्द्र-सूर्य के ग्रहण-काल में अवश्य जप करे। ग्रहण-काल में ग्रास होने के समय से मोक्ष होने तक जप करे। इससे साधक अणिमादि सिद्धियों का अधिकारी बन जाता है।
ग्रहण-काल में जप हेतु विशेष बातें-
१॰ पहले स्नानादि करके संकल्प करें।
२॰ ग्रहण में जप मानसिक करे। पाठ या वाचिक जप न करे।
३॰ ग्रहण के बाद जप का दशांश हवन, तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन कराए।
४॰ ग्रहण काल में नित्य किये जाने वाले मन्त्र का जप अवश्य करना चाहिए।
५॰ शाबर-मन्त्र ग्रहण काल में सरलता से सिद्ध होते हैं।
६॰ ग्रहण सनय में भोजन नहीं करना चाहिए। नारियल, दूध, दही, घृत से पके अन्न और मणि में स्थित जल ‘राहु’ से दूषित नहीं होते। ग्रहण-काल में ‘कुश’ डालने से वस्तुएँ अपवित्र नहीं होती।
७॰ ग्रहण-काल में यदि किसी के यहाँ कोई बच्चा पैदा हुआ हो अथवा कोई मे गया हो, तो भी जप करे। ग्रहण-काल में जप हेतु अशौच नहीं माना जाता।
८॰ ग्रहण में बालक, वृद्ध और रोगी के कोई कोई नियम नहीं है।
९॰ ग्रहण काल में जपनीय मन्त्र में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिये, उसे मूल रुप में ही जपना चाहिए।
१०॰ ग्रहण में जप करने के बाद ‘दान’ करना चाहिए। दान-मन्त्र इस प्रकार है-
“तमो-मय महा॒भीम, सोम-सूर्य-विमर्दन! हेम-तार-प्रदानेन, मम शान्ति-प्रदो भव।।
विधुं-तुद नमस्तुभ्यं, सिंहिका-नन्दनाच्युत! दानेनानेन नागस्य, रक्ष मां वेधजाद् भयात्।।
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