Sunday 4 January 2015

श्री हनुमान साधना

श्री हनुमान साधना एवं मंत्रों के संदर्भ में 

मंत्र महार्णव, मंत्र महोदधि, हनुमदोपासना, श्री विद्यार्णव आदि ग्रंथों में कई प्रयोग वर्णित हैं। कलि युग में हनुमान साधना समस्त बाधाओं, कष्टों और अड़चनों को तुरंत मिटाने में पूर्णतः सहायक है। हनुमान शक्तिशाली, पराक्रमी, संकटों का नाश करने वाले और दुःखों को दूर करने वाले महावीर हैं। इनके नाम का स्मरण ही अपने आप में सहायता और शक्ति प्रदान करने वाला है। शास्त्रा भगवान श्री हनमुनजी से संबंधित अनेक साधनाएं वर्णित की गयी हैं, जो अलग-अलग परिस्थितियों को ध्यान में रख कर रची गयी हैं। यह उनकी विराटता और उनके वरदायक स्वरूप का ही उदाहरण है। शत्रु भय हो, या आकस्मिक राज्य बाधा, अथवा भूत-प्रेत आदि का प्रकोप, प्रत्येक स्थिति के लिए अलग-अलग ढंग से मंत्रों और होम की व्यवस्था बनायी गयी है। इन्हीं सैकड़ों प्रयोगों में से आयु, धन-वृद्धि एवं समस्त प्रकार के उपद्रवों को दूर करने के संबंध में एक अचूक मंत्र ‘‘अष्टादशाक्षर मंत्र’’ का उल्लेख मिलता है, जिसका उपयोग कर कोई भी व्यक्ति शीघ्र लाभ प्राप्त कर सकता है। इस अष्टादशाक्षर मंत्र के संदर्भ में मंत्र महोदधि में कहा गया है। यः कपी श् सदा गे ह पूजयेज्जपतत्परः। आयुर्लक्ष्म्यौ प्रवद्र्धेते तस्य नश्यन्त्युपद्रवा।। (त्रयोदशः तरंग: 97) अर्थात, जो व्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान जी का पूजन करता है और इस मंत्र का जप करता है, उसकी आयु तथा लक्ष्मी (संपत्ति) नित्य बढ़ती रहती है तथा उसके समस्त उप्रदव अपने आप नष्ट हो जाते हैं। वास्तव में हनुमान जी समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाले श्रेष्ठ देवता हैं:- ‘‘हनुमान देवता प्रोक्तः सर्वाभीष्टफलप्रदः’’ (श्री विद्यार्णक 

अष्टादशाक्षर मंत्र: ‘नमो भगवते आजनेयाय महाबलाय स्वाहा’’। इस मंत्र के ईश्वर ऋषि हैं, अनुष्टुप छंद हैं, हनुमान देवता हैं, हुं बीज है तथा अग्निप्रिया (स्वाहा) शक्ति है। मंत्र संख्या: दस हजार पुरश्चरण: उक्त जप का तिलों से दशांश होम करना चाहिये। साधना विधि: सर्वप्रथम प्राण प्रतिष्ठित (चैतन्य) हनुमान यंत्र को प्राप्त कर, किसी मंगलवार (विशेष कर शुक्ल पक्ष) की रात्रि से इस साधना को दस दिन के लिए प्रारंभ करें। इसमें प्रतिदिन एक निश्चित समय पर ही पूजन एवं दस माला जप करें। इस साधना में स्नान कर, लाल वस्त्र धारण कर के, दक्षिणाभिमुख हो कर लाल रंग के ऊनी आसन पर बैठ कर पूजन एवं जप करना आवश्यक है। जप हेतु मंगे की माला, या लाल चंदन की माला, या रुद्राक्ष की माला आवश्यक है। सर्वप्रथम हनुमान यंत्र को लकड़ी की चैकी पर, लाल वस्त्र बिछा कर मध्य में ताम्र पात्र में स्थापित करें। गुरु का ध्यान कर घी का दीपक तथा धूप बत्ती जलाएं। अब दिये गये क्रमानुसार पूजन प्रारंभ करें: विनियोग: दायें हाथ में जल, पुष्प तथा चावल ले कर, निम्न मंत्र को बोल कर, किसी पात्र में हाथ की सामग्री छोड दें। ‘अस्य श्री हनुमन्मन्त्रस्य ईश्वर ऋषिरनुष्टुप् छन्दः हनुमान देवता हुं बीजं स्वाहा शक्तिरात्मानोऽभीष्टसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः।’’ षङ्गन्यास: अब निम्न क्रमानुसार न्यास विधि करें: Omआ जनेयाय हृदयाय नमः, Omरुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा, Omवायुपुत्राय शिखायै वषट्, Omअग्निगर्भाय कवचाय हुम्, Omरामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट्, Omब्रह्मास्त्रविनिवारणाय अस्त्राय फट्।। ध्यान मंत्र: दाहिने हाथ में सिंदूर से रंगे चावल तथा लाल पुष्प ले कर, निम्न मंत्र बोल कर, ‘हनुमान यंत्र’ पर छोड़ देवें। साधक संस्कृत न बोल सके, तो हिंदी का भावार्थ बोलें। ‘‘दहनतप्तसुवर्णसमप्रभं भयहरं हृदये विहिता Ûजलिम्। श्रवणकुण्डलशोभिमुखाम्बुजं नमत वानरराजमिहाद्भुतम्।।’’ भावार्थ: मैं तपाये गये सुवर्ण के समान जगमगाते हुए, भय को दूर करने वाले, हृदय पर अंजलि बांधे हुए, कानों में लटकते कुंडलों से शोभायमान मुख कमल वाले, अद्भुत स्वरूप वाले वानर राज को प्रणाम करता हूं। अब हनुमान यंत्र को शुद्ध जल से स्नान करा कर यज्ञोपवीत अर्पित करें। इसके बाद यंत्र को तिल के तेल में मिश्रित सिंदूर का तिलक अर्पित करें तथा अंगुली पर बचे हुए सिंदुर को अपने मस्तिष्क पर तिलक के रूप में धारण करें। श्री हनुमान यंत्र पर लाल पुष्पों की माला अर्पित कर नैवेद्य रूप में गुड़, घी तथा आटे से बनी रोटी को मिला कर बनाये गये लड्डू अर्पित करें। श्री विग्रह (यंत्र) को फल अर्पित कर, मुखशुद्धि हेतु पान, सुपाड़ी, लौंग तथा इलायची अर्पित करें। अब उसी स्थान पर बैठ कर ही अष्टादशाक्षर मंत्र की 10 माला, यानी एक हजार जप कर, भगवान हनुमान जी को षाष्टांग प्रणाम करें। पूजन काल में भूलवश यदि त्रुटि रह गयी हो, तो क्षमा मांगें। यही क्रम 10 दिन करना है। दसवें दिन, किसी योग्य विद्वान के सान्निध्य में, तिलों से दशांश होम कर, ब्राह्मण को भोजन-दक्षिणा दे कर, संतुष्ट कर, विदा करें। विशेष: अर्पित नैवेद्य को अगले दिन हटा कर किसी पात्र में इकट्ठा करते रहें। साधना पूर्ण होने के अगले दिन एकत्रित नैवेद्य को किसी गरीब को दें। इस प्रकार उक्त दिव्य मंत्र सिद्ध हो जाता है। सिद्ध मंत्र से कामना पूर्ति प्रयोग: 1-धन एवं आयु वृद्धि के साथ-साथ समस्त प्रकार के उपद्रवों की शांति हेतु नित्य हनुमान जी की आराधना एवं एक माला जप आजीवन करते रहें। 2-अल्पकालिक रोगों से पीड़ित होने पर, इंद्रियों को वश में रख कर, केवल रात्रि में भोजन करें तथा तीन दिन 108 संख्या में इस मंत्र का जप करें, तो अल्पकालिक रोगों से छुटकारा मिल जाता है। 3-असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है। 4-‘‘महारोगनिवृत्त्यै तु सहस्रं प्रत्यहं जपेत्’’ हनुमान जी का ध्यान कर मंत्र का जप करता हुआ व्यक्ति अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है। 5-‘‘प्रयाणसमये ध्यायन्हनुमन्तं मनुं जपन्।साधयित्वाग्रहं व्रजेत्।।’’ इस मंत्र के नित्य जपने से पराक्रम में वृद्धि होती है तथा सोते समय चोरों से रक्षा होती है एवं दुःस्वप्न भी दिखायी नहीं देते हैं। साथ ही उपद्रवी तत्वों से रक्षा होती है। साधना के आवश्यक नियम: 1-पूर्ण साधना काल में अखंड ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करें। 2-मंत्र जप करते समय दृष्टि सदैव यंत्र पर ही टिकी रहे। 3-शयन साधना स्थल पर ही धरती पर करें। 4-इस साधना में घी से एक या पांच बत्तियों वाला दीपक जलाएं। 5-भोजन सिर्फ एक बार ही करें। वास्तव में विपत्तियों से छुटकारा तथा सुख-समुद्धि में वृद्धि हेतु यह प्रयोग अपने आप में अचूक और अद्वितीय है। अ ज नीगभर्स म्भतू कपीन्दस्र चिवात्मम रामप्रियं नमस्तुभ्यं हनुमन् रक्ष सर्वदा।।

नीलकंठ अघोर मंत्र स्तोत्र

नीलकंठ अघोर मंत्र स्तोत्र
संकल्प:(विनियोग )
 ओम अस्य श्री नीलकंठ स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्म ऋषि अनुष्टुप छंद :नीलकंठो सदाशिवो देवता ब्रह्म्बीजम पार्वती शक्ति:शिव इति कीलकं मम काय जीव स्वरक्षनार्थे सर्वारिस्ट विनाशार्थेचतुर्विद्या पुरुषार्थ सिद्धिअर्थे भक्ति-मुक्ति
सिद्धिअर्थे श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थे च जपे पाठे विनियोग:
>मंत्र प्रयोग<
ओम नमो नीलकंठाय श्वेत शरीराय नमःसर्पलिंकृत भुषनाय नमः भुजंग परिकराय नाग यग्नोपविताय नमः,अनेक
काल मृत्यु विनाशनाय नमः,युगयुगान्त काल प्रलय प्रचंडाय नमः ज्वलंमुखाय नमः दंष्ट्रा कराल घोर रुपाय नमः
हुं हुं फट स्वाहा,ज्वालामुख मंत्र करालाय नमः,प्रचंडार्क सह्स्त्रान्शु प्रचंडाय नमः कर्पुरामोद परिमलांग सुगंधीताय
नमः इन्द्रनील महानील वज्र वैदूर्यमणि माणिक्य मुकुट भूषणाय नमः श्री अघोरास्त्र मूल मन्त्रस्य नमः
ओम ह्रां स्फुर स्फुर ओम ह्रीं स्फुर स्फुर ओम ह्रूं स्फुर स्फुर अघोर घोरतरस्य नमः रथ रथ तत्र तत्र चट चट कह कह
मद मदन दहनाय नमः
श्री अघोरास्य मूल मन्त्राय नमः ज्वलन मरणभय क्षयं हूं फट स्वाहा अनंत घोर ज्वर मरण भय कुष्ठ व्याधि विनाशनाय नमः डाकिनी शाकिनी ब्रह्मराक्षस दैत्य दानव बन्धनाय नमः अपर पारभुत वेताल कुष्मांड सर्वग्रह विनाशनाय नमः यन्त्र कोष्ठ करालाय नमः सर्वापद विच्छेदाय नमः हूं हूं फट स्वाहा आत्म मंत्र सुरक्ष्नाय नमः
ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं नमो भुत डामर ज्वाला वश भूतानां द्वादश भूतानां त्रयोदश भूतानां पंचदश डाकिनीना हन् हन् दह दह
नाशन नाशन एकाहिक द्याहिक चतुराहिक पंच्वाहिक व्यप्ताय नमः
आपादंत सन्निपात वातादि हिक्का कफादी कास्श्वासादिक दह दह छिन्दि छिन्दि श्री महादेव निर्मित स्तम्भन मोहन वश्यआकर्षणों उच्चाटन किलन उद्दासन इति षटकर्म विनाशनाय नमः
अनंत वासुकी तक्षक कर्कोटक शंखपाल विजय पद्म महापद्म एलापत्र नाना नागानां कुलकादी विषं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि प्रवेशाये शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा
वातज्वर मरणभय छिन्दि छिन्दि हन् हन्:भुतज्वर प्रेतज्वर पिशाचाज्वर रात्रिज्वर शीतज्वर सन्निपातज्वर ग्रह
ज्वर विषमज्वर कुमारज्वर तापज्वर ब्रह्मज्वर विष्णुज्वर महेशज्वर आवश्यकज्वर कामाग्निविषय ज्वर मरीची- ज्वारादी प्रबल दंडधराय नमः परमेश्वराय नमः
आवेशय आवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा चोर मृत्यु ग्रह व्यघ्रासर्पादी विषभय विनाशनाय नमः मोहन मन्त्राणा
पर विद्या छेदन मन्त्राणा, ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं कुली लीं लीं हूं क्ष कूं कूं हूं हूं फट स्वाहा, नमो नीलकंठाय नमः दक्षाध्वरहराय
नमः श्री नीलकंठाय नमः ओम
>सूचना <
पाठ जब शुरू हो उन दिनों में एक कप गाय के दूध में एक चम्मच गाय के घी का सेवन करना ही चाहिए जिससे शारीर में बढ़ने वाली गर्मी पर काबू रख सके वर्ना गुदामार्ग से खून बहार आने की संभावना हो सकती हैं इस मंत्र को शिव मंदिर में जाकर शिव जी का पंचोपचार पूजन करके करना चाहिए,कमसे कम एक और ज्यादा से ज्यादा तीन पाठ करने चाहिए १०८ पाठ करने पर यह सिद्ध हो जाता हैं.

श्री त्रिपुर भैरवी कवचम्

श्री त्रिपुर भैरवी कवचम्
।। श्रीपार्वत्युवाच ।।
देव-देव महा-देव, सर्व-शास्त्र-विशारद ! कृपां कुरु जगन्नाथ ! धर्मज्ञोऽसि महा-मते ! ।
भैरवी या पुरा प्रोक्ता, विद्या त्रिपुर-पूर्विका । तस्यास्तु कवचं दिव्यं, मह्यं कफय तत्त्वतः ।
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा, जगाद् जगदीश्वरः । अद्भुतं कवचं देव्या, भैरव्या दिव्य-रुपि वै ।
।। ईश्वर उवाच ।।
कथयामि महा-विद्या-कवचं सर्व-दुर्लभम् । श्रृणुष्व त्वं च विधिना, श्रुत्वा गोप्यं तवापि तत् ।
यस्याः प्रसादात् सकलं, बिभर्मि भुवन-त्रयम् । यस्याः सर्वं समुत्पन्नं, यस्यामद्यादि तिष्ठति ।
माता-पिता जगद्-धन्या, जगद्-ब्रह्म-स्वरुपिणी । सिद्धिदात्री च सिद्धास्या, ह्यसिद्धा दुष्टजन्तुषु ।
सर्व-भूत-प्रियङ्करी, सर्व-भूत-स्वरुपिणी । ककारी पातु मां देवी, कामिनी काम-दायिनी ।
एकारी पातु मां देवी, मूलाधार-स्वरुपिणी । ईकारी पातु मां देवी, भूरि-सर्व-सुख-प्रदा ।
लकारी पातु मां देवी, इन्द्राणी-वर-वल्लभा । ह्रीं-कारी पातु मां देवी, सर्वदा शम्भु-सु्न्दरी ।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, शाम्भवी पातु मस्तकम् । ककारे पातु मां देवी, शर्वाणी हर-गेहिनी ।
मकारे पातु मां देवी, सर्व-पाप-प्रणाशिनी । ककारे पातु मां देवी, काम-रुप-धरा सदा ।
ककारे पातु मां देवी, शम्बरारि-प्रिया सदा । पकारे पातु मां देवी, धरा-धरणि-रुप-धृक् ।
ह्रीं-कारी पातु मां देवी, अकारार्द्ध-शरीरिणी । एतैर्वर्णैर्महा-माया, काम-राहु-प्रियाऽवतु ।
मकारः पातु मां देवी ! सावित्री सर्व-दायिनी । ककारः पातु सर्वत्र, कलाम्बर-स्वरुपिणी ।
लकारः पातु मां देवी, लक्ष्मीः सर्व-सुलक्षणा । ह्रीं पातु मां तु सर्वत्र, देवी त्रि-भुवनेश्वरी ।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, पातु शक्ति-स्वरुपिणी । वाग्-भवं मस्तकं पातु, वदनं काम-राजिका ।
शक्ति-स्वरुपिणी पातु, हृदयं यन्त्र-सिद्धिदा । सुन्दरी सर्वदा पातु, सुन्दरी परि-रक्षतु ।
रक्त-वर्णा सदा पातु, सुन्दरी सर्व-दायिनी । नानालङ्कार-संयुक्ता, सुन्दरी पातु सर्वदा ।
सर्वाङ्ग-सुन्दरी पातु, सर्वत्र शिव-दायिनी । जगदाह्लाद-जननी, शम्भु-रुपा च मां सदा ।
सर्व-मन्त्र-मयी पातु, सर्व-सौभाग्य-दायिनी । सर्व-लक्ष्मी-मयी देवी, परमानन्द-दायिनी ।
पातु मां सर्वदा देवी, नाना-शङ्ख-निधिः शिवा । पातु पद्म-निधिर्देवी, सर्वदा शिव-दायिनी ।
दक्षिणामूर्तिर्मां पातु, ऋषिः सर्वत्र मस्तके । पंक्तिशऽछन्दः-स्वरुपा तु, मुखे पातु सुरेश्वरी ।
गन्धाष्टकात्मिका पातु, हृदयं शाङ्करी सदा । सर्व-सम्मोहिनी पातु, पातु संक्षोभिणी सदा ।
सर्व-सिद्धि-प्रदा पातु, सर्वाकर्षण-कारिणी । क्षोभिणी सर्वदा पातु, वशिनी सर्वदाऽवतु ।
आकर्षणी सदा पातु, सम्मोहिनी सर्वदाऽवतु । रतिर्देवी सदा पातु, भगाङ्गा सर्वदाऽवतु ।
माहेश्वरी सदा पातु, कौमारी सदाऽवतु । सर्वाह्लादन-करी मां, पातु सर्व-वशङ्करी ।
क्षेमङ्करी सदा पातु, सर्वाङ्ग-सुन्दरी तथा । सर्वाङ्ग-युवतिः सर्वं, सर्व-सौभाग्य-दायिनी ।
वाग्-देवी सर्वदा पातु, वाणिनी सर्वदाऽवतु । वशिनी सर्वदा पातु, महा-सिद्धि-प्रदा सदा ।
सर्व-विद्राविणी पातु, गण-नाथः सदाऽवतु । दुर्गा देवी सदा पातु, वटुकः सर्वदाऽवतु ।
क्षेत्र-पालः सदा पातु, पातु चावीर-शान्तिका । अनन्तः सर्वदा पातु, वराहः सर्वदाऽवतु ।
पृथिवी सर्वदा पातु, स्वर्ण-सिंहासनं तथा । रक्तामृतं च सततं, पातु मां सर्व-कालतः ।
सुरार्णवः सदा पातु, कल्प-वृक्षः सदाऽवतु । श्वेतच्छत्रं सदा पातु, रक्त-दीपः सदाऽवतु ।
नन्दनोद्यानं सततं, पातु मां सर्व-सिद्धये । दिक्-पालाः सर्वदा पान्तु, द्वन्द्वौघाः सकलास्तथा ।
वाहनानि सदा पान्तु, अस्त्राणि पान्तु सर्वदा । शस्त्राणि सर्वदा पान्तु, योगिन्यः पान्तु सर्वदा ।
सिद्धा सदा देवी, सर्व-सिद्धि-प्रदाऽवतु । सर्वाङ्ग-सुन्दरी देवी, सर्वदा पातु मां तथा ।
आनन्द-रुपिणी देवी, चित्-स्वरुपां चिदात्मिका । सर्वदा सुन्दरी पातु, सुन्दरी भव-सुन्दरी ।
पृथग् देवालये घोरे, सङ्कटे दुर्गमे गिरौ । अरण्ये प्रान्तरे वाऽपि, पातु मां सुन्दरी सदा ।
।। फल-श्रुति ।।
इदं कवचमित्युक्तो, मन्त्रोद्धारश्च पार्वति ! य पठेत् प्रयतो भूत्वा, त्रि-सन्ध्यं नियतः शुचिः ।
तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः स्याद्, यद्यन्मनसि वर्तते । गोरोचना-कुंकुमेन, रक्त-चन्दनेन वा ।
स्वयम्भू-कुसुमैः शुक्लैर्भूमि-पुत्रे शनौ सुरै । श्मशाने प्रान्तरे वाऽपि, शून्यागारे शिवालये ।
स्व-शक्त्या गुरुणा मन्त्रं, पूजयित्वा कुमारिकाः । तन्मनुं पूजयित्वा च, गुरु-पंक्तिं तथैव च ।
देव्यै बलिं निवेद्याथ, नर-मार्जार-शूकरैः । नकुलैर्महिषैर्मेषैः, पूजयित्वा विधानतः ।
धृत्वा सुवर्ण-मध्यस्थं, कण्ठे वा दक्षिणे भुजे । सु-तिथौ शुभ-नक्षत्रे, सूर्यस्योदयने तथा ।
धारयित्वा च कवचं, सर्व-सिद्धिं लभेन्नरः ।
कवचस्य च माहात्म्यं, नाहं वर्ष-शतैरपि । शक्नोमि तु महेशानि ! वक्तुं तस्य फलं तु यत् ।
न दुर्भिक्ष-फलं तत्र, न चापि पीडनं तथा । सर्व-विघ्न-प्रशमनं, सर्व-व्याधि-विनाशनम् ।
सर्व-रक्षा-करं जन्तोः, चतुर्वर्ग-फल-प्रदम्, मन्त्रं प्राप्य विधानेन, पूजयेत् सततः सुधीः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये, कवचं देव-रुपिणम् ।
गुरोः प्रसादमासाद्य, विद्यां प्राप्य सुगोपिताम् । तत्रापि कवचं दिव्यं, दुर्लभं भुवन-त्रयेऽपि ।
श्लोकं वास्तवमेकं वा, यः पठेत् प्रयतः शुचिः । तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः, स्याच्छङ्करेण प्रभाषितम् ।
गुरुर्देवो हरः साक्षात्, पत्नी तस्य च पार्वती । अभेदेन यजेद् यस्तु, तस्य सिद्धिरदूरतः ।
।। इति श्री रुद्र-यामले भैरव-भैरवी-सम्वादे-श्रीत्रिपुर-भैरवी-कवचं सम्पूर्णम् ।।

हनुमान जी के दिव्य मंत्र

हनुमान जी के दिव्य मंत्र
१- “ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि सर्वभूतानां डाकिनी शाकिनीनां सर्वविषयान आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय छेदय छेदय अपमृत्यु प्रभूतमृत्यु शोषय शोषय ज्वल प्रज्वल भूतमंडलपिशाचमंडल निरसनाय भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर माहेशऽवरज्वर छिंधि छिंधि भिन्दि भिन्दि अक्षि शूल कक्षि शूल शिरोभ्यंतर शूल गुल्म शूल पित्त शूल ब्रह्मराक्षस शूल प्रबल नागकुलविषंनिर्विषं कुरु कुरु स्वाहा ।”
२- ” ॐ ह्रौं हस्फ्रें ख्फ्रें हस्त्रौं हस्ख्फें हसौं हनुमते नमः ।”
इस मंत्र को २१ दिनों तक बारह हजार जप प्रतिदिन करें फिर दही, दूध और घी मिलाते हुए धान का दशांश आहुति दें । यह मंत्र सिद्ध होकर पूर्ण सफलता देता है ।
३- “ॐ दक्षिणमुखाय पञ्चमुखहनुमते कराल वदनाय नरसिंहाय, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रै ह्रौं ह्रः सकल भूत-प्रेतदमनाय स्वाहा ।”
(जप संख्या दस हजार, हवन अष्टगंध से)
४- “ॐ हरिमर्कट वामकरे परिमुञ्चति मुञ्चति श्रृंखलिकाम् ।”
इस मन्त्र को दाँये हाथ पर बाँये हाथ से लिखकर मिटा दे और १०८ बार इसका जप करें प्रतिदिन २१ दिन तक । लाभ – बन्धन-मुक्ति ।
५- “ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्धगिति आयुराष परुडाह ।”
प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखकर इस मंत्र का २५ माला जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है । इस मंत्र के द्वारा पीलिया रोग को झाड़ा जा सकता है ।
६- “ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ।”
यह ११ अक्षरों वाला मंत्र अति फलदायी है, इसे ११ हजार की संख्या में प्रतिदिन जपना चाहिए ।
७- ” ॐ ह्रां ह्रीं फट् देहि ॐ शिवं सिद्धि ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं स्वाहा ।”
८- ” ॐ सर्वदुष्ट ग्रह निवारणाय स्वाहा ।”
९- ” हं पवननन्दाय स्वाहा ।”
१०- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ।” (१८ अक्षर)
११- “ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट् ।” (१२ अक्षर)
१२- “ॐ नमो हनुमते मदन क्षोभं संहर संहर आत्मतत्त्वं प्रकाशय प्रकाशय हुं फट् स्वाहा ।”
१३- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय अमुकस्य श्रृंखला त्रोटय त्रोटय बन्ध मोक्षं कुरु कुरु स्वाहा ।”
१४- “ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ।”
१५- “ॐ हनुमते नमः । अंजनी गर्भ-सम्भूतः कपीन्द्र सचिवोत्तम् । राम-प्रिय नमस्तुभ्यं, हनुमन् रक्ष सर्वदा । ॐ हनुमते नमः ।”
१६- “ॐ हनुमते नमः । आपदाममपहर्तारं दातारं सर्व-सम्पदान् । लोकाभिरामः श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् । ॐ हनुमते नमः ।”
१७- “ॐ हनुमते नमः । मर्कटेश महोत्साह सर्वशोक विनाशन । शत्रून् संहर मां रक्ष, श्रियं दापय मे प्रभो । ॐ हनुमते नमः ।”
१८- ” ॐ हं पवननन्दाय स्वाहा ।”
१९- “ॐ पूर्व-कपि-मुखाय पञ्च-मुख-हनुमते टं टं टं टं टं सकल शत्रु संहरणाय स्वाहा ।”
२०- “ॐ पश्चिम-मुखाय-गरुडासनाय पंचमुखहनुमते नमः मं मं मं मं मं, सकल विषहराय स्वाहा ।”
इस मन्त्र की जप संख्या १० हजार है, इसकी साधना दीपावली की अर्द्ध-रात्रि पर करनी चाहिए । यह मन्त्र विष निवारण में अत्यधिक सहायक है ।
२१- “ॐ उत्तरमुखाय आदि वराहाय लं लं लं लं लं सी हं सी हं नील-कण्ठ-मूर्तये लक्ष्मणप्राणदात्रे वीरहनुमते लंकोपदहनाय सकल सम्पत्ति-कराय पुत्र-पौत्रद्यभीष्ट-कराय ॐ नमः स्वाहा ।”
इस मन्त्र का उपयोग महामारी, अमंगल एवं ग्रह-दोष निवारण के लिए है ।
२२- “ॐ नमो पंचवदनाय हनुमते ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्रमूर्तये सकललोक वशकराय वेदविद्या-स्वरुपिणे ॐ नमः स्वाहा ।”
यह वशीकरण के लिए उपयोगी मन्त्र है ।
२३- “ॐ ह्रां ह्रीं ह्रैं हनुमते नमः ।”
२४- “ॐ श्री महाञ्जनाय पवन-पुत्र-वेशयावेशय ॐ श्रीहनुमते फट् ।”
यह २५ अक्षरों का मन्त्र है इसके ऋषि ब्रह्मा, छन्द गायत्री, देवता हनुमानजी, बीज श्री और शक्ति फट् बताई गई है । छः दीर्घ स्वरों से युक्त बीज से षडङ्गन्यास करने का विधान है । इस मन्त्र का ध्यान इस प्रकार है -
आञ्जनेयं पाटलास्यं स्वर्णाद्रिसमविग्रहम् ।
परिजातद्रुमूलस्थं चिन्तयेत् साधकोत्तम् ।। (नारद पुराण ७५-१०२)

अन्नपूर्णा देवी

अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है। अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है- 'धान्य' (अन्न) की अधिष्ठात्री। सनातन धर्म की मान्यता है कि प्राणियों को भोजन माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही प्राप्त होता है।
शिव की अर्धांगनी
कलियुग में माता अन्नपूर्णा की पुरी काशी है, किंतु सम्पूर्ण जगत उनके नियंत्रण में है। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के अन्नपूर्णाजी के आधिपत्य में आने की कथा बडी रोचक है। भगवान शंकर जब पार्वती के संग विवाह करने के पश्चात उनके पिता के क्षेत्र हिमालय के अन्तर्गत कैलास पर रहने लगे, तब देवी ने अपने मायके में निवास करने के बजाय अपने पति की नगरी काशी में रहने की इच्छा व्यक्त की। महादेव उन्हें साथ लेकर अपने सनातन गृह अविमुक्त-क्षेत्र (काशी) आ गए। काशी उस समय केवल एक महाश्मशान नगरी थी। माता पार्वती को सामान्य गृहस्थ स्त्री के समान ही अपने घर का मात्र श्मशान होना नहीं भाया। इस पर यह व्यवस्था बनी कि सत्य, त्रेता, और द्वापर, इन तीन युगों में काशी श्मशान रहे और कलियुग में यह अन्नपूर्णा की पुरी होकर बसे। इसी कारण वर्तमान समय में अन्नपूर्णा का मंदिर काशी का प्रधान देवीपीठ हुआ।[1]
भक्त वत्सल
स्कन्दपुराण के 'काशीखण्ड' में लिखा है कि भगवान विश्वेश्वर गृहस्थ हैं और भवानी उनकी गृहस्थी चलाती हैं। अत: काशीवासियों के योग-क्षेम का भार इन्हीं पर है। 'ब्रह्मवैव‌र्त्तपुराण' के काशी-रहस्य के अनुसार भवानी ही अन्नपूर्णा हैं। परन्तु जनमानस आज भी अन्नपूर्णा को ही भवानी मानता है। श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है। अन्नपूर्णा माता की उपासना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ये अपने भक्त की सभी विपत्तियों से रक्षा करती हैं। इनके प्रसन्न हो जाने पर अनेक जन्मों से चली आ रही दरिद्रता का भी निवारण हो जाता है। ये अपने भक्त को सांसारिक सुख प्रदान करने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। तभी तो ऋषि-मुनि इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं-
शोषिणीसर्वपापानांमोचनी सकलापदाम्।दारिद्र्यदमनीनित्यंसुख-मोक्ष-प्रदायिनी॥
व्रत तथा जयंती
काशी की पारम्परिक 'नवगौरी यात्रा' में आठवीं भवानी गौरी तथा नवदुर्गा यात्रा में अष्टम महागौरी का दर्शन-पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही होता है। अष्टसिद्धियों की स्वामिनी अन्नपूर्णाजी की चैत्र तथा आश्विन के नवरात्र में अष्टमी के दिन 108 परिक्रमा करने से अनन्त पुण्य फल प्राप्त होता है। सामान्य दिनों में अन्नपूर्णा माता की आठ परिक्रमा करनी चाहिए। प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा देवी के निमित्त व्रत रखते हुए उनकी उपासना करने से घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होती है। भविष्यपुराण में मार्गशीर्ष मास के अन्नपूर्णा व्रत की कथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। काशी के कुछ प्राचीन पंचांग मार्गशीर्ष की पूर्णिमा में अन्नपूर्णा जयंती का पर्व प्रकाशित करते हैं।[1]
वर्ण व स्वरूप
अन्नपूर्णा देवी का रंग जवापुष्प के समान है। इनके तीन नेत्र हैं, मस्तक पर अ‌र्द्धचन्द्र सुशोभित है। भगवती अन्नपूर्णा अनुपम लावण्य से युक्त नवयुवती के सदृश हैं। बन्धूक के फूलों के मध्य दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर ये प्रसन्न मुद्रा में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी के बायें हाथ में अन्न से पूर्ण माणिक्य, रत्न से जडा पात्र तथा दाहिने हाथ में रत्नों से निर्मित कलछूल है। अन्नपूर्णा माता अन्न दान में सदा तल्लीन रहती हैं। देवीभागवत में राजा बृहद्रथ की कथा से अन्नपूर्णा माता और उनकी पुरी काशी की महिमा उजागर होती है। भगवती अन्नपूर्णा पृथ्वी पर साक्षात कल्पलता हैं, क्योंकि ये अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। स्वयं भगवान शंकर इनकी प्रशंसा में कहते हैं- "मैं अपने पांचों मुख से भी अन्नपूर्णा का पूरा गुण-गान कर सकने में समर्थ नहीं हूँ। यद्यपि बाबा विश्वनाथ काशी में शरीर त्यागने वाले को तारक-मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, तथापि इसकी याचना माँ अन्नपूर्णा से ही की जाती है। गृहस्थ धन-धान्य की तो योगी ज्ञान-वैराग्य की भिक्षा इनसे मांगते हैं-
अन्नपूर्णेसदा पूर्णेशङ्करप्राणवल्लभे।
ज्ञान-वैराग्य-सिद्धयर्थम् भिक्षाम्देहिचपार्वति॥
पूजन मंत्र
मंत्र-महोदधि, तन्त्रसार, पुरश्चर्यार्णव आदि ग्रन्थों में अन्नपूर्णा देवी के अनेक मंत्रों का उल्लेख तथा उनकी साधना-विधि का वर्णन मिलता है। मंत्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'शारदातिलक' में अन्नपूर्णा के सत्रह अक्षरों वाले निम्न मंत्र का विधान वर्णित है-
"ह्रीं नम: भगवतिमाहेश्वरिअन्नपूर्णेस्वाहा"
मंत्र को सिद्ध करने के लिए इसका सोलह हज़ार बार जप करके, उस संख्या का दशांश (1600 बार) घी से युक्त अन्न के द्वारा होम करना चाहिए। जप से पूर्व यह ध्यान करना होता है-
रक्ताम्विचित्रवसनाम्नवचन्द्रचूडामन्नप्रदाननिरताम्
स्तनभारनम्राम्।नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणंविलोक्यहृष्टांभजेद्भगवतीम्
भवदु:खहन्त्रीम्॥
अर्थात 'जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र विराजमान हैं, जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न, भगवान शंकर को अपने सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली, भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ।'
प्रात:काल नित्य 108 बार अन्नपूर्णा मंत्र का जप करने से घर में कभी अन्न-धन का अभाव नहीं होता। शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा का पूजन-हवन करने से वे अति प्रसन्न होती हैं। करुणा मूर्ति ये देवी अपने भक्त को भोग के साथ मोक्ष प्रदान करती हैं। सम्पूर्ण विश्व के अधिपति विश्वनाथ की अर्धांगिनी अन्नपूर्णा सबका बिना किसी भेद-भाव के भरण-पोषण करती हैं। जो भी भक्ति-भाव से इन वात्सल्यमयी माता का अपने घर में आवाहन करता है, माँ अन्नपूर्णा उसके यहाँ सूक्ष्म रूप से अवश्य वास करती हैं।[1]

मंत्र जप की सरलतम विधि

मंत्र जप की सरलतम विधि
सृष्टि से पहले जब कुछ भी नहीं था तब शून्य में वहां एक ध्वनि मात्र होती थी। वह ध्वनि अथवा नाद था ‘ओऽम’। किसी शब्द, नाम आदि का निरंतर गुंजन अर्थात मंत्र। उस मंत्र में शब्द था, एक स्वर था। वह शब्द एक स्वर पर आधारित था। किसी शब्द आदि का उच्चारण एक निश्चित लय में करने पर विशिष्ट ध्वनि कंपन ‘ईथर’ के द्वारा वातावरण में उत्पन्न होते हैं। यह कंपन धीरे धीरे शरीर की विभिन्न कोशिकाओं पर प्रभाव डालते हैं। विशिष्ट रुप से उच्चारण किए जाने वाले स्वर की योजनाबद्ध श्रंखला ही मंत्र होकर मुह से उच्चारित होने वाली ध्वनि कोई न कोई प्रभाव अवश्य उत्पन्न करती है। इसी आधार को मानकर ध्वनि का वर्गीकरण दो रुपों में किया गया है, जिन्हें हिन्दी वर्णमाला में स्वर और व्यंजन नाम से जाना जाता है।
मंत्र ध्वनि और नाद पर आधारित है। नाद शब्दों और स्वरों से उत्पन्न होता है। यदि कोई गायक मंत्र ज्ञाता भी है तो वह ऐसा स्वर उत्पन्न कर सकता है, जो प्रभावशाली हो। इसको इस प्रकार से देखा जा सकता है :
यदि स्वर की आवृत्ति किसी कांच, बर्फ अथवा पत्थर आदि की स्वभाविक आवृत्ति से मिला दी जाए तो अनुनाद के कारण वस्तु का कंपन आयाम बहुत अधिक हो जाएगा और वह बस्तु खडिण्त हो जाएगी। यही कारण है कि फौजियों-सैनिकों की एक लय ताल में उठने वाली कदमों की चाप उस समय बदलवा दी जाती है जब समूह रुप में वह किसी पुल पर से जा रहे होते हैं क्योंकि पुल पर एक ताल और लय में कदमों की आवृत्ति पुल की स्वभाविक आवृत्ति के बराबर होने से उसमें अनुनाद के कारण बहुत अधिक आयाम के कंपन उत्पन्न होने लगते हैं, परिणाम स्वरुप पुल क्षतिग्रस्त हो सकता है। यह शब्द और नाद का ही तो प्रभाव है। अब कल्पना करिए मंत्र जाप की शक्ति का, वह तो किसी शक्तिशाली बम से भी अधिक प्रभावशाली हो सकता है।
किसी शब्द की अनुप्रस्थ तरंगों के साथ जब लय बध्यता हो जाती है तब वह प्रभावशाली होने लगता है। यही मंत्र का सिद्धान्त है और यही मंत्र का रहस्य है। इसलिए कोई भी मंत्र जाप निरंतर एक लय, नाद आवृत्ति विशेष में किए जाने पर ही कार्य करता है। मंत्र जाप में विशेष रुप से इसीलिए शुद्ध उच्चारण, लय तथा आवृत्ति का अनुसरण करना अनिवार्य है, तब ही मंत्र प्रभावी सिद्ध हो सकेगा।
नाम, मंत्र, श्लोक, स्तोत्र, चालीसा, अष्टक, दशक शब्दों की पुनर्रावृत्ति से एक चक्र बनता है। जैसे पृथ्वी के अपनी धुरी पर निरंतर घूमते रहने से आकर्षण शक्ति पैदा होती है। ठीक इसी प्रकार जप की परिभ्रमण क्रिया से शक्ति का अभिवर्द्धन होता है। पदार्थ तंत्र में पदार्थ को जप से शक्ति एवं विधुत में परिवर्तित किया जाता है। जगत का मूल तत्व विधुत ही है। प्रकंपन द्वारा ही सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थ का अनुभव होता है। वृक्ष, वनस्पती, विग्रह, यंत्र, मूर्ति, रंग, रुप आदि सब विद्युत के ही तो कार्य हैं। जो स्वतःचालित प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा संचालित हो रहे हैं। परंतु सुनने में यह अनोखा सा लगता है कि किसी मंत्र, दोहा, चोपाई आदि का सतत जप कार्य की सिद्धि भी करवा सकता है। अज्ञानी तथा नास्तिक आदि के लिए तो यह रहस्य-भाव ठीक भी है, परंतु बौद्धिक और सनातनी वर्ग के लिए नहीं।

मूठ निवारण मंत्र :

यह पूर्व काल से ही आदिवासी जनजातियों द्वारा अपनाये जाने वाला यह निकृष्ट मारण प्रयोग है...हांडी उड़ने की क्रिया भी काफी निकृष्ट होती होती है. हाँ इनमें यदि यह किसी जानकार व्यक्ति के हाथ लग जाये तो वह भेजने वाले को भी इसे वापस भेज कर मार सकता है. जिस व्यक्ति पर हंडिया / मूठ का प्रयोग किया गया है वह व्यक्ति अपने ऊपर मंडराती हुई हांडी देखते ही तत्काल निम्नलिखित प्रयोग करेगा तो बच जायेगा और मूठ वापस भेजने वाले के पास चली जायेगी :-
१. हंडिया देखते ही अपने हाथ की अंगुली को काट कर भूमि पर रक्त छिटका दे तो मूठ वापस चली जायेगी.
२. निम्न जाति का जूठन / मलमूत्र या स्वमूत्र जिह्वाग्र में लगाते हुए एकटक उस हंडिया की ओर आकाश में देखता रहे तो मूठ वापिस चली जायेगी.
३. मूठ निवारण मंत्र :
"ऊँ ह्रीं आई को लगाई को जट जट खट खट
उलट पलट लूका को मूका को नार नार
सिद्ध यति की दोहाई मन्त्र सांचा फुरो वाचा"
विधि :
दीपावली या ग्रहण की रात्री को एक हज़ार जाप कर मन्त्र सिद्ध कर ले. फिर उडद के दानों पर २१ बार मन्त्र पढ़ कर जिधर से मूठ आ रही हो उधर या सभी दिशाओं में और जिस व्यक्ति के मूठ लगी हो उसके ऊपर वो दाने गिरा देन, तो मूठ शांत हो जायेगी.

तंत्र साधना में क्यों आवश्यक है नारी

तंत्र साधना में क्यों आवश्यक है नारी
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (अष्टक 8, मं. 10 सू. 129) में वर्णित है कि प्रारंभ में अंधकार था एवं जल की प्रधानता थी और संसार की उत्पत्ति जल से ही हुई है। जल का ही एक पर्यायवाची 'नार' है।
सृजन के समय विष्णु जलशैया पर विराजमान होते हैं और नारायण कहलाते हैं एवं उस समय उनकी नाभि से प्रस्फुटित कमल की कर्णिका पर स्थित ब्रह्मा ही संसार का सृजन करते हैं और नारी का नाभि से ही सृजन प्रारंभ होता है तथा उसका प्रस्फुटन नाभि के नीचे के भाग में स्थि‍त सृजन पद्म में होता है।
सृजन की प्रक्रिया में नारायण एवं नारी दोनों समान धर्मी हैं एवं अष्टदल कमल युक्त तथा पूर्ण हैं जबकि पुरुष केवल सप्तदल कमलमय है, जो अपूर्ण है। इसी कारण तंत्र शास्त्र में तंत्रराज श्रीयंत्र की रचना में रक्तवर्णी अष्टदल कमल विद्यमान होता है, जो नारी की अथवा शक्ति की सृजनता का प्रतीक है।
इसी श्रीयंत्र में अष्टदल कमल के पश्चात षोडशदलीय कमल सृष्टि की आद्या शक्ति 'चन्द्रा' के सृष्टि रूप में प्रस्फुटन का प्रतीक है। चंद्रमा 16 कलाओं में पूर्णता को प्राप्त करता है। इसी के अनुरूप षोडशी देवी का मंत्र 16 अक्षरों का है तथा श्रीयंत्र में 16 कमल दल उसी के प्रतीक होते हैं। तदनुरूप नारी 27 दिन के चक्र के पश्चात 28वें दिन पुन: नवसृजन के लिए पुन: कुमारी रूपा हो जाती है।
यह संपूर्ण संसार द्वंद्वात्मक है, मिथुनजन्य है एवं इसके समस्त पदार्थ स्त्री तथा पुरुष में विभाजित हैं। इन दोनों के बीच आकर्षण शक्ति ही संसार के अस्तित्व का मूलाधार है जिसे आदि शंकराचार्यजी ने सौंदर्य लहरी के प्रथम श्लोक में व्यक्त किया है।
शिव:शक्तया युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं।
न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि।
यह आकर्षण ही कामशक्ति है जिसे तंत्र में आदिशक्ति कहा गया है। यह परंपरागत पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) मंर से एक है। तंत्र शास्त्र के अनुसार नारी इसी आदिशक्ति का साकार प्रतिरूप है। षटचक्र भेदन व तंत्र साधना में स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य है, क्योंकि साधना स्थूल शरीर द्वारा न होकर सूक्ष्म शरीर द्वारा ही संभव है। सूक्ष्म शरीर का तत्व ब्रह्मचारी ही जान सकता है। यह सब ब्रह्मचर्य और योगतप के बल पर ही संभव है। ब्रह्मचर्य और तप के बल पर देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की !ब्रह्म बिंदु रूप में स्थित है, यह बिंदु ही वीर्य कहा जाता है! वीर्य रक्षा करने से जीवन का उत्कर्ष प्राप्त होता है! मरणं बिंदु पातेन , जीवनं बिंदु रक्षणात ! अर्थात बिंदु का पतन होना ही मृत्यु है और उसकी रक्षा करने से उच्चावस्था प्राप्त होती है! इसीलिए ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ऊर्ध्वरेत्ता होता है! वह लैंगिक क्रियाओं के माध्यम से रेतस का पतन नहीं करता!
जब हम विकारों की बात करते हैं तो काम वहाँ पहले स्थान पर आता है! काम, क्रोध, लोभ और मोह! और पुरुषार्थ की चर्चा में काम तीसरे स्थान पर मिलता है! काम को विकार नहीं, ऊर्जा भाव से देखें! यह प्रकृति की जिग्जेक है! इसको यदि चित्र से बताएं तो मान लीजिए कि जीवन एक ऐसी अवस्था है जो आकुंचन और प्रसारण की योजना से कार्य करता है! या कहें कि गति के सिद्धांत पर चलता है! तो गति ऊर्ध्वगामी और अधोगामी होती है! यह गति
जन्म से अधोगामी होती है! क्योंकि मानव के जीवन चक्र को वैदिक सिद्धांत से देखते हैं तो यह चंद्रमा के अनुरूप चलता है! चंद्रमा जल का स्वामी है और जल की अधोगति होती है! प्रकाश और अग्नि की ऊर्ध्व गति होती है! जब हम आपने विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह को एक गति के रूप में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की गति से विस्फोटित करते हैं तो एक अग्नि पुंज( पुरुषार्थ) से एक विकार का विनाश हो जाता है! इस प्रकार धर्म से काम का, अर्थ से क्रोध का, काम से लोभ का विनाश होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है!
जब हम काम के समक्ष धर्म पथ को ग्रहण करते हैं तो काम नष्ट हो जाता है और गति ऊपर की और अग्रसर होती है! इसी क्रम में जब धर्म स्वरुप लेता है तो क्रोध को नष्ट करता है! क्रोध के नष्ट होने पर अर्थ प्राप्ति और अर्थ द्वारा लोभ नष्ट होने से पुरुषार्थ काम का सत्व सक्रिय होता है, जो मोह को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कराता है!

कार्य-सिद्ध भैरव शाबर मन्त्र

भैरव शाबर मन्त्र
कार्य-सिद्ध भैरव शाबर मन्त्र
मन्त्रः-
“ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ-कार ! ॐ गुरु भु-मसान, ॐ गुरु सत्य गुरु, सत्य नाम काल भैरव कामरु जटा चार पहर खोले चोपटा, बैठे नगर में सुमरो तोय दृष्टि बाँध दे सबकी । मोय हनुमान बसे हथेली । भैरव बसे कपाल । नरसिंह जी की मोहिनी मोहे सकल संसार । भूत मोहूँ, प्रेत मोहूँ, जिन्द मोहूँ, मसान मोहूँ, घर का मोहूँ, बाहर का मोहूँ, बम-रक्कस मोहूँ, कोढ़ा मोहूँ, अघोरी मोहूँ, दूती मोहूँ, दुमनी मोहूँ, नगर मोहूँ, घेरा मोहूँ, जादू-टोना मोहूँ, डंकणी मोहूँ, संकणी मोहूँ, रात का बटोही मोहूँ, पनघट की पनिहारी मोहूँ, इन्द्र का इन्द्रासन मोहूँ, गद्दी बैठा राजा मोहूँ, गद्दी बैठा बणिया मोहूँ, आसन बैठा योगी मोहूँ, और को देखे जले-भुने मोय देखके पायन परे। जो कोई काटे मेरा वाचा अंधा कर, लूला कर, सिड़ी वोरा कर, अग्नि में जलाय दे, धरी को बताय दे, गढ़ी बताय दे, हाथ को बताय दे, गाँव को बताय दे, खोए को मिलाए दे, रुठे को मनाय दे, दुष्ट को सताय दे, मित्रों को बढ़ाए दे । वाचा छोड़ कुवाचा चले, माता क चोंखा दूध हराम करे । हनुमान की आण, गुरुन को प्रणाम । ब्रह्मा-विष्णु साख भरे, उनको भी सलाम । लोना चमारी की आण, माता गौरा पारवती महादेव जी की आण । गुरु गोरखनाथ की आण, सीता-रामचन्द्र की आण । मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति । गुरु के वचन से चले, तो मन्त्र ईश्वरो वाचा ।”
विधिः-
सर्व-कार्य सिद्ध करने वाला यह मंत्र अत्यन्त गुप्त और अत्यन्त प्रभावी है । इस मंत्र से केवल परोपकार के कार्य करने चाहिए ।
१॰ रविवार को पीपल के नीचे अर्द्धरात्रि के समय जाना चाहिए, साथ में उत्तम गुग्गुल, सिन्दूर, शुद्ध केसर, लौंग, शक्कर, पञ्चमेवा, शराब, सिन्दूर लपेटा नारियल, सवा गज लाल कपड़ा, आसन के लिये, चन्दन का बुरादा एवं लाल लूंगी आदि वस्तुएँ ले जानी चाहिए । लाल लूंगी पहन कर पीपल के नीचे चौका लगाकर पूजन करें, धूप देकर सब सामान अर्पित करे । साथ में तलवार और लालटेन रखनी चाहिए । प्रतिदिन १०८ बार २१ दिन तक जप करें । यदि कोई कौतुक दिखाई पड़े तो डरना नहीं चाहिए । मंत्र सिद्ध होने पर जब भी उपयोग में लाना हो, तब आग पर धूप डालकर तीन बार मंत्र पढ़ने से कार्य सिद्ध होंगे ।
ऊपर जहाँ चौका लगाने के बारे में बताया गया है, उसका अर्थ यह है कि पीली मिट्टी से चौके लगाओ । चार चौकियाँ अलग-अलग बनायें । पहली धूनी गुरु की, फिर हनुमान की, फिर भैरव की, फिर नरसिंह की । यह चारों चौकों में कायम करो । आग रखकर चारों में हवन करें । गुरु की पूजा में गूग्गूल नहीं डाले । नरसिंह की धूनी में नाहरी के फूल एवं शराब और भैरव की धूनी में केवल शराब डालें ।
२॰ उक्त मन्त्र का अनुष्ठान शनि या रविवार से प्रारम्भ करना चाहिए । एक पत्थर का तीन कोने वाला टुकड़ा लेकर उसे एकान्त में स्थापित करें । उसके ऊपर तेल-सिन्दूर का लेप करें । पान और नारियल भेंट में चढ़ाए । नित्य सरसों के तेल का दीपक जलाए । दीपक अखण्ड रहे, तो अधिक उत्तम फल होगा । मन्त्र को नित्य २७ बार जपे । चालिस दिन तक जप करें । इस प्रकार उक्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है । नित्य जप के बाद छार, छबीला, कपूर, केसर और लौंग की आहुति देनी चाहिए । भोग में बाकला, बाटी रखनी चाहिए । जब भैरव दर्शन दें, तो डरें नहीं, भक्ति-पूर्वक प्रणाम करें और उड़द के बने पकौड़े, बेसन के लड्डू तथा गुड़ मिला कर दूध बलि में अर्पित करें । मन्त्र में वर्णित सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।

श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र

श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र
यह स्तोत्र सभी रोगों के निवारण में, शत्रुनाश, दूसरों के द्वारा किये गये पीड़ा कारक कृत्या अभिचार के निवारण, राज-बंधन विमोचन आदि कई प्रयोगों में काम आता है ।
विधिः- सरसों के तेल का दीपक जलाकर १०८ पाठ नित्य ४१ दिन तक करने पर सभी बाधाओं का शमन होकर अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है।
विनियोगः- ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं, मम समस्त विघ्न-दोष-निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे सकल- राज- कुल- संमोहनार्थे, मम समस्त- रोग- प्रशमनार्थम् आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त- पाप-क्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये ।
ध्यानः-
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं । वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम सकल- दिङ्मण्डल- यशोवितान- धवलीकृत- जगत-त्रितय वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र उदधि-बंधन दशशिरः कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार- ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्व- पाप- ग्रह- वारण- सर्व- ज्वरोच्चाटन डाकिनी- शाकिनी- विध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दुःख निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर, माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हां ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु शिरः-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय नागपाशानन्त- वासुकि- तक्षक- कर्कोटकालियान् यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।
।। इति विभीषणकृतं हनुमद् वडवानल स्तोत्रं ।।

श्री वीर भैरो मंत्र



स्व रक्षा और शत्रु नाशन हेतु श्री वीर भैरो मंत्र
यह मंत्र अपने आप मे पूर्ण चैतन्य मंत्र है और इसका प्रभाव भी बड़ा भयंकर है,इस मंत्र कि सिद्धि के लिए मंत्र जाप रोज करना पड़ता है,कम से कम १ माला रोज या फिर ११ माला भी हम हमारी उपयुक्तता से कर सकते है,इस साधना मे किसी माला का उपयोग नहीं है,सिर्फ काला आसन और दक्षिण दिशा महत्वपूर्ण है,समय रात्रि काल मे ९:३६ के बाद,और जैसे जैसे मंत्र जाप बढ़ता है हमे मंत्र के प्रभाव का अनुभव होने लगता है,और एक दिन येसा भी आता है साधना काल मे कि बाबा भैरो प्रत्यक्ष होते है या फिर स्वप्न मे आकर स्वयं ही हमारे रक्षा करने कि जिम्मेदारी का वचन देते है
मंत्र :-
हमें जो सतावै,सुख न पावै सातों जन्म |
इतनी अरज सुन लीजै,वीर भैरो | आज तुम ||
जितने होंय सत्रु मेरे.और जो सताय मुज़े |
वाही को रक्त पान.स्वान को कराओ तुम ||
मार-मार खड्गन से, काट डारो माथ उनके |
मास रक्त से नहावो, वीर भैरो | तुम ||
कालका भवानी ,सिंह-वासिनी को छोड़ |
मैंने करी आस तेरी, अब करो काज इतनो तुम ||

जय श्री राम...

जय श्री राम...
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श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता. आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । Mob..9760924411…mob...9411813740.....इसी नंबर पर संपर्क करें..और 12.00 pm…से शाम 06.00 pm के मध्य संपर्क करें।

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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