भूमी पूजन ,आफिस एवं दुकान उदघाटन : भूमि पूजन एवं दुकान उदघाटन उस भूमि पर कार्य शुरू करने के पूर्व वहा का भूमि पूजन सम्पन्न किया जाता है | जिससे वहा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो और कार्य आसानी से सम्पन्न हो जाय|
श्री राम ज्योतिष सदन भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष पर आधारित जन्मपत्रिका और वर्षफल बनवाने के लिए सम्पर्क करें। अगर आप व्यक्तिगत रूप से या फोन पर एस्ट्रोलॉजर पंडित आशु बहुगुणा से अपनी समस्याओं को लेकर बात करना चाहते हैं।अपनी नई जन्मपत्रिका बनवाना चाहते हैं। या अपनी जन्मपत्रिका दिखाकर उचित सलाह चाहते हैं। मेरे द्वारा निर्धारित फीस/शुल्क अदा कर के आप बात कर सकते हैं। http://shriramjyotishsadan.in/ मोबाइल नं-9760924411 फीस संबंधी जानकारी के लिए- आप--- Whatsapp - message भी कर सकते हैं।-9760924411
Saturday, 28 August 2021
श्री नवग्रह उपाय
१ : सूर्य : सूर्य की शांति के लिए सूर्य के ७००० मन्त्र संख्या का जप करना अनिवार्य है | साथ में गेहू या गुण दान करे लाल चन्दन लगाये तथा सूर्य को अर्घ्य दें | माणिक्य सोना या तम्बा में धारण करे लाभ प्राप्त होगा |
२ : चन्द्र शांति : चन्द्र ग्रह बहुत ही निर्मल है इसकी शांति के लिए ११००० मन्त्र जप करवाने से चन्द्र शांति होती है |
३ : मंगल शांति : मंगल शांति के लिए मंगल के १०००० मन्त्र का जप कराया जाता है |
४ : बुध शांति : बुध के ९००० मंत्रो के जप कराने से तथा दान करने से बुध ग्रह शांत होता है |
५ : गुरु शांति : गुरु की जप संख्या १९००० का जप करवाने से तथा पीले वस्त्रो का दान देने से गुरु की शांति होती है |
६ : शुक्र शांति : शुक्र की जप संख्या १६००० का जप ब्रह्मण द्वारा कराए तथा सफेद वस्तुओ का दान करे शुक्र प्रसन्न होगे |
७ : शनि शांति : २३००० शनि मंत्रो का जप कराए तथा काले वस्त्रो का दान करे तो शनि शीघ्र लाभकारी होगा |
८ : राहू शांति : राहू की शांति के लिए १८००० जप ब्राह्मण द्वरा कराए तथा यथोचित दान करे आप को लाभ प्राप्त होगा |
९ : केतु शांति : केतु शांति के लिए १७००० मंत्रो का जप कराए , और उचित दान देने पर विशेष लाभ प्राप्त होगा |
मंत्र किसे कहतें है।?
मंत्र किसे कहतें है।?
मंत्र एक ध्वनि उर्जा है जो अक्षर(शब्द) एवं अक्षर के समूह से बनता है। ब्रह्मांड में रूप रस, गंध इत्यादि गुण व्याप्त न होकर मात्र शब्द और प्रकाश ही विद्यमान होता है | ध्यान की अवस्था में ब्रह्माण्ड में व्याप्त अलोकिक प्रकाश की अनुभूति की जा सकती है | मंत्र जाप एवं ध्यान के समन्वय से मनुष्य का ब्रह्मांड में दोनों प्रकार की उपस्थित उर्जाओं से साक्षात्कार संभव हो सकता है | प्राचीनो ने इसी को शब्द-ब्रह्म के नाम से पुकारा था जिसमें शब्द उर्जा एवं प्रकाश उर्जा ,दोनों का सुनियोजित प्रकार से समन्वय करके इष्ट, इष्टफल एवं ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके |
जाप किसे कहतें है ?
जाप, दो अक्षरों से मिलकर बना है -ज और प - जिसका अर्थ है - जन्मो-जन्मो के पापों का नाश | मन्त्रों के जाप से मनुष्य का सीधा सम्बन्ध ब्रहमांड जगत से होने लगता है एवं अन्दर पलने वाले समस्त पाप, ताप एवं विकारों का शमन होने लगता है और धीरे - धीरे वह समस्त इच्छित प्रयोजनों को साधने योग्य हो जाता है |
तुलसीदास ने भी राम चरित में जप की के बारे में वर्णन किया है -
| मंत्रजाप मम दृढ बिस्वासा
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ||
भगवान बुद्ध के प्रवचन के अनुसार भी -मंत्रजाप असीम मानवता के साथ हृदय को एकाकार कर देता है |
क्योंकि मंत्रो के समीकरण के प्रकार अनुसार मन्त्रों को तीन श्रेणियों में बाटां गया है -
ऋचः - छन्द बद्ध और पद्यात्मक एवं उच्च स्वर में उच्चारित |
सामाः - पद्यात्मक एवं गायन द्वारा उच्चारित |
यजुः - गद्यात्मक एवं मंद स्वर में उच्चारित |
इसलिए जप का सामान्य अर्थ किसी मंत्र का चक्रीय स्थिति एवं गति से सतत या निरंतर, चिंतन (यजुः), मनन (यजुः) या गायन (ऋचः एवं सामाः ) करना होता है | मंत्र के निरंतर, लयबद्ध जप से उत्पन्न धवनि तरंगो से शक्तियों का प्रस्फुटन होता है मनुष्य की अंतर चेतना विकसित होने लगती है | मंत्र में निहित ईश्वरीय शक्ति जाग्रत होने लगती है | साधक को नाक्षत्र जगत से एकीकार होने की अनुभूति होती है एवं वह अपने इच्छित वरदान प्राप्ति की और मार्ग प्रशस्त करता है |
श्रीमद भगवद गीता, रामायण एवं महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में मंत्र साधना एवं सिद्धि का उल्लेख मिलता है और यह विदित होता है की उस काल में ऋषि मुनि ही नहीं, वरन सामान्य मनुष्य भी मंत्र सिद्धि से सभी प्रकार के तापों एवं रोगों का नाश करके समस्त भौतिक एवं अध्यात्मिक सुखों के आलोकिक आनंद को प्राप्त कर लेता था | आज के भोतिक वादी युग में हर व्यक्ति को सुख साधनों एवं सुरक्षा की कामना रहती है | कुछ व्यक्तियों को अध्यात्मिक ज्ञान एवं शांति की खोज रहती है | इन सभी की प्राप्ति के लिए जो मनुष्य के प्रारब्ध या कर्मों के चक्र के कारण अति अवरुद्ध या असंभव प्रतीत होते हैं , मन्त्र जाप की सहायता से प्राप्त हो सकतें है | परन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब साधक को मंत्र सिद्धि प्राप्त हो और इसके लिए आवयशक है की "जप" पूर्ण विधान के किया जाये |
आएये हम जप के -विधि विधान पर विमर्श करते है-
शास्त्रों में जप के तीन प्रकार बतलाएं गए हैं
मानसिक जप - बिना जिह्वा या होंठ हिलाए मन में किया जाता है
वाचिक जप - उच्च स्वर में उच्चारित किया जाता है
उपांशु जप - अत्यंत मंद स्वर जिह्वा या होंठ की सहायता से उच्चारित किया जाता है
मानसिक जप को सबसे श्रेष्ठ माना गया है फिर भी साधक अपनी क्षमता एवं गुरु से प्राप्त ज्ञान के अनुसार जप विधि का अनुसरण कर सकता है |
जप के लिए कुछ प्रारंभिक सावधानियां पर ध्यान देना आवयशक है-
१ ) इष्ट की पूजा से प्रारम्भ २ ) निश्चित भूमि एवं वस्त्रों का चयन ३ ) ब्रहमचर्य एवं देहिक व् मानसिक शुद्धता का पालन ४ ) नेमित्तिक पूजा एवं दान ५) मंत्र एवं गुरु में पूर्ण विश्वास ६ ) मन्त्र के दोषों का उन्मूलन ( शास्त्रों में मंत्र के ८ दोष बताये गएँ है - अभक्ति , अक्षर भ्रान्ति , दीर्घ ,ह्रस्व , छिन्न , लुप्त , कथन एवं स्वप्ना कथन ) हेतु संस्कार ७ ) जप संख्या में निरंतर वृद्धि |
किसी भी दोष निवारण के लिए हर मन्त्र का उच्चारण करते समय आनंद का अनुभव करना चाहिए क्योंकि इसी से उस मंत्र से सम्बंधित शक्ति प्रसन्न होती है एवं मन्त्र शीघ्र सिद्ध हो जाता | कोई भी मन में संशय होने पर अपने गुरु से पुनः मंत्र प्राप्त करें |
जप में माला का महत्त्व
जप करने के लिए माला का होना आवश्यक है | कुछ लोग अपने हाथ पर गिनकर भी जप कर लेते है परन्तु लम्बे चलने वाले जप या अधिक संख्या के मन्त्रों के जप के लिए हाथ पर जप करना अभीष्ट नहीं होता है | जप के लिए तीन प्रकार की माला का प्रयोग बताया गया है |
१ ) कर माला - उँगलियों के पोरों पर गिनकर जप किया जाता है पर गिनते समय पोरों के क्रम का ध्यान रखना पड़ता है | इसमें मध्यमा ऊँगली के नीचे या जड़ के दो पोरों को छोड़ना चाहिए , क्योंकि वह ऊँगली के मेरु कहलाते हैं |
२ ) वर्ण माला - इसमें शब्दों के अक्षरों द्वारा संख्या गिनने की प्रक्रिया होती है |
३ ) मणि माला- मणियों अर्थात मानकों में पिरोई हुई माला को कहते हैं | यहाँ पर हम इसीकी की चर्चा करेगे क्योकि यही बहुतायत में प्रयोग की जाती है एवं इसीका का विधान सर्वथा उचित माना गया है |
मनको की माला के प्रयोग हेतु विभिन्न बातोंका ध्यान रखना आवयशक है -
१ ) माला में सुमेरु के अलावा १ ० ८ मनके होने चाहिए एवं पिरोते समय मनकों के अग्र एवं पुच्छ भाग की दिशा का ध्यान रखना चाहिए
२) भिन्न - भिन्न देवता या ग्रह अथवा भिन्न प्रयोजन या कामनापूर्ति के लिए उनसे संभंधित पदार्थों की माला प्रयोग में लानी चाहिए जैसे बृहस्पति की शान्ति हेतु हल्दी की माला , हनुमान और शिव की प्रसनता हेतु रुद्राक्ष की माला और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए स्फटिक की माला
३ ) प्रातः काल में माला को नाभि के पास रखकर, मध्यान काल में माला को हृदय के पास रखकर और सायंकाल में माला को मस्तक के पास रखकर जप करने चाहिए |
४ ) जप करते समय माला के सुमेरु को नहीं लांघना चाहिए | एक से अधिक बार माला फेरने की स्थिति में सुमेरु तक पहुँचाने के उपरांत माला उलटी फेरनी चाहिए |
५) प्रयोग में लेने से पूर्व , माला का विधिवत 'माला -संस्कार ' होना चाहिए |
अशुभ ग्रहो के दोष से बचाव के लिये स्नान
अशुभ ग्रहो के दोष से बचाव के लिये स्नान ।
वर्तमान युग मे रत्न धारण को ही ग्रहो की अनुकूलता का एक मात्र विकल्प मान लिया जो उचित नही है ।
ग्रहो की अनुकूलता अनिष्ट फल को शमन करने और शुभ फल प्राप्ति के लिए ओषधियो को जल मे भिगोकर अथवा उनके क्वाथ को जल मे मिलाकर स्नान करने का विधान अत्यन्त श्रेष्ठ रहता है ।
ज्योतिषीय प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ मे लिखा है। -
" खगेरिता साधुफलं जनेन
तदर्चया यत्तदितं वरेण्यम् ।
सदौषधिस्नान विधानहोमा
पवर्जनेभ्योऽभ्युदयाय वा स्यात्। ।
अर्थात ग्रहो के अनिष्ट फल की शान्ति ग्रह- पूजा , ओषधि स्नान, होम एवं दान करने से होती है और मनुष्य का अभ्युदय होता है ।
सभी ग्रहो की ओषधि स्नान वस्तुऐ निम्नवत प्रकार से है।
सूर्य -
सूर्य की अनिष्ट शान्ति के लिए देवदारू , जेठीमधु , कमल गट्टा ,इलायची , मनःशिल , खस से स्नान करने से लाभ प्राप्त होता है ।
चन्द्रमा -
चन्द्रमा की अनिष्ट शान्ति के लिये पंचगव्य , बिल्व , कमल ,मोती की सीप शंख से स्नान करना लाभदायक रहता है ।
मंगल -
मंगल की अनिष्ट शान्ति के लिए चन्दन , बिल्व , बैगनमूल , बरियारा के बीच ( खरेटी ) ,जटामासी , लाल पुष्प ,सुगंध वाला , नागकेशर और जपापुष्प से स्नान करना चाहिए।
बुध -
बुध अनिष्ट शान्ति के लिए नागकेशर, पोहकरमूल , अक्षत , मुक्ताफल , गोरोचन , मधु , मैनफल और पंचगव्य से स्नान करना श्रेष्ठ रहता है ।
बृहस्पति -
गुरु की अनिष्ट शान्ति के लिए पीली सरसो , जेठीमधु , मालती पुष्प , जुही के फूल और पत्ते से स्नान करना उचित रहता है ।
शुक्र-
शुक्र के अच्छे फल प्राप्ति के लिए श्वेत कमल , मनःशिल , सुगंधबाला , इलायची , पोहकरमूल , और केशर से नहाना सर्वाधिक हितकर रहता है ।
शनि -
शनि की अनिष्ट निवारक के लिए काला सुरमा , बरियारा के बीज ( खरेटी ) ,काले तिल , धान का लावा , लोध , मोथा और सौफ से स्नान करना उत्तम फलदायक रहता है ।
राहु -
राहु अनिष्ट निवारण के लिए बिल्व पत्र , लाल चंदन , लोध , कस्तूरी , गजमद , दूर्वा , मोथा से स्नान लाभप्रद रहता है ।
केतु -
केतु की अनिष्ट शान्ति के लिए रक्त चंदन , रतनजोत , कस्तूरी ,मोथा , गजमद , लोध , सुगंधबाला, दाडिम, गुडूची से स्नान करना श्रेष्ठ फलदायक रहता है ।
उपरोक्त ग्रहो के निमित्त ओषधि स्नान अनिष्ट निवारक एवं शुभ प्रभाव प्रदान करने वाले हैं शास्त्रोक्त एवं मालूमी व्यय वाले एवं अति शीघ्र फलदायक रहते है। जनोपयोगी एवं अत्यन्त श्रेष्ठ है। का उपयोग कर ग्रहो की अनुकूलता प्राप्त की जा सकती है। जन्म कुंडली के अनुसार अनिष्ट फल प्रदान करने वाला ग्रह दशा चक्र होने पर उपरोक्त ओषधि स्नान कर ग्रहो की कृपा आसानी से प्राप्त की जा सकती है ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
पर आधारित जन्मपत्रिका और वर्षफल बनवाने के लिए सम्पर्क करें।
अगर आप व्यक्तिगत रूप से या फोन पर एस्ट्रोलॉजर पंडित आशु बहुगुणा से अपनी समस्याओं को लेकर बात करना चाहते हैं।अपनी नई जन्मपत्रिका बनवाना चाहते हैं। या अपनी जन्मपत्रिका दिखाकर उचित सलाह चाहते हैं। मेरे द्वारा निर्धारित फीस/शुल्क अदा कर के आप बात कर सकते हैं।
मोबाइल नं-9760924411
फीस संबंधी जानकारी के लिए Facebook page के message box में message करें। आप Whatsapp भी कर सकते हैं।
नं-9760924411
कृपया निशुल्क: ज्योतिष-वास्तु परामर्श संबंधी फोन अथवा मैसेज ना करें।
Thursday, 26 August 2021
टोना टोटका तंत्र बाधा निवारण मंत्र-
टोना टोटका तंत्र बाधा निवारण मंत्र- आज यह भी देखने को मिलता है कि कुछ दुष्ट लोग किसी टोना करने वाले से कोई प्रयोग करा देते है और लोग भयानक कष्ट भोगने लगते है।
दवा करने पर भी लाभ नहीं मिलता है,तब इस मंत्र को ११ माला से सिद्ध कर प्रयोग करे।लोग जादू टोना से प्रभावित होकर विक्षिप्त भी हो जाते है।किसी शुभ मूर्हूत मे ईस मंत्र का प्रयोग करें।एक दीपक जलाकर किशमिश का भोग लगा कर मंत्र सिद्ध करे,फिर प्रयोग करते समय ७बार मंत्र पढ़ फूंक मारकर उतारा कर दें।ऐसा ७बार कर देने पर सभी जादू टोना नष्ट हो जाता हैं।बाद मे एक सफेद भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही से अनार के कलम से मंत्र लिख ताँबा या चाँदी की ताबीज मे यंत्र भरकर काला धागा लगाकर स्त्री हो तो बांया पुरूष हो तो दांये बांह मे ७बार मंत्र पढ़ बाँध ले।
शाबर मंत्र- ॐ नमो आदेश गुरू को।ॐ अपर केश विकट भेष।खम्भ प्रति पहलाद राखे,पाताल राखे पाँव।देवी जड़घा राखे,कालिका मस्तक रखें।महादेव जी कोई या पिण्ड प्राण को छोड़े,छेड़े तो देवक्षणा भूत प्रेत डाकिनी,शाकिनी गण्ड ताप तिजारी जूड़ी एक पहरूँ साँझ को सवाँरा को कीया को कराया को,उल्टा वाहि के पिण्ड पर पड़े।इस पिण्ड की रक्षा श्री नृसिंह जी करे।शब्द साँचा,पिण्ड काचा।फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।
Wednesday, 25 August 2021
यक्षिणी सधना
।। यक्षिणी साधना ।।
यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं।. यक्षिणी साधना को करने से साधक की मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं। तथा इस साधना को करने से साधक को दुसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति भी प्राप्त होती हैं। साधक की बुद्धि तेज होती हैं। यक्षिणी साधना को करने से कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि जल्द ही हो जाती हैं।
बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं। कि ये बहुत भयानक होती हैं। किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, नाग आदि। ये सभी मानवों से कुछ अलग थे। इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे। देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है। कहते हैं कि यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं। तो पिशाचिनियां नकारात्मक। बहुत से लोग यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी की तरह मानते हैं,। लेकिन यह सच नहीं है। रावण के सौतेला भाई कुबेर एक यक्ष थे, जबकि रावण एक राक्षस। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की दो पत्नियां थीं- इलविला और कैकसी। इलविला से कुबेर और कैकसी से रावण, विभीषण, कुंभकर्ण का जन्म हुआ। इलविला यक्ष जाति से थीं तो कैकसी राक्षस। जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह प्रमुख 8 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं। गंधर्व और यक्ष जातियां देवताओं की ओर थीं तो राक्षस, दानव आदि जातियां दैत्यों की ओर। यदि आप देवताओं की साधना करने की तरह किसी यक्ष या यक्षिणियों की साधना करते हैं तो यह भी देवताओं की तरह प्रसन्न होकर आपको उचित मार्गदर्शन या फल देते हैं। उत्लेखनीय है कि जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे। उपनिषद की एक कथा अनुसार एक यक्ष ने ही अग्नि, इंद्र, वरुण और वायु का घमंड चूर-चूर कर दिया था।यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। किसी योग्य गुरु या जानकार से पूछकर ही यक्षिणी साधना करनी चाहिए। यहां प्रस्तुत है यक्षिणियों की चमत्कारिक जानकारी। यह जानकारी मात्र है। साधक अपने विवेक से काम लें। शास्त्रों में 'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों की है।
ये प्रमुख यक्षिणियां है - 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी।
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होकर सहायता करती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध करने के लिए किसी योग्य गुरु या जानकार से इसके बारे में जानें।
मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र :॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः॥
सुर सुन्दरी यक्षिणी : इस यक्षिणी की विशेषता है कि साधक उन्हें जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होती ही है- चाहे वह मां का स्वरूप हो, चाहे वह बहन या प्रेमिका का। जैसी रही भावना जिसकी वैसे ही रूप में वह उपस्थित होती है या स्वप्न में आकर बताती है। यदि साधना नियमपूर्वक अच्छे उद्देश्य के लिए की गई है तो वह दिखाई भी देती है। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है। देव योनी के समान सुन्दर सुडौल होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है।
सुर सुन्दरी मंत्र : ॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥
मनोहारिणी यक्षिणी : मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के बाद यह यक्षिणी साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहक बना देती है कि वह दुनिया को अपने सम्मोहन पाश में बांधने की क्षमता हासिल कर लेता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट करती है। मनोहारिणी यक्षिणी का चेहरा अण्डाकार, नेत्र हरिण के समान और रंग गौरा है। उनके शरीर से निरंतर चंदन की सुगंध निकलती रहती है।
मनोहारिणी मंत्र :॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥
कनकावती यक्षिणी : कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह यक्षिणी साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है। माना जाता है कि यह यक्षिणी यह लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा है।
कनकावती मंत्र : ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥
कामेश्वरी यक्षिणी : यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख की कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में उपस्थित होकर साधक की इच्छापूर्ण करती है। साधक को जब भी किसी चीज की आवश्यकता होती है तो वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है। यह यक्षिणी सदैव चंचल रहने वाली मानी गई है। इसकी यौवन युक्त देह मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है।
कामेश्वरी मंत्र : ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥
रति प्रिया यक्षिणी : इस यक्षि़णी को प्रफुल्लता प्रदान करने वाली माना गया है। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक-साधिका को यह कामदेव और रति के समान सौन्दर्य की उपलब्धि कराती है। इस यक्षिणी की देह स्वर्ण के समान है जो सभी तरह के मंगल आभूषणों से सुसज्जित है।
रति प्रिया मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥
पदमिनी यक्षिणी : पद्मिनी यक्षिणी अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान करती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति की ओर अग्रसर करती है। यह हमेशा साधक के साथ रहकर हर कदम पर उसका हौसला बढ़ाती है। श्यामवर्णा, सुंदर नेत्र और सदा प्रसन्नचित्र करने वाली यह यक्षिणी अत्यक्षिक सुंदर देह वाली मानी गई है।
पद्मिनी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥
नटी यक्षिणी : यह यक्षिणी अपने साधक की पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है। यह सभी तरह की घटना-दुर्घटना से भी साधक को सुरक्षित बचा ले आती है। उल्लेखनीय है कि नटी यक्षिणी को विश्वामित्र ने भी सिद्ध किया था।
नटी मंत्र : ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
अनुरागिणी यक्षिणी : यह यक्षिणी यदि साधक पर प्रसंन्न हो जाए तो वह उसे नित्य धन, मान, यश आदि से परिपूर्ण तृप्त कर देती है। अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है और यह साधक की इच्छा होने पर उसके साथ रास-उल्लास भी करती है।
अनुरागिणी मंत्र : ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥
तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।
साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।
साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।
ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।
'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।
ये प्रमुख यक्षिणियां है -
1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी 5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।
।।यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन ।।
ज्योतिष के अनुसार यदि आषाढ़ माह में शुक्रवार के दिन पूर्णिमा हैं। यह शुभ दिन होता है।
इसके अलावा यक्षिणी साधना को करने की शुभ तिथि श्रावण मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा हैं. यह यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन इसलिए माना जाता हैं।. क्योंकि इस दिन चंद्रमा में शक्ति अधिक होती हैं. जिससे साधक को उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं।
यक्षिणी साधना की विधि: –यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं
शिवजी का मन्त्र –ऊँ रुद्राय नम: स्वाहा-ऊँ त्रयम्बकाय नम: स्वाहा
ऊँ यक्षराजाय स्वाहा-ऊँ त्रयलोचनाय स्वाहा
1. यक्षिणी साधना को करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और पूजा की सारी सामग्री को इकट्ठा कर लें.
2. यक्षिणी साधना का आरम्भ करने के लिए सबसे पहले शिव जी की पूजा सामान्य विधि से करें.
3. इसके बाद एक केले के पेड़ या बेलगिरी के पेड़ के नीचे यक्षिणी की साधना करें.
4. यक्षिणी साधना को करने से आपका मन स्थिर और एकाग्र हो जायेगा. इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों का जाप पांच हजार बार करें.
5. जाप करने के बाद घर पहुंच कर कुंवारी कन्याओं को खीर का भोजन करायें.
।।यक्षिणी साधना की दूसरी विधि ।।
यक्षिणी साधना को करने का एक और तरीका हैं. इस विधि के अनुसार यक्षिणी साधना करने के लिए वट के या पीपल के पेड़ नीचे शिवजी की तस्वीर या मूर्ति की स्थापना कर लें. अब निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण पांच हजार बार करते हुए पेड़ की जड में जल चढाए।
।।यक्षिणी साधना के नियम ।।
1.यक्षिणी साधना को करने लिए ब्रहमचारी रहना बहुत ही जरूरी हैं.
2. इस साधना को प्राम्भ करने के बाद साधक को अपने सभी कार्य भूमि पर करने चाहिए.
3.यक्षिणी साधना की सिद्धि हेतु साधक को नशीले पदार्थों का एवं मांसाहारी भोजन का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
4.यक्षिणी साधना को करते समय सफेद या पीले रंग के वस्त्रों को ही केवल धारण करना चाहिए.
5.इस साधना को करने वाले साधक को साबुन, इत्र या किसी प्रकार के सुगन्धित तेल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए तथा उसे अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए।
चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना किसी योग्य व सफ़ल गुरु के निर्देशन के बिना साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।बिना गुरु के साधना करने पर अहित होने से हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
पर आधारित जन्मपत्रिका और वर्षफल बनवाने के लिए सम्पर्क करें।
अगर आप व्यक्तिगत रूप से या फोन पर एस्ट्रोलॉजर पंडित आशु बहुगुणा से अपनी समस्याओं को लेकर बात करना चाहते हैं।अपनी नई जन्मपत्रिका बनवाना चाहते हैं। या अपनी जन्मपत्रिका दिखाकर उचित सलाह चाहते हैं। मेरे द्वारा निर्धारित फीस/शुल्क अदा कर के आप बात कर सकते हैं।
मोबाइल नं-9760924411
फीस संबंधी जानकारी के लिए Facebook page के message box में message करें। आप Whatsapp भी कर सकते हैं।
नं-9760924411
कृपया निशुल्क: ज्योतिष-वास्तु परामर्श संबंधी फोन अथवा मैसेज ना करें।
देवी उग्रतारा साधना विधि:-
श्रीमद् उग्रतारा पुरश्चरण विधि:-
1) आचमन- निम्न मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
फिर यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें--ॐ ह्रीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
2) पवित्रीकरण- बाएँ हांथ मे जल लेकर दाहिनी मध्यमा, अनामिका द्वारा अपने सिर पर छिड़कें-
ॐ अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥
ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः ।
3) जल शुद्धि - तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम
कृत्वा ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः
पंचपात्र के ऊपर हुङ् ईति अवगुंठ, वं इति धेनुमुद्रा, मं इति मत्स्य मुद्रा.....१० बार ईष्ट मन्त्र जप ।
फिर पंचपात्र के ऊपर दाहिनी अंगुष्ठा को हिलाते हुए निम्न मंत्र को पढ़ें—
“ ॐ गंगेश यमुनाष्चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेहस्मिन सन्निधिम कुरु ॥
4) आसन शुद्धि – ॐ आसन मंत्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि सुतलं छन्द कूर्म देवता आसने उपवेसने विनियोग: - पंचपात्र मे से एक आचमनी जल छोड़ें-
आसन के नीचे दाहिनी अनामिका द्वारा -तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ॐ ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः असनं स्थापयेत ।
आसन को छूकर - ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
बाएँ हांथ जोड़कर – बामे गुरुभ्यो नमः , परमगुरुभ्यो नमः , परात्पर गुरुभ्यो नमः , परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः ।
दाहिने हांथ जोड़कर – श्रीगणेशाय नमः ।
सामने हांथ जोड़कर सिर मे सटाकर – मध्ये श्रीमद् उग्रतारा देव्यै नमः
5) स्वस्तिवाचन :- ॐ स्वस्ति न:इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
6) गुरुध्यान :- (कूर्म मुद्रा मे)
ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वाधिसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं त्वं नमामि।।
7) मानस पूजन:- अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।
गुरु प्रणाम:-
〰️〰️〰️〰️
दोनों हांथ जोड़कर--
ॐअखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
9) गणेशजी का ध्यान :-
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय,
लम्बोदराय सकलाय जगत् हिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय,
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
10) मानस पूजन:-अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।
11) गणेश प्रणाम:-
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।।
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसंप्रभ:।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकंप्रियं।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।
सर्वविघ्नविनाशाय, सर्वकल्याणहेतवे।
पार्वतीप्रियपुत्राय, श्रीगणेशाय नमो नम: ।।
गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
12) ईष्टदेवी प्रणाम:-
ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते ।
खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥
13) संकल्प:- ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे------प्रदेशे------मासे-----राशि स्थिते भास्करे----पक्षे-----तिथौ----वासरे अस्य-----गोत्रोत्पन्न------नामन:/नाम्नी अस्य श्रीमद्उग्रतारा संदर्शनं प्रीतिकाम: सर्वसिद्धि पूर्णकाम: मन्त्रस्य दशसहस्रादि जप तत् दशांश होमं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश तर्पणम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश अभिसिंचनम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश ब्राह्मण भोजनं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप पंचांग पुरश्चरण कर्माहम् करिष्ये।
14)भूतपसारन :- दाहिने हांथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़कर अपने सिर के ऊपर से दशों दिशाओं मे छोडना है ---
ॐ आपः सर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिता ।
या भूता विघ्नकर्तारंते नश्यंतु शिवाग्या ॥
ॐ बेतालाश्च पिशाचाश्च राक्षाशाश्च सरीसृपा ।
आपःसर्पन्तु ते सर्वे चंडिकास्त्रेन ताडिता: ॥
ॐ विनायका विघ्नकरा महोग्रा यज्ञद्विषो ये ।
पिशितानाश्च सिद्धार्थकैवज्रसमानकल्पैमया नीरिस्ता विदिश: प्रयान्तु ॥
15) भूतशुद्धि :-
1. ॐ भूतशृंगाटाच्छिर सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिव पदे योजयामी स्वाहा ।
2. ॐ यं लिंगशरीरं शोषय शोषय स्वाहा ।
3. ॐ रं संकोचशरीरं दह दह स्वाहा ।
4. ॐ परमशिव सुषुम्नापथेन मूलशृंगाटमूल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा।
16) ऋषयादिन्यास;- ॐ श्रीमद् उग्रतारा मंतरस्य अक्षोभ्य ऋषि, विहति छन्द: , श्रीमदेकजटा देवता, हूँ बीजं , फट् शक्ति , ह्रीं स्त्रीं कीलकम, मम धर्मार्थकाममोक्षार्थे , सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे विनियोग:(पंचपात्र से थोड़ा जल सामने पात्र मे छोड़े )
ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: - शिरसे ।
ॐ विहति छन्दसे नम: - मुखे ।
ॐ श्रीमदेकजटा देवतायै नम: - ह्रदये।
ॐ हूँ बीजाय नम: - गुह्ये (फिर हाथ धोए)।
ॐ फट् शक्तये नम: - पादयो ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं लकाय नम: - सर्वाङ्गे।
17) करन्यास :-
ॐ ह्रां एक्जटाय अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ॐ ह्रीं तारिण्यै तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
ॐ ह्रूं बज़्रोदके मध्यमाभ्यां वषट्।
ॐ ह्रऐं उग्रजटे अनामिकाभ्यां हूम।
ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्।
ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्याम् अस्त्राय फट्।
18) अंगन्यास :-
ॐ ह्रां एक्जटाय हृदयाय नम:।
ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रूं बज़्रोदके शिखायै वषट्।
ॐ ह्रऐं उग्रजटे कवचाय हूम।
ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे अस्त्राय फट्।
19) तत्वन्यास:-
ॐ ह्रीं आत्मतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर पैर से नाभि तक स्पर्श करे ]
ॐ ह्रीं विद्यातत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर नाभि से हृदय तक स्पर्श करे ]
ॐ ह्रीं शिवतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर हृदय से सहस्त्रसार तक स्पर्श करे ]
20) व्यापक न्यास:- “ह्रीं” मन्त्र से ७ बार
21) माँ उग्रतारा ध्यान:- (कूर्म मुद्रा में)
प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासापरा,
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा ।
खर्वानीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता,
जाड्यनन्यस्य कपालिकेत्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं॥
22) माँ उग्रतारा मानसपूजन:-अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि ।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि ।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि ।
23)प्राणायाम :- “ह्रीं” मन्त्र से ४/१६/८ ।
24)डाकिन्यादि मंत्रो का न्यास:-(तत्वमुद्रा द्वारा)
मूलाधार में डां डाकिन्यै नम:।
स्वाधिष्ठान में रां राकिन्यै नम:।
मणिपुर में लां लाकिन्यै नम:।
अनाहत में कां काकिन्यै नम:।
विशुद्ध में शां शाकिन्यै नम:।
आज्ञाचक्र में हां हाकिन्यै नम:।
सहस्रार में यां याकिन्यै नम:।
25) मन्त्र शिखा:- श्वास को रुधकर भावना द्वारा कुलकुण्डलिनी को बिलकुल सहस्रार में ले जाये एवं उसी क्षण ही मूलाधार में ले आये। इस तरह से बार बार करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार का तेज लक्षित होगा।
26) मन्त्र चैतन्य :- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं ” मन्त्र को हृदय में ७ बार जपे।
27) मंत्रार्थ भावना:- देवता का शरीर और मन्त्र अभिन्न है, यही चिंतन करें।
28) निंद्रा भंग:- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं” मन्त्र को ह्रदय में १० बार जपे ।
29) कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।
3०) महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।
31) सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे ।
32) मुखशोधन:-“ ह्रीं हूँ ह्रीं ” मन्त्र को मुख में ७ बार जपे।
33) जिव्हाशुद्धि:- मत्स्यमुद्रा से आच्छादित करके “हें सौ:” मन्त्र को ७ बार जपे ।
34) करशोधन:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ” मन्त्र को कर में ७ बार जपे ।
35) योनिमुद्रा मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यंत अधोमुख त्रिकोण एवं ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यंत उर्ध्वमुख त्रिकोण अर्थात् इस प्रकार का षट्कोण की कल्पना कर बाद मे ऐं मन्त्र का १० बार जप करे।
36) अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें ।
37) मन्त्रचिंता:- मन्त्रस्थान में मन्त्र का चिंतन करे। अर्थात रात्रि के प्रथम दशदण्ड(4 घंटे) में ह्रदय में, परवर्ती दशदण्ड में विन्दुस्थान(मनश्चक्र के ऊपर), उसके बाद के दशदण्ड के बीच कलातीत स्थान में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के प्रथम दशदण्ड के बीच ब्रह्मरंध्र में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के द्वितीय दशदण्ड में ह्रदय में एवं तृतीय दशदण्ड में मनश्चक्र में मन्त्र का चिंतन करे।
38) उत्कीलन :- देवता की गायत्री १० बार जपे।
“ॐ ह्रीं उग्रतारे विद्महे शमशान वासिनयै धीमहि तन्नो स्तारे प्रचोदयात्।”
39) दृष्टिसेतु:- नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार प्रणव का जप करे।
40) जपारंभ:- सहस्रार में गुरु का ध्यान, जिव्हामूल में मन्त्रवर्णो का ध्यान और ह्रदयमें ईष्टदेवता का ध्यान करके बाद में सहस्रार में गुरुमूर्ति तेजोमय, जिव्हामूल में मन्त्र तेजोमय और ह्रदयमें ईष्टदेवता की मूर्ति तेजोमय, इस तरह से चिंतन करे। अनंतर में तीनों तेजोमय की एकता करके, इस तेजोमय के प्रभाव से अपने को भी तेजोमय और उससे अभिन्न की भावना करे। इसके बाद कामकला का ध्यान करके अपना शरीर नहीं है अर्थात् कामकला का रूप त्रिविन्दु ही अपना शरीर के रूप में सोचकर जप का आरम्भ कर दे।
41) पुन: प्राणायाम:- ह्रीं मंत्र से 4/16/8
42) पुन: कुल्लुका, सेतु, महासेतु, अशोचभंग का जप :-
कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।
महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।
सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे ।
अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें ।
43) जपसमर्पण :- एक आचमनी जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सामने पात्र मे जल छोड़ दें -
" ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥"
44) क्षमायाचना :-
अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् ।
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जग
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त
्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् च ।
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥
45) प्रणाम :-
ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते ।
खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥
46) जप के पश्चात स्त्रोत, ह्रदय आदि का पाठ करना चाहिए ।
47) आसन छोडे:-
आसन के नीचे १ आचमनी जल छोडकर दाहिनी अनामिका द्वारा ३ बार “शक्राय वषट” कहकर उसी जल द्वारा तिलक कर तभी आसन छोड़ें। ऐसा नही करने पर इन्द्र आपकी सारी पुण्य को ले जाते हैं ।
विशेष द्रष्टव्य :-
यह क्रिया पूर्णतः तांत्रिक है । किसी कौलचार्य से शाक्ताभिषेक या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर ही उपरोक्त अनुष्ठान करें तभी फल लाभ की आशा की जा सकती है।
उग्रतारा पुरश्चरण मे ९ दिन मे कम से कम १ लाख मंत्र जप होना अनिवार्य है।
उग्रतारा देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करती है। वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है।
"कोई भी साधना फेसबुक या अन्य नेटवर्किंग साइट पर देखकर नही हो सकती। यदि फेसबुक पर देख कर कोई साधना होती तो सभी सिद्ध हो जाते। फेसबुक पर साधना संबंधी लेख भेजने का तात्पर्य है उक्त देव या देवी के विषय मे ज्ञान प्राप्त करना , उनके विषय मे जानना । साधना करने के लिए सद्गुरु का होना परम आवश्यक है । शक्ति साधना करने के लिए शक्तभिषेक , पूर्णाभिषेक का भी होना परमावश्यक है । " अतएव आप किसी कौलचार्य के मंत्र ग्रहण कर साधना करे तो उसका परिणाम बहुत ही लाभदायक होगा ।"
कालसर्प योग
कालसर्प योग निवारण के अनेक उपाय हैं । इस योग की शांति विधि विधान के साथ योग्य विद्धान एवं अनुभवी ज्योतिषी, कुल गुरू या पुरोहित के परामर्श के अनुसार किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से यथा योग्य समयानुसार करा लेने से दोष का निवारण हो जाता हैं । कुछ साधारण उपाय निम्न हैं:-
1. घर में वन तुलसी के पौधे लगाने से कालसर्प योग वालों को शान्ति प्राप्त होती हैं ।
2. प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं ।
3. विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं।
4. इलाहाबाद संगम पर व नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं ।
5. ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें । नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें ।
7. कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये ।
8. ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें ।
9. महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए ।
10. नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए ।
11. पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए ।
12. पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए ।
कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
13. शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं ।
14. सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें ।
15. 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं ।
16. गेहू या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं ।
17. राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं
केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं ।
18. हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें ।
19. हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें ।
20. राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में
श्री गुरु स्तोत्रम्
|| श्री महादेव्युवाच ||
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||
श्री गुरु स्तोत्रम् श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है – इस बारे में वर्णन करें |
|| श्री महादेव उवाच ||
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||
श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१||
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||
प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२||
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||
वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३||
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||
भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||
प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६||
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||
भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७||
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||
भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||
गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||
हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन – ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०||
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||
तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११||
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||
इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२||
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||
निंद्रा की देवी
अक्सर साधको को साधना के समय नींद आने लगती है।खासकर रात्रि कालीन साधनाओं में ऐसी समस्या होना आम बात है।वैसे तो रात्रि कालीन साधना अगर चल रही हो तो दिन में सो जाना चाहिए।पर कुछ साधनाओं में दिन में सोना तक वर्जित होता है।और यदि साधना में हलकी सी भी नींद लग जाये तो साधना खंडित होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है.ऐसी समस्याओं से मुक्ति हेतु प्रस्तुत है एक दिव्य प्रयोग।जिससे साधना में निद्रा से आप मुक्ति पा सकते है।परन्तु पहले इसे सिद्ध करना आवश्यक है।
सिद्ध विधि : किसी भी शुक्रवार की रात्रि को उत्तर की और मुख कर बैठ जाये सामने महाकाली का कोई भी चित्र लाल वस्त्र पर स्थापित करे।आपके आसन वस्त्र भी लाल हो।गणेश पूजन,गुरु पूजन संपन्न करे।महाकाली का सामान्य पूजन करे।लोबान की अगरबत्ती जलाये,दूध से बनी कोई मिठाई का भोग लगाये।शुद्ध घी का दीपक हो। एक नारियल भी माँ के पास रखे।अब रुद्राक्ष माला से मंत्र की ९ माला जाप करे।अगले दिन मिठाई स्वयं खा ले।नारियल देवी मंदिर में अर्पण कर दे।इस प्रकार मात्र एक रात्रि में ये मंत्र सिद्ध हो जाता है। अब जब भी आपको रात्रि में साधना करना हो दोनों नेत्रों पर अपने हाथ रखे और मंत्र को २१ बार पड़कर माँ से प्रार्थना कर ले जब तक आपकी साधान चलेगी आपकी निद्रा का स्तम्भन हो जायेगा।साधना के बाद माँ से प्रार्थना करके आँखों में पानी के छीटे मारे इससे पुनः नींद आने लगेगी।
मंत्र:-
|| भक्ति करन बैठे माई, निद्रा देबी सताए,
हाँक परी महाकाली की निद्रा देबी जाये ||
क्षेत्रपाल-भैरवाष्टक
क्षेत्रपाल-भैरवाष्टक-स्तोत्र
विश्वसार-तन्त्र का यह स्तोत्र भावपूर्वक पाठ करने मात्र से प्रभाव दिखाता है।
यं यं यं यक्ष-रूपं दश-दिशि-वदनं भूमि-कम्पाय-मानम्।
सं सं सं संहार-मूर्ति शिर-मुकुट-जटा-जूट-चन्द्र-बिम्बम्॥
दं दं दं दीर्घ-कायं विकृत-नख-मुखं ऊर्ध्व-रोम-करालं।
पं पं पं पाप-नाशं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥१॥
रं रं रं रक्त-वर्णं कट-कटि-तनुं तीक्ष्ण-दंष्ट्रा-करालम् ।
घं घं घं घोष-घोषं घघ-घघ-घटितं घर्घरा-घोर-नादं॥
कं कं कं काल-रूपं धिग-धिग-धृगितं ज्वालित-काम-देहं।
दं दं दं दिव्य-देहं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥२॥
लं लं लं लम्ब-दन्तं लल-लल-लुलितं दीर्घ-जिह्वा-करालं।
धूं धूं धूं धूम्र-वर्णं स्फुट-विकृत-मुखं भासुरं भीम-रूपं॥
रुं रुं रुं रुण्ड-मालं रुधिर-मय-मुखं ताम्र-नेत्रं विशालं।
नं नं नं नग्न-रूपं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥३॥
वं वं वं वायु-वेगं प्रलय-परिमितं ब्रह्म-रूपं-स्वरूपम्।
खं खं खं खङ्ग-हस्तं त्रिभुवननिलयं भास्करं भीमरूपं॥
चं चं चं चालयन्तं चल-चल-चलितं चालितं भूत-चक्रं।
मं मं मं माया-रूपं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥४॥
शं शं शं शङ्ख-हस्तं शशि-कर-धवलं यक्ष-सम्पूर्ण-तेजं।
मं मं मं माय-मायं कुलमकुल-कुलं मन्त्र-मूर्ति स्व-तत्वं॥
भं भं भं भूत-नाथं किल-किलित-वचश्चारु-जिह्वालुलंतं।
अं अं अं अंतरिक्षं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥५॥
खं खं खं खङ्ग-भेदं विषममृत-मयं काल-कालांधकारं।
क्षीं क्षीं क्षीं क्षिप्र-वेगं दह दह दहनं गर्वितं भूमि-कम्पं॥
शं शं शं शान्त-रूपं सकल-शुभ-करं देल-गन्धर्व-रूपं।
बं बं बं बाल-लीलां प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥६॥
सं सं सं सिद्धि-योगं सकल-गुण-मयं देव-देव-प्रसन्नम्।
पं पं पं पद्म-नाभं हरि-हर-वरदं चन्द्र-सूर्याग्नि-नेत्रं ।
जं जं जं यक्ष-नागं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥७॥
हं हं हं हस-घोषं हसित-कहकहा-राव-रुद्राट्टहासम्।
यं यं यं यक्ष-सुप्तं शिर-कनक-महाबद्-खट्वाङ्गनाशं॥
रं रं रं रङ्ग-रङ्ग-प्रहसित-वदनं पिङ्गकस्याश्मशानं।
सं सं सं सिद्धि-नाथं प्रणमत-सततं भैरवं क्षेत्रपालम्॥८॥
॥फल-श्रुति॥
एवं यो भाव-युक्तं पठति च यत: भैरवास्याष्टकं हि ।
निर्विघ्नं दु:ख-नाशं असुर-भय-हरं शाकिनीनां विनाश:॥
दस्युर्न-व्याघ्र-सर्प: घृति विहसि सदा राजशस्त्रोस्तथाज्ञातं।
बगला माला-मन्त्र
शत्रुनाशक बगला माला-मन्त्र
ॐ नमो भगवति ॐ नमो वीरप्रतापविजय भगवति बगलामुखि मम सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं गतिं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मीं मुद्रय मुद्रय बुद्धिं विनाशय विनाशय अपराबुद्धिं कुरु कुरु आत्मविरोधिनां शत्रूणां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिकोरु पद अणुरेणु दन्तोष्ठ जिह्वा तालु गुह्य गुद कटि जानु सर्वाङ्गेषु केशादिपादपर्यन्तं पादादिकेशपर्यन्तं स्तम्भय स्तम्भय खें खीं मारय मारय परमन्त्र परतन्त्राणि छेदय छेदय आत्मयन्त्रमन्त्रतन्त्राणि रक्ष रक्ष सर्वग्रहं निवारय निवारय व्याधिं विनाशय विनाशय दुखं हर हर दारिद्रयं निवारय निवारय सर्वमन्त्रस्वरूपिणि सर्वतन्त्रस्वरूपिणि सर्वशिल्प-प्रयोग-स्वरूपिणि सर्वतत्वस्वरूपिणि दुष्टग्रह भूतग्रह आकाशग्रह पाषाणग्रह सर्वचाण्डालग्रह यक्षकिन्नर-किम्पुरुषग्रह भूतप्रेतपिशाचानां शाकिणी-डाकिणीग्रहाणां पूर्वदिशां बन्धय बन्धय वार्तालि मां रक्ष रक्ष दक्षिणदिशां बन्धय बन्धय किरातवार्तालि मां रक्ष रक्ष पश्चिमदिशां बन्धय बन्धय स्वप्नवार्तालि मां रक्ष रक्ष उत्तरदिशां बन्धय बन्धय कालि मां रक्ष रक्ष ऊर्ध्वदिशं बन्धय बन्धय उग्रकालि मां रक्ष रक्ष पातालदिशं बन्धय बन्धय बगलापरमेश्वरि मां रक्ष रक्ष सकलरोगान् विनाशय विनाशय सर्वशत्रून् पलायनाय पञ्चयोजनमध्ये राजजनस्त्रीवशतां कुरु कुरु शत्रून् दह दह पच पच स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहय आकर्षय आकर्षय मम शत्रून् उच्चाटय उच्चाटय हुम् फट् स्वाहा !
श्रीमहाविद्या-कवच
महाभय-निवारक, सर्वरक्षक श्रीमहाविद्या-कवच
ॐ प्राच्यां रक्षतु मे तारा, कामरुप-निवासिनी,
आग्नेयां षोडशी पातु, याम्यां धूमावती स्वंय ।।१।।
नैर्ऋत्यां भैरवी पातु, वारुण्यां भुवनेश्वरी,
वायव्यां सततं पातु, छिन्नमस्ता महेश्वरी ।।२।।
कौबेर्यां पातु मे देवी, श्रीविद्या बगलामुखी,
ऐशान्यां पातु मे नित्यं, महा-त्रिपुर-सुन्दरी ।।३।।
उर्ध्वं रक्षतु मे विद्या, मातंगी पीठ-वासिनी,
सर्वत: पातु मे नित्यं, कामाख्या कालिका स्वयं।।४।।
ब्रह्म-रुपा महा-विद्या, सर्व-विद्या-मयी स्वयं,
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा, भालं श्रीभव-गेहिनी ।।५।।
त्रिपुरा भ्रू-युगे पातु, शर्वाणी पातु नासिकाम्,
चक्षुषी चण्डिका पातु, श्रोत्रे नील-सरस्वती।।६।।
मुखं सौम्यमुखी पातु, ग्रीवां रक्षतु पार्वती,
जिह्वां रक्षतु मे देवी, जिह्वा-ललन-भीषणा।।७।।
वाग्देवी वदनं पातु, वक्ष: पातु महेश्वरी,
बाहू महा-भुजा पातु, करांगुली: सुरेश्वरी ।।८।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या, कट्यां देवी दिगम्बरी,
उदरं पातु मे नित्यं, महाविद्या महोदरी ।।९।।
उग्र-तारा महा-देवी, जंघोरू परि-रक्षतु,
गुदं मुष्कं च मेढ्रं च, नाभि च सुर-सुन्दरी।।१०।।
पदांगुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी,
रक्तं-मांसास्थि-मज्जादीन, वातु देवी शवासना।।११।।
महा-भयेषु घोरेषु, महाभय- निवारिणी,
पातु देवी महामाया, कामाख्या पीठवासिनी।।१२।।
भस्माचल-गता दिव्य-सिंहासन-कृताश्रया,
पातु श्रीकालिका-देवी, सर्वोत्पातेषु सर्वदा।।१३।।
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, कवचेनापि वर्जितम्,
भूतशुद्धि
भूतशुद्धि
आगमोक्त पूजन में "भूतशुद्धि" एक आवश्यक अंग है। यह आगम में राजयोग का हिस्सा है। यों तो ग्रन्थों में इसके विस्तृत विधान का वर्णन है परन्तु इसके एक सुगम मन्त्रात्मक विधान का मैं उल्लेख आप विद्वत जनों के समालोचनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
निम्मन मन्त्र पढते हुए वाम नासिका से श्वास ग्रहण करे:
ॐ भूत-श्रृङ्गाटाच्छिर: सुषुम्नापथेन जीव शिवं परमशिव पदे योजयामि स्वाहा
अब श्वास को रोके रख निम्मन मन्त्रों को पढे:
ॐ यं लिङ्ग शरीरं शोषय शोषय स्वाहा
ॐ रं संकोच शरीरं दह-दह पच-पच स्वाहा
ॐ वं परमशिवामृतं वर्षय-वर्षय स्वाहा
ॐ शाम्भव शरीरं उत्पादय-उत्पादय स्वाहा
अब निम्मन मन्त्र पढते हुए दाहिनी नासिका से धीरे-धीरे श्वास को छोड़े:
ॐ हंस: सोऽहम् अवतरावतर परमशिव जीवं सुषुम्ना-पथेन प्रविश मूल श्रृङ्गाटमुल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा
अपने शरीर को सभी पापों से मुक्त एवं देवता की साधना के योग्य समझे।
"भूत-शुद्धि" करें या "ॐ ह्रौं " का ११बार जप करे ।
भैरव मंत्र
सर्व मनोकामना पूरक भैरव देव जी का नित्य जाप करने के लिए शाबर मंत्र जन हितार्थ प्रस्तुत है।
ॐ सत् नमो आदेश गुरु को आदेश
गुरूजी चंडी चंडी तो प्रचंडी
अला-वला फिरे नवखंडी
तीर बांधू तलवार बांधू बीस कोस पर बांधू वीर
चक्र ऊपर चक्र चले भैरव वली के आगे धरे
छल चले वल चले तब जानबा काल भैरव तेरा रूप कौन भैरव
आदि भैरव युगादी भैरव त्रिकाल भैरव कामरु देश रोला मचाबे
हिन्दू का जाया मुसलमान का मुर्दा फाड़ फाड़ बगाया
जिस माता का दूध पिया सो माता कि रक्षा करना
अबधूत खप्पर मैं खाये
मशान मैं लेटे
काल भैरव तेरी पूजा कोण मेटे
रजा मेटे राज-पाठ से जाये
योगी मेटे योग ध्यान से जाये
परजा मेटे दूध पूत से जाये
लेना भैरव लोंग सुपारी
कड़वा प्याला भेंट तुम्हारी
हाथ काती मोंडे मड़ा जहा सुमिरु ताहा हाज़िर खड़ा
श्री नाथ जी गुरूजी आदेश आदेश। ।
Subscribe to:
Posts (Atom)
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...
-
ॐ श्री काल भैरव बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मंत्र ॐ अस्य श्री बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मन्त्रस्य सप्त ऋषिः ऋषयः , मातृका छंदः , श्री बटुक भैरव ...