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शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥
नील सरस्वती स्तोत्र हिन्दी भावार्थ सहित
नील सरस्वती स्तोत्र हिन्दी भावार्थ सहित
नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है और विद्या की प्राप्ति होती है। नील सरस्वती की साधना तंत्रोक्त विधि से की जाती है। ये दस महाविद्याओं में से एक हैं। यदि आप अपने जीवन में शत्रुओ के कारण कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, तो यह नील सरस्वती स्तोत्र आपके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा, इसके पाठ के माध्यम से आप अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। यह नील सरस्वती स्तोत्र हमारे सभी प्रकार के शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है।
यह स्तोत्र देवी नीला सरस्वती को समर्पित महामंत्र है। यह एक अत्यंत शक्तिशाली नीला सरस्वती मंत्र है। इसे कभी-कभी नीला सरस्वती और नील सरस्वती के रूप में भी लिखा जाता है। इस नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से मां सरस्वती जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। जो व्यक्ति परीक्षाओं में ज्ञान और सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें वैदिक नियमों के अनुसार नियमित रूप से इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।इस स्तोत्र का पाठ विशेष रूप से बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा में किया जाता है। इसके अलावा मां सरस्वती देवी की नियमित पूजा में नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ भी कर सकते हैं।
श्री नील सरस्वती स्तोत्र
ॐ श्रीं ह्रीं हसौ: हूँ फट नीलसरस्वत्ये स्वाहा ॥
ॐ ह्री ऐं हुं नील सरस्वती फट् स्वाहा.ॐ श्रीं ह्रीं हसौ: हूँ फट नीलसरस्वत्ये स्वाहा ॥.ॐ ब्लूं वें वद वद त्रीं हूं फट्।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: क्लीं ह्रीं ऐं ब्लूं स्त्रीं महानीला सरस्वती द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं स:। ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: सौ: ह्रीं स्वाहा।।
घोररूपे महारावे सर्वशत्रुभयङ्करि।भक्तेभ्यो वरदे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥1॥
हिंदी अर्थ – भयानक रूपवाली, घोर निनाद करनेवाली, सभी शत्रुओं को भयभीत करनेवाली तथा भक्तों को वर प्रदान करनेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
ॐ सुरासुरार्चिते देवि सिद्धगन्धर्वसेविते।जाड्यपापहरे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥2॥
हिंदी अर्थ – देव तथा दानवों के द्वारा पूजित, सिद्धों तथा गन्धर्वों के द्वारा सेवित और जड़ता तथा पाप को हरनेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
जटाजूटसमायुक्ते लोलजिह्वान्तकारिणि।द्रुतबुद्धिकरे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥3॥
हिंदी अर्थ – जटाजूट से सुशोभित, चंचल जिह्वा को अंदर की ओर करनेवाली, बुद्धि को तीक्ष्ण बनानेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
सौम्यक्रोधधरे रुपे चण्डरूपे नमोऽस्तु ते।सृष्टिरुपे नमस्तुभ्यं त्राहि मां शरणागतम्। ॥4॥
हिंदी अर्थ – सौम्य क्रोध धारण करनेवाली, उत्तम विग्रहवाली, प्रचण्ड स्वरूपवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। हे सृष्टिस्वरुपिणि ! आपको नमस्कार है, मुझ शरणागत की रक्षा करें।
जडानां जडतां हन्ति भक्तानां भक्तवत्सला।मूढ़तां हर मे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥5॥
हिंदी अर्थ – आप मूर्खों की मूर्खता का नाश करती हैं और भक्तों के लिये भक्तवत्सला हैं। हे देवि ! आप मेरी मूढ़ता को हरें और मुझ शरणागत की रक्षा करें।
वं ह्रूं ह्रूं कामये देवि बलिहोमप्रिये नमः।उग्रतारे नमो नित्यं त्राहि मां शरणागतम्। ॥6॥
हिंदी अर्थ – वं ह्रूं ह्रूं बीजमन्त्रस्वरूपिणी हे देवि ! मैं आपके दर्शन की कामना करता हूँ। बलि तथा होम से प्रसन्न होनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। उग्र आपदाओं से तारनेवाली हे उग्रतारे ! आपको नित्य नमस्कार है, आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
बुद्धिं देहि यशो देहि कवित्वं देहि देहि मे।मूढ़त्वं च हरेद्देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥7॥
हिंदी अर्थ – हे देवि ! आप मुझे बुद्धि दें, कीर्ति दें, कवित्वशक्ति दें और मेरी मूढ़ता का नाश करें। आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
इन्द्रादिविलसद्द्वन्द्ववन्दिते करुणामयि।तारे ताराधिनाथास्ये त्राहि मां शरणागतम्। ॥8॥
हिंदी अर्थ – इन्द्र आदि के द्वारा वन्दित शोभायुक्त चरणयुगल वाली, करुणा से परिपूर्ण, चन्द्रमा के समान मुखमण्डलवाली और जगत को तारनेवाली हे भगवती तारा ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां यः पठेन्नरः।षण्मासैः सिद्धिमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा। ॥9॥
हिंदी अर्थ – जो मनुष्य अष्टमी, नवमी तथा चतुर्दशी तिथि को इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह छः महीने में सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।
मोक्षार्थी लभते मोक्षं धनार्थी लभते धनम्।विद्यार्थी लभते विद्यां तर्कव्याकरणादिकम्। ॥10॥
हिंदी अर्थ – इसका पाठ करने से मोक्ष की कामना करनेवाला मोक्ष प्राप्त कर लेता है, धन चाहनेवाला धन पा जाता है और विद्या चाहनेवाला विद्या तथा तर्क – व्याकरण आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
इदं स्तोत्रं पठेद्यस्तु सततं श्रद्धयाऽन्वितः।तस्य शत्रुः क्षयं याति महाप्रज्ञा प्रजायते। ॥11॥
हिंदी अर्थ – जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर सतत इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके शत्रु का नाश हो जाता है और उसमें महान बुद्धि का उदय हो जाता है।
पीडायां वापि संग्रामे जाड्ये दाने तथा भये।य इदं पठति स्तोत्रं शुभं तस्य न संशयः। ॥12॥
हिंदी अर्थ – जो व्यक्ति विपत्ति में, संग्राम में, मूर्खत्व की दशा में, दान के समय तथा भय की स्थिति में इस स्तोत्र को पढ़ता है, उसका कल्याण हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।
इति प्रणम्य स्तुत्वा च योनिमुद्रां प्रदर्शयेत्। ॥13॥
हिंदी अर्थ – इस प्रकार स्तुति करने के अनन्तर देवी को प्रणाम करके उन्हें योनिमुद्रा दिखानी चाहिए।
॥ नील सरस्वती स्तोत्र सम्पूर्ण
श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र
श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र
( हिन्दी भावार्थ सहित)
इस स्तोत्र के पाठ करने से ब्रह्म विद्या के गूढ तत्वों की ओर मनुष्य का मन लगता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति के गूढ़ रहस्य स्वयमेव सूझते हैं। अध्यात्म मार्ग में रुचि और प्रवृत्ति बढ़ती है, फल स्वरूप मनुष्य आत्मदर्शन, ईश्वर साक्षात्कार, परमपद एवं ब्रह्मानन्द की दिशा में अग्रसर होता जाता है।
त्वमेका विश्वस्मिन् रमण मनसा द्वेतमकरो- स्ततस्तत् त्वं जज्ञो महद्धिमहङ्कारसहितम् ।
मनस्तेनारब्धं सकलमपि दृग् दश्यमसृज- सदेवं लोकेस्मिन् किमपि न विलोकेत्वदितरम् ।।
हे देवि! तुमने ही इस विश्व में रमणेच्छा से द्वैत को उत्पन्न किया। फिर अहंकारादि सहित महतत्व की उत्पत्ति हुई, पुनः मन बना। ऐसे ही सम्पूर्ण दृश्य जगत् की रचना हुई। इसलिये मैं इसे संसार में तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता। संसार रूप में तुम्हारा ही अब तो ध्यान करता हूं। तुम संसार मय हो और संसार तुम से भिन्न कोई वस्तु नहीं है।
सूक्ष्मातिसूक्ष्मरूपे च प्राणापानादिरूपिणी । भावाभाव स्वरूपे च जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।1।।
हे जगत् धात्रि देवि! तुम सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राण, अपान, अभाव और भाव स्वरूप हो। हे देवि! तुम्हें नमस्कार है।
कालादि रूपे कालेशे कालाकालविभेदिनी । सर्वस्वरूपे सवज्ञे जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।2।1
हे कालादि स्वरूपे! हे काल स्वामिनी! हे काल और अकाल का भेदन करने वाली देवि! तुम सर्वमय हो, सर्वज्ञ हो। अतः हे जगद्धात्रि देवि! तुम्हें हम नमस्कार करते हैं।
अगम्ये जगतामाद्ये, माहेश्वरि वराङ्गने अशेषरूप रूपस्थे जगद्धात्रि ! नमोस्तुते ।।
हे जगद्धात्रि ! तुम अगम्य और आदि शक्ति हो। तुम वरदा माहेश्वरी हो। सम्पूर्ण विश्वमय होकर उसमें व्याप रही हो। इसलिये हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।
न तस्य कार्य करणं च विद्यते । न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।। परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ।।
उसका न कोई कार्य और न कोई करण है। न कोई उसके सदृश है और न उससे अधिक। उसकी शक्ति सर्वतोपरि विविधि प्रकार की है। ज्ञान, बल और क्रिया उसमें स्वाभाविक हैं।
चित्स्यन्दोऽन्तर्जगद्धत्ते कल्पनेवपुरं हृदि । सैव वा जगदित्येव कल्पनैव यथा पुरम् ।। पवनस्य यधा स्पन्दस्तथैवेच्छा शिवस्य सा । यथास्पन्दोऽनिवस्यान्तः प्रशान्तेच्छस्तथाशिवः ।। अमूर्तो मूर्तमाकाशे शब्दाडम्बरमानिलः । यथा स्पन्दनोतनोत्येव शिवेच्छा कुरुतेजगत् ।।
वह स्पन्दन शक्ति उसी प्रकार जगत को अपने में लय कर लेती है जैसे कल्पना, अपने कल्पना नगर को। अथवा कल्पना ही नगर है और शक्ति भी जगत् से भिन्न वस्तु नहीं है।
जिस तरह पवन में स्पन्दन है वैसे ही शिव की इच्छा है। और जैसे स्पन्दन के भीतर शान्ति निहित है वैसे ही शिवेच्छा में शिव है।
यह शिवेच्छा ठीक उसी प्रकार जगत को उत्पन्न करती है जैसे निराकार व्योम मण्डल में अमूर्त शब्दाडम्बर को वायु प्रकट करता है।
भ्रमयति प्रकृतिस्तात्संसारे भ्रमरूपिणी । यावन्न पश्यति शिवं नित्यतृप्तमनामयम् ।। संविन्मात्रैक धमित्वात्काकतालीय योगतः । संविद्देव शिवं स्पृष्ट्वा तन्मय्येव भवत्यलम् ।। प्रकृतिः पुरुषं स्पृष्ट्वा प्रकृतित्वं समुज्झति । तदन्तरत्वेकतां गत्वा नदीरूपमिवार्णवे ।।
प्रभु को चेतन शक्ति प्रकृति जो संभ्रमणशील है वह उस समय तक संसार में भ्रमण करती रहती है जब तक नित्य, तृप्त और अनामय शिव का दर्शन न हो जाय।
स्वयं तद्रूप होने के कारण अचानक शिव दर्शन होने पर तुरन्त तन्मय हो जाती है।
वह प्रकृति पूर्ण पुरुष को स्पर्श करके इस प्रकार प्रकृतित्व को छोड़ देती है जैसे समुद्र में मिलकर नदी अपने नदी भाव को छोड़ देती है।
न धूमैर्नोदीपैर्न च मधुर नैवेद्य निव है। न पुष्पैनों गन्धैर्न च विविध बन्धैः स्तुति पदैः ।। समस्त त्रैलोक्य प्रसरण लसद् भूरि विभवे । सपर्या पर्याप्ता तव भवति भावोप चरणैः ।।
हे समस्त संसार के प्रसार करने वाली देवि ! तुम्हारी पूजा धूप, दीप, मधुर, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, और विविध प्रकार के सुन्दर सुशोभित स्तुति पदों से कभी पूर्ण नहीं हो सकती। उसके लिए तो केवल भाव पुष्प ही अभिलषित हैं। जो अपनी भावना के पुष्प अर्पण करने में असमर्थ हैं वह और किसी भी पूजा सामग्री से तुम्हारी आराधना पूर्णरूपेण नहीं कर सकता। वह सर्वथा भाव-पुष्पों के बिना अपूर्ण ही है और अपूर्ण ही रहेगी।
श्री सरस्वती
श्री सरस्वती
ॐ ऐं श्रीं क्लीं ब्रहमाण्यै नमः ।
ॐ ऐं वाग्देव्यै ऐं नमः।
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं ऐंं शारदायै नमः।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रसौ: भारत्यै नमः।
ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौ: त्रिपुरा सरस्वत्यै नमः।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ऐं महासरस्वत्यै नमः।
ॐ ब्रहमाण्यै च विदमहे महाशक्त्यै धीमहि तन्नो देवी:
प्रचोदयात्।
हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणी रूपधारिणी ।कौशांभहक्षरीके देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥हंस-युक्त-विमान-स्थे ब्रह्मन्नि-रूपा-धारिणी |कौशंभः-क्षरिका देवी नारायणी नमोस्तुते।।
अर्थ:
1:हे नारायणी आपको नमस्कार है। जो देवी ब्रह्माणी का रूप धारण करती है और हंसों से युक्त दिव्य रथ की सवारी करती है , 2: और कुश घास के साथ जल छिड़कती है ; हे देवी ; हे नारायणी, आपको नमस्कार है ।
ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम्
ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम्
श्रीसरस्वत्यै नमः ।
श्री शारदे (सरस्वति)! नमस्तुभ्यं जगद्भवनदीपिके ।
विद्वज्जनमुखाम्भोजभृङ्गिके! मे मुखे वस ॥ १॥
वागीश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्ते हंसगामिनि! ।
नमस्तुभ्यं जगन्मातर्जगत्कर्त्रिं! नमोऽस्तु ते ॥ २॥
शक्तिरूपे! नमस्तुभ्यं कवीश्वरि! नमोऽस्तु ते ।
नमस्तुभ्यं भगवति! सरस्वति! नमोऽस्तुते ॥ ३॥
जगन्मुख्ये नमस्तुभ्यं वरदायिनि! ते नमः ।
नमोऽस्तु तेऽम्बिकादेवि! जगत्पावनि! ते नमः ॥ ४॥
शुक्लाम्बरे! नमस्तुभ्यं ज्ञानदायिनि! ते नमः ।
ब्रह्मरूपे! नमस्तुभ्यं ब्रह्मपुत्रि! नमोऽस्तु ते ॥ ५॥
विद्वन्मातर्नमस्तुभ्यं वीणाधारिणि! ते नमः ।
सुरेश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्ते सुरवन्दिते! ॥ ६॥
भाषामयि! नमस्तुभ्यं शुकधारिणि! ते नमः ।
पङ्कजाक्षि! नमस्तुभ्यं मालाधारिणि! ते नमः ॥ ७॥
पद्मारूढे! नमस्तुभ्यं पद्मधारिणि! ते नमः ।
शुक्लरूपे नमस्तुभ्यं नमञ्जिपुरसुन्दरि ॥ ८॥
श्री(धी)दायिनि! नमस्तुभ्यं ज्ञानरूपे! नमोऽस्तुते ।
सुरार्चिते! नमस्तुभ्यं भुवनेश्वरि! ते नमः ॥ ९॥
कृपावति! नमस्तुभ्यं यशोदायिनि! ते नमः ।
सुखप्रदे! नमस्तुभ्यं नमः सौभाग्यवर्द्धिनि! ॥ १०॥
विश्वेश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्त्रैलोक्यधारिणि ।
जगत्पूज्ये! नमस्तुभ्यं विद्यां देहि (विद्यादेवी) महामहे ॥ ११॥
श्रीर्देवते! नमस्तुभ्यं जगदम्बे! नमोऽस्तुते ।
महादेवि! नमस्तुभ्यं पुस्तकधारिणि! ते नमः ॥ १२॥
कामप्रदे नमस्तुभ्यं श्रेयोमाङ्गल्यदायिनि ।
सृष्टिकर्त्रिं! स्तुभ्यं सृष्टिधारिणि! नमः ॥ १३॥
जगद्धिते! नमस्तुभ्यं नमः संहारकारिणि! ।
विद्यामयि! नमस्तुभ्यं विद्यां देहि दयावति! ॥ १४॥
अथ लक्ष्मीनामानि -
महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं पीतवस्त्रे नमोऽस्तु ते ।
पद्मालये! नमस्तुभ्यं नमः पद्मविलोचने ॥ १५॥
सुवर्णाङ्गि नमस्तुभ्यं पद्महस्ते नमोऽस्तु ते ।
नमस्तुभ्यं गजारूढे विश्वमात्रे नमोऽस्तु ते ॥ १६॥
शाकम्भरि नमस्तुभ्यं कामधात्रि नमोऽस्तु ते ।
क्षीराब्धिजे नमस्तुभ्यं शशिस्वस्रे नमोऽस्तु ते ॥ १७॥
हरिप्रिये! नमस्तुभ्यं वरदायिनि ते नमः ।
सिन्दूराभे नमस्तुभ्यं नमः सन्मतिदायिनि ॥ १८॥
ललिते! च नमस्तुभ्यं वसुदायिनि ते नमः ।
शिवप्रदे नमस्तुभ्यं समृद्धिं देहि मे रमे! ॥ १९॥
अथ योगिनीरूपाणि -
गणेश्वरि! नमस्तुभ्यं दिव्ययोगिनि ते! नमः ।
विश्वरूपे! नमस्तुभ्यं महायोगिनि! ते नभः ॥ २०॥
भयङ्करि! नमस्तुभ्यं सिद्धयोगिनि! ते नमः ।
चन्द्रकान्ते! नमस्तुभ्यं चक्रेश्वरि! नमोऽस्तु ते ॥ २१॥
पद्मावति! नमस्तुभ्यं रुद्रवाहिनि! ते नमः ।
परमेश्वरि! नमस्तुभ्यं कुण्डलिनि! नमोऽस्तु ते ॥ २२॥
कलावति! नभस्तुभ्यं मन्त्रवाहिनि! ते नमः ।
मङ्गले! च नमस्तुभ्यं श्रीजयन्ति! नमोऽस्तु ते ॥ २३॥
अथान्यनामानि -
चण्डिके! च नमस्तुभ्यं दुर्गे! देवि! नमोऽस्तु ते ।
स्वाहारूपे नमस्तुभ्यं स्वधारूपे नमोऽस्तु ते ॥ २४॥
प्रत्यङ्गिरे नमस्तुभ्यं गोत्रदेवि नमोऽस्तु ते ।
शिवे! कृष्णे नमस्तुभ्यं नमः कैटभनाशिनि ॥ २५॥
कात्यायनि! नमस्तुभ्यं नमो धूम्रविनाशिनि!
नारायणि! नमस्तुभ्यं नमो महिषखण्डिनि! ॥ २६॥
सहस्राक्षि! नमस्तुभ्यं नमश्चण्डविनाशिनि!
तपस्विनि! नमस्तुभ्यं नमो मुण्डविनाशिनि! ॥ २७॥
अग्निज्वाले! नमस्तुभ्यं नमो निशुम्भखण्डिनि!
भद्रकालि! नमस्तुभ्यं मधुमर्दिनि! ते नमः ॥ २८॥
महाबले! नमस्तुभ्यं शुम्भखण्डिनि! ते नमः ।
श्रुतिमयि! नमस्तुभ्यं रक्तबीजवधे! नमः ॥ २९॥
धृतिमयि! नमस्तुभ्यं दैत्यमर्दिनि! ते नमः ।
दिवागते! नमस्तुभ्यं ब्रह्मदायिनि! ते नभः ॥ ३०॥
माये! क्रिये! नमस्तुभ्यं श्रीमालिनि! नमोऽस्तु ते ।
मधुमति! नमस्तुभ्यं कले! कालि! नमोऽस्तु ते ॥ ३१॥
श्रीमातङ्गि नमस्तुभ्यं विजये! च नमोऽस्तु ते ।
जयदे! च नमस्तुभ्यं श्रीशाम्भवि! नमोऽस्तु ते ॥ ३२॥
त्रिनयने नमस्तुभ्यं नमः शङ्करवल्लभे! ।
वाग्वादिनि नमस्तुभ्यं श्रीभैरवि! नमोऽस्तु ते ॥ ३३॥
मन्त्रमयि! नमस्तुभ्यं क्षेमङ्करि! नमोऽस्तु ते ।
त्रिपुरे! च नमस्तुभ्यं तारे शबरि! ते नमः ॥ ३४॥
हरसिद्धे! नमस्तुभ्यं ब्रह्मवादिनि! ते नमः ।
अङ्गे! वङ्गे! नमस्तुभ्यं कालिके! च नमोऽस्तु ते ॥ ३५॥
उमे! नन्दे! नमस्तुभ्यं यमघण्टे! नमोऽस्तु ते ।
श्रीकौमारि! नमस्तुभ्यं वातकारिणि! ते नमः ॥ ३६॥
दीर्घदंष्ट्रे! नमस्तुभ्यं महादंष्ट्रे! नमोऽस्तु ते ।
प्रभे! रौद्रि! नमस्तुभ्यं सुप्रभे! ते नमो नमः ॥ ३७॥
महाक्षमे! नमस्तुभ्यं क्षमाकारि! नमोऽस्तु ते ।
सुतारिके! नमस्तुभ्यं भद्रकालि! नमोऽस्तु ते ॥ ३८॥
चन्द्रावति नमस्तुभ्यं वनदेवि नमोऽस्तु ते ।
नारसिंहि! नमस्तुभ्यं महाविद्ये! नमोऽस्तु ते ॥ ३९॥
अग्निहोत्रि! नमस्तुभ्यं सूर्यपुत्रि! नमोऽस्तु ते ।
सुशीतले! नमस्तुभ्यं ज्वालामुखि! नमोऽस्तु ते ॥ ४०॥
सुमङ्गले! नमस्तुभ्यं वैश्वानरि! नमोऽस्तु ते
निरञ्जने! नमस्तुभ्यं श्रीवैष्णवि! नमोऽस्तु ते ॥ ४१॥
श्रीवाराहि! नमस्तुभ्यं तोतलायै नमो नमः ।
कुरुकुल्ले! नमस्तुभ्यं भैरवपत्नि! ते नमः ॥ ४२॥
अथागमोक्तनामानि स्वयमूह्यानि पण्डितैः ।
कथ्यन्ते कानि नामानि प्रसिद्धानि तथा न वा ॥ ४३॥
हेमकान्ते! नमस्तुभ्यं हिङ्गुलायै नमो नमः ।
यज्ञविद्ये नमस्तुभ्यं वेदमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ४४॥
श्रीमृडानि नमस्तुभ्यं विन्ध्यवासिनि ते नमः ।
पृथ्वीज्योत्सने! नमस्तुभ्यं नमो नारदसेविते! ॥ ४५॥
प्रह्लादिनि! नमस्तुभ्यमपर्णायै नमो नमः ।
जैनेश्वरि! नमस्तुभ्यं सिंहगामिनि! ते नमः ॥ ४६॥
बौद्धमातर्नमस्तुभ्यं जिनमातर्नमोऽस्तु ते ।
ॐ कारे च नमस्तुभ्यं राज्यलक्ष्भि! नमोऽस्तु ते ॥ ४७॥
सुधात्मिके! नमस्तुभ्यं राजनीते! नमोऽस्तु ते ।
मन्दाकिनि! नमस्तुभ्यं गोदावरि! नमोऽस्तु ते ॥ ४८॥
पताकिनि! नमस्तुभ्यं भगमालिनि! ते नमः ।
वज्रायुधे! नमस्तुभ्यं परापरकले! नमः ॥ ४९॥
वज्रहस्ते! नमस्तुभ्यं मोक्षदायिनि! ते नमः ।
शतबाहु नमस्तुभ्यं कुलवासिनि ते नमः ॥ ५०॥
श्रीत्रिशक्ते नमस्तुभ्यं नमश्चण्डपराक्रमे ।
महाभुजे! नमस्तुभ्यं नमः षट्वक्रभेदिनि! ॥ ५१॥
नभःश्यामे! नमस्तुभ्यं षट्चक्रक्रमवासिनि! ।
वसुप्रिये! नमस्तुभ्यं रक्तादिनि! नमो नमः ॥ ५२॥
महामुद्रे! नमस्तुभ्यमेकचक्षुर्नमोऽस्तु ते ।
पुष्पबाणे! नमस्तुभ्यं खगगामिनि ते नमः ॥ ५३॥
मधुमत्ते! नमस्तुभ्यं बहुवर्णे! नमो नमः ।
मदोद्धते! नमस्तुभ्यं इन्द्रचापिनि! ते नमः ॥ ५४॥
चक्रहस्ते! नमस्तुभ्यं श्रीखड्गिनि! नमो नभः ।
शक्तिहस्ते! नमस्तुभ्यं नमस्त्रिशूलधारिणि! ॥ ५५॥
वसुधारे! नमस्तुभ्यं नमो मयूरवाहिनि! ।
जालन्धरे! नमस्तुभ्यं सुबाणायै! नमो नमः ॥ ५६॥
अनन्तर्वीर्ये! नमस्तुभ्यं वरायुधधरे! नमः ।
वृषप्रिये! नमस्तुभ्यं शत्रुनाशिनि! ते नमः ॥ ५७॥
वेदशक्ते! नमस्तुभ्यं वरधारिणि! ते नमः ।
वृषारूढं! नमस्तुभ्यं वरदायै! नमो नमः ॥ ५८॥
शिवदूति! नमस्तुभ्यं नमो धर्मपरायणे! ।
घनध्वनि! नमस्तुभ्यं षट्कोणायै! नमो नमः ॥ ५९॥
जगद्गर्भे! नमस्तुभ्यं त्रिकोणायै! नमोनमः ।
निराधारे! नमस्तुभ्यं सत्यमार्गप्रबोधिनि! ॥ ६०॥
निराश्रये! नमस्तुभ्यं छत्रच्छायाकृतालये! ।
निराकारे! नमस्तुभ्यं वह्निकुण्डकृतालये! ॥ ६१॥
प्रभावति! नमस्तुभ्यं रोगनाशिनि! ते नमः ।
तपोनिष्टे! नमस्तुभ्यं सिद्धिदायिनि! ते नमः ॥ ६२॥
त्रिसन्ध्यिके! नमस्तुभ्यं दृढबन्धविमोक्षणि! ।
तपोयुक्ते! नमस्तुभ्यं काराबन्धविमोचनि! ॥ ६३॥
मेघमाले! नमस्तुभ्यं भ्रमनाशिनि! ते नमः ।
ह्रीङ्क्लीङ्कारि! नमस्तुभ्यं सामगायनि! ते नमः ॥ ६४॥
ॐ ऐंरूपे! नमस्तुभ्यं बीजरूपं! नमोऽस्तु ते ।
नृपवश्ये! नमस्तुभ्यं शस्यवर्द्धिनि! ते नमः ॥ ६५॥
नृपसेव्ये! नमस्तुभ्यं धनवर्द्धिनि! ते नमः ।
नृपमान्ये! नमस्तुभ्यं लोकवश्यविधायिनि! ॥ ६६॥
नमः सर्वाक्षरमयि! वर्णमालिनि! ते नमः ।
श्रीब्रह्माणि! नमस्तुभ्यं चतुराश्रमवासिनि! ॥ ६७॥
शास्त्रमयि! नमस्तुभ्यं वरशस्त्रास्त्रधारिणि! ।
तुष्टिदे! च नमस्तुभ्यं पापनाशिनि! ते नमः ॥ ६८॥
पुष्टिदे! च नमस्तुभ्यमार्तिनाशिनि! ते नमः ।
धर्मदे! च नमस्तुभ्यं गायत्रीमयि! ते नमः ॥ ६९॥
कविप्रिये! नमस्तुभ्यं चतुर्वर्गफलप्रदे! ।
जगज्जीवे! नमस्तुभ्यं त्रिवर्गफलदायिनि! ॥ ७०॥
जगद्बीजे! नमस्तुभ्यमष्टसिद्धिप्रदे! नमः ।
मातङ्गिनि! नमस्तुभ्यं नमो वेदाङ्गधारिणि! ॥ ७१॥
हंसगते! नमस्तुभ्यं परमार्थप्रबोधिनि!
चतुर्बाहु! नमस्तुभ्यं शैलवासिनि! ते नमः ॥ ७२॥
चतुर्मुखि! नमस्तुभ्यं द्युतिवर्द्धिनि! ते नमः ।
चतुःसमुद्रशयिनि! तुभ्यं देवि! नमो नमः ॥ ७३॥
कविशक्ते! नमस्तुभ्यं कलिनाशिनि! ते नमः ।
कवित्वदे! नमस्तुभ्यं मत्तमातङ्गगामिनि! ॥ ७४॥
॥ इति ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम् समाप्तम् ॥
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ॐ श्री काल भैरव बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मंत्र ॐ अस्य श्री बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मन्त्रस्य सप्त ऋषिः ऋषयः , मातृका छंदः , श्री बटुक भैरव ...




