शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥

 

॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥

(हिन्दी भावार्थ सहित)

🍁प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्मविद्यैकगोचरम् ।
अखण्डनिर्विकल्पं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥
''भावार्थ -जो प्रतिस्पर्धा से मुक्त, निरपेक्ष का एकमात्र दृश्यमान ज्ञान है।
मैं उन भगवान रामचन्द्र के उन अखण्ड एवं अमोघ चरण कमलों की पूजा करता हूँ।

🍁ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-
माविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ऋतं वदिष्यामि
सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु अवतु मामवतु वक्तार-
मवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

👉भावार्थ ---ओम, से ईश्वर मेरी वाणी मेरे मन में स्थापित हो जाए, ।मेरा मन मेरी वाणी में स्थापित हो,
स्वयं प्रकट आत्मा का ज्ञान मुझमें विकसित हो,
वेदों के ज्ञान का अनुभव करने के लिए मेरा मन और वाणी सहारा बनें,
जो मैंने (वेदों से) सुना है वह मात्र दिखावा न हो...
लेकिन दिन-रात अध्ययन से जो मिलता है, उसे याद रखना चाहिए।
मैं दिव्य सत्य के बारे में बोलता हूं,
मैं परम सत्य के बारे में बोलता हूं,
वह मेरी रक्षा करें,
वह उपदेशक की रक्षा करे,
वह मेरी रक्षा करें,
वह गुरु की रक्षा करे, वह गुरु की रक्षा करे,
ॐ शांति! शांति! शांति!
👉ॐ !मेरे अन्दर शान्ति हो।
मेरे वातावरण में शान्ति हो।
मेरे ऊपर काम कर रही शक्तियों में शान्ति हो ॥

हरिः ॐ |
ऋषयो ह वै भगवन्तमाश्वलायनं संपूज्य पप्रच्छुः
ऋषियों ने आदर के साथ पूज्य अश्वलायन से पूछा

🍁केनोपायेन तज्ज्ञानं तत्पदार्थावभासकम् ।
यदुपासनया तत्त्वं जानासि भगवन्वद ॥ १ ॥

सभी को प्रकाशित करने वाला ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जाता है । आप किस का ध्यान कर कर सत्य जानते हैं ।

🍁सरस्वतीदशश्लोक्या सऋचा बीजमिश्रया ।
स्तुत्वा जप्त्वा परां सिद्धिमलभं मुनिपुङ्गवाः ॥ २ ॥

सर्वश्रेष्ठ ज्ञानीयो! में सरस्वती जी की इन दस श्लोकों व बीज मन्त्र के द्वारा उपासना करके परम सिद्धीयां प्राप्त करता हूं ।

🍁ऋषयः ऊचुः ।
कथं सारस्वतप्राप्तिः केन ध्यानेन सुव्रत ।
महासरस्वती येन तुष्टा भगवती वद ॥ ३ ॥

ऋषियों ने पूछा । किस ध्यान के द्वारा सरस्वति जी की प्राप्ति संभव है । महान एवं पावन सरस्वति जी को किस प्रकार प्रसन्न किया जा सकता है॥

.🍁स होवाचाश्वलायनः ।
अस्य श्रीसरस्वतीदशश्लोकीमहामन्त्रस्य ।
अश्वलायन दस श्लोकों के इस मन्त्र के वारे में बोले ।

🍁अहमाश्वलायन ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्रीवागीश्वरी देवता । यद्वागिति बीजम् । देवीं वाचमिति शक्तिः ।

मैं अश्वलायन ऋषि । अनुष्टुप् छन्द । श्रीवागीश्वरी देवता । यद्वग बीज । देवी वाचम शक्ति ।

🍁ॐ प्रणो देवीति कीलकम् । विनियोगस्तत्प्रीत्यर्थे ।
श्रद्धा मेधा प्रज्ञा धारणा वाग्देवता महासरस्वतीत्येतैरङ्गन्यासः ॥
ॐ प्रणो देवि कीलक । मन्त्र का अनुप्रयोग देवि को प्रसन्न करना । श्रद्धा, बुद्धि, ज्ञान, स्मृति तथा धारणा के द्वारा वाणी की देवी महासरस्वती जी का आह्वान ॥

🍁ध्यान
नीहारहारघनसारसुधाकराभां कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम् ।
उत्तुङ्गपीनकुचकुम्भमनोहराङ्गीं वाणीं।
नमामि मनसा वचसा विभूत्यै ॥ १ ॥

प्रचुरता के साथ वाणी के संयम को प्राप्त करने के लिए मैं सरस्वती जी अभिवादन करता हूं , जो बर्फ़, मोती, कपूर तथा चन्द्रमा के समान प्रकाशित हैं; जो शुभ फलों को प्रदान करने वाली हैं; जो सुनहरे चंपक पुष्प पुंज की माला पहने हैं; मन को हर लेने वाली हैं ॥

🍁ॐ प्रणो देवीत्यस्य मन्त्रस्य भरद्वाज ऋषिः ।
गायत्री छन्दः । श्रीसरस्वती देवता । प्रणवेन बीजशक्तिः कीलकम् ।
इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥

ॐ प्रणो देवि । भरद्वाज ऋषि । गायत्री छन्द । श्रीसरस्वती देवता । ॐ बीजशक्ति कीलक । मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमार्थतः ।
नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वति ॥

जिनका स्वभाव वेदान्त का सार है, जो परम अर्थ हैं, जो नाम और रूप में प्रकट हुई हैं – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥

🍁ॐ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजेनीवती ।
धीनामवित्र्यवतु ॥ १ ॥

ॐ ! माँ सरस्वति, पुष्टिकारक पदार्थों को देने वाली, विचारों की रक्षक , वो हमारी हमेशा रक्षा करें ॥

आ नो दिव इति मन्त्रस्य अत्रिरृषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।
ह्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥

आ नो देवि । अत्रि ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । श्रीसरस्वती देवता । ह्री बीजशक्ति कीलक ।
मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

🍁या साङ्गोपाङ्ग वेदेषु चतुर्श्वेकैव गीयते ।
अद्वैता ब्रह्मणः शक्तिः सा मां पातु सरस्वती ॥१

जिन अकेली की चारों वेदों तथा वेदागों में स्तुति की गई है । एक मात्र ब्रह्मण शक्ति – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥

🍁ह्रीं आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती यजतागं तु यज्ञम् ।
हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुषती श्रुणोतु ॥ २ ॥

ह्रीं, स्वर्ग से,विशाल बाद्लों से, पवित्र सरस्वती हमारे यज्ञ में आऎं । हमारे आवाहन को कृपापूर्वक सुनें, जल की देवी स्वेच्छा से हमारी अर्चना सुनें ॥

पावका न इति मन्त्रस्य । मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।
श्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥

पावक मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । श्री बीजशक्ति कीलक । मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेणैव वर्तते ।
अनादिनिधनानन्ता सा मां पातु सरस्वती ॥

जो अकेले का अक्षर, शब्द, वाक्य तथा अर्थ में अस्तित्व है । जिनका न आरम्भ है और न हि अन्त – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥

🍁श्रीं पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धिया वसुः ॥ ३ ॥

श्री, पवित्र करने वाली सरस्वती, पुष्टिकारक पदार्थों को देने वाली, ज्ञान का भंडार - वो हमारे यज्ञ को स्वीकार करें ॥

चोदयत्रीति मन्त्रस्य मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।
ब्लूमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ॥

चोदयत्री मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । ब्लू बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

अध्यात्ममधिदैवं च देवानां सम्यगीश्वरी ।
प्रत्यगास्ते वदन्ती या सा मां पातु सरस्वती ॥

जो मेरे, देवताओं के , देवों की अधिपति उनके अन्दर-बाहर बसने वाली – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁ब्लूं चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ ४ ॥

ब्लूं सत्य के प्रेणना स्वरूप, उत्तम बुद्धि को जगाने वाली, सरस्वती यज्ञ स्वीकार करें ॥

महो अर्ण इति मन्त्रस्य ।मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।
सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

महो अर्ण मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । सौर बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

अन्तर्याम्यात्मना विश्वं त्रैलोक्यं या नियच्छति ।
रुद्रादित्यादिरूपस्था यस्यामावेश्यतां पुनः । ध्यायन्ति सर्वरूपैका सा मां पातु सरस्वती ।

वो जो आंतरिक नियंत्रक की तरह तीनों विश्वों पर राज्य करती हैं । जो रुद्र, सूर्य तथा अन्य का रूप धरती हैं – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁सौः महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना ।
धियो विश्वा विराजति ॥ ५ ॥

सौ, सरस्वती भव्य रूप से प्रकाशित हैं - विशाल जल परत की तरह - जो ज्ञान दायक तथा विचारों की शक्ती हैं ।

चत्वारि वागिति मन्त्रस्य उचथ्यपुत्रो दीर्घतमा ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।
ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

चत्वारि वाग मन्त्र । उचथ्यपुत्र ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । ऐम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

या प्रत्यग्दृष्टिभिर्जीवैर्व्यज्यमानानुभूयते ।
व्यापिनि ज्ञप्तिरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥

जो प्रकट हो चुकी हैं, जो अन्तर्मुखी ज्ञानियों को दिखती हैं; जो एक ही व्यापक रूप से ज्ञान हैं – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁ऐं चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥ ६ ॥

ऐं, वाक शक्ति चार समूह तक सीमित है । ये बुद्धिमान ब्राह्मण जानते हैं । गुफाओं में स्थित तीन नहीं हिलते - चौथे के वारे में मनुष्य बताता है ।

यद्राग्वदन्तीति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।
क्लीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

यद्राग्वदन्त मन्त्र । भार्गव ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । क्लीम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

नामजात्यादिमिर्भेदैरष्टधा या विकल्पिता ।
निर्विकल्पात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती ॥

जिसकी आठ नाम रूप में कल्पना हुई है, सामान्य व तुल्य रूप में । वो समस्त रूप में प्रकट – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁क्लीं यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा ।
चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ॥ ७ ॥

क्लीं, जो जड़ वस्तुओं की भाषा हैं; देवों की अधिपति; शांति से विचरने वाली । दूध को शक्ति की धारा देने वाली; कौन है जो उनकी सर्वोच्च रूप से वच सका है ?

देवीं वाचमिति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।
सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

देवीं वाचम मन्त्र । भार्गव ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । सौरत बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

व्यक्ताव्यक्तगिरः सर्वे वेदाद्या व्याहरन्ति याम् ।
सर्वकामदुघा धेनुः सा मां पातु सरस्वती ॥

जिसके बारे में वेद तथा सभी अन्य पृथक व अपृथक वर्णन चर्चा करते हैं । - वह गाय जो सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है , वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁सौः देवीं वाचमजनयन्त देवास्ता विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु ॥८ ॥

सौ देवी, ब्रह्म वाणी स्वरूपा! वे सभी प्राणियों की भाषा; सभी शक्तियों तथा स्वादिष्ट पेय पदार्थ को देने वाली वह गाय - हमें स्तुति करने की शक्ति प्रदान करें ॥

उत त्व इति मन्त्रस्य बृहस्पतिरृशिः । त्रिष्टुप्छन्दः । सरस्वती देवता ।
समिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

उत त्व मन्त्र । बृहस्पति ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । सम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

यां विदित्वाखिलं बन्धं निर्मथ्याखिलवर्त्मना ।
योगी याति परं स्थानं सा मां पातु सरस्वती ॥

जिसको जानने से सभी बन्धन से मुक्ति मिल जाती है,जिसको जानने बाला,उस परम आवास (मोक्ष)के सभी पथों से परिचित हो जाता है । - वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁सं उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं १ विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ ९ ॥

स, यद्यपि देखने से, वाणी देखी नहीं जाती, जो सुन के भी सुनी नहीं जाती; केवल जिसके सामने वे स्वयं को प्रकट करती हैं, जैसे अच्छे से वस्त्रों से ढकी पत्नी अपने पुरुष के सामने ॥

अम्बितम इति मन्त्रस्य गृत्समद ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।
ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।

अम्बितम मन्त्र । गृत्समद ऋषि । अनुष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । ऐम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।

नामरूपात्मकं सर्वं यस्यामावेश्य तं पुनः ।
ध्यायन्ति ब्रह्मरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥

जो उनके नाम तथा रूपों की स्तुति करते हैं, जिनका ध्यान करते हैं । जिसका ब्राह्मण स्वरूप है - वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥

🍁ऐंं अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ॥ १० ॥

ऐंं सबसे प्रिय माता! सर्वश्रेष्ठ नदी! महानतम देवी ! सरस्वती! हमारे पास आपकी प्रशंसा करने की शक्ति नहीं है - माता! हमको शक्ति दो ॥

🍁चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम ।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥ १ ॥

हंस के ऊपर विराजित चार मुखों बाली देवी । वो सरस्वती मेरे मन में नित्य वास करें ।

🍁नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनी ।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥ २ ॥

शारदा देवि को नमस्कार, जो कश्मीर की रहने वाली हैं । उनकी मैं हमेशा प्राथना करता हूं - मुझको योग्य ज्ञान अर्पण करें ।

🍁अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी ।
मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा ॥ ३ ॥

जिनके हाथ में माला, अंकुश, फंदा तथा पुस्तक हैं । जिन्होने मोती की माला पहनी है, मेरी वाणी में सदा वास करें ।।

🍁कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता ।
महासरस्वती देवी जिह्वाग्रे संनिविश्यताम् ॥ ४ ॥

शंख के समान गरदन वाली; गहरे लाल अधरों वाली; सभी प्रकार के आभरणों वाली; महासरस्वती देवी! मेरी जीह्वा पर वास करें ।

🍁या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा ।
भक्तजिह्वाग्रसद्ना शमादिगुणदायिनी ॥ ५ ॥

श्रद्धा, धारणा, ज्ञान आप हैं, वाणी की देवी, ब्रह्मा की पत्नी; भक्तों की जीह्वा पर वास करने वाली, सभी गुणों जैसे बुद्धि का संयम, को देने वाली।

🍁नमामि यामिनीनाथलेखालङ्कृतकुन्तलाम् ।
भवानीं भवसन्तापनिर्वापणसुधानदीम् ॥ ६ ॥

भवानी, हम आपको नमन करते हैं! जिसकी लेटें नवचन्द्र को अंलकृत करती हैं । आप अमृत की वो धारा है जो संसार की ह्र तपन का नाश करती है ।।

🍁यः कवित्वं निरातङ्कं भक्तिमुक्ती च वाञ्छति ।
सोऽभ्यैर्च्यैनां दशश्लोक्या नित्यं स्तौति सरस्वतीम् ॥ ७ ॥

जो दोषरहित कवित्व का उपहार पाना चाहते हैं, जो भक्ति तथा मुक्ति की अभिलाषी हैं। इन द्स श्लोकों से नित्य सरस्वती की स्तुति करें ।

🍁तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम् ।
भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात्प्रत्ययो भवेत् ॥ ८ ॥

जो इस प्रकार हमेशा सरस्वती की स्तुति करता है । एवं जिसमें समर्पण व विश्वास है, छः महीनों में सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

🍁ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा ।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः ॥ ९ ॥

वो स्वाभाविक रूप से विद्वान होता है ।तथा सत्य रूप में गद्य व पद्य को उत्प्न्न करता है।

🍁अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः ।
इत्येवं निश्चयं विप्राः सा होवाच सरस्वती ॥ १० ॥

सारस्वत कवि द्वारा यह अनसुना व्याख्यान । सत्व सरस्वती की व्याख्या करता है।

🍁आत्मविद्या मया लब्धा ब्रह्मणैव सनातनी ।
ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः ॥ ११ ॥
[इस श्लोक के बाद का हिन्दी अनुवाद झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के सौजन्य से हुआ है।]

माता सरस्वती इस प्रकार बोली : ' ब्रह्मा को भी मेरे ही द्वारा शाश्वत आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी; बिना किसी रुकावट या बाधा के प्राप्त होने वाला अनन्त सत्य-ज्ञान-आनन्द का चिरस्थायी ब्रह्मत्व मेरी महिमा है।'

🍁प्रकृतित्वं ततः सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यतः ।
सत्यमाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ॥ १२ ॥

इधर सत-रज-तम तीनों गुणों में पूर्ण-साम्यावस्था बनाये रखने वाली प्रकृति भी मैं ही हूँ, जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब झलक उठता है, उसी प्रकार मेरे ही भीतर चित् आकार ले लेता है ।

🍁तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः ।
प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च ते ॥ १३ ॥

उस चित् दर्पण में प्रतिबिंबित होकर एक बार पुनः मैं त्रिगुणात्मिका प्रकृति बन जाती हूँ;और प्रकृति कह कर पहचानी जाने वाली मैं ही वास्तव में पुरुष हूँ !! - (या वह 'तदेकं ब्रह्म' हूँ जो बिना वायु के भी साँस लेने में समर्थ है !)

🍁शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः ।
सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते ॥ १४ ॥

तब वह ईश्वरीय शक्ति माया जो गर्भस्थ रहती है, जिसमें 'सत्त्व' शासन करता है, परिलक्षित होने लगती है; माया या प्रकृति वह है, जिसमें सत्त्व प्रधान रहता है।

🍁 सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि ।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु ॥ १५ ॥

यह माया एक गुणवाचक शब्द है- जो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पूर्ण अधीनस्थ रहती है; क्योंकि माया के ऊपर उनका प्रभुत्व एवं अन्तर्यामित्व एकमात्र ब्रह्म एवं शक्ति की अभेदता में सत्य है।

🍁सात्त्विकत्वात्समष्टित्वात्साक्षित्वाज्जगतामपि ।
जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते ॥ १६ ॥

सत्व से गठित समस्त जीव सामूहिक रूप से वस्तुतः इस जगत-प्रपंच का एक तमाशबीन या दर्शक मात्र है; ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण देव ) ही ईश्वर हैं, जो इस विश्व-ब्रह्माण्ड के 'कर्तुम-अकर्तुम या अन्यथा कर्तुम' की शक्ति रखते हैं, 'सर्वज्ञता ' या सब कुछ जान लेने वाला 'अन्तर्यामित्व' उनका स्वभाव है।

🍁यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः ।
शक्तिद्वयं हि मायया विक्षेपावृत्तिरूपकम् ॥ १७ ॥

माया में दो प्रकार की शक्तियाँ हैं, विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति; पहले वाली शक्ति के कारण ही समस्त सूक्ष्म एवं स्थूल जगत व्यक्त होता है !

🍁विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादिब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत् ।
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ॥ १८ ॥

माया की दूसरी शक्ति (आवरण शक्ति) द्रष्टा और दृश्य के बीच आवरण डाल कर भीतर में (अन्तः प्रकृति में) बहुत बड़ा अंतर (gulf) उत्पन्न कर देती है; और बाहर (बाह्य प्रकृति) में सृष्टि (मनुष्य) और स्रष्टा (ब्रह्म) (या कारण और कार्य) बीच बहुत गहरी खाई को उत्पन्न करती है। यह माया ही अंतहीन ब्रह्माण्डीय प्रवाह का कारण बनती है।

🍁आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ।
साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम् ॥ १९ ॥

अविद्या माया सूक्ष्म शरीर को आत्मा के साथ संयुक्त करने के लिए, साक्षी के प्रकाश में प्रकट हो जाती है; और वहाँ आत्मा और मन सहवर्ती होकर अद्भुत जीव रूप में प्रतीयमान होने लगते हैं।

🍁चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ।
अस्य जीवत्वमारोपात्साक्षिण्यप्यवभासते ॥ २० ॥
जो शक्ति आवरण डाल देती है, उसी के साथ साक्षी के प्रकाश को अपने ऊपर आरोपित करने से जीव का जीवपना (Jivahood) प्रकाशित होने लगता है; फिर पार्थक्य (द्रष्टा-दृश्य विवेक) के प्रकाशित होते ही वह जीवपना भी मिट जाता है।

🍁आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ।
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ॥ २१ ॥

ठीक उसी प्रकार, जब ब्रह्म उस शक्ति के साथ, जो ब्रह्माण्ड से इसकी भिन्नता के ऊपर परदा डाल देती है, से तादात्म्य कर लेता है तो वही ब्रह्म नाना रूपों (mutations) में तब्दील होकर भासित होने लगता है।

🍁या शक्तिस्त्वद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ।
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ॥ २२ ॥
यहाँ भी, जब माया की वह सत्ता जो परदा डालने वाली है एक बार गिर जाती है, तो वह भिन्नता जो ब्रह्म और ब्रह्माण्ड के बीच अंतर को धारण करती है, वह विभेद भी दिखाई नहीं देता। भिन्नता सृष्ट जगत में होती है, ब्रह्म में विभेद कभी नहीं होता।

🍁भेदस्तयोर्विकारः स्यात्सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ।
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ॥ २३ ॥

क्योंकि सृष्ट जगत में असमानता या भिन्नता तो रहेगा ही, पर ब्रह्म में बिल्कुल विभेद नहीं है। परम सत्ता या ब्रह्म के अस्ति = सत् (being), भाति = चित् (Shining), प्रिय = आनन्द (loving), नाम (name) और रूप ( form) ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है।

(संसार की हर वस्तु के पाँच अंश होते है- अस्तित्व, चेतना, प्रियता, रूप और नाम. इन में से पहले तीन परमात्मा की ओर संकेत करते है, और आख़री दो जगत् की ओर. अस्तित्व, चेतना, प्रियता (जिन्हें सत्, चित्, आनंद भी कहा जाता है)

🍁आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ।
अपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ॥ २४ ॥

दृष्टि गोचर जगत में जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देखो उसमें से ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) के अंतिम दो पहलु (नाम और रूप) को द्रष्टा-दृश्य विवेक प्रयोग के द्वारा अलग कर लो, और उनके पहले वाले तीन पहलु ' अस्ति = सत् (being)', 'भाति = चित् (Shining)', 'प्रिय = आनन्द (loving)' को अपने ह्रदय में अथवा बाहर देखने के लिये, निरंतर तत्पर होकर एकाग्रता (concentration) का अभ्यास करो!

🍁समाधिं सर्वदा कुर्याधृदये वाथ वा बहिः ।
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ॥ २५ ॥

अपने ह्रदय में ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) के नाम-रूप वाले आकृति (Aspects) के साथ (सविकल्प) अथवा उसे अलग हटाकर (निर्विकल्प) जिस एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, वह दो प्रकार का होता है -

🍁दृश्यशब्दानुभेदेन स विकल्पः पुनर्द्विधा ।
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ॥ २६ ॥

वेदान्त इस जगत् को नाम रूपात्मक मानता है। 'वस्तु' (दृश्य या रूप) के अनुरूप 'शब्द' (नाम) ; यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। इच्छा और उसकी धारा या सिलसिला मन के कार्य हैं; इसलिये द्रष्टा मन जब चाहे अपने दृस्य मन को किसी अवतार के नाम-रूप पर एकाग्र रखने का या ध्यान का अभ्यास कर सकता है।

🍁ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ।
असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ॥ २७ ॥

इस एकाग्रता (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करते करते जब ध्यान गहरा होने पर समाधी होती है, उस अवस्था में चेतना (Consciousness) उस नमरूपात्मक ब्रह्म वस्तु के साथ एकात्मता बोध का अनुभव करने के बाद यह स्वीकार कर लेती है कि " मैं निर्विकार, निष्कलंक हूँ, मैं स्वयं-प्रकाश, उस शब्द (इष्ट के नाम) के अनुरूप द्वैत से रहित सच्चिदानन्द स्वरुप हूँ !"

🍁अस्मीतिशब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ।
स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दाद्यपेक्षितुः ॥ २८ ॥

इस प्रकार सविकल्प एकाग्रता जन्य समाधि में ' मैं वह हूँ ' के अनुभव के बाद जब कोई साधक, उससे भी गहरी आत्मानुभूति, वायु रहित स्थान में प्रज्ज्वलित निष्कम्प ज्योत के आनन्द को पाने के लिये ब्रह्म के नाम रूप का परित्याग कर देता है।

🍁निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ।
हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन्कस्मिंश्च वस्तुनि ॥ २९ ॥

एकाग्रता चाहे ह्रदय में हो या बाहर हो, शुद्ध ब्रह्म और उसके नाम-रूप में विवेक जाग्रत होते ही वह निर्वात दीप-शिखा की भाँति निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है।

🍁समाधिराद्यसन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ।
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ॥ ३० ॥

जब परमानन्द का स्वाद मूक-आस्वादन की तरह अनुभूत होने लगता है, तब समय को बिना विराम लिये अच्छी तरह से इन छह प्रकार की एकाग्रता में व्यतीत किया जा सकता है।

🍁एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत्कालं निरन्तरम् ।
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१ ॥

जब शरीर के प्रति अहंभाव (conceit या मिथ्याभिमान) पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, और परमात्मा की अनुभूति हो जाती है, तब मन जहाँ जहाँ भी भ्रमण करता है, उसे वहीं वहीं पर अमरत्व की अनुभूति होती है। हृदय की वक्रता सीधी हो जाती है

🍁भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥
जब आत्मा (अहं नहीं) को उस परमात्मा का दर्शन प्राप्त हो जाता है, तब सभी संशयों नाश हो जाता है, और सभी प्रक़र के कर्मों का क्षय हो जाता है।

🍁मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो नहि ।
इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ३३ ॥

' जीव स्वरुपतः शिव है ' मनुष्य अपने यथार्थ स्वरुप में ईश्वर ही है, उसके उपर जो ससीम जीवभाव, नश्वर, पापी आदि भाव तो अध्यारोपित हैं- वे वास्तविक नहीं हैं; जो व्यक्ति इसे सचमुच (अपने अनुभूति से जान लेता है) वह व्यक्ति मुक्त हो जाता है; इसमें थोड़ा भी संशय नहीं है। यही ज्ञान का रहस्य है।

🍁ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । शृतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
॥ इति सरस्वतीरहस्योपनिषत्समाप्ता ॥

[ ॐ = हे सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मन् ! मेरी वाणी मनमें स्थित हो जाये; अर्थात मेरे मन-मुख दोनों जायें । ऐसा न हो कि मैं वाणी से एक बात बोलूँ, और मन दूसरा ही चिंतन करता रहे, या मन में कोई दूसरा ही भाव रहे, और वाणी द्वारा दूसरा प्रकट करूँ। मेरे संकल्प और वचन दोनों विशुद्ध होकर एक हो जायें। हे ज्योति-स्वरूप परमेश्वर ! आप मेरे लिये प्रकट हो जाइये। -अपनी दैवीमाया का पर्दा मेरे सामने से हटा लीजिये। इस प्रकार परमात्मा से प्रार्थना करने के बाद उपासक अपने मन और वाणी को आदेश देता है-
' हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिये वेदविषयक ज्ञान की प्राप्ति कराने वाले बन जाओ-ताकि तुम्हारी सहायता से मैं वेदविषयक ज्ञान प्राप्त कर सकूँ। मेरा गुरुमुख से सुना हुआ और अनुभव में आया हुआ ज्ञान मेरा त्याग न करे अर्थात वह मुझे सर्वदा स्मरण रहे, मैं उसे कभी न भूलूँ। मेरी इच्छा है कि अध्यन द्वारा मैं दिन और रात एक के दूँ। अर्थात रात-दिन निरन्तर ब्रह्मविद्या का पठन और चिन्तन ही करता रहूँ। मेरी शेष बची आयु का एक क्षण भी व्यर्थ में व्यतीत न होने पाये। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे ही शब्दों का उच्चारण करूँगा; जो सर्वथा उत्तम हो, जिनमें किसी प्रकार का दोष न हो; तथा जो कुछ बोलूँगा, सर्वथा सत्य बोलूँगा --जैसा देखा, सुना और समझा हुआ भाव है, वही भाव वाणीद्वारा प्रकट करूँगा। उसमें किसी प्रकार का छल नहीं करूँगा।'
अब पुनः परमात्मा से प्रार्थना करना है -' वे परब्रह्म परमात्मा हम दोनों की रक्षा करें, अर्थात वे मेरी रक्षा करें और मुझे ब्रह्मविद्या सिखाने वाले आचार्य की भी रक्षा करें। जिससे मेरे अध्यन में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित न हो । आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक -तीनों प्रकार के विघ्नों की सर्वथा निवृत्ति के लिये तीन बार 'शान्तिः' पद का उच्चारण किया गया है। भगवान शान्तिस्वरूप हैं, इसलिये उनके स्मरण से शान्ति निश्चित है ।

 (गीता प्रेस में प्रकाशित अनुवाद सहित)

नील सरस्वती स्तोत्र हिन्दी भावार्थ सहित

 


 

नील सरस्वती स्तोत्र हिन्दी भावार्थ सहित 

नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है और विद्या की प्राप्ति होती है। नील सरस्वती की साधना तंत्रोक्त विधि से की जाती है। ये दस महाविद्याओं में से एक हैं। यदि आप अपने जीवन में शत्रुओ के कारण कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, तो यह नील सरस्वती स्तोत्र आपके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा, इसके पाठ के माध्यम से आप अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। यह नील सरस्वती स्तोत्र हमारे सभी प्रकार के शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है।

यह स्तोत्र देवी नीला सरस्वती को समर्पित महामंत्र है। यह एक अत्यंत शक्तिशाली नीला सरस्वती मंत्र है। इसे कभी-कभी नीला सरस्वती और नील सरस्वती के रूप में भी लिखा जाता है।
इस नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से मां सरस्वती जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
जो व्यक्ति परीक्षाओं में ज्ञान और सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें वैदिक नियमों के अनुसार नियमित रूप से इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
इस स्तोत्र का पाठ विशेष रूप से बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा में किया जाता है। इसके अलावा मां सरस्वती देवी की नियमित पूजा में नील सरस्वती स्तोत्र का पाठ भी कर सकते हैं।

श्री नील सरस्वती स्तोत्र

ॐ श्रीं ह्रीं हसौ: हूँ फट नीलसरस्वत्ये स्वाहा ॥

ॐ ह्री ऐं हुं नील सरस्वती फट् स्वाहा
.ॐ श्रीं ह्रीं हसौ: हूँ फट नीलसरस्वत्ये स्वाहा ॥
.ॐ ब्लूं वें वद वद त्रीं हूं फट्।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: क्लीं ह्रीं ऐं ब्लूं स्त्रीं
महानीला सरस्वती द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं स:।
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: सौ: ह्रीं स्वाहा।।

घोररूपे महारावे सर्वशत्रुभयङ्करि।
भक्तेभ्यो वरदे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥1॥

हिंदी अर्थ – भयानक रूपवाली, घोर निनाद करनेवाली, सभी शत्रुओं को भयभीत करनेवाली तथा भक्तों को वर प्रदान करनेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

ॐ सुरासुरार्चिते देवि सिद्धगन्धर्वसेविते।
जाड्यपापहरे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥2॥

हिंदी अर्थ – देव तथा दानवों के द्वारा पूजित, सिद्धों तथा गन्धर्वों के द्वारा सेवित और जड़ता तथा पाप को हरनेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

जटाजूटसमायुक्ते लोलजिह्वान्तकारिणि।
द्रुतबुद्धिकरे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥3॥

हिंदी अर्थ – जटाजूट से सुशोभित, चंचल जिह्वा को अंदर की ओर करनेवाली, बुद्धि को तीक्ष्ण बनानेवाली हे देवि ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

सौम्यक्रोधधरे रुपे चण्डरूपे नमोऽस्तु ते।
सृष्टिरुपे नमस्तुभ्यं त्राहि मां शरणागतम्। ॥4॥

हिंदी अर्थ – सौम्य क्रोध धारण करनेवाली, उत्तम विग्रहवाली, प्रचण्ड स्वरूपवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। हे सृष्टिस्वरुपिणि ! आपको नमस्कार है, मुझ शरणागत की रक्षा करें।

जडानां जडतां हन्ति भक्तानां भक्तवत्सला।
मूढ़तां हर मे देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥5॥

हिंदी अर्थ – आप मूर्खों की मूर्खता का नाश करती हैं और भक्तों के लिये भक्तवत्सला हैं। हे देवि ! आप मेरी मूढ़ता को हरें और मुझ शरणागत की रक्षा करें।

वं ह्रूं ह्रूं कामये देवि बलिहोमप्रिये नमः।
उग्रतारे नमो नित्यं त्राहि मां शरणागतम्। ॥6॥

हिंदी अर्थ – वं ह्रूं ह्रूं बीजमन्त्रस्वरूपिणी हे देवि ! मैं आपके दर्शन की कामना करता हूँ। बलि तथा होम से प्रसन्न होनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। उग्र आपदाओं से तारनेवाली हे उग्रतारे ! आपको नित्य नमस्कार है, आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

बुद्धिं देहि यशो देहि कवित्वं देहि देहि मे।
मूढ़त्वं च हरेद्देवि त्राहि मां शरणागतम्। ॥7॥

हिंदी अर्थ – हे देवि ! आप मुझे बुद्धि दें, कीर्ति दें, कवित्वशक्ति दें और मेरी मूढ़ता का नाश करें। आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

इन्द्रादिविलसद्द्वन्द्ववन्दिते करुणामयि।
तारे ताराधिनाथास्ये त्राहि मां शरणागतम्। ॥8॥

हिंदी अर्थ – इन्द्र आदि के द्वारा वन्दित शोभायुक्त चरणयुगल वाली, करुणा से परिपूर्ण, चन्द्रमा के समान मुखमण्डलवाली और जगत को तारनेवाली हे भगवती तारा ! आप मुझ शरणागत की रक्षा करें।

अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां यः पठेन्नरः।
षण्मासैः सिद्धिमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा। ॥9॥

हिंदी अर्थ – जो मनुष्य अष्टमी, नवमी तथा चतुर्दशी तिथि को इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह छः महीने में सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।

मोक्षार्थी लभते मोक्षं धनार्थी लभते धनम्।
विद्यार्थी लभते विद्यां तर्कव्याकरणादिकम्। ॥10॥

हिंदी अर्थ – इसका पाठ करने से मोक्ष की कामना करनेवाला मोक्ष प्राप्त कर लेता है, धन चाहनेवाला धन पा जाता है और विद्या चाहनेवाला विद्या तथा तर्क – व्याकरण आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

इदं स्तोत्रं पठेद्यस्तु सततं श्रद्धयाऽन्वितः।
तस्य शत्रुः क्षयं याति महाप्रज्ञा प्रजायते। ॥11॥

हिंदी अर्थ – जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर सतत इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके शत्रु का नाश हो जाता है और उसमें महान बुद्धि का उदय हो जाता है।

पीडायां वापि संग्रामे जाड्ये दाने तथा भये।
य इदं पठति स्तोत्रं शुभं तस्य न संशयः। ॥12॥

हिंदी अर्थ – जो व्यक्ति विपत्ति में, संग्राम में, मूर्खत्व की दशा में, दान के समय तथा भय की स्थिति में इस स्तोत्र को पढ़ता है, उसका कल्याण हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।

इति प्रणम्य स्तुत्वा च योनिमुद्रां प्रदर्शयेत्। ॥13॥

हिंदी अर्थ – इस प्रकार स्तुति करने के अनन्तर देवी को प्रणाम करके उन्हें योनिमुद्रा दिखानी चाहिए।

॥ नील सरस्वती स्तोत्र सम्पूर्ण

श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र

 

श्री ब्राहमी ज्ञान स्तोत्र 

( हिन्दी भावार्थ सहित)

इस स्तोत्र के पाठ करने से ब्रह्म विद्या के गूढ तत्वों की ओर मनुष्य का मन लगता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति के गूढ़ रहस्य स्वयमेव सूझते हैं। अध्यात्म मार्ग में रुचि और प्रवृत्ति बढ़ती है, फल स्वरूप मनुष्य आत्मदर्शन, ईश्वर साक्षात्कार, परमपद एवं ब्रह्मानन्द की दिशा में अग्रसर होता जाता है।

त्वमेका विश्वस्मिन् रमण मनसा द्वेतमकरो- स्ततस्तत् त्वं जज्ञो महद्धिमहङ्कारसहितम् ।

मनस्तेनारब्धं सकलमपि दृग् दश्यमसृज- सदेवं लोकेस्मिन् किमपि न विलोकेत्वदितरम् ।।

हे देवि! तुमने ही इस विश्व में रमणेच्छा से द्वैत को उत्पन्न किया। फिर अहंकारादि सहित महतत्व की उत्पत्ति हुई, पुनः मन बना। ऐसे ही सम्पूर्ण दृश्य जगत् की रचना हुई। इसलिये मैं इसे संसार में तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता। संसार रूप में तुम्हारा ही अब तो ध्यान करता हूं। तुम संसार मय हो और संसार तुम से भिन्न कोई वस्तु नहीं है।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मरूपे च प्राणापानादिरूपिणी । भावाभाव स्वरूपे च जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।1।।

हे जगत् धात्रि देवि! तुम सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राण, अपान, अभाव और भाव स्वरूप हो। हे देवि! तुम्हें नमस्कार है।

कालादि रूपे कालेशे कालाकालविभेदिनी । सर्वस्वरूपे सवज्ञे जगद्धात्रि नमोस्तुते ।।2।1

हे कालादि स्वरूपे! हे काल स्वामिनी! हे काल और अकाल का भेदन करने वाली देवि! तुम सर्वमय हो, सर्वज्ञ हो। अतः हे जगद्धात्रि देवि! तुम्हें हम नमस्कार करते हैं।

अगम्ये जगतामाद्ये, माहेश्वरि वराङ्गने अशेषरूप रूपस्थे जगद्धात्रि ! नमोस्तुते ।।

हे जगद्धात्रि ! तुम अगम्य और आदि शक्ति हो। तुम वरदा माहेश्वरी हो। सम्पूर्ण विश्वमय होकर उसमें व्याप रही हो। इसलिये हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

न तस्य कार्य करणं च विद्यते । न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।। परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ।।

उसका न कोई कार्य और न कोई करण है। न कोई उसके सदृश है और न उससे अधिक। उसकी शक्ति सर्वतोपरि विविधि प्रकार की है। ज्ञान, बल और क्रिया उसमें स्वाभाविक हैं।

चित्स्यन्दोऽन्तर्जगद्धत्ते कल्पनेवपुरं हृदि । सैव वा जगदित्येव कल्पनैव यथा पुरम् ।। पवनस्य यधा स्पन्दस्तथैवेच्छा शिवस्य सा । यथास्पन्दोऽनिवस्यान्तः प्रशान्तेच्छस्तथाशिवः ।। अमूर्तो मूर्तमाकाशे शब्दाडम्बरमानिलः । यथा स्पन्दनोतनोत्येव शिवेच्छा कुरुतेजगत् ।।

वह स्पन्दन शक्ति उसी प्रकार जगत को अपने में लय कर लेती है जैसे कल्पना, अपने कल्पना नगर को। अथवा कल्पना ही नगर है और शक्ति भी जगत् से भिन्न वस्तु नहीं है।

जिस तरह पवन में स्पन्दन है वैसे ही शिव की इच्छा है। और जैसे स्पन्दन के भीतर शान्ति निहित है वैसे ही शिवेच्छा में शिव है।

यह शिवेच्छा ठीक उसी प्रकार जगत को उत्पन्न करती है जैसे निराकार व्योम मण्डल में अमूर्त शब्दाडम्बर को वायु प्रकट करता है।

भ्रमयति प्रकृतिस्तात्संसारे भ्रमरूपिणी । यावन्न पश्यति शिवं नित्यतृप्तमनामयम् ।। संविन्मात्रैक धमित्वात्काकतालीय योगतः । संविद्देव शिवं स्पृष्ट्वा तन्मय्येव भवत्यलम् ।। प्रकृतिः पुरुषं स्पृष्ट्वा प्रकृतित्वं समुज्झति । तदन्तरत्वेकतां गत्वा नदीरूपमिवार्णवे ।।

प्रभु को चेतन शक्ति प्रकृति जो संभ्रमणशील है वह उस समय तक संसार में भ्रमण करती रहती है जब तक नित्य, तृप्त और अनामय शिव का दर्शन न हो जाय।

स्वयं तद्रूप होने के कारण अचानक शिव दर्शन होने पर तुरन्त तन्मय हो जाती है।

वह प्रकृति पूर्ण पुरुष को स्पर्श करके इस प्रकार प्रकृतित्व को छोड़ देती है जैसे समुद्र में मिलकर नदी अपने नदी भाव को छोड़ देती है।

न धूमैर्नोदीपैर्न च मधुर नैवेद्य निव है। न पुष्पैनों गन्धैर्न च विविध बन्धैः स्तुति पदैः ।। समस्त त्रैलोक्य प्रसरण लसद् भूरि विभवे । सपर्या पर्याप्ता तव भवति भावोप चरणैः ।।

हे समस्त संसार के प्रसार करने वाली देवि ! तुम्हारी पूजा धूप, दीप, मधुर, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, और विविध प्रकार के सुन्दर सुशोभित स्तुति पदों से कभी पूर्ण नहीं हो सकती। उसके लिए तो केवल भाव पुष्प ही अभिलषित हैं। जो अपनी भावना के पुष्प अर्पण करने में असमर्थ हैं वह और किसी भी पूजा सामग्री से तुम्हारी आराधना पूर्णरूपेण नहीं कर सकता। वह सर्वथा भाव-पुष्पों के बिना अपूर्ण ही है और अपूर्ण ही रहेगी।

श्री सरस्वती

 


श्री सरस्वती

ॐ ऐं श्रीं क्लीं ब्रहमाण्यै नमः ।

ॐ ऐं वाग्देव्यै ऐं नमः।

ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं ऐंं शारदायै नमः।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रसौ: भारत्यै नमः।

ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौ: त्रिपुरा सरस्वत्यै नमः।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ऐं महासरस्वत्यै नमः।

ॐ ब्रहमाण्यै च विदमहे महाशक्त्यै धीमहि तन्नो देवी:

प्रचोदयात्।

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणी रूपधारिणी ।
कौशांभहक्षरीके देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥
हंस-युक्त-विमान-स्थे ब्रह्मन्नि-रूपा-धारिणी |
कौशंभः-क्षरिका देवी नारायणी नमोस्तुते।।

अर्थ:

1:हे नारायणी आपको नमस्कार है। जो देवी ब्रह्माणी का रूप धारण करती है और हंसों से युक्त दिव्य रथ की सवारी करती है , 2: और कुश घास के साथ जल छिड़कती है ; हे देवी ; हे नारायणी, आपको नमस्कार है ।

ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम्


 


ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम् 
श्रीसरस्वत्यै नमः ।
श्री शारदे (सरस्वति)! नमस्तुभ्यं जगद्भवनदीपिके ।
विद्वज्जनमुखाम्भोजभृङ्गिके! मे मुखे वस ॥ १॥
वागीश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्ते हंसगामिनि! ।
नमस्तुभ्यं जगन्मातर्जगत्कर्त्रिं! नमोऽस्तु ते ॥ २॥
शक्तिरूपे! नमस्तुभ्यं कवीश्वरि! नमोऽस्तु ते ।
नमस्तुभ्यं भगवति! सरस्वति! नमोऽस्तुते ॥ ३॥
जगन्मुख्ये नमस्तुभ्यं वरदायिनि! ते नमः ।
नमोऽस्तु तेऽम्बिकादेवि! जगत्पावनि! ते नमः ॥ ४॥
शुक्लाम्बरे! नमस्तुभ्यं ज्ञानदायिनि! ते नमः ।
ब्रह्मरूपे! नमस्तुभ्यं ब्रह्मपुत्रि! नमोऽस्तु ते ॥ ५॥
विद्वन्मातर्नमस्तुभ्यं वीणाधारिणि! ते नमः ।
सुरेश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्ते सुरवन्दिते! ॥ ६॥
भाषामयि! नमस्तुभ्यं शुकधारिणि! ते नमः ।
पङ्कजाक्षि! नमस्तुभ्यं मालाधारिणि! ते नमः ॥ ७॥
पद्मारूढे! नमस्तुभ्यं पद्मधारिणि! ते नमः ।
शुक्लरूपे नमस्तुभ्यं नमञ्जिपुरसुन्दरि ॥ ८॥
श्री(धी)दायिनि! नमस्तुभ्यं ज्ञानरूपे! नमोऽस्तुते ।
सुरार्चिते! नमस्तुभ्यं भुवनेश्वरि! ते नमः ॥ ९॥
कृपावति! नमस्तुभ्यं यशोदायिनि! ते नमः ।
सुखप्रदे! नमस्तुभ्यं नमः सौभाग्यवर्द्धिनि! ॥ १०॥
विश्वेश्वरि! नमस्तुभ्यं नमस्त्रैलोक्यधारिणि ।
जगत्पूज्ये! नमस्तुभ्यं विद्यां देहि (विद्यादेवी) महामहे ॥ ११॥
श्रीर्देवते! नमस्तुभ्यं जगदम्बे! नमोऽस्तुते ।
महादेवि! नमस्तुभ्यं पुस्तकधारिणि! ते नमः ॥ १२॥
कामप्रदे नमस्तुभ्यं श्रेयोमाङ्गल्यदायिनि ।
सृष्टिकर्त्रिं! स्तुभ्यं सृष्टिधारिणि! नमः ॥ १३॥
जगद्धिते! नमस्तुभ्यं नमः संहारकारिणि! ।
विद्यामयि! नमस्तुभ्यं विद्यां देहि दयावति! ॥ १४॥
अथ लक्ष्मीनामानि -
महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं पीतवस्त्रे नमोऽस्तु ते ।
पद्मालये! नमस्तुभ्यं नमः पद्मविलोचने ॥ १५॥
सुवर्णाङ्गि नमस्तुभ्यं पद्महस्ते नमोऽस्तु ते ।
नमस्तुभ्यं गजारूढे विश्वमात्रे नमोऽस्तु ते ॥ १६॥
शाकम्भरि नमस्तुभ्यं कामधात्रि नमोऽस्तु ते ।
क्षीराब्धिजे नमस्तुभ्यं शशिस्वस्रे नमोऽस्तु ते ॥ १७॥
हरिप्रिये! नमस्तुभ्यं वरदायिनि ते नमः ।
सिन्दूराभे नमस्तुभ्यं नमः सन्मतिदायिनि ॥ १८॥
ललिते! च नमस्तुभ्यं वसुदायिनि ते नमः ।
शिवप्रदे नमस्तुभ्यं समृद्धिं देहि मे रमे! ॥ १९॥
अथ योगिनीरूपाणि -
गणेश्वरि! नमस्तुभ्यं दिव्ययोगिनि ते! नमः ।
विश्वरूपे! नमस्तुभ्यं महायोगिनि! ते नभः ॥ २०॥
भयङ्करि! नमस्तुभ्यं सिद्धयोगिनि! ते नमः ।
चन्द्रकान्ते! नमस्तुभ्यं चक्रेश्वरि! नमोऽस्तु ते ॥ २१॥
पद्मावति! नमस्तुभ्यं रुद्रवाहिनि! ते नमः ।
परमेश्वरि! नमस्तुभ्यं कुण्डलिनि! नमोऽस्तु ते ॥ २२॥
कलावति! नभस्तुभ्यं मन्त्रवाहिनि! ते नमः ।
मङ्गले! च नमस्तुभ्यं श्रीजयन्ति! नमोऽस्तु ते ॥ २३॥
अथान्यनामानि -
चण्डिके! च नमस्तुभ्यं दुर्गे! देवि! नमोऽस्तु ते ।
स्वाहारूपे नमस्तुभ्यं स्वधारूपे नमोऽस्तु ते ॥ २४॥
प्रत्यङ्गिरे नमस्तुभ्यं गोत्रदेवि नमोऽस्तु ते ।
शिवे! कृष्णे नमस्तुभ्यं नमः कैटभनाशिनि ॥ २५॥
कात्यायनि! नमस्तुभ्यं नमो धूम्रविनाशिनि!
नारायणि! नमस्तुभ्यं नमो महिषखण्डिनि! ॥ २६॥
सहस्राक्षि! नमस्तुभ्यं नमश्चण्डविनाशिनि!
तपस्विनि! नमस्तुभ्यं नमो मुण्डविनाशिनि! ॥ २७॥
अग्निज्वाले! नमस्तुभ्यं नमो निशुम्भखण्डिनि!
भद्रकालि! नमस्तुभ्यं मधुमर्दिनि! ते नमः ॥ २८॥
महाबले! नमस्तुभ्यं शुम्भखण्डिनि! ते नमः ।
श्रुतिमयि! नमस्तुभ्यं रक्तबीजवधे! नमः ॥ २९॥
धृतिमयि! नमस्तुभ्यं दैत्यमर्दिनि! ते नमः ।
दिवागते! नमस्तुभ्यं ब्रह्मदायिनि! ते नभः ॥ ३०॥
माये! क्रिये! नमस्तुभ्यं श्रीमालिनि! नमोऽस्तु ते ।
मधुमति! नमस्तुभ्यं कले! कालि! नमोऽस्तु ते ॥ ३१॥
श्रीमातङ्गि नमस्तुभ्यं विजये! च नमोऽस्तु ते ।
जयदे! च नमस्तुभ्यं श्रीशाम्भवि! नमोऽस्तु ते ॥ ३२॥
त्रिनयने नमस्तुभ्यं नमः शङ्करवल्लभे! ।
वाग्वादिनि नमस्तुभ्यं श्रीभैरवि! नमोऽस्तु ते ॥ ३३॥
मन्त्रमयि! नमस्तुभ्यं क्षेमङ्करि! नमोऽस्तु ते ।
त्रिपुरे! च नमस्तुभ्यं तारे शबरि! ते नमः ॥ ३४॥
हरसिद्धे! नमस्तुभ्यं ब्रह्मवादिनि! ते नमः ।
अङ्गे! वङ्गे! नमस्तुभ्यं कालिके! च नमोऽस्तु ते ॥ ३५॥
उमे! नन्दे! नमस्तुभ्यं यमघण्टे! नमोऽस्तु ते ।
श्रीकौमारि! नमस्तुभ्यं वातकारिणि! ते नमः ॥ ३६॥
दीर्घदंष्ट्रे! नमस्तुभ्यं महादंष्ट्रे! नमोऽस्तु ते ।
प्रभे! रौद्रि! नमस्तुभ्यं सुप्रभे! ते नमो नमः ॥ ३७॥
महाक्षमे! नमस्तुभ्यं क्षमाकारि! नमोऽस्तु ते ।
सुतारिके! नमस्तुभ्यं भद्रकालि! नमोऽस्तु ते ॥ ३८॥
चन्द्रावति नमस्तुभ्यं वनदेवि नमोऽस्तु ते ।
नारसिंहि! नमस्तुभ्यं महाविद्ये! नमोऽस्तु ते ॥ ३९॥
अग्निहोत्रि! नमस्तुभ्यं सूर्यपुत्रि! नमोऽस्तु ते ।
सुशीतले! नमस्तुभ्यं ज्वालामुखि! नमोऽस्तु ते ॥ ४०॥
सुमङ्गले! नमस्तुभ्यं वैश्वानरि! नमोऽस्तु ते
निरञ्जने! नमस्तुभ्यं श्रीवैष्णवि! नमोऽस्तु ते ॥ ४१॥
श्रीवाराहि! नमस्तुभ्यं तोतलायै नमो नमः ।
कुरुकुल्ले! नमस्तुभ्यं भैरवपत्नि! ते नमः ॥ ४२॥
अथागमोक्तनामानि स्वयमूह्यानि पण्डितैः ।
कथ्यन्ते कानि नामानि प्रसिद्धानि तथा न वा ॥ ४३॥
हेमकान्ते! नमस्तुभ्यं हिङ्गुलायै नमो नमः ।
यज्ञविद्ये नमस्तुभ्यं वेदमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ४४॥
श्रीमृडानि नमस्तुभ्यं विन्ध्यवासिनि ते नमः ।
पृथ्वीज्योत्सने! नमस्तुभ्यं नमो नारदसेविते! ॥ ४५॥
प्रह्लादिनि! नमस्तुभ्यमपर्णायै नमो नमः ।
जैनेश्वरि! नमस्तुभ्यं सिंहगामिनि! ते नमः ॥ ४६॥
बौद्धमातर्नमस्तुभ्यं जिनमातर्नमोऽस्तु ते ।
ॐ कारे च नमस्तुभ्यं राज्यलक्ष्भि! नमोऽस्तु ते ॥ ४७॥
सुधात्मिके! नमस्तुभ्यं राजनीते! नमोऽस्तु ते ।
मन्दाकिनि! नमस्तुभ्यं गोदावरि! नमोऽस्तु ते ॥ ४८॥
पताकिनि! नमस्तुभ्यं भगमालिनि! ते नमः ।
वज्रायुधे! नमस्तुभ्यं परापरकले! नमः ॥ ४९॥
वज्रहस्ते! नमस्तुभ्यं मोक्षदायिनि! ते नमः ।
शतबाहु नमस्तुभ्यं कुलवासिनि ते नमः ॥ ५०॥
श्रीत्रिशक्ते नमस्तुभ्यं नमश्चण्डपराक्रमे ।
महाभुजे! नमस्तुभ्यं नमः षट्वक्रभेदिनि! ॥ ५१॥
नभःश्यामे! नमस्तुभ्यं षट्चक्रक्रमवासिनि! ।
वसुप्रिये! नमस्तुभ्यं रक्तादिनि! नमो नमः ॥ ५२॥
महामुद्रे! नमस्तुभ्यमेकचक्षुर्नमोऽस्तु ते ।
पुष्पबाणे! नमस्तुभ्यं खगगामिनि ते नमः ॥ ५३॥
मधुमत्ते! नमस्तुभ्यं बहुवर्णे! नमो नमः ।
मदोद्धते! नमस्तुभ्यं इन्द्रचापिनि! ते नमः ॥ ५४॥
चक्रहस्ते! नमस्तुभ्यं श्रीखड्गिनि! नमो नभः ।
शक्तिहस्ते! नमस्तुभ्यं नमस्त्रिशूलधारिणि! ॥ ५५॥
वसुधारे! नमस्तुभ्यं नमो मयूरवाहिनि! ।
जालन्धरे! नमस्तुभ्यं सुबाणायै! नमो नमः ॥ ५६॥
अनन्तर्वीर्ये! नमस्तुभ्यं वरायुधधरे! नमः ।
वृषप्रिये! नमस्तुभ्यं शत्रुनाशिनि! ते नमः ॥ ५७॥
वेदशक्ते! नमस्तुभ्यं वरधारिणि! ते नमः ।
वृषारूढं! नमस्तुभ्यं वरदायै! नमो नमः ॥ ५८॥
शिवदूति! नमस्तुभ्यं नमो धर्मपरायणे! ।
घनध्वनि! नमस्तुभ्यं षट्कोणायै! नमो नमः ॥ ५९॥
जगद्गर्भे! नमस्तुभ्यं त्रिकोणायै! नमोनमः ।
निराधारे! नमस्तुभ्यं सत्यमार्गप्रबोधिनि! ॥ ६०॥
निराश्रये! नमस्तुभ्यं छत्रच्छायाकृतालये! ।
निराकारे! नमस्तुभ्यं वह्निकुण्डकृतालये! ॥ ६१॥
प्रभावति! नमस्तुभ्यं रोगनाशिनि! ते नमः ।
तपोनिष्टे! नमस्तुभ्यं सिद्धिदायिनि! ते नमः ॥ ६२॥
त्रिसन्ध्यिके! नमस्तुभ्यं दृढबन्धविमोक्षणि! ।
तपोयुक्ते! नमस्तुभ्यं काराबन्धविमोचनि! ॥ ६३॥
मेघमाले! नमस्तुभ्यं भ्रमनाशिनि! ते नमः ।
ह्रीङ्क्लीङ्कारि! नमस्तुभ्यं सामगायनि! ते नमः ॥ ६४॥
ॐ ऐंरूपे! नमस्तुभ्यं बीजरूपं! नमोऽस्तु ते ।
नृपवश्ये! नमस्तुभ्यं शस्यवर्द्धिनि! ते नमः ॥ ६५॥
नृपसेव्ये! नमस्तुभ्यं धनवर्द्धिनि! ते नमः ।
नृपमान्ये! नमस्तुभ्यं लोकवश्यविधायिनि! ॥ ६६॥
नमः सर्वाक्षरमयि! वर्णमालिनि! ते नमः ।
श्रीब्रह्माणि! नमस्तुभ्यं चतुराश्रमवासिनि! ॥ ६७॥
शास्त्रमयि! नमस्तुभ्यं वरशस्त्रास्त्रधारिणि! ।
तुष्टिदे! च नमस्तुभ्यं पापनाशिनि! ते नमः ॥ ६८॥
पुष्टिदे! च नमस्तुभ्यमार्तिनाशिनि! ते नमः ।
धर्मदे! च नमस्तुभ्यं गायत्रीमयि! ते नमः ॥ ६९॥
कविप्रिये! नमस्तुभ्यं चतुर्वर्गफलप्रदे! ।
जगज्जीवे! नमस्तुभ्यं त्रिवर्गफलदायिनि! ॥ ७०॥
जगद्बीजे! नमस्तुभ्यमष्टसिद्धिप्रदे! नमः ।
मातङ्गिनि! नमस्तुभ्यं नमो वेदाङ्गधारिणि! ॥ ७१॥
हंसगते! नमस्तुभ्यं परमार्थप्रबोधिनि!
चतुर्बाहु! नमस्तुभ्यं शैलवासिनि! ते नमः ॥ ७२॥
चतुर्मुखि! नमस्तुभ्यं द्युतिवर्द्धिनि! ते नमः ।
चतुःसमुद्रशयिनि! तुभ्यं देवि! नमो नमः ॥ ७३॥
कविशक्ते! नमस्तुभ्यं कलिनाशिनि! ते नमः ।
कवित्वदे! नमस्तुभ्यं मत्तमातङ्गगामिनि! ॥ ७४॥
॥ इति ब्रह्माणी देवीस्तोत्रम् समाप्तम् ॥

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