Sunday, 29 September 2024

शत्रु-विध्वंसिनी-स्तोत्र

 


शत्रु-विध्वंसिनी-स्तोत्र
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशत्रु-विध्वंसिनी-स्तोत्र-मन्त्रस्य ज्वाला-व्याप्तः ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवता, श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- शिरसि ज्वाला-व्याप्त-ऋषये नमः। मुखे अनुष्टुप छन्दसे नमः, हृदि श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवतायै नमः, अञ्जलौ श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगाय नमः।।
कर-न्यासः- ॐ श्रीशत्रु-विध्वंसिनी अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ त्रिशिरा तर्जनीभ्यां नमः। ॐ अग्नि-ज्वाला मध्यमाभ्यां नमः। ॐ घोर-दंष्ट्री अनामिकाभ्यां नमः। ॐ दिगम्बरी कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ रक्त-पाणि करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः- ॐ रौद्री हृदयाय नमः। ॐ रक्त-लोचनी शिरसे स्वाहा। ॐ रौद्र-मुखी शिखायै वषट्। ॐ त्रि-शूलिनो कवचाय हुम्। ॐ मुक्त-केशी नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ महोदरी अस्त्राय फट्।
फट् से ताल-त्रय दें (तीन बार ताली बजाएँ) और “ॐ रौद्र-मुख्यै नमः” से दशों दिशाओं में चुटकी बजाकर दिग्-बन्धन करें।
स्तोत्रः-
“ॐ शत्रु-विध्वंसिनी रौद्री, त्रिशिरा रक्त-लोचनी।
अग्नि-ज्वाला रौद्र-मुखी, घोर-दंष्ट्री त्रि-शूलिनी।।१
दिगम्बरी मुक्त-केशी, रक्त-पाणी महोदरी।”
फल-श्रुतिः- एतैर्नाममभिर्घोरैश्च, शीघ्रमुच्चाटयेद्वशी,
इदं स्तोत्रं पठेनित्यं, विजयः शत्रु-नाशनम्।
सगस्त्र-त्रितयं कुर्यात्, कार्य-सिद्धिर्न संशयः।।
विशेषः-
यह स्तोत्र अत्यन्त उग्र है। इसके विषय में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए-
(क) स्तोत्र में ‘ध्यान’ नहीं दिया गया है, अतः ‘ध्यान’ स्तोत्र के बारह नामों के अनुरुप किया जायेगा। सारे नामों का मनन करने से ‘ध्यान’ स्पष्ट हो जाता है।
(ख) प्रथम और अन्तिम आवृति में नामों के साथ फल-श्रुति मात्र पढ़ें। पाठ नहीं होगा।
(ग) घर में पाठ कदापि न किया जाए, केवल शिवालय, नदी-तट, एकान्त, निर्जन-वन, श्मशान अथवा किसी मन्दिर के एकान्त में ही करें।
(घ) पुरश्चरण की आवश्यकता नहीं है। सीधे ‘प्रयोग’ करें। प्रत्येक ‘प्रयोग’ में तीन हजार आवृत्तियाँ करनी होगी।
 

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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आपके कुलदेवता /देवी रुष्ट तो नहीं हैं ?

 


आपके कुलदेवता /देवी रुष्ट तो नहीं हैं ?
हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुल देवता/कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है ,,प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है ,बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के लिए ,जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गया और जाती कहा जाने लगा ,,पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/उर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहे |
समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने ,आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने ,जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने ,संस्कारों के क्षय होने ,विजातीयता पनपने ,इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता /देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता /देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है ,इनमे पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं ,कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इनपर ध्यान नहीं दिया |
कुल देवता /देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता ,किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में दुर्घटनाओं ,नकारात्मक ऊर्जा ,वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है ,उन्नति रुकने लगती है ,पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती ,संस्कारों का क्षय ,नैतिक पतन ,कलह, उपद्रव ,अशांति शुरू हो जाती हैं ,व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है कारण जल्दी नहीं पता चलता क्योकि व्यक्ति की ग्रह स्थितियों से इनका बहुत मतलब नहीं होता है ,अतः ज्योतिष आदि से इन्हें पकड़ना मुश्किल होता है ,भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है ,
कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा ,नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं ,यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं ,यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को ईष्ट तक पहुचाते हैं ,,यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं ,,ऐसे में आप किसी भी ईष्ट की आराधना करे वह उस ईष्ट तक नहीं पहुँचता ,क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है ,,बाहरी बाधाये ,अभिचार आदि ,नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है ,,कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही ईष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है ,अर्थात पूजा न ईष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है. ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है.
कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति ,उलटफेर ,विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं ,सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है ,यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है ,,शादी-विवाह-संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं ,,,यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है ,परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं ,,अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे |
 
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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अष्लक्ष्मी स्तोत्र : एक बार मनन अवश्य करे -जय माँ लक्ष्मी

 


अष्लक्ष्मी स्तोत्र : एक बार मनन अवश्य करे -जय माँ लक्ष्मी
1-आदिलक्ष्मी
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि चन्द्र सहोदरि हेममये l
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ll
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि सदा पालय माम्
2-धान्यलक्ष्मी
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदिकरूपिणि वेदमये l
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ll
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम्
3-धैर्यलक्ष्मी
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये l
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ll
भवभयहारिणि पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम्
4-गजलक्ष्मी
जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये l
रथगज तुरगपदादि समावृत परिजनमण्डित लोकनुते ll
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम्
5-सन्तानलक्ष्मी
अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि रागविवर्धिनि ज्ञानमये l
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि स्वरसप्त भूषित गाननुते ll
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर मानववन्दित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम् ll
6-विजयलक्ष्मी
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि ज्ञानविकासिनि गानमये l
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर भूषित वासित वाद्यनुते ll
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित शङ्कर देशिक मान्य पदे l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विजयलक्ष्मि सदा पालय माम्
7-विद्यालक्ष्मी
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि शोकविनाशिनि रत्नमये l
मणिमयभूषित कर्णविभूषण शान्तिसमावृत हास्यमुखे ll
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि कामित फलप्रद हस्तयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम्
8-धनलक्ष्मी
धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ll
वेदपुराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम् ll
 
श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा
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Saturday, 28 September 2024

शिव को गुरु बनाने की विधि

शिव को गुरु बनाने की विधि
1. आंखें बंद करके आराम से बैठ जायें.
भगवान शिव से कहें हे शिव मै आप को अपना गुरु बनने का आग्रह कर रहा हूं. आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार करें.
2. दोनों ऊपर हाथ उठाकर ब्रह्मांड की तरफ देखते हुए 3 बार घोषणा करें. कहें- अखिल अंतरीक्ष सम्राज्य में मै घोषणा करता हूं कि शिव मेरे गुरु हैं मै उनका शिष्य हूं. शिव मेरे गुरु हैं मै उनका शिष्य हूं. शिव मेरे गुरु हैं मै उनका शिष्य हूं. तथास्तु. घोषणा दर्ज हो. हर हर महादेव.
इससे भगवान शिव अपनी ही तय शास्त्रीय व्यवस्था के मुताबिक आग्रह करने वाले को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. इसी कारण उसी दिन से जीवन बदलने लगता है.
3. शिव गुरु को साक्षी बनाकर शुरु किये कार्यों में रुकावटें नही आतीं. इसलिये जो भी काम करें उसके लिये भगवान शिव को पहले साक्षी बना लें. कहें- हे शिव आप मेरे गुरु हैं मै आपका शिष्य हूं आपको साक्षी बनाकर ये कार्य करने जा रहा हूं. इसकी सफलता के लिये मुझे दैवीय सहायता और सुरक्षा प्रदान करें.
4. हर रोज शिव गुरु से कम से कम तीन बार कहें- हे शिव आप मेरे गुरु हैं मै आपका शिष्य हूं. मुझ शिष्य पर दया करें. हे शिव आप मेरे गुरु हैं मै आपका शिष्य हूं. मुझ शिष्य पर दया करें. हे शिव आप मेरे गुरु हैं मै आपका शिष्य हूं. मुझ शिष्य पर दया करें.
5. हर रोज शिव गुरु को नमन करें. इसके लिये शांत मन से कुछ मिनटों तक जपें- नमः शिवाय गुरुवे.
6. भगवान शिव को राम नाम सबसे अधिक प्रिय है. वे खुद भी सदैव इसका ध्यान करते रहते हैं. इसलिये उन्हें गुरु दक्षिणा के रूप में उनकी सबसे प्रिय चीज राम राम ही अर्पित करें.
इसके लिए रोज नमन करने के बाद शिव गुरु से निवेदन करें. कहें- मै आपको गुरु दक्षिणा के रूप में राम नाम सुना रहा हूं. आप मेरे मन के मंदिर में आकर बैठ जायें और राम राम सुने. और स्वीकार करें. मुझे सदैव दैवीय सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करें...

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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महेशानं परोदेवो,,,,,,,,,,,नास्ति तत्व गुरु परम् । गुरू प्राप्ति के बाद का जीवन।

महेशानं परोदेवो,,,,,,,,,,,नास्ति तत्व गुरु परम् ।
गुरू प्राप्ति के बाद का जीवन।
गुरू जिस धरा पर अवतरित होते है वहाँ सुख,शांति, आनंद का वास लेता है, वहां के सब तामसिक दोष समाप्त हो जाते हैं!
जिस जगह गुरू खुशी से भ्रमण या प्रवास करते उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं!
गुरूदेव को निहारने से , गुरू की फ़ोटो चित्र दर्शन करने से, मन मे घंटीयां बजने लग जाती है आरती होती है तो समझो प्रणाम  स्वीकार हो गया!
जो व्यक्ति गुरू की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की विपदाओं को गुरू हर लेते है!
गुरू के चरणो मे स्वर्ग होता है, जहां गुरू देव विचरण करते है उस जगह वास करने से तामसिकता का दमन होता है!
गुरू में (लक्ष्मी, सरस्वती,  दुर्गा ) सभी शक्तियों का वास होता है!
गुरू में सुर्य ,चन्द्र देवलोक,  पुर्ण सृष्टि का वाशऔर तेज़  होता है!
गुरू मंत्र मे वो शक्ति है जो कुडंलिनी जाग्रत कर रोगों  को दूर कर शिष्य का कल्याण करता है!
गुरू मे ब्रह्म चेतना का वास होता है,किसी व्यक्ति को कुछ भी हो जाये तो गुरू से प्रार्थना कर लेने से  सभी दोष दूर  हो जाते है!!
गुरू का रोजाना सुबह शाम ध्यान करने से त्रविध ताप, रोग, दोष का नाश होता है!
गुरू के मंत्र जाप से सभी देवी देवताओं को भोग लग जाता है, कही जाना नहीं पड़ता!
गुरू मंत्र हजारों रोगों की औषधि है,इसके सेवन से असाध्य रोग मिट जाते हैं!
जिस व्यक्ति का भाग्य सोया हुआ हो ,दुर्भाग्य से घिरा हो तो गुरू कृपा से उस व्यक्ति की सुप्त भाग्य भी जीवंत हो जाता है!
गुरू की सेवा से चरणों मे समर्पण से मानव भय मुक्त हो जाता है!
गुरू ही महान विद्वान धर्म रक्षक ईश्वर का रूप अवतार होते है!
गुरू की सेवा,मोक्ष के लिए ही इस धरा पर देवी देवताओं ने भी अवतार लिये हैं!
गुरू मंत्र सुमिरण से जन्म जन्मांतर  के कर्म पाप कष्ट कट जाते है!
समर्थ गुरू विरला एक काल खंड में एक ही होते है!
गुरू अगर स्वप्न में भी वात्सल्यमय दृष्टि से जिसे भी देखते है उनके ऊपर गुरू कृपा हो जाती है!
गुरू मंत्र का जाप करने से नौ ग्रह शांत रहते हैं, जो ध्यान के साथ  करता है उनको शत्रु दोषों भी से निवृत्ति मिल जाती है!
गुरू एक चलता फिरता मंदिर है । हमारे सनातन धर्म में तैंतीस कोटि देवी देवता है , हम रोजाना तैंतीस कोटि देवी देवताओं के मंदिर जा कर उनके दर्शन नहीं कर सकते पर गुरू के दर्शन हृदय कमल /आज्ञा चक्र भृकुटि /सहस्त्र पदम् पर ध्यान  लगाकर वहाँ  से गुरू का ब्रह्म स्वरूप में सभी देवी देवताओं के दर्शन हो जाते हैं!
कोई भी शुभ कार्य अटका हुआ हो बार बार प्रयत्न करने पर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गुरू को कहिये रूका हुआ काम बन जायेगा!
गुरू सर्व सुखों के दाता है!
हे गुरूदेव............👏🏻
आप अनंत ! आपके गुण अनंत ! इतना मुझमें सामर्थ्य नहीं कि मैं आपके गुणों का बखान कर सकूं!!!

श्रीराम ज्योतिष सदन पंडित आशु बहुगुणा

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नव दुर्गा नौ ही क्यों ??

नव दुर्गा नौ ही क्यों ??
भूमिआपो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
 अहंकार इतियं में प्रकृतिरष्टधा।।
ऐसा कह कर भगवान् ने 8 प्रकृतियों का प्रतिपादन कर दिया( भूमि, आकाश, अग्नि, वायु, जल, मन, बुद्धि और अहंकार) इनके परे केवल ब्रह्म ही है अर्थात 8 प्रकृति और 1 ब्रह्म (8+1=9 ) ये नौ हो गए जो परिपूर्णतम है। नौ देवियाँ, शारीर के नौ छिद्र, नवधा भक्ति, नवरात्र ये सभी पूर्ण है। 9 के अतिरिक्त संसार में कुछ नहीं है इसके अतिरिक्त जो है वह शून्य (0) है। किसी भी अंक को 9 से गुणा करने पर गुणनफल से प्राप्त अंको का योग 9 ही होता है। अतः 9 ही परिपूर्ण है।
9 द्वार वाले शारीर को पूर्ण जाग्रत और क्रियाशील कर अपने परम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचने में ही इन 9 स्वरूपो की उपासना का तात्पर्य है। ये 9 स्वरुप :-
1.शैलपुत्री2.ब्रह्मचारिणी3.चन्द्रघण्टा4. कूष्माण्डा5. स्कन्दमाता6. कात्यायनी7. कालरात्रि8. महागौरी 9. सिद्धिदात्री
दुर्गा को कुमारी माना गया है इसी वजह से 2वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्या को कुमारी स्वरुप माना गया है। 1 वर्ष की कन्या को गन्ध पुष्प आदि से प्रेम नहीं होता अतः उसे शामिल नहीं किया जाता और 10 वर्ष से अधिक उम्र की कन्या को रजस्वला में गिना जाता है। अतः 2वर्ष, 3वर्ष ,4 वर्ष,5 वर्ष, 6 वर्ष,7 वर्ष, 8 वर्ष,9 वर्ष और 10 वर्ष की कन्याओ का पूजन क्रमशः प्रतिपदा से नवमी तक किया जाये ऐसा विधान है। इस प्रकार 9 कन्याये होती है जिनकी पूजा की जाती है दुर्गा स्वरुप में ,ये भी एक आधार है नव दुर्गा के 9 होने का। ऐसे कई और भी आधार है।कुछ आधार चक्र और कुण्डलिनी से सम्बंधित भी है जिनको गुह्य होने की वजह से सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए।
ॐ दु' दुर्गाये नमः।

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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...