श्री गजेन्द्र मोक्ष श्री शुक उवाच एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो ह्रदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1॥ श्री शुकदेवजी ने कहा- बुद्धि के द्वारा निश्चय करके तथा मन को ह्रदय में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्वजन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन-ही-मन पाठ करने लगा।।१।। गजेन्द्र उवाच ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥ जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं, “ॐ” शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रुप से प्रविष्ट हुए उन सर्वसमर्थ परमेश्वर को हम मन-ही-मन नमन करते हैं।।२।। यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्| योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।। जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रुप में प्रकट हैं-फिर भी जो इस दृश्य जगत् से एवं उसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं-उन अपने-आप-बिना किसी कारण के-बने हुए भगवान् की मैं शरण लेता हूँ।।३।। यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्। अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।। अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरुप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहनेवाले इस शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारण रुप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रुप से देखते रहते हैं-उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।।४।। कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु। तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।। समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकारणरुपा प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ऒर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें।।५।। न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्। यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।। भिन्न-भिन्न रुपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरुप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरुप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है-वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें।।६।। दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः। चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः सुह्रदः स मे गतिः।।७।। आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरुप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं।।७।। न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।। जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकारप्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरुप का न तो कोई नाम है न रुप ही, फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार)-के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं।।८।। तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये। अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।। उन अनन्तशक्तिसम्पन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है।।९।। नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने। नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।। स्वयंप्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को, जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है।।१०।। सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।। विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुख के देने वाले तथा मोक्ष-सुख की अनुभूति रुप प्रभु को नमस्कार है।।११।। नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे। निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।। सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ-से प्रतीत होने वाले, भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है।।१२।। क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।। शरीर, इन्द्रिय आदि के समुदायरुप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरुप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है।।१३।। सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।। सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारणरुप, सम्पूर्ण जड-प्रपञ्च एवं सबकी मूलभूता अविद्यारुप के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारुप से भासने वाले आपको नमस्कार है।।१४।। नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय। सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।। सबके कारण किन्तु स्वयं कारणरहित तथा कारण होने पर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरुप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है।।१५।। गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय। नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।। जो त्रिगुणरुप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानमय अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्यवृत्ति जाग्रत् हो जाती है तथा आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा विधि-निषेधरुप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माऒं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।।१७।। मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय। स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।। मुझ-जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्यारुप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरुप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रुप से प्रकट रहने वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है।।१६।। आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।। शरीर, पुत्र, मित्र, घर, सम्पत्ति एवं कुटुम्बियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरुप, सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है।।१८।। यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।। जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिये उबार लें।।१९।। एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः। अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।। जिनके अनन्य भक्त- जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं- धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र के गोते लगाते रहते हैं।।२०।। तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्। अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।। उन अविनाशी, सर्वव्यापाक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये अप्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होनेवाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किन्तु सबके आदि कारण एवं सब ऒर से परिपूर्ण उन भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।।२१।। यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः। नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।। ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं।।२२। यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः। तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर-यह गुणमय प्रपञ्च जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता है।।२३।। स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः। नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।। वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं, न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक् (मनुष्य से नीची-पशु, पक्षी आदि किसी) योनी के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष ऒर न नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरुप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों।।२४।। जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या। इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।। मैं इस ग्राह के चंगुल से छूटकर जीवित रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर ऒर बाहर-सब ऒर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् कि दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।।२५।। सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्। विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।। इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचयिता, स्वयं विश्व के रुप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मारुप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ-उनकी शरण में हूँ।।२६।। योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते। योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।। जिन्होंने भगवद्भक्तिरुप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने ह्रदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।।२७।। नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय। प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।। जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरुप) शक्तियों का रागरुप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरुप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती हैं- ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है।।२८।। नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्। तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।। जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरुप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरुप को यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमावाले भगवान् की शरण आया हूँ।।२९।। श्री शुक उवाच एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः। नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।। श्रीशुकदेवजी ने कहा- जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेदरहित निराकार स्वरुप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरुप मानते हैं, तब साक्षात् श्रीहरि-जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरुप हैं-वहाँ प्रकट हो गये।।३०।। तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः। छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।। उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुनकर सुदर्शन-चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरुप वेग वाले गरुड़जी की पीठ पर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था।।३१।। सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्। उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।। सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकड़े जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुढ़ की पीठ पर चक्र को उठाये हुए भगवान् श्रीहरि को देखकर अपनी सूँड़ को- जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रखा था-ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनता से ‘सर्वपूज्य भगवान् नारायण, आपको प्रणाम है’, यह वाक्य कहा।।३२।। तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार। ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।। उसे पीड़ित देखकर अजन्मा श्रीहरि एकाएक गरुढ़ को छोड़कर नीचे झील पर उतर आये। वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते-देखते चक्र से उस ग्राह का मुँह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया।।३३।। श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्रमोक्ष की कथा है। द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् के स्तवन और गजेन्द्रमोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय के गज-ग्राह के पूर्वजन्म का इतिहास है। श्रीमद्भागवत में गजेन्द्रमोक्ष-आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्ननाशक और श्रेयःसाधक कहा गया है। तृतीय अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है। इसकी भाषा और भाव सिद्धान्त के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर है। स्वयं भगवान् का वचन है कि ‘जो रात्री के शेष में (ब्राह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में) जागकर इस स्तोत्र के द्वारा मेरा स्तवन करते हैं, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल मति (अपनी स्मृति) प्रदान करता हूँ।
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Friday, 10 September 2021
शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधि
शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधि कभी ऐसा भी होता है कि उचित विधि से शाबर मन्त्र का प्रयोग करने के बाद भी साधना में सिद्धि नहीं मिलती। ऐसे समय शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है। शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधियाँ इस प्रकार हैः- १॰ एक अखण्ड व बड़ा ‘भोजपत्र’ लें। ‘अष्टगन्ध में गंगाजल मिलाकर स्याही बनाए। ‘दाड़िम’ की लेखनी से ‘भोजपत्र’ पर १०८ बार उस मन्त्र को लिखें, जिसे जाग्रत करना है। यदि मन्त्र बड़ा हो, तो ३,५,७,९ या ११ बार लिखें। लेखन के साथ-साथ मन्त्रोच्चारण करता रहे। फिर एक पाटे या चौकी के ऊपर नया वस्त्र बिछाकर मिट्टी का नया कलश रखें, साथ ही मन्त्रलिखित भोजपत्र भी रखें। धूप-दीप-नैवेद्य से भोजपत्र का पूजन करें। पूजन के बाद १०८ बार पुनः मन्त्र का जप करें। ब्राह्मणों को भोजन कराए। गरीबों को दान-दक्षिणा दें। कलश में नया वस्त्र रखकर उसके ऊपर मन्त्र लिखा हुआ भोजपत्र रख दें। कलश का मुँह बन्द कर दें और उसे बहती हुई नदी के जल में प्रवाहित कर दें। प्रवाहित करते समय मन्त्र का उच्चारण करता रहे। विसर्जन के बाद घर आ जायें। २॰ रविवार की रात में ‘असावरी देवी की पूजा कर, काँसे की थाली को राख से स्वच्छ कर उसे सामने रखें और प्रत्येक प्रहर के प्रारम्भ में अभीष्ट मन्त्र को १०८ बार जपें। चौथे (आखिरी) प्रहर में मन्त्र-जप के पश्चात् ‘खैर’ की डण्डी से हिन्दी अथवा मातृभाषा में कहें — “हे मन्त्र देवी जाग्रत हो।” साथ ही उक्त थाली को बजाएँ।
प्रवास में सुविधा पाने के लिए
प्रवास में सुविधा पाने के लिए
साधक को किसी अपरिचित स्थान में रुकने का जब अवसर मिले और उसे ऐसा लगे कि ‘मैं यहां कैसे सुविधा प्राप्त करूँ? यहां मुझे तो कोई पहचानता भी नहीं !’ तब सरलता से सुविधा पाने के लिए निम्न ‘साबर-मन्त्न’ का उपयोग किया जाता है । मन्त्र को उज्जीवित करने के लिए होली या दीपावली की रात्नि में तथा चन्द्र-सूर्य-ग्रहण के समय इस मन्त्र का १०८ बार जप कर लेना चाहिए । इन पर्वो पर साधक को सदा प्रत्येक बार इतना ही जप करते रहना चाहिए, अन्यथा मन्त्र प्रसुप्त हो जाएगा और फल-प्रद नही होगा । मन्त्र :- “गच्छ गौतम ! शीघ्र त्वं, ग्रामेषु नगरेषु च । अशनं वसनं चैव, ताम्बूलं तत्र कल्पय ।।” जहां साधक को ठहरना है, उस स्थान की सीमा में पहुँच कर उक्त मन्त्र को सात (७) बार पड़े । मन्त्र पढ़ते समय सफेद दूर्वा के तीन छोटे टुकड़े हाथ में रखने चाहिए । सात बार मन्त्र पढ़कर दूर्वा के टुकड़ों को शिखा या बालों में उलझाए । ठहरने के स्थान पर सब सुविधा मिलने तक इन टुकड़ों को केशों में उलझा रहने दे । आपको यदि ऐसा लगे कि ठीक समय पर सफेद दूर्वा नहीं मिलेगी, तो उसे यात्रा और पर्यटन में अपने साथ ले जाए ।
श्रीविद्या
श्री विद्या देवी ललिता त्रिपुरसुन्दरी से सम्बन्धित तन्त्र विद्या का हिन्दू सम्प्रदाय है। ललितासहस्रनाम में इनके एक सहस्र (एक हजार) नामों का वर्णन है। ललितासहस्रनाम में श्रीविद्या के संकल्पनाओं का वर्णन है। श्रीविद्या सम्प्रदाय आत्मानुभूति के साथ-साथ भौतिक समृद्धि को भी जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार करता है।
श्रीविद्या का साहित्य विशाल है। ऋग्वेद मैं श्रीसूक्त मैं श्रीदेवी मतलब महालक्ष्मी जो परमेश्वरि के उपासना किया जाता हैं। ये ही वैदिक श्रीविद्या हैं।
श्रीविद्या के भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनन्त नाम और अनन्त रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के मतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है।
श्रीविद्या के उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुह्य विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं, यथा- मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।श्री विद्या के जो प्रायः लुप्तप्राय मत है वो आज भी प्राचीनतम आगम मठ पूर्णतः प्रचलित है आगम मठ कैलाश पर्वत से लेकर भूटान की तलहटी तक पाँच मठो मे विभाजित है
श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्रराज और त्रिपुरोपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता है।
लोपामुद्रा अगस्त्य की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया था। त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त किया। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।
दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि -
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां, भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थे, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।
त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम 'ललिता' है। ऐसी किवदंति है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किया। जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तार विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण किया। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री, वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। सम्मोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महाविद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना। दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
गौड संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं।
1. तंत्रराज - इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानन्दनाथ कृत मनोरमा मुख्य है। इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।
2. तंत्रराजोत्तर
3. परानन्द या परमानन्दतंत्र - किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।
4. सौभाग्यकल्पद्रुम - परमानंद के अनुसार यह श्रेष्ठ ग्रंथ है।
5. सौभाग्य कल्पलतिका (क्षेमानन्द कृत)
6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।
7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।
8-9. श्रीक्रमसंहिता तथा वृहदश्रीक्रमसंहिता।
10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता - यह 66 पटल में है।
11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।
12. कालात्तर वासना - सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।
13. त्रिपुरार्णव।
14. श्रीपराक्रम - इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।
15. ललितार्चन चंद्रिका - यह 17 अध्याय में है।
16. सौभाग्य तंत्रोत्तर
17. मातृकार्णव
18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)
19. सौभाग्य सुभगोदय - (अमृतानंदनाथ कृत)
20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)
21. त्रिपुरा रहस्य - (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)
22. श्रीक्रमात्तम - (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)
23. अज्ञात अवतार - इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।
24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।
26. चंद्रपीठ
27. संकेतपादुका
28. सुंदरीमहोदय - शंकरानंदनाथा कृत
29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)
30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।
31. ललितोपाख्यान - यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।
32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत)
33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)
34. विरूपाक्ष पंचाशिका
35. कामकला विलास
36. श्री विद्यार्णव
37. शाक्त क्रम (पूर्णानन्दकृत)
38. ललिता स्वच्छंद
39. ललिताविलास
40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)
41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)
42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)
43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)
44. त्रिपुरासार
45. सौभाग्य सुभगोदय: (विद्यानन्द नाथ कृत)
46. संकेत पद्धति
47. परापूजाक्रम
48. चिदंबर नट।
तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानन्द नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परन्तु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।
त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी-किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषद में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षर वाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।
मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है 'त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र'। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्तरचतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण है। यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिस पर शंकराचार्य की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।
इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्तिसूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृत कल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचन सत् तरह सौ तिरप्पनशकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्नसूत्र प्रसिद्ध है। इस पर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुरसूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदुसूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौलसूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चार्य ने सौंदर्यलहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललितासहस्रनाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।
श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।
तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।
भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। 'नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।'
ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है जो सुंदरी से भिन्न है (उसमें प्रपंच नहीं है)। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई-कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।
शाबर मन्त्र साधना
शाबर मन्त्र साधना के महत्त्वपूर्ण तथ्य
१॰ इस साधना को किसी भी जाति, वर्ण, आयु का पुरुष या स्त्री कर सकती है । २॰ इन मन्त्रों की साधना में गुरु की इतनी आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि इनके प्रवर्तक स्वयं सिद्ध-साधक रहे हैं । इतने पर भी कोई निष्ठा-वान् साधक गुरु बन जाए, तो कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि किसी होने वाले विक्षेप से वह बचा सकता है । ३॰ साधना करते समय किसी भी रंग की धुली हुई धोती पहनी जा सकती है तथा किसी भी रंग के कम्बल का आसन बिछाया जा सकता है । ४॰ साधना में घी या मीठे तेल का दीपक प्रज्वलित रखना चाहिए, जब तक मन्त्र जप चले । ५॰ अगर-बत्ती या धूप किसी भी प्रकार की प्रयुक्त हो सकती है, गूग्गूल तथा लोबान की अगरबत्ती या धूप विशेष महत्ता मानी गई है । ६॰ जहाँ ‘दिशा’ का निर्देश न हो, वहाँ पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके साधना करनी चाहिए । ७॰ जहाँ माला का निर्देश न दिया हो, वहाँ कोई भी ‘माला’ प्रयोग में ले सकते हैं । ‘रुद्राक्ष’ की माला सर्वोत्तम मानी गयी है । ८॰ ‘शाबर’ मन्त्रों पर पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक है । अधूरा विश्वास या मन्त्रों पर अश्रद्धा होने पर फल नहीं मिलता । १०॰ साधना-काल में एक समय भोजन करें और ब्रह्मचर्य-पालन करें । ।मन्त्र-जप करते समय नहा-धोकर बैठना चाहिए । ११॰ साधना दिन या रात्रि किसी भी समय कर सकते हैं । १२॰ मन्त्र का जप ‘जैसा-का-तैसा’ करें । उच्चारण शुद्ध रुप से करें, लेकिन मन्त्र की वर्तनी आदि न सुधारें । १३॰ साधना-काल में हजामत बनवा सकते हैं । अपने सभी कार्य-व्यापार या नौकरी आदि सम्पन्न कर सकते हैं । १४॰ मन्त्र-जप घर में एकान्त कमरे में या मन्दिर में या नदी के किनारे – कहीं भी किया जा सकता है । १५॰ ‘शाबर’- मन्त्र की साधना यदि अधूरी छूट जाए या साधना में कोई कमी रह जाए, तो किसी प्रकार की हानि नहीं होती । शाबर मेरु मन्त्र तथा आत्म रक्षा मन्त्र किसी भी शाबर मन्त्र को सिद्ध करने से पूर्व शाबर मेरु मन्त्र या सर्वार्थ-साधक मन्त्र को सिद्ध कर लेना चाहिए । इसके लिए शाबर मेरु-मन्त्र अथवा सर्वार्थ-साधक मन्त्र का १० माला जप कर, १०८ बार हवन करना चाहिए । यथा – सर्वार्थ-साधक-मन्त्र- “गुरु सठ गुरु सठ गुरु हैं वीर, गुरु साहब सुमरौं बड़ी भाँत । सिंगी टोरों बन कहौं, मन नाऊँ करतार । सकल गुरु की हर भजे, घट्टा पकर उठ जाग, चेत सम्भार श्री परम-हंस ।” इसके पश्चात् गणेश जी का ध्यान करके निम्न मन्त्र की एक माला जपें – ध्यानः- “वक्र-तुन्ड, माह-काय ! कोटि-सूर्य-सम-प्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव ! सर्व-कार्येषु सर्वदा ।।” मन्त्रः- “वक्र-तुण्डाय हुं ।” फिर निम्न-लिखित मन्त्र से दिग्बन्धन कर लें – “वज्र-क्रोधाय महा-दन्ताय दश-दिशो बन्ध बन्ध, हूं फट् स्वाहा ।” उक्त मन्त्र से दशों दिशाएँ सुरक्षित हो जाती है और किसी प्रकार का विघ्न साधक की साधना में नहीं पड़ता । नाभि में दृष्टि जमाने से ध्यान बहुत शीघ्र लगता है और मन्त्र शीघ्र सिद्ध होते हैं । हवनः- साधारण हवन सामग्री तथा गौ-घृत से १०८ बार मूल मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ का उच्चारण करते हुए हवन करें । आत्म-रक्षा मन्त्रः- “ॐ नमः वज्र का कोठा, जिसमें पिण्ड हमारा पैठा । ईश्वर कुञ्जी, ब्रह्मा ताला, मेरे आठों याम का यती हनुमन्त रखवाला ।” तीन बार उक्त मन्त्र का जप करने से शरीर की सदा रक्षा होती है । ‘शाबर मेरु मन्त्र’ और ‘आत्म रक्षा मन्त्र’ को चैतन्य करने के बाद आवश्यक प्रयोग करने से कार्य-सिद्धि शीघ्र होती है अन्यथा हानि, कार्य-सिद्धि में विलम्ब या निष्फलता की प्राप्ति होती है।
शरीर रक्षा शाबर
शरीर रक्षा शाबर मन्त्र ‘मन्त्र-विद्या’ का प्रयोग करने वाले को देहाती भाषा में ‘ओझा’ कहते हैं।
शरीर रक्षा शाबर मन्त्र मन्त्रः- “ॐ नमः वज्र का कोठा, जिसमें पिण्ड हमारा बैठा । ईश्वर कुञ्जी, ब्रह्मा का ताला, मेरे आठों याम का यति हनुमन्त रखवाला ।” प्रयोग एवं विधिः- किसी मंगलवार से उक्त मन्त्र का जप करे । दस हजार जप द्वारा पुरश्चरण कर लें । श्री हनुमान् जी को सवाया रोट का चूरमा (गुड़, घी मिश्रित) अर्पित करें । कार्य के समय मन्त्र का तीन बार उच्चारण कर शरीर पर हाथ फिराएँ, तो शरीर रक्षित हो जाता है ।
सिद्ध शाबर मन्त्र-कल्पतरु आत्म-बल, स्व-शरीर-रक्षा का अनुभूत मन्त्र मन्त्र :- (१) “ॐ गुरू जी काल-भैरव ! काली लट हाथ, फरसी साथ, नगरी करहुँ प्रवेश । नगरी की करो बकरी । राजा को करो बिलाई । जो कोई मेरा जोग भङ्ग करै, बाबा कृष्णनाथ की दुहाई ।” विधि – किसी ग्राम या नगर में किसी विशिष्ट काम से जाएँ, तो उस नगर या गाँव में प्रवेश करते ही ७ बार उक्त मन्त्र को पढ़कर फूँक मार कर प्रवेश करें । सभी काम अवश्य पूर्ण होंगे । प्रयोग करने से पूर्व मन्त्र को होली, दीवाली, मङ्गल या अमावास्या को १००८ बार जप कर, हवन कर, सिद्ध कर लेना आवश्यक है ।
सिद्ध शाबर मन्त्र-कल्पतरु आत्म-बल, स्व-शरीर-रक्षा का अनुभूत मन्त्र मन्त्र :- “ॐ गुरू जी गनेपाइयाँ, रिद्धि-सिद्धि आइयाँ । रिद्धि-सिद्धि भरै भण्डार, कमी कछू की नाहीं । पीर-पैगम्बर औलिया- सबको राह बताई । हाथा तो हनुमन्त बसे, भैरो बसे कपाल । दो नैनन बिच, नाहर सिंह, मोह लीन संसार । बिन्द्रा लाव, सिन्दूर का सोहै माँग लिलार । बज्र लंगोटा, जङ्गल बासा, भूत – प्रेत नहीं आवे पासा । चार जोगी चौबीस पीर, रक्षा करै बावल्दा बीर । हाथन के हथेली बाँधो, नैनन के बाँधो जोत । बाँध-बाँधू कर करौ उ गुलाम, बैरी दुश्मन करै प्रणाम । राजा-प्रजा लागै पाँव, तहाँ बनै गनेश जी की तालियाँ ।” विधि-उक्त मन्त्र से लक्ष्मण-रेखा की भाँति अचूक रक्षा होती है । सिद्ध पर्व-काल में १००८ बार मन्त्र जप कर हवन करने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।
ओझा’ भी जब झाड़-फूँक ले लिए कहीं जाता है, तो घर से चलते समय या उस स्थान पर पहुँच कर सबसे पहले अपने शरीर की रक्षा के लिए शरीर-रक्षा का मन्त्र पढ़ लेता है, जिससे यदि उस स्थान पर भूत-प्रेतादि का उपद्रव हो, तो उसे हानि न पहुँचा सके । शरीर-रक्षा का ऐसा ही एक मन्त्र यहाँ उद्धृत है – ” उत्तर बाँधों, दक्खिन बाँधों, बाँधों मरी मसानी, डायन भूत के गुण बाँधों, बाँधों कुल परिवार, नाटक बाँधों, चाटक बाँधों, बाँधों भुइयाँ वैताल, नजर गुजर देह बाँधों, राम दुहाई फेरों ।” प्रयोग विधिः- उक्त मन्त्र को अधिक-से-अधिक संख्या में किसी पर्व-काल में जप लेने से वह सिद्ध हो जाता है । शरीर-रक्षा की आवश्यकता पड़े, तो सिद्ध मन्त्र का नौ बार उच्चारण करके हाथ की हथेली पर नौ बार फूँक मारे और हथेली को पूरे शरीर पर फिरा दें । इससे देह बँध जाएगी ।
शरीर रक्षा शाबर मन्त्र मन्त्रः- “ॐ नमः वज्र का कोठा, जिसमें पिण्ड हमारा बैठा । ईश्वर कुञ्जी, ब्रह्मा का ताला, मेरे आठों याम का यति हनुमन्त रखवाला ।” प्रयोग एवं विधिः- किसी मंगलवार से उक्त मन्त्र का जप करे । दस हजार जप द्वारा पुरश्चरण कर लें । श्री हनुमान् जी को सवाया रोट का चूरमा (गुड़, घी मिश्रित) अर्पित करें । कार्य के समय मन्त्र का तीन बार उच्चारण कर शरीर पर हाथ फिराएँ, तो शरीर रक्षित हो जाता है ।
सिद्ध शाबर मन्त्र-कल्पतरु आत्म-बल, स्व-शरीर-रक्षा का अनुभूत मन्त्र मन्त्र :- (१) “ॐ गुरू जी काल-भैरव ! काली लट हाथ, फरसी साथ, नगरी करहुँ प्रवेश । नगरी की करो बकरी । राजा को करो बिलाई । जो कोई मेरा जोग भङ्ग करै, बाबा कृष्णनाथ की दुहाई ।” विधि – किसी ग्राम या नगर में किसी विशिष्ट काम से जाएँ, तो उस नगर या गाँव में प्रवेश करते ही ७ बार उक्त मन्त्र को पढ़कर फूँक मार कर प्रवेश करें । सभी काम अवश्य पूर्ण होंगे । प्रयोग करने से पूर्व मन्त्र को होली, दीवाली, मङ्गल या अमावास्या को १००८ बार जप कर, हवन कर, सिद्ध कर लेना आवश्यक है ।
सिद्ध शाबर मन्त्र-कल्पतरु आत्म-बल, स्व-शरीर-रक्षा का अनुभूत मन्त्र मन्त्र :- “ॐ गुरू जी गनेपाइयाँ, रिद्धि-सिद्धि आइयाँ । रिद्धि-सिद्धि भरै भण्डार, कमी कछू की नाहीं । पीर-पैगम्बर औलिया- सबको राह बताई । हाथा तो हनुमन्त बसे, भैरो बसे कपाल । दो नैनन बिच, नाहर सिंह, मोह लीन संसार । बिन्द्रा लाव, सिन्दूर का सोहै माँग लिलार । बज्र लंगोटा, जङ्गल बासा, भूत – प्रेत नहीं आवे पासा । चार जोगी चौबीस पीर, रक्षा करै बावल्दा बीर । हाथन के हथेली बाँधो, नैनन के बाँधो जोत । बाँध-बाँधू कर करौ उ गुलाम, बैरी दुश्मन करै प्रणाम । राजा-प्रजा लागै पाँव, तहाँ बनै गनेश जी की तालियाँ ।” विधि-उक्त मन्त्र से लक्ष्मण-रेखा की भाँति अचूक रक्षा होती है । सिद्ध पर्व-काल में १००८ बार मन्त्र जप कर हवन करने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।
Tuesday, 7 September 2021
श्री राजराजेश्वरी अष्टकम्
अम्बा शाँभवि चन्द्रमौलि रमलाऽपर्णा उमा पार्वती काली हैमवती शिवा त्रिनयनी कात्यायनी भैरवी ।
सावित्री नवयौवना शुभकरी साम्राज्य लक्ष्मीप्रदा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा मोहिनी देवता त्रिभुवनी आनन्द सन्दायिनी वाणी पल्लव पाणि वेणु मुरली गानप्रिया लोलिनी ।
कल्याणी उडुराजबिंब वदना धूम्राक्ष संहारिणी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा नूपुर रत्न कंकणधरी केयूर हारावली जाती चंपक वैजयन्ति लहरी ग्रैवेयकै राजिता ।
वीणा वेणु विनोद मण्डित करा वीरासने संस्थिता चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा रौद्रिणि भद्रकालि बगला ज्वालामुखी वैष्णवी ब्रह्माणी त्रिपुरान्तकी सुरनुता देदीप्यमानोज्वला ।
चामुण्डा श्रितरक्ष पोष जननी दाक्षायणी वल्लवी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा शूल धनु: कशाँकु़शधरी अर्धेन्दु बिम्बाधरी वाराही मधुकैटभ प्रशमनी वाणी रमा सेविता ।
मल्लाद्यासुर मूकदैत्य मथनी माहेश्वरी चाम्बिका चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा सृष्टिविनाश पालनकरी आर्या विसंशोभिता गायत्री प्रणवाक्षरामृतरस: पूर्णनुसन्धी कृता ।
ओंकारी विनतासुतार्चित पदा उद्दण्ड दैत्यापहा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा शाश्वत आगमादि विनुता आर्या महादेवता या ब्रह्मादि पिपलिकान्त जननी या वै जगन्मोहिनी ।
या पन्चप्रणवादि रेफजननी या चित्कला मालिनी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
अम्बा पालित भक्तराजमनिशं अम्बाष्टकमं य: पठेत अम्बा लोल कटाक्षवीक्ष ललितं चैश्वर्यमव्याहतम् ।
अम्बा पावन मन्त्र राज पठनात् अन्ते च मोक्षप्रदा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।
।। माँ हो भगवती ।।
अथ दुर्गा सूक्तम्
ॐ जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीयतो निदहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरिताऽत्यग्निः ॥ १॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं
कर्मफलेषु जुष्टाम् । दुर्गां देवीꣳ शरणमहं
प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः ॥ २॥
अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान्थ्स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा ।
पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शंयोः ॥ ३॥
विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुन्न नावा दुरिताऽतिपर्षि ।
अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ॥ ४॥
पृतना जितꣳ सहमानमुग्रमग्निꣳ हुवेम परमाथ्सधस्थात् ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवो अति दुरितात्यग्निः ॥ ५॥
प्रत्नोषि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सथ्सि ।
स्वाञ्चाग्ने तनुवं पिप्रयस्वास्मभ्यं च सौभगमायजस्व ॥ ६॥
गोभिर्जुष्टमयुजो निषिक्तन्तवेन्द्र विष्णोरनुसंचरेम ।
नाकस्य पृष्ठमभि संवसानो वैष्णवीं लोक इह मादयन्ताम् ॥ ७॥
ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारि धीमहि । तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥
॥ इति दुर्गा सूक्तम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
श्री महालक्ष्म्यष्टकम्
श्री गणेशाय नमः
नमस्तेस्तू महामाये श्रीपिठे सूरपुजिते ।
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ १ ॥
नमस्ते गरूडारूढे कोलासूर भयंकरी ।
सर्व पाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ २ ॥
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी ।
सर्व दुःख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥३ ॥
सिद्धीबुद्धूीप्रदे देवी भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ।
मंत्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ४ ॥
आद्यंतरहिते देवी आद्यशक्ती महेश्वरी ।
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ५ ॥
स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ती महोदरे ।
महापाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ६ ॥
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हस्वरूपिणी ।
परमेशि जगन्मातर्र महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ७ ॥
श्वेतांबरधरे देवी नानालंकार भूषिते ।
जगत्स्थिते जगन्मार्त महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ८ ॥
महालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेत् भक्तिमान्नरः ।
सर्वसिद्धीमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥ ९ ॥
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनं ।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्य समन्वितः ॥१०॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रूविनाशनं ।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥११॥
॥इतिंद्रकृत श्रीमहालक्ष्म्यष्टकस्तवः संपूर्णः ॥
श्रीयंत्र साधना
श्री यंत्र
चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥
श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकलाविलास , त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है । इन्हीं पुराणों में वर्णित भगवती महात्रिपुरसुन्दरी स्वयं कहती हैं- ‘श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’’
श्री यंत्र में २८१६ देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है। इसीलिए इसे यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दूर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है । जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है.
जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । जिस तरह मंत्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।
मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्री यंत्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। श्री यंत्र की पूजा से लाभ: शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है। इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मंत्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है।
यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है । इस यंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं । श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुख दारिद्र्य का नाश होता है । श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं कीे कृपा भी प्राप्त हो सकती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।
श्री यंत्र का निर्माण
श्री यंत्र का रूप ज्यामितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है । तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो ‘सृष्टि-क्रिया निर्माण’ कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो ‘संहार-क्रिया निर्माण’ कहलाता है। श्री यंत्र में ९ त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की ९ मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाये जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ५ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये ५ ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। ४ अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और ५ अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं। यह श्रीयंत्र कश्मीर संप्रदाय में कौल मत के अनुयायी उपयोग में लाते हैं।
श्री यंत्र में ९ त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर ४३ छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो ४३ विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो ४३ त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम १०, नियम १०, आसन ८, प्रत्याहार ५, धारण ५, प्राणायाम ३, ध्यान २, होते हैं । इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ ८ कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर १६ दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है।
मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी ९ चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ रक्त बिंदु फिर पीला त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर हरे रंग के ८ त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर काले रंग के १० त्रिकोण सर्वरोगनाशक हैं। फिर लाल रंग के १० त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर नीले १४ त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर गुलाबी ८ कमलदल का समूह दुख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर पीले रंग के १६ कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर हरे रंग का भूपुर त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन ९ चक्रों की अष्ठिात्री ९ देवियों के नाम इस प्रकार हैं:- १. त्रिपुरा २. त्रिपुरेशी ३. त्रिपुरसुंदरी ४. त्रिपुरवासिनी, ५. त्रिपुराश्री, ६. त्रिपुरामालिनी, ७. त्रिपुरासिद्धा, ८. त्रिपुरांबा और ९. महात्रिपुरसुंदरी।
आज बाजार में अनेक धातुओं ओर रत्नों के बने श्री यंत्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, किंतु वे विधिवत सिद्ध व प्राणप्रतिष्ठित नहीं होते हैं । सिद्ध श्री यंत्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन आदि करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्री यंत्र समृद्धि देने वाला बनता है । ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि श्री यंत्र रत्नों का ही बना हो, श्री यंत्र तांबे पर बना हो अथवा भोजपत्र पर बना हो, जब तक उसमें मंत्र व देवशक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात फल प्रदान करने वाला नहीं होता है, इसलिए सदैव विधिवत प्राणप्रतिष्ठित श्रीयन्त्र ही स्वीकार करना चाहिए।
श्रीयंत्र स्थापन पूजन विधान
इस यंत्र को पूजा स्थान के अलावा अपनी अलमारी में भी रखा जा सकता है, फैक्टरी या कारखाने अथवा किसी महत्वपूर्ण स्थान पर भी स्थापित किया जा सकता है। जिस दिन से यह स्थापित होता है, उसी दिन से साधक को इसका प्रभाव अनुभव होने लगता है।
श्रीयंत्र का पूजन विधान काफी विस्तृत है लेकिन साधकों की आवश्यकता अनुसार हम यहाँ बहुत ही सरल और स्पष्ट विधान दे रहे है। स्नान, ध्यान शुद्ध पीले रंग के वस्त्र धारण कर, पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर पीले या सफेद आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक चौकी स्थापित कर उस पर लाल वस्त्र बिछा लें। गृहस्थ व्यक्तियों को श्रीयंत्र का पूजन पत्नी सहित करना सिद्धि प्रदायक बताया गया है। आप स्वयं अथवा पत्नी सहित जब श्रीयंत्र का पूजन सम्पन्न करें तो पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ही पूजन सम्पन्न करें।
साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर गुरु का ध्यान करें।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।
बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें। इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का आगे लिखे विधान से पूजन आरंभ करें।
“ श्री यन्त्र पूजन विधान (संक्षिप्त) “
( “प्रपञ्चसार तन्त्र”, “श्रीविद्यार्णव तन्त्र” एवं “शारदातिलक तन्त्र” के आधार पर )
विनियोगः-
ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि । अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे । श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये । “तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ ।मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमःसर्वांगे।
अंग-न्यासः-
‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें ।
१ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१० ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः
षडङ्ग-न्यास〰️कर-न्यास〰️अंग-न्यास
ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।
ध्यानः-
या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।
अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः-
इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें। -
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
अब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से( पात्रासादन पूजनं ) अर्घ्य एवं पाध्य -आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें।
‘सर्वतोभद्र-मण्डल′ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें।
यथा -
श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः।
मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके - “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ‘ का पूजन करे।
‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे। भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे।
यथा -
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !
हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि, इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव !
आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके –
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः ।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।
” इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे ।
उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे ।
यथा -
१ आसन -
ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।।
देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।
२ अर्घ्य-दान -
ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।।
‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।
३ पाद्य -
ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।।
चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।
४ आचमनीय -
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।।
मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।
५ मधु-पर्क -
ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।।
।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा ।
पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।।
पुनः आचमन समर्पित करें ।
६ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) -
ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।।
‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।
७ वस्त्र -
ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।।
पुनः आचमन कराए ।
८ आभूषण -
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।
९ गन्ध -
ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।
१० पुष्प -
ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।।
११ धूप -
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।।
ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।
।।श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।
१२ दीप -
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।।
ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।।
दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।
१३ नैवेद्य -
देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल′ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें -
ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें ।
दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा ।
तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ ।
“हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें ।
फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।
१४ ताम्बूल -
ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।।
‘ताम्बूल′ देकर प्रणाम करें ।
आवरण-पूजा पुरश्चरण-विधान
आवरण-पूजा
भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे ।
यथा -
ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।
प्रथम आवरण
केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे -
१ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।
द्वितीय आवरण
पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा -
१ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
८ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें ।
यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
तृतीय आवरण
भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे । यथा -
लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच ।
तृतीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, तृतीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
चतुर्थ आवरण
इन्द्रादि दिक्पालों के समीप ही उनके ‘वज्र’ आदि आयुधों का अर्चन करें । यथा -
ॐ वं वज्राय नमः, ॐ वज्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ शक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ दण्ड-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ खड्ग-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ पाश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ अंकुश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं गदायै नमः, ॐ गदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः, ॐ त्रिशूल-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पं पद्माय नमः, ॐ पद्म-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ चं चक्राय नमः, ॐ चक्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
चतुर्थ आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, चतुर्थावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
प्रथम ऋचा से कर्णिका में महा-देवी महा-लक्ष्मी का पुष्प-धूप-गन्ध, दीप और नैवेद्य आदि उपचारों से पुनः पूजन करें ।
तत्पश्वात् पूजा-यन्त्र में देवी के समक्ष गन्ध-पुष्प-अक्षत से भगवती के ३२ नामों से पूजन-तर्पण करें ।
१ ॐ श्रियै नमः । श्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२ ॐ लक्ष्म्यै नमः । लक्ष्मी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३ ॐ वरदायै नमः । वरदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
४ ॐ विष्णु-पत्न्यै नमः । विष्णु-पत्नी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
५ ॐ वसु-प्रदायै नमः । वसु-प्रदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
६ ॐ हिरण्य-रुपिण्यै नमः । हिरण्य-रुपिणी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
७ ॐ स्वर्ण-मालिन्यै नमः । स्वर्ण-मालिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
८ ॐ रजत-स्रजायै नमः । रजत-स्रजा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
९ ॐ स्वर्ण-गृहायै नमः । स्वर्ण-गृहा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१० ॐ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
११ ॐ पद्म-वासिन्यै नमः । पद्म-वासिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१२ ॐ पद्म-हस्तायै नमः । पद्म-हस्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१३ ॐ पद्म-प्रियायै नमः । पद्म-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१४ ॐ मुक्तालंकारायै नमः । मुक्तालंकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१५ ॐ सूर्यायै नमः । सूर्या-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१६ ॐ चन्द्रायै नमः । चन्द्रा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१७ ॐ बिल्व-प्रियायै नमः । बिल्व-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१८ ॐ ईश्वर्यै नमः । ईश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१९ ॐ भुक्तयै नमः । भुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२० ॐ प्रभुक्तयै नमः । प्रभुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२१ ॐ विभूत्यै नमः । विभूति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२२ ॐ ऋद्धयै नमः । ऋद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२३ ॐ समृद्धयै नमः । समृद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२४ ॐ तुष्टयै नमः । तुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२५ ॐ पुष्टयै नमः । पुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२६ ॐ धनदायै नमः । धनदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२७ ॐ धनेश्वर्यै नमः । धनेश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२८ ॐ श्रद्धायै नमः । श्रद्धा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२९ ॐ भोगिन्यै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३० ॐ भोगदायै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३१ ॐ धात्र्यै नमः । धात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३२ ॐ विधात्र्यै नमः । विधात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
उपर्युक्त ३२ नामों से भगवती के निमित्त हविष्य ‘बलि’ प्रदान करने का भी विधान है ।
श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं से नीराजन और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदुपरान्त पुनः न्यास करके श्री-सूक्त का पाठ करे । ‘क्षमापन-स्तोत्र’ का पाठ करके पूजन और पाठ का फल भगवती को समर्पित करके विसर्जन करे ।
विशेष
पुरश्चरण-काल में और बाद में भी प्रति-दिन सूर्योदय के समय जलाशय में स्नान करके सूर्य-मण्डलस्था भगवती महा-लक्ष्मी का उपर्युक्त ३२ नामों से तर्पण करना ‘श्री-सूक्त’ के साधकों के लिए आवश्यक है ।( संक्षिप्त आराधन )
माँ परा अम्बा भगवती राजराजेश्वरी महालक्ष्मी प्रसन्नोस्तु ।
मां का ध्यान
ध्यानम्
खड्गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करौस्त्रिनयनां सर्वाड्गभूषावृताम्।
नीलाश्म-द्युतिमास्य-पाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुंमधुं कैटभम्॥
भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने पर महा- बलवान् दैत्य मधु कैटभ के संहार-निमित्त पद्मयोनि-ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन महाकाली देवी का मैं स्मरण करता हूँ। वे अपने दस भुजाओँ में क्रमशः खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ (फेंककर चलाया जाने वाला एक प्राचीन अस्त्र), शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। वह तीन नेत्रोँ से युक्त हैं और उनके संपूर्ण अंगों में दिव्य आभूषण पड़े हैं। नीलमणि के सदृश उनके शरीर की आभा है एवं वे दसमुखी तथा पादोँ वाली हैं।
ध्यानम्
ॐ अक्ष-स्रक्-परशुं गदेषु-कुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूल पाश-सुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
मैं कमलासन पर आसीन प्रसन्नवदना महिषासुरमर्दिनी भगवती श्रीमहालक्ष्मी का ध्यान करता हूँ। जिनके हाथों में रुद्राक्ष की माला फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घण्टा, सुरापात्र, शूल, पाश, और चक्र सुशोभित है।
ध्यानम्
ॐ घण्टा शूल-हलानि शंखमुसले चक्रं धनु: सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
जिनके कर-कमलोँ में घण्टा, शूल, हल, शंख, मुसल, चक्र और धनुष-बाण है, जिनके शरीर की दीप्ति शारदीय चंद्र के समान सुंदर है, जो त्रैलोक्य की आधारभूता और शुम्भ-निशुम्भ आदि दैत्योँ का संहार करनेवाली हैं, उन गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न महासरस्वती देवी का मैं निरंतर स्मरण करता हूँ।
शुक्रवार को श्रीसूक्त अथवा श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ होता है
जिस घर में नियमित रूप से अथवा प्रत्येक शुक्रवार को श्रीसूक्त अथवा श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ होता है। वहां माँ लक्ष्मी का स्थाई वास होता है|
पर्त्येक सप्ताह घर में फर्श पर पोचा लगते समय थोडा सा समुंदरी नमक मिला लिया करें ऐसा करने से घर में होने वाले झगरे कम होते हैं|इसके अतिरिक्त यह भी लाभ मिलता है आपको नहीं मालूम की आपके घर में आने वाला अतिथि n कहाँ से आया है,तथा उसके मन में आपके प्रति क्या विचार है,नमक मिले पानी से पोचा लगाने से सारी नकारात्मक उर्जा समाप्त हो जाती है|
प्रात: उठ कर गृह लक्ष्मी यदि मुख्य द्वार पर एक गिलास अथवा लोटा जल डाले तो माँ लक्ष्मी के आने का मार्ग प्रशस्त होता है|
यदि आप चाहतें हैंकि घर में सुख शांति बनी रहे तथा आप आर्थिक रूप से समर्थ रहें तो प्रत्येक अमावस्या को अपने घर की पूर्ण सफाई करवा दें|जितना भी फ़ालतू सामान इकठा हुआ हो उसे क्बारी को बेच दें अथवा बाहर फेंक दें ,सफाई के बाद पांच अगरबती घर के मंदिर में लगायें|
यदि आप प्रत्येक पूर्णिमा हवन कर सकें तो बहुत ही शुभ है |इसके लिए यदि आपको कोई मन्त्र नहीं आता है तो सिर्फ इतना करें की किसी कंडे(गोहा)अथवा उपले पर अग्नि प्रजव्लित कर ॐ के उच्चारण से १०८ आहुति दें|यह आपकी धार्मिक भावना को जताता है|
महीने में दो बार किसी भी दिन उपले पर थोड़ी सी लोबान रख कर उसके धुएं को पूरे घर में घुमाएं|
यदि आप के पूजा काल में कोई मेहमान आता है तो यह बहुत शुभ है,इस समय उस मेहमान को जल पान अवश्य करवाएं|यदि संध्या काल की पूजा में कोई सुहागिन स्त्री आती है तो आपका बहुत ही सोभाग्य है|आप यह समझें की आपके घर माँ लक्ष्मी का परवेश हो चूका है|
आप जब भी घर वापिस आयें तो कभी खली हाथ न आयें|यदि आप बाज़ार से कुछ लेने की स्थिति में नही हैं तो रास्ते से एक कागज़ का टुकड़ा उठा लायें |
आपकी साधना अर्थात पूजा काल में कोई बच्चा रोता है तो यह आपके लिए शुभ नही है|इसके लिए आप ज्ञानी व्यक्ति से संपर्क कर पता लगायें की क्या वजह है|इसका सामान्य कारन यह हो सकता है की आपके घर में कोई नकारात्मक शक्ति अवश्य है|
आप के निवास में अग्नेकोण(पूर्व वह दक्षिण का होना)में यदि गलती से कोई पानी की वयवस्था हो गयी है तो यह वास्तु शास्त्र के अनुसार बहुत बड़ा दोष है|इसके लिए आप उस स्थान पर चोबीस घंटे एक लाल बल्ब जलता रहने दें|शाम को उस स्थान पर एक दीपक अवश्य रखें|
घर में कभी नमक किसी खुले डीबे में न रखें|
घर के जितने भी दरवाजे हों उनमें समय समय पर तेल अवश्य डालते रहना चाहिए|उनमें से किसी भी प्रकार की आवाज़ नही आनी चाहिए|
घर में अगर किसी दिन कोई बच्चा सुबह उठते ही कुछ खाने को मांगे अथवा बिना कारन के रोने लगे तो उस दिन घर प्रत्येक सदस्य को सावधान रहने की आवश्यकता है,क्यूंकि यह बात कुछ असुविधा को जताती है|
कभी भी किसी को दान दें तो उसे घर की देहली में अन्दर न आने दें,दान घर की देहली के अन्दर से ही करें|
यदि नियमित रूप से घर की प्रथम रोटी गाय को तथा अंतिम रोटी कुते को दें तो आपके भाग्य के द्वार खोलने से कोई नही रोक सकता|
आप अपने निवास में कुछ कच्चा स्थान अवश्य रखें|यदि संभव हो तो यह घर के मध्य स्थान में रखें|यदि यहाँ तुलसी का पौधा लगा है तो फिर आपके कार्यों में कोई भी रूकावट नही आ सकती|
आप यदि अपने व्यस्त जीवन में गुरूवार को केले के वृक्ष पर सदा जल अर्पित कर घी का दीपक तथा शनिवार को पीपल के वृक्ष में गुड,दूध मिर्षित जल वह सरसों के तेल का दीपक अर्पित करें तो कभी भी आर्थिक रूप से परेशान नही होंगे|
आर्थिक सम्पनता के लिए आप नियम बना लें की नित्य ही किसी भी पीपल के दरखत में जल अवश्य दें|
नजर झाड़ने का मंत्र---
ॐ नमो सत्य नाम आदेशगुरु को
ॐ नमो नजर जहाँ पर पीर न जानी
बोले छल सो अमरत बानी
कहो नजर कहाँ ते आई
यहाँ की ठौर तोहि कौन बताई
कौन जात तेरा कहाँ ठाम
किसकी बेटी कह तेरो नाम
कहाँ से उड़ी कहाँ को जाय
अब ही बस कर ले तेरी माया
मेरी बात सुनो चित लाए
जैसी होय सुनाऊँ आय
तेलिन तमोलिन चुहड़ी चमारी
कायस्थनी खतरानी कुम्हारी
महतरानी राजा की रानी
जाको दोष ताहि को सिर पड़े
जहार पीर नजर से रक्षा करे
मेरी भक्ति गुरु की शक्ति
फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।
उपरोक्त मंत्र को पढ़ते हुए मोर के पंख से बाल के सिर से पैर तक झाड़ दें। इस क्रिया से बालक की नजर उतर जाएगी और बालक स्वस्थ हो जाएगा।
इसी प्रकार आप ग्रहण के दिन भगवती गायत्री की साधना कर मंत्र को सिद्ध कर लें फिर आप किसी भी बालक की नजर को झाड़ सकते हैं। अवश्य सफलता प्राप्त होगी। यह अचूक प्रयोग है। उपरोक्त सारे मंत्र विश्वास के साथ करें। कार्य अवश्य होगा।
व्याधि नाश के लिए मंत्र --
उतदेवा अवहितं देवन्नयथा पुन:।
उतागश्र्चक्रुषं देवादेवाजीवयथा पुन:।।
मंत्र को व्रतपूर्वक जप करने से प्रत्येक रोगों का नाश होता है तथा व्याधियों से छुटकारा मिलता है।
संतान-प्राप्ति के लिए मंत्र---
अपश्यं त्वमनसा दीध्यानां
स्वायां तनू ऋत्वये नाधमानाम्
उप मामुच्या युवतिर्बभूय:
प्रजायस्व प्रजया पुत्र कामे।
पवित्र होकर व्रत करके उपरोक्त मंत्र का जाप करने से संतान की प्राप्ति होती है।
मनवांछित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए मंत्र---
उभन्यासो जातवेश: स्याम ते
स्तोतारो अग्ने सूर्यजश्र्च शर्मणि।
वस्वोराय: पुरुष्चंद्रस्य भूयस:
प्रजावत: स्वपत्यस्य शाग्धिन:।
इस मंत्र ऋचा का नियमित जप करने से मनोवांछित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। ये सभी मंत्र ऋग्वेद के प्रमुख मंत्र हैं। इनका प्रयोग करने से मनुष्य जीवन का कल्याण होता ही है।
साधना स्थल कैसा हो -
साधना स्थल कैसा हो -
मंत्र साधना की सफलता में साधना का स्थान बहुत महत्व रखता है। जो स्थान मंत्र की सफलता दिलाता है। सिद्ध पीठ कहलाता है। मंत्र की साधना के लिए उचित स्थान के रूप में तीर्थ स्थान, गुफा, पर्वत, शिखर, नदी, तट-वन, उपवन इसी के साथ बिल्वपत्र का वृक्ष, पीपल वृक्ष अथवा तुलसी का पौधा सिद्ध स्थल माना गया है।
आहार - मंत्र साधक को सदा ही शुद्ध व पवित्र एवं सात्विक आहार करना चाहिए। दूषित आहार को साधक ने नहीं ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम एवं द्वितीय जानकारी को ध्यान में रखकर किया गया मंत्र सिद्धकारी होता है। आपके एवं जनकल्याण के लिए कुछ प्रयोग दे रहे हैं।
रामचरित मानस जन-जन में लोकप्रिय एवं प्रामाणिक ग्रंथ हैं। इसमें वर्णित दोहा, सोरठा, चौपाई पाठक के मन पर अद्भुत प्रभाव छोड़ते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इसमें रचित कुछ पंक्तियाँ समस्याओं से छुटकारा दिलाने में भी सक्षम है। हम अपने पाठकों के लिए कुछ चयनित पंक्तियाँ दे रहे हैं। ये पंक्तियाँ दोहे-चौपाई एवं सोरठा के रूप में हैं।
इन्हें इन मायनों में चमत्कारिक मंत्र कहा जा सकता है कि ये सामान्य साधकों के लिए है। मानस मंत्र है। इनके लिए किसी विशेष विधि-विधान की जरूरत नहीं होती। इन्हें सिर्फ मन-कर्म-वचन की शुद्धि से श्रीराम का स्मरण करके मन ही मन श्रद्धा से जपा जा सकता है। इन्हें सिद्ध करने के लिए किसी माला या संख्यात्मक जाप की आवश्यकता नहीं हैं बल्कि सच्चे मन से कभी भी इनका ध्यान किया जा सकता है।
प्रस्तुत है चयनित मंत्र
* मुकदमें में विजय के लिए
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि विवेक विज्ञान निधाना।।
* शत्रु नाश के लिए
बयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।
* अपयश नाश के लिए
रामकृपा अवरैब सुधारी।
विबुध धारि भई गुनद गोहारी।।
* मनोरथ प्राप्ति के लिए
मोर मनोरथु जानहु नीके।
बसहु सदा उर पुर सबही के।।
* विवाह के लिए
तब जन पाई बसिष्ठ आयसु ब्याह।
साज सँवारि कै।
मांडवी, श्रुतकी, रति, उर्मिला कुँअरि
लई हंकारि कै।
* इच्छित वर प्राप्ति के लिए
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषि न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।
* सर्वपीड़ा नाश के लिए
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।
* श्रेष्ठ पति प्राप्ति के लिए
गावहि छवि अवलोकि सहेली।
सिय जयमाल राम उर मेली।।
* पुत्र प्राप्ति के लिए
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।
* सर्वसुख प्राप्ति के लिए
सुनहि विमुक्त बिरत अरू विषई।
लहहि भगति गति संपति सई।।
* ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति के लिए
साधक नाम जपहि लय लाएँ।
होहि सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...
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