Friday, 10 September 2021

पीपल के वृक्ष द्वारा अपनी समस्याओं को दूर करें…

पीपल के वृक्ष द्वारा अपनी समस्याओं को दूर करें…
प्रत्येक नक्षत्र वाले दिन भी इसका विशिष्ट गुण भिन्नता लिए हुए होता है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कुल मिला कर 28 नक्षत्रों कि गणना है, तथा प्रचलित केवल 27 नक्षत्र है उसी के आधार पर प्रत्येक मनुष्य के जन्म के समय नामकरण होता है. अर्थात मनुष्य का नाम का प्रथम अक्षर किसी ना किसी नक्षत्र के अनुसार ही होता है. तथा इन नक्षत्रों के स्वामी भी अलग अलग ग्रह होते है. विभिन्न नक्षत्र एवं उनके स्वामी निम्नानुसार है यहां नक्षत्रों के स्वामियों के नाम कोष्ठक के अंदर लिख रहा हूँ जिससे आपको आसानी रहे.

(१)अश्विनी(केतु), (२)भरणी(शुक्र), (३)कृतिका(सूर्य),
(४)रोहिणी(चन्द्र), (५)मृगशिर(मंगल), (६)आर्द्रा(राहू), (७)पुनर्वसु(वृहस्पति), (८)पुष्य(शनि), (९)आश्लेषा(बुध), (१०)मघा(केतु), (११)पूर्व फाल्गुनी(शुक्र), (१२)उत्तराफाल्गुनी(सूर्य), (१३)हस्त(चन्द्र), (१४)चित्रा(मंगल), (१५)स्वाति(राहू), (१६)विशाखा(वृहस्पति), (१७)अनुराधा(शनि), (१८)ज्येष्ठा(बुध), (१९)मूल(केतु), (२०)पूर्वाषाढा(शुक्र), (२१)उत्तराषाढा(सूर्य), (२२)श्रवण(चन्द्र), (२३)धनिष्ठा(मंगल), (२४)शतभिषा(राहू), (२५)पूर्वाभाद्रपद(वृहस्पति), (२६)उत्तराभाद्रपद(शनि) एवं (२७)रेवती(बुध)..

ज्योतिष शास्त्र अनुसार प्रत्येक ग्रह 3, 3 नक्षत्रों के स्वामी होते है
.
कोई भी व्यक्ति जिस भी नक्षत्र में जन्मा हो वह उसके स्वामी ग्रह से सम्बंधित दिव्य प्रयोगों को करके लाभ प्राप्त कर सकता है.

अपने जन्म नक्षत्र के बारे में अपनी जन्मकुंडली को देखें या अपनी जन्मतिथि और समय व् जन्म स्थान लिखकर भेजे.या अपने विद्वान ज्योतिषी से संपर्क कर जन्म का नक्षत्र ज्ञात कर के यह सर्व सिद्ध प्रयोग करके लाभ उठा सकते है.

विभिन्न ग्रहों से सम्बंधित पीपल वृक्ष के प्रयोग निम्न है.

(१) सूर्य:- जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान सूर्य देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.
(अ) रविवार के दिन प्रातःकाल पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा करें.
(आ) व्यक्ति का जन्म जिस नक्षत्र में हुआ हो उस दिन (जो कि प्रत्येक माह में अवश्य आता है) भी पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा अनिवार्य करें.
(इ) पानी में कच्चा दूध मिला कर पीपल पर अर्पण करें.
(ई) रविवार और अपने नक्षत्र वाले दिन 5 पुष्प अवश्य चढ़ाए. साथ ही अपनी कामना की प्रार्थना भी अवश्य करे तो जीवन की समस्त बाधाए दूर होने लगेंगी.

(२) चन्द्र:- जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान चन्द्र देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.
(अ) प्रति सोमवार तथा जिस दिन जन्म नक्षत्र हो उस दिन पीपल वृक्ष को सफेद पुष्प अर्पण करें लेकिन पहले 4 परिक्रमा पीपल की अवश्य करें.
(आ) पीपल वृक्ष की कुछ सुखी टहनियों को स्नान के जल में कुछ समय तक रख कर फिर उस जल से स्नान करना चाहिए.
(इ) पीपल का एक पत्ता सोमवार को और एक पत्ता जन्म नक्षत्र वाले दिन तोड़ कर उसे अपने कार्य स्थल पर रखने से सफलता प्राप्त होती है और धन लाभ के मार्ग प्रशस्त होने लगते है.
(ई) पीपल वृक्ष के नीचे प्रति सोमवार कपूर मिलकर घी का दीपक लगाना चाहिए.

(३) मंगल:- जिन नक्षत्रो के स्वामी मंगल है. उन नक्षत्रों के व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है....
(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और प्रति मंगलवार को एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर पीपल वृक्ष को अर्पित करें.
(आ) लाल रंग के पुष्प प्रति मंगलवार प्रातःकाल पीपल देव को अर्पण करें.
(इ) मंगलवार तथा जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 8 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए.
(ई) पीपल की लाल कोपल को (नवीन लाल पत्ते को) जन्म नक्षत्र के दिन स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करें.
(उ) जन्म नक्षत्र के दिन किसी मार्ग के किनारे १ अथवा 8 पीपल के वृक्ष रोपण करें.
(ऊ) पीपल के वृक्ष के नीचे मंगलवार प्रातः कुछ शक्कर डाले.
(ए) प्रति मंगलवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन अलसी के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष के नीचे लगाना चाहिए.

(४) बुध:- जिन नक्षत्रों के स्वामी बुध ग्रह है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए.
(अ) किसी खेत में जंहा पीपल का वृक्ष हो वहां नक्षत्र वाले दिन जा कर, पीपल के नीचे स्नान करना चाहिए.
(आ) पीपल के तीन हरे पत्तों को जन्म नक्षत्र वाले दिन और बुधवार को स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करना चाहिए.
(इ) पीपल वृक्ष की प्रति बुधवार और नक्षत्र वाले दिन 6 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए.
(ई) पीपल वृक्ष के नीचे बुधवार और जन्म, नक्षत्र वाले दिन चमेली के तेल का दीपक लगाना चाहिए.
(उ) बुधवार को चमेली का थोड़ा सा इत्र पीपल पर अवश्य लगाना चाहिए अत्यंत लाभ होता है.

(५) वृहस्पति:- जिन नक्षत्रो के स्वामी वृहस्पति है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें.
(अ) पीपल वृक्ष को वृहस्पतिवार के दिन और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीले पुष्प अर्पण करने चाहिए.
(आ) पिसी हल्दी जल में मिलाकर वृहस्पतिवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष पर अर्पण करें
(इ) पीपल के वृक्ष के नीचे इसी दिन थोड़ा सा मावा शक्कर मिलाकर डालना या कोई भी मिठाई पीपल पर अर्पित करें.
(ई) पीपल के पत्ते को स्नान के जल में डालकर उस जल से स्नान करें
(उ) पीपल के नीचे उपरोक्त दिनों में सरसों के तेल का दीपक जलाएं.

(६) शुक्र:- जिन नक्षत्रो के स्वामी शुक्र है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें.
(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्नान करना.
(आ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और शुक्रवार को पीपल पर दूध चढाना.
(इ) प्रत्येक शुक्रवार प्रातः पीपल की 7 परिक्रमा करना.
(ई) पीपल के नीचे जन्म नक्षत्र वाले दिन थोड़ासा कपूर जलाना.
(उ) पीपल पर जन्म नक्षत्र वाले दिन 7 सफेद पुष्प अर्पित करना.
(ऊ) प्रति शुक्रवार पीपल के नीचे आटे की पंजीरी सालना.

(७) शनि:- जिन नक्षत्रों के स्वामी शनि है. उस नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए.
(अ) शनिवार के दिन पीपल पर थोड़ा सा सरसों का तेल चडाना.
(आ) शनिवार के दिन पीपल के नीचे तिल के तेल का दीपक जलाना.
(इ) शनिवार के दिन और जन्म नक्षत्र के दिन पीपल को स्पर्श करते हुए उसकी एक परिक्रमा करना.
(ई) जन्म नक्षत्र के दिन पीपल की एक कोपल चबाना.
(उ) पीपल वृक्ष के नीचे कोई भी पुष्प अर्पण करना.
(ऊ) पीपल के वृक्ष पर मिश्री चडाना.

(८) राहू:- जिन नक्षत्रों के स्वामी राहू है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए.
(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 21 परिक्रमा करना.
(आ) शनिवार वाले दिन पीपल पर शहद चडाना.
(इ) पीपल पर लाल पुष्प जन्म नक्षत्र वाले दिन चडाना.
(ई) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल के नीचे गौमूत्र मिले हुए जल से स्नान करना.
(उ) पीपल के नीचे किसी गरीब को मीठा भोजन दान करना.

(९) केतु:- जिन नक्षत्रों के स्वामी केतु है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न उपाय कर अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहिए.
(अ) पीपल वृक्ष पर प्रत्येक शनिवार मोतीचूर का एक लड्डू या इमरती चडाना.
(आ) पीपल पर प्रति शनिवार गंगाजल मिश्रित जल अर्पित करना.
(इ) पीपल पर तिल मिश्रित जल जन्म नक्षत्र वाले दिन अर्पित करना.
(ई) पीपल पर प्रत्येक शनिवार सरसों का तेल चडाना.
(उ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की एक परिक्रमा करना.
(ऊ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की थोडीसी जटा लाकर उसे धूप दीप दिखा कर अपने पास सुरक्षित रखना.

इस प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति उपरोक्त उपाय अपने अपने नक्षत्र के अनुसार करके अपने जीवन को सुगम बना सकते है, इन उपायों को करने से तुरंत लाभ प्राप्य होता है और जीवन में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है और जो बाधा हो वह तत्काल दूर होने लगती है. शास्त्र, आदि सभी महान ग्रन्थ अनुसार पीपल वृक्ष में सभी देवी देवताओं का वास होता है. उन्हीं को हम अपने जन्म नक्षत्र अनुसार प्रसन्न करते है. और आशीर्वाद प्राप्त करते है।

त्रैलोक्यमोहन गौरी प्रयोग

 त्रैलोक्यमोहन गौरी प्रयोग
 त्रैलोक्यमोहन गौरी मन्त्र – माया (हीं), उसके अन्त में ‘नमः’ पद, फिर ‘ब्रह्म श्री राजिते राजपूजिते जय’, फिर ‘विजये गौरि गान्धारि’, फिर ‘त्रिभु’, इसके बाद तोय (व), मेष (न), फिर ‘वशङ्करि’, फिर ‘सर्व’ पद, फिर ससद्यल (लो), फिर ‘क वशङ्करि’, फिर ‘सर्वस्त्री पुरुष के बाद ‘वशङ्करि’, फिर ‘सु द्वय’ (सु सु), दु द्वय (दु दु), घे युग (घे घे), वायुग्म (वा वा), फिर हरवल्लभा (ह्रीं), तथा अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से ६१ अक्षरों का यह मन्त्रराज कहा गया है। मन्त्र – ‘ह्रीं नमः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरि गान्धारि त्रिभुवनवशङ्करि, सर्वलोकवशङ्करि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा’। इस मन्त्र के अज ऋषि हैं, निचृद् गायत्री छन्द है, त्रैलोक्यमोहिनी गौरी देवता है, माया बीज है एवं स्वाहा शक्ति है । षड्दीर्घयुक्त मायाबीज से युक्त इस मन्त्र के १४, १०, ८, ८, १० एवं ११ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मूलमन्त्र से व्यापक कर त्रैलोक्यमोहिनी का ध्यान करना चाहिए । विनियोग – ‘अस्य श्रीत्रैलोक्यमोहनगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्गायत्री छन्दः त्रैलोक्यमोहिनीगौरीदेवता ह्रीं बीजं स्वाहा शक्ति ममाऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।’ षडङ्गन्यास – ह्रां ह्रीं नमो ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः, ह्रीं जयविजये गौरिगान्धारि शिरसे स्वाहा, ह्रूं त्रिभुवनवशङ्करि शिखायै वषट्, ह्रैं सर्वलोक वशङ्करि कवचाय हुं, ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुष नेत्रत्रयाय वशङ्कर वौषट्, ह्रः सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा, अस्त्राय फट्, ह्रीं नमोः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरिगान्धारि त्रिभुवनवशङ्करि सर्वलोकवशङ्करि सर्वस्त्रीपुरुष वशङ्करि सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा, सर्वाङ्गे । ॥ ध्यानम् ॥ गीर्वाणसङ्घार्चितपादपङ्कज अरुणप्रभाबालशशाङ्कशेखरा । रक्ताम्बरालेपनपुष्प मुदे सृणिं सपाशं दधती शिवास्तु नः ॥ ॥ आवरण पूजा ॥ केशरों पर षडङ्गपूजा कर अष्टदलों में ब्राह्मी आदि मातृकाओं की, भूपुर में लोकपालों की तथा बाहर उनके आयुधों की पूजा करनी चाहिए । पीठ देवताओं एवं पीठशक्तियों का पूजन कर पीठ पर मूलमन्त्र से देवी की मूर्ति की कल्पना कर आवाहनादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उनकी आज्ञा से इस प्रकार आवरण पूजा करे । सर्वप्रथम केशरों में षड्ङ्ग मन्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चाहिए । यथा – ह्रीं ह्रीं नमो ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः, ह्रीं जयविजये गौरि गान्धारि शिरसे स्वाहा, ह्रूँ त्रिभुवनवशङ्करि शिखायै वौषट्, ह्रैं सर्वलोकवशङ्करि कवचाय हुम्, ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रः सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा अस्त्राय फट् । फिर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से ब्राह्मी आदि का पूजन करनी चाहिए । १. ॐ ब्राह्मयै नमः, पूर्वदले २. ॐ माहेश्वर्यै नमः,आग्नेये ३. ॐ कौमार्यै नमः, दक्षिणे ४. ॐ वैष्णव्यै नमः, नैर्ऋत्ये ५. ॐ वारायै नमः, पश्चिमे ६. ॐ इन्द्राण्यै नमः, वायव्ये ७. ॐ चामुण्डायै नमः, उत्तरे ८. ॐ महालक्ष्म्यै नमः, ऐशान्ये । तत्पश्चात् भूपुर के भीतर अपनी-अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए । इन्द्राय नमः पूर्वे, अग्नये नमः आग्नेये, यमाय नमः दक्षिणे, नैर्ऋत्याय नमः नैर्ऋत्ये, वरुणाय नमः पश्चिमे, वायवे नमः वायव्ये, सोमाय नमः उत्तरे, ईशानाय नमः ईशाने, पूर्व ईशान मध्ये ब्रह्मणे, अनंताय नमः पश्चिम नैर्ऋत्ययोर्मध्ये । पुनः भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । वज्राय नमः पूर्वे, शक्तये नमः आग्नेये, दण्डाय नमः दक्षिणे, खडगाय नमः नैर्ऋत्ये, पाशाय नमः पश्चिमे, अंकुशाय नमः वायव्ये, गदायै नमः उत्तरे, त्रिशूलाय नमः ऐशान्ये, पद्माय नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये, चक्राय नमः पश्चिमनैर्ऋत्ययोर्मध्ये । ॥ काम्य प्रयोग ॥ इस प्रकार आराधना करने से देवी सुख एवं संपत्ति प्रदान करती हैं तिल मिश्रित तण्डुल (चावल), सुन्दर फल, त्रिमधु (घी, मधु, दूध) से मिश्रित लवण और मनोहर लालवर्ण के कमलों से जो व्यक्ति तीन दिन तक हवन करता है, उस व्यक्ति के ब्राह्मणादि सभी वर्ण एक महीने के भीतर वश में हो जाते हैं । सूर्यमण्डल में विराजमान देवी के उक्त स्वरूप का ध्यान करते हुये जो व्यक्ति जप करता है अथवा १०८ आहुतियाँ प्रदान करता है वह व्यक्ति सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है । गौरी का अन्य मन्त्र – हंस (स्), अनल (र), ऐकारस्थ शशांकयुत् (ऐं) उससे युक्त नभ (ह्) इस प्रकार ही फिर वायु (य), अग्नि (र) एवं कर्णेन्दु (ऊ) सहित तोय (व्), अर्थात् ‘व्याँ ,’फिर ‘राजमुखि’, ‘राजाधिमुखिवश्य’ के बाद ‘मुखि’, फिर माया (ही) रमा (श्री), आत्मभूत (क्लीं), फिर “देवि देवि महादेवि देवाधिदेवि सर्वजनस्य मुखं” के बाद ‘मम वशं’ फिर दो बार ‘कुरु कुरु’ और इसके अन्त में वह्निप्रिया (स्वाहा) लगाने से अड़तालिस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥ ४२-४३ ॥ मन्त्र – “ह्स्त्रैं व्यरूँ राजमुखि राजाधिमुखि वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं देवि देवि महादेवि देवाधिदेवि सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा’ । विनियोग- ‘अस्य श्रीगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्गायत्रीछन्दः गौरीदेवता, ह्रीं बीजं स्वाहा शक्तिः ममाखिलकामनासिद्धयर्थे जपे विनियोगः’ । षडङ्गन्यास- ह्रां ह्स्त्रैं व्यरूँ राजमुखिराजाधिमुखि हृदयाय नमः, ह्रीं वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं शिरसे स्वाहा, ह्रूँ देवि देवि शिखायै वषट्, ह्रैं महादेवि कवचाय हुम्, ह्रौं देवाधिदेवि नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रः सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा अस्त्राय फट् । ॥ पूजाविधि ॥ देवी के स्वरूप का ध्यान करे । अर्घ्य स्थापन, पीठशक्तिपूजन, देवी पूजन तथा आवरण देवताओं के पूजन का प्रकार पूर्वोक्त है । ॥ वशीकरण मन्त्राः ॥ वशीकरण मन्त्र के पूजन जप होम एवं तर्पण में मूल मन्त्र के ‘सर्वजनस्य’ पद के स्थान पर जिसे अपने वश में करना हो उस साध्य के षष्ठ्यन्त रूप को लगाना चाहिए। सात दिन तक सहस्र-सहस्र की संख्या में संपातपूर्वक (हुतावशेष स्रुवावस्थित घी का प्रोक्षणी में स्थापन) घी से होमकर उस संपात (संव) घृत को साध्य व्यक्ति को पिलाने से वह वश में हो जाता है। ॥ इति त्रैलोक्यमोहन गौरी प्रयोगः ॥


श्रीलक्ष्मी-नारायण-वज्र-पञ्जर-कवच

श्रीलक्ष्मी-नारायण-वज्र-पञ्जर-कवच 
।।पूर्व-पीठिका-श्रीभैरव उवाच।। अधुना देवि ! वक्ष्यामि, लक्ष्मी-नारायणस्य ते । कवचं मन्त्र-गर्भं च, वज्र-पञ्जरकाख्यया ।।१ श्रीवज्र-पञ्जरं नाम, कवचं परमाद्भुतम । रहस्यं सर्व-देवानां, साधकानां विशेषतः ।।२ यं धृत्वा भगवान् देवः, प्रसीदति परः पुमान् । यस्य धारण-मात्रेण, ब्रह्मा लोक-पितामहः ।।३ ईश्वरोऽहं शिवो भीमो, वासवोऽपि दिवस्पतिः । सूर्यस्तेजो-निधिर्देवि ! चन्द्रमास्तारकेश्वरः ।।४ वायुश्च बलवांल्लोके, वरुणो यादसांपतिः । कुबेरोऽपि धनाध्यक्षो, धर्मराजो यमः स्मृतः ।।५ यं धृत्वा सहसा विष्णुः, संहरिष्यति दानवान् । जघान रावणादींश्च, किं वक्ष्येऽहमतः परम् ।।६ कवचस्यास्य सुभगे ! कथितोऽयं मुनिः शिवः । त्रिष्टुप् छन्दो देवता च, लक्ष्मी-नारायणो मतः ।।७ रमा बीजं परा शक्तिस्तारं कीलकमीश्वरि ! । भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं, विनियोग इति स्मृतः ।।८ विनियोगः- ॐ अस्य श्रीलक्ष्मी-नारायण-कवचस्य शिव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीलक्ष्मी-नारायण देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं, भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं कवच-पाठे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्रीशिव ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीलक्ष्मी-नारायण देवतायै नमः हृदि, श्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः नाभौ, ॐ कीलकाय नमः पादयो, भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं कवच-पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ । ध्यानः- पूर्णेन्दु-वदनं पीत-वसनं कमलासनम् । लक्ष्म्याश्रितं चतुर्बाहुं, लक्ष्मी-नारायणं भजे ।। ‘मानस-पूजन’ कर ‘कवच-पाठ’ करे । यथा – ।।मूल कवच-पाठ।। ॐ वासुदेवोऽवतु मे, मस्तकं सशिरोरुहम् । ह्रीं ललाटं सदा पातु, लक्ष्मी-विष्णुः समन्ततः ।।१ हसौः नेत्रेऽवताल्लक्ष्मी-गोविन्दो जगतां पतिः । ह्रीं नासां सर्वदा पातु, लक्ष्मी-दामोदरः प्रभुः ।।२ श्रीं मुखं सततं पातु, देवो लक्ष्मी-त्रिविक्रमः । लक्ष्मी कण्ठं सदा पातु, देवो लक्ष्मी-जनार्दनः ।।३ नारायणाय बाहू मे, पातु लक्ष्मी गदाग्रजः । नमः पार्श्वौ सदा पातु, लक्ष्मी-नन्दैक-नन्दनः ।।४ अंआंइंईं पातु वक्षो, ॐ लक्ष्मी-त्रिपुरेश्वरः । उंऊंऋंॠं पातु कुक्षिं, ह्रीं लक्ष्मी-गरुड़-ध्वजः ।।५ लृंॡंएंऐं पातु पृष्ठं, हसौः लक्ष्मी-नृसिंहकः । ॐॐअंअः पातु नाभिं, ह्रीं लक्ष्मी-विष्टरश्रवः ।।६ कंखंगंघं गुदं पातु, श्रीं लक्ष्मी-कैटभान्तकः । चंछंजंझं पातु शिश्नं, लक्ष्मी लक्ष्मीश्वरः प्रभुः ।।७ टंठंडंढं कटिं पातु, नारायणाय नायकः । तंथंदंधं पातु चोरु, नमो लक्ष्मी-जगत्पतिः ।।८ पंफंबंभं पातु जानू, ॐ ह्रीं लक्ष्मी-चतुर्भुजः । यंरंलंवं पातु जंघे, हसौः लक्ष्मी-गदाधरः ।।९ शंषंसंहं पातु गुल्फौ, ह्रीं श्रीं लक्ष्मी-रथांगभृत् । ळंक्षं पादौ सदा पातु, मूलं लक्ष्मी-सहस्त्रपात् ।।१० ङंञंणंनंमं मे पातु, लक्ष्मीशः सकलं वपुः । इन्द्रो मां पूर्वतः पातु, वह्निर्वह्नौ सदाऽवतु ।।११ यमो मां दक्षिणे पातु, नैर्ऋत्यां निर्ऋतिश्च माम् । वरुणः पश्चिमेऽव्यान्मां, वायव्येऽवतु मां मरुत् ।।१२ उत्तरे धनदः पायादैशान्यामीश्वरोऽवतु । वज्र-शक्ति-दण्ड-खड्ग-पाश-यष्टि-ध्वजांकिताः ।।१३ सशूलाः सर्वदा पान्तु, दिगीशाः परमार्थदाः । अनन्तः पात्वधो नित्यमूर्ध्वे ब्रह्मावताच्च माम् ।।१४ दश-दिक्षु सदा पातु, लक्ष्मी-नारायणः प्रभुः । प्रभाते पातु मां विष्णुर्मध्याह्ने वासुदेवकः ।।१५ दामोदरोऽवतात् सायं, निशादौ नरसिंहकः । संकर्षणोऽर्धरात्रेऽव्यात्, प्रभातेऽव्यात् त्रिविक्रमः ।।१६ अनिरुद्धः सर्व-कालं, विश्वक्-सेनश्च सर्वतः । रणे राज-कुले द्युते, विवादे शत्रु-संकटे । ॐ ह्रींहसौः ह्रींश्रींमूलं, लक्ष्मी-नारायणोऽवतु ।।१७ ॐॐॐ रण-राज-चौर-रिपुतः पायाच्च मां केशवः, ह्रींह्रींह्रींहहहाहसौः हसहसौ वह्नेर्वतान्माधवः । ह्रींह्रींह्रींजल-पर्वताग्र-भयतः पायादनन्तो विभुः, श्रींश्रींश्रींशशशाललं प्रति-दिनं लक्ष्मीधवः पातु माम् ।।१८ ।।फल-श्रुति।। इतीदं कवचं दिव्यं, वज्र-पञ्जरकाभिधम् । लक्ष्मी-नारायणस्थेष्टं, चतुर्वर्ग-फल-प्रदम् ।।१ सर्व-सौभाग्य-निलयं, सर्व-सारस्वत-प्रदम् । लक्ष्मी-संवननं तत्त्वं, परमार्थ-रसायनम् ।।२ मन्त्र-गर्भं जगत्-सारं, रहस्यं त्रिदिवौकसाम् । दश-वारं पठिद्रात्रौ, रतान्ते वैष्णवोत्तमः ।।३ स्वप्ने वर-प्रदं पश्येल्लक्ष्मी-नारायणं सुधीः । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं, कवचं मन्मुखोदितम् ।।४ स याति परमं धाम, वैष्णवं वैष्णवोत्तमः । महा-चीन-पदस्थोऽपि यः, पठेदात्म-चिन्तकः ।।५ आनन्द-पूरितस्तूर्णं, लभेद् मोक्षं स साधकः । गन्धाष्टकेन विलिखेद्रवौ भुर्जे जपन्मनुम् ।।६ पीत-सूत्रेण संवेष्ट्य, सौवर्णेनाथ वेष्टयेत् । धारयेद्-गुटिकां मूर्घ्नि, लक्ष्मी-नारायणं स्मरन् ।।७ रणे रिपून् विजित्याशु, कल्याणी गृहमाविशेत् । वन्ध्या वा काक-वन्ध्या वा, मृत-वत्सा च यांगना ।।८ सा बध्नीयात् कण्ठ-देशे, लभेत् पुत्रांश्चिरायुषः । गुरुपदेशतो धृत्वा, गुरुं ध्यात्वा मनुं जपन् ।।९ वर्ण-लक्ष-पुरश्चर्या-फलमाप्नोति साधकः । बहुनोक्तेन किं देवि ! कवचस्यास्य पार्वति ! ।।१० विनानेन न सिद्धिः स्यान्मन्त्रस्यास्य महेश्वरि ! । सर्वागम-रहस्याढ्यं, तत्त्वात् तत्त्वं परात् परम् ।।११ अभक्ताय न दातव्यं, कुचैलाय दुरात्मने । दीक्षिताय कुलीनाय, स्व-शिष्याय महात्मने ।।१२ महा-चीन-पदस्थाय, दातव्यं कवचोत्तमम् । गुह्यं गोप्यं महा-देवि ! लक्ष्मी-नारायण-प्रियम् । वज्र-पञ्जरकं वर्म, गोपनीयं स्व-योनि-वत् ।।१३ ।।श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीलक्ष्मी-नारायण-कवचं।।

श्रीमहागणपति-वज्रपञ्जर-कवच

श्रीमहागणपति-वज्रपञ्जर-कवच 
॥ पूर्व-पीठिका-श्रीभैरव उवाच ॥ महा-देवि गणेशस्य, वरदस्य महात्मनः । कवचं ते प्रवक्ष्यामि, वज्र-पञ्जरकाभिधम् ॥ विनियोगः- अस्य श्रीमहा-गणपति-वज्र-पञ्जर-कवचस्य शऽरीभैरव ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः, श्रीमहा-गणपतिः देवता, गं बीजं, ह्रीं शक्तिः, कुरु-कुरु कीलकं, वज्र-विद्यादि-सिद्धयर्थे महा-गणपति-वज्र-पञ्जर-कवच-पाठे-विनियोगः। ऋष्यादि-न्यासः- श्रीभैरव ऋषये नमः शिरसि, गायत्र्यं छन्दसे नमः मुखे, श्रीमहा-गणपति देवतायै नमः हृदि, गं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः नाभौ, कुरु-कुरु कीलकाय नमः पादयोः, वज्र-विद्यादि-सिद्धयर्थे महा-गणपति-वज्र-पञ्जर-कवच-पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। षडंग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास गां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः गीं तर्जनीभ्यां स्वाहा शिरसे स्वाहा गूं मध्यमाभ्यां वषट् शिखायै वषट् गैं अनामिकाभ्यां हुं कवचाय हुं गौं  कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् नेत्र-त्रयाय वौषट् गः  करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट् अस्त्राय फट्   ध्यानः- विघ्नेशं विश्व-वन्द्यं सु-विपुल-यशसं लोक-रक्षा-प्रदक्षं, साक्षात् सर्वापदासु प्रशमन-सुमतिं पार्वती-प्राण-सूनुम। प्रायः सर्वासुरेन्द्रैः स-सुर-मुनि-गणैः साधकैः पूज्यमानं, कारयण्येनान्तरायामित-भय-शमनं विघ्न-राजं नमामि।। ‘मानस-पूजन’ कर ‘कवच-पाठ’ करे। यथा- ॥ मूल कवच-पाठ ॥ ॐ श्रीं ह्रीं गं शीरः पातु, महा-गणपतिः प्रभुः । विनायको ललाटं मे, विघ्न-राजो भ्रुवौ मम ॥ १ ॥ पातु नेत्रे गणाध्यक्षो, नासिकां मे गजाननः । श्रुती मेऽवतु हेरम्बो, गण्डौ मे मोदकाशनः ॥ २ ॥ द्वै-मातुरो मुखं पातु, चाधरौ पात्वरिन्दमः । दन्तान् ममैक-दन्तोऽव्याद्, वक्र-तुण्डोऽवताद् रसाम् ॥ ३ ॥ गांगेयो मे गलं पातु, स्कन्धौ सिंहासनोऽवतु । विघ्नान्तको भुजौ पातु, हस्तौ मूषक-वाहनः ॥ ४ ॥ ऊरु ममावतान्नित्यं, देवस्त्रिपुर-घातनः । हृदयं मे कुमारोऽव्याज्जयन्तः पार्श्व-युग्मकम् ॥ ५ ॥ प्रद्युम्नो मेऽवतात् पृष्ठं, नाभिं शंकर-नन्दनः । कटिं नन्दि-गणः पातु, शिश्नं वीरेश्वरोऽवतु ॥ ६ ॥ मेढ्रे मेऽवतु सौभाग्यो, भृंगिरीटी च गुह्यकम् । विराटकोऽवतादूरु, जानू मे पुष्प-दन्तकः ॥ ७ ॥ जंघे मम विकर्तोऽव्याद्, गुल्फायन्त्य-गणोऽवतु । पादौ चित्त-गणः पातु, पादाधो लोहितोऽवतु ॥ ८ ॥ पाद-पृष्ठं सुन्दरोऽव्याद्, नूपुराढ्यो वपुर्मम । विचारो जठरं पातु, भूतानि चोग्र-रुपकः ॥ ९ ॥ शिरसः पाद-पर्यन्तं, वपुः सुप्त-गणोऽवतु । पादादि-मूर्घ-पर्यन्तं, वपुः पातु विनर्तकः ॥ १० ॥ विस्मारितं तु यत् स्थानं, गणेशस्तत् सदाऽवतु । पूर्वे मां ह्रीं करालोऽव्यादाग्नेये विकरालकः ॥ ११ ॥ दक्षिणे पातु संहारो, नैऋते रुरु-भैरवः । पश्चिमे मां महा-कालो, वायौ कालाग्नि-भैरवः ॥ १२ ॥ उत्तरे मां सितास्योऽव्यादैशान्यामसितात्मकः । प्रभाते शत-पत्रोऽव्यात्, सहस्त्रारस्तु मध्यमे ॥ १३ ॥ दन्त-माला दिनान्तेऽव्यान्निशि पात्रं सदाऽवतु । कलशो मां निशीथेऽव्यान्निशान्ते परशुस्तथा ॥ सर्वत्र सर्वदा पातु शंख-युग्मं च मद्-वपुः ॥ १४ ॥ ॐ ॐ राज-कुले हहौं रण-भये ह्रीं ह्रीं कुद्यूतेऽवतात्, श्रीं श्रीं शत्रु-गृहे शशौं जल-भये क्लीं क्लीं वनान्तेऽवतु । ग्लौं ग्लूं ग्लैं ग्लं गुं सत्त्व-भीतिषु महा-व्याधऽयार्तिषु ग्लौं गगौं, नित्यं यक्ष-पिशाच-भूत-फणिषु ग्लौं गं गणेशोऽवतु ॥ १५ ॥ ॥ फल-श्रुति ॥ इतीदं कवचं गुह्यं, सर्व-तन्त्रेषु गोपितम् । वज्र-पञ्जर-नामानं, गणेशस्य महात्मनः ॥ १ ॥ अंग-भूतं मनु-मयं, सर्वाचारैक-साधनम् । विनानेन न सिद्धिः स्यात्, पूजनस्य जपस्य च ॥ २ ॥ तस्मात् तु कवचं पुण्यं, पठेद्वा धारयेत् सदा । तस्य सिद्धिर्महा-देवि करस्था पारलौकिकी ॥ ३ ॥ यं यं कामयते कामं, तं तं प्राप्नोति पाठतः । अर्ध-रात्रे पठेन्नित्यं, सर्वाभीष्ट-फलं लभेत् ॥ ४ ॥ इति गुह्यं सुकवचं, महा-गणपतेः प्रियम् । सर्व-सिद्धि-मयं दिव्यं, गोपयेत् परमेश्वरि ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये महागणपतिकवचं समाप्तम् ॥


महागणपति मंत्र

महागणपति मंत्रः 
मंत्र – ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा । यह मन्त्र संसार का वशीकरण कर सर्वसिद्धि देने वाला है । विनियोगः- ॐ अस्य श्री महागणपति मंत्रस्य गणक ऋषिः (शिरसि), निवृद गायत्री छन्दः (मुखे), महागणपतये देवताये (हृदि), सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। ध्यानम् : हस्तीन्द्रा चूडमरुणच्छायं त्रिनेत्रं रसा दाश्लिष्टं प्रियया स पद्मकरया साङ्कस्थया सङ्गतम् । बीजापूर गदा धनुस्त्रिशिख युक् चक्राब्ज पाशोत्पलम् ब्रीह्यग्र स्व विषाण रत्न कलशान् हस्तैर्वहन्तं भजे ॥ कराङ्गन्यासः – श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गां अंगुष्ठाभ्यां नमः । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गी तर्जनीभ्यां स्वाहा । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गूं मध्यमाभ्यां वषट् । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गैं अनामिकाभ्यां हुं । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गौं कनिष्ठाभ्यां वौषट् । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गः करतल करपृष्ठाभ्यां फट् । इसी तरह से हृदयादि न्यास करें । यंत्रोद्धार – त्रिकोण के बाहर षट्कोण उसके बाहर अष्टदल, उसके बाहर भूपूर की रचना करें । गणपति तर्पण एवं गुरुमण्डल पूजन करने के पश्चात् त्रिकोण के बाहर १. पूर्वे – श्रियै सह श्रीपतये नमः । २. दक्षिणे – गौर्ये सह गौरीपतये नमः । ३. पश्चिमे – रत्यै सह रतिपतये नमः। ४. उत्तरे – ॐ मह्यै नमः ॐ वराहाय नमः । ५. देवताग्रे – ॐ लक्ष्मी सहित गणनायकाय नमः । गंधार्चन से पूजन तर्पण करें । प्रत्येक आवरण के अंत में अभीष्ट सिद्धिं मे देहि शरणागत वत्सल । भक्त्या समर्पये तुभ्यं अमुकावरणार्चनम् ॥ से पुष्पाञ्जलि देवें तथा बाद में पूजिताः तर्पिताः सन्तु कहकर अर्घपात्र से जल छोड़ें । द्वितीयावरणम् – (षटकोणे – अग्रे) पूर्वे – ॐ सिद्धि सहिता मोदाय नमः श्री पा० ॥ १ ॥ अग्निकोणे – ॐ समृद्धि सहित प्रमोदाय नमः श्री पा० ॥ २ ॥ नैर्ऋत्ये – ॐ मदद्रवा सहित विघ्नाय नमः श्री पा० ॥ ३ ॥ वायुकोणे – ॐ द्राविणी सहित विघ्नकर्त्रे नमः श्री पा० ॥ ४ ॥ ईशाने – ॐ कांति सहिताय सुमुखाय नमः श्री पा० ॥ ५ ॥ पश्चिमे – ॐ मदनावती सहिताय दुर्मुखाय नमः श्री पा० ॥ ६ ॥ षट्कोण के दोनों ओर – ॐ वसुधा सहित शङ्खनिधये नमः, वसुमती सहित पद्मनिधये नमः । आवरण देवताओं के गंधार्चन तर्पण, ‘ॐ अभीष्ट सिद्धिं …………… द्वितीयावरणार्चनम्’ से पुष्पाञ्जलि देवें तथा बाद में पूजिताः तर्पिताः सन्तु कहकर अर्घपात्र से जल छोड़ें । तृतीयावरणम् – (षट्कोण में अङ्गन्यास की तरह) “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गां हृदयाय नमः’ । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गी शिरसे स्वाहा । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गूं शिखायै वषट् । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं मैं कवचाय हुं । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गौं नेत्रत्रयाय वौषट् । श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गः अस्त्राय फट् । शेष देवताओं का पूजन अष्टदल व भुपूर की उच्छिष्ट गणपति यंत्र पूजा विधि के समान षडङ्ग पूजा कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करें ‘ॐ अभीष्ट सिद्धिं …… तृतीयावरणार्चनम्’ । बाद में पूजिता: तर्पिताः सन्तु कहकर अर्घपात्र से जल छोड़ें । चतुर्थावरणम् :- अष्टदल में ब्राह्मी आदि शक्तियों का पूजन उच्छिष्ट गणपति यंत्र की तरह से करें । यथा – ॐ ब्राह्मयै नमः, ब्राह्मी श्री पा० पू० त० नमः ॥ १ ॥ ॐ महेश्वर्यै नमः, माहेश्वरी श्री पा० ॥ २ ॥ ॐ कौमार्यै नमः, कौमारी श्री पा० पू० त० ॥ ३ ॥ ॐ वैष्णव्यै नमः, वैष्णवी श्री पा० ॥ ४ ॥ ॐ वाराह्यै नमः, वाराहीं श्री पा० ॥ ५ ॥ ॐ इन्द्राण्यै नमः, इन्द्राणी श्री पा० ॥ ६ ॥ ॐ चामुण्डायै नमः, चामुण्डा श्री पा० ॥ ७ ॥ ॐ महालक्ष्म्यै नमः, महालक्ष्मी श्री पा० पू० त० ॥ ८ ॥ पंचम तथा षष्टम् आवरणपूजा में इन्द्रादि लोकपालों व आयुधों का पूजन तर्पण उच्छिष्ट गणपति यंत्रार्चन जैसे करें । यथा – पञ्चमावरण – पूर्वे – ॐ इन्द्राय नमः, इन्द्र श्री पा० पू० त० नमः ॥ १ ॥ ॐ अग्नये नमः श्री पा० ॥ २ ॥ ॐ यमाय नमः श्री पा० ॥ ३ ॥ ॐ निर्ऋतये नमः श्री पा० ॥ ४ ॥ ॐ वरुणाय नमः श्री पा० ॥ ४ ॥ ॐ वायवे नमः श्री पा० ॥ ५ ॥ ॐ कुबेराय नमः श्री पा० ॥ ६ ॥ ऐशान्ये – ॐ ईशानाय नम० श्री पा० ॥ ७ ॥ इन्द्रेईशानयोर्मध्ये – ॐ ब्रह्मणे नमः ब्रह्मा श्री पा० ॥ ८ ॥ वरुणनैर्ऋतर्योर्मध्ये – ॐ अनंताय नमः अनन्त श्री पा० पू० त० ॥ ९ ॥ षष्ठावरण – ॐ वं वज्राय नमः श्री पा० ॥ १ ॥ ॐ शं शक्त्यै नमः श्री० पा० ॥ २ ॥ ॐ दं दण्डाय नमः श्री पा० ॥ ३ ॥ ॐ खं खड्गाय नमः श्री० पा० ॥ ४ ॥ ॐ पां पाशाय नमः श्री० पा० ॥ ५ ॥ ॐ अं अंकुशाय नमः श्री० पा० ॥ ६ ॥ ॐ गं गदायै नमः श्री० पा० ॥ ७ ॥ ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः श्री पा० ॥ ८ ॥ ॐ पं पद्माय नमः श्री पा० ॥ ९ ॥ ॐ चं चक्राय नमः, चक्र श्री पा० पू० त० नमः ॥ १० ॥ 

हनुमान जी का शत्रु-नाशक मन्त्र

हनुमान जी का शत्रु-नाशक मन्त्र
 “ॐ हनुमान वीर नमः। ॐ नमो वीर, हनुमत वीर, शूर वीर, धाय-धाय चलै वीर। मूठी भर चलावै तीर। मूठी मार, कलेजा काढ़ै। क्रोध करता, हियरा काढ़ै। मेरा वैरी, तेरे वश होवै। धर्म की दुहाई। राजा रामचन्द्र की दोहाई। मेरा वैरी न पछाड़ मारै तो माता अञ्जनी की दोहाई।” विधि- काले उड़द को अभिमन्त्रित करके शत्रु की ओर फेंके। इससे शत्रु का नाश होगा। प्रयोग करते समय मन्त्र का जप २१ से लेकर १०८ बार करे। पहले होली, दीपावली, एकादशी में सिद्ध कर लें। जप संख्या १००८।


हनुमान शाबर मंत्र

हनुमान शाबर मन्त्र
-निज ध्यान धूप, शिव वीर हनुमान, जटा – जूट अवधूत, जङ्ग जञ्जीर, लँगोट गाढ़ो । भूत को वश, परीत को वश, गदा तेल सिन्दूर चढ़े । आप देखे, तो सत्य की नाव नारसिंह खेवे । दुष्ट को लात बजरङ्ग देवे । भक्त की कड़ी आठ लाख अस्सी हजार वश कर । रावण की ठनाठनी, भक्त वीर हनुमान बारह वर्ष का ज्वान । हाथ में लड्‌डू, मुख में पान, सीता की गए खोज लगावन । मो सों का कहे, हनुमान? धारता की नगरी पैठ, राज करन्ता, जा जल्दी से । इस प्रीत की दृष्टि निकाल के आवै, तो सच्चा सिजबार का हनु-मान कहावै ।।” विधि – पहले गाय के शुद्ध घी से १०८ आहुतियां शनिवार के दिन देकर जगा ले । फिर कहीं भी प्रयोग करे । धारदार हथियार से झाड़ें । भूत-प्रेत, जादू-टोना और नजर आदि दूर हो ।


भैरव शाबर मन्त्र

भैरव शाबर मन्त्र प्रयोग 1 —
 निम्न मन्त्र की सिद्धि के लिए किसी भैरव मन्दिर या शिव मन्दिर में मंगलवार या शनिवार के दिन 11 बजे रात्रि के बाद पूरब या उत्तर दिशा में मुंह करके लाल या काला आसन लगाकर पहले भैरव देव की षोडशोपचार पूजा करें । इसके बाद गुड़ से बनी खीर, शक्कर नैवेद्य अर्पण करें फिर रुद्राक्ष माला से 1008 बार निम्न मन्त्र का जप करके भैरव देव को दाहिने हाथ में जप-समर्पण करें । यह प्रयोग 21 दिन लगातार करना है । 21वें दिन जप पूर्ण होते ही भैरव देव प्रत्यक्ष हो जाते हैं, तुरंत लाल कनेर के फूल की माला भैरव देव को पहनाकर आशीर्वाद मांग लें । 

मन्त्रः— “ॐ रिं रिक्तिमा भैरो दर्शय स्वाहा । ॐ क्रं क्रं-काल प्रकटय प्रकटय स्वाहा । रिं रिक्तिमा भैरऊ रक्त जहां दर्शे । वर्षे रक्त घटा आदि शक्ति । सत मन्त्र-मन्त्र-तंत्र सिद्धि परायणा रह-रह । रूद्र, रह-रह, विष्णु रह-रह, ब्रह्म रह-रह । बेताल रह-रह, कंकाल रह-रह, रं रण-रण रिक्तिमा सब भक्षण हुँ, फुरो मन्त्र । महेश वाचा की आज्ञा फट कंकाल माई को आज्ञा । ॐ हुं चौहरिया वीर-पाह्ये, शत्रु ताह्ये भक्ष्य मैदि आतू चुरि फारि तो क्रोधाश भैरव फारि तोरि डारे । फुरो मन्त्र, कंकाल चण्डी का आज्ञा । रिं रिक्तिमा संहार कर्म कर्ता महा संहार पुत्र । ‘अमुंक’ गृहण-गृहण, मक्ष-भक्ष हूं । मोहिनी-मोहिनी बोलसि, माई मोहिनी । मेरे चउआन के डारनु माई । मोहुँ सगरों गाउ । राजा मोहु, प्रजा मोहु, मोहु मन्द गहिरा । मोहिनी चाहिनी चाहि, माथ नवइ । पाहि सिद्ध गुरु के वन्द पाइ जस दे कालि का माई ॥” इसकी सिद्धि से साधक की सर्व मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा श्री भैरवजी की कृपा बनी रहती है । इस मन्त्र से झाड़ने पर सभी व्याधियों का नाश होता है । 

प्रयोग 2 — 41 दिनों तक किसी शिव मंदिर या भैरव मंदिर में भैरव की पंचोपचार पूजा करने के बाद उड़द के बड़े और मद्य का भोग लगाएं । भैरव देव प्रसन्न होकर भक्त की सब मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं । मन्त्रः— “आद भैरों, जुगाद भैरों, भैरों हैं सब भाई । भैरों ब्रह्मा, भैरों विष्णु भैरों ही भोला साईं । भैरों देवी, भैरों सब देवता, भैरों सिद्ध भैरों नाथ, गुरु, भैरों पीर, भैरों ज्ञान, भैरों ध्यान । भैरों योग-वैराग । भैरों बिन होय ना रक्षा । भैरों बिन बजे ना नाद । काल भैरों, विकराल भैरों । घोर भैरों, अघोर भैरों । भैरों की कोई ना जाने सार । भैरों की महिमा अपरम्पार । श्वेत वस्त्र, श्वेत जटाधारी । हत्थ में मुदगर, श्वान की सवारी । सार की जंजीर, लोहे का कड़ा । जहां सिमरुं, भैरों बाबा हाजिर खड़ा । चले मन्त्र, फुरे वाचा । देखा आद भैरों । तेरे इल्म चोट का तमाशा ॥” 

प्रयोग 3 — भैरव जी के चित्र या मूर्ति के सम्मुख दीप, धूप, गुग्गल देकर भैरवदेव की पंचोपचार पूजा करें । पूजा के उपरांत 108 बार नित्य निम्न मन्त्र का जप करें । फिर मद्य अर्पित करें । यह प्रयोग 8 दिन करना है, 8वें दिन नारियल, बाकला सवा पाव, रोट सवा सेर, लाल कनेर के फूल से भैरव देव को बलि दें । भैरव देव प्रसन्न होकर सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं । मन्त्रः— “ॐ काला भैरुं, कबरा केश । काना कुण्डल, भगवा वेष । तिर पतर लिए हाथ, चौंसठ योगनियां खेले पास । आस माई, पास माई । पास माई, सीस माई । सामने गादी बैठे राजा, पीड़ो बैठे प्रजा मोहि । राजा को बनाऊ कुकड़ा, प्रजा का बनाऊं गुलाम । शब्द साचा, पिण्ड काचा, गुरु का वचन जुग जुग सांचा ॥”

 प्रयोग 4 — निम्न मन्त्र का अनुष्ठान रविवार से प्रारम्भ करें । एक पत्थर का तीन कोने वाला काला टुकड़ा लेकर उसे अपने सामने स्थापित करें । उसके ऊपर तेल और सिंदूर का लेप करें । पान और नारियल भेंट में चढ़ावें । नित्य सरसों के तेल का दीपक जलावें । अच्छा होगा कि दीपक अखण्ड हो । मन्त्र को नित्य 21 बार 41 दिनों तक जपें । जप के बाद नित्य छार, छरीला, कपूर, केशर और लौंग से हवन 21 बार करें । भोग में बाकला रखें । जब श्री भैरव देव दर्शन दें, तो डरें नहीं । भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और मांस मदिरा की बलि दें । जो मांस-मदिरा का प्रयोग न कर सकें, वे उड़द के पकौड़े, बेसन के लड्डू और गुड़ मिली खीर की बलि दें । सिद्ध होने के बाद सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । इसे भैरव दर्शन विधान भी कहते हैं । मन्त्रः— “ॐ गुरूजी ! काला भैरू, कपला केश । काना मदरा, भगवाँ भेष । मार-मार काली-पुत्र, बारह कोस की मार । भूतां हात कलेजी, खूं हाँ गेडिया । जाँ जाऊँ, भैरू साथ । बारह कोस की रिद्धि ल्यावो, चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो । सुत्यो होय, तो जगाय ल्यावो । बैठ्या होय, तो उठाव ल्यावो । अनन्त केसर को थारी ल्यावो, गौराँ पार्वती की बिछिया ल्यावो । गेले की रस्तान मोय, कुवें की पणियारी मोय । हटा बैठया बणियाँ मोय, घर बैठी बणियाणी मोय । राजा की रजवाड़ मोय, महल बैठी राणी मोय । डकणी को, सकणी को, भूतणी को, पलीतणी को, ओपरी को, पराई को, लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धकमा कूँ, अलीया को, पलीया को, चौड़ को, चौगट को, काचा को, कलवा को, भूत को, पलीत को, जिन को, राक्षस को, बैरियाँ से बरी कर दे । नजराँ जड़ दे ताला । इता भैरव नहीं करे, तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे । माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे । चल डकणी-सकणी, चौड़ूँ मैला बाकरा । देस्यूं मद की धार, भरी सभा में । छूं ओलमो कहाँ लगाई थी बार । खप्पर में खा, मुसाण में लोटे । ऐसे कुण काला भैरूँ की पूजा मेटे । राजा मेटे राज से जाय । प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय । जोगी मेटे ध्यान से जाय । शब्द साँचा, ब्रह्म वाचा, चलो मन्त्र, ईश्वरो वाचा ॥”

 प्रयोग 5 — निम्न भैरव मन्त्र शत्रु पीड़ा, वशीकरण, मोहन, आकर्षण में अचुक प्रयोग है । इस मन्त्र का अनुष्ठान शनि या रविवार से प्रारम्भ करना चाहिए । एक तिकोना पत्थर लेकर उसे एकांत कमरे में स्थापित करके उसके ऊपर तेल-सिंदूर का लेप करें । नारियल और पान भेंट में चढ़ाएं । नित्य सरसों के तेल का दीपक अखंड जलाएं । नित्य 27 बार 40 दिन तक मन्त्र का जप करके कपूर, केसर छबीला, लौंग, छार की आहुति देनी चाहिए । भोग में बाकला, बाटी रखनी होती है । जब भैरव दर्शन दें तो डरे नहीं, भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उड़द के पकौड़े, बेसन के लड्डू, गुड़ से बनी खीर बलि में अर्पित करें । मन्त्र में वर्णित सभी कार्य सिद्ध होते हैं । मन्त्रः— “ॐ गुरु, ॐ गुरु, ॐ गुरु, ॐकार, ॐ गुरु भूमसान, ॐ गुरु सत्य गुरु । सत्य नाम काल भैरव । कामरू जटा चार पहर खोले चौपटा । बैठे नगर में । सुमरों तोय । दृष्टि बांध दे सबकी । मोय हनुमान बसे हथेली । भैरव बसे कपाल । नरसिंह जी को मोहिनी, मोहे सकल संसार । भूत मोहूं, प्रेत मोहूं, जिन्द मोहूं, मसान मोहूं । घर का मोहूं, बाहर का मोहूं । बम रक्कस मोहूं, कोढ़ा मोहूं, अघोरी मोहूं, दूती मोहूं, दुमनी मोहूं, नगर मोहूं, घेरा मोहूं, जादू-टोना मोहूं, डंकनी मोहूं, संकनी मोहूं, रात का बटोही मोहूं, बाट का बटोही मोहूं, पनघट की पनिहारी मोहूं, इंद्र का इंद्रासन मोहूं, गद्दी बैठा राजा मोहूं, गद्दी बैठा बणिया मोहूं, आसन बैठा योगी मोहूं । और को देख जले भुने । मोय देख के पायन परे । जो कोई काटे मेरा वाचा, अंधा कर, लूला कर, सिड़ी वोरा कर, अग्नि में जलाय दे । धरी को बताए दे, गढ़ी को बताय दे, हाथ को बताए दे, गांव को बताए दे, खोए को मिलाए दे, रूठे को मनाए दे, दुष्ट को सताए दे, मित्रों को बढ़ाए दे । वाचा छोड़ कुवाचा चले, तो माता क चौखा दूध हराम करे । हनुमान आण । गुरुन को प्रणाम । ब्रह्मा, विष्णु साख भरे, उनको भी सलाम । लोना चामरी की आण, माता गौरा पार्वती महादेव जी की आण । गुरु गोरखनाथ की आण, सीता रामचंद्र की आण मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। गुरु के वचन से चले, तो मन्त्र ईश्वरो वाचा ॥” 

प्रयोग 6 — यह भैरव प्रयोग किसी अटके हुए कार्य में सफलता प्राप्ति हेतु है । प्रयोग रविवार से प्रारम्भ करके 21 दिन तक मृत्तिका की मणियों की माला से नित्य 28 बार जप करें । जप करने से पहले भैरव देव की पंचोपचार पूजा करें । जप के बाद गुड़ व तेल, उड़द का दही-बडा चढ़ाएं और पूजा से उठने के बाद उसे काले कुत्ते को खिला दें । मन्त्रः— “ॐ नमो भैरूनाथ, काली का पुत्र हाजिर होके, तुम मेरा कारज करो तुरत । कमर विराज मस्तंग लंगोट, घूघर माल । हाथ बिराज डमरू खप्पर त्रिशूल । मस्तक विराज तिलक सिंदूर । शीश विराज जटाजूट, गल विराज नादे जनेऊ । ॐ नमो भैरूनाथ काली का पुत्र ! हाजिर होके तुम मेरा कारज करो तुरत । नित उठ करो आदेश-आदेश ॥” 

प्रयोग 7 — निम्न मन्त्र नवरात्री, दीपावली या सूर्यग्रहण की रात्रि में सिद्ध करें । त्रिखुटा चौका देकर, दक्षिण की ओर मुंह करके, मन्त्र का जप 1008 बार करें । तब लाल कनेर के फूल, लड्डू, सिंदूर, लौंग, भैरव देव को चढ़ावें । जप से पहले भैरव देव की पंचोपचार पूजा करें । अखंड दीपक निरंतर जलता रहना चाहिए । जप के दशांश का हवन छार, लौंग छबीला, कपूर, केसर से करें । जब भैरव जी भयंकर रूप में दर्शन दें तो डरें नहीं । तत्काल फूल की माला उनके गले में डालकर बेसन का लड्डू उनके आगे रखकर वर मांग लेना चाहिए । श्री भैरव दर्शन न दें तो भी कार्य सिद्धि अवश्य होगी । दर्शन न मिले तो उनकी मूर्ति को माला पहनाकर लड्डू वहीं रख दें । अभीष्ट कार्य कुछ ही दिनों में हो जाएगा । मन्त्रः— “ॐ काली कंकाली महाकाली के पुत्र, कंकाल भैरव ! हुकम हाजिर रहे, मेरा भेजा काल करे । मेरा भेजा रक्षा करे । आन बाँधू, बान बाँधू । चलते फिरते के औंसान बाँधू । दसों स्वर बाँधू । नौ नाड़ी बहत्तर कोठा बाँधू । फूल में भेजूँ, फूल में जाए । कोठे जीव पड़े, थर-थर काँपे । हल-हल हलै, गिर-गिर पड़ै । उठ-उठ भगे, बक-बक बकै । मेरा भेजा सवा घड़ी, सवा पहर, सवा दिन सवा माह, सवा बरस को बावला न करे तो माता काली की शैया पर पग धरै । वाचा चुके तो ऊमा सुखे । वाचा छोड़ कुवाच करे तो धोबी की नांद में, चमार के कूड़े में पड़े । मेरा भेजा बावला न करे, तो रूद्र के नेत्र से अग्नि की ज्वाला कढ़ै । सिर की लटा टूट भू में गिरै । माता पार्वती के चीर पर चोट पड़ै । बिना हुक्म नहीं मारता हो । काली के पुत्र, कंकाल भैरव ! फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा । सत्य नाम, आदेश गुरु को ॥” 

प्रयोग 8 — निम्न मन्त्र होली, दीपावली, शिवरात्री, नवरात्रा या ग्रहण के समय लाल मिट्टी से चौका देकर अरंडी (एरंड) की सूखी लकड़ी पर तेल का हवन करें । जब लौ प्रज्वलित हो तो उसी प्रज्वलित लौ को चमेली के फूलों की माला पहना के सिंदूर, मदिरा, मगौड़ी, इत्र, पान चढ़ाकर फिर गुग्गुल से हवन करें । उपरोक्त क्रिया करने से पहले 1008 बार निम्न मन्त्र का पहले जप कर लें । मन्त्र सिद्ध हो जाएगा । प्रारम्भ में भैरव देव का पंचोपचार पूजन कर दें । प्रत्येक वर्ष नवरात्र या दीपावली में शक्ति बढ़ाने के लिए 108 बार मन्त्र का जप कर दिया करें । जब कोई कार्य सिद्ध करना हो तो जहां ‘मेरा’ कहना लिखा है, वहां कार्य का नाम कहें । मन्त्रः— “भैरों उचके, भैरों कूदे । भैरों सोर मचावे । मेरा कहना ना करे, तो कालिका को पूत न कहावै । शब्द सांचा, फूरो मन्त्र ईश्वरी वाचा ॥”

 प्रयोग 9 — निम्न मन्त्र का अनुष्ठान 21 दिन का है, साधक श्मशान में भैरव देव का पंचोपचार पूजन करने के उपरांत 10 माला का जप नित्य 7 दिनों तक करें, फिर 7वें दिन मद्य, मांस की आहुति दें, फिर चौराहे में बैठकर 10 माला जप नित्य 7 दिन करें, 7वें दिन दही-बाड़ा, मद्य, मांस की आहुति दें, उसके बाद घर के एकांत कमरे में 7 दिन तक नित्य 10 माला का जप करें और 7वें दिन दही-बाड़ा, बाकला-बाटी और मद्य, मांस की आहुतियां दें, इससे भैरव जी प्रसन्न होकर साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं । मन्त्रः— “ॐ भैरों ऐंडी भैरों मैंडी । भैरों सबका दूता देवी का दूत, देवता का दूत, गुरु का दूत, पीर का दूत, नाथों का दूत, पीरों का दूत, भैरों छड़िया कहाए । जहां सिमरुं तहां आए । जहां भेजूं, तहां जाए । चले मन्त्र फूरे वाचा । देखूं छड़िया भैरों, तेरे इल्म का तमाशा ॥” 

प्रयोग 10 — होली, दिवाली अथवा ग्रहण के समय  मन्त्र का एक हजार जप करे । किसी को ओपरी (तान्त्रिक आभिचारिक) बाधा हो, तो लौंग, इलायची और विभूति बनाकर दे । लाभ होगा । मन्त्रः— “काला भैरों कपली जटा । हत्थ वराड़ा, कुन्द वडा । काला भैरों हाजिर खड़ा । चाम की गुत्थी, लौंग की विभूत । लगे लगाए की करे भस्मा भूत । काली बिल्ली, लोहे की पाखर, गुर सिखाए अढ़ाई अखर । अढ़ाई अखर गए गुराँ के पास, गुराँ बुलाई काली । काली का लगा चक्कर । भैरों का लगा थप्पड़ । लगा – लगाया, भेजा-भेजाया, सब गया सत समुद्र-पार ॥”

 प्रयोग 11 — निम्न मन्त्र की साधना 40 दिन की है । यह साधना शुद्ध जल से स्नान करके, स्वच्छ वस्त्र धारण करके शनिवार से प्रारम्भ करें । पहले भैरव देव की पंचोपचार पूजा करके एक मिट्टी के घड़े के ऊपरी हिस्से को तोड़कर नीचे का जो आधा और ज्यादा भाग रहे, उस हिस्से में आग जलाएं, उसके पास एक बाजू में सरसों के तेल का दीपक जलाकर रखें और दूसरे बाजू में गुग्गुल की धूप जलाएं और उसके सामने मद्य, मांस का भोग रखकर निम्न मन्त्र की एक माला का जप करें । जप के बाद भोग को अग्नि में डाल दें, प्रतिदिन भोग आदि देकर जप करते रहें । प्रत्येक आठवें दिन भोग सामग्री का विशेष हवन 10 बार अलग से किया कीया करें तो मन्त्र सिद्ध होता है और साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है । मन्त्रः— “ॐ काला भैरव काला बान । हाथ खप्पर लिए फिर मसान । मद्य मछली का भोजन करें सांचा भैरव हांकता चले । काली का लाड़ला । भूतों का व्यापारी । डाकिनी शाकिनी सौदागरी । झाड़-झटक, पटक-पछाड़ । सर खुला मुख बला । नहीं तो माता कालिका का दूध हराम । शब्द सांचा, पिंड कांचा । चलो भैरव । ईश्वरो वाचा ॥” 

प्रयोग 12 — भैरव शत्रु-संहारक शाबर मन्त्र – रात्रि को दस बजे के बाद कडुए तेल का दीपक जला कर बैठे । सामने भैरव की प्रतिमा या चित्र हो । मन्त्र पढ़कर एक नींबू खड़ा काटे । १०८ बार । ऐसा ही ग्यारह दिनों तक करे । १२वें दिन १२ ‘बटुक’ — छोटे-छोटे ब्राह्मण बालकों को भोजन कराए और उन्हें दक्षिणा दे । रात्रि को हवन करे । सम्भव हो, तो यह हवन श्मशान में सन्ध्या के बाद करे । १३वें दिन सुबह जल्दी श्मशान जाए और उक्त हवन की भस्मी, जो भी चिता वहाँ अधजली या जली हो, उसमें डाल दे । उस चिता पर कुंकुम, अक्षत, पुष्प एवं कुछ मीठा प्रसाद छोड़कर नमस्कार करके चला आए । मन्त्रः— “ॐ नमो, आदेश गुरू को । काला भेरू-कपिल जटा । भेरू खेले चौराह-चौहट्टा । मद्य-मांस को भोजन करे । जाग जाग से काला भेरू ! मात कालिका के पूत ! साथे जोगी जङ्गम और अवधूत । मेरा वैरी ………. (अमुक) तेरा भक । काट कलेजा, हिया चक्ख । भेजी का भजकड़ा कर । पाँसला का दाँतन कर । लोहू का तू कुल्ला कर । मेरे वैरी ………… (अमुक) को मार । मार-मार तू भसम कर डार । वाह वाह रे काला भेरू ! काम करो बेधड़क-भरपूर । जो तू मेरे वैरी दुश्मन (अमुक) को नहीं मारे, तो मात कालिका का पिया दूध हराम करे । गाँगली तेलन, लूनी चमारन का-कुण्ड में पड़े । वाचा, वाचा, ब्रह्मा की वाचा, विष्णु की वाचा, शिव-शङ्कर की वाचा, शब्द है साँचा, पिण्ड है काचा । गुरू की शक्ति, मेरी भक्ति । चलो मन्त्र ! इसी वक्त । ॐ हूं फट् ।” 

प्रयोग 13 — श्रीभैरव-सिद्धि मन्त्र — निम्न मन्त्र का एक लाख जप तथा दशांश होम करने से मन्त्र सिद्ध होता है । प्रति-दिन प्रातः-काल पवित्रावस्था में यथा-विधि पूजन इत्यादि कर यथा-शक्ति जप करना चाहिए । मन्त्र — “ॐ नमो काला-गोरा क्षेत्र-पाल ! वामं हाथं कान्ति, जीवन हाथ कृपाल । ॐ गन्ती सूरज थम्भ प्रातः-सायं रथभं जलतो विसार शर थम्भ । कुसी चाल, पाषान चाल, शिला चाल हो चाली, न चले तो पृथ्वी मारे को पाप चलिए । चोखा मन्त्र, ऐसा कुनी अब नार हसही ॥” जप के बाद निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए भैरव जी को नमस्कार करना चाहिए । यथा — “ह्रीं ह्रों नमः ।’ इस प्रकार साधना करने से भैरव जी सिद्ध होते हैं और साधक की सभी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं । 

प्रयोग 14 — श्रीभैरव-चेटक मन्त्र — निम्न नवाक्षर मन्त्र का कुल ४० हजार जप कर गो-धूल से दशांश हवन करे । १८ दिनों तक इस तरह हवन करने से भैरव जी प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । मन्त्रः— “ॐ नमो भैरवाय स्वाहा ॥” 

प्रयोग 15 — भैरव जी की चौकी मूकने का मन्त्र — उक्त चौकी मन्त्र को पढ़कर अपने चारों ओर एक घेरा खींचे तो किसी भी प्रकार का डर नहीं रहता । स्व-रक्षा और दूसरों द्वारा किए गए अभिचार कर्म के लिए यह उपयोगी मन्त्र है । मन्त्रः— “चेत सूना ज्ञान, औधी खोपडी मरघटियां मसान, बाँध दे बाबा भैरों की आन ॥” 

प्रयोग 16 — अरिष्ट-निवारक-भैरव मन्त्र — उक्त मन्त्र का दस हजार जप करने से अरिष्टों की शान्ति होती है । शान्ति-करन सम्बन्धी यह उत्तम मन्त्र है । मन्त्रः— “ॐ क्ष्रौं क्ष्रौं स्वाहा ।” 

प्रयोग 17 — भय-निवारक भैरव मन्त्र — 5 हजार जप से उक्त मन्त्र की सिद्धि होती है । बाद में जब किसी भी प्रकार का भय हो, तब उक्त मन्त्र का जप करे । इससे भय दूर होता है । मन्त्रः— “ॐ ह्रीं भैरव – भैरव भयकर-हर मां, रक्ष-रक्ष हुँ फट् स्वाहा ॥” 

प्रयोग 18 — शिशु-बाधा-निवारक भैरव मन्त्र — ५ वर्ष से कम उम्रवाले बच्चों की सुरक्षा के लिए उक्त मन्त्र अमोघ है । रोग, बाधा, टोना या टोटका आदि से पीडित बच्चों को बलाओं से बचाने के लिए बच्चे की माँ के बाँएँ पैर के अँगूठे को एक छोटे ताम्र-पत्र में रखवाकर धोए । धोए हुए जल के ऊपर ११० बार निम्न मन्त्र का जप कर उसे अभिमन्त्रित करे । इस अभिमन्त्रित जल से उक्त मन्त्र का जप करते हुए बच्चे को कुश या पान के पत्ते से छींटे मारे । इससे बच्चा स्वस्थ हो जाता है । यदि एक बार में लाभ न हो, तो ऐसा ३ या ७ या ६ दिनों तक नित्य करे । बच्चे को आराम अवश्य होगा । मन्त्रः— “श्रीभैरवाय वं वं वं ह्रां क्षरौं नमः ॥” 

प्रयोग 19 — सर्व-विघ्न-निवारक मन्त्र मन्त्र — पहले श्री काल-भैरव जी के पास धूप-दीप-फल-फूल-नैवेद्य आदि यथा-शक्ति चढ़ाए । फिर मन्त्र का एक माला जप करे । ऐसा तब तक करे, जब तक ध्येय-सिद्धि न हो । मन्त्र को एक कागज के ऊपर लिख कर पूजा – स्थान में रख लेना चाहिए । जिससे मन्त्र-जप में भूल न हो । मन्त्रः— “ॐ हूँ ख्रों जं रं लं बं क़ों ऐं ह्रीं महा-काल भैरव सर्व-विघ्न-नाशय नाशय ह्रीं फट स्वाहा ॥” 

प्रयोग 20 — सिद्धि-प्रदायक महा-काल भैरव जी का मन्त्र — शुभ मुहूर्त में अथवा जब आपकी राशि का चन्द्र बली हो, तब उक्त मन्त्र का २१ हजार जप करे । इससे मन्त्र-सिद्धि होगी । बाद में नित्य १ माला जप करता रहे, तो श्री महा – काल भैरव जी प्रसन्न होकर अभीष्ट-सिद्धि प्रदान करते हैं । जप के साथ कामनानुसार ध्यान भी करना चाहिए । मन्त्रः— “ॐ हं ष नं ग फ सं ख महा-काल भैरवाय नमः ॥”

श्री वीर भैरों मंत्र शाबर

श्री वीर भैरों शाबर मन्त्र ‘स्व-रक्षा’ और ‘शत्रु-त्रासन हेतु 
श्री वीर भैरों मन्त्र “हमें जो सतावै, सुख न पावै सातों जन्म । इतनी अरज सुन लीजै, वीर भैरों ! आज तुम ।। जितने होंय सत्रु मेरे, और जो सताय मुझे । वाही को रक्त-पान, स्वान को कराओ तुम ।। मार-मार खड्गन से, काट डारो माथ उनके । मास रक्त से नहावो, वीर-भैरों ! तुम ।। कालका भवानी, सिंह-वाहिनी को छोड़ । मैंने करी आस तेरी, अब करो काज इतनो तुम ।।” विधिः- सवा सेर बूँदी के लड्डू, नारियल, अगरबत्ती और लाल फूलों की माला से श्री वीर भैरव का पूजन कर २१ दिनों तक नित्य १०८ बार पाठ करें । बाद में आवश्यक होने पर ७ बार नित्य पाठ करते रहें, तो स्वयं की रक्षा होती है और शत्रु-वर्ग का नाश होता है ।


हनुमान जी का शत्रु-नाशक मन्त्र

हनुमान जी का शत्रु-नाशक मन्त्र 
“ॐ हनुमान वीर नमः। ॐ नमो वीर, हनुमत वीर, शूर वीर, धाय-धाय चलै वीर। मूठी भर चलावै तीर। मूठी मार, कलेजा काढ़ै। क्रोध करता, हियरा काढ़ै। मेरा वैरी, तेरे वश होवै। धर्म की दुहाई। राजा रामचन्द्र की दोहाई। मेरा वैरी न पछाड़ मारै तो माता अञ्जनी की दोहाई।” विधि- काले उड़द को अभिमन्त्रित करके शत्रु की ओर फेंके। इससे शत्रु का नाश होगा। प्रयोग करते समय मन्त्र का जप २१ से लेकर १०८ बार करे। पहले होली, दीपावली, एकादशी में सिद्ध कर लें। जप संख्या १००८।


श्री गजेन्द्र मोक्ष

श्री गजेन्द्र मोक्ष श्री शुक उवाच एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो ह्रदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1॥ श्री शुकदेवजी ने कहा- बुद्धि के द्वारा निश्चय करके तथा मन को ह्रदय में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्वजन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन-ही-मन पाठ करने लगा।।१।। गजेन्द्र उवाच ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥ जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं, “ॐ” शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रुप से प्रविष्ट हुए उन सर्वसमर्थ परमेश्वर को हम मन-ही-मन नमन करते हैं।।२।। यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्| योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।। जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रुप में प्रकट हैं-फिर भी जो इस दृश्य जगत् से एवं उसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं-उन अपने-आप-बिना किसी कारण के-बने हुए भगवान् की मैं शरण लेता हूँ।।३।। यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्। अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।। अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरुप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहनेवाले इस शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारण रुप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रुप से देखते रहते हैं-उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।।४।। कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु। तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।। समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकारणरुपा प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ऒर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें।।५।। न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्। यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।। भिन्न-भिन्न रुपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरुप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरुप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है-वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें।।६।। दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः। चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः सुह्रदः स मे गतिः।।७।। आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरुप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं।।७।। न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।। जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकारप्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरुप का न तो कोई नाम है न रुप ही, फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार)-के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं।।८।। तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये। अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।। उन अनन्तशक्तिसम्पन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है।।९।। नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने। नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।। स्वयंप्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को, जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है।।१०।। सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।। विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुख के देने वाले तथा मोक्ष-सुख की अनुभूति रुप प्रभु को नमस्कार है।।११।। नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे। निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।। सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ-से प्रतीत होने वाले, भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है।।१२।। क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।। शरीर, इन्द्रिय आदि के समुदायरुप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरुप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है।।१३।। सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।। सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारणरुप, सम्पूर्ण जड-प्रपञ्च एवं सबकी मूलभूता अविद्यारुप के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारुप से भासने वाले आपको नमस्कार है।।१४।। नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय। सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।। सबके कारण किन्तु स्वयं कारणरहित तथा कारण होने पर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरुप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है।।१५।। गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय। नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।। जो त्रिगुणरुप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानमय अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्यवृत्ति जाग्रत् हो जाती है तथा आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा विधि-निषेधरुप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माऒं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।।१७।। मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय। स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।। मुझ-जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्यारुप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरुप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रुप से प्रकट रहने वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है।।१६।। आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।। शरीर, पुत्र, मित्र, घर, सम्पत्ति एवं कुटुम्बियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरुप, सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है।।१८।। यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।। जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिये उबार लें।।१९।। एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः। अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।। जिनके अनन्य भक्त- जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं- धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र के गोते लगाते रहते हैं।।२०।। तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्। अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।। उन अविनाशी, सर्वव्यापाक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये अप्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होनेवाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किन्तु सबके आदि कारण एवं सब ऒर से परिपूर्ण उन भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।।२१।।  यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः। नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।। ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं।।२२। यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः। तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर-यह गुणमय प्रपञ्च जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता है।।२३।। स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः। नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।। वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं, न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक् (मनुष्य से नीची-पशु, पक्षी आदि किसी) योनी के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष ऒर न नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरुप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों।।२४।। जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या। इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।। मैं इस ग्राह के चंगुल से छूटकर जीवित रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर ऒर बाहर-सब ऒर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् कि दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।।२५।। सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्। विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।। इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचयिता, स्वयं विश्व के रुप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मारुप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ-उनकी शरण में हूँ।।२६।। योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते। योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।। जिन्होंने भगवद्भक्तिरुप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने ह्रदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।।२७।। नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय। प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।। जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरुप) शक्तियों का रागरुप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरुप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती हैं- ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है।।२८।। नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्। तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।। जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरुप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरुप को यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमावाले भगवान् की शरण आया हूँ।।२९।। श्री शुक उवाच एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः। नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।। श्रीशुकदेवजी ने कहा- जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेदरहित निराकार स्वरुप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरुप मानते हैं, तब साक्षात् श्रीहरि-जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरुप हैं-वहाँ प्रकट हो गये।।३०।। तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः। छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।। उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुनकर सुदर्शन-चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरुप वेग वाले गरुड़जी की पीठ पर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था।।३१।। सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्। उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।। सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकड़े जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुढ़ की पीठ पर चक्र को उठाये हुए भगवान् श्रीहरि को देखकर अपनी सूँड़ को- जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रखा था-ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनता से ‘सर्वपूज्य भगवान् नारायण, आपको प्रणाम है’, यह वाक्य कहा।।३२।। तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार। ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।। उसे पीड़ित देखकर अजन्मा श्रीहरि एकाएक गरुढ़ को छोड़कर नीचे झील पर उतर आये। वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते-देखते चक्र से उस ग्राह का मुँह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया।।३३।। श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्रमोक्ष की कथा है। द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् के स्तवन और गजेन्द्रमोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय के गज-ग्राह के पूर्वजन्म का इतिहास है। श्रीमद्भागवत में गजेन्द्रमोक्ष-आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्ननाशक और श्रेयःसाधक कहा गया है। तृतीय अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है। इसकी भाषा और भाव सिद्धान्त के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर है। स्वयं भगवान् का वचन है कि ‘जो रात्री के शेष में (ब्राह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में) जागकर इस स्तोत्र के द्वारा मेरा स्तवन करते हैं, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल मति (अपनी स्मृति) प्रदान करता हूँ।

शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधि

शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधि कभी ऐसा भी होता है कि उचित विधि से शाबर मन्त्र का प्रयोग करने के बाद भी साधना में सिद्धि नहीं मिलती। ऐसे समय शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है। शाबर मन्त्र को जाग्रत करने की अनुभूत विधियाँ इस प्रकार हैः- १॰ एक अखण्ड व बड़ा ‘भोजपत्र’ लें। ‘अष्टगन्ध में गंगाजल मिलाकर स्याही बनाए। ‘दाड़िम’ की लेखनी से ‘भोजपत्र’ पर १०८ बार उस मन्त्र को लिखें, जिसे जाग्रत करना है। यदि मन्त्र बड़ा हो, तो ३,५,७,९ या ११ बार लिखें। लेखन के साथ-साथ मन्त्रोच्चारण करता रहे। फिर एक पाटे या चौकी के ऊपर नया वस्त्र बिछाकर मिट्टी का नया कलश रखें, साथ ही मन्त्रलिखित भोजपत्र भी रखें। धूप-दीप-नैवेद्य से भोजपत्र का पूजन करें। पूजन के बाद १०८ बार पुनः मन्त्र का जप करें। ब्राह्मणों को भोजन कराए। गरीबों को दान-दक्षिणा दें। कलश में नया वस्त्र रखकर उसके ऊपर मन्त्र लिखा हुआ भोजपत्र रख दें। कलश का मुँह बन्द कर दें और उसे बहती हुई नदी के जल में प्रवाहित कर दें। प्रवाहित करते समय मन्त्र का उच्चारण करता रहे। विसर्जन के बाद घर आ जायें। २॰ रविवार की रात में ‘असावरी देवी की पूजा कर, काँसे की थाली को राख से स्वच्छ कर उसे सामने रखें और प्रत्येक प्रहर के प्रारम्भ में अभीष्ट मन्त्र को १०८ बार जपें। चौथे (आखिरी) प्रहर में मन्त्र-जप के पश्चात् ‘खैर’ की डण्डी से हिन्दी अथवा मातृभाषा में कहें — “हे मन्त्र देवी जाग्रत हो।” साथ ही उक्त थाली को बजाएँ।

प्रवास में सुविधा पाने के लिए

प्रवास में सुविधा पाने के लिए
साधक को किसी अपरिचित स्थान में रुकने का जब अवसर मिले और उसे ऐसा लगे कि ‘मैं यहां कैसे सुविधा प्राप्त करूँ? यहां मुझे तो कोई पहचानता भी नहीं !’ तब सरलता से सुविधा पाने के लिए निम्न ‘साबर-मन्त्न’ का उपयोग किया जाता है । मन्त्र को उज्जीवित करने के लिए होली या दीपावली की रात्नि में तथा चन्द्र-सूर्य-ग्रहण के समय इस मन्त्र का १०८ बार जप कर लेना चाहिए । इन पर्वो पर साधक को सदा प्रत्येक बार इतना ही जप करते रहना चाहिए, अन्यथा मन्त्र प्रसुप्त हो जाएगा और फल-प्रद नही होगा । मन्त्र :- “गच्छ गौतम ! शीघ्र त्वं, ग्रामेषु नगरेषु च । अशनं वसनं चैव, ताम्बूलं तत्र कल्पय ।।” जहां साधक को ठहरना है, उस स्थान की सीमा में पहुँच कर उक्त मन्त्र को सात (७) बार पड़े । मन्त्र पढ़ते समय सफेद दूर्वा के तीन छोटे टुकड़े हाथ में रखने चाहिए । सात बार मन्त्र पढ़कर दूर्वा के टुकड़ों को शिखा या बालों में उलझाए । ठहरने के स्थान पर सब सुविधा मिलने तक इन टुकड़ों को केशों में उलझा रहने दे । आपको यदि ऐसा लगे कि ठीक समय पर सफेद दूर्वा नहीं मिलेगी, तो उसे यात्रा और पर्यटन में अपने साथ ले जाए ।


श्रीविद्या

श्रीविद्या

श्री विद्या देवी ललिता त्रिपुरसुन्दरी से सम्बन्धित तन्त्र विद्या का हिन्दू सम्प्रदाय है। ललितासहस्रनाम में इनके एक सहस्र (एक हजार) नामों का वर्णन है। ललितासहस्रनाम में श्रीविद्या के संकल्पनाओं का वर्णन है। श्रीविद्या सम्प्रदाय आत्मानुभूति के साथ-साथ भौतिक समृद्धि को भी जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार करता है।

श्रीविद्या का साहित्य विशाल है। ऋग्वेद मैं श्रीसूक्त मैं श्रीदेवी मतलब महालक्ष्मी जो परमेश्वरि के उपासना किया जाता हैं। ये ही वैदिक श्रीविद्या हैं।

श्रीविद्या के भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनन्त नाम और अनन्त रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के मतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है।

श्रीविद्या के उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुह्य विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं, यथा- मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।श्री विद्या के जो प्रायः लुप्तप्राय मत है वो आज भी प्राचीनतम आगम मठ पूर्णतः प्रचलित है आगम मठ कैलाश पर्वत से लेकर भूटान की तलहटी तक पाँच मठो मे विभाजित है
श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्रराज और त्रिपुरोपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता है।

लोपामुद्रा अगस्त्य की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया था। त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त किया। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।

दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि -

यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां, भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थे, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।

त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम 'ललिता' है। ऐसी किवदंति है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किया। जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तार विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण किया। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।

श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री, वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। सम्मोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महाविद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना। दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।

गौड संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं।
1. तंत्रराज - इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानन्दनाथ कृत मनोरमा मुख्य है। इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।

2. तंत्रराजोत्तर

3. परानन्द या परमानन्दतंत्र - किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।

4. सौभाग्यकल्पद्रुम - परमानंद के अनुसार यह श्रेष्ठ ग्रंथ है।

5. सौभाग्य कल्पलतिका (क्षेमानन्द कृत)

6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।

7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।

8-9. श्रीक्रमसंहिता तथा वृहदश्रीक्रमसंहिता।

10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता - यह 66 पटल में है।

11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।

12. कालात्तर वासना - सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।

13. त्रिपुरार्णव।

14. श्रीपराक्रम - इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।

15. ललितार्चन चंद्रिका - यह 17 अध्याय में है।

16. सौभाग्य तंत्रोत्तर

17. मातृकार्णव

18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)

19. सौभाग्य सुभगोदय - (अमृतानंदनाथ कृत)

20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)

21. त्रिपुरा रहस्य - (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)

22. श्रीक्रमात्तम - (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)

23. अज्ञात अवतार - इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।

24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।

26. चंद्रपीठ

27. संकेतपादुका

28. सुंदरीमहोदय - शंकरानंदनाथा कृत

29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)

30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।

31. ललितोपाख्यान - यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।

32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत)

33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)

34. विरूपाक्ष पंचाशिका

35. कामकला विलास

36. श्री विद्यार्णव

37. शाक्त क्रम (पूर्णानन्दकृत)

38. ललिता स्वच्छंद

39. ललिताविलास

40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)

41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)

42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)

43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)

44. त्रिपुरासार

45. सौभाग्य सुभगोदय: (विद्यानन्द नाथ कृत)

46. संकेत पद्धति

47. परापूजाक्रम

48. चिदंबर नट।

तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानन्द नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परन्तु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।

त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी-किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।

हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषद में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षर वाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।

मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है 'त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र'। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्तरचतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण है। यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिस पर शंकराचार्य की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।

इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्तिसूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृत कल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचन सत् तरह सौ तिरप्पनशकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्नसूत्र प्रसिद्ध है। इस पर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुरसूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदुसूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौलसूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।

स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चार्य ने सौंदर्यलहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललितासहस्रनाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।

श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।

तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।

भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। 'नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।'

ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है जो सुंदरी से भिन्न है (उसमें प्रपंच नहीं है)। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई-कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।

शाबर मन्त्र साधना

शाबर मन्त्र साधना के महत्त्वपूर्ण तथ्य
 १॰ इस साधना को किसी भी जाति, वर्ण, आयु का पुरुष या स्त्री कर सकती है । २॰ इन मन्त्रों की साधना में गुरु की इतनी आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि इनके प्रवर्तक स्वयं सिद्ध-साधक रहे हैं । इतने पर भी कोई निष्ठा-वान् साधक गुरु बन जाए, तो कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि किसी होने वाले विक्षेप से वह बचा सकता है । ३॰ साधना करते समय किसी भी रंग की धुली हुई धोती पहनी जा सकती है तथा किसी भी रंग के कम्बल का आसन बिछाया जा सकता है । ४॰ साधना में घी या मीठे तेल का दीपक प्रज्वलित रखना चाहिए, जब तक मन्त्र जप चले । ५॰ अगर-बत्ती या धूप किसी भी प्रकार की प्रयुक्त हो सकती है, गूग्गूल तथा लोबान की अगरबत्ती या धूप विशेष महत्ता मानी गई है । ६॰ जहाँ ‘दिशा’ का निर्देश न हो, वहाँ पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके साधना करनी चाहिए । ७॰ जहाँ माला का निर्देश न दिया हो, वहाँ कोई भी ‘माला’ प्रयोग में ले सकते हैं । ‘रुद्राक्ष’ की माला सर्वोत्तम मानी गयी है । ८॰ ‘शाबर’ मन्त्रों पर पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक है । अधूरा विश्वास या मन्त्रों पर अश्रद्धा होने पर फल नहीं मिलता । १०॰ साधना-काल में एक समय भोजन करें और ब्रह्मचर्य-पालन करें । ।मन्त्र-जप करते समय नहा-धोकर बैठना चाहिए । ११॰ साधना दिन या रात्रि किसी भी समय कर सकते हैं । १२॰ मन्त्र का जप ‘जैसा-का-तैसा’ करें । उच्चारण शुद्ध रुप से करें, लेकिन मन्त्र की वर्तनी आदि न सुधारें । १३॰ साधना-काल में हजामत बनवा सकते हैं । अपने सभी कार्य-व्यापार या नौकरी आदि सम्पन्न कर सकते हैं । १४॰ मन्त्र-जप घर में एकान्त कमरे में या मन्दिर में या नदी के किनारे – कहीं भी किया जा सकता है । १५॰ ‘शाबर’- मन्त्र की साधना यदि अधूरी छूट जाए या साधना में कोई कमी रह जाए, तो किसी प्रकार की हानि नहीं होती । शाबर मेरु मन्त्र तथा आत्म रक्षा मन्त्र किसी भी शाबर मन्त्र को सिद्ध करने से पूर्व शाबर मेरु मन्त्र या सर्वार्थ-साधक मन्त्र को सिद्ध कर लेना चाहिए । इसके लिए शाबर मेरु-मन्त्र अथवा सर्वार्थ-साधक मन्त्र का १० माला जप कर, १०८ बार हवन करना चाहिए । यथा – सर्वार्थ-साधक-मन्त्र- “गुरु सठ गुरु सठ गुरु हैं वीर, गुरु साहब सुमरौं बड़ी भाँत । सिंगी टोरों बन कहौं, मन नाऊँ करतार । सकल गुरु की हर भजे, घट्टा पकर उठ जाग, चेत सम्भार श्री परम-हंस ।” इसके पश्चात् गणेश जी का ध्यान करके निम्न मन्त्र की एक माला जपें – ध्यानः- “वक्र-तुन्ड, माह-काय ! कोटि-सूर्य-सम-प्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव ! सर्व-कार्येषु सर्वदा ।।” मन्त्रः- “वक्र-तुण्डाय हुं ।” फिर निम्न-लिखित मन्त्र से दिग्बन्धन कर लें – “वज्र-क्रोधाय महा-दन्ताय दश-दिशो बन्ध बन्ध, हूं फट् स्वाहा ।” उक्त मन्त्र से दशों दिशाएँ सुरक्षित हो जाती है और किसी प्रकार का विघ्न साधक की साधना में नहीं पड़ता । नाभि में दृष्टि जमाने से ध्यान बहुत शीघ्र लगता है और मन्त्र शीघ्र सिद्ध होते हैं । हवनः- साधारण हवन सामग्री तथा गौ-घृत से १०८ बार मूल मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ का उच्चारण करते हुए हवन करें । आत्म-रक्षा मन्त्रः- “ॐ नमः वज्र का कोठा, जिसमें पिण्ड हमारा पैठा । ईश्वर कुञ्जी, ब्रह्मा ताला, मेरे आठों याम का यती हनुमन्त रखवाला ।” तीन बार उक्त मन्त्र का जप करने से शरीर की सदा रक्षा होती है । ‘शाबर मेरु मन्त्र’ और ‘आत्म रक्षा मन्त्र’ को चैतन्य करने के बाद आवश्यक प्रयोग करने से कार्य-सिद्धि शीघ्र होती है अन्यथा हानि, कार्य-सिद्धि में विलम्ब या निष्फलता की प्राप्ति होती है।


दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...