Monday, 30 August 2021

नाथ सम्प्रदाय

नाथ सम्प्रदाय प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय
की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य
को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत
दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में
किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर
हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल,
कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ
योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं।
गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली'
कहते हैं। इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में
लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान
करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं।
अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है।
जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से
ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी,
उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ
साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न
हैं:- प्रारम्भिक दस नाथ आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल
नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और
श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन,
जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ,
वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ। चौरासी और नौ नाथ परम्परा आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के
वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे।
सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे।
उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है। नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश
नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ
9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3.
गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ
8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ
12.रामचंद्रनाथ। ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ,
ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ।
सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ,
दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं
बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है
कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में
गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज
माने जाते हैं। 

तिलक क्यों धारण करना चाहिए ?

 तिलक क्यों धारण करना चाहिए ?
हमारे दोनों भोहों के मध्य में आज्ञा चक्र होता है , इस चक्र में सूक्ष्म द्वार होता है जिससे इष्ट और अनिष्ट दोनों ही शक्ति प्रवेश कर सकती है , यदि इस सूक्ष्म प्रवेश द्वार को हम सात्त्विक पदार्थ का लेप एक विशेष रूप में दें तो इससे ब्रह्माण्ड में व्याप्त इष्टकारी शक्ति हमारे पिंड में आकृष्ट होती है और इससे हमारा अनिष्ट शक्तियों से रक्षण भी होता है | तिलक लगते समय चन्दन, बुक्का, विभूति , हल्दी-कुमकुम जैसे सात्त्विक पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए साथ ही स्त्रीयों ने गोल और पुरुषों ने खड़े तिलक लगाने चाहिए , यदि कोई विशेष संप्रदाय से संबन्धित हो तो उसके अनुसार तिलक लगाना चाहिए | तिलक लगाने से मन शांत रहता है , अनिष्ट शक्तियों से रक्षण होने के कारण और देवत्व आकृष्ट होने के कारण हमारे चारों ओर सूक्ष्म कवच का निर्माण होता है | आजकल कुछ स्त्रीयाँ टीवी धारावाहिक देखकर विचित्र आकार के टीका लगती हैं उससे भी ऐसे व्यक्ति को आसुरी शक्ति का कष्ट होता है | उसी प्रकार आजकल बाज़ार में उपलब्ध प्लास्टिक की बिंदी लगाने से भी कोई लाभ नहीं होता क्योंकि उसमे देवत्व को आकृष्ट करने की क्षमता नहीं होती ! तिलक धारण करने से प्रत्येक जीवात्मा को उसके आध्यात्म शास्त्रीय लाभ अवश्य मिलता है चाहे वह हिन्दू हो या ईसाई हो या अन्य किसी भी धर्म का हो !!

कार्य-सिद्धि कारक गोरक्षनाथ मंत्र

कार्य-सिद्धि कारक गोरक्षनाथ मंत्र

मन्त्रः-
“ॐ गों गोरक्षनाथ महासिद्धः, सर्व-व्याधि विनाशकः ।
विस्फोटकं भयं प्राप्ते, रक्ष रक्ष महाबल ।। १।।
यत्र त्वं तिष्ठते देव, लिखितोऽक्षर पंक्तिभिः ।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वातपित्त कफोद्भवाः ।। २।।
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपाः क्षयम् ।
शाकिनी भूत वैताला, राक्षसा प्रभवन्ति न ।। ३।।
नाऽकाले मरणं तस्य, न च सर्पेण दश्यते ।
अग्नि चौर भयं नास्ति, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गों ।। ४।।
ॐ घण्टाकर्णो नमोऽस्तु ते ॐ ठः ठः ठः स्वाहा ।।”
विधिः- यह मंत्र तैंतीस हजार या छत्तीस हजार जाप कर सिद्ध करें । इस मंत्र के प्रयोग के लिए इच्छुक उपासकों को पहले गुरु-पुष्य, रवि-पुष्य, अमृत-सिद्धि-योग, सर्वार्त-सिद्धि-योग या दिपावली की रात्रि से आरम्भ कर तैंतीस या छत्तीस हजार का अनुष्ठान करें । बाद में कार्य साधना के लिये प्रयोग में लाने से ही पूर्णफल की प्राप्ति होना सुलभ होता है ।
विभिन्न प्रयोगः- इस को सिद्ध करने पर केवल इक्कीस बार जपने से राज्य भय, अग्नि भय, सर्प, चोर आदि का भय दूर हो जाता है । भूत-प्रेत बाधा शान्त होती है । मोर-पंख से झाड़ा देने पर वात, पित्त, कफ-सम्बन्धी व्याधियों का उपचार होता है ।
१॰ मकान, गोदाम, दुकान घर में भूत आदि का उपद्रव हो तो दस हजार जप तथा दस हजार गुग्गुल की गोलियों से हवन किया जाये, तो भूत-प्रेत का भय मिट जाता है । राक्षस उपद्रव हो, तो ग्यारह हजार जप व गुग्गुल से हवन करें ।
२॰ अष्टगन्ध से मंत्र को लिखकर गेरुआ रंग के नौ तंतुओं का डोरा बनाकर नवमी के दिन नौ गांठ लगाकर इक्कीस बार मंत्रित कर हाथ के बाँधने से चौरासी प्रकार के वायु उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
३॰ इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करने से चोर, बैरी व सारे उपद्रव नाश हो जाते हैं तथा अकाल मृत्यु नहीं होती तथा उपासक पूर्णायु को प्राप्त होता है ।
४॰ आग लगने पर इक्कीस बार पानी को अभिमंत्रित कर छींटने से आग शान्त होती है ।
५॰ मोर-पंख से इस मंत्र द्वारा झाड़े तो शारीरिक नाड़ी रोग व श्वेत कोढ़ दूर हो जाता है ।
६॰ कुंवारी कन्या के हाथ से कता सूत के सात तंतु लेकर इक्कीस बार अभिमंत्रित करके धूप देकर गले या हाथ में बाँधने पर ज्वर, एकान्तरा, तिजारी आदि चले जाते हैं ।
७॰ सात बार जल अभिमंत्रित कर पिलाने से पेट की पीड़ा शान्त होती है ।
८॰ पशुओं के रोग हो जाने पर मंत्र को कान में पढ़ने पर या अभिमंत्रित जल पिलाने से रोग दूर हो जाता है । यदि घंटी अभिमंत्रित कर पशु के गले में बाँध दी जाए, तो प्राणि उस घंटी की नाद सुनता है तथा निरोग रहता है ।
९॰ गर्भ पीड़ा के समय जल अभिमंत्रित कर गर्भवती को पिलावे, तो पीड़ा दूर होकर बच्चा आराम से होता है, मंत्र से १०८ बार मंत्रित करे ।
१०॰ सर्प का उपद्रव मकान आदि में हो, तो पानी को १०८ बार मंत्रित कर मकानादि में छिड़कने से भय दूर होता है । सर्प काटने पर जल को ३१ बार मंत्रित कर पिलावे तो विष दूर हो ।..

भगवान शिव के 19 अवतारों

भगवान शिव के 19 अवतारों 

1- पिप्पलाद अवतार
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61
अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।

2- नंदी अवतार
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

3- वीरभद्र अवतार
यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
क्रुद्ध: सुदष्टïोष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिïसटोग्ररोचिषम्।
उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।

4- भैरव अवतार
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया।
ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6- शरभावतार
भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था।
हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7- गृहपति अवतार
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की।
एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8- ऋषि दुर्वासा
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया। शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥
-भागवत 4/1/15
अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

9- हनुमान
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10- वृषभ अवतार
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11- यतिनाथ अवतार
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी। भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा।
इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12- कृष्णदर्शन अवतार
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे।
तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा।
इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14- भिक्षुवर्य अवतार
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची।
तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15- सुरेश्वर अवतार
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा।
शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

16- किरात अवतार
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।
अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17- सुनटनर्तक अवतार
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए।
जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।

18- ब्रह्मचारी अवतार
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की।
जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं।
देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

उपाय जाने

सुबह बेल पत्र (बिल्ब) पर सफेद चंदन की बिंदी लगाकर मनोरथ बोलकर शिवलिंग पर अर्पित करें।
- बड़ के पत्ते पर मनोकामना लिखकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोरथ पूर्ति होती है। मनोकामना किसी भी भाषा में लिख सकते हैं।
- नए सूती लाल कपड़े में जटावाला नारियल बांधकर बहते जल में प्रवाहित करने से भी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
- तुलसी के पौधे को प्रतिदिन जल चढ़ाएं तथा गाय के घी का दीपक लगाएं।
- रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्रीगणेश की प्रतिमा बनाएं फिर उन्हें खीर का भोग लगाएं। लाल कनेर के फूल तथा चंदन आदि के उनकी पूजा करें। तत्पश्चात गणेशजी के बीज मंत्र (ऊँ गं) के अंत में नम: शब्द जोड़कर 108 बार जप करें।
- सुबह गौरी-शंकर रुद्राक्ष शिवजी के मंदिर में चढ़ाएं।
इन प्रयोगों को करने से आपकी सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूरी हो जाएंगी।

काली बीज सहस्त्राक्षरी

|| काली बीज सहस्त्राक्षरी ||
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्र हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हूं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं
ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं
हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हूं हुं हुं हुं हुं हुं हूं हूं हूं
हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं ह्सौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं
हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं हसौं
ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं
ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं ह्नीं
श्मशान कालिकायै घोररूपायै शवासनायै अभयखड्गमुण्डधारिण्यै दक्षिणकालिके मुण्डमालि चतुर्भुजौ नागयज्ञोपवीते
क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं
प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों
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ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं ग्लौं
फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट् फट्
स्वाहा स्वाहा स्वाहा स्वाहा स्वाहा स्वाहा स्वाहा ||

भैरव उपासना

भैरव उपासना के अनेक आयाम न केवल बताए हैं। अपितु अनेक साधकों को इसमें निपुण भी किया है। उनका कहना था कि प्रत्येक साधक को साधना क्षेत्र में उतरने से पहले भैरव साधना अवश्य कारण चाहिए, क्योंकि इससे ना केवल साधना में आने वाले विघ्न दूर होते हैं। बल्कि भगवान भैरव कि कृपा भी प्राप्त होती है।
भगवान भैरव को शब्दमय रूप में वर्णित करने का कारण सिर्फ इतना है कि अन्य देव कि अपेक्षा पूरे ब्रहांड में सर्वत्र विद्दमान हैं, जिस प्रकार शब्द को किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बाँधा जा सकता उसी प्रकार भैरव भी किसी भी विघ्न या बाधा को सहन नहीं कर पाते और उसे विध्वंश कर साधक को पूर्ण अभय प्रदान करते हैं,।
उनकी इसी शक्ति को साधक अनेक रूपों वर्णित कर साधनाओं के द्वारा प्राप्त कर अपने जीवन के दुःख और कष्टों से मुक्ति प्राप्त करते हैं,।
वस्तुतः भैरव साधना भगवान शिव कि ही साधना है क्योंकि भैरव तो शिव का ही स्वरुप है उनका ही एक नर्तनशील स्वरुप. भैरव भी शिव की ही तरह अत्यन्त भोले हैं,। एक तरफ अत्यधिक प्रचंड स्वरूप जो पल भर में प्रलय ला दे और एक तरफ इतने दयालु की आपने भक्त को सब कुछ दे डाले,
भैरव की उन अनेक साधनाओं में एक साधना है महर्षि कालाग्नि रूद्र प्रणीत "महाकाल बटुक भैरव" साधना. इस साधना की विशेषता है की ये भगवान् महाकाल भैरव के तीक्ष्ण स्वरुप के बटुक रूप की साधना है जो तीव्रता के साथ साधक को सौम्यता का भी अनुभव कराती है और जीवन के सभी अभाव,प्रकट वा गुप्त शत्रुओं का समूल निवारण करती है.विपन्नता,गुप्त शत्रु,ऋण,मनोकामना पूर्ती और भगवान् भैरव की कृपा प्राप्ति,इस १ दिवसीय साधना प्रयोग से संभव है. बहुधा हम प्रयोग की तीव्रता को तब तक नहीं समझ पाते हैं जब तक की स्वयं उसे संपन्न ना कर लें,इस प्रयोग को आप करिए और परिणाम बताइयेगा.
ये प्रयोग रविवार की मध्य रात्रि को संपन्न करना होता है.स्नान आदि कृत्य से निवृत्त्य होकर पीले वस्त्र धारण कर दक्षिण मुख होकर बैठ जाएँ.सदगुरुदेव और भगवान् गणपति का पंचोपचार पूजन और मंत्र का सामर्थ्यानुसार जप कर लें तत्पश्चात सामने बाजोट पर पीला वस्त्र बिछा लें,जिस के ऊपर काजल और कुमकुम मिश्रित कर ऊपर चित्र में दिया यन्त्र बनाना है और यन्त्र के मध्य में काले तिलों की ढेरी बनाकर चौमुहा दीपक प्रज्वलित कर उसका पंचोपचार पूजन करना है,पूजन में नैवेद्य उड़द के बड़े और दही का अर्पित करना है .पुष्प गेंदे के या रक्त वर्णीय हो तो बेहतर है.अब अपनी मनोकामना पूर्ती का संकल्प लें.और उसके बाद विनियोग करें.
अस्य महाकाल वटुक भैरव मंत्रस्य कालाग्नि रूद्र ऋषिः अनुष्टुप छंद आपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवता ह्रीं बीजं भैरवी वल्लभ शक्तिः दण्डपाणि कीलक सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगः
इसके बाद न्यास क्रम को संपन्न करें.
ऋष्यादिन्यास –
कालाग्नि रूद्र ऋषये नमः शिरसि
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे
आपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवताये नमः हृदये
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये
भैरवी वल्लभ शक्तये नमः पादयो
सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे
करन्यास -
ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः
ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः
ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः
ह्रौं कनिष्टकाभ्यां नमः
ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः
अङ्गन्यास-
ह्रां हृदयाय नमः
ह्रीं शिरसे स्वाहा
ह्रूं शिखायै वषट्
ह्रैं कवचाय हूम
ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्
ह्रः अस्त्राय फट्
अब हाथ में कुमकुम मिश्रित अक्षत लेकर निम्न मंत्र का ११ बार उच्चारण करते हुए ध्यान करें और उन अक्षतों को दीप के समक्ष अर्पित कर दें.
नील जीमूत संकाशो जटिलो रक्त लोचनः
दंष्ट्रा कराल वदन: सर्प यज्ञोपवीतवान |
दंष्ट्रायुधालंकृतश्च कपाल स्रग विभूषितः
हस्त न्यस्त किरीटीको भस्म भूषित विग्रह: ||
इसके बाद निम्न मूल मंत्र की रुद्राक्ष,मूंगा या काले हकीक माला से ११ माला जप करें
ॐ ह्रीं वटुकाय क्ष्रौं क्ष्रौं आपदुद्धारणाय कुरु कुरु वटुकाय ह्रीं वटुकाय स्वाहा ||
प्रयोग समाप्त होने पर दूसरे दिन आप नैवेद्य,पीला कपडा और दीपक को किसी सुनसान जगह पर रख दें और उसके चारो और लोटे से पानी का गोल घेरा बनाकर और प्रणाम कर वापस लौट जाएँ तथा मुड़कर ना देखें।

मां श्रीलक्ष्मी पूजा

भगवती लक्ष्मी के चित्र के सामने ९ बत्तियाओ वाला दिया/दीपक जलाये यह धन लाभ की स्थिति बनाता हैं .
2. जीवन मे कठिनाईयां यदि बहुत बढ़ गयी हो तो जिस पानी से आप स्नान कर रहे हो उसमे थोड़े से काले तिल डाल ले फिर स्नान करें अनुकूलता प्राप्त होगी .
3. जीवन की अनेको समस्याए जो लगातार सामने आती रहती हैं उसके निराकरण के लिए व्यक्ति यहाँ वहां भागता रहता हैं पर यदि किसी भी अमावस्या को किसी भी गरीब व्यक्ति को भोजन कराएं और उसे वस्त्र और दक्षिणा दे तो उसके पितृ वर्ग प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता पाने से आपके जीवन के कार्य सफल होना प्रारंभ हो जायेंगे .
4. कुछ ऐसी ही स्थिति हम सभी कि कुल देव या कुलदेवी के बारे मे हैं साधारणतः सिर्फ कुछ लोगों को छोड़ दें तो त्यौहार के अलावा उनकी याद भी कोई नही करता ,पर किसी भी काम पर जाने से पहले यदि विधिवत उनकी पूजन हो तो क्यों नही उनका आशीर्वाद आपकी सफलता का मार्ग और सरल कर देगा .
5. छत पर और ईशान दिशा मे काम मे न आने वाली वस्तुए नही रखना चाहिये क्योंकि ईशान दिशा का बहुत आधिक महत्त्व हैं ,पर रखना ही पड़ जाए तो उसे दक्षिण दिशा की ओर रखना चाहिए ,ऐसा करने से से वाधाए कम होगी और लाभ की अवस्था बनने लगेगी,
6. घर की सुख शांति बनाए रखने के लिए काले कुत्ते को जो भगवान भैरव का वाहन माना जाता हैं उसे सरसों के तेल मे लगी रोटी और उसमे थोडा सा काली उडद की दाल मिलाकर खिलाए तो बहुत अनुकूलता होगी पर यह शनिवार को करना कहीं जयादा लाभदायक हैं .
7. ठीक ऐसा ही एक उपाय महाराज जी ने बताया हैं कि मंगलवार को बंदरों को चने खिलाना ,ऐसा करने से भी घर मे सुख शांती बनी रहती हैं ,
8. यदि आप अपने विस्तर मे इस तरह से शयन करते हैं कि आपका सिर पूर्व दिशा की ओर और आपके पैर पश्चिम दिशा कि ओर रहते हो तो आध्यत्मिक अनुकूलता पाने के लिए यह अनुकूल उपाय होगा .
9. ठीक इसी तरह सिर यदि दक्षिण की तरफ और उत्तर दिशा मे पैर कर के सोने से धन लाभ की स्थिति बनती हैं .पर इसके ठीक उलटे सोने से मानसिक चिंताए कहीं अधिक होने लगती हैं .
10. घर से जब बाहर जाया जा रहा हो तब घर कि कोई भी महिला एक मुठी भर काले उडद या राई को उस व्यक्ति के सिर पर तीन बार भुमाकर जमीन पर डाल दे , तो जिस कार्य के लिए जाया जा रहा हैं उसमे सफलता मिलना प्रारंभ हो जाती हैं ।

वशीकरण मंत्र

वशीकरण मंत्र
सबसे पहला मंत्र मोहन और सम्मोहन के सबसे बड़े देवता अर्थात् श्रीकृष्ण का है. मंत्र है-
ॐ क्लीं कृष्णाय नमः
अगर आप किसी व्यक्ति को ध्यान में रखकर और सकंल्प के साथ कहते हैं कि - हे प्रभु! आपकी कृपा से यह व्यक्ति मेरे वश में हो जाये क्योंकि मुझे स्वयं को सही साबित करने का और कोई साधन नही है. ऐसा संकल्प लेकर भगवान श्रीकृष्ण के संमुख कहेंगे तो निश्चित ही आपको लाभ मिलेगा. जिस किसी व्यक्ति को सम्मोहित करना चाहते हैं, अपनी तरफ़ करना चाहते हैं हो जायेगा.
दूसरा मंत्र भगवान नारायण का है-
ॐ नमो नारायणाय सर्व लोकन मम वश्य कुरु कुरु स्वहा.
अर्थात् हे प्रभु नारायण आपकी कृपा से सर्वलोक को वशीकरण करने की शक्ति मुझमे आ जाये. (सर्वलोक की जगह उस व्यक्ति का भी नाम लिया जा सकता है जिसे सम्मोहित करना हो) वह अवश्य आपके प्रति आकर्षित होगा.
तीसरा मंत्र दुर्गासप्तशती से है-
ज्ञानि न मपि चेतान्शी देवी भग्वति हिसा ग्रहा बलादा कृष्य मोहाय महामाया प्रयक्षति.
इस अत्यधिक चमत्कारिक मंत्र का 40 दिन तक नियमित रुप से 108 बार जाप करना है. यह मंत्र इतना प्रभावशाली है कि इसका जाप होते ही कितना भी ज्ञानी, विद्वान व्यक्ति क्यों न हो आपके नियंत्रण में आ जायेगा।

गोरोचन

गोरोचन - गोरोचन अति प्रसिद्ध वस्तु है। पूजा कर्म में अष्टगंध बनाने में तथा आयुर्वेद में कतिपय औषधियों के निर्माण में गोरोचन को प्रयोग में लिया जाता है। गोरोचन गाय के सिर में से प्राप्त किया जाता है तथा बाजार में पंसारी की दुकान पर यह आसानी से उपलब्ध हो जाता है।
प्रयोग
"रवि-पुष्य" या "गुरू-पुष्य" योग में गोरोचन के एक टुक़डे को गंगाजल व पंचामृत से शुद्ध करके, धूप-दीप आदि से शोधित कर, अपने इष्टदेव के मंत्र से इसे अभिमंत्रित कर लें और चाँदी की ताबीजनुमा डिब्बी में रखकर, गले में बाँध लेने या पूजा में रखने से अशांति दूर होती है और जीवन मे सुख शांति आती है।
गोरोचन के टुक़डे को उपरोक्त प्रकार पूजन करके चाँदी की डिब्बी में रखकर तिजोरी में रखने से व्यापार की वृद्धि होती है। धन का लाभ होता है।

हनुमान् वडवानल स्तोत्र

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हनुमान् वडवानल स्तोत्र
 यह स्तोत्र सभी रोगों के निवारण में, शत्रुनाश, दूसरों के द्वारा किये गये पीड़ा कारक कृत्या अभिचार के निवारण, राज-बंधन विमोचन आदि कई प्रयोगों में काम आता है ।
विधिः- सरसों के तेल का दीपक जलाकर १०८ पाठ नित्य ४१ दिन तक करने पर सभी बाधाओं का शमन होकर अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं, मम समस्त विघ्न-दोष-निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे सकल-राज-कुल-संमोहनार्थे, मम समस्त-रोग-प्रशमनार्थम् आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त-पाप-क्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये ।
ध्यानः-
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये ।।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम सकल-दिङ्मण्डल-यशोवितान-धवलीकृत-जगत-त्रितय वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र उदधि-बंधन दशशिरः कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार-ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्व-पाप-ग्रह-वारण-सर्व-ज्वरोच्चाटन डाकिनी-शाकिनी-विध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दुःख निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर, माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हां ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु शिरः-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय नागपाशानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोटकालियान् यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।
।। इति विभीषणकृतं हनुमद् वडवानल स्तोत्रं ।।

अम्बिका मन्त्र

विविध कार्य-साधक अम्बिका मन्त्र
ॐ आठ-भुजी अम्बिका, एक नाम ओंकार।
खट्-दर्शन त्रिभुवन में, पाँच पण्डवा सात दीप।
चार खूँट नौ खण्ड में, चन्दा सूरज दो प्रमाण।
हाथ जोड़ विनती करूँ, मम करो कल्याण।।
नित्य 108 जप करके जो भी प्रार्थना की जायेगी, पूरी होगी। सिद्ध मन्त्र है, अलग से सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। नित्य कुछ जप पर्याप्त है।
8 1 6
3 5 7
4 9 2
कुछ प्रयोग निम्नलिखित है -
चुटकी में राख लेकर 3 बार अभिमन्त्रित करके मारने से लगी आग बुझ जायेगी, भूत-प्रेतादि दूर होंगे, बुखार उतर जायेगा, नजर आदि दूर होगी।
शत्रुनाषार्थ- 1 नारियल, 2 नींबू, एक पाव गुड़, 1 पैसा भर सिंदूर, अगरबत्ती और नींबू बंध सके, इतना लाल कपड़ा। शनिवार को रात में कण्डे की आग जलाकर पूर्वाभिमुख बैठकर कण्डे की राख 1 चुटकी लेकर उस पर 1 बार मन्त्र पढकर शत्रु की दिशा में फेंके, ऐसा तीन बार करें। फिर कहे कि ‘‘मेरे अमुक शत्रु का नाश करो’’ और 1 नींबू काटकर आग पर निचोड़ें। फिर शेष बचा नींबू और सिन्दूर कपड़े में लपेट कर रात भर अपने सिरहाने रखे और सवेरे पहर 3-4 बजे उसे शत्रु के घर में फेंक दे या किसी से फिंकवा दें। नारियल, अगरबत्ती और गुड़ किसी देवी मन्दिर में चढ़ा दें। प्रसाद स्वयं न खाए। शत्रु का नाश होगा।


तन्त्रों के अनुसार ‘ग्रहण-पुरश्चरण

तन्त्रों के अनुसार ‘ग्रहण-पुरश्चरण
१॰ गायत्री-तन्त्रः ग्रहण में जप करने से साधक ब्रह-भाव से मुक्त हो जाता है। ‘ग्रहण-कालीन जप’ के बाद दशांश आदि की आवश्यकता नहीं है। ग्रहण-कालीन जप अनन्त-स्वरुप होता है। अतः अनन्त का दशांश सम्भव नहीं है।
२॰ शाक्तानन्द-तरंगिणीः ग्रहण-काल को देखकर स्नान, सन्ध्या, प्राणायाम, भूत-शुद्धि, पूजा आदि सबको छोड़कर, केवल ‘मानस संकल्प’ कर जप करे, अन्यथा ‘पुण्य-काल हाथ से निकल जायेगा। पञ्चांग से विहीन होने पर भी ‘ग्रहण-कालीन जप’ सिद्ध होता है।
ग्रहण-काल में मन्त्र, कवच, स्तव, ध्यान आदि का एक बार उच्चारण करने पर ही दश कोटि बार उच्चारण का फल मिलता है। अतः ग्रहण-कालीन जप-पाठ की संख्या का ध्यान न रखे। जितना भी जप सम्भव हो, करें। होम, अभिषेक, तर्पण, ब्राह्मण-भोजन आदि ‘ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण’ के सम्बन्ध में आवश्यक नहीं है। संकल्प भी मानस ही करना चाहिये।
३॰ गन्धर्व-तन्त्रः ग्रहण-काल के पूर्व उपवास रखकर, समुद्र-गामी नदी में नाभि तक गहरे जल में खड़े होकर, ग्रहण के आदि से लेकर मोक्ष तक एकाग्र होकर मन्त्र का जप करे। जप के दशांश से यथा-विधि होम करे। होम न कर सके तो दशांश का दोगुना जप करे। होम का दशांश तर्पण तद्दशांश ब्राह्मण-भोजन कराए। गुरु-देव को दक्षिणा प्रदान कर, विप्रों को तर्पण कराए।
४॰ यामलः शुद्ध जल में स्नान करे। पवित्र स्थान में बैठकर ‘ग्रहण-ग्रास’ से ‘ग्रहण-मुक्ति’ तक एकाग्र मन से जप करे।
ग्रहण से पूर्व उपवास करे अथवा फल, दुग्धादि भोजन करे। ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण उपवास के बगैर भी किया जा सकता है।
५॰ काली तन्त्रः ग्रहण में ग्रास से मोक्ष होने तक जप करे। ग्रहण के बाद होम, तर्पण, अभिषेक और ब्राह्मण-भिजन का विधान है। यह ग्रहण-पुरश्चरण ‘पशु’ और ‘वीर’ दोनों भावों से कर सकते हैं।
६॰ पुरश्चरण-रसोल्लासः बुद्धिमान् साधक चन्द्र-सूर्य के ग्रहण-काल में अवश्य जप करे। ग्रहण-काल में ग्रास होने के समय से मोक्ष होने तक जप करे। इससे साधक अणिमादि सिद्धियों का अधिकारी बन जाता है।
ग्रहण-काल में जप हेतु विशेष बातें-
१॰ पहले स्नानादि करके संकल्प करें।
२॰ ग्रहण में जप मानसिक करे। पाठ या वाचिक जप न करे।
३॰ ग्रहण के बाद जप का दशांश हवन, तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन कराए।
४॰ ग्रहण काल में नित्य किये जाने वाले मन्त्र का जप अवश्य करना चाहिए।
५॰ शाबर-मन्त्र ग्रहण काल में सरलता से सिद्ध होते हैं।
६॰ ग्रहण सनय में भोजन नहीं करना चाहिए। नारियल, दूध, दही, घृत से पके अन्न और मणि में स्थित जल ‘राहु’ से दूषित नहीं होते। ग्रहण-काल में ‘कुश’ डालने से वस्तुएँ अपवित्र नहीं होती।
७॰ ग्रहण-काल में यदि किसी के यहाँ कोई बच्चा पैदा हुआ हो अथवा कोई मे गया हो, तो भी जप करे। ग्रहण-काल में जप हेतु अशौच नहीं माना जाता।
८॰ ग्रहण में बालक, वृद्ध और रोगी के कोई कोई नियम नहीं है।
९॰ ग्रहण काल में जपनीय मन्त्र में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिये, उसे मूल रुप में ही जपना चाहिए।
१०॰ ग्रहण में जप करने के बाद ‘दान’ करना चाहिए। दान-मन्त्र इस प्रकार है-
“तमो-मय महा॒भीम, सोम-सूर्य-विमर्दन! हेम-तार-प्रदानेन, मम शान्ति-प्रदो भव।।
विधुं-तुद नमस्तुभ्यं, सिंहिका-नन्दनाच्युत! दानेनानेन नागस्य, रक्ष मां वेधजाद् भयात्।।

श्रीगुरूदेवमहिमा

श्रीगुरूदेवमहिमा 
श्रीगुरुदेव के श्री चरणकमलो मे कोटि कोटि प्रणाम शिष्य का स्वीकार करे ।।।।
जो गुरुचरणकृपा से रहित हैं वे मेरी आज्ञा से विनष्ट हो जाते हैं । वस्तुतः गुरुचरणपादुका नष्ट होने से रक्षा करती है अतः गुरुचरणसेवा सबसे बडा़ तप है । गुरु के प्रसन्न होने मात्र से सारी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥१८८ – १८९॥
मैं ही गुरु हूँ , मैं ही देव हूँ , मैं ही मन्त्रार्थ हूँ , नाना शास्त्रों के अर्थ को न जानने वाले जो लोग इनमें भिन्न बुद्धि रखते हैं वे नरक में पड़ते हैं । हे प्रभो ! सभी विद्याओं की प्राप्ति का मूल जैसे दीक्षा है , वैसे ही स्वतन्त्र का मूल गुरु है किं बहुना गुरु ही आत्मा है इसमें संशय नहीं ॥१८९ – १९१॥
अपनी ही आत्मा अपना बन्धु है और अपनी ही आत्मा अपना शत्रु है । अपने द्वारा जिस कर्म को जिस भाव से किया जाता है उसी भाव से सिद्धि मिलती है । चाहे हीनाङ्र , कपटी , रोगी एवं बहुभोजी तथा शीलरहित ही साधक क्यों न हो मेरी उपासना करते हुये उसे उपविद्या का अभ्यास करते रहना चाहिये । धन , धान्य , सुत , वित्त , राज्य तथा ब्राह्मण भोजन अपने कल्याण के लिये प्रयुक्त करना चाहिये । अन्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकी वह निष्फल है । नित्यश्राद्ध करने वाला धर्मशील मनुष्य सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ है ॥१९१ – १९४॥
पवित्र आचरण वाला , मेरे सिद्धपीठों में भ्रमण करने वाला महीपाल यदि मेरे उन उन पीठों में जाकर मेरा दर्शन करे , तो अव्यक्त
( सूक्ष्म ) मण्डल में रहने वाली समस्त सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं , क्योंकि महामाया के प्रसन्न होने पर अकस्मात् ‍ सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१९५ – १९६॥
भाव प्रशंसा — अथवा , महावीरभाव में अथवा महाधीर साधक को दिव्यभाव में स्थित होने से सिद्धि मिलती है , अथवा पशुभाव में स्थित मन्त्रज्ञ साधक मुझे अपने हृदयरूपी पीठ में निवास करावे तब सिद्धि प्राप्त होती है । मनोरमभावत्रय ( पशुभाव , वीरभाव और दिव्यभाव ) ही क्रिया को सफल बनाते हैं , अथवा , हे भैरव ! दिव्यभाव और वीरभाव भी क्रिया को फलवती बनाते हैं ॥१९७ – १९८॥
हीन जाति में उत्पन्न पशुभाव वाले तथा वीर भाव वाले मुझे प्राप्त करते हैं । किन्तु शास्त्रों से अभिभूत चित्त वाले इस कलियुग में मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते । कोई हजारों वर्ष पर्यन्त लगे रहने पर भी शास्त्रों का अन्त नहीं प्राप्त कर सकता । एक तो तर्कादि अनेक शास्त्र हैं और अपेक्षाकृत मनुष्य की आयु अत्यन्त स्वल्प है तथा उसमें भी करोडों विघ्न हैं ॥१९९ – २००॥
इस कारण जिस प्रकार हंस जल में से क्षीर को अलग कर लेता है उसी प्रकार शास्त्रों के सार का ज्ञान कर लेना चाहिए । इस घोर कलियुग में दिव्य और वीरभाव के सहारे अपने चित्त का महाविद्या में लगाये हुये मेरे महाभक्त महाविद्या के परम पद का दर्शन कर लेते हैं ॥२०१ – २०२॥
मौन धारण करने वाले सर्वदा साधन में लगे हुये सज्जन दिव्य और वीरभाव के स्वभाव से मेरे चरण कमलों का दर्शन कर लेते हैं । बहुत बडे़ उत्तम फल की आकांछा रखने वाले ब्राह्मणों को दो भाव ग्राह्य है अथवा अवधूतों के लिये भी दो ही भाव कहे गये हैं । इन दो भाव के प्रभाव से साधक मनुष्य महायोगी हो जाता है । किं बहुना , भाव द्वय को सिद्ध कर लेने पर मूर्ख भी वाचस्पति हो जाता है ॥२०२ – २०५॥
हे महादेव ! जो तन्त्रार्थ से सिद्ध किये गये सभी वर्णों के लिए विहित दो भाव को जानते हैं , वे साक्षात् ‍ रुद्र हैं , इसमें संशय नहीं । भावद्वय सभी भावज्ञों का साधन है । भाव को जानने वाले साधक भक्तियोग के इन्द्र हैं वे अपने तन्त्रार्थ के पारदर्शी होते हैं । नित्या उन्मत्त और जड़ के समान बने रहते हैं ॥२०५ – २०७॥
( जो भाव नहीं जानते वे इस प्रकार हैं ) जैसे वृक्ष फूल धारण करता है किन्तु उसकी गन्ध नासिका ही जानती है । इसी प्रकार तत्त्वशास्त्र के पढ़ने वाले तो बहुत हैं पर भाव के जानकार कोई कोई होते हैं । जिस प्रकार बुद्धिहीन की पढा़ई और अन्धे को आदर्श ( दर्पण ) का दर्शन , व्यर्थ होता है उसी प्रकार प्रज्ञावानों को भी धर्मशास्त्र का ज्ञान बन्धन का कारण हो जाता है ॥२०७ – २०९॥
यह तत्त्व इस प्रकार हो सकता है यही शास्त्रार्थ का निश्चयज्ञान है । इस प्रकार वाक् ‌ पति अपने मन से मैं कर्त्ता हूँ , मैं आत्मा हूँ , मैं सर्वव्यापी हूँ इस प्रकार के स्वभाव की चिन्ता करते हैं ॥२०९ – २१०॥
प्रथम पटल – गुरूमहिमा २
गुरूमहिमा २
जब सौदामनी के समान ( क्षणिक ) तेज से युक्त शास्त्र ज्ञानी एक सहस्त्रवर्ष पर्यन्त देखता है तभी ( तन्त्रवेत्ता एवं भावज्ञ ) महाज्ञानी एक चन्द्र को सहस्त्र चन्द्र के समान देखता है । करोड़ों वर्ष तक इस प्रकार तपस्या करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वह सभी फल मेरे चरणों के रज का एक क्षण मात्र ध्यान करने से उसे प्राप्त हो जाता है ॥२११ – २१२॥
यदि कोई आनन्द बढा़ने वाले एवं त्रिकोण के आधार में ( कुण्डलिनी ) स्थित तेज वाले मेरे कामरूप पीठ मंं , जहाँ जल के बुदबुद के समान शब्द होता है तथा जो अनन्त मङ्गलात्मक है , वहाँ सर्वत्र विचरण करे तो वह गणेश और कार्त्तिकेय के समान मेरा प्रिय बन कर मेरा दास हो जाता है और भक्तों में इन्द्र बन जाता है ॥२१३ – २१४॥
यदि कोई साधक मेरे चरणकमलों को प्राप्त करना चाहता है तो साट्टहास एवं विकटाक्ष रूप उपपीठ , जिसका नाम कङ्काल है वहाँ पर विचरण करे । ज्वालामुखी नाम का महापीठ मेरा अत्यन्त प्रिय है जो मेरी संतुष्टि के लिये वहाँ भ्रमण करता है वह निश्चय ही योगी हो जाता है ॥२१५ – २१६॥
दोनों भावों का खान रूप ज्वालामुख्यादिपीठ में जो साधकेन्द्र भ्रमण करते हैं वे अवश्य ही सभी साधकों में श्रेष्ठ एवं सिद्ध हो जाते हैं इसमें संशय नहीं । त्रैलोक्य की सिद्धि चाहने वालों के लिये भाव से बढ़ कर और कोई पदार्थ नहीं क्योंकि भाव ही परमज्ञान और सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान है ॥२१७ – २१८॥
यदि भाव का ज्ञान नहीं हुआ तो करोड़ों कन्या दान से किं वा वाराणसी की सौ बार परिक्रमा से अथवा कुरुक्षेत्र में यात्रा करने से क्या लाभ ? भावद्वयज्ञान के बिना गया में श्राद्ध एवं दान से या अनेक पीठों में भ्रमण करने से भी कोई लाभ नहीं । बहुत क्या कहें , यदि भाव ज्ञान नहीं हुआ तो अनेक प्रकार के होम और क्रिया से भी क्या ? भाव से ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥२१९ – २२१॥
गुरु महिमा — आत्मा से , मन से एवं वाणी से गुरु ईश्वर कहा जाता है । ध्यान ही सायुज्य है और मन को लय कर देना ’ मोक्ष ’ कहा जाता है ॥२२१ – २२२ ॥
गुरु की प्रसन्नता मात्र से यहाँ ( कुण्डलिनी ) शक्ति अत्यन्त संतुष्ट हो जाती है और जब साधक पर शक्ति संतुष्ट हो जाती है तो उसे ’ मोक्ष ’ अवश्य प्राप्त हो जाता है ॥२२२ – २२३॥
इस सारे संसार का मूल गुरु है । समस्त तपस्याओं का मूल गुरु है । उत्तम और जितेन्द्रिय साधक गुरु के प्रसन्न होने मात्र से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२२३ – २२४॥
इसलिये साधक गुरु की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे तथा उनका उत्तर न दे । दिन रात दास के समान गुरु की आज्ञा का पालन करे । बुद्धिमान साधक उनके कहे गये अथवा बिना कहे कार्थों की उपेक्षा न करे ॥२२४ – २२५॥
उनके चलते रहने पर स्वयं भी नम्रतापूर्वक उनका अनुगमन करे और उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे । जो गुरु की अहितकारी अथवा हितकारी बात नहीं सुनता अथवा सुन कर अपना मुंह फेर लेता है वह रौरव नरक में जाता है । दैवात् यदि बुद्धिरहित पुरुष अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह घोर नरक में जाता है और शूकर योनि प्राप्त करता है ॥२२६ – २२८॥
जो गुरु की आज्ञा का उल्लङ्वन , गुरुनिन्दा , गुरु को चिढा़ने वाला , अप्रिय व्यवहार तथा गुरुद्रोह करता है उसका संसर्ग कभी नहीं करना चाहिये । जो गुरु के द्रव्य को चाहता है , गुरु की स्त्री के साथ सङ्गम करता है उसे बहुत बडा़ पाप लगता है अतः उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । जो निन्दा के द्वारा गुरु का शत्रुवत् अहित करता है वह अरण्य में एवं निर्जन स्थान में ब्रह्मराक्षस होता है ॥२२८ – २३१॥
गुरु का खडा़ऊँ , आच्छादन , वस्त्र , शयन तथा उनके आभूषण देखकर उन्हे नमस्कार करे और अपने कार्य में कभी भी उसका उपयोग न करे । जिस मनुष्य के जिहवा के अग्रभाग में सदैव गुरुपादुका मन्त्र विद्यमान रहता है वह अनायास ही धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । शिष्य को अपने भोग तथा मोक्ष के लिये गुरु के चरण कमलों का सदैव ध्यान करना चाहिये । हे वीर भैरव ! उससे बढ़ कर अन्य कोई भक्ति नहीं है ॥२३१ – २३४॥
यदि शिष्य और गुरु एक ही ग्राम में निवास करते हों तो शिष्य को चाहिये कि वह तीनों संध्या में जाकर अपने गुरु को प्रणाम करे । यदि एक ही देश में गुरु और शिष्य के निवास में सात योजन का अन्तर हो तो शिष्य को महीने में एक बार जा कर उन्हें प्रणाम करना चाहिये ॥२३४ – २३५॥
श्री गुरु का चरण कमल जिस दिशा में विद्यमान हो उस दिशा में शरीर से ( दण्डवत् प्रणाम द्वारा ), मन से तथा बुद्धि से नमस्कार करे । हे प्रभो ! वेदाङ्गादि विद्या , पदमा सनादि आसन , मन्त्र , मुद्रा और तन्त्रादि ये सभी गुरु के मुख से प्राप्त होने पर सफल होते हैं अन्यथा नहीं ॥२३६ – २३७॥
कम्बल पर , कोमल स्थान ( चारपाई आदि ) पर , प्रासाद पर , दीर्घ काष्ठ पर अथवा किसी की पीठ पर गुरु के साथ एव आसन पर न बैठे । हे देवेश ! श्री गुरु का पादुका मन्त्र , उनका दिया हुआ मूल मन्त्र और अपना पादुका मन्त्र जिस किसी के शिष्य को नहीं बताना चाहिये ॥२३८ – २३९॥
जो अपनी हित में आने वाली वस्तु हो उसे न दे कर गुरु को कदापि प्रवञ्चित नहीं करना चाहिये । हे सुव्रत ! न केवल दीक्षागुरु को , किन्तु जिससे एक अक्षर का भी ज्ञान किया हो उसको भी प्रवञ्चित न करे । गुरु के उद्देेश्य से अपने वित्तानुसार जो भक्ष्य निर्माण किया जाता है उसका स्वल्पभाग भी बहुत महान् होता है । किन्तु जो गुरु की भक्ति से विवर्जित भुवनादि , किं बहुना , सर्वस्व भी प्रदान करे तो वह दरिद्रता और नरक प्राप्त करता है क्योंकि दान में भक्ति ही कारण है ॥३४० – २४२॥
गुरु में भक्ति रखने से ऐन्द्र ( महेन्द्र ) पद तथा भक्ति न रखने से शूकरत्व प्राप्त होता है । सभी जगह भक्तिशास्त्र में गुरु भक्ति से बढ़ कर और कोई उत्कृष्ट नहीं है । हे नाथ ! गुरु पूजा के बिना करोड़ों पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं इसलिये गुरुभक्ति करनी चाहिये ॥२४३ – २४४॥

श्री गुरु पादुका स्तोत्र
ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः!आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्योनमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!!
मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका केप्रति हैं, क्योंकि गंगा-यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी केचरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!
ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!!
गुरुदेव “ऐंकार” रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव”ह्रींकार” युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव”श्रींकार” युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव “ॐ” शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा – भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!
होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ – होमादिसर्वाकृतिभासमानं !यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!!
ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करनेमें समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकीवजह से मैं स्वयं ब्रह्मस्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!
कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!!
मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!
अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!!
यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरहहैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओंको मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5!!

**********~ श्री गुरु स्तोत्रम् ~*****************
|| श्री महादेव्युवाच ||
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||
श्री गुरु स्तोत्रम् श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है – इस बारे में वर्णन करें |
|| श्री महादेव उवाच ||
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||
श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१||
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||
प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२||
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||
वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३||
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||
भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||
प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६||
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||
भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७||
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||
भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||
गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||
हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन – ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०||
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||
तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११||
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||
इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२||
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||

शक्तिपात :- हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो.
वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं. ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है.
साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं.
यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे.
१.अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :- श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं. कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं. अश्विनी मुद्रा का अर्थ है “अश्व यानि घोड़े की तरह करना”. घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.
इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है. यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं. विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें. सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती. मन एकाग्र होता है. साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे. जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है. इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है. मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है. इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर – ऊपर की और खींचा जाता है. यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है. यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है. इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं.
2.. गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :- जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.
3… ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :- कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है. उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है. बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है. तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं. कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता. तब फिर वह और किसी की पास जाता है. वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है. तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ. इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा. यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें. साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है. उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है). इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने. इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए.”
4.. शरीर का हल्का लगना :- जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक “मैं यह स्थूल शरीर हूँ” ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से “मैं शरीर हूँ” ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि “मैं सूक्ष्म शरीर हूँ” या “मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ” ऎसी भावना दृढ हो जाती है. यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है. दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी “मैं शरीर हूँ” इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है. परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए.
5.. हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का खिसक जाना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है. साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है. तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है. वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है. वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है.
6… रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ होना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं. वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है. रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना. साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है. मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना. आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है. कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.
7… अंग फड़कना :- शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए. कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है. इसके लिए पहले कहे गए उपाय करें (देखें विघ्न सूचक स्वप्नों के उपाय). इसके अतिरिक्त काली की उपासना करें. दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें. मान काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें. दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है. यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी. ।।।

ऊपरी हवा पहचान और निदान


ऊपरी हवा पहचान और निदान

प्रायः सभी धर्मग्रंथों में ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा कहा गया है तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न।

यहां ज्योतिष के आधार पर नजर दोष का विश्लेषण प्रस्तुत है।

ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहु सर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारक होता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न (शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है।

लक्षण

नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगी आदि से ग्रस्त रहता है।

कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव?

  • जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चौराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त रात और दिन के १२ बजे दरवाजे की चौखट पर इनका प्रभाव होता है।
  • दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चौराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है। अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चौराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरी हवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है।
  • कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। ये दोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु की द्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है।
  • कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहु का शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है।
  • जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभाव होता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि व राहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं।
  • दिन व रात के १२ बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चौखट राहु की द्योतक है। अतः जब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावना प्रबल होती है।
  • मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिए ऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है।

ऊपरी हवाओं के सरल उपाय

ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है।

  • ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए।
  • रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकर उसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान की छत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तक आएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरण करते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएं दूर हो जाएंगी।
  • रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
  • लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिल जाती है।
  • ऊपरी बाधाओं से मुक्ति हेतु निम्नोक्त मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।
    ष् ओम नमो भगवते रुद्राय नमः कोशेश्वस्य नमो ज्योति पंतगाय नमो रुद्राय नमः सिद्धि स्वाहा।श्श्
  • घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा।
  • उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उससे उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित व्यक्त्ि को सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति से करवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो।
  • प्रातः काल बीज मंत्र झ्क्लींश् का उच्चारण करते हुए काली मिर्च के नौ दाने सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, ऊपरी बला दूर हो जाएगी।
  • रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठ पत्ते, आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा से मुक्ति मिलेगी।
  • निम्नोक्त मंत्र का १०८ बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा।
    मंत्र – ओम नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा।
  • ऊपरी हवाओं के शक्तिषाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मषान में १०८ बार जप कर इन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है।
  • निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा ७ बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएं और उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसके मुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृत्ति होती है।

मंत्र – जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलि जाय॥ जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले॥ जाय हुक्म पाडुआ पीर की दोहाई॥

  • एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से ३ बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी।
    मंत्र – तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक से भूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई।
  • थोड़ी सी हल्दी को ३ बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इस तरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं।

मंत्र – हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़ थहराय॥ यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान॥ आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई॥

  • जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते और अषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्र मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का १०८ बार जप कर इस मिश्रण से १०८ आहुतियां दें।
    मंत्र – मंत्र रू ओम नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कु रु-कुरु स्वाहा।
    भूत भगाने के 10 सरल उपाय
    हिन्दू धर्म में भूतों से बचने के अनेक उपाय बताए गए हैं। चरक संहिता में प्रेत बाधा से पीड़ित रोगी के लक्षण और निदान के उपाय विस्तार से मिलते हैं।
    ज्योतिष साहित्य के मूल ग्रंथों- प्रश्नमार्ग, वृहत्पराषर, होरा सार, फलदीपिका, मानसागरी आदि में ज्योतिषीय योग हैं जो प्रेत पीड़ा, पितृ दोष आदि बाधाओं से मुक्ति का उपाय बताते हैं।
    अथर्ववेद में भूतों और दुष्ट आत्माओं को भगाने से संबंधित अनेक उपायों का वर्णन मिलता है। यहां प्रस्तुत है प्रेतबाधा से मुक्ति के 10 सरल उपाय।
  1. ॐ या रुद्राक्ष का अभिमंत्रित लॉकेट गले में पहने और घर के बाहर एक त्रिशूल में जड़ा ॐ का प्रतीक दरवाजे के ऊपर लगाएं। सिर पर चंदन, केसर या भभूति का तिलक लगाएं। हाथ में मौली (नाड़ा) अवश्य बांध कर रखें।
  2. दीपावली के दिन सरसों के तेल का या शुद्ध घी का दिया जलाकर काजल बना लें। यह काजल लगाने से भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदि से रक्षा होती है और बुरी नजर से भी रक्षा होती है।
  3. घर में रात्रि को भोजन पश्चात सोने से पूर्व चांदी की कटोरी में देवस्थान या किसी अन्य पवित्र स्थल पर कपूर तथा लौंग जला दें। इससे आकस्मिक, दैहिक, दैविक एवं भौतिक संकटों से मुक्त मिलती है।
  4. प्रेत बाधा दूर करने के लिए पुष्य नक्षत्र में चिड़चिटे अथवा धतूरे का पौधा जड़सहित उखाड़ कर उसे धरती में ऐसा दबाएं कि जड़ वाला भाग ऊपर रहे और पूरा पौधा धरती में समा जाएं। इस उपाय से घर में प्रेतबाधा नहीं रहती और व्यक्ति सुख-शांति का अनुभव करता है।
  5. प्रेत बाधा निवारक हनुमत मंत्र – ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ऊँ नमो भगवते महाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षणी-पूतना-मारी-महामारी, यक्ष राक्षस भैरव बेताल ग्रह राक्षसादिकम्‌ क्षणेन हन हन भंजय भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा।
    इस हनुमान मंत्र का पांच बार जाप करने से भूत कभी भी निकट नहीं आ सकते।
  6. अशोक वृक्ष के सात पत्ते मंदिर में रख कर पूजा करें। उनके सूखने पर नए पत्ते रखें और पुराने पत्ते पीपल के पेड़ के नीचे रख दें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, आपका घर भूत-प्रेत बाधा, नजर दोष आदि से मुक्त रहेगा।
  7. गणेश भगवान को एक पूरी सुपारी रोज चढ़ाएं और एक कटोरी चावल दान करें। यह क्रिया एक वर्ष तक करें, नजर दोष व भूत-प्रेत बाधा आदि के कारण बाधित सभी कार्य पूरे होंगे।
  8. मां काली के लिए उनके नाम से प्रतिदिन अच्छी तरह से पवित्र ‍की हुई दो अगरबत्ती सुबह और दो दिन ढलने से पूर्व लगाएं और उनसे घर और शरीर की रक्षा करने की प्रार्थना करें।
  9. हनुमान चालीसा और गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें और हनुमान मंदिर में हनुमान जी का श्रृंगार करें व चोला चढ़ाएं।
  10. मंगलवार या शनिवार के दिन बजरंग बाण का पाठ शुरू करें। यह डर और भय को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है।
    इस तरह यह कुछ सरल और प्रभावशाली टोटके हैं, जिनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। ध्यान रहें, नजर दोष, भूत-प्रेत बाधा आदि से मुक्ति हेतु उपाय ही करने चाहिए टोना या टोटके नहीं।

सावधानी : सदा हनुमानजी का स्मरण करें। चतुर्थी, तेरस, चौदस और अमावस्या को पवि‍त्रता का पालन करें। शराब न पीएं और न ही मांस का सेवन करें।
नदी, पूल या सड़क पार करते समय भगवान का स्मरण जरूर करें। एकांत में शयन या यात्रा करते समय पवित्रता का ध्यान रखें। पेशाब करने के बाद धेला अवश्य लें और जगह देखकर ही पेशाब करें। रात्रि में सोने से पूर्व भूत-प्रेत पर चर्चा न करें। किसी भी प्रकार के टोने-टोटकों से बच कर रहें।
ऐसे स्थान पर न जाएं, जहां पर तांत्रिक अनुष्ठान होता हो। जहां पर किसी पशु की बलि दी जाती हो या जहां भी लोभान आदि के धुएं से भूत भगाने का दावा किया जाता हो। भूत भागाने वाले सभी स्थानों से बच कर रहें, क्योंकि यह धर्म और पवित्रता के विरुद्ध है।
जो लोग भूत, प्रेत या पितरों की उपासना करते हैं, वह राक्षसी कर्म के होते हैं। ऐसे लोगों का संपूर्ण जीवन ही भूतों के अधीन रहता है। भूत-प्रेत से बचने के लिए ऐसे कोई भी टोने-टोटके न करें जो धर्म विरुद्ध हो। हो सकता है आपको इससे तात्कालिक लाभ मिल जाए, लेकिन अंतत: जीवन भर आपको परेशान ही रहना पड़ेगा।

यदि किसी व्यक्ति पर बहुत जल्दी नजर दोष / टोने टोटके / तांत्रिक क्रिया का प्रभाव होता है तो उनकी जन्म कुंडली मे ग्रहो के ये योग होते है

यदि किसी जन्म पत्रिका मे सूर्य, चंद्र, शनि, मंगल ग्रह विशेष भावों में राहु-केतु से पीड़ित, जन्मपत्री लग्न व सूर्य कमजोर हो तो उन पर तांत्रिक क्रिया जल्दी प्रभाव डालती है। यदि कुंडली ग्रहण योग या राहु बहुत अनिष्टकारी स्थिति में है या शनि की टेढ़ी दृष्टि है या मंगल-शनि का संयोग है या चंद्र-शनि का संयोग हो तो भी जातक ऋणात्मक शक्तियों के प्रभाव में आता है। जब शनि नीच राशि मैं राहू के साथ हो तो भी श्रापित दोष के कारण व्यक्ति पर तन्त्र क्रिया हो सकती है ।


दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...