अगर आपका कोई शत्रु आपको बहुत ज्यादा परेशान कर रहा है तो आप उसे भैरव अष्टमी से कमजोर बना सकते हैं। ये टोटका भैरव मंदिर में ही करें। एक छोटे-से कागज़ पर भैरव देव के इस मंत्र ‘ओम क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा!’ का जाप करते हुए अपने शत्रु का नाम लिखें। अब इस कागज़ को शहद की शीशी में डुबो दें और उसका ढक्कन बंद कर दें। इस उपाय के प्रभाव से आपका शत्रु शांत हो जाएगा
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रविवार, 29 अगस्त 2021
भैरव साधना शाबर मंत्र
शाबर मंत्र :
ॐ गुरुजी काला भैरुँ कपिला केश, काना मदरा, भगवाँ भेस।
मार-मार काली-पुत्र। बारह कोस की मार, भूताँ हात कलेजी खूँहा गेडिया।
जहाँ जाऊँ भैरुँ साथ। बारह कोस की रिद्धि ल्यावो। चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो।
सूती होय, तो जगाय ल्यावो। बैठा होय, तो उठाय ल्यावो।
अनन्त केसर की भारी ल्यावो। गौरा-पार्वती की विछिया ल्यावो।
गेल्याँ की रस्तान मोह, कुवे की पणिहारी मोह, बैठा बाणिया मोह,
घर बैठी बणियानी मोह, राजा की रजवाड़ मोह, महिला बैठी रानी मोह।
डाकिनी को, शाकिनी को, भूतनी को, पलीतनी को, ओपरी को, पराई को,
लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धक्का कूँ, पलीया कूँ, चौड़ कूँ, चौगट कूँ, काचा कूँ,
कलवा कूँ, भूत कूँ, पलीत कूँ, जिन कूँ, राक्षस कूँ, बरियों से बरी कर दे।
नजराँ जड़ दे ताला, इत्ता भैरव नहीं करे,
तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे, माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे।
चल डाकिनी, शाकिनी, चौडूँ मैला बाकरा, देस्यूँ मद की धार, भरी सभा में द्यूँ आने में कहाँ लगाई बार?
खप्पर में खाय, मसान में लौटे, ऐसे काला भैरुँ की कूण पूजा मेटे।
राजा मेटे राज से जाय, प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय, जोगी मेटे ध्यान से जाय।
शत्रु से मुक्ति पाये
अगर आपका कोई शत्रु आपको बहुत ज्यादा परेशान कर रहा है तो आप उसे भैरव अष्टमी से कमजोर बना सकते हैं। ये टोटका भैरव मंदिर में ही करें। एक छोटे-से कागज़ पर भैरव देव के इस मंत्र ‘ओम क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा!’ का जाप करते हुए अपने शत्रु का नाम लिखें। अब इस कागज़ को शहद की शीशी में डुबो दें और उसका ढक्कन बंद कर दें। इस उपाय के प्रभाव से आपका शत्रु शांत हो जाएगा
कारोबार मे वृद्धि हेतु प्रयोग
यदि आपके कारोबार में अनावश्यक अवरोध हो, कारोबार चल नहीं रहा हो, कभी घी घणा तो कभी मुट्ठी चना की दशा बनी रहती हो तो ऐसी अवस्था में शनि अमावस्या के इस पावन अवसर पर इस उपाय को शुरू करके देखें, और लगातार 43 दिन तक करें। अवश्य ही लाभ होगा।
एक काला कपडा लें। उडद के आटे में गुड मिले सात लड्डू, 11 बताशे, 11 नींबू, 11 साबुत सूखी लाल मिर्च, 11 साबुत नमक की डली, 11 लौंग, 11 काली मिर्च, 11 लोहे की कील और 11 चुटकी सिंदूर इन सबको कपडे में बांधकर पोटली बना दें। पोटली के ऊपर काजल की 11 बिंदी लगा दें। तत्पश्चात अपने सामने रख दें। ओम् आरती भंजनाय नम: मंत्र की 108 बार जाप करें इसके साथ ही पांच माला ओम् प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:। तत्पश्चात यह सामग्री लेकर मुख्य दरवाजे के चौखट के बीचोबीच खडे हो जाएं। इस पोटली को अपने ऊपर से 11 बार उसार करके किसी मंदिर या चौराहे पर रखकर आ जाएं।
"वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा" !!
श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो के माध्यम से उपाय जानना और आपकी शादी नही हो रही है। व्यवसाय मे सफलता नही मिल रही है! नोकरी मे सफलता नही मिल रही है। और आप शत्रु से परेशान है। ओर आपके कामो मे अडचन आ रही है । और आपको धन सम्बंधी परेशानी है । और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका पंडित आशु बहुगुणा । मै केवल जन्मकुण्डली देखकर ही आप की सम्सयाओ का समाधान कर सकता हुँ । अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे ।
सन्तान को सुधारने का अनुभूत प्रयोग
यदि आपकी सन्तान आपका कहना नहीं मान रही है। वह आपके वश में नहीं है, समय-असमय घर पर आती है। संगत अच्छी नहीं है। आप चाहते हैं कि वह आपका कहना माने और आपके कहे अनुसार चले तो आपके लिए यह अनुभूत प्रयोग दे रहे हैं, इसे करके आप लाभ उठा सकते हैं।
प्रयोग इस प्रकार है।
शुक्ल पक्ष के शनिवार की रात्रि में इस प्रयोग को करना है।
शनिवार की रात्रि में सात फूल वाले लौंग ले आएं।
शनिवार की रात्रि में पूजा स्थल में इष्ट को स्मरण करके सात लौंग को 21 बार फूंक लें और फूंकने से पूर्व यह बोले-मेरा पुत्र अमुक(पुत्र का नाम) मेरे वश में आए। मेरा कहना माने। बुरी संगत से छूट जाए। अमुक के स्थान पर पुत्र का नाम बोलें।
अगले दिन रविवार सात लौंग में से एक लौंग जलाकर भस्म बना दें। इस प्रकार सात रविवार को सातों लौंग जला दें और उसकी भस्म बहते पानी में बहा दें।
इस प्रयोग से आप भी लाभ उठाएं और दूजों को भी बताकर लाभ पहुंचाएं।
रुका फंसा हुआ धन वापस पाने के उपाए
1. किसी बुधवार के दिन, हो सके तो कृष्ण पक्ष के किसी बुधवार या बुधवार को पड़ने वाली अमावस्या पर शाम के समय मीठे तेल की पाँच पूड़ियाँ बना लें। सबसे ऊपर की पूड़ी पर रोली से एक स्वास्तिक का चिन्ह बनायें और उसपर गेहूं के आटे का एक दिया सरसों का तेल डाल कर रख लें। दिया जलाएं और फिर उसपर भी रोली से तिलक करें। पीले या लाल रंग का एक पुष्प अर्पित करें। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान भगवान श्री गणेश से उस व्यक्ति से अपना धन वापस दिलाने की प्रार्थना करते रहें। फिर बाएं हाथ में सरसों और उड़द के कुछ दाने लेकर निम्न मंत्र का जप करते जाएँ और पूड़ी तथा दिए पर छोड़ते जाएँ । ये मन्त्र 21 बार जपना है
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रैं ह्रूं ह्रः हेराम्बाय नमो नमः। मम धनं प्रतिगृहं कुरु कुरु स्वाहा।
तत्पश्चात इस सामग्री को लेजाकर उस व्यक्ति के घर के पास यानि मुख्य द्वार के सामने या ऐसे स्थान पर रख दें जहाँ से उसका मुख्यद्वार या घर नज़र आता हो। मुख्यद्वार के सामने रखने का अर्थ ये है के सड़क के दूसरी ओर यदि वहां भी कोई घर हो और रखने का मौका न मिले तो एक निश्चित दुरी पर रख दें जहाँ से कम से कम उसका घर नज़र आता हो।
क्या आपकी दुकान बंधी है।
– यदि आपको लगता है कि आपकी दुकान किसी ने बांध दी है तो आप चालीस दाने उड़द के लेकर उनपर चालीस बार निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर दुकान के चारों कौनों में रविवार को शाम के समय डाल दें दूसरे दिन सुबह देखें यदि उड़द के दाने फूटे, छिटके, या दो -तीन भाग में मिलते हैं तो समझें कि आपकी दुकान बंधी है अन्यथा नहीं बंधी है यदि उड़द के दाने साबुत मिलते हैं तो उनको उठाकर किसी चौराहे पर डाल दें तथा मुड़कर न देखें और यदि बंधी है तो सम्पर्क करें
मन्त्र – भंवर वीर तू चेला मेरा खोल दुकान कहा कर मेरा , उठे जो डंडी किके जो मॉल भंवर वीर सोखे नहिं जाय |
भूत प्रेत बाधा एवं निवारण
भूत प्रेत बाधा एवं निवारण
भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं और उन्हें भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, यम, शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल, गंधर्व आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। ज्योतिष के अनुसार राहु की महादशा में चंद्र की अंतर्दशा हो और चंद्र दशापति राहु से भाव ६, ८ या १२ में बलहीन हो, तो व्यक्ति पिशाच दोष से ग्रस्त होता है। वास्तुशास्त्र में भी उल्लेख है कि पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाति या भरणी नक्षत्र में शनि के स्थित होने पर शनिवार को गृह-निर्माण आरंभ नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह घर राक्षसों, भूतों और पिशाचों से ग्रस्त हो जाएगा। इस संदर्भ में संस्कृत का यह श्लोक द्रष्टव्य है :
''अजैकपादहिर्बुध्न्यषक्रमित्रानिलान्तकैः।
समन्दैर्मन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुंतगद्यहम॥
भूतादि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान उसके स्वभाव एवं क्रिया में आए बदलाव से की जा सकती है। इन विभिन्न आसुरी शक्तियों से पीड़ित होने पर लोगों के स्वभाव एवं कार्यकलापों में आए बदलावों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है।
भूत पीड़ा : भूत से पीड़ित व्यक्ति किसी विक्षिप्त की तरह बात करता है। मूर्ख होने पर भी उसकी बातों से लगता है कि वह कोई ज्ञानी पुरुष हो। उसमें गजब की शक्ति आ जाती है। क्रुद्ध होने पर वह कई व्यक्तियों को एक साथ पछाड़ सकता है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और देह में कंपन होता है।
यक्ष पीड़ा : यक्ष प्रभावित व्यक्ति लाल वस्त्र में रुचि लेने लगता है। उसकी आवाज धीमी और चाल तेज हो जाती है। इसकी आंखें तांबे जैसी दिखने लगती हैं। वह ज्यादातर आंखों से इशारा करता है।
पिशाच पीड़ा : पिशाच प्रभावित व्यक्ति नग्न होने से भी हिचकता नहीं है। वह कमजोर हो जाता है और कटु शब्दों का प्रयोग करता है। वह गंदा रहता है और उसकी देह से दुर्गंध आती है। उसे भूख बहुत लगती है। वह एकांत चाहता है और कभी-कभी रोने भी लगता है।
शाकिनी पीड़ा : शाकिनी से सामान्यतः महिलाएं पीड़ित होती हैं। शाकिनी से प्रभावित स्त्री को सारी देह में दर्द रहता है। उसकी आंखों में भी पीड़ा होती है। वह अक्सर बेहोश भी हो जाया करती है। वह रोती और चिल्लाती रहती है। वह कांपती रहती है।
प्रेत पीड़ा : प्रेत से पीड़ित व्यक्ति चीखता-चिल्लाता है, रोता है और इधर-उधर भागता रहता है। वह किसी का कहा नहीं सुनता। उसकी वाणी कटु हो जाती है। वह खाता-पीता नही हैं और तीव्र स्वर के साथ सांसें लेता है।
चुडै+ल पीड़ा : चुडै+ल प्रभावित व्यक्ति की देह पुष्ट हो जाती है। वह हमेशा मुस्कराता रहता है और मांस खाना चाहता है।
इस तरह भूत-प्रेतादि प्रभावित व्यक्तियों की पहचान भिन्न-भिन्न होती है। इन आसुरी शक्तियों को वश में कर चुके लोगों की नजर अन्य लोगों को भी लग सकती है। इन शक्तियों की पीड़ा से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
यदि बच्चा बाहर से खेलकर, पढ़कर, घूमकर आए और थका, घबराया या परेशान सा लगे तो यह उसे नजर या हाय लगने की पहचान है। ऐसे में उसके सर से ७ लाल मिर्च और एक चम्मच राई के दाने ७ बार घूमाकर उतारा कर लें और फिर आग में जला दें।
श्रीगुरूदेवमहिमा
श्रीगुरुदेव के श्री चरणकमलो मे कोटि कोटि प्रणाम शिष्य का स्वीकार करे ।।।।
जो गुरुचरणकृपा से रहित हैं वे मेरी आज्ञा से विनष्ट हो जाते हैं । वस्तुतः गुरुचरणपादुका नष्ट होने से रक्षा करती है अतः गुरुचरणसेवा सबसे बडा़ तप है । गुरु के प्रसन्न होने मात्र से सारी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥१८८ – १८९॥
मैं ही गुरु हूँ , मैं ही देव हूँ , मैं ही मन्त्रार्थ हूँ , नाना शास्त्रों के अर्थ को न जानने वाले जो लोग इनमें भिन्न बुद्धि रखते हैं वे नरक में पड़ते हैं । हे प्रभो ! सभी विद्याओं की प्राप्ति का मूल जैसे दीक्षा है , वैसे ही स्वतन्त्र का मूल गुरु है किं बहुना गुरु ही आत्मा है इसमें संशय नहीं ॥१८९ – १९१॥
अपनी ही आत्मा अपना बन्धु है और अपनी ही आत्मा अपना शत्रु है । अपने द्वारा जिस कर्म को जिस भाव से किया जाता है उसी भाव से सिद्धि मिलती है । चाहे हीनाङ्र , कपटी , रोगी एवं बहुभोजी तथा शीलरहित ही साधक क्यों न हो मेरी उपासना करते हुये उसे उपविद्या का अभ्यास करते रहना चाहिये । धन , धान्य , सुत , वित्त , राज्य तथा ब्राह्मण भोजन अपने कल्याण के लिये प्रयुक्त करना चाहिये । अन्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकी वह निष्फल है । नित्यश्राद्ध करने वाला धर्मशील मनुष्य सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ है ॥१९१ – १९४॥
पवित्र आचरण वाला , मेरे सिद्धपीठों में भ्रमण करने वाला महीपाल यदि मेरे उन उन पीठों में जाकर मेरा दर्शन करे , तो अव्यक्त
( सूक्ष्म ) मण्डल में रहने वाली समस्त सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं , क्योंकि महामाया के प्रसन्न होने पर अकस्मात् सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१९५ – १९६॥
भाव प्रशंसा — अथवा , महावीरभाव में अथवा महाधीर साधक को दिव्यभाव में स्थित होने से सिद्धि मिलती है , अथवा पशुभाव में स्थित मन्त्रज्ञ साधक मुझे अपने हृदयरूपी पीठ में निवास करावे तब सिद्धि प्राप्त होती है । मनोरमभावत्रय ( पशुभाव , वीरभाव और दिव्यभाव ) ही क्रिया को सफल बनाते हैं , अथवा , हे भैरव ! दिव्यभाव और वीरभाव भी क्रिया को फलवती बनाते हैं ॥१९७ – १९८॥
हीन जाति में उत्पन्न पशुभाव वाले तथा वीर भाव वाले मुझे प्राप्त करते हैं । किन्तु शास्त्रों से अभिभूत चित्त वाले इस कलियुग में मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते । कोई हजारों वर्ष पर्यन्त लगे रहने पर भी शास्त्रों का अन्त नहीं प्राप्त कर सकता । एक तो तर्कादि अनेक शास्त्र हैं और अपेक्षाकृत मनुष्य की आयु अत्यन्त स्वल्प है तथा उसमें भी करोडों विघ्न हैं ॥१९९ – २००॥
इस कारण जिस प्रकार हंस जल में से क्षीर को अलग कर लेता है उसी प्रकार शास्त्रों के सार का ज्ञान कर लेना चाहिए । इस घोर कलियुग में दिव्य और वीरभाव के सहारे अपने चित्त का महाविद्या में लगाये हुये मेरे महाभक्त महाविद्या के परम पद का दर्शन कर लेते हैं ॥२०१ – २०२॥
मौन धारण करने वाले सर्वदा साधन में लगे हुये सज्जन दिव्य और वीरभाव के स्वभाव से मेरे चरण कमलों का दर्शन कर लेते हैं । बहुत बडे़ उत्तम फल की आकांछा रखने वाले ब्राह्मणों को दो भाव ग्राह्य है अथवा अवधूतों के लिये भी दो ही भाव कहे गये हैं । इन दो भाव के प्रभाव से साधक मनुष्य महायोगी हो जाता है । किं बहुना , भाव द्वय को सिद्ध कर लेने पर मूर्ख भी वाचस्पति हो जाता है ॥२०२ – २०५॥
हे महादेव ! जो तन्त्रार्थ से सिद्ध किये गये सभी वर्णों के लिए विहित दो भाव को जानते हैं , वे साक्षात् रुद्र हैं , इसमें संशय नहीं । भावद्वय सभी भावज्ञों का साधन है । भाव को जानने वाले साधक भक्तियोग के इन्द्र हैं वे अपने तन्त्रार्थ के पारदर्शी होते हैं । नित्या उन्मत्त और जड़ के समान बने रहते हैं ॥२०५ – २०७॥
( जो भाव नहीं जानते वे इस प्रकार हैं ) जैसे वृक्ष फूल धारण करता है किन्तु उसकी गन्ध नासिका ही जानती है । इसी प्रकार तत्त्वशास्त्र के पढ़ने वाले तो बहुत हैं पर भाव के जानकार कोई कोई होते हैं । जिस प्रकार बुद्धिहीन की पढा़ई और अन्धे को आदर्श ( दर्पण ) का दर्शन , व्यर्थ होता है उसी प्रकार प्रज्ञावानों को भी धर्मशास्त्र का ज्ञान बन्धन का कारण हो जाता है ॥२०७ – २०९॥
यह तत्त्व इस प्रकार हो सकता है यही शास्त्रार्थ का निश्चयज्ञान है । इस प्रकार वाक् पति अपने मन से मैं कर्त्ता हूँ , मैं आत्मा हूँ , मैं सर्वव्यापी हूँ इस प्रकार के स्वभाव की चिन्ता करते हैं ॥२०९ – २१०॥
प्रथम पटल – गुरूमहिमा २
गुरूमहिमा २
जब सौदामनी के समान ( क्षणिक ) तेज से युक्त शास्त्र ज्ञानी एक सहस्त्रवर्ष पर्यन्त देखता है तभी ( तन्त्रवेत्ता एवं भावज्ञ ) महाज्ञानी एक चन्द्र को सहस्त्र चन्द्र के समान देखता है । करोड़ों वर्ष तक इस प्रकार तपस्या करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वह सभी फल मेरे चरणों के रज का एक क्षण मात्र ध्यान करने से उसे प्राप्त हो जाता है ॥२११ – २१२॥
यदि कोई आनन्द बढा़ने वाले एवं त्रिकोण के आधार में ( कुण्डलिनी ) स्थित तेज वाले मेरे कामरूप पीठ मंं , जहाँ जल के बुदबुद के समान शब्द होता है तथा जो अनन्त मङ्गलात्मक है , वहाँ सर्वत्र विचरण करे तो वह गणेश और कार्त्तिकेय के समान मेरा प्रिय बन कर मेरा दास हो जाता है और भक्तों में इन्द्र बन जाता है ॥२१३ – २१४॥
यदि कोई साधक मेरे चरणकमलों को प्राप्त करना चाहता है तो साट्टहास एवं विकटाक्ष रूप उपपीठ , जिसका नाम कङ्काल है वहाँ पर विचरण करे । ज्वालामुखी नाम का महापीठ मेरा अत्यन्त प्रिय है जो मेरी संतुष्टि के लिये वहाँ भ्रमण करता है वह निश्चय ही योगी हो जाता है ॥२१५ – २१६॥
दोनों भावों का खान रूप ज्वालामुख्यादिपीठ में जो साधकेन्द्र भ्रमण करते हैं वे अवश्य ही सभी साधकों में श्रेष्ठ एवं सिद्ध हो जाते हैं इसमें संशय नहीं । त्रैलोक्य की सिद्धि चाहने वालों के लिये भाव से बढ़ कर और कोई पदार्थ नहीं क्योंकि भाव ही परमज्ञान और सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान है ॥२१७ – २१८॥
यदि भाव का ज्ञान नहीं हुआ तो करोड़ों कन्या दान से किं वा वाराणसी की सौ बार परिक्रमा से अथवा कुरुक्षेत्र में यात्रा करने से क्या लाभ ? भावद्वयज्ञान के बिना गया में श्राद्ध एवं दान से या अनेक पीठों में भ्रमण करने से भी कोई लाभ नहीं । बहुत क्या कहें , यदि भाव ज्ञान नहीं हुआ तो अनेक प्रकार के होम और क्रिया से भी क्या ? भाव से ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥२१९ – २२१॥
गुरु महिमा — आत्मा से , मन से एवं वाणी से गुरु ईश्वर कहा जाता है । ध्यान ही सायुज्य है और मन को लय कर देना ’ मोक्ष ’ कहा जाता है ॥२२१ – २२२ ॥
गुरु की प्रसन्नता मात्र से यहाँ ( कुण्डलिनी ) शक्ति अत्यन्त संतुष्ट हो जाती है और जब साधक पर शक्ति संतुष्ट हो जाती है तो उसे ’ मोक्ष ’ अवश्य प्राप्त हो जाता है ॥२२२ – २२३॥
इस सारे संसार का मूल गुरु है । समस्त तपस्याओं का मूल गुरु है । उत्तम और जितेन्द्रिय साधक गुरु के प्रसन्न होने मात्र से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२२३ – २२४॥
इसलिये साधक गुरु की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे तथा उनका उत्तर न दे । दिन रात दास के समान गुरु की आज्ञा का पालन करे । बुद्धिमान साधक उनके कहे गये अथवा बिना कहे कार्थों की उपेक्षा न करे ॥२२४ – २२५॥
उनके चलते रहने पर स्वयं भी नम्रतापूर्वक उनका अनुगमन करे और उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे । जो गुरु की अहितकारी अथवा हितकारी बात नहीं सुनता अथवा सुन कर अपना मुंह फेर लेता है वह रौरव नरक में जाता है । दैवात् यदि बुद्धिरहित पुरुष अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह घोर नरक में जाता है और शूकर योनि प्राप्त करता है ॥२२६ – २२८॥
जो गुरु की आज्ञा का उल्लङ्वन , गुरुनिन्दा , गुरु को चिढा़ने वाला , अप्रिय व्यवहार तथा गुरुद्रोह करता है उसका संसर्ग कभी नहीं करना चाहिये । जो गुरु के द्रव्य को चाहता है , गुरु की स्त्री के साथ सङ्गम करता है उसे बहुत बडा़ पाप लगता है अतः उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । जो निन्दा के द्वारा गुरु का शत्रुवत् अहित करता है वह अरण्य में एवं निर्जन स्थान में ब्रह्मराक्षस होता है ॥२२८ – २३१॥
गुरु का खडा़ऊँ , आच्छादन , वस्त्र , शयन तथा उनके आभूषण देखकर उन्हे नमस्कार करे और अपने कार्य में कभी भी उसका उपयोग न करे । जिस मनुष्य के जिहवा के अग्रभाग में सदैव गुरुपादुका मन्त्र विद्यमान रहता है वह अनायास ही धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । शिष्य को अपने भोग तथा मोक्ष के लिये गुरु के चरण कमलों का सदैव ध्यान करना चाहिये । हे वीर भैरव ! उससे बढ़ कर अन्य कोई भक्ति नहीं है ॥२३१ – २३४॥
यदि शिष्य और गुरु एक ही ग्राम में निवास करते हों तो शिष्य को चाहिये कि वह तीनों संध्या में जाकर अपने गुरु को प्रणाम करे । यदि एक ही देश में गुरु और शिष्य के निवास में सात योजन का अन्तर हो तो शिष्य को महीने में एक बार जा कर उन्हें प्रणाम करना चाहिये ॥२३४ – २३५॥
श्री गुरु का चरण कमल जिस दिशा में विद्यमान हो उस दिशा में शरीर से ( दण्डवत् प्रणाम द्वारा ), मन से तथा बुद्धि से नमस्कार करे । हे प्रभो ! वेदाङ्गादि विद्या , पदमा सनादि आसन , मन्त्र , मुद्रा और तन्त्रादि ये सभी गुरु के मुख से प्राप्त होने पर सफल होते हैं अन्यथा नहीं ॥२३६ – २३७॥
कम्बल पर , कोमल स्थान ( चारपाई आदि ) पर , प्रासाद पर , दीर्घ काष्ठ पर अथवा किसी की पीठ पर गुरु के साथ एव आसन पर न बैठे । हे देवेश ! श्री गुरु का पादुका मन्त्र , उनका दिया हुआ मूल मन्त्र और अपना पादुका मन्त्र जिस किसी के शिष्य को नहीं बताना चाहिये ॥२३८ – २३९॥
जो अपनी हित में आने वाली वस्तु हो उसे न दे कर गुरु को कदापि प्रवञ्चित नहीं करना चाहिये । हे सुव्रत ! न केवल दीक्षागुरु को , किन्तु जिससे एक अक्षर का भी ज्ञान किया हो उसको भी प्रवञ्चित न करे । गुरु के उद्देेश्य से अपने वित्तानुसार जो भक्ष्य निर्माण किया जाता है उसका स्वल्पभाग भी बहुत महान् होता है । किन्तु जो गुरु की भक्ति से विवर्जित भुवनादि , किं बहुना , सर्वस्व भी प्रदान करे तो वह दरिद्रता और नरक प्राप्त करता है क्योंकि दान में भक्ति ही कारण है ॥३४० – २४२॥
गुरु में भक्ति रखने से ऐन्द्र ( महेन्द्र ) पद तथा भक्ति न रखने से शूकरत्व प्राप्त होता है । सभी जगह भक्तिशास्त्र में गुरु भक्ति से बढ़ कर और कोई उत्कृष्ट नहीं है । हे नाथ ! गुरु पूजा के बिना करोड़ों पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं इसलिये गुरुभक्ति करनी चाहिये ॥२४३ – २४४॥
श्री गुरु पादुका स्तोत्र
ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः!आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्योनमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!!
मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका केप्रति हैं, क्योंकि गंगा-यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी केचरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!
ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!!
गुरुदेव “ऐंकार” रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव”ह्रींकार” युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव”श्रींकार” युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव “ॐ” शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा – भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!
होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ – होमादिसर्वाकृतिभासमानं !यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!!
ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करनेमें समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकीवजह से मैं स्वयं ब्रह्मस्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!
कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!!
मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!
अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!!
यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरहहैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओंको मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5!!
**********~ श्री गुरु स्तोत्रम् ~*****************
|| श्री महादेव्युवाच ||
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||
श्री गुरु स्तोत्रम् श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है – इस बारे में वर्णन करें |
|| श्री महादेव उवाच ||
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||
श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१||
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||
प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२||
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||
वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३||
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||
भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||
प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६||
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||
भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७||
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||
भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||
गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||
हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन – ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०||
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||
तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११||
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||
इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२||
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||
शक्तिपात :- हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो.
वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं. ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है.
साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं.
यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे.
१.अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :- श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं. कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं. अश्विनी मुद्रा का अर्थ है “अश्व यानि घोड़े की तरह करना”. घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.
इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है. यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं. विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें. सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती. मन एकाग्र होता है. साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे. जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है. इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है. मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है. इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर – ऊपर की और खींचा जाता है. यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है. यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है. इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं.
2.. गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :- जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.
3… ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :- कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है. उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है. बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है. तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं. कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता. तब फिर वह और किसी की पास जाता है. वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है. तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ. इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा. यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें. साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है. उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है). इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने. इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए.”
4.. शरीर का हल्का लगना :- जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक “मैं यह स्थूल शरीर हूँ” ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से “मैं शरीर हूँ” ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि “मैं सूक्ष्म शरीर हूँ” या “मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ” ऎसी भावना दृढ हो जाती है. यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है. दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी “मैं शरीर हूँ” इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है. परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए.
5.. हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का खिसक जाना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है. साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है. तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है. वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है. वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है.
6… रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ होना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं. वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है. रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना. साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है. मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना. आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है. कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.
7… अंग फड़कना :- शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए. कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है. इसके लिए पहले कहे गए उपाय करें (देखें विघ्न सूचक स्वप्नों के उपाय). इसके अतिरिक्त काली की उपासना करें. दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें. मान काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें. दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है. यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी. ।।।
श्री हनुमान जी
ॐश्रीहनूमते नम:
(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे।
(२) आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
(३) ब्रह्म रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं
*स्रष्टा रूप में यथापूर्वं अकल्पयत् = पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल
तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों
(द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं)
में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा
करता है अतः कपि है। अतः मनुष्य का अनुकरण कार्ने वाले पशु को भी "कपि"
कहते हैं।
*तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव
है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति "मारुति" है।
*वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्णु है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा
के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजवं "हनुमान्" है।
(४) हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
(५) दो प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-
पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है,उसकी
महिमा साम है-ऋक्-सामे वै हरी
(शतपथ ब्राह्मण ४/४/३/६)। पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें दो प्रकार के
हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, "ऋक्" है।
वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह
"साम" हरि है।
इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है
अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
(६) हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता
है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायु
मण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है।
सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन =
प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग
(प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है। इसी को कहा है-बाल समय
रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है।
यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३-
अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा
सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्चन्दांस्येवैतत्संतर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति
ऋक् १/६१/१६, अथर्व २०/३५/१६)
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्।
(गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१२)आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१२)
'चिरजीवि' अजेय "श्रीरामदूत हनुमानजी" !
तांत्रिक अभिकर्म से प्रतिरक्षण हेतु उपाय
१. पीली सरसों, गुग्गल, लोबान व गौघृत इन सबको मिलाकर इनकी धूप बना लें व सूर्यास्त के 1 घंटे भीतर उपले जलाकर उसमें डाल दें। ऐसा २१ दिन तक करें व इसका धुआं पूरे घर में करें। इससे नकारात्मक शक्तियां दूर भागती हैं।
२. जावित्री, गायत्री व केसर लाकर उनको कूटकर गुग्गल मिलाकर धूप बनाकर सुबह शाम २१ दिन तक घर में जलाएं। धीरे-धीरे तांत्रिक अभिकर्म समाप्त होगा।
३. गऊ, लोचन व तगर थोड़ी सी मात्रा में लाकर लाल कपड़े में बांधकर अपने घर में पूजा स्थान में रख दें। शिव कृपा से तमाम टोने-टोटके का असर समाप्त हो जाएगा।
४. घर में साफ सफाई रखें व पीपल के पत्ते से ७ दिन तक घर में गौमूत्र के छींटे मारें व तत्पश्चात् शुद्ध गुग्गल का धूप जला दें।
५. कई बार ऐसा होता है कि शत्रु आपकी सफलता व तरक्की से चिढ़कर तांत्रिकों द्वारा अभिचार कर्म करा देता है। इससे व्यवसाय बाधा एवं गृह क्लेश होता है अतः इसके दुष्प्रभाव से बचने हेतु सवा 1 किलो काले उड़द, सवा 1 किलो कोयला को सवा 1 मीटर काले कपड़े में बांधकर अपने ऊपर से २१ बार घुमाकर शनिवार के दिन बहते जल में विसर्जित करें व मन में हनुमान जी का ध्यान करें। ऐसा लगातार ७ शनिवार करें। तांत्रिक अभिकर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा।
६. यदि आपको ऐसा लग रहा हो कि कोई आपको मारना चाहता है तो पपीते के २१ बीज लेकर शिव मंदिर जाएं व शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाकर धूप बत्ती करें तथा शिवलिंग के निकट बैठकर पपीते के बीज अपने सामने रखें। अपना नाम, गौत्र उच्चारित करके भगवान् शिव से अपनी रक्षा की गुहार करें व एक माला महामृत्युंजय मंत्र की जपें तथा बीजों को एकत्रित कर तांबे के ताबीज में भरकर गले में धारण कर लें।
७. शत्रु अनावश्यक परेशान कर रहा हो तो नींबू को ४ भागों में काटकर चौराहे पर खड़े होकर अपने इष्ट देव का ध्यान करते हुए चारों दिशाओं में एक-एक भाग को फेंक दें व घर आकर अपने हाथ-पांव धो लें। तांत्रिक अभिकर्म से छुटकारा मिलेगा।
८. शुक्ल पक्ष के बुधवार को ४ गोमती चक्र अपने सिर से घुमाकर चारों दिशाओं में फेंक दें तो व्यक्ति पर किए गए तांत्रिक अभिकर्म का प्रभाव खत्म हो जाता है।
शनिवार, 28 अगस्त 2021
भूमी पूजन
भूमी पूजन ,आफिस एवं दुकान उदघाटन : भूमि पूजन एवं दुकान उदघाटन उस भूमि पर कार्य शुरू करने के पूर्व वहा का भूमि पूजन सम्पन्न किया जाता है | जिससे वहा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो और कार्य आसानी से सम्पन्न हो जाय|
श्री नवग्रह उपाय
१ : सूर्य : सूर्य की शांति के लिए सूर्य के ७००० मन्त्र संख्या का जप करना अनिवार्य है | साथ में गेहू या गुण दान करे लाल चन्दन लगाये तथा सूर्य को अर्घ्य दें | माणिक्य सोना या तम्बा में धारण करे लाभ प्राप्त होगा |
२ : चन्द्र शांति : चन्द्र ग्रह बहुत ही निर्मल है इसकी शांति के लिए ११००० मन्त्र जप करवाने से चन्द्र शांति होती है |
३ : मंगल शांति : मंगल शांति के लिए मंगल के १०००० मन्त्र का जप कराया जाता है |
४ : बुध शांति : बुध के ९००० मंत्रो के जप कराने से तथा दान करने से बुध ग्रह शांत होता है |
५ : गुरु शांति : गुरु की जप संख्या १९००० का जप करवाने से तथा पीले वस्त्रो का दान देने से गुरु की शांति होती है |
६ : शुक्र शांति : शुक्र की जप संख्या १६००० का जप ब्रह्मण द्वारा कराए तथा सफेद वस्तुओ का दान करे शुक्र प्रसन्न होगे |
७ : शनि शांति : २३००० शनि मंत्रो का जप कराए तथा काले वस्त्रो का दान करे तो शनि शीघ्र लाभकारी होगा |
८ : राहू शांति : राहू की शांति के लिए १८००० जप ब्राह्मण द्वरा कराए तथा यथोचित दान करे आप को लाभ प्राप्त होगा |
९ : केतु शांति : केतु शांति के लिए १७००० मंत्रो का जप कराए , और उचित दान देने पर विशेष लाभ प्राप्त होगा |
मंत्र किसे कहतें है।?
मंत्र किसे कहतें है।?
मंत्र एक ध्वनि उर्जा है जो अक्षर(शब्द) एवं अक्षर के समूह से बनता है। ब्रह्मांड में रूप रस, गंध इत्यादि गुण व्याप्त न होकर मात्र शब्द और प्रकाश ही विद्यमान होता है | ध्यान की अवस्था में ब्रह्माण्ड में व्याप्त अलोकिक प्रकाश की अनुभूति की जा सकती है | मंत्र जाप एवं ध्यान के समन्वय से मनुष्य का ब्रह्मांड में दोनों प्रकार की उपस्थित उर्जाओं से साक्षात्कार संभव हो सकता है | प्राचीनो ने इसी को शब्द-ब्रह्म के नाम से पुकारा था जिसमें शब्द उर्जा एवं प्रकाश उर्जा ,दोनों का सुनियोजित प्रकार से समन्वय करके इष्ट, इष्टफल एवं ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके |
जाप किसे कहतें है ?
जाप, दो अक्षरों से मिलकर बना है -ज और प - जिसका अर्थ है - जन्मो-जन्मो के पापों का नाश | मन्त्रों के जाप से मनुष्य का सीधा सम्बन्ध ब्रहमांड जगत से होने लगता है एवं अन्दर पलने वाले समस्त पाप, ताप एवं विकारों का शमन होने लगता है और धीरे - धीरे वह समस्त इच्छित प्रयोजनों को साधने योग्य हो जाता है |
तुलसीदास ने भी राम चरित में जप की के बारे में वर्णन किया है -
| मंत्रजाप मम दृढ बिस्वासा
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ||
भगवान बुद्ध के प्रवचन के अनुसार भी -मंत्रजाप असीम मानवता के साथ हृदय को एकाकार कर देता है |
क्योंकि मंत्रो के समीकरण के प्रकार अनुसार मन्त्रों को तीन श्रेणियों में बाटां गया है -
ऋचः - छन्द बद्ध और पद्यात्मक एवं उच्च स्वर में उच्चारित |
सामाः - पद्यात्मक एवं गायन द्वारा उच्चारित |
यजुः - गद्यात्मक एवं मंद स्वर में उच्चारित |
इसलिए जप का सामान्य अर्थ किसी मंत्र का चक्रीय स्थिति एवं गति से सतत या निरंतर, चिंतन (यजुः), मनन (यजुः) या गायन (ऋचः एवं सामाः ) करना होता है | मंत्र के निरंतर, लयबद्ध जप से उत्पन्न धवनि तरंगो से शक्तियों का प्रस्फुटन होता है मनुष्य की अंतर चेतना विकसित होने लगती है | मंत्र में निहित ईश्वरीय शक्ति जाग्रत होने लगती है | साधक को नाक्षत्र जगत से एकीकार होने की अनुभूति होती है एवं वह अपने इच्छित वरदान प्राप्ति की और मार्ग प्रशस्त करता है |
श्रीमद भगवद गीता, रामायण एवं महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में मंत्र साधना एवं सिद्धि का उल्लेख मिलता है और यह विदित होता है की उस काल में ऋषि मुनि ही नहीं, वरन सामान्य मनुष्य भी मंत्र सिद्धि से सभी प्रकार के तापों एवं रोगों का नाश करके समस्त भौतिक एवं अध्यात्मिक सुखों के आलोकिक आनंद को प्राप्त कर लेता था | आज के भोतिक वादी युग में हर व्यक्ति को सुख साधनों एवं सुरक्षा की कामना रहती है | कुछ व्यक्तियों को अध्यात्मिक ज्ञान एवं शांति की खोज रहती है | इन सभी की प्राप्ति के लिए जो मनुष्य के प्रारब्ध या कर्मों के चक्र के कारण अति अवरुद्ध या असंभव प्रतीत होते हैं , मन्त्र जाप की सहायता से प्राप्त हो सकतें है | परन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब साधक को मंत्र सिद्धि प्राप्त हो और इसके लिए आवयशक है की "जप" पूर्ण विधान के किया जाये |
आएये हम जप के -विधि विधान पर विमर्श करते है-
शास्त्रों में जप के तीन प्रकार बतलाएं गए हैं
मानसिक जप - बिना जिह्वा या होंठ हिलाए मन में किया जाता है
वाचिक जप - उच्च स्वर में उच्चारित किया जाता है
उपांशु जप - अत्यंत मंद स्वर जिह्वा या होंठ की सहायता से उच्चारित किया जाता है
मानसिक जप को सबसे श्रेष्ठ माना गया है फिर भी साधक अपनी क्षमता एवं गुरु से प्राप्त ज्ञान के अनुसार जप विधि का अनुसरण कर सकता है |
जप के लिए कुछ प्रारंभिक सावधानियां पर ध्यान देना आवयशक है-
१ ) इष्ट की पूजा से प्रारम्भ २ ) निश्चित भूमि एवं वस्त्रों का चयन ३ ) ब्रहमचर्य एवं देहिक व् मानसिक शुद्धता का पालन ४ ) नेमित्तिक पूजा एवं दान ५) मंत्र एवं गुरु में पूर्ण विश्वास ६ ) मन्त्र के दोषों का उन्मूलन ( शास्त्रों में मंत्र के ८ दोष बताये गएँ है - अभक्ति , अक्षर भ्रान्ति , दीर्घ ,ह्रस्व , छिन्न , लुप्त , कथन एवं स्वप्ना कथन ) हेतु संस्कार ७ ) जप संख्या में निरंतर वृद्धि |
किसी भी दोष निवारण के लिए हर मन्त्र का उच्चारण करते समय आनंद का अनुभव करना चाहिए क्योंकि इसी से उस मंत्र से सम्बंधित शक्ति प्रसन्न होती है एवं मन्त्र शीघ्र सिद्ध हो जाता | कोई भी मन में संशय होने पर अपने गुरु से पुनः मंत्र प्राप्त करें |
जप में माला का महत्त्व
जप करने के लिए माला का होना आवश्यक है | कुछ लोग अपने हाथ पर गिनकर भी जप कर लेते है परन्तु लम्बे चलने वाले जप या अधिक संख्या के मन्त्रों के जप के लिए हाथ पर जप करना अभीष्ट नहीं होता है | जप के लिए तीन प्रकार की माला का प्रयोग बताया गया है |
१ ) कर माला - उँगलियों के पोरों पर गिनकर जप किया जाता है पर गिनते समय पोरों के क्रम का ध्यान रखना पड़ता है | इसमें मध्यमा ऊँगली के नीचे या जड़ के दो पोरों को छोड़ना चाहिए , क्योंकि वह ऊँगली के मेरु कहलाते हैं |
२ ) वर्ण माला - इसमें शब्दों के अक्षरों द्वारा संख्या गिनने की प्रक्रिया होती है |
३ ) मणि माला- मणियों अर्थात मानकों में पिरोई हुई माला को कहते हैं | यहाँ पर हम इसीकी की चर्चा करेगे क्योकि यही बहुतायत में प्रयोग की जाती है एवं इसीका का विधान सर्वथा उचित माना गया है |
मनको की माला के प्रयोग हेतु विभिन्न बातोंका ध्यान रखना आवयशक है -
१ ) माला में सुमेरु के अलावा १ ० ८ मनके होने चाहिए एवं पिरोते समय मनकों के अग्र एवं पुच्छ भाग की दिशा का ध्यान रखना चाहिए
२) भिन्न - भिन्न देवता या ग्रह अथवा भिन्न प्रयोजन या कामनापूर्ति के लिए उनसे संभंधित पदार्थों की माला प्रयोग में लानी चाहिए जैसे बृहस्पति की शान्ति हेतु हल्दी की माला , हनुमान और शिव की प्रसनता हेतु रुद्राक्ष की माला और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए स्फटिक की माला
३ ) प्रातः काल में माला को नाभि के पास रखकर, मध्यान काल में माला को हृदय के पास रखकर और सायंकाल में माला को मस्तक के पास रखकर जप करने चाहिए |
४ ) जप करते समय माला के सुमेरु को नहीं लांघना चाहिए | एक से अधिक बार माला फेरने की स्थिति में सुमेरु तक पहुँचाने के उपरांत माला उलटी फेरनी चाहिए |
५) प्रयोग में लेने से पूर्व , माला का विधिवत 'माला -संस्कार ' होना चाहिए |
अशुभ ग्रहो के दोष से बचाव के लिये स्नान
अशुभ ग्रहो के दोष से बचाव के लिये स्नान ।
वर्तमान युग मे रत्न धारण को ही ग्रहो की अनुकूलता का एक मात्र विकल्प मान लिया जो उचित नही है ।
ग्रहो की अनुकूलता अनिष्ट फल को शमन करने और शुभ फल प्राप्ति के लिए ओषधियो को जल मे भिगोकर अथवा उनके क्वाथ को जल मे मिलाकर स्नान करने का विधान अत्यन्त श्रेष्ठ रहता है ।
ज्योतिषीय प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ मे लिखा है। -
" खगेरिता साधुफलं जनेन
तदर्चया यत्तदितं वरेण्यम् ।
सदौषधिस्नान विधानहोमा
पवर्जनेभ्योऽभ्युदयाय वा स्यात्। ।
अर्थात ग्रहो के अनिष्ट फल की शान्ति ग्रह- पूजा , ओषधि स्नान, होम एवं दान करने से होती है और मनुष्य का अभ्युदय होता है ।
सभी ग्रहो की ओषधि स्नान वस्तुऐ निम्नवत प्रकार से है।
सूर्य -
सूर्य की अनिष्ट शान्ति के लिए देवदारू , जेठीमधु , कमल गट्टा ,इलायची , मनःशिल , खस से स्नान करने से लाभ प्राप्त होता है ।
चन्द्रमा -
चन्द्रमा की अनिष्ट शान्ति के लिये पंचगव्य , बिल्व , कमल ,मोती की सीप शंख से स्नान करना लाभदायक रहता है ।
मंगल -
मंगल की अनिष्ट शान्ति के लिए चन्दन , बिल्व , बैगनमूल , बरियारा के बीच ( खरेटी ) ,जटामासी , लाल पुष्प ,सुगंध वाला , नागकेशर और जपापुष्प से स्नान करना चाहिए।
बुध -
बुध अनिष्ट शान्ति के लिए नागकेशर, पोहकरमूल , अक्षत , मुक्ताफल , गोरोचन , मधु , मैनफल और पंचगव्य से स्नान करना श्रेष्ठ रहता है ।
बृहस्पति -
गुरु की अनिष्ट शान्ति के लिए पीली सरसो , जेठीमधु , मालती पुष्प , जुही के फूल और पत्ते से स्नान करना उचित रहता है ।
शुक्र-
शुक्र के अच्छे फल प्राप्ति के लिए श्वेत कमल , मनःशिल , सुगंधबाला , इलायची , पोहकरमूल , और केशर से नहाना सर्वाधिक हितकर रहता है ।
शनि -
शनि की अनिष्ट निवारक के लिए काला सुरमा , बरियारा के बीज ( खरेटी ) ,काले तिल , धान का लावा , लोध , मोथा और सौफ से स्नान करना उत्तम फलदायक रहता है ।
राहु -
राहु अनिष्ट निवारण के लिए बिल्व पत्र , लाल चंदन , लोध , कस्तूरी , गजमद , दूर्वा , मोथा से स्नान लाभप्रद रहता है ।
केतु -
केतु की अनिष्ट शान्ति के लिए रक्त चंदन , रतनजोत , कस्तूरी ,मोथा , गजमद , लोध , सुगंधबाला, दाडिम, गुडूची से स्नान करना श्रेष्ठ फलदायक रहता है ।
उपरोक्त ग्रहो के निमित्त ओषधि स्नान अनिष्ट निवारक एवं शुभ प्रभाव प्रदान करने वाले हैं शास्त्रोक्त एवं मालूमी व्यय वाले एवं अति शीघ्र फलदायक रहते है। जनोपयोगी एवं अत्यन्त श्रेष्ठ है। का उपयोग कर ग्रहो की अनुकूलता प्राप्त की जा सकती है। जन्म कुंडली के अनुसार अनिष्ट फल प्रदान करने वाला ग्रह दशा चक्र होने पर उपरोक्त ओषधि स्नान कर ग्रहो की कृपा आसानी से प्राप्त की जा सकती है ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
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