Monday, 23 August 2021

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥

 वन्दे सिन्दूरवर्णाभं लोहिताम्बरभूषितम् ।

 रक्ताङ्गरागशोभाढ्यं शोणापुच्छं कपीश्वरम्॥ 

भजे समीरनन्दनं,

 सुभक्तचित्तरञ्जनं, 

दिनेशरूपभक्षकं,

 समस्तभक्तरक्षकम् । 

सुकण्ठकार्यसाधकं, 

विपक्षपक्षबाधकं, 

समुद्रपारगामिनं, 

नमामि सिद्धकामिनम्

 ॥ १॥ सुशङ्कितं सुकण्ठभुक्तवान् हि यो हितं वचस्त्वमाशु धैर्य्यमाश्रयात्र वो भयं कदापि न । इति प्लवङ्गनाथभाषितं निशम्य वानराऽधिनाथ आप शं तदा, स रामदूत आश्रयः 

॥ २॥ सुदीर्घबाहुलोचनेन, पुच्छगुच्छशोभिना, भुजद्वयेन सोदरीं निजांसयुग्ममास्थितौ । कृतौ हि कोसलाधिपौ, कपीशराजसन्निधौ, विदहजेशलक्ष्मणौ, स मे शिवं करोत्वरम्

 ॥ ३॥ सुशब्दशास्त्रपारगं, विलोक्य रामचन्द्रमाः, कपीश नाथसेवकं, समस्तनीतिमार्गगम् । प्रशस्य लक्ष्मणं प्रति, प्रलम्बबाहुभूषितः कपीन्द्रसख्यमाकरोत्, स्वकार्यसाधकः प्रभुः

 ॥ ४॥ प्रचण्डवेगधारिणं, नगेन्द्रगर्वहारिणं, फणीशमातृगर्वहृद्दृशास्यवासनाशकृत् । विभीषणेन सख्यकृद्विदेह जातितापहृत्, सुकण्ठकार्यसाधकं, नमामि यातुधतकम्

 ॥ ५॥ नमामि पुष्पमौलिनं, सुवर्णवर्णधारिणं गदायुधेन भूषितं, किरीटकुण्डलान्वितम् । सुपुच्छगुच्छतुच्छलंकदाहकं सुनायकं विपक्षपक्षराक्षसेन्द्र-सर्ववंशनाशकम्

 ॥ ६॥ रघूत्तमस्य सेवकं नमामि लक्ष्मणप्रियं दिनेशवंशभूषणस्य मुद्रीकाप्रदर्शकम् । विदेहजातिशोकतापहारिणम् प्रहारिणम् सुसूक्ष्मरूपधारिणं नमामि दीर्घरूपिणम्

 ॥ ७॥ नभस्वदात्मजेन भास्वता त्वया कृता महासहा यता यया द्वयोर्हितं ह्यभूत्स्वकृत्यतः । सुकण्ठ आप तारकां रघूत्तमो विदेहजां निपात्य वालिनं प्रभुस्ततो दशाननं खलम् 

॥ ८॥ इमं स्तवं कुजेऽह्नि यः पठेत्सुचेतसा नरः कपीशनाथसेवको भुनक्तिसर्वसम्पदः । प्लवङ्गराजसत्कृपाकताक्षभाजनस्सदा न शत्रुतो भयं भवेत्कदापि तस्य नुस्त्विह

 ॥ ९॥ नेत्राङ्गनन्दधरणीवत्सरेऽनङ्गवासरे । लोकेश्वराख्यभट्टेन हनुमत्ताण्डवं कृतम् 

॥ १०॥ इति श्री हनुमत्ताण्डव स्तोत्रम्॥

तीव्र विलक्षण कारी दुर्लभ गोपनीय माता बगलामुखी मंत्र:-

तीव्र विलक्षण कारी दुर्लभ गोपनीय माता बगलामुखी मंत्र:-
इसका प्रयोग स्वविवेक पर किसी गुरू के सानिध्य में करें।
ऊं नमो भगवती ऊं नमो वीर प्रताप विजय भगवती बगलामुखी मम सर्व निन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां मुद्रय मुद्रय बुद्धिं विनाशय विनाशय अपर बुद्धिं कुरू कुरू आत्म विरोधिनां शत्रूणां शीशे ललाटं मुखं नेत्रं कर्णं नासिकोरू पद अणु अणु दंतोष्ठ जिह्वां तालु गुह्य गुदा कटि जानु सर्वांगेषु केशादि पादांत पादादिके शपर्यंतं स्तंभय स्तंभय खें रखीं मारय मारय परमंत्र परयंत्र परतंत्राणि छेदय छेदय आत्म मंत्र तंत्राणि रक्ष रक्ष ग्रहं निवारय निवारय व्याधिं विनाशय विनाशय दुःखं हर हर दारिद्रयं निवारय निवारय सर्वमंत्र स्वरुपिणी दुष्ट ग्रह भूत ग्रह पाषाण ग्रह सर्व चाण्डाल ग्रह यक्ष किन्नर किम्पुरूष ग्रह भूत प्रेत पिशाचानां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्व दिशं बंधय स्वप्न वर्तालि मां रक्ष रक्ष पश्चिम दिशय बंधय बंधय उग्र कालि मां रक्ष रक्ष पाताल दिशं बंधय बंधय बगला परमेश्वरी मां रक्ष रक्ष सकल रोगान विनाशय विनाशय शत्रु पलायनं पंचयोजन मध्ये राज जन स्व पचं कुरू कुरू शत्रून दह दह पच पच स्तंभय स्तंभय मोहय मोहय आकर्षय आकर्षय मम शत्रून उच्चाटय उच्चाटय ह्रीं फट स्वाहा।

ओं क्ष्रौं‘श्रीसुदर्शन-चक्र’ भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है।

जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। ‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि ‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें, क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के ‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया।

‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी।

‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है कि एक बार भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा था कि ‘आप लोगों के पास जो अस्त्र हैं, उनसे असुरों का वध नहीं किया जा सकता। आप सब अपना-अपना तेज दें।’ इस पर सभी देवताओं ने अपना-अपना तेज दिया। सब तेज एकत्र होने पर भगवान् विष्णु ने भी अपना तेज दिया। फिर महादेव शंकर ने इस एकत्रित तेज के द्वारा अत्युत्तम शस्त्र बनाया और उसका नाम ‘सुदर्शन-चक्र’ रखा। भगवान् शिव ने ‘सुदर्शन-चक्र’ को दुष्टों का संहार करने तथा साधुओं की रक्षा करने के लिए विष्णु को प्रदान किया।

‘हरि-भक्ति-विलास’ में लिखा है कि ‘सुदर्शन-चक्र’ बहुत पुज्य है। वैष्णव लोग इसे चिह्न के रुप में धारण करें। ‘गरुड़-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का महत्त्व बताया गया है और इसकी पूजा-विधि दी गई है। ‘श्रीमद्-भागवत’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ की स्तुति इस प्रकार की गई है- ‘हे सुदर्शन! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलय-कालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् विष्णु की प्रेरणा से सभी ओर घूमते हैं। जिस प्रकार अग्नि वायु की सहायता से शुष्क तृण को जला डालती है, उसी प्रकार आप हमारी शत्रु-सेना को तत्काल जला दीजिए।’
‘विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का वर्णन एक पुरुष के रुप में हुआ है। इसकी दो आँखें तथा बड़ा-सा पेट है। चक्र का यह रुप अनेक अलंकारों से सुसज्जित तथा चामर से युक्त है।

वल्लभाचार्य कृत ‘सुदर्शन-कवच’—–

वैष्णवानां हि रक्षार्थं, श्रीवल्लभः-निरुपितः। सुदर्शन महामन्त्रो, वैष्णवानां हितावहः।।
मन्त्रा मध्ये निरुप्यन्ते, चक्राकारं च लिख्यते। उत्तरा-गर्भ-रक्षां च, परीक्षित-हिते-रतः।।
ब्रह्मास्त्र-वारणं चैव, भक्तानां भय-भञ्जनः। वधं च सुष्ट-दैत्यानां, खण्डं-खण्डं च कारयेत्।।
वैष्णवानां हितार्थाय, चक्रं धारयते हरिः। पीताम्बरो पर-ब्रह्म, वन-माली गदाधरः।।
कोटि-कन्दर्प-लावण्यो, गोपिका-प्राण-वल्लभः। श्री-वल्लभः कृपानाथो, गिरिधरः शत्रुमर्दनः।।
दावाग्नि-दर्प-हर्ता च, गोपीनां भय-नाशनः। गोपालो गोप-कन्याभिः, समावृत्तोऽधि-तिष्ठते।।
वज्र-मण्डल-प्रकाशी च, कालिन्दी-विरहानलः। स्वरुपानन्द-दानार्थं, तापनोत्तर-भावनः।।
निकुञ्ज-विहार-भावाग्ने, देहि मे निज दर्शनम्। गो-गोपिका-श्रुताकीर्णो, वेणु-वादन-तत्परः।।
काम-रुपी कला-वांश्च, कामिन्यां कामदो विभुः। मन्मथो मथुरा-नाथो, माधवो मकर-ध्वजः।।
श्रीधरः श्रीकरश्चैव, श्री-निवासः सतां गतिः। मुक्तिदो भुक्तिदो विष्णुः, भू-धरो भुत-भावनः।।
सर्व-दुःख-हरो वीरो, दुष्ट-दानव-नाशकः। श्रीनृसिंहो महाविष्णुः, श्री-निवासः सतां गतिः।।
चिदानन्द-मयो नित्यः, पूर्ण-ब्रह्म सनातनः। कोटि-भानु-प्रकाशी च, कोटि-लीला-प्रकाशवान्।।
भक्त-प्रियः पद्म-नेत्रो, भक्तानां वाञ्छित-प्रदः। हृदि कृष्णो मुखे कृष्णो, नेत्रे कृष्णश्च कर्णयोः।।
भक्ति-प्रियश्च श्रीकृष्णः, सर्वं कृष्ण-मयं जगत्। कालं मृत्युं यमं दूतं, भूतं प्रेतं च प्रपूयते।।

“ॐ नमो भगवते महा-प्रतापाय महा-विभूति-पतये, वज्र-देह वज्र-काम वज्र-तुण्ड वज्र-नख वज्र-मुख वज्र-बाहु वज्र-नेत्र वज्र-दन्त वज्र-कर-कमठ भूमात्म-कराय, श्रीमकर-पिंगलाक्ष उग्र-प्रलय कालाग्नि-रौद्र-वीर-भद्रावतार पूर्ण-ब्रह्म परमात्मने, ऋषि-मुनि-वन्द्य-शिवास्त्र-ब्रह्मास्त्र-वैष्णवास्त्र-नारायणास्त्र-काल-शक्ति-दण्ड-कालपाश-अघोरास्त्र-निवारणाय, पाशुपातास्त्र-मृडास्त्र-सर्वशक्ति-परास्त-कराय, पर-विद्या-निवारण अग्नि-दीप्ताय, अथर्व-वेद-ऋग्वेद-साम-वेद-यजुर्वेद-सिद्धि-कराय, निराहाराय, वायु-वेग मनोवेग श्रीबाल-कृष्णः प्रतिषठानन्द-करः स्थल-जलाग्नि-गमे मतोद्-भेदि, सर्व-शत्रु छेदि-छेदि, मम बैरीन् खादयोत्खादय, सञ्जीवन-पर्वतोच्चाटय, डाकिनी-शाकिनी-विध्वंस-कराय महा-प्रतापाय निज-लीला-प्रदर्शकाय निष्कलंकृत-नन्द-कुमार-बटुक-ब्रह्मचारी-निकुञ्जस्थ-भक्त-स्नेह-कराय दुष्ट-जन-स्तम्भनाय सर्व-पाप-ग्रह-कुमार्ग-ग्रहान् छेदय छेदय, भिन्दि-भिन्दि, खादय, कण्टकान् ताडय ताडय मारय मारय, शोषय शोषय, ज्वालय-ज्वालय, संहारय-संहारय, (देवदत्तं) नाशय नाशय, अति-शोषय शोषय, मम सर्वत्र रक्ष रक्ष, महा-पुरुषाय सर्व-दुःख-विनाशनाय ग्रह-मण्डल-भूत-मण्डल-प्रेत-मण्डल-पिशाच-मण्डल उच्चाटन उच्चाटनाय अन्तर-भवादिक-ज्वर-माहेश्वर-ज्वर-वैष्णव-ज्वर-ब्रह्म-ज्वर-विषम-ज्वर-शीत-ज्वर-वात-ज्वर-कफ-ज्वर-एकाहिक-द्वाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थिक-अर्द्ध-मासिक मासिक षाण्मासिक सम्वत्सरादि-कर भ्रमि-भ्रमि, छेदय छेदय, भिन्दि भिन्दि, महाबल-पराक्रमाय महा-विपत्ति-निवारणाय भक्र-जन-कल्पना-कल्प-द्रुमाय-दुष्ट-जन-मनोरथ-स्तम्भनाय क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपी-जन-वल्लभाय नमः।।

पिशाचान् राक्षसान् चैव, हृदि-रोगांश्च दारुणान् भूचरान् खेचरान् सर्वे, डाकिनी शाकिनी तथा।।
नाटकं चेटकं चैव, छल-छिद्रं न दृश्यते। अकाले मरणं तस्य, शोक-दोषो न लभ्यते।।
सर्व-विघ्न-क्षयं यान्ति, रक्ष मे गोपिका-प्रियः। भयं दावाग्नि-चौराणां, विग्रहे राज-संकटे।।

।।फल-श्रुति।।

व्याल-व्याघ्र-महाशत्रु-वैरि-बन्धो न लभ्यते। आधि-व्याधि-हरश्चैव, ग्रह-पीडा-विनाशने।।
संग्राम-जयदस्तस्माद्, ध्याये देवं सुदर्शनम्। सप्तादश इमे श्लोका, यन्त्र-मध्ये च लिख्यते।।
वैष्णवानां इदं यन्त्रं, अन्येभ्श्च न दीयते। वंश-वृद्धिर्भवेत् तस्य, श्रोता च फलमाप्नुयात्।।

सुदर्शन-महा-मन्त्रो, लभते जय-मंगलम्।।

सर्व-दुःख-हरश्चेदं, अंग-शूल-अक्ष-शूल-उदर-शूल-गुद-शूल-कुक्षि-शूल-जानु-शूल-जंघ-शूल-हस्त-शूल-पाद-शूल-वायु-शूल-स्तन-शूल-सर्व-शूलान् निर्मूलय, दानव-दैत्य-कामिनि वेताल-ब्रह्म-राक्षस-कालाहल-अनन्त-वासुकी-तक्षक-कर्कोट-तक्षक-कालीय-स्थल-रोग-जल-रोग-नाग-पाश-काल-पाश-विषं निर्विषं कृष्ण! त्वामहं शरणागतः। वैष्णवार्थं कृतं यत्र श्रीवल्लभ-निरुपितम्।।
ओं रां रामाय नम:
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श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता 
हमारी ईमेल है।--shriramjyotishsadan16@Gmail. com
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।
देवकार्य सिध्यर्थं सभस्तंभं समुद् भवम।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।1।।
लक्ष्म्यालिन्गितं वामांगं, भक्ताम्ना वरदायकं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।2।।
अन्त्रांलादरं शंखं, गदाचक्रयुध धरम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।3।।
स्मरणात् सर्व पापघ्नं वरदं मनोवाञ्छितं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।4।।
सिहंनादेनाहतं, दारिद्र्यं बंद मोचनं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।5।।
प्रल्हाद वरदं श्रीशं, धनः कोषः परिपुर्तये।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।6।।
क्रूरग्रह पीडा नाशं, कुरुते मंगलं शुभम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।7।।
वेदवेदांगं यद्न्येशं, रुद्र ब्रम्हादि वंदितम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।8।।
व्याधी दुखं परिहारं, समूल शत्रु निखं दनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।9।।
विद्या विजय दायकं, पुत्र पोत्रादि वर्धनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।10।।
भुक्ति मुक्ति प्रदायकं, सर्व सिद्धिकर नृणां।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।11।।
उर्ग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तम् सर्वतोमुखं।
नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्य मृत्युं नमाम्यहम।।
य: पठेत् इंद् नित्यं संकट मुक्तये।
अरुणि विजयी नित्यं, धनं शीघ्रं माप्नुयात्।।
।।श्री शंकराचार्य विरचित सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र संपूर्णं।।
ओं रां रामाय नम:
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||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||


||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||
नृसिंहकवचं वक्ष्ये प्रह्लादेनोदितं पुरा |
सर्वरक्षकरं पुण्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ||१||
सर्व सम्पत्करं चैव स्वर्गमोक्षप्रदायकम् |
ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितम् ||२||
विवृतास्यं त्रिनयनं शरदिन्दुसमप्रभम् |
लक्ष्म्यालिङ्गितवामाङ्गम् विभूतिभिरुपाश्रितम् ||३||
चतुर्भुजं कोमलाङ्गं स्वर्णकुण्डलशोभितम् |
सरोजशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमुद्रितम् ||४||
तप्त काञ्चनसंकाशं पीतनिर्मलवाससम् |
इन्द्रादिसुरमौलिष्ठः स्फुरन्माणिक्यदीप्तिभिः ||५||
विरजितपदद्वन्द्वम् च शङ्खचक्रादिहेतिभिः |
गरुत्मत्मा च विनयात् स्तूयमानम् मुदान्वितम् ||६||
स्व हृत्कमलसंवासं कृत्वा तु कवचं पठेत् |
नृसिंहो मे शिरः पातु लोकरक्षार्थसम्भवः ||७||
सर्वगेऽपि स्तम्भवासः फलं मे रक्षतु ध्वनिम् |
नृसिंहो मे दृशौ पातु सोमसूर्याग्निलोचनः ||८||
स्मृतं मे पातु नृहरिः मुनिवार्यस्तुतिप्रियः |
नासं मे सिंहनाशस्तु मुखं लक्ष्मीमुखप्रियः ||९||
सर्व विद्याधिपः पातु नृसिंहो रसनं मम |
वक्त्रं पात्विन्दुवदनं सदा प्रह्लादवन्दितः ||१०||
नृसिंहः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ भूभृदनन्तकृत् |
दिव्यास्त्रशोभितभुजः नृसिंहः पातु मे भुजौ ||११||
करौ मे देववरदो नृसिंहः पातु सर्वतः |
हृदयं योगि साध्यश्च निवासं पातु मे हरिः ||१२||
मध्यं पातु हिरण्याक्ष वक्षःकुक्षिविदारणः |
नाभिं मे पातु नृहरिः स्वनाभिब्रह्मसंस्तुतः ||१३||
ब्रह्माण्ड कोटयः कट्यां यस्यासौ पातु मे कटिम् |
गुह्यं मे पातु गुह्यानां मन्त्राणां गुह्यरूपदृक् ||१४||
ऊरू मनोभवः पातु जानुनी नररूपदृक् |
जङ्घे पातु धराभर हर्ता योऽसौ नृकेशरी ||१५||
सुर राज्यप्रदः पातु पादौ मे नृहरीश्वरः |
सहस्रशीर्षापुरुषः पातु मे सर्वशस्तनुम् ||१६||
महोग्रः पूर्वतः पातु महावीराग्रजोऽग्नितः |
महाविष्णुर्दक्षिणे तु महाज्वलस्तु नैरृतः ||१७||
पश्चिमे पातु सर्वेशो दिशि मे सर्वतोमुखः |
नृसिंहः पातु वायव्यां सौम्यां भूषणविग्रहः ||१८||
ईशान्यां पातु भद्रो मे सर्वमङ्गलदायकः |
संसारभयतः पातु मृत्योर्मृत्युर्नृकेशई ||१९||
इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखमण्डितम् |
भक्तिमान् यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ||२०||
पुत्रवान् धनवान् लोके दीर्घायुरुपजायते |
कामयते यं यं कामं तं तं प्राप्नोत्यसंशयम् ||२१||
सर्वत्र जयमाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् |
भूम्यन्तरीक्षदिव्यानां ग्रहाणां विनिवारणम् ||२२||
वृश्चिकोरगसम्भूत विषापहरणं परम् |
ब्रह्मराक्षसयक्षाणां दूरोत्सारणकारणम् ||२३||
भुजेवा तलपात्रे वा कवचं लिखितं शुभम् |
करमूले धृतं येन सिध्येयुः कर्मसिद्धयः ||२४||
देवासुर मनुष्येषु स्वं स्वमेव जयं लभेत् |
एकसन्ध्यं त्रिसन्ध्यं वा यः पठेन्नियतो नरः ||२५||
सर्व मङ्गलमाङ्गल्यं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति |
द्वात्रिंशतिसहस्राणि पठेत् शुद्धात्मनां नृणाम् ||२६||
कवचस्यास्य मन्त्रस्य मन्त्रसिद्धिः प्रजायते |
अनेन मन्त्रराजेन कृत्वा भस्माभिर्मन्त्रानाम् ||२७||
तिलकं विन्यसेद्यस्तु तस्य ग्रहभयं हरेत् |
त्रिवारं जपमानस्तु दत्तं वार्याभिमन्त्र्य च ||२८||
प्रसयेद् यो नरो मन्त्रं नृसिंहध्यानमाचरेत् |
तस्य रोगः प्रणश्यन्ति ये च स्युः कुक्षिसम्भवाः ||२९||
गर्जन्तं गार्जयन्तं निजभुजपतलं स्फोटयन्तं हतन्तं
रूप्यन्तं तापयन्तं दिवि भुवि दितिजं क्षेपयन्तं क्षिपन्तम् |
क्रन्दन्तं रोषयन्तं दिशि दिशि सततं संहरन्तं भरन्तं
वीक्षन्तं पूर्णयन्तं करनिकरशतैर्दिव्यसिंहं नमामि ||३०||
||इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे प्रह्लादोक्तं श्रीनृसिंहकवचं सम्पूर्णम् ||
ओं रां रामाय नम:
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मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
ओं रां रामाय नम:
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||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||

||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||
नृसिंहकवचं वक्ष्ये प्रह्लादेनोदितं पुरा |
सर्वरक्षकरं पुण्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ||१||
सर्व सम्पत्करं चैव स्वर्गमोक्षप्रदायकम् |
ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितम् ||२||
विवृतास्यं त्रिनयनं शरदिन्दुसमप्रभम् |
लक्ष्म्यालिङ्गितवामाङ्गम् विभूतिभिरुपाश्रितम् ||३||
चतुर्भुजं कोमलाङ्गं स्वर्णकुण्डलशोभितम् |
सरोजशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमुद्रितम् ||४||
तप्त काञ्चनसंकाशं पीतनिर्मलवाससम् |
इन्द्रादिसुरमौलिष्ठः स्फुरन्माणिक्यदीप्तिभिः ||५||
विरजितपदद्वन्द्वम् च शङ्खचक्रादिहेतिभिः |
गरुत्मत्मा च विनयात् स्तूयमानम् मुदान्वितम् ||६||
स्व हृत्कमलसंवासं कृत्वा तु कवचं पठेत् |
नृसिंहो मे शिरः पातु लोकरक्षार्थसम्भवः ||७||
सर्वगेऽपि स्तम्भवासः फलं मे रक्षतु ध्वनिम् |
नृसिंहो मे दृशौ पातु सोमसूर्याग्निलोचनः ||८||
स्मृतं मे पातु नृहरिः मुनिवार्यस्तुतिप्रियः |
नासं मे सिंहनाशस्तु मुखं लक्ष्मीमुखप्रियः ||९||
सर्व विद्याधिपः पातु नृसिंहो रसनं मम |
वक्त्रं पात्विन्दुवदनं सदा प्रह्लादवन्दितः ||१०||
नृसिंहः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ भूभृदनन्तकृत् |
दिव्यास्त्रशोभितभुजः नृसिंहः पातु मे भुजौ ||११||
करौ मे देववरदो नृसिंहः पातु सर्वतः |
हृदयं योगि साध्यश्च निवासं पातु मे हरिः ||१२||
मध्यं पातु हिरण्याक्ष वक्षःकुक्षिविदारणः |
नाभिं मे पातु नृहरिः स्वनाभिब्रह्मसंस्तुतः ||१३||
ब्रह्माण्ड कोटयः कट्यां यस्यासौ पातु मे कटिम् |
गुह्यं मे पातु गुह्यानां मन्त्राणां गुह्यरूपदृक् ||१४||
ऊरू मनोभवः पातु जानुनी नररूपदृक् |
जङ्घे पातु धराभर हर्ता योऽसौ नृकेशरी ||१५||
सुर राज्यप्रदः पातु पादौ मे नृहरीश्वरः |
सहस्रशीर्षापुरुषः पातु मे सर्वशस्तनुम् ||१६||
महोग्रः पूर्वतः पातु महावीराग्रजोऽग्नितः |
महाविष्णुर्दक्षिणे तु महाज्वलस्तु नैरृतः ||१७||
पश्चिमे पातु सर्वेशो दिशि मे सर्वतोमुखः |
नृसिंहः पातु वायव्यां सौम्यां भूषणविग्रहः ||१८||
ईशान्यां पातु भद्रो मे सर्वमङ्गलदायकः |
संसारभयतः पातु मृत्योर्मृत्युर्नृकेशई ||१९||
इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखमण्डितम् |
भक्तिमान् यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ||२०||
पुत्रवान् धनवान् लोके दीर्घायुरुपजायते |
कामयते यं यं कामं तं तं प्राप्नोत्यसंशयम् ||२१||
सर्वत्र जयमाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् |
भूम्यन्तरीक्षदिव्यानां ग्रहाणां विनिवारणम् ||२२||
वृश्चिकोरगसम्भूत विषापहरणं परम् |
ब्रह्मराक्षसयक्षाणां दूरोत्सारणकारणम् ||२३||
भुजेवा तलपात्रे वा कवचं लिखितं शुभम् |
करमूले धृतं येन सिध्येयुः कर्मसिद्धयः ||२४||
देवासुर मनुष्येषु स्वं स्वमेव जयं लभेत् |
एकसन्ध्यं त्रिसन्ध्यं वा यः पठेन्नियतो नरः ||२५||
सर्व मङ्गलमाङ्गल्यं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति |
द्वात्रिंशतिसहस्राणि पठेत् शुद्धात्मनां नृणाम् ||२६||
कवचस्यास्य मन्त्रस्य मन्त्रसिद्धिः प्रजायते |
अनेन मन्त्रराजेन कृत्वा भस्माभिर्मन्त्रानाम् ||२७||
तिलकं विन्यसेद्यस्तु तस्य ग्रहभयं हरेत् |
त्रिवारं जपमानस्तु दत्तं वार्याभिमन्त्र्य च ||२८||
प्रसयेद् यो नरो मन्त्रं नृसिंहध्यानमाचरेत् |
तस्य रोगः प्रणश्यन्ति ये च स्युः कुक्षिसम्भवाः ||२९||
गर्जन्तं गार्जयन्तं निजभुजपतलं स्फोटयन्तं हतन्तं
रूप्यन्तं तापयन्तं दिवि भुवि दितिजं क्षेपयन्तं क्षिपन्तम् |
क्रन्दन्तं रोषयन्तं दिशि दिशि सततं संहरन्तं भरन्तं
वीक्षन्तं पूर्णयन्तं करनिकरशतैर्दिव्यसिंहं नमामि ||३०||
||इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे प्रह्लादोक्तं श्रीनृसिंहकवचं सम्पूर्णम् ||

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।
देवकार्य सिध्यर्थं सभस्तंभं समुद् भवम।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।1।।
लक्ष्म्यालिन्गितं वामांगं, भक्ताम्ना वरदायकं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।2।।
अन्त्रांलादरं शंखं, गदाचक्रयुध धरम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।3।।
स्मरणात् सर्व पापघ्नं वरदं मनोवाञ्छितं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।4।।
सिहंनादेनाहतं, दारिद्र्यं बंद मोचनं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।5।।
प्रल्हाद वरदं श्रीशं, धनः कोषः परिपुर्तये।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।6।।
क्रूरग्रह पीडा नाशं, कुरुते मंगलं शुभम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।7।।
वेदवेदांगं यद्न्येशं, रुद्र ब्रम्हादि वंदितम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।8।।
व्याधी दुखं परिहारं, समूल शत्रु निखं दनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।9।।
विद्या विजय दायकं, पुत्र पोत्रादि वर्धनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।10।।
भुक्ति मुक्ति प्रदायकं, सर्व सिद्धिकर नृणां।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।11।।
उर्ग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तम् सर्वतोमुखं।
नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्य मृत्युं नमाम्यहम।।
य: पठेत् इंद् नित्यं संकट मुक्तये।
अरुणि विजयी नित्यं, धनं शीघ्रं माप्नुयात्।।
।।श्री शंकराचार्य विरचित सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र संपूर्णं।।

ये आठ सिद्ध मंत्र क्रमबद्ध दिये है l

ये आठ  सिद्ध मंत्र क्रमबद्ध दिये है l जिन लोगो का कार्य नही चलता नित्य परेशानी का सामना करना पडता हो व्यापार मे रूकावट आ गई हो शत्रुओं से सदा आशंका बनी रहती हो क्या  पता कब कौन शत्रु हमारा बूरा कर दे। इन तमाम परेशानीओं  से मुक्ति दिलाने मे ये मंत्र परम लाभकारी है।
जो व्यक्ति इन मंत्रों का २१-२१ बार जाप नियमित श्रद्धा पूर्वक करेगा । उसकी समस्त परेशानिया कुछ दिनों मे दुर हो जायेगी। मंत्र का जाप नहा धोकर सुबह एकांत कक्ष मे करना है।
मन्त्र:---.
 १:- ॐ पर मंत्र पर यंत्र बन्धय बन्धय मां रक्ष रक्ष हूं हूं हूं स्वाहा ।
                          
२:- ॐ ठं ठः परकृतान बन्धय बन्धय छेदय छेदय स्वाहा ।
                                        
३:-ॐ क्रौं ह्रौं वैरिकृत विकृतं नाशय नाशय उलटवेधं कुरू कुरू स्वाहा ।

४:- ॐ परकृतभिचारं घातक घातक ठः ठः स्वाहा हूं।

५:- ॐ नमो ह्रों पर विधा छिन्दि छिन्दि स्वाहा ।
                 
६:-ॐ शत्रु कृतान मंत्र यंत्र तंत्रान नाशय नाशय उद् बन्धन उद् बन्धन स्वाहा।

७:- ॐ नमः परमात्मने सर्वात्मने सर्वतो मां रक्ष रक्ष स्वाहा।

८:- ॐ ॐ ॐहुं हुं हुं अरिणा यत्कृतं कर्म तत्तस्यैव भवतु इति रूदाज्ञांपयति स्वाहा फट् ।

अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है ।

अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है । पूजन करनेसे देवीका यह रूप पृथ्वीतत्त्वके आधारसे भूगर्भसे प्रकट होकर, पृथ्वीके जीवोंके लिए कार्य करता है
दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन " दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं-
शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं।
अपराजितादेवीका पूजन
पूजास्थलपर अष्टदलकी आकृति बनाते हैं ।
इस अष्टदलका मध्यबिंदु `भूगर्भबिंदु' अर्थात देवीके `अपराजिता' रूपकी उत्पत्तिबिंदु का प्रतीक है, तथा अष्टदलके आठबिंदु, अष्टपाल देवताओंका प्रतीक है ।
इस अष्टदलके मध्यबिंदुपर `अपराजिता' देवीकी मूर्तिकी स्थापना कर उसका पूजन करते हैं ।
'अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है । पूजन करनेसे देवीका यह रूप पृथ्वीतत्त्वके आधारसे भूगर्भसे प्रकट होकर, पृथ्वीके जीवोंके लिए कार्य करता है । अष्टदलपर आरूढ हुआ यह त्रिशूलधारी रूप शिवके संयोगसे, दिक्पाल एवं ग्रामदेवताकी सहायतासे आसुरी शक्तियोंका नाश करता है ।
पूजनके उपरांत इस मंत्रका उच्चारण कर शत्रुनाश एवं सबके कल्याणके लिए प्रार्थना करते हैं ।
हारेण तु विचित्रेण भास्वत्कनकमेखला ।
अपराजिता भद्ररता करोतु विजयं मम ।।
इसका अर्थ है, गलेमें विचित्र हार एवं कमरपर जगमगाती स्वर्ण करधनी अर्थात मेखला धारण करनेवाली, भक्तोंके कल्याणके लिए सदैव तत्पर रहनेवाली, हे अपराजितादेवी ! मुझे विजयी कीजिए । कुछ स्थानोंपर अपराजितादेवीका पूजन सीमोल्लंघनके लिए जानेसे पूर्व भी करते हैं । शमीपत्र तेजका उत्तम संवर्धक है । इसलिए शमी वृक्षके निकट अपराजितादेवीका पूजन करनेसे शमीपत्रमें पूजनद्वारा प्रकट हुई शक्ति संजोई रहती है । शक्तितत्त्वसे शमीपत्रको घरमें रखनेसे इन तरंगोंका लाभ वर्षभर प्राप्त करना जीवोंके लिए संभव होता है । कुछ स्थानोंपर नवरात्रीकालमें रामलिलाका आयोजन किया जाता है । जिसमें प्रभु रामजीके जीवनपर आधारीत लोकनाट्य प्रस्तुत किया जाता है । दशहरेकी दिन तथा लोकनाट्यके अंतमें रावण एवं कंुभकर्णकी पटाखोंसे बनी बडी बडी प्रतिमाओंका दहन किया जाता है ।
दशहरेके दिन एकदूसरेको अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें क्यो देते है तथा शस्त्रपूजन के परिणाम
अपराजिता' शक्तितत्त्वकी उत्पत्ति पृथ्वीके भूगर्भबिंदु से होती है ।
अपराजिता देवीसे प्रार्थना कर देवीका आवाहन करनेपर भक्तकी प्रार्थनानुसार अष्टदलके मध्यमें स्थित भूगर्भबिंदुमें देवीतत्त्व कार्यरत होता है ।
उस समय उनके स्वागतके लिए अष्टपाल देवताओंका भी उस स्थानपर आगमन होता है । अपराजिताकी उत्पत्तिसे मारक तरंगें प्रक्षेपित होती हैं ।
अष्टपालों द्वारा अष्टदलकी आठबिंदुओंसे लालिमायुक्त प्रकाश-तरंगोंके माध्यमसे ये मारक तरंगें अष्टदिशाओंमें प्रक्षेपित होती हैं ।
सर्व आठों बिंदुओंसे शक्तिकी मारक तरंगोंका प्रक्षेपण होता है । ये तरंगें विशिष्ट कोनोंमें एकत्रित होकर, रज-तमात्मक शक्तिका नाश करती हैं । पृथ्वीपर सर्व जीव निर्विघ्न रूपसे जीवन जी सकें, इस हेतु वायुमंडलकी शुद्धि भी करती हैं । पूजनके उपरांत शमी अथवा अश्मंतक वृक्षोंके मूलके समीप की कुछ मिट्टी एवं उन वृक्षोंके पत्ते घर लाते हैं ।
दशहरेके दिन एक दूसरे को अश्मंतक के पत्ते सोनेके रूपमें देनेका कारण
विजयादशमीके दिन अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें देवताको अर्पित करते हैं । आपसी प्रेमभाव निर्माण करनेके लिए अश्मंतकके पत्ते शुभचिंतकोंको सोनेके रूपमें देकर उनके कल्याणकी प्रार्थना करते हैं । तदुपरांत ज्येष्ठोंको नमस्कार कर उनके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । अश्मंतकके पत्तोंमें ईश्वरीय तत्त्व आकृष्ट करनेकी क्षमता अधिक होती है । इन पत्तोंमें १० प्रतिशत रामतत्त्व एवं शिवतत्त्व भी विद्यमान होता है । ये पत्ते देनेसे पत्तोंद्वारा व्यक्तिको शिवकी शक्ति भी प्राप्त होती है । ये पत्ते व्यक्तिमें तेजतत्त्वकी सहायतासे क्षात्रवृत्तिका भी संवर्धन करते हैं।

शिव-सिद्ध कवच-स्तोत्र

शिव-कवच-स्तोत्र
जो इस ‘शिव-कवच’ को धारण करता है, वह देवताओं के भी द्वारा पूजित होता है । वह महान् पापों और क्षुद्र पापों के समूहों से छुटकारा पा जाता है तथा देहान्त होने पर ‘शिव-कवच’ के प्रभाव से मोक्ष को प्राप्त करता है ।

विनियोगः- 
ॐ अस्य श्रीशिव-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्टप् छन्दः। श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवता। ह्रीं शक्तिः।
 रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः- 
श्री ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टप् छन्दभ्यो नमः मुखे । श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवतायै नमः हृदि । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । रं कीलकाय नमः पादयो । श्रीं ह्री क्लीं बीजाय नमः गुह्ये । श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

कर-न्यासः – 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

अङ्ग-न्यासः – 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः । 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने कवचाय हुं ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने नेत्र-त्रयाय वौषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट् ।
                                          
॥ अथ ध्यानम् ॥
वज्र-दंष्ट्रं त्रि-नयनं काल-कण्ठमरिन्दमम् ।
 सहस्र-करमत्युग्रं वंदे शंभुमुमा-पतिम् ॥
                                                
।। मूल-पाठ ।। 
मां पातु देवोऽखिल-देवतात्मा, 
संसार-कूपे पतितं गंभीरे ।
तन्नाम-दिव्यं वर-मंत्र-मूलं, 
धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ १ ॥

सर्वत्र मां रक्षतु 
विश्‍व-मूर्तिर्ज्योतिर्मयानन्द-घनश्‍चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरु-शक्‍तिरेकः, 
स ईश्‍वरः पातु भयादशेषात् ॥ २ ॥

यो भू-स्वरूपेण बिभात विश्‍वं, 
पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्ट-मूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति, 
सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ ३ ॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा, 
सर्वाणि यो नृत्यति भूरि-लीलः ।
स काल-रुद्रोऽवतु मां 
दवाग्नेर्वात्यादि-भीतेरखिलाच्च तापात् ॥ ४ ॥

प्रदीप्त-विद्युत् कनकावभासो, 
विद्या-वराभीति-कुठार-पाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः, 
प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥ ५ ॥

कुठार-खेटांकुश-पाश-शूल-
कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः, 
पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ ६ ॥

कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिकावभासो, 
वेदाक्ष-माला वरदाभयांङ्कः ।
त्र्यक्षश्‍चतुर्वक्त्र उरु-प्रभावः, 
सद्योऽधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ ७ ॥

वराक्ष-माला-भय-टङ्क-हस्तः, 
सरोज-किञ्जल्क-समान-वर्णः ।
त्रिलोचनश्‍चारु-चतुर्मुखो मां, 
पायादुदीच्या दिशि वाम-देवः ॥ ८ ॥

वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टङ्क-
कपाल-ढक्काक्षक-शूल-पाणिः ।
सित-द्युतिः पञ्चमुखोऽवताम् 
मामीशान-ऊर्ध्वं परम-प्रकाशः ॥ ९ ॥

मूर्धानमव्यान् मम चंद्र-मौलिर्भालं 
ममाव्यादथ भाल-नेत्रः ।
नेत्रे ममाव्याद् भग-नेत्र-हारी, 
नासां सदा रक्षतु विश्‍व-नाथः ॥ १० ॥

पायाच्छ्रुती मे श्रुति-गीत-कीर्तिः, 
कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो, 
जिह्वां सदा रक्षतु वेद-जिह्वः ॥ ११ ॥

कण्ठं गिरीशोऽवतु नील-कण्ठः, 
पाणि-द्वयं पातु पिनाक-पाणिः ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्म-बाहुर्वक्ष-स्थलं 
दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥ १२ ॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्र-धन्वा, 
मध्यं ममाव्यान्मदनान्त-कारी ।
हेरम्ब-तातो मम पातु नाभिं, 
पायात् कटिं धूर्जटिरीश्‍वरो मे ॥ १३ ॥

ऊरु-द्वयं पातु कुबेर-मित्रो, 
जानु-द्वयं मे जगदीश्‍वरोऽव्यात् ।
जङ्घा-युगं पुङ्गव-केतुरव्यात्, 
पादौ ममाव्यात् सुर-वन्द्य-पादः ॥ १४ ॥

महेश्‍वरः पातु दिनादि-यामे, 
मां मध्य-यामेऽवतु वाम-देवः ।
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे, 
वृष-ध्वजः पातु दिनांत्य-यामे ॥ १५ ॥

पायान्निशादौ शशि-शेखरो मां, 
गङ्गा-धरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी-पतिः पातु निशावसाने, 
मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्व-कालम् ॥ १६ ॥

अन्तः-स्थितं रक्षतु शङ्करो मां, 
स्थाणुः सदा पातु बहिः-स्थित माम् ।
तदन्तरे पातु पतिः पशूनां, 
सदा-शिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥ १७ ॥

तिष्ठन्तमव्याद् ‍भुवनैकनाथः, 
पायाद्‍ व्रजन्तं प्रथमाधि-नाथः ।
वेदान्त-वेद्योऽवतु मां निषण्णं, 
मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ १८ ॥

मार्गेषु मां रक्षतु नील-कंठः, 
शैलादि-दुर्गेषु पुर-त्रयारिः ।
अरण्य-वासादि-महा-प्रवासे, 
पायान्मृग-व्याध उदार-शक्तिः ॥ १९ ॥

कल्पान्तकाटोप-पटु-प्रकोप-
स्फुटाट्ट-हासोच्चलिताण्ड-कोशः ।
घोरारि-सेनार्णव-दुर्निवार-महा-
भयाद् रक्षतु वीर-भद्रः ॥ २० ॥

पत्त्यश्‍व-मातङ्ग-रथावरूथ-सहस्र-
लक्षायुत-कोटि-भीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनाश्छिन्द्यान्मृडो 
घोर-कुठार-धारया ॥ २१ ॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानिलार्च्चिर्ज्ज्वलन् 
त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् 
सन्त्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥ २२ ॥

दुःस्वप्न-दुःशकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-
दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुःसह-दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विष-भीतिमसद्‍-
गुहार्ति-व्याधींश्‍च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ २३ ॥

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय सकल-तत्त्वात्मकाय 
सर्व-मन्त्र-स्वरूपाय सर्व-यंत्राधिष्ठिताय सर्व-तंत्र-स्वरूपाय सर्व-तत्त्व-विदूराय ब्रह्म-रुद्रावतारिणे नील-कण्ठाय 
पार्वती-मनोहर-प्रियाय सोम-सूर्याग्नि-लोचनाय 
भस्मोद्‍-धूलित-विग्रहाय महा-मणि-मुकुट-धारणाय माणिक्य-भूषणाय सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल-रौद्रावताराय दक्षाध्वर-ध्वंसकाय महा-काल-भेदनाय मूलाधारैक-निलयाय तत्त्वातीताय गंगा-धराय सर्व-देवाधि-देवाय षडाश्रयाय वेदान्त-साराय ।

त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायकायानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्‍ख-कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-महा-नाग-कुल-भूषणाय प्रणव-स्वरूपाय चिदाकाशाय आकाश-दिक्स्वरूपाय ग्रह-नक्षत्र-मालिने सकलाय कलङ्क-रहिताय सकल-लोकैक-कर्त्रे सकल-लोकैक-भर्त्रे सकल-लोकैक-संहर्त्रे सकल-लोकैक-गुरवे सकल-लोकैक-साक्षिणे सकल-लोकैक-वर-प्रदाय सकल-लोकैक-शङ्कराय शशाङ्क-शेखराय शाश्‍वत-निजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्‍चिन्ताय निरहङ्काराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय निरातङ्काय निष्प्रपंचाय निःसङ्गाय निर्द्वन्द्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियाय निस्तुलाय निःसंशाय निरञ्जनाय निरुपम-विभवाय नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय परम-शान्त-स्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय ।

जय जय रुद्र महा-रौद्र महावतार महा-भैरव काल-भैरव कपाल-माला-धर खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्यायुध भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-विस्फारित ब्रह्माण्ड-मंडल नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्र-वलय नागेन्द्र-चर्म-धर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्‍व-रूप विरूपाक्ष विश्‍वेश्वर वृषभ-वाहन विश्वतोमुख !
सर्वतो रक्ष, रक्ष । मा ज्वल ज्वल । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय- ! चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय । विष-सर्प-भयं शमय शमय । चोरान् मारय मारय । 
मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय । त्रिशूलेन विदारय विदारय । कुठारेण भिन्धि भिन्धि । खड्‌गेन छिन्धि छिन्धि । खट्‍वांगेन विपोथय विपोथय । मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय । वाणैः सन्ताडय सन्ताडय । रक्षांसि भीषय भीषय । अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय । कूष्माण्ड-वेताल-मारी-गण-ब्रह्म-राक्षस-गणान्‌ संत्रासय संत्रासय । ममाभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्‍वासयाश्‍वासय । नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृड्‌भ्यां मामाप्याययाप्याय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।
 
 ।।इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तर-खण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।। 

ऋषभ ऋषि कहतें हैं  – मैंने यह वर-दायक शिव का जो कवच कहा है, समस्त प्राणियों की सब बाधाओं को शान्त करने वाला है और रहस्यों से भरा है । जो मनुष्य इस उत्तम ‘शिव-कवच’ को सदा धारण करता है, उसे भगवान् शम्भु के अनुग्रह से कोई भी भय नहीं होता । चाहे कम आयुवाला हो, चाहे मृत्यु सन्निकट हो अथवा चाहे महान् रोग से पीड़ित हो, इस कवच के प्रताप से वह तुरन्त सुख को प्राप्त करता है और दीर्घ आयु वाला होता है । सभी प्रकार की दरिद्रताओं को यह शान्त करता है और सब प्रकार से कल्याण करता है । "जो इस ‘शिव-कवच’ को धारण करता है, वह देवताओं के भी द्वारा पूजित होता है । वह महान् पापों और क्षुद्र पापों के समूहों से छुटकारा पा जाता है तथा देहान्त होने पर ‘शिव-कवच’ के प्रभाव से मोक्ष को प्राप्त करता है ।" हे वत्स ! तुम भी श्रद्धा के साथ मेरे द्वारा दिए गए इस उत्तम ‘शिव-कवच’ को धारण करो । इससे शीघ्र ही निश्चय-पूर्वक तुम्हारा कल्याण होगा ।।संकलित।।
ॐ रां रामाय नमः
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श्री रामदुर्ग सिद्ध स्तोत्रम्

श्री रामदुर्ग स्तोत्रम् 
ॐ अस्य श्रीरामदुर्गस्तोत्रमन्त्रस्य कौशिकऋषिरनुष्टुप्छन्दः
श्रीरामो देवता रां बीजं नमः शक्ति ।
रामाय कीलकम् श्रीरामप्रसादसिद्धिद्वारा मम सर्वतो
रक्षापूर्वकनानाप्रयोगसिध्यर्थे श्रीरामदुर्गमन्त्रस्य पाठे विनियोगः ।
ॐ ऐं क्लीं ह्रीं रीं चों ह्रीं रीं चों ह्रीं श्रीं आं क्रौं
ॐ नमोभगवते रामाय मम सर्वाभीष्टं साधय साधय फट् स्वाहा ॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ रामाय नमः ॥
ॐ नमो भगवते रामाय मम प्राच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल निर्धनं
सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ॐ लं लक्ष्मणाय नमः ॥
ॐ नमो भगवते लक्ष्मणाय मम याम्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ २॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ भं भरताय नमः ।
ॐ नमो भगवते भरताय मम प्रतीच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ३॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ शं शत्रुघ्नाय नमः ।
ॐ नमो भगवते शत्रुघ्नाय मम उदीच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ४॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ जानक्यै नमः ।
ॐ नमो भगवते मे ऐशान्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ५॥

ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ सुं सुग्रीवाय नमः ।
ॐ नमो भगवते सुग्रीवाय ममाग्नेय्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ६॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ विं विभीषणाय नमः ।
ॐ नमो भगवते विभीषणाय मम नैरृत्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ७॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ वं वायुसुताय नमः ।
ॐ नमो भगवते वायुसुताय मम वायव्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ८॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ मं महावीरविष्णवे नमः ।
ॐ नमो भगवते महाविष्णवे मम ऊर्ध्वं ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ९॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ नृं नृसिंहाय नमः ।
ॐ नमो भगवते नृसिंहाय मम मध्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १०॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ वं वामनाय नमः ।
ॐ नमो भगवते वामनाय मम अधो ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ११॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ॐ कं केशवाय नमः ।
ॐ नमोभगवते केशवाय मम सर्वतः ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १२॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ मं मर्कटनायकाय नमः ।
ॐ नमो भगवते मर्कटनायकाय मम सर्वदा ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १३॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ कं कपिनाथाय कपिपुङ्गवाय नमः ।
ॐ नमो भगवते कपिपुङ्गवाय मम चतुर्द्वारं सदा ज्वल ज्वल
प्रज्वल प्रज्वल निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १४॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं रां रीं चों ह्रीं श्रीं आं क्रौं
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ नमो भगवते रामाय सर्वाभीष्टं साधय साधय
हूं फट् स्वाहा ॥ १५॥

इति श्रीरामदुर्गस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

ॐ रां रामाय नमः
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व्यापार बंधन मुक्ति मंत्र।


व्यापार बंधन मुक्ति मंत्र।  
जल जोगनी जलयारी हनुमंत वीर नरसिंह वीर भेरव वीर बेताल वीर
अतताल जोगी पतताल सतताल
खोल पाताल सात सुर बाजे के खोल दस दरवाजे खोल 
खोल मेरे व्यापार पर लगा हुआ बंदिश का ताला
ना खोले तो
राजा रामचंद्र की दवाई
सीता माता की दुहाई
माता महाकाली  दुहाई
फुरो मंत्र ईश्वर वाचा
मेरे गुरु का वचन सांचा

जिस भाई का व्यापार तंत्र के माध्यम से बंधा हुआ हो।
वह भाई इस मंत्र को सात बार पढ़ कर पढ़कर
जल को सिद्ध करके अपनी दुकान में अंदर से बाहर की तरफ जल के छींटे मारे
इस प्रयोग को 7 दिन करने पर व्यापार का तांत्रिक बंधन
समाप्त हो जाता है
यह मंत्र स्वयं सिद्ध है
इस मंत्र को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती
इस मंत्र का प्रयोग साधारण मानव भी कर सकता है।
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व्यवसायिक समस्या निवारण के लिए प्रयोग

व्यवसायिक समस्या निवारण के लिए:-
यदि आपके कारोबार में अनावश्यक अवरोध हो, कारोबार चल नहीं रहा हो, कभी घी घणा तो कभी मुट्ठी चना की दशा बनी रहती हो तो ऐसी अवस्था में शनि अमावस्या के इस पावन अवसर पर इस उपाय को शुरू करके देखें, और लगातार 43 दिन तक करें। अवश्य ही लाभ होगा।
एक काला कपडा लें। उडद के आटे में गुड मिले सात लड्डू, 11 बताशे, 11 नींबू, 11 साबुत सूखी लाल मिर्च, 11 साबुत नमक की डली, 11 लौंग, 11 काली मिर्च, 11 लोहे की कील और 11 चुटकी सिंदूर इन सबको कपडे में बांधकर पोटली बना दें। पोटली के ऊपर काजल की 11 बिंदी लगा दें। तत्पश्चात अपने सामने रख दें। ओम् आरती भंजनाय नम: मंत्र की 108 बार जाप करें इसके साथ ही पांच माला ओम् प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:। तत्पश्चात यह सामग्री लेकर मुख्य दरवाजे के चौखट के बीचोबीच खडे हो जाएं। इस पोटली को अपने ऊपर से 11 बार उसार करके किसी मंदिर या चौराहे पर रखकर आ जाएं।
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...