About The Best Astrologer In Muzaffarnagar, India -Consultations by Astrologer Consultations by Astrologer - Pandit Ashu Bahuguna Skills : Vedic Astrology , Horoscope Analysis , Astrology Remedies , Prashna kundli IndiaMarriage Language: Hindi Experience : Exp: 35 Years Expertise: Astrology , Business AstrologyCareer Astrology ,Court/Legal Issues , Property Astrology, Health Astrology, Finance Astrology, Settlement , Education http://shriramjyotishsadan.in Mob +919760924411
बुधवार, 17 अप्रैल 2019
उच्छिष्ट गणपति प्रयोग प्रयोग करने में अत्यन्त सरल, शीघ्र फल को प्रदान करने वाला, अन्न और धन की वृद्धि के लिए, वशीकरण को प्रदान करने वाला भगवान गणेश जी का ये दिव्य तांत्रिक प्रयोग है I इसी सिद्धि के बल पर प्राचीन काल में साधु लोग थोड़े से प्रसाद से पूरे गांव को भरपेट भोजन करवा देते थे I इसकी साधना करते हुए मुह को जूठा रखा जाता है I विनियोग : ॐ अस्य श्रीउच्छिष्ट गणपति मंत्रस्य कंकोल ऋषि:, विराट छन्द : उच्छिष्टगणपति देवता सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: I मन्त्र : ॐ गं हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा I अगर किसी पर तामसी कृत्या प्रयोग हुआ हो तो उच्छिष्ट गणपति शत्रु की गन्दी क्रियाओं को नष्ट करके रक्षा करते हैं I यदि आप भी तन्त्र द्वारा परेशान हैं तो संस्था के तान्त्रिकों द्वारा यह तांत्रिक साधना सम्पन्न करवा सकते हैं I
यदि नजर लगी हो तो - यदि एक स्वस्थ्य व्यक्ति अचानक अस्वस्थ्य हो जायें और उस पर चिकित्सा का प्रभाव नहीं हो रहा है तो समझना चाहिए कि उक्त व्यक्ति नजरदोष से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में एक साबूत नींबू के उपर काली स्याही से 307 लिख दें और उस व्यक्ति के उपर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को चार भागों में इस प्रकार से काटें कि वह नीचें से जुड़े रहें। और फिर उसी नींबू को घर से बाहर किसी निर्जन स्थान पा फेंक दें। यह उपाय करने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र ही स्वस्थ्य हो जायेगा।यदि नजर लगी हो तो - इसके अलावा नज़र उतारने के लिए एक रोटी बनाएं और इसे एक तरफ से ही सेकें, दूसरी तरफ से कच्ची छोड़ दें। इसके सेके हुए भाग पर तेल या घी लगाकर और उस पर लाल मिर्च और नमक की दो- तीन डली रखकर नजर लगे व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतार कर किसी चौराहे पर रख आएं। यदि नजर लगी हो तो- जिन व्यक्तियों को नजर अधिक लगती है, इन्हें सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन अन्यथा मंगलवार और शनिवार को श्री हनुमान जी के मंदिर में जाकर उनके चरणों से थोड़ा सा सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए ऐसा करने से नजर दोष से बचाव हो जाता है. यदि नजर लगी हो तो - जब कभी किसी छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो, वह दूध उलटने लगता है और दूध पीना बन्द कर देता है, ऐसे में परिवार के लोग चिंतित और परेशान हो जाते है। ऐसी स्थिति में एक बेदाग नींबू लें और उसको बीच में आधा काट दें तथा कटे वाले भाग में थोड़े काले तिल के कुछ दाने दबा दें। और फिर उपर से काला धागा लपेट दें। अब उसी नींबू को बालक पर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को घर से दूर किसी निर्जन स्थान पर फेंक दें। इस उपाय से शीघ्र ही लाभ मिलेगा।यदि नजर लगी हो तो -एक साफ रुमाल पर हनुमानजी के पांव का सिंदूर लगाएं और इस रुमाल पर दस ग्राम काले तिल, दस ग्राम काले उड़द, एक लोहे की कील, तीन साबूत लाल मिर्च लेकर उसकी पोटली बना लें। जिस व्यक्ति को नजर लगी हो उसके सिरहाने यह पोटली रख दें। चौबीस घंटे के बाद यह पोटली किसी नदी या बहते हुए जल में बहा दें। ऐसा करने से जल्द ही बुरी नज़र से प्रभावित व्यक्ति ठीक हो जायेगा| यदि बच्चे को नजर लगी हो और वह दूध नहीं पी रहा हो तो थोड़ा दूध एक कटोरी में लेकर बच्चे के ऊपर से सात बार उतार कर काले कुत्ते को पिला दें। बच्चा दूध पीने लगेगा। यदि नजर लगी हो तो - नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर फिटकरी का टुकड़ा सिर से पांव तक सात बार उतारें। ध्यान रखें हर बार सिर से पांव तक ले जाकर तलुवे छुआकर फिर सिर से घुमाना शुरु करें। इस फिटकरी के टुकड़े को कण्डे की आग पर डाल दें। जैसे- जैसे वह फिटकरी आग में जलती जायेगी वैसे- वैसे बुरी नजर उतरती जायेगी| यदि नजर लगी हो तो - राई के कुछ दाने, नमक की सात डली और सात साबुत डंठल वाली लाल सूखी मिर्च बाएं हाथ की मुट्ठी में लेकर नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर सिर से पांव तक सात बार उतारा करें और जलते हुए चूल्हे में झोंक दें। यह टोटका अनटोका करें। ध्यान रहे यह कार्य सिर्फ मंगलवार और रविवार को ही करें क्योंकि इस दिन यह अचूक रहता है| यदि नजर लगी हो तो - मिर्च, राई व नमक को पीड़ित व्यक्ति के सिर से वार कर आग में जला दें। चंद्रमा जब राहु से पीड़ित होता है तब नजर लगती है। मिर्च मंगल का, राई शनि का और नमक राहु का प्रतीक है। इन तीनों को आग (मंगल का प्रतीक) में डालने से नजर दोष दूर हो जाता है। यदि इन तीनों को जलाने पर तीखी गंध न आए तो नजर दोष समझना चाहिए। यदि आए तो अन्य उपाय करने चाहिए। टोटका तीन-यदि आपके बच्चे को नजर लग गई है और हर वक्त परेशान व बीमार रहता है तो लाल साबुत मिर्च को बच्चे के ऊपर से तीन बार वार कर जलती आग में डालने से नजर उतर जाएगी और मिर्च का धचका भी नहीं लगेगा।
अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर किसी ने अभिचार कर दिया है, अथवा भूत, प्रेत आदि उपरी बाधा से पीड़ित है, तो अपने क्षेत्र के प्रसिद्द श्री हनुमान मंदिर में सिन्दूर का चोला चढाना चाहिए ऐसा पांच बार करें. सारी बाधाए एकदम समाप्त होने लगेंगी. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर अभिचार कर्म किये जाने की आशंका हो, तो शनिवार को दोपहर में किसी एकांत चौराहे पर नींबू काटकर उसके चार फांक कर ले और उसमे सिन्दूर डाल कर उसे चारों दिशाओं में फेंक दे. ऐसा करने से आपके शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जायगा. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- शनिवार के दिन एक जालदार जटा वाला नारियल ले और बहते जल में काले वस्त्र में लपेटकर 100 ग्राम काले तिल,जो,उरद की दाल एक कील के साथ शनिवार को प्रवाहित कर दें। शनि, राहु,केतु जनित या कोई और ऊपरी बाधा होगी तो उतर जाएगी। अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो-मंगलवार को एक नारियल सवा मीटर लाल वस्त्र में लपेटकर अपने ऊपर से साथ बार उतार कर हनुमान जी के चरणों में रख दें। किसी भी प्रकार की बाधा, नज़र दोष,ज्वर होगा उतर जाएगा।
क्या है पीपल के 11 पत्तों का राज शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के अनुसार माता सीता द्वारा पवनपुत्र हनुमानजी को अमरता का वरदान दिया गया है। इसी वरदान के प्रभाव से पवनपुत्र अष्टचिरंजीवी में शामिल हैं। कलयुग में हनुमानजी भक्तों की सभी मनोकामनाएं तुरंत ही पूर्ण करते हैं।यहां जानिए पीपल के 11 पत्तों का 1 चमत्कारी उपाय, जो हनुमानजी की प्रतिमा के सामने करना है। इस उपाय से आपकी सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और आप मालामाल हो सकते हैं… बजरंगबली को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के उपाय बताए गए हैं। श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमानजी की कृपा प्राप्त होते ही भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। पैसों से जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई रोग हो तो वह भी नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में कोई ग्रह दोष हो तो पवनपुत्र की पूजा से वह भी दूर हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति पैसों की तंगी का सामना करना रहा है तो उसे प्रति मंगलवार और शनिवार यह उपाय अपनाना चाहिए। निश्चित ही व्यक्ति की सभी समस्याएं धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं और व्यक्ति मालामाल हो सकता है। उपाय इस प्रकार है- सप्ताह के प्रति मंगलवार और शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में उठें। इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर किसी पीपल के पेड़ से 11 पत्ते तोड़ लें। ध्यान रखें पत्ते पूरे होने चाहिए, कहीं से टूटे या खंडित नहीं होने चाहिए। इन 11 पत्तों पर स्वच्छ जल में कुमकुम या अष्टगंध या चंदन मिलाकर श्रीराम का नाम लिखें। नाम लिखते समय हनुमान चालिसा का पाठ करें। इसके बाद श्रीराम नाम लिखे हुए इन पत्तों की एक माला बनाएं। पीपल के पत्तों की माला को किसी भी हनुमानजी के मंदिर जाकर वहां बजरंगबली को अर्पित करें। इस प्रकार यह उपाय हर मंगलवार और शनिवार को करते रहें। कुछ समय में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। ध्यान रखें उपाय करने वाला भक्त किसी भी प्रकार के अधार्मिक कार्य न करें। अन्यथा इस उपाय का प्रभाव समाप्त हो जाएगा और उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहें।
सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं| ‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है :- ॐ गं गणपतये नमः। सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः।। ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह रक्षा कुरू कुरू नमः।। ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि। ॐ नमो मणिभद्रे। जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दिर्घारिष्ट-विनाशाय नाना प्रकार भोग प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वरिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः। ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय। रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादष-क्षयान् रांगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भंजय-भंजय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन हन, दह दह, पच पच, मथ मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन हन, पा-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा।। ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं। ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः। हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः। डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः। ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः। सर्व प्रकार बाधा शमनमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू फट्। श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा।। शीघ्रमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा।। शारिका भेदा महामाया पूर्णं आयुः कुरू। हेमवती मूलं रक्षा कुरू। चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु कफ पित्त रक्षां कुरू। मन्त्र तन्त्र यन्त्र कवच ग्रह पीडा नडतर, पूर्व जन्म दोष नडतर, यस्य जन्म दोष नडतर, मातृदोष नडतर, पितृ दोष नडतर, मारण मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तम्भन उन्मूलनं भूत प्रेत पिशाच जात जादू टोना शमनं कुरू। सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका देव्यै गल विस्फोटकायै विक्षिप्त शमनं महान् ज्वर क्षयं कुरू स्वाहा।। सर्व सामग्री भोगं सप्त दिवसं देहि देहि, रक्षां कुरू क्षण क्षण अरिष्ट निवारणं, दिवस प्रति दिवस दुःख हरणं मंगल करणं कार्य सिद्धिं कुरू कुरू। हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः। हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र तारा नव ग्रह शेषनाग पृथ्वी देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट निवारणं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु भगवान् मम अपराध क्षमा कुरू कुरू, सर्व विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा देवी रूद्राणी सहिता, रूद्र देवता काल भैरव सह, बटुक भैरवाय, हनुमान सह मकर ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व दोषक्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न विनाशाय मम शुभ मांगलिक कार्य सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।। एष विद्या माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं। शम क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वाश्च बलि दानवाः।। य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना। तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि गतं विषं।। अन्य दृष्टि विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम्। संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः।। सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः। द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।। किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व सौभाग्य सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत्।। ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि। शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत मयो भवेत्।। नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया। भोज पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन मयेन च।। इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व रक्षा करोतु मे। पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः।। विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः। सर्वशत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम्।।
अचूक टोटके (शीघ्र विवाह के उपाय ,विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर) समय पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की इच्छा के कारण माता-पिता व भावी वर-वधू भी चाहते है कि अनुकुल समय पर ही विवाह हो जायें. कुण्डली में विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर विवाह की बात बार-बार प्रयास करने पर भी कहीं बनती नहीं है. इस प्रकार की स्थिति होने पर शीघ्र विवाह के उपाय करने हितकारी रहते है. उपाय करने से शीघ्र विवाह के मार्ग बनते है. तथा विवाह के मार्ग की बाधाएं दूर होती है. उपाय करते समय ध्यान में रखने योग्य बातें :- 1. किसी भी उपाय को करते समय, व्यक्ति के मन में यही विचार होना चाहिए, कि वह जो भी उपाय कर रहा है, वह ईश्वरीय कृ्पा से अवश्य ही शुभ फल देगा. 2. सभी उपाय पूर्णत: सात्विक है तथा इनसे किसी के अहित करने का विचार नहीं है. 3. उपाय करते समय उपाय पर होने वाले व्ययों को लेकर चिन्तित नहीं होना चाहिए. 4. उपाय से संबन्धित गोपनीयता रखना हितकारी होता है. आईये शीघ्र विवाह के उपायों को समझने का प्रयास करें 1. हल्दी के प्रयोग से उपाय विवाह योग लोगों को शीघ्र विवाह के लिये प्रत्येक गुरुवार को नहाने वाले पानी में एक चुटकी हल्दी डालकर स्नान करना चाहिए. भोजन में केसर का सेवन करने से विवाह शीघ्र होने की संभावनाएं बनती है. 2. पीला वस्त्र धारण करना ऎसे व्यक्ति को सदैव शरीर पर कोई भी एक पीला वस्त्र धारण करके रखना चाहिए. 3. वृ्द्धो का सम्मान करना उपाय करने वाले व्यक्ति को कभी भी अपने से बडों व वृ्द्धों का अपमान नहीं करना चाहिए. 4. गाय को रोटी देना जिन व्यक्तियों को शीघ्र विवाह की कामना हों उन्हें गुरुवार को गाय को दो आटे के पेडे पर थोडी हल्दी लगाकर खिलाना चाहिए. तथा इसके साथ ही थोडा सा गुड व चने की पीली दाल का भोग गाय को लगाना शुभ होता है. 5. शीघ्र विवाह प्रयोग इसके अलावा शीघ्र विवाह के लिये एक प्रयोग भी किया जा सकता है. यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार को किया जाता है. इस प्रयोग में गुरुवार की शाम को पांच प्रकार की मिठाई, हरी ईलायची का जोडा तथा शुद्ध घी के दीपक के साथ जल अर्पित करना चाहिये. यह प्रयोग लगातार तीन गुरुवार को करना चाहिए. 6. केले के वृ्क्ष की पूजा गुरुवार को केले के वृ्क्ष के सामने गुरु के 108 नामों का उच्चारण करने के साथ शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए. अथा जल भी अर्पित करना चाहिए. 7. सूखे नारियल से उपाय एक अन्य उपाय के रुप में सोमवार की रात्रि के 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता, इस उपाय के लिये जल भी ग्रहण नहीं किया जाता. इस उपाय को करने के लिये अगले दिन मंगलवार को प्रात: सूर्योदय काल में एक सूखा नारियल लें, सूखे नारियल में चाकू की सहायता से एक इंच लम्बा छेद किया जाता है. अब इस छेद में 300 ग्राम बूरा (चीनी पाऊडर) तथा 11 रुपये का पंचमेवा मिलाकर नारियल को भर दिया जाता है. यह कार्य करने के बाद इस नारियल को पीपल के पेड के नीचे गड्डा करके दबा देना. इसके बाद गड्डे को मिट्टी से भर देना है. तथा कोई पत्थर भी उसके ऊपर रख देना चाहिए. यह क्रिया लगातार 7 मंगलवार करने से व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है. यह ध्यान रखना है कि सोमवार की रात 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं करना है.
1-अगर किसी का विवाह कुण्डली के मांगलिक योग के कारण नहीं हो पा रहा है, तो ऎसे व्यक्ति को मंगल वार के दिन चण्डिका स्तोत्र का पाठ मंगलवार के दिन तथा शनिवार के दिन सुन्दर काण्ड का पाठ करना चाहिए. इससे भी विवाह के मार्ग की बाधाओं में कमी होती है. 2-जिन व्यक्तियों को मंगली दोष है, अथवा मंगल दोष के कारण विवाह में विलम्ब अथवा दाम्पत्य सुख में कमी का अनुभव हो रहा हो, तो उन्हें शुक्ल पक्ष के मंगलवार को श्री हनुमान जी पर सिन्दूर चढ़ाना चाहिए. यह प्रयोग नौ बार करे, तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी. 9. छुआरे सिरहाने रख कर सोना यह उपाय उन व्यक्तियों को करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की विवाह की आयु हो चुकी है. परन्तु विवाह संपन्न होने में बाधा आ रही है. इस उपाय को करने के लिये शुक्रवार की रात्रि में आठ छुआरे जल में उबाल कर जल के साथ ही अपने सोने वाले स्थान पर सिरहाने रख कर सोयें तथा शनिवार को प्रात: स्नान करने के बाद किसी भी बहते जल में इन्हें प्रवाहित कर दें. चाहे कोई प्रयोग कितना भी छोटा या बड़ा हो पर यदि वह आपके जीवन को आरामदायक बनाने में सहयोगी सा होता हैं तो उसे निश्चय ही जीवन में स्थान देना चाहिए .
।। अथ श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्कवचम् ।। ।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। ईश्वर उवाच।। अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वाङ्ग-सुन्दरी । यत्कृतं देवदेवेशि ध्यानं हनुमतः परम् ।। १।। पञ्चवक्त्र महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम् । बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थ सिद्धिदम् ।। २।। पूर्वं तु वानरं वक्त्र कोटिसूर्यसमप्रणम् । दंष्ट्राकरालवदनं भ्रकुटी कुटिलेक्षणम् ।। ३।। अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् । अत्युग्र तेजवपुषं भीषणं भयनाशनम् ।। ४।। पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वज्रतुण्डं महाबलम् । सर्वनागप्रशमनं विषभुतादिकृतन्तनम् ।। ५।। उत्तरं सौकर वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम् । पातालसिद्धिवेतालज्वररोगादि कृन्तनम् ।। ६।। ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम् । खङ्ग त्रिशूल खट्वाङ्गं पाशमंकुशपर्वतम् ।। ७।। मुष्टिद्रुमगदाभिन्दिपालज्ञानेनसंयुतम् । एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ।। ८।। प्रेतासनोपविष्टं त सर्वाभरणभूषितम् । दिव्यमालाम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।। ९।। सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम् ।। १०।। पञ्चास्यमच्युतमनेक विचित्रवर्णं चक्रं सुशङ्खविधृतं कपिराजवर्यम् । पीताम्बरादिमुकुटैरुपशोभिताङ्गं पिङ्गाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि ।। ११।। मर्कटेशं महोत्साहं सर्वशोक-विनाशनम् । शत्रुं संहर मां रक्ष श्रियं दापयमे हरिम् ।। १२।। हरिमर्कटमर्कटमन्त्रमिमं परिलिख्यति भूमितले । यदि नश्यति शत्रु-कुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामकरः ।। १३।। ॐ हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा । नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखे सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखे करालवदनाय नर-सिंहाय सकल भूत-प्रेत-प्रमथनाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविषहराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखे आदि-वराहाय सकलसम्पतकराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवाय सकलजनवशीकरणाय स्वाहा । ।। अथ न्यासध्यानादिकम् । दशांश तर्पणं कुर्यात् ।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य रामचन्द्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, ममसकलभयविनाशार्थे जपे विनियोगः । ॐ हं हनुमानिति बीजम्, ॐ वायुदेवता इति शक्तिः, ॐ अञ्जनीसूनुरिति कीलकम्, श्रीरामचन्द्रप्रसादसिद्धयर्थं हनुमत्कवच मन्त्र जपे विनियोगः । कर-न्यासः- ॐ हं हनुमान् अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ वायुदेवता तर्जनीभ्यां नमः, ॐ अञ्जनी-सुताय मध्यमाभ्यां नमः, ॐ रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः, ॐ श्री हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ रुद्र-मूर्तये करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ हं हनुमान् हृदयाय नमः, ॐ वायुदेवता शिरसे स्वाहा, ॐ अञ्जनी-सुताय शिखायै वषट्, ॐ रामदूताय कवचाय हुम्, ॐ श्री हनुमते नेत्र-त्रयाय विषट्, ॐ रुद्र-मूर्तये अस्त्राय फट् । ।। ध्यानम् ।। श्रीरामचन्द्र-दूताय आञ्जनेयाय वायु-सुताय महा-बलाय सीता-दुःख-निवारणाय लङ्कोपदहनाय महाबल-प्रचण्डाय फाल्गुन-सखाय कोलाहल-सकल-ब्रह्माण्ड-विश्वरुपाय सप्तसमुद्रनीरालङ्घिताय पिङ्लनयनामित-विक्रमाय सूर्य-बिम्ब-फल-सेवनाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीवनीनां निरालङ्कृताय अङ्गद-लक्ष्मण-महाकपि-सैन्य-प्राण-निर्वाहकाय दशकण्ठविध्वंसनाय रामेष्टाय महाफाल्गुन-सखाय सीता-समेत-श्रीरामचन्द्र-वर-प्रसादकाय षट्-प्रयोगागम-पञ्चमुखी-हनुमन्-मन्त्र-जपे विनियोगः । ॐ ह्रीं हरिमर्कटाय वं वं वं वं वं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं फट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय हुं हुं हुं हुं हुं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय खें खें खें खें खें मारणाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तम्भनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय लुं लुं लुं लुं लुं आकर्षितसकलसम्पत्कराय स्वाहा । ॐ ह्रीं ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्र-मूर्तये पञ्चमुखी हनुमन्ताय सकलजन-निरालङ्करणाय उच्चाटनं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं ठं ठं ठं ठं ठं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखीहनुमते परयंत्र-परतंत्र-परमंत्र-उच्चाटनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं स्वाहा । इति दिग्बंध: ।। ॐ ह्रीं पूर्व-कपिमुखाय पंच-मुखी-हनुमते टं टं टं टं टं सकल-शत्रु-संहारणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं दक्षिण-मुखे पंच-मुखी-हनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ॐ हां हां हां हां हां सकल-भूत-प्रेत-दमनाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं पश्चि।ममुखे वीर-गरुडाय पंचमुखीहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहरणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं उत्तरमुखे आदि-वराहाय लं लं लं लं लं सिंह-नील-कंठ-मूर्तये पंचमुखी-हनुमते अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय रामेष्टाय फाल्गुन-सखाय सीताशोकदुःखनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय दशग्रीवहरणाय रामचंद्रपादुकाय पञ्चमुखीवीरहनुमते नमः ।। भूतप्रेतपिशाच ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीअन्तरिक्षग्रहपरयंत्रपरतंत्रपरमंत्रसर्वग्रहोच्चाटनाय सकलशत्रुसंहारणाय पञ्चमुखीहनुमन् सकलवशीकरणाय सकललोकोपकारणाय पञ्चमुखीहनुमान् वरप्रसादकाय महासर्वरक्षाय जं जं जं जं जं स्वाहा ।। एवं पठित्वा य इदं कवचं नित्यं प्रपठेत्प्रयतो नरः । एकवारं पठेत्स्त्रोतं सर्वशत्रुनिवारणम् ।।१५।। द्विवारं च पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् । त्रिवारं तु पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं प्रभुम् ।।१६।। चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् ।। पञ्चवारं पठेन्नित्यं पञ्चाननवशीकरम् ।।१७।। षड्वारं च पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । सप्तवारं पठेन्नित्यमिष्टकामार्थसिद्धिदम् ।।१८।। अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । नववारं पठेन्नित्यं राजभोगमवाप्नुयात् ।।१९।। दशवारं च प्रजपेत्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । त्रिसप्तनववारं च राजभोगं च संबवेत् ।।२०।। द्विसप्तदशवारं तु त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । एकादशं जपित्वा तु सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ।।२१।। ।। इति सुदर्शनसंहितायां श्रीरामचन्द्रसीताप्रोक्तं श्रीपञ्चमुखीहनुमत्कत्वचं सम्पूर्णम् ।।.
यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ। पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं। योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा? इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।
साधना-सूत्र • गुह्य तन्त्रोपासना और इसकी सफलता इसकी गोपनीयता में निहित है । अत: इसके सूत्रों और सफलताओं को गोपनीय रखना ही श्रेयस्कर है । इन्हें प्रकट करने से सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं । • इस रहस्यमयी उपासना को गुरु-निर्देश तथा गुरु-संरक्षा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए । • इस उपासना का आधार शरीर-तन्त्र है, क्योंकि शक्ति-सम्पन्न ईश्वर आनन्दमय है और आनन्द का निवास शरीर में है । • शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संयम ही गुह्य तन्त्रोपासना में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है । • सृजन-शक्ति, आत्म-शक्ति और वैभव-शक्ति — तीनों की उपलब्धि का स्रोत योनि-देवी ही हैं । अत: जिस घर में योनिस्वरूपा मातृ-शक्ति अप्रसन्न रहती है; वहाँ अभाव, दुर्बलता और दरिद्रता का स्थायी निवास होता है । लिङ्गाष्टकम् ब्रह्ममुरारि-सुरार्चित -लिङ्गं निर्मल-भासित-शोभित-लिङ्गम् । जन्मज-दुःख-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।१।। देवमुनि-प्रवरार्चित-लिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् । रावणदर्प-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।२।। सर्वसुगन्धि - सुलेपित-लिङ्गं बुद्धिविवर्धन-कारण-लिङ्गम् । सिद्धसुरा-ऽसुरवन्दित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।३।। कनक-महामणि-भूषित-लिङ्गं फणिपति-वेष्टित-शोभितलिङ्गम् । दक्ष-सुयज्ञ-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।४।। कुंकुम-चन्दनलेपितलिङ्गं पंकज-हार-सुशोभित-लिङ्गम् । सञ्चित-पाप-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।५।। देवगणार्चित-सेवित-लिङ्गं भावैर्भक्तिभिरैव च लिङ्गम् । दिनकरकोटि-प्रभाकर-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।६।। अष्टदलोपरि-वेष्टित-लिङ्गं सर्वसमुद्भव-कारण-लिङ्गम् । अष्टदरिद्र-विनाशित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।७।। सुरगुरु-सुरवर-पूजित-लिङ्गं सुर-वन-पुष्प-सदार्चित लिङ्गम् । परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।८।। लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं य: पठैच्छिव - सन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।९।।
तन्त्र की गुह्य-उपासनाएँ सनातन धर्म में आगम (तंत्र) और निगम (वेद)– ये दोनों ही मार्ग ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि कराने वाले माने गये हैं । दोनों ही मार्ग अनादि परम्परा-प्राप्त हैं । किन्तु, कलियुग में आगम-मार्ग को अपनाये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती; क्योंकि आगम तो सार्वर्विणक है, जबकि निगम त्रैवर्णिक यानी केवल द्विजातियों के लिए है । कहा गया है– कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भव: । द्वापरे तु पुराणोक्त कलौवागम सम्भव: ।। अर्थात् , सतयुग में वैदिक आचार, त्रेतायुग में स्मृतिग्रन्थों में उपदिष्ट आचार, द्वापरयुग में पुराणोक्त आचार तथा कलियुग में तंत्रोक्त आचार मान्य हैं । आगम-शास्त्रों की उत्पत्ति भगवान शिव से हुई है । भगवान शिव ने अपने पाँचों मुखों (सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान) के द्वारा भगवती जगदम्बा पार्वती को तन्त्र-विद्या के जो उपदेश दिये– वही पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और ऊध्र्व नामक पाँच आम्नाय तन्त्रों के नाम से प्रचलित हुए । ये ‘पंच-तन्त्र’ भगवान श्रीमन्नारायण वासुदेव को भी मान्य हैं– आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ । मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।। तन्त्र के मुख्यत: ६४ भेद माने गये हैं । इन सभी का आविर्भाव भगवान शिव से ही हुआ है । कुछ विद्वान् ६४ योगिनियों को तन्त्र के इन ६४ भेदों का आधार मानते हैं । तन्त्र-सिद्धि की परम्परा में कतिपय साधना-पद्धतियाँ बड़ी रहस्यमयी हैं, जिन्हें प्रकट करना निषिद्ध माना गया है । इनके रहस्य को समझ पाना साधारण साधक के वश की बात नहीं है, बल्कि इससे उसके पथभ्रष्ट हो जाने की आशंका ही बनी रहती है । इन गुप्त एवं रहस्यमयी तन्त्र-साधना-पद्धतियों में दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्त, कौलाचार आदि को उत्तरोत्तर उत्तम फलदायी माना गया है । किन्तु, इनकी अनेकरूपता के कारण साधकों को श्रेष्ठ गुरु के निर्देश के बिना इन साधनाओं को नहीं करना चाहिए । योग और मोक्ष– साधकों के जीवन के ये दो मुख्य उद्देश्य होते हैं । जिन साधकों में योग की भावना प्रबल होती है, वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकते । क्योंकि उनका मन भोग में लिप्त रहेगा, भले ही बाह्य रूप से वे विरक्त क्यों न हो जायँ । ऐसे साधकों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए । किन्तु, भोग में डूबकर उसके रहस्य को जाने बिना उससे विरक्ति होना सम्भव नहीं है । भोगों की नश्वरता और उनके अल्पस्थायित्व को समझे बिना उनसे निवृृत्ति और विरक्ति हो पाना नितान्त असम्भव है । अत: भोग में भी भक्ति-भाव आ जाय– इसके लिए ‘देव’ और ‘देवी’ के भाव को हृदय में स्थापित करते हुए– ‘पूजा ते विषयोपभोगरचना’– की भावना के अनुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके आध्यात्मिक और आधिदैविक भाव की ओर अग्रसर होना ही इन गुह्य साधनाओं का परम लक्ष्य है । बलपूर्वक मन को वैराग्य में लगाने का विपरीत प्रभाव हो सकता है । अत: गुरु के निर्देशानुसार मर्यादित विषयोपभोग करते हुए मन्त्र-जप, ध्यान, पूजा, योग आदि का अभ्यास करते रहना चाहिए । इस प्रकार के अभ्यास से साधक को आत्मानंद की अनुभूति और आत्मज्ञान की सहसा उपलब्धि हो जाती है । क्योंकि सत्-चित्-आनन्द– ये तीन ब्रह्म के स्वरूप हैं, जो वास्तव में एक ही हैं । जहाँ भी आनन्द की अनुभूति है, वह ब्रह्म का ही रूप है–भले ही वह पूर्णरूप से स्पुâरित न हो । पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द– दोनों में अनन्तता और क्षणिकत्व का ही भेद है । निस्सन्देह बाह्य विषयानन्द तम है– मृत्यु है, किन्तु उसकी अनुभूति करनी पड़ती है । उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व और नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता;क्योंकि विषय स्वाभाविक रूप से रमणीय तो होते ही हैं । इसीलिए वामाचारी तन्त्र-साधकों की मान्यता है कि– आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । इस तथ्य को जानने के बाद ही तन्त्राचार्यों ने नग्न-ध्यान, योनि-पूजा, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा और बङ्काौली जैसी गुह्य-साधना-पद्धतियों को स्वीकार किया है । सर्वप्रथम बौद्ध तान्त्रिकों की बङ्कायान शाखा द्वारा चीनाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में इन गोपनीय साधनाओं को प्रकट किया गया । बाद में शाक्त-सम्प्रदाय के आचार्योें ने भी इन गुप्त साधनाओं का प्रकाश किया । फलस्वरूप पंच-मकार-साधना और वामाचार का प्रचलन हुआ । जगत के माता-पिता शिव-पार्वती के एकान्तिक संयोग और सत्संग के माध्यम से उद्भूत इन रहस्यमयी गुह्य साधनाओं का स्वरूप कालान्तर में विषयी और पाखण्डी लोगों की व्यभिचार-वृत्ति और काम-लोलुपता के कारण विकृत होता चला गया और तन्त्र की रहस्यमयी शक्तियों से अनभिज्ञ विलासी लोगों ने इसे कामोपभोग का माध्यम बना डाला और साधना की आड़ में अपनी दैहिक वासना की तृप्ति करने में लग गये । किन्तु, यह बात साधकों का अनुभवजन्य सत्य है कि यदि काम-ऊर्जा का और काम-भाव का सही-सही प्रयोग किया जाय तो इससे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति व ब्रह्म-साक्षात्कार सम्भव है । वास्तव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को संस्कारों में परिवर्तित करके, उनकी दिशा बदलकर उनके माध्यम से भगवत्प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति सहजता से की जा सकती है । ये प्रयोग त्याग, तपस्या, यज्ञानुष्ठान आदि की अपेक्षा ज्यादा आसान हैं, क्योंकि ये मानव की सहज वृत्तियों के अनुवूâल हैं ।
वाममार्गी तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है । देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है । भगवान से हमें यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तार्विâक एवं स्वाभाविक सत्य है । देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है– वस्त्र । वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है । इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा एवं बङ्काौली आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं । किन्तु, ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों,तभी फलदायी होती हैं । यहाँ हम तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा प्रकाश डालना चाहते हैं । अन्य गुह्य-साधनाओं पर चर्चा किसी अन्य पुस्तक या आलेख में करेंगे । दुर्गा सप्तशती में कहा गया है– ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ । अर्थात् , जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है, अन्यथा निर्जीव है । तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है । बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी । तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है, पूजनीय है । ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’– इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है । रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’कहते आये हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में उसे देवी का स्वरूप मानते हुए, पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है । तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी को हेय नहीं माना गया है । भैरवी-चक्र-पूजा में सम्मिलित साधक/साधिका की योग्यता के विषय में ‘निर्वाण-तंत्र’में उल्लेख है– नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना । परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा: ।। शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता: । निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता: ।। सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्त एवात्राधिकारिण: ।। अर्थात्, चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है । जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता । जो ब्रह्म के उपासक हैं, जो ब्रह्म को जानते हैं, जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं, जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्तचित्त हैं, जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं, जो दयावान् हैं, जो प्रण पर दृढ़ रहने वाले हैं, जो सच्चे संकल्प वाले हैं, जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं– वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं । भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आणविक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है । भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है । प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन पुâट की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में टकटकी लगाते हुए गुरु-मन्त्र का जप करते हैं । निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव ऊध्र्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र- दल का भेदन करता है । इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । इस बीच गुरु-मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए । कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए । गुरु-कृपा और गुरु-निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं । भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है । समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है । यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए । युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथासंभव विलम्ब से और एकसाथ सम्पन्न हो । अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है । भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि । चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देश-काल, तथा फल-प्राप्ति में अन्तर आ जाता है । भैरवी चक्र-पूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह-भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं । विंâतु, चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिए । भैरवी-चक्र-पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है । जैसे बिजली के दो तारों– फेस और न्यूटल– के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम-ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है । तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है– शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तäयावेशावसानिकम् । यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ।। अर्थात्, शक्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है । सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है ।
भैरवी-साधना सिद्ध होे जाने पर साधक को ब्रह्माण्ड में गूँज रहे दिव्य मंत्र सुनायी पड़ने लगते हैं, दिव्य प्रकाश दिखने लगता है तथा साधक के मन में दीर्घ अवधि तक काम-वासना जागृत नहीं होती । साथ ही उसका मन शान्त व स्थिर हो जाता है तथा उसके चेहरे पर एक अलौकिक आभा झलकने लगती है । प्रत्येक साधना में कोई-न-कोई कठिनाई अवश्य होती है । भैरवी-साधना में भी जो सबसे बड़ी कठिनाई है– वह है अपने आप को काबू में रखना तथा साधक व साधिका का एक साथ स्खलित होना। निश्चय ही गुरु-कृपा और निरन्तर के अभ्यास से यह सम्भव हो पाता है । भैरवी-साधना प्रकारान्तर से शिव-शक्ति की आराधना ही है । शुद्ध और समर्पित भाव से, गुरु-आज्ञानुसार साधक यदि इसको आत्मसात् करें तो जीवन के परम लक्ष्य– ब्रह्मानंद की उपलब्धि उनके लिए सहज सम्भव हो जाती है । किन्तु, कलिकाल के कराल-विकराल जंजाल में फंसे हुए मानव के लिए भैरवी-साधना के रहस्य को समझ पाना अति दुष्कर है । यंत्रवत् दिनचर्या व्यतीत करने वाले तथा भोगों की लालसा में रोगों को पालने वाले आधुनिक जीवन-शैली के दास भला इस दैवीय साधना के परिणामों से वैâसे लाभान्वित हो सकते हैं ? इसके लिए शास्त्र और गुरु-निष्ठा के साथ-साथ गहन आत्मविश्वास भी आवश्यक है । प्रस्तुत कुंजिका में उल्लिखित स्तोत्र एवं सहस्रनाम के नित्य-पाठ से साधक की निष्ठा निरंतर पुष्ट होती जाती है और उसके ह्य्दय में आत्मस्वरूप का प्रकाश जागृत होने लगता है । साधना-पथ पर आरूढ़ होने के लिए यही तो चाहिए !
मंगलवार, 16 अप्रैल 2019
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श्रीबगला कीलक-स्तोत्रम्. श्रीबगला कीलक-स्तोत्रम्. ह्लीं ह्लीं ह्लींकार-वाणे, रिपुदल-दलने, घोर-गम्भीर-नादे ! ज्रीं ह्रीं ह्रींकार-रुपे, मुनि-गण-नमिते, सिद्धिदे, शुभ्र-देहे ! भ्रों भ्रों भ्रोंकार-नादे, निखिल-रिपु-घटा-त्रोटने, लग्न-चित्ते ! मातर्मातर्नमस्ते सकल-भय-हरे ! नौमि पीताम्बरे ! त्वाम् ।। १ क्रौं क्रौं क्रौमीश-रुपे, अरि-कुल-हनने, देह-कीले, कपाले ! हस्रौं हस्रौं-सवरुपे, सम-रस-निरते, दिव्य-रुपे, स्वरुपे ! ज्रौं ज्रौं ज्रौं जात-रुपे, जहि जहि दुरितं जम्भ-रुपे, प्रभावे ! कालि, कंकाल-रुपे, अरि-जन-दलने देहि सिद्धिं परां मे ।। २ हस्रां हस्रीं च हस्रैं, त्रिभुवन-विदिते, चण्ड-मार्तण्ड-चण्डे ! ऐं क्लीं सौं कौल-विधे, सतत-शम-परे ! नौमि पीत-स्वरुपे ! द्रौं द्रौं द्रौं दुष्ट-चित्ताऽऽदलन-परिणते, बाहु-युग्म-त्वदीये ! ब्रह्मास्त्रे, ब्रह्म-रुपे, रिपु-दल-हनने, ख्यात-दिव्य-प्रभावे ।। ३ ठं ठं ठंकार-वेशे, ज्वलन-प्रतिकृति-ज्वाला-माला-स्वरुपे ! धां धां धां धारयन्तीं रिपु-कुल-रसनां मुद्गरं वज्र-पाशम् । डां डां डां डाकिन्याद्यैर्डिमक-डिम-डिमं डमरुं वादयन्तीम् ।। ४ मातर्मातर्नमस्ते प्रबल-खल-जनं पीडयन्तीं भजामि । वाणीं सिद्धि-करे ! सभा-विशद-मध्ये वेद-शास्त्रार्थदे ! मातः श्रीबगले, परात्पर-तरे ! वादे विवादे जयम् । देहि त्वं शरणागतोऽस्मि विमले, देवि प्रचण्डोद्धृते ! मांगल्यं वसुधासु देहि सततं सर्व-स्वरुपे, शिवे ! ।। ५ निखिल-मुनि-निषेव्यं, स्तम्भनं सर्व-शत्रोः । शम-परमिहं नित्यं, ज्ञानिनां हार्द-रुपम् । अहरहर-निशायां, यः पठेद् देवि ! कीलम् । स भवति परमेशि ! वादिनामग्र-गण्यः ।। "वक्रतुण्ड महाकाय , सूर्यकोटि समप्रभ ! निर्विघ्नं कुरु मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा" !! श्रीराम ज्योतिष सदन. भारतीय वैदिक ज्योतिष.और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामँश दाता । आप जन्मकुंडली बनवाना ॰ जन्मकुंडली दिखवाना ॰ जन्मकुंडली मिलान करवाना॰ जन्मकुंडली के अनुसार नवग्रहो का उपाय जानना ॰ मंत्रो के माध्यम से उपाय जानना ॰ रत्नो के माध्यम से उपाय जानना और आपकी शादी नही हो रही है। व्यवसाय मे सफलता नही मिल रही है! नोकरी मे सफलता नही मिल रही है। और आप शत्रु से परेशान है। ओर आपके कामो मे अडचन आ रही है । और आपको धन सम्बंधी परेशानी है । और अन्य सभी प्रकार की समस्याओ के लिये संपर्क करें । आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पण्डित टीकाराम बहुगुणा । मै केवल जन्मकुण्डली देखकर ही आप की सम्सयाओ का समाधान कर सकता हुँ । अपनी जन्मकुण्डली के अनुकूल विशिष्ट मन्त्र यन्त्र के माध्यम से कायॅ सिद्ध करने के लिये सम्पकॅ करे ।.-- क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । ---- संपर्क सूत्र---9760924411
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