Tuesday, 16 April 2019

गुरु-स्थापना-मन्त्र :- साधना प्रारम्भ के पहले एक पाँच बत्ती- वाला दीपक जला कर निम्न मन्त्र को सात बार पढ़ें – “गुरू दिन गुरू बाती, गुरू सहे सारी राती । वासतीक दीवना बार के, गुरू के उतारौं आरती ।।” शरीर-रक्षा-मन्त्र :- “ॐ नमो आदेश शुरू का । जय हनुमान, वीर महान । मै करथ हौं तोला प्रनाम, भूत-प्रेत-मरी मसान । भाग जाय, तोर सुन के नाम । मोर शरीर के रक्ष्या करिबे, नहीं तो सीता मैया के सय्या पर पग ला धरबे ! मोर फूकें । मोर गुरू के फूकें, गुरू कौन ? गौरा- महा-देव के फूकें । जा रे शरीर बँधा जा ।” विधि – उक्त मन्त्र को ग्यारह बार पढ़कर, अपने चारों ओर एक गोल घेरा बना लें । इससे साधना में सभी विघ्नों से साधक की रक्षा होती है ।

धन प्राप्ति के सामान्य टोटके ... आज के युग में सबसे महवपूर्ण कार्य धनप्राप्ति है|कई लोग ऐसे हैं की अज्ञात कारणों से उनके धन प्राप्ति में कोई न कोई रोड़ा अटकता ही रहता है|नीचे कुछ टोटके बताये जा रहें हैं जो धन प्राप्ति में महतवपूर्ण है|जिस स्थान पर इन टोटकों का पालन होता हैं उस स्थान पर माँ लक्ष्मी अपना स्थाई वास बनाती है| • जिस घर में नियमित रूप से अथवा प्रत्येक शुक्रवार को श्रीसूक्त अथवा श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ होता है वहां माँ लक्ष्मी का स्थाई वास होता है| • पर्त्येक सप्ताह घर में फर्श पर पोचा लगते समय थोडा सा समुंदरी नमक मिला लिया करें ऐसा करने से घर में होने वाले झगरे कम होते हैं|इसके अतिरिक्त यह भी लाभ मिलता है आपको नहीं मालूम की आपके घर में आने वाला अतिथि n कहाँ से आया है,तथा उसके मन में आपके प्रति क्या विचार है,नमक मिले पानी से पोचा लगाने से सारी नकारात्मक उर्जा समाप्त हो जाती है| • प्रात: उठ कर गृह लक्ष्मी यदि मुख्य द्वार पर एक गिलास अथवा लोटा जल डाले तो माँ लक्ष्मी के आने का मार्ग प्रशस्त होता है| • यदि आप चाहतें हैंकि घर में सुख शांति बनी रहे तथा आप आर्थिक रूप से समर्थ रहें तो प्रत्येक अमावस्या को अपने घर की पूर्ण सफाई करवा दें|जितना भी फ़ालतू सामान इकठा हुआ हो उसे क्बारी को बेच दें अथवा बाहर फेंक दें ,सफाई के बाद पांच अगरबती घर के मंदिर में लगायें|

शक्ति पात्र शक्ति पात्र साधक जब ही हो पाता है जब वह स्वयम के अन्दर इतनी उर्जा एकत्रित कर लेता है की शक्ति को सुन य महसूस कर सके । वो पात्रता थोड़े ध्यान से आ जाती है । जिससे मन और दिमाग ठहर जाता है उस अवस्था में आप जब किसी शक्ति का आवाहन करते है तो फिर प्रश्न भी करते है उसके बाद यदि उरजा अधिक है तो पूर्ण रूप से शक्ति के दर्शन होते है अन्यथा किसी परछाई का आभास होता है और मन में जवाब आता है य दिमाग में । जैसे हम खुद तो नही बोल रहे मगर वो हम नही शक्ति ही होती है ।

पूजा का कमरा घर में क्यों होता है ? घरो में पूजा के कमरे का अपना महत्त्व है. हर घर में पूजा का कमरा होता है जहाँ पर दीपक लगा कर भगवान की पूजा की जाती है, ध्यान लगाया जाता है या पाठ किया जाता है. भगवान चूँकि पुरी श्रष्टि के रचियेता है और इस हिसाब से घर के असली मालिक भी भगवान ही हुए. भगवान का कमरा ये भावः दर्शाता है की प्रभु इस घर के मालिक है और घर में रहने वाले लोग भगवान की दी हुई जमीन पर इस घर में रहते है. ये भावः हमें झूठा अभिमान और स्वत्वबोध से दूर रखता है. आदर्श स्तिथि में मनुष्य को ये मानना चाहिए की भगवान ही घर के मालिक है और मनुष्य केवल उस घर का कार्यवाहक प्रभारी है. एक अन्य भावः ये भी है की ईश्वर सर्वव्यापी है और घर में भी हमारे साथ रहता है इसलिए घर में एक कमरा प्रभु का है. जिस तरह घर में प्रत्येक कार्य के लिए अलग अलग कक्ष होते है, जैसे आराम के लिए शयनकक्ष, खाना बनाने के लिए रसोईघर, मेहमानों के लिए ड्राइंग रूम या आगंतुक कक्ष ठीक उसी प्रकार हमारे आध्यात्म के लिए भगवान का कमरा होता है जहाँ पर बैठ कर ध्यान पूजा पाठ और जप किया जा सकता है.

।। ॐ ।। श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटूकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् । वीरान् द्व्यष्टचतुष्कषष्टिनवकं वीरावलीपन्चकम् श्रीमन्मालिनीमन्त्रराजसहीतं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ।। श्रीगुरुदेव , परम गुरुदेव , और परात्पर गुरुदेव स्वरुप श्रीनाथादी तीन गुरुदेव , गणपति , कामरुप , पूर्णगिरि जालंदर तीन पीठ , मन्थानादी आठ भैरव , सिद्धोंका समुदाय , विरंची , चक्र , स्कंद आदी तीन बटूक , प्रकाश और विमर्श ( शिव और शक्ति ) दो चरण , योन्यंम्बादी दूती , अग्निमण्डल , सूर्यमण्डल , सोममण्डल आदी मण्डल , दस वीर (भैरव ) , चौसठ योगिनी , सर्वसंशोधिनी आदी नौ मुद्रा , ब्रम्हा विष्णू रुद्र ईश्वर और सदाशिव आदी पंच वीर , "अ" से "क्ष" पर्यंत इक्यावन मात्राओंसे युक्त मालिनी मन्त्र - इन सब तत्वोंसे युक्त जो गुरु का मण्डल है , अर्थात जो श्रीगुरु की राजसभा है , उसे मै नमन करता हुं ।

कार्य सिद्धि यन्त्र नवरात्र, होली, दीपावली, ग्रहणकाल या पुष्य नक्षत्र वाले दिन शुभ एवं अनुकूल मुहूर्त में ताम्रपत्र पर बने हुए यंत्र को पंचामृत से स्नान करवाकर शुद्ध कर लें। तत्पश्चात् यंत्र को शिवलिंग की जलहरी के नीचे इस तरह रखें कि शिवलिंग पर जल एवं दूध चढ़ाने के दौरान चढा हुआ जल व दूध इस यंत्र के ऊपर गिरता रहे। शिवलिंग पर जल व दूध चढ़ाते रहें तथा “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र को गहरी सांस से बोलते रहें। ऐसा प्रतिदिन १० मिनट तक करें। किसी महत्त्वपूर्ण कार्य पर प्रस्थान करते समय उक्त यंत्र को अपनी जेब में रखकर ले जावें। यह अत्यन्त प्रभावकारी क्रिया है अतः इसकी निरन्तरता बनाये रखने से शुभ परिणाम आते हैं।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥ ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ विनियोगः- ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुध-कौशिक ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । श्रीसीतारामचंद्रो देवता । सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगः ॥ ऋष्यादि-न्यासः- बुध-कौशिक ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छंदसे नमः मुखे । श्रीसीता-रामचंद्रो देवतायै नमः हृदि । सीता शक्तये नमः नाभौ । श्रीमद् हनुमान कीलकाय नमः पादयो ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥ ॥ अथ ध्यानम् ॥ ध्यायेदाजानु-बाहुं धृत-शर-धनुषं बद्ध-पद्मासनस्थम् । पीतं वासो वसानं नव-कमल-दल-स्पर्धि-नेत्रं प्रसन्नम् । वामांकारूढ-सीता-मुख-कमल-मिलल्लोचनं नीरदाभम् । नानालंकार-दीप्तं दधतमुरु-जटामंडनं रामचंद्रम्॥ ॥इति ध्यानम्॥ ॥मूल-पाठ॥ चरितं रघुनाथस्य शत-कोटि प्रविस्तरम् । एकैकमक्षरं पुंसां, महापातकनाशनम् ॥ १॥ ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं, रामं राजीव-लोचनम् । जानकी-लक्ष्मणोपेतं, जटा-मुकुट-मण्डितम् ॥ २॥ सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं नक्तं चरान्तकम् । स्व-लीलया जगत्-त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥ ३॥ रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः, पापघ्नीं सर्व-कामदाम् । शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥ कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वामित्रप्रियः श्रुती । घ्राणं पातु मख-त्राता, मुखं सौमित्रि-वत्सलः ॥ ५॥ जिह्वां विद्या-निधिः पातु, कण्ठं भरत-वंदितः । स्कंधौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेश-कार्मुकः ॥ ६॥ करौ सीता-पतिः पातु, हृदयं जामदग्न्य-जित् । मध्यं पातु खर-ध्वंसी, नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥ सुग्रीवेशः कटी पातु, सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । ऊरू रघूत्तमः पातु, रक्षः-कुल-विनाश-कृत् ॥ ८॥ जानुनी सेतुकृत्पातु, जंघे दशमुखान्तकः । पादौ बिभीषण-श्रीदः, पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ ९॥ एतां राम-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । स चिरायुः सुखी पुत्री, विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥ पाताल-भूतल-व्योम-चारिणश्छद्म-चारिणः । न द्रष्टुमपि शक्तासे, रक्षितं राम-नामभिः ॥ ११॥ रामेति राम-भद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् । नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥ जगज्जैत्रैक-मन्त्रेण राम-नाम्नाऽभिरक्षितम् । यः कंठे धारयेत्-तस्य करस्थाः सर्व-सिद्धयः ॥ १३॥ वज्र-पंजर-नामेदं, यो रामकवचं स्मरेत् । अव्याहताज्ञः सर्वत्र, लभते जय-मंगलम् ॥ १४॥ आदिष्ट-वान् यथा स्वप्ने राम-रक्षामिमां हरः । तथा लिखित-वान् प्रातः, प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥ आरामः कल्प-वृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिरामस्त्रि-लोकानां, रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥ तरुणौ रूप-संपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुंडरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥ फल-मूलाशिनौ दान्तौ, तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८॥ शरण्यौ सर्व-सत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्व-धनुष्मताम् । रक्षः कुल-निहंतारौ, त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥ आत्त-सज्ज-धनुषाविशु-स्पृशावक्षयाशुग-निषंग-संगिनौ । रक्षणाय मम राम-लक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥ सन्नद्धः कवची खड्गी चाप-बाण-धरो युवा । गच्छन्मनोरथोऽस्माकं, रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥ रामो दाशरथिः शूरो, लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णा, कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥ वेदान्त-वेद्यो यज्ञेशः, पुराण-पुरुषोत्तमः । जानकी-वल्लभः श्रीमानप्रमेय-पराक्रमः ॥ २३॥ इत्येतानि जपन्नित्यं, मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । अश्वमेधाधिकं पुण्यं, संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥ रामं दुर्वा-दल-श्यामं, पद्माक्षं पीत-वाससम् । स्तुवंति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥ रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । राजेंद्रं सत्य-सन्धं दशरथ-तनयं श्यामलं शांत-मूर्तम् । वंदे लोकाभिरामं रघु-कुल-तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥ रामाय राम-भद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥ श्रीराम राम रघुनंदन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रण-कर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥ श्रीरामचंद्र-चरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥ माता रामो मत्पिता रामचंद्रः । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः । सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥ दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य, वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघु-नंदनम् ॥ ३१॥ लोकाभिरामं रण-रंग-धीरम्, राजीव-नेत्रं रघु-वंश-नाथम् । कारुण्य-रूपं करुणाकरं तम्, श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥ मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धि-मतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यम्, श्रीराम-दूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥ कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविता-शाखां वंदे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥ ३४॥ आपदां अपहर्तारं, दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥ भर्जनं भव-बीजानां अर्जनं सुख-सम्पदाम् । तर्जनं यम-दूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥ रामो राज-मणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचर-चमू रामाय तस्मै नमः । रामान्नास्ति परायणं पर-तरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् । रामे चित्त-लयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥ राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥ इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

कुल देवता/देवी के संबंध में व्याप्त विसंगतियों का निदान--- सामान्यतः प्रत्येक सनातन हिन्दु परिवार में कुल देवता/देवी के नामों के संबंधों में व्याप्त विसंगतियों एवं विवादों का सबसे पहले निदान आवश्य है । जैसे कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''खजूरी वाली माताजी'' हैं, कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''ईट वाली माताजी'' हैं । कोई कहता है कि, हमारी कुल देवी ''कैला देवी'' हैं। कोई कहता है ''नैनोद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि, ''पावागढ वाली देवी'' है। कोई कहता है कि, ''बगावद वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''मैडता वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''जीन वाली देवी'' है । कोई कहता है कि ''सती वाली माता'' है । इसी प्रकार कुल देवता के संबंध में कोई कहता है कि हमारे कुल देवता ''खेडे वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि, ''काले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''हिसार वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''गुडगाँव वाले देवता'' हैं । कोई कहता है कि ''सालासर वाले बालाजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खाटू श्यामजी'' हैं । कोई कहता है कि ''खप्पर वाले देवता'' हैं

चौसठ योगिनी और उनका जीवन में योगदान स्त्री पुरुष की सहभागिनी है,पुरुष का जन्म सकारात्मकता के लिये और स्त्री का जन्म नकारात्मकता को प्रकट करने के लिये किया जाता है। स्त्री का रूप धरती के समान है और पुरुष का रूप उस धरती पर फ़सल पैदा करने वाले किसान के समान है। स्त्रियों की शक्ति को विश्लेषण करने के लिये चौसठ योगिनी की प्रकृति को समझना जरूरी है। पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है और स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है। योगिनी की पूजा का कारण शक्ति की समस्त भावनाओं को मानसिक धारणा में समाहित करना और उनका विभिन्न अवसरों पर प्रकट करना और प्रयोग करना माना जाता है,बिना शक्ति को समझे और बिना शक्ति की उपासना किये यानी उसके प्रयोग को करने के बाद मिलने वाले फ़लों को बिना समझे शक्ति को केवल एक ही शक्ति समझना निराट दुर्बुद्धि ही मानी जायेगी,और यह काम उसी प्रकार से समझा जायेगा,जैसे एक ही विद्या का सभी कारणों में प्रयोग करना। दिव्ययोग की दिव्ययोगिनी :- योग शब्द से बनी योगिनी का मूल्य शक्ति के रूप में समय के लिये प्रतिपादित है,एक दिन और एक रात में 1440 मिनट होते है,और एक योग की योगिनी का समय 22.5 मिनट का होता है,सूर्योदय से 22.5 मिनट तक इस योग की योगिनी का रूप प्रकट होता है,यह जीवन में जन्म के समय,साल के शुरु के दिन में महिने शुरु के दिन में और दिन के शुरु में माना जाता है,इस योग की योगिनी का रूप दिव्य योग की दिव्य योगिनी के रूप में जाना जाता है,इस योगिनी के समय में जो भी समय उत्पन्न होता है वह समय सम्पूर्ण जीवन,वर्ष महिना और दिन के लिये प्रकट रूप से अपनी योग्यता को प्रकट करता है। उदयति मिहिरो विदलित तिमिरो नामक कथन के अनुसार इस योग में उत्पन्न व्यक्ति समय वस्तु नकारात्मकता को समाप्त करने के लिये योगकारक माने जाते है,इस योग में अगर किसी का जन्म होता है तो वह चाहे कितने ही गरीब परिवार में जन्म ले लेकिन अपनी योग्यता और इस योगिनी की शक्ति से अपने बाहुबल से गरीबी को अमीरी में पैदा कर देता है,इस योगिनी के समय काल के लिये कोई भी समय अकाट्य होता है। महायोग की महायोगिनी :- यह योगिनी रूपी शक्ति का रूप अपनी शक्ति से महानता के लिये माना जाता है,अगर कोई व्यक्ति इस महायोगिनी के सानिध्य में जन्म लेता है,और इस योग में जन्मी शक्ति का साथ लेकर चलता है तो वह अपने को महान बनाने के लिये उत्तम माना जाता है। सिद्ध योग की सिद्धयोगिनी:- इस योग में उत्पन्न वस्तु और व्यक्ति का साथ लेने से सिद्ध योगिनी नामक शक्ति का साथ हो जाता है,और कार्य शिक्षा और वस्तु या व्यक्ति के विश्लेषण करने के लिये उत्तम माना जाता है। महेश्वर की माहेश्वरी महाईश्वर के रूप में जन्म होता है विद्या और साधनाओं में स्थान मिलता है. पिशाच की पिशाचिनी बहता हुआ खून देखकर खुश होना और खून बहाने में रत रहना. डंक की डांकिनी बात में कार्य में व्यवहार में चुभने वाली स्थिति पैदा करना. कालधूम की कालरात्रि भ्रम की स्थिति में और अधिक भ्रम पैदा करना. निशाचर की निशाचरी रात के समय विचरण करने और कार्य करने की शक्ति देना छुपकर कार्य करना. कंकाल की कंकाली शरीर से उग्र रहना और हमेशा गुस्से से रहना,न खुद सही रहना और न रहने देना. रौद्र की रौद्री मारपीट और उत्पात करने की शक्ति समाहित करना अपने अहम को जिन्दा रखना. हुँकार की हुँकारिनी बात को अभिमान से पूर्ण रखना,अपनी उपस्थिति का आवाज से बोध करवाना. ऊर्ध्वकेश की ऊर्ध्वकेशिनी खडे बाल और चालाकी के काम करना. विरूपक्ष की विरूपक्षिनी आसपास के व्यवहार को बिगाडने में दक्ष होना. शुष्कांग की शुष्कांगिनी सूखे अंगों से युक्त मरियल जैसा रूप लेकर दया का पात्र बनना. नरभोजी की नरभोजिनी मनसा वाचा कर्मणा जिससे जुडना उसे सभी तरह चूसते रहना. फ़टकार की फ़टकारिणी बात बात में उत्तेजना में आना और आदेश देने में दुरुस्त होना. वीरभद्र की वीरभद्रिनी सहायता के कामों में आगे रहना और दूसरे की सहायता के लिये तत्पर रहना. धूम्राक्ष की धूम्राक्षिणी हमेशा अपनी औकात को छुपाना और जान पहिचान वालों के लिये मुशीबत बनना. कलह की कलहप्रिय सुबह से शाम तक किसी न किसी बात पर क्लेश करते रहना. रक्ताक्ष की रक्ताक्षिणी केवल खून खराबे पर विश्वास रखना. राक्षस की राक्षसी अमानवीय कार्यों को करते रहना और दया धर्म रीति नीति का भाव नही रखना. घोर की घोरणी गन्दे माहौल में रहना और दैनिक क्रियाओं से दूर रहना. विश्वरूप की विश्वरूपिणी अपनी पहिचान को अपनी कला कौशल से संसार में फ़ैलाते रहना. भयंकर की भयंकरी अपनी उपस्थिति को भयावह रूप में प्रस्तुत करना और डराने में कुशल होना. कामक्ष की कामाक्षी हमेशा संभोग की इच्छा रखना और मर्यादा का ख्याल नही रखना. उग्रचामुण्ड की उग्रचामुण्डी शांति में अशांति को फ़ैलाना और एक दूसरे को लडाकर दूर से मजे लेना. भीषण की भीषणी. किसी भी भयानक कार्य को करने लग जाना और बहादुरी का परिचय देना. त्रिपुरान्तक की त्रिपुरान्तकी भूत प्रेत वाली विद्याओं में निपुण होना और इन्ही कारको में व्यस्त रहना. वीरकुमार की वीरकुमारी निडर होकर अपने कार्यों को करना मान मर्यादा के लिये जीवन जीना. चण्ड की चण्डी चालाकी से अपने कार्य करना और स्वार्थ की पूर्ति के लिये कोई भी बुरा कर जाना. वाराह की वाराही पूरे परिवार के सभी कार्यों को करना संसार हित में जीवन बिताना. मुण्ड की मुण्डधारिणी जनशक्ति पर विश्वास रखना और संतान पैदा करने में अग्रणी रहना. भैरव की भैरवी तामसी भोजन में अपने मन को लगाना और सहायता करने के लिये तत्पर रहना. हस्त की हस्तिनी हमेशा भारी कार्य करना और शरीर को पनपाते रहना. क्रोध की क्रोधदुर्मुख्ययी क्रोध करने में आगे रहना लेकिन किसी का बुरा नही करना. प्रेतवाहन की प्रेतवाहिनी जन्म से लेकर बुराइयों को लेकर चलना और पीछे से कुछ नही कहना. खटवांग खटवांगदीर्घलम्बो- ्ठयी जन्म से ही विकृत रूप में जन्म लेना और संतान को इसी प्रकार से जन्म देना. मलित की मालती मन्त्रयोगी की मन्त्रयोगिनी अस्थि की अस्थिरूपिणी चक्र की चक्रिणी ग्राह की ग्राहिणी भुवनेश्वर की भुवनेश्वरी कण्टक की कण्टिकिनी कारक की कारकी शुभ्र की शुभ्रणी कर्म की क्रिया दूत की दूती कराल की कराली शंख की शंखिनी पद्म की पद्मिनी क्षीर की क्षीरिणी असन्ध असिन्धनी प्रहर की प्रहारिणी लक्ष की लक्ष्मी काम की कामिनी लोल की लोलिनी काक की काकद्रिष्टि अधोमुख की अधोमुखी धूर्जट की धूर्जटी मलिन की मालिनी घोर की घोरिणी कपाल की कपाली विष की विषभोजिनी

तंत्र, पराशक्ति है। यह कठिन साधना से पाई जाती है। कई लोग लंबे समय तक तंत्र साधना करते हैं लेकिन वे सफल नहीं हो पाते। ऐसा क्यों? दरअसल तंत्र साधना के समय कई बातों का ध्यान रखना होता है, तभी यह क्रियाएं सफल होती हैं, सिद्ध होती हैं। अगर हम इनका ध्यान नहीं रखेंगे तो यह वैसा फल नहीं देंगी, जैसे की उम्मीद हो। रखें इन बातों का ध्यान :- - कोशिश करें, हमेशा सत्य बोलें। - जो भी सिद्धि प्राप्त करना हो, उसका प्रयोग किसी को नुकसान पहुंचाने में न हो। - सिद्धि जिस कार्य के लिए की जा रही हो, उसका प्रयोग केवल उसी में हो। - इसका प्रयोग अनुचित लाभ उठाने में न करें। - मन में कोई दुर्भावना, दुषित विचार आदि न लाएं। - मन में कोई भय नहीं होना चाहिए। - सिद्धि का प्रचार न किया जाए। - अपने पूजा करने के स्थान, समय की गोपनीयता रखी जाए।...................

आकर्षण एवं वशीकरण के प्रबल सूर्य मन्त्र १॰ “ॐ नमो भगवते श्रीसूर्याय ह्रीं सहस्त्र-किरणाय ऐं अतुल-बल-पराक्रमाय नव-ग्रह-दश-दिक्-पाल-लक्ष्मी-देव-वाय, धर्म-कर्म-सहितायै ‘अमुक’ नाथय नाथय, मोहय मोहय, आकर्षय आकर्षय, दासानुदासं कुरु-कुरु, वश कुरु-कुरु स्वाहा।” विधि- सुर्यदेव का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का १०८ बार जप प्रतिदिन ९ दिन तक करने से ‘आकर्षण’ का कार्य सफल होता है। २॰ “ऐं पिन्स्थां कलीं काम-पिशाचिनी शिघ्रं ‘अमुक’ ग्राह्य ग्राह्य, कामेन मम रुपेण वश्वैः विदारय विदारय, द्रावय द्रावय, प्रेम-पाशे बन्धय बन्धय, ॐ श्रीं फट्।” विधि- उक्त मन्त्र को पहले पर्व, शुभ समय में २०००० जप कर सिद्ध कर लें। प्रयोग के समय ‘साध्य’ के नाम का स्मरण करते हुए प्रतिदिन १०८ बार मन्त्र जपने से ‘वशीकरण’ हो जाता है।

* कार्य में सफलता के लिए अमावस्या के दिन पीले कपड़े का त्रिकोना झंडा बना कर विष्णु भगवान के मंदिर के ऊपर लगवा दें, कार्य सिद्ध होगा। * कारोबार में हानि हो रही हो अथवा ग्राहकों का आना कम हो गया हो, तो समझें कि किसी ने आपके कारोबार को बांध दिया है। इस बाधा से मुक्ति के लिए दुकान या कारखाने के पूजन स्थल में शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को अमृत सिद्ध या सिद्ध योग में श्री धनदा यंत्र स्थापित करें। फिर नियमित रूप से केवल धूप देकर उनके दर्शन करें, कारोबार में लाभ होने लगेगा। * गृह कलह से मुक्ति हेतु परिवार में पैसे की वजह से कलह रहता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख में पांच कौड़ियां रखकर उसे चावल से भरी चांदी की कटोरी पर घर में स्थापित करें। यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार को या दीपावली के अवसर पर करें, लाभ अवश्य होगा। * क्रोध पर नियंत्रण हेतु यदि घर के किसी व्यक्ति को बात-बात पर गुस्सा आता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख को साफ कर उसमें जल भरकर उसे पिला दें। यदि परिवार में पुरुष सदस्यों के कारण आपस में तनाव रहता हो, तो पूर्णिमा के दिन कदंब वृक्ष की सात अखंड पत्तों वाली डाली लाकर घर में रखें। अगली पूर्णिमा को पुरानी डाली कदंब वृक्ष के पास छोड़ आएं और नई डाली लाकर रखें। यह क्रिया इसी तरह करते रहें, तनाव कम होगा। * मकान खाली कराने हेतु शनिवार की शाम को भोजपत्र पर लाल चंदन से किरायेदार का नाम लिखकर शहद में डुबो दें। संभव हो, तो यह क्रिया शनिश्चरी अमावस्या को करें। कुछ ही दिनों में किरायेदार घर खाली कर देगा। ध्यान रहे, यह क्रिया करते समय कोई टोके नहीं। * बिक्री बढ़ाने हेतु ग्यारह गोमती चक्र और तीन लघु नारियलों की यथाविधि पूजा कर उन्हें पीले वस्त्र में बांधकर बुधवार या शुक्रवार को अपने दरवाजे पर लटकाएं तथा हर पूर्णिमा को धूप दीप जलाएं। यह क्रिया निष्ठापूर्वक नियमित रूप से करें, ग्राहकों की संख्या में वृद्धि होगी और बिक्री बढ़ेगी।

अगर आपको किसी विशेष काम से जाना है, तो नीले रंग का धागा ले कर घर से निकलें। घर से जो तीसरा खंभा पड़े, उस पर, अपना काम कह कर, नीले रंग का धागा बांध दें। काम होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। हल्दी की ७ साबुत गांठें, ७ गुड़ की डलियां, एक रुपये का सिक्का किसी पीले कपड़े में बांध कर, रेलवे लाइन के पार फेंक दें। फेंकते समय कहें काम दे, तो काम होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। * धन के लिए एक हंडियां में सवा किलो हरी साबुत मूंग दाल या मूंगी, दूसरी में सवा किलो डलिया वाला नमक भर दें। यह दो हंडियां घर में कहीं रख दें। यह क्रिया बुधवार को करें। घर में धन आना शुरू हो जाएगा। * मिर्गी के रोग को दूर करने के लिए अगर गधे के दाहिने पैर का नाखून अंगूठी में धारण करें, तो मिर्गी की बीमारी दूर हो जाती है। * भूत-प्रेत और जादू-टोना से बचने के लिए मोर पंख को अगर ताबीज में भर के बच्चे के गले में डाल दें, तो उसे भूत-प्रेत और जादू-टोने की पीड़ा नहीं रहती। * परीक्षा में सफलता हेतु गणेश रुद्राक्ष धारण करें। बुधवार को गणेश जी के मंदिर में जाकर दर्शन करें और मूंग के लड्डुओं का भोग लगाकर सफलता की प्रार्थना करें। * पदोन्नति हेतु शुक्ल पक्ष के सोमवार को सिद्ध योग में तीन गोमती चक्र चांदी के तार में एक साथ बांधें और उन्हें हर समय अपने साथ रखें, पदोन्नति के साथ-साथ व्यवसाय में भी लाभ होगा। * मुकदमे में विजय हेतु पांच गोमती चक्र जेब में रखकर कोर्ट में जाया करें, मुकदमे में निर्णय आपके पक्ष में होगा। * पढ़ाई में एकाग्रता हेतु शुक्ल पक्ष के पहले रविवार को इमली के २२ पत्ते ले आएं और उनमें से ११ पत्ते सूर्य देव को ¬ सूर्याय नमः कहते हुए अर्पित करें। शेष ११ पत्तों को अपनी किताबों में रख लें, पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी।

ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो अघोरघोरेतरेभ्यः । सर्वतः शर्वः सर्वेभ्यो नमस्ते रुद्र रूपेभ्यः ॥ सभी धर्मों में पूजा स्थान श्मशानों या मरघटी से जुड़े हैं, क्योंकि केवल मृत्यु के प्रति सजगता ही वैराग्य ला सकती है, मनुष्य के ज्ञान में स्थित कर सकती है। भारतीय पुराणों के अनुसार शिव का वास कैलाश पर्वत है और साथ ही श्मशान भूमि भी। कैलास का अर्थ है ‘जहां केवल उत्सव है’ और श्मशान का अर्थ है ‘जहां केवल शून्य है’ तो दिव्यता शून्यता में भी है और उत्सव में भी। आपसे(मनुष्य) ही शून्य है, आपसे(मनुष्य) ही उत्सव है। अघोर जो संसार की किसी भी वस्तु को घोर यानी विभत्स नहीं मानते। श्मशान में ही शिव का वास होता है। अघोर मूर्दों में भगवान ढूंढते हैं। अघोर न किसी वस्तु से घृणा करते हैं और न ही प्रेम। अघोर का मानना होता है कि वे लोग जो दुनियादारी और गलत कार्यों के लिए तंत्र साधना करते है अतं में उनका अहित होता है। महिशानाम परो देवों महिमानम परास्तुति.. अघोरानाम परो मंत्रो नास्ति तत्वों गुरु परम.. काल भी जिससे घबराता है, ऐसे महाकाल और महाकाली के चरणों में मै साष्टांग प्रणाम करता हूं। जिससे कई जन्मों जन्मांतर के पाप स्वतः नष्ट हो जाते है .. हर हर महादेव .जय महाकाल .............अघोरी हूँ महादेव अघोरी ............हरी ॐ .....हरी ॐ अघोर और अघोरी के बारे में, समाज में अजीबो-गरीब धारणा है. धारणा क्या, बल्कि ग़लतफ़हमी है. ये ग़लतफ़हमी कई वज़हों से है! अघोर का साफ़ मतलब है अ+घोर ! यानी, जो कठिन ना हो. सरल हो, सहज हो. पर तमाम लोगों ने इसे इतना घोर बना दिया कि, अब इसे भय का पर्याय माना जाने लगा है. किसी भी जगह का सही आकलन, उस जगह के केंद्रबिंदु पर जा कर ही मुमकिन है. पर अघोर के केंद्र बिंदु पर जाने से पहले, थोड़ी सी चर्चा अघोर के बारे में कर ली जाए तो बेहतर होगा. अघोर, एक अवस्था है, संभवतः , आध्यात्मिकता का सर्वोच्च शिखर ! जहां बिरले ही पहुँच पाते हैं. अरबों-खरबों में कोई एक ! इस पद पर पहुँचाने के बाद, रिद्धी-सिद्धी और चमत्कार का कोई मतलब नहीं रह जाता. इन सब बाधाओं को पार कर ही, एक योगी अघोर के पद पर पहुँचता है. और उस अवस्था में रिद्धी-सिद्धी, चमत्कार उसकी वाणियों में ही समा जाते हैं. इच्छा मात्र से ही हर पल-हर मनचाही चीज़ हो जाती है. अघोर की अवस्था में आते ही, योगी *शिवत्व* के रूप में हो जाता है. जहां कुछ भी नामुकिन नहीं है. ये अघोर का असली रूप है. ,,,,,,,,,,,.हरी ॐ .....हरी ॐ मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है। तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं। यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि। यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।

त्रिकाल-दर्शक गौरी-शिव मन्त्र विनियोगः- अनयोः शक्ति-शिव-मन्त्रयोः श्री दक्षिणामूर्ति ऋषिः, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दसी, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवते, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगः। ऋष्यादि-न्यासः- श्री दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसि, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दोभ्यां नमः मुखे, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवताभ्यां नमः हृदि, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। कर-न्यास (अंग-न्यास)ः- ऐं अंगुष्ठभ्यां नमः (हृदयाय नमः), ऐं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा), ऐं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्), ऐं अनामिकाभ्यां हुं (कवचाय हुं), ऐं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् (नेत्र त्रयाय वौषट्), ऐं करतल-करपृष्ठाभ्यां फट् (अस्त्राय फट्)। ध्यानः- उद्यानस्यैक-वृक्षाधः, परे हैमवते द्विज- क्रीडन्तीं भूषितां गौरीं, शुक्ल-वस्त्रां शुचि-स्मिताम्। देव-दारु-वने तत्र, ध्यान-स्तिमित-लोचनम्।। चतुर्भुजं त्रि-नेत्रं च, जटिलं चन्द्र-शेखरम्। शुक्ल-वर्णं महा-देवं, ध्याये परममीश्वरम्।। मानस पूजनः- लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं समर्पयामि नमः। हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं समर्पयामि नमः। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं घ्रापयामि नमः। रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं दर्शयामि नमः। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि नमः। शं शक्ति-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि नमः। शक्ति-शिवात्मक मन्त्रः- “ॐ ऐं गौरि, वद वद गिरि परमैश्वर्य-सिद्ध्यर्थं ऐं। सर्वज्ञ-नाथ, पार्वती-पते, सर्व-लोक-गुरो, शिव, शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि। पालय, ज्ञानं प्रदापय।” इस ‘शक्ति-शिवात्मक मन्त्र’ के पुरश्चरण की आवश्यकता नहीं है। केवल जप से ही अभीष्ट सिद्धि होती है। अतः यथाशक्ति प्रतिदिन जप कर जप फल देवता को समर्पित कर देना चाहिए।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...