Sunday, 10 March 2013

महाराज वैश्रवण कुबेर

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महाराज वैश्रवण कुबेर की उपासना से संबंधित मंत्र, यंत्र, ध्यान एवं उपासना आदि की सारी प्रक्रियाएं श्रीविद्यार्णव, मन्त्रमहार्णव, मन्त्रमहोदधि, श्रीतत्वनिधि तथा विष्णुधर्मोत्तरादि पुराणों में निर्दिष्ट हैं। तदनुसार इनके अष्टाक्षर, षोडशाक्षर तथा पंचत्रिंशदक्षरात्मक छोटे−बड़े अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं। मंत्रों के अलग−अलग ध्यान भी निर्दिष्ट हैं। इनके एक मुख्य ध्यान−श्लोक में इन्हें मनुष्यों के द्वारा पालकी पर अथवा श्रेष्ठ पुष्पक विमान पर विराजित दिखाया गया है। इनका वर्ण गारुडमणि या गरुणरत्न के समान दीप्तिमान पीतवर्णयुक्त बताया गया है और समस्त निधियां इनके साथ मूर्तिमान होकर इनके पार्श्वभाग में निर्दिष्ट हैं। ये किरीट−मुकुटादि आभूषणों से विभूषित हैं।
इनके एक हाथ में श्रेष्ठ गदा तथा दूसरे हाथ में धन प्रदान करने की वरमुद्रा सुशोभित है। ये उन्नत उदरयुक्त स्थूल शरीर वाले हैं। ऐसे भगवान शिव के परम सुहृद भगवान कुबेर का ध्यान करना चाहिए−
कुबेर का ध्यान यह मंत्र पढ़कर लगाएं−
मनुजवाहम्विमानवरस्थितं गरुडरत्ननिभं निधिनायकम्।
शिवसखं मुकुटादिविभूषितं वरगदे दधतं भज तुन्दिलम्।।

मंत्र महार्णव तथा मंत्र महोदधि आदि में निर्दिष्ट महाराज कुबेर के कुछ मंत्र इस प्रकार हैं−
1. अष्टाक्षरमंत्र− ओम वैश्रवणाय स्वाहा।
2. षोडशाक्षरमंत्र− ओम श्री ओम ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः।
3. पंचत्रिंशदक्षरमंत्र− ओम यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।

इसी प्रकार वहां बालरक्षाकर मंत्र−यंत्र भी निर्दिष्ट हैं, जिसमें 'अया ते अग्ने समिधा' आदि का प्रयोग होता है। यह मंत्र बालकों के दीर्घायुष्य, आरोग्य, नैरुज्यादि के लिए बहुत उपयोगी है। इस प्रकार बालकों के आरोग्य लाभ के लिए भी भगवान कुबेर की उपासना विशेष फलवती होती है। प्रायरू सभी यज्ञ−यागादि, पूजा−उत्सवों तथा दस दिक्पालों के पूजन में उत्तर दिशा के अधिपति के रूप में कुबेर की विधिपूर्वक पूजा होती है। यज्ञ−यागादि तथा विशेष पूजा आदि के अंत में षोडशोपचार पूजन के अनन्तर आर्तिक्य और पुष्पांजलि का विधान होता है। पुष्पांजलि में तथा राजा के अभिषेक के अंत में 'ओम राजाधिराजाय प्रसह्म साहिने' इस मंत्र का विशेष पाठ होता है, जो महाराज कुबेर की ही प्रार्थना का मंत्र है। महाराज कुबेर राजाओं के भी अधिपति हैं, धनों के स्वामी हैं, अतः सभी कामना फल की वृष्टि करने में वैश्रवण कुबेर ही समर्थ हैं।
व्रतकल्पद्रुम आदि व्रत ग्रंथों में कुबेर के उपासक के लिए फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी से वर्ष भर प्रतिमास शुक्ल त्रयोदशी को कुबेर व्रत करने के अनेक विधान निर्दिष्ट हैं। इससे उपासक धनाढ्य तथा सुख−समृद्धि से संपन्न हो जाता है और परिवार में आरोग्य प्राप्त होता है। सारांश में कहा जा सकता है कि कुबेर की उपासना ध्यान से मनुष्य का दुःख दारिद्रय दूर होता है और अनन्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। शिव के अभिन्न मित्र होने से कुबेर के भक्त की सभी आपत्तियों से रक्षा होती है और उनकी कृपा से साधक में आध्यात्मिक ज्ञान−वैराग्य आदि के साथ उदारता, सौम्यता, शांति तथा तृप्ति आदि सात्विक गुण भी स्वाभाविक रूप से संनिविष्ट हो जाते हैं।

मंगली दोष का ज्योतिषीय आधार

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मंगली दोष का ज्योतिषीय आधार

मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है.इसे पाप ग्रह माना जाता है. विवाह और वैवाहिक जीवन में मंगल का अशुभ प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है. मंगल दोष जिसे मंगली के नाम से जाना जाता है इसके कारण कई स्त्री और पुरूष आजीवन अविवाहित ही रह जाते हैं.इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है ताकि इसका भय दूर हो सके.
वैदिक ज्योतिष में मंगल को लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में दोष पूर्ण माना जाता है.इन भावो में उपस्थित मंगल वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है.जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ जितने क्रूर ग्रह बैठे हों मंगल उतना ही दोषपूर्ण होता है जैसे दो क्रूर होने पर दोगुना, चार हों तो चार चार गुणा.मंगल का पाप प्रभाव अलग अलग तरीके से पांचों भाव में दृष्टिगत होता है

जैसे: लग्न भाव में मंगल (Mangal in Ascendant ) लग्न भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है.लग्न भाव में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है.यह मंगल हठी और आक्रमक भी बनाता है.इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है.सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है.अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है.

द्वितीय भाव में मंगल (Mangal in Second Bhava) भवदीपिका नामक ग्रंथ में द्वितीय भावस्थ मंगल को भी मंगली दोष से पीड़ित बताया गया है.यह भाव कुटुम्ब और धन का स्थान होता है.यह मंगल परिवार और सगे सम्बन्धियों से विरोध पैदा करता है.परिवार में तनाव के कारण पति पत्नी में दूरियां लाता है.इस भाव का मंगल पंचम भाव, अष्टम भाव एवं नवम भाव को देखता है.मंगल की इन भावों में दृष्टि से संतान पक्ष पर विपरीत प्रभाव होता है.भाग्य का फल मंदा होता है.

चतुर्थ भाव में मंगल (Mangal in Fourth Bhava) चतुर्थ स्थान में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है.यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है.मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है.मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है.मंगली दोष के कारण पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ जाती है और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है.यह मंगल जीवनसाथी को संकट में नहीं डालता है.

सप्तम भाव में मंगल (Mangal in Seventh Bhava) सप्तम भाव जीवनसाथी का घर होता है.इस भाव में बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है.इस भाव में मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है.जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है.यह मंगल लग्न स्थान, धन स्थान एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है.मंगल की दृष्टि के कारण आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की संभावना बनती है.यह मंगल चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेत्तर सम्बन्ध भी बनाता है.संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है.मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण पति पत्नी में दूरियां बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं.जन्मांग में अगर मंगल इस भाव में मंगली दोष से पीड़ित है तो इसका उपचार कर लेना चाहिए.

अष्टम भाव में मंगल (Mangal in Eigth Bhava) अष्टम स्थान दुख, कष्ट, संकट एवं आयु का घर होता है.इस भाव में मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है.अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है.जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है.धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है.रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है.ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है.इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है.मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।

द्वादश भाव में मंगल (Mangal in Twelth Bhava) कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है.इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है.इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है.धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है.अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है..

दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति

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दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति

1)
प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए |

2)
दूसरा अध्याय- मुकदमे,झगडे आदि मे विजय पाने के लिए |

3)
तीसरा अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिए |

4)
चतुर्थ व पंचम अध्याय- भक्ति,शक्ति तथा दर्शन के लिए |

5)
छठा अध्याय- डर,शक बाधा हटाने के लिए |

6)
सप्तम अध्याय-हर कामना पूर्ण करने के लिए |

7)
अष्टम अध्याय-मिलाप व वशीकरण करने के लिए |

8)
नवम व दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश एवं पुत्र प्राप्ति के लिए |

9)
एकादश अध्याय- व्यापार व सुख संपती के लिए |

10)
द्वादश अध्याय-मान सम्मान व लाभ के लिए|

11)
त्रियोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिए |

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...