Monday 23 August 2021

तंत्र की देवी "सिद्धविद्या महातारा"

"सिद्धविद्या महातारा"
सृष्टि की उत्तपत्ति से पहले घोर अन्धकार था, तब न तो कोई तत्व था न ही कोई शक्ति थी, केवल एक अन्धकार का साम्राज्य था, इस परलायाकाल के अन्धकार की देवी थी काली, उसी महाअधकार से एक प्रकाश का बिन्दु प्रकट हुआ जिसे तारा कहा गया, यही तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरुष की शक्ति है, ब्रहमांड में जितने धधकते पिंड हैं सभी की स्वामिनी उत्तपत्तिकर्त्री तारा ही हैं, जो सूर्य में प्रखर प्रकाश है उसे नीलग्रीव कहा जाता है, यही नील ग्रीवा माँ तारा हैं, सृष्टि उत्तपत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई, दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है, देवी के तीन प्रमुख रूप हैं १)उग्रतारा २)एकाजटा और ३)नील सरस्वती..........देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं १)परा २)परात्परा ३)अतीता ४)चित्परा ५)तत्परा ६)तदतीता ७)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है, देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय ज्योतिष, अंक ज्योतिष
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मुजफ्फरनगर UP

देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है ।

देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है 
देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है 
अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है 
भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है 
देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये है 
देवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है 
देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवान 
सृष्टि की उतपाती एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है
ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है 
शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है 
देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है 

स्तुति 
प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा 
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता 
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं,

 
देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है 
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए 
देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं 
लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न
देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता
देवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश होता है।
ॐ रां रामाय नमः
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देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है।

देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है।
श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र 
ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट
इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे 
1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है 
2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है 
3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है।
4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।
देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्र 
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"1"
विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है 
सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना 
रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना 
अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना 
सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना 
भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना 
दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं 
पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें 
सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम: 

१)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट
२)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट 
३)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं 
सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए 
सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें 
यन्त्र के पूजन की रीति है-
पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं 
ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें 
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है 
यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें 
तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं 
तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-

तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी,
तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा,
तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी,
उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा,
देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें 
अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र 
1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र
ॐ त्रीम ह्रीं हुं 
नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें
पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है 
नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें 
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें 
आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं 
2) शत्रु नाशक मंत्र
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट 
नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें
गुड से हवन करें 
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है 
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें 
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें 
पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
3) जादू टोना नाशक मंत्र
ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट 
देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं
कपूर से देवी की आरती करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
4) लम्बी आयु का मंत्र
ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट 
रोज सुबह पौधों को पानी दें 
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है 
भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें 
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें 
सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
5) सुरक्षा कवच का मंत्र
ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट 
देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें
मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें
किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है 
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें 
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें 
केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना "अक्षोभ ऋषि" की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें 
किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें 
साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारें 
देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें
टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें।
ॐ रां रामाय नमः
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श्रीशरभेश्वर मन्त्र विधान

श्रीशरभेश्वर मन्त्र विधान
विनियोग- ॐ अस्य श्रीशरभेश्वर मन्त्रेश्वर कालाग्नि-रुद्रः ऋषिः जगती छंदः श्री शरभो देवता ॐ खँ बीजं, स्वाहा शक्तिः फट् कीलक मम कार्य सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास- ॐ कालाग्नि-रुद्रः ऋषये नमः शिरसि। ॐ अति जगती छन्दसे नमः मुखे। श्री शरभो देवतायै नमः हृदये। ॐ खं बीजाय नमः गुह्ये। स्वाहा शक्तये नमः पादयो। विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
कर-न्यास- ॐ खें खां अं कं खं गं घं ङं आं अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ खं फट् इं चं छं जं झं ञं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ सर्वशत्रु संहारणाय एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ शरभ-शालुवाय ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास- ॐ खें खां अं कं खं गं घं ङं आं हृदयाय नमः। ॐ खं फट् इं चं छं जं झं ञं शिरसे स्वाहा। ॐ प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् उं टं ठं डं ढं णं ऊं शिखायै वषट्। ॐ सर्वशत्रु संहारणाय एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुम्। ॐ शरभ-शालुवाय ओं पं फं बं भं मं औं नेत्र त्रयाय वोषट्। ॐ पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट्।
ध्यानम्-
चन्द्रार्काग्निस्त्रि-दृष्टिः कुलिश-वर-नखश्चञ्चलोत्युग्र-जिह्वः।
कालि-दुर्गा च पक्षौ हृदय जठरगो भैरवो वाडवाग्निः।।
ऊरुस्थौ व्याधि-मृत्यू शरभ-वर-खगश्चण्ड-वाताति-योगः।
संहर्त्ता सर्व-शत्रून् स जयति शरभः शालुवः पक्षिराजः।।१
मृगस्त्वर्ध-शरीरेण पक्षाभ्यां चञ्चुना द्विजः,
अधो-वक्त्रश्चतुष्पाद ऊर्ध्व-वक्त्रश्चतुर्भुजः।
कालाग्नि-दहनोपेतो नील-जीमूत-सन्निभः,
अरिस्तद्-देशनादेव विनष्ट-बल-विक्रमः।।२
सटा-छटोग्र-रुपाय पक्ष-विक्षिप्त-भूभृते,
अष्ट-पादाय रुद्राय नमः शरभ-मूर्तये।।३
श्री शरभेश्वर मन्त्र

१॰ “ॐ खें खां खं फट् प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् सर्वशत्रु संहारणाय शरभशालुवाय पक्षिराजाय हुं फट् स्वाहा।” (द्विचत्वारिंशदक्षर-शरभ तन्त्र)
२॰ “ॐ नमोऽष्टपादाय सहस्त्रबाहवे द्विशिरसे त्रिनेत्राय द्विपक्षायाग्नि वर्णाय मृगविह्ङ्गरुपाय वीर शरभेश्वराय ॐ।”
इनमें से किसी एक मन्त्र का जप करें।
पुरश्चरण-
अनुष्ठान से पुर्व पुरश्चरण भी विहित है, इसकी दो विधियां है-
१॰ यह नौ दिन में हो सकता है। इसमें पहले दिन पूर्वाङ्ग तथा अन्तिम एक दिन उत्तराङ्ग का हो। बीच में सात दिन ७-७ बार पाठ करें।
२॰ यह आठ दिन में भी हो सकता है। स्तोत्र के आठ दिन तक आठ-आठ पाठ नित्य रात्रि में करे। आठ दिन में मन्त्र के जप ११ हजार कर लें।
शरभेश्वर के अन्य मन्त्र
१॰ एक-चत्वारिंशदक्षरः
“ॐ खं खां खं फट् शत्रून् ग्रससि ग्रससि हुं फट् सर्वास्त्र-संहारणाय शरभाय पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा नमः।” (मेरु-तन्त्र)
ऋषि वासुदेव, छन्द जगती, देवता कालाग्नि-रुद्र शरभ, बीज ‘खं’, शक्ति ‘स्वाहा’। मन्त्र के ४, ९, १०, ७, ५, ६ अक्षरों से षडङ्ग-न्यास। समस्त मन्त्र से दिग्-बन्धन कर ध्यान करें-
विद्युज्जिह्वं वज्र-नखं वडवाग्न्युदरं तथा,
व्याधि-मृत्यु-रिपुघ्नं चण्ड-वाताति-वेगिनम्।
हृद्-भैरव-स्वरुपं च वैरि-वृन्द-निषूदनं,
मृगेन्द्र-त्वक्छरीरेऽस्य पक्षाभ्यां चञ्चुना रवः।
अधो-वक्त्रश्चतुष्पाद ऊर्ध्व-दृष्टिश्चतुर्भुजः,
कालान्त-दहन-प्रख्यो नील-जीमूत-नीःस्वन्।
अरिर्यद्-दर्शनादेव विनष्ट-बल-विक्रमः,
सटा-क्षिप्त-गृहर्क्षाय पक्ष-विक्षिप्त-भूभृते।
अष्ट-पादाय रुद्राय नमः शरभ-मूर्तये।।
पुरश्चरण में एक हजार जप कर पायस से प्रतिदिन छः मास तक दशांश होम करे।

श्री कालभैरवाष्टकम्

श्री कालभैरवाष्टकम् ||
दॆवराज सॆव्यमान पावनाङ्घ्रि पङ्कजं
व्यालयज्ञ सूत्रमिन्दु शॆखरं कृपाकरम् ।
नारदादि यॊगिबृन्द वन्दितं दिगम्बरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 1 ॥
भानुकॊटि भास्वरं भवब्धितारकं परं
नीलकण्ठ मीप्सितार्ध दायकं
त्रिलॊचनम् ।
कालकाल मम्बुजाक्ष मस्तशून्य मक्षरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 2 ॥
शूलटङ्क पाशदण्ड पाणिमादि कारणं
श्यामकाय मादिदॆव मक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्र ताण्डव प्रियं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 3 ॥
भुक्ति मुक्ति दायकं प्रशस्तचारु विग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलॊक विग्रहम् ।
निक्वणन्-मनॊज्ञ हॆम किङ्किणी लसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 4 ॥
धर्मसॆतु पालकं त्वधर्ममार्ग नाशकं
कर्मपाश मॊचकं सुशर्म दायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्ण कॆशपाश शोभिताङ्ग निर्मलं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 5 ॥
रत्न पादुका प्रभाभिराम पादयुग्मकं
नित्य मद्वितीय मिष्ट दैवतं निरञ्जनम् ।
मृत्युदर्प नाशनं करालदंष्ट्र भूषणं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 6 ॥
अट्टहास भिन्न पद्मजाण्डकॊश सन्ततिं
दृष्टिपात नष्टपाप जालमुग्र शासनम् ।
अष्टसिद्धि दायकं कपालमालिका धरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 7 ॥
भूतसङ्घ नायकं विशालकीर्ति दायकं
काशिवासि लॊक पुण्यपाप शॊधकं विभुम् ।
नीतिमार्ग कॊविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ॥ 8 ॥
कालभैरवाष्टकं पठन्ति यॆ मनॊहरं
ज्ञानमुक्ति साधकं विचित्र पुण्य वर्धनम् ।
शॊकमॊह लॊभदैन्य कॊपताप नाशनं
तॆ प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रि सन्निधिं ध्रुवम् ॥

शत्रु नाशक प्रमाणिक प्रयोग

शत्रु नाशक प्रमाणिक प्रयोग
शत्रु-बाधा निवारक ‘दारूण-सप्तक’ 
जब हिरण्यकश्यप को भगवान् नृसिंह ने अपनी गोद में रखकर अपने खर-तर नखों से उसके उदर को सर्वथा विदीर्ण कर चीर दिया और प्रह्लाद का दुःख दूर हो गया । तदनन्तर श्री भगवान् नृसिंह का वह क्रोध शान्त न हुआ, तब भगवान् विष्णु के आग्रह पर भगवान् रुद्र ने श्री शरभेश्वर (पक्षिराज, पक्षीन्द्र, पंखेश्वर) का रुप धारण कर, अपनी लौह के समान कठिन त्रोटी (चोंच) से, नृसिंह देव के ब्रह्म-रन्ध्र को विदीर्ण कर दिया, जिससे वे पुनः शान्त हो गए ।
संक्षिप्त अनुष्ठान विधि-
स्वस्तिवाचन करके गुरु एवं गणपति पूजन करें। संकल्प करके श्री भैरव की पूजा करें- दक्षिण दिशा में मुख रखें। काले कम्बल का आसन प्रयुक्त करें। दो दीप रखें-एक घृत का देवता के दाँये और दूसरा सरसों के तेल का अथवा करंज का देवता के बाँये रखें। आकाश भैरव शरभ का चित्र मिल जाए तो सर्वोत्तम है, अन्यथा एक रक्तवर्ण वस्त्र पर गेहूँ की ढेरी लगाएँ, उस पर जल से पूर्ण ताम्र कलश रखें। उसपर श्रीफल रखकर शरभ भैरव का आवाहन, ध्यान एवं षोडशोपचार पूजन करे। नैवेद्य लगाएं और जप पाठ शुरु करें।
इसके दो प्रकार के पाठ हैं-
१॰ स्तोत्र पाठ, १०८ बार मन्त्र जप एवं पुनः स्तोत्र पाठ।
२॰ १०८ बार मन्त्र जप, ७ बार स्तोत्र पाठ और पुनः १०८ बार मन्त्र जप। फल-श्रुति के अनुसार आदित्यवार से मंगलवार तक रात्रि में दस बार पढ़ने से शत्रु-बाधा दूर हो जाती है।
हवन, तर्पण, मार्जन एवं ब्रह्मभोज दशांश क्रम से करें, संभव न हो तो इसके स्थान पर पाठ एवं जप अधिक संख्या में करें।
निग्रह दारुण सप्तक स्तोत्र या शरभेश्वर स्तोत्र
विनियोग- ॐ अस्य दारुण-सप्तक-महामन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषिः वृहती छन्सः श्री शरभो देवता ममाभीष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यास- श्रीसदाशिव ऋषये नमः शिरसि। वृहती छन्दसे नमः मुखे। श्रीशरभ-देवतायै नमः हृदि। ममाभिष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।
।। मूल स्तोत्र ।।
कापोद्रेकाऽति वीर्यं निखिल-परिकरं तार-हार-प्रदीप्तम्।
ज्वाला-मालाग्निदश्च स्मर-तनु-सकलं त्वामहं शालु-वेशं।।
याचे त्वत्पाद्-पद्म-प्रणिहित-मनसं द्वेष्टि मां यः क्रियाभिः।
तस्य प्राणावसानं कुरु शिव ! नियतं शूल-भिन्नस्य तूर्णम्।।१
शम्भो ! त्वद्धस्त-कुन्त-क्षत-रिपु-हृदयान्निस्स्त्रवल्लोहितौघम्।
पीत्वा पीत्वाऽति-दर्पं दिशि-दिशि सततं त्वद्-गणाश्चण्ड-मुख्याः।।
गर्ज्जन्ति क्षिप्र-वेगा निखिल-भय-हराः भीकराः खेल-लोलाः।
सन्त्रस्त-ब्रह्म-देवा शरभ खग-पते ! त्राहि नः शालु-वेश ! ।।२
सर्वाद्यं सर्व-निष्ठं सकल-भय-हरं नानुरुप्यं शरण्यम्।
याचेऽहं त्वाममोघं परिकर-सहितं द्वेष्टि योऽत्र स्थितं माम्।।
श्रीशम्भो ! त्वत्-कराब्ज-स्थित-मुशल-हतास्तस्य वक्ष-स्थलस्थ-
प्राणाः प्रेतेश-दूत-ग्रहण-परिभवाऽऽक्रोश-पूर्वं प्रयान्तु।।३
द्विष्मः क्षोण्यां वयं हि तव पद-कमल-ध्यान-निर्धूत-पापाः।
कृत्याकृत्यैर्वियुक्ताः विहग-कुल-पते ! खेलया बद्ध-मूर्ते ! ।।
तूर्णं त्वद्धस्त-पद्म-प्रधृत-परशुना खण्ड-खण्डी-कृताङ्गः।
स द्वेष्टी यातु याम्यं पुरमति-कलुषं काल-पाशाग्र-बद्धः।।४
भीम ! श्रीशालुवेश ! प्रणत-भय-हर ! प्राण-हृद् दुर्मदानाम्।
याचे-पञ्चास्य-गर्व-प्रशमन-विहित-स्वेच्छयाऽऽबद्ध-मूर्ते ! ।।
त्वामेवाशु त्वदंघ्य्रष्टक-नख-विलसद्-ग्रीव-जिह्वोदरस्य।
प्राणोत्क्राम-प्रयास-प्रकटित-हृदयस्यायुरल्पायतेऽस्य।।५
श्रीशूलं ते कराग्र-स्थित-मुशल-गदाऽऽवर्त-वाताभिघाता-
पाताऽऽघातारि-यूथ-त्रिदश-रिपु-गणोद्भूत-रक्तच्छटार्द्रम्।।
सन्दृष्ट्वाऽऽयोधने ज्यां निखिल-सुर-गणाश्चाशु नन्दन्तु नाना-
भूता-वेताल-पुङ्गाः क्षतजमरि-गणस्याशु मत्तः पिवन्तु।।६
त्वद्दोर्दण्डाग्र-शुण्डा-घटित-विनमयच्चण्ड-कोदण्ड-युक्तै-
र्वाणैर्दिव्यैरनेकैश्शिथिलित-वपुषः क्षीण-कोलाहलस्य।।
तस्य प्राणावसानं परशिव ! भवतो हेति-राज-प्रभावै-
स्तूर्णं पश्यामियो मां परि-हसति सदा त्वादि-मध्यान्त-हेतो।।७
।। फल-श्रुति ।।
इति निशि प्रयतस्तु निरामिषो, यम-दिशं शिव-भावमनुस्मरन्।
प्रतिदिनं दशधाऽपि दिन-त्रयं, जपति यो ग्रह-दारुण-सप्तकम्।।८
इति गुह्यं महाबीजं परमं रिपुनाशनम्।
भानुवारं समारभ्य मंगलान्तं जपेत् सुधीः।।९
।। इत्याकाश भैरव कल्पे प्रत्यक्ष सिद्धिप्रदे नरसिंह कृता शरभस्तुति ।।

श्रीशरभेश्वर मन्त्र विधान
विनियोग- ॐ अस्य श्रीशरभेश्वर मन्त्रेश्वर कालाग्नि-रुद्रः ऋषिः जगती छंदः श्री शरभो देवता ॐ खँ बीजं, स्वाहा शक्तिः फट् कीलक मम कार्य सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास- ॐ कालाग्नि-रुद्रः ऋषये नमः शिरसि। ॐ अति जगती छन्दसे नमः मुखे। श्री शरभो देवतायै नमः हृदये। ॐ खं बीजाय नमः गुह्ये। स्वाहा शक्तये नमः पादयो। विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
कर-न्यास- ॐ खें खां अं कं खं गं घं ङं आं अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ खं फट् इं चं छं जं झं ञं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ सर्वशत्रु संहारणाय एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ शरभ-शालुवाय ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास- ॐ खें खां अं कं खं गं घं ङं आं हृदयाय नमः। ॐ खं फट् इं चं छं जं झं ञं शिरसे स्वाहा। ॐ प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् उं टं ठं डं ढं णं ऊं शिखायै वषट्। ॐ सर्वशत्रु संहारणाय एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुम्। ॐ शरभ-शालुवाय ओं पं फं बं भं मं औं नेत्र त्रयाय वोषट्। ॐ पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट्।
ध्यानम्-
चन्द्रार्काग्निस्त्रि-दृष्टिः कुलिश-वर-नखश्चञ्चलोत्युग्र-जिह्वः।
कालि-दुर्गा च पक्षौ हृदय जठरगो भैरवो वाडवाग्निः।।
ऊरुस्थौ व्याधि-मृत्यू शरभ-वर-खगश्चण्ड-वाताति-योगः।
संहर्त्ता सर्व-शत्रून् स जयति शरभः शालुवः पक्षिराजः।।१
मृगस्त्वर्ध-शरीरेण पक्षाभ्यां चञ्चुना द्विजः,
अधो-वक्त्रश्चतुष्पाद ऊर्ध्व-वक्त्रश्चतुर्भुजः।
कालाग्नि-दहनोपेतो नील-जीमूत-सन्निभः,
अरिस्तद्-देशनादेव विनष्ट-बल-विक्रमः।।२
सटा-छटोग्र-रुपाय पक्ष-विक्षिप्त-भूभृते,
अष्ट-पादाय रुद्राय नमः शरभ-मूर्तये।।३
श्री शरभेश्वर मन्त्र

१॰ “ॐ खें खां खं फट् प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् सर्वशत्रु संहारणाय शरभशालुवाय पक्षिराजाय हुं फट् स्वाहा।” (द्विचत्वारिंशदक्षर-शरभ तन्त्र)
२॰ “ॐ नमोऽष्टपादाय सहस्त्रबाहवे द्विशिरसे त्रिनेत्राय द्विपक्षायाग्नि वर्णाय मृगविह्ङ्गरुपाय वीर शरभेश्वराय ॐ।”
इनमें से किसी एक मन्त्र का जप करें।
पुरश्चरण-
अनुष्ठान से पुर्व पुरश्चरण भी विहित है, इसकी दो विधियां है-
१॰ यह नौ दिन में हो सकता है। इसमें पहले दिन पूर्वाङ्ग तथा अन्तिम एक दिन उत्तराङ्ग का हो। बीच में सात दिन ७-७ बार पाठ करें।
२॰ यह आठ दिन में भी हो सकता है। स्तोत्र के आठ दिन तक आठ-आठ पाठ नित्य रात्रि में करे। आठ दिन में मन्त्र के जप ११ हजार कर लें।
शरभेश्वर के अन्य मन्त्र
१॰ एक-चत्वारिंशदक्षरः
“ॐ खं खां खं फट् शत्रून् ग्रससि ग्रससि हुं फट् सर्वास्त्र-संहारणाय शरभाय पक्षि-राजाय हुं फट् स्वाहा नमः।” (मेरु-तन्त्र)
ऋषि वासुदेव, छन्द जगती, देवता कालाग्नि-रुद्र शरभ, बीज ‘खं’, शक्ति ‘स्वाहा’। मन्त्र के ४, ९, १०, ७, ५, ६ अक्षरों से षडङ्ग-न्यास। समस्त मन्त्र से दिग्-बन्धन कर ध्यान करें-
विद्युज्जिह्वं वज्र-नखं वडवाग्न्युदरं तथा,
व्याधि-मृत्यु-रिपुघ्नं चण्ड-वाताति-वेगिनम्।
हृद्-भैरव-स्वरुपं च वैरि-वृन्द-निषूदनं,
मृगेन्द्र-त्वक्छरीरेऽस्य पक्षाभ्यां चञ्चुना रवः।
अधो-वक्त्रश्चतुष्पाद ऊर्ध्व-दृष्टिश्चतुर्भुजः,
कालान्त-दहन-प्रख्यो नील-जीमूत-नीःस्वन्।
अरिर्यद्-दर्शनादेव विनष्ट-बल-विक्रमः,
सटा-क्षिप्त-गृहर्क्षाय पक्ष-विक्षिप्त-भूभृते।
अष्ट-पादाय रुद्राय नमः शरभ-मूर्तये।।
पुरश्चरण में एक हजार जप कर पायस से प्रतिदिन छः मास तक दशांश होम करे।
२॰ गायत्रीः
“ॐ पक्षि-शाल्वाय विद्महे वज्र-तुण्डाय धीमहि तन्नः शरभः प्रचोदयात् ॐ” (शरभ-तन्त्र)
“ॐ पक्षि-राजाय विद्महे शरभेश्वराय धीमहि तन्नो शरभः प्रचोदयात्” (शरभ-पटल)
३॰ अष्टोत्तर-शताक्षर माला-मन्त्र

“ॐ नमो भगवते शरभाय शाल्वाय सर्व-भूतोच्चाटनाय ग्रह-राक्षस-निवारणाय ज्वाला-माला-स्वरुपाय दक्ष-निष्काशनाय साक्षाद् काल-रुद्र-स्वरुपाष्ट-मूर्तये कृशानु-रेतसे महा-क्रूर-भूतोच्चाटनाय अप्रति-शयनाय शत्रून् नाशय नाशय शत्रु-पशून् गृह्ण गृह्ण खाद खाद ॐ हुं फट् स्वाहा।” (मेरु-तन्त्र)
प्रतिदिन १०८ बात छः मास तक जपने से उक्त मन्त्र सिद्ध होता है। उसके बाद पात्र में पवित्र जल रखकर सात बार उसे अभिमन्त्रित करे। इसके पीने से एक सप्ताह में सब प्रकार के ज्वर शान्त होते हैं।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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मुजफ्फरनगर UP

Saturday 21 August 2021

श्री राम दुर्गम स्तोत्रं

श्री राम दुर्गम स्तोत्रं
सभी प्रकार की किसी भी लौकिक अलौकिक बाधा को दूर करने में श्री राम दुर्गम का अचूक प्रभाव है सभी प्रकार की कामनाओ की भी पूर्ति करता है शत्रुओ से रक्षा होती है नित्य कम  से कम २१ पाठ करे । 

विनियोगः ॐ अस्य श्री राम दुर्गस्य् विश्वामित्र ऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्री रामो देवता श्री राम प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । 

श्री रामो रक्षतु प्राच्यां रक्षेदयाम्यां च लक्ष्मणः । प्रतीच्यां भरतो रक्षेद उदीच्यां शत्रु मर्दनः ॥१ ॥  
ईशान्यां जानकी रक्षेद आग्नेयाम रविनन्दनः । विभीषणस्तु नैऋत्यां वायव्यां वायुनन्दनः ॥२ ॥  
ऊर्ध्वं रक्षेन्महाविष्णुर्मध्यं रक्षेन्नृकेशरी । अधस्तु वामनः पातु सर्वतः पातु केशवः ॥ ३ ॥ 
सर्वतः कपिसेनाद्यैः सदा मर्कटनायकः । चतुर्द्वारं सदा रक्षेदच्चतुर्भिः कपिपुंगवैः ॥ ४॥ 
श्री रामाख्यं महादुर्गं विश्वामित्रकृतं शुभम । यः स्मरेद भय काले तु सर्व शत्रु विनाशनम ॥ ५ ॥ 
रामदुर्गं पठेद भक्त्या सर्वोपद्रवनाशनं । सर्वसम्पदप्रदम् नृणां च गच्छेद वैष्णव पदं ॥ ६ ॥ 

इति  श्री रामदुर्गं सम्पूर्णम ॥

कलिकाल की अधिष्ठात्री माँ महालक्ष्मी है |

"सर्वे गुणा काञ्चन मा श्रयन्तु " 
कलिकाल की अधिष्ठात्री माँ महालक्ष्मी है | लोकउक्ति अनुसार जिन पर माँ महालक्ष्मी की पूर्ण कृपा हो वो स्वतः सभी गुणो से युक्त माना जाता है | लक्ष्मी की कृपा को सभी लौकिक सामर्थ्य ओर सुखकारी का पर्याय माना जाता है | आध्यात्मिक संपदा ओर मनोनिग्रह अलग विषय है | भौतिक जगत मे लक्ष्मीवान होना ही सभी सुख समृद्धि सामर्थ्य का पर्याय देखा जाता है |
माँ महालक्ष्मी का प्रागट्य समुद्र मंथन से हुआ था |
माँ महालक्ष्मी को अनेकों रूप स्वरूप मे आराधित किया जाता रहा है |
मुख्यतः अष्ट लक्ष्मी का आराधन आदिकाल से प्रचलित है| जो समस्त सुखाकारी वैभव संपदा सामर्थ्य का पर्याय बन जाता है |
वैदिक काल से मनुष्य लक्ष्मीवान बने रहेने को लालायित रहा है | कुछ आध्यात्मिक ओर सात्विक मार्ग का अनुसरण करते है तो कुछ तांत्रिक मांत्रिक यंत्र ओर टोटके से समृद्धि की कामना पुष्ट करते रहे है |
वेसे तो प्रारब्ध अनुसार ओर नीति संगत अर्चित सात्विक धन ही लक्ष्मी माना गया है | किन्तु कली प्रभाव से येनकेन प्रकार से भी बस धन की कामना पूर्ति को सभी उध्यमी दिखते है |
केवल सुवर्ण चाँदी या रूपिया पैसा ही धन नहीं ...!! धन को सीमित रूप मे देखा गया है | जब की देह की स्वास्थ्यता को प्रथम धन माना गया है, निरामय स्वस्थ पुष्ट तन भी संपदा है | साथ ही उपासना मार्ग मे लक्ष्मी के अष्ट स्वरूपो का निर्देश वर्णन ओर आराधन मिलता है | नित्य या पर्व विशेष पर गुरु आज्ञा अथवा कुलाचार प्रादेशिक मान्यता रीत रिवाजो से माँ महालक्ष्मी का आराधन हमारी जीवन प्रणाली मे समिलित देखा गया है |
 मुख्यतः श्रीयंत्र ,  श्रीसूक्त , अष्टलक्ष्मी स्तोत्र , कल्याण वृष्टि स्तोत्र , कनकधारा स्तोत्र जेसे सहज ओर शिग्र फल दायक स्तोत्रावली से आराधन मार्ग प्रसस्त है |
माँ महालक्ष्मी की शिग्र कृपा प्राप्ति हेतु आराधन मे सहायक श्रीयंत्र , कुबेर ,दक्षिणावर्ती शंख ,सियाल सिंगी , मोती , कमल , कमलकट्टा ,सिंधुर ,काली हल्दी,घोड़े की नाल , सिद्ध वनस्पति खास द्रव्य ओर गुरु पुष्यामृत -रवि पुष्यामृत जेसे सिद्ध योग ,खास नक्षत्र , दिवस वार आदि का शास्त्र आज्ञा अथवा गुरु आज्ञा अनुसार अनुभवो के आधार पर प्रयोजन होता रहा है |
मुख्यतः भाव की शुद्धि सात्विक्ता हो तो पवित्र अनुष्ठान तुरंत फल दायक बनते है | 
.. अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम् ..
   .. आदिलक्ष्मी ..
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि
     चन्द्र सहोदरि हेममये .
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि
     मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ..
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित
     सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     आदिलक्ष्मि सदा पालय माम् .. १..

   .. धान्यलक्ष्मी ..
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि
     वैदिकरूपिणि वेदमये .
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि
     मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ..
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि
     देवगणाश्रित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. २..

  .. धैर्यलक्ष्मी ..
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि
     मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये .
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद
     ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ..
भवभयहारिणि पापविमोचनि
     साधुजनाश्रित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. ३..

   .. गजलक्ष्मी ..
जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि
     सर्वफलप्रद शास्त्रमये .
रथगज तुरगपदादि समावृत
     परिजनमण्डित लोकनुते ..
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित
     तापनिवारिणि पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम् .. ४..

   .. सन्तानलक्ष्मी ..
अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि
     रागविवर्धिनि ज्ञानमये .
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि
     स्वरसप्त भूषित गाननुते ..
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर
     मानववन्दित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम् .. ५..

   .. विजयलक्ष्मी ..
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि
     ज्ञानविकासिनि गानमये .
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर- 
     भूषित वासित वाद्यनुते ..
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित
     शङ्कर देशिक मान्य पदे .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     विजयलक्ष्मि सदा पालय माम् .. ६..

   .. विद्यालक्ष्मी ..
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि
     शोकविनाशिनि रत्नमये .
मणिमयभूषित कर्णविभूषण
     शान्तिसमावृत हास्यमुखे ..
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि
     कामित फलप्रद हस्तयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम् ..७..

   .. धनलक्ष्मी ..
धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि
     दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये .
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम
    शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ..
वेदपुराणेतिहास सुपूजित
     वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
     धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम् .. ८..

श्री सूक्त माता महालक्ष्मी की आराधना के दिव्य वेदमंत्र हैं l यह ऋग्वेद में है l धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी जी की शीग्र कृपा प्राप्ति के लिए ऋग्वेद में वर्णित श्रीसूक्त का पाठ एक ऐसी साधना है जो कभी व्यर्थ नहीं जाती है l महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए ही शास्त्रों में नवरात्रि, दीपावली या सामान्य दिनों में भी श्रीसूक्त के पाठ का महत्व और विधान बताया गया है l दरिद्रता और आर्थिंक तंगी से छुटकारे के लिए यह अचूक प्रभावकारी माना जाता है l
 माँ महालक्ष्मी के आह्वान एवं कृपा प्राप्ति के लिए श्रीसूक्त पाठ की विधि द्वारा आप बिना किसी विशेष व्यय के भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक माँ महालक्ष्मी की आराधना करके आत्मिक शांति एवं समृद्धि को स्वयं अनुभव कर सकते हैं। यदि संस्कृत में मंत्र पाठ संभव न हो तो हिंदी में ही पाठ करें। दीपावली पर्व पांच पर्वों का महोत्सव है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (धनतेरस) से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल द्वितीया (भैयादूज) तक पांच दिन चलने वाला दीपावली पर्व धन एवं समृद्धि प्राप्ति, व्यापार वृद्धि ऋण मुक्ति आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मनाया जाता है। 
श्रीसूक्त का पाठ धन त्रयोदशी से भैयादूज तक पांच दिन संध्या समय किया जाए तो अति उत्तम है। धन त्रयोदशी के दिन गोधूलि वेला में साधक स्वच्छ होकर पूर्वाभिमुख होकर सफेद आसन पर बैठें। अपने सामने लकड़ी की पटरी पर लाल अथवा सफेद कपड़ा बिछाएं। उस पर एक थाली में अष्टगंध अथवा कुमकुम (रोली) से स्वस्तिक चिह्न बनाएं। गुलाब के पुष्प की पत्तियों से थाली सजाएं, संभव हो तो कमल का पुष्प भी रखें। उस गुलाब की पत्तियों से भरी थाली में मां लक्ष्मी एवं विष्णु भगवान का चित्र अथवा मूर्ति रखें। साथ ही थाली में श्रीयंत्र, दक्षिणावर्ती शंख अथवा शालिग्राम में से जो भी वस्तु आपके पास उपलब्ध हो रक्खे। सुगंधित धूप अथवा गुलाब की अगरबत्ती जलाएं। थाली में शुद्ध गौ घी का एक दीपक भी जरूर जलाएं। खीर अथवा मिश्री का नैवेद्य रखें। तत्पश्चात् निम्नलिखित विधि से श्री सूक्त की ऋचाओं का पाठ करें। 
ऋग्वेद में बताया गया है कि यदि इन ऋचाओं का पाठ करते हुए शुद्ध गौ घी से हवन भी किया जाए तो इसका फल द्विगुणित होता है। सर्वप्रथम दाएं हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र से पूजन सामग्री एवं स्वयं पर छिड़कें। 
मंत्र:-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः।। 
अर्थ- पवित्र हो या अपवित्र अथवा किसी भी अवस्था में हे जो पुंडरीकाक्ष (विष्णु भगवान) का स्मरण करता है वह अंदर और बाहर से पवित्र हो जाता है। उसके बाद निम्न मंत्रों से तीन बार आचमन करें- श्री महालक्ष्म्यै नमः ऐं आत्मा तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा। 
अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं आत्मा तत्व को शुद्ध करता हूं। श्री महालक्ष्म्यै नमः ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं विद्या तत्व को शुद्ध करता हूं। श्री महालक्ष्म्यै नमः क्लीं शिव तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा अर्थ-श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं शिव तत्व को शुद्ध करता हूं। (तत्पश्चात् दाएं हाथ में चावल लेकर संकल्प करें।) 
हे मां लक्ष्मी, मैं समस्त लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीसूक्त माँ महालक्ष्मी जी की जो साधना कर रहा हूं, आपकी कृपा के बिना कुछ भी कहां संभव है। हे माता श्री लक्ष्मी, मुझ पर प्रसन्न होकर साधना के सफल होने का आशीर्वाद दें। (हाथ के चावल भूमि पर चढ़ा दें।) विनियोग करें (दाएं हाथ में जल लें।) 
मंत्रा:  
हिरण्यवर्णामिति पंषदषर्चस्य सूक्तस्य, श्री आनन्द, कर्दमचिक्लीत, इन्दिरासुता महाऋषयः। श्रीरग्निदेवता। आद्यस्तिस्तोनुष्टुभः चतुर्थी वृहती।
 पंचमी षष्ठ्यो त्रिष्टुभो, ततो अष्टावनुष्टुभः अन्त्याः प्रस्तारपंक्तिः। 
हिरण्यवर्णमिति बीजं, ताम् आवह जातवेद इति शक्तिः, 
कीर्ति ऋद्धि ददातु में इति कीलकम्। 
श्री महालक्ष्मी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। (जल भूमि पर छोड़ दें।) 
अर्थ- इस पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त के कर्दम और चिक्लीत ऋषि हैं अर्थात् प्रथम तंत्र की इंदिरा ऋषि है, आनंद कर्दम और चिक्लीत इंदिरा पुंज है और शेष चैदह मंत्रों के द्रष्टा हैं। प्रथम तीन ऋचाओं का अनुष्टुप, चतुर्थ ऋचा का वहती, पंचम व षष्ठ ऋचा का त्रिष्टुप एवं सातवीं से चैदहवीं ऋचा का अनुष्टुप् छंद है। 
पंद्रह व सोलहवीं ऋचा का प्रसार भक्ति छंद है। श्री और अग्नि देवता हैं। ’हिरण्यवर्णा’ प्रथम ऋचा बीज और ’कां सोस्मितां’ चतुर्थ ऋचा शक्ति है। 
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिए विनियोग है। 
(हाथ जोड़ कर लक्ष्मीजी एवं विष्णुजी का ध्यान करें।) गुलाबी कमल दल पर बैठी हुई, पराग राशि के समान पीतवर्णा, हाथों में कमल पुष्प धारण किए हुए, मणियों युक्त अलंकारों को धारण किए हुए, समस्त लोकों की जननी माँ श्रीमहालक्ष्मी को हम वंदना करते हैं। 
इस सूक्त की ऋचाओं में से १५ ऋचाएँ मूल 'श्री-सूक्त’ माना जाता है l यह सूक्त ऋग्वेद संहिता के अष्टक ४ अध्याय ४ के अन्तिम मण्डल ५ के अन्त में ‘परिशिष्ट’ के रुप में आया है l इसी को ‘खिल-सूक्त’ भी कहते हैं l मूलतः यह ऋग्वेद में आनंदकर्दम ऋषि द्वारा श्री देवता को समर्पित काव्यांश है l निरुक्त एवं शौनक आदि ने भी इसका उल्लेख किया है l इस सूक्त की सोलहवीं ऋचा फलश्रुति स्वरुप है l इसके पश्चात् १७ से २५ वीं ऋचाएँ फल-स्तुति रुप ही हैं, जिन्हें ‘लक्ष्मी-सूक्त’ कहते हैं l सोलहवीं ऋचा के अनुसार श्रीसूक्त की प्रारम्भिक १५ ऋचाएँ कर्म-काण्ड-उपासना के लिए प्रयोज्य है l अतः ये १५ ऋचाएं ही लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के आगम-तन्त्रानुसार साधना में प्रयुक्त होती हैं l
।।श्री सूक्त।।

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो मऽआवह ।।१
हे अग्निदेव, आप मेरे लिए उस लक्ष्मी देवी का आवाहन करें जिनका वर्ण स्वर्णकान्ति के समान है ,जो स्वर्ण और रजत की मालाओं से अलंकृत हैं ,जो परम सुंदरी दारिद्र्य का हरण करती हैं और जो चन्द्रमा के समान स्वर्णिम आभा से युक्त हैं l

तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।२
हे जातवेदा अग्निदेव,आप मेरे लिए उन जगत-प्रसिद्ध वापस नहीं लौटने वाली (सदा साथ रहनेवाली ) लक्ष्मी जी को बुलाएं जिनके आगमन से मैं स्वर्ण,गौ,अश्व,बंधू-बांधव ,पुत्र-पौत्र को प्राप्त कर सकूँ ।

अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।३
जिस देवी के आगे घोड़े और मध्य में रथ है,ऐसे रथ पर आरूढ़ गज-निनाद से प्रमुद्कारिणी देदीप्यमान लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ जिससे वे मुझ पर प्रसन्न हों ।

कां सोऽस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।४
मुखारविंद पर मधुर स्मिति से जिनका स्वरुप अवर्णनीय है,जो स्वर्ण से आविष्ट ,दयाभाव से आर्द्र देदीप्यमान हैं और जो स्वयं तृप्त होते हुए दूसरों के मनोरथ को पूरा करने वाली हैं कमल पर विराजमान कमल-सदृश उस लक्ष्मी देवी का मैं आवाहन करता हूँ ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।५
चन्द्रमा के समान प्रभावती ,अपनी यश-कीर्ति से देदीप्यमती, स्वर्गलोक में देवों द्वारा पूजिता ,उदारहृदया ,कमल-नेमि (कमल-चक्रिता/पद्म-स्थिता ) लक्ष्मी देवी, मैं आपका शरणागत हूँ । आपकी कृपा से मेरी दरिद्रता दूर हो।

आदित्यवर्णे तपसोधिsजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथबिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु या अन्तरा याष्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६
हे सूर्यकांतियुक्ता देवी , जिस प्रकार आपके तेज से सारी वनसम्पदाएँ उत्पन्न हुई हैं,जिस प्रकार आपके तेज से बिल्ववृक्ष और उसके फल उत्पन्न हुए हैं,उसी प्रकार आप अपने तेज से मेरे बाह्य और आभ्यंतर की दरिद्रता को विनष्ट कर दें।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिष्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७
हे लक्ष्मी देवी ,देवसखा अर्थात् महादेव के सखा कुबेर के समान मुझे मणि ( संपत्ति ) के साथ कीर्ति प्राप्त हो , मैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ हूं ,मुझे कीर्ति और समृद्धि प्रदान करें ।

क्षुत्पिपासामलां जयेष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। ८
क्षुधा और पिपासा (भूख-प्यास) रूपी मलिनता की वाहिका आपकी ज्येष्ठ बहन अलक्ष्मी को मैं ( आपके प्रताप से ) नष्ट करता हूँ । हे लक्ष्मी देवी ,आप मेरे घर से अनैश्वर्य अशुभता जैसे सभी विघ्नों को दूर करें ।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।९
सुगन्धित द्रव्यों के अर्पण से प्रसन्न होने वाली, किसी से भी नहीं हारनेवाली ,सर्वदा समृद्धि देने वाली ( इच्छाओं की पुष्टि करनेवाली ), समस्त जीवों की स्वामिनी लक्ष्मी देवी का मैं यहां आवाहन करता हूं ।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥१०
हे लक्ष्मी देवी, आपकी कृपा से मेरी सभी मानसिक इच्छा की पूर्ति हो जाए, वचन सत्य हो जाय ,पशुधन रूप-सौन्दर्य और अन्न को मैं प्राप्त करूं तथा मुझे संपत्ति और यश प्राप्त हो जाय।

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११
हे कर्दम ऋषि (लक्ष्मी-पुत्र ) ,आप मुझ में निवास कीजिये और आपके सद्प्रयास से जो लक्ष्मी देवी आविर्भूत होकर आप-सा प्रकृष्ट पुत्र वाली माता हुई उस कमलमाला-धारिणी लक्ष्मी माता को मेरे कुल में निवास कराये ।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥ १२
जिस प्रकार वरुणदेव स्निग्ध द्रव्यों को उत्पन्न करते है ( जिस प्रकार जल से स्निग्धता आती है ), उसी प्रकार, हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत , आप मेरे घर में निवास करें और दिव्यगुणयुक्ता श्रेयमान माता लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास कराकर इसे स्निग्ध कर दें ।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ १३
हे अग्निदेव, आप मेरे लिए कमल-पुष्करिणी की आर्द्रता से आर्द्र शरीर वाली ,पुष्टिकारिणी,पीतवर्णा,कमल की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान स्वर्णिम आभा वाली लक्ष्मी देवी का आवाहन करें ।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ १४
हे अग्निदेव , आप मेरे लिए दयाभाव से आर्द्रचित्त, क्रियाशील करनेवाली ,शासन-दंड-धारिणी ( कोमलांगी ) , सुन्दर वर्णवाली,स्वर्णमाला-धारिणी सूर्य के समान स्वर्णिम आभामयी लक्ष्मी देवी का आवाहन करें ।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्या हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वन्विन्देयं पुरुषानहम् ।।१५
हे अग्निदेव , आप मेरे लिए स्थिर ( दूर न जानेवाली ) लक्ष्मी देवी का आवाहन करें जिनकी कृपा से मुझे प्रचुर स्वर्ण-धन ,गौ ,घोड़े और संतान प्राप्त हों ।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६
जो नित्य पवित्र होकर इस पंचदश ऋचा वाले सूक्त से भक्तिपूर्वक घी की आहुति देता है और इसका पाठ ( जप ) करता है उसकी श्री ( लक्ष्मी ) की कामना पूर्ण होती है.
ll ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ll ( इस के साथ सिद्ध लक्ष्मी सूक्त को भी जोड़ा गया हे )

"श्री लक्ष्मीसूक्तम्‌"

पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥
- हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।

पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्‌॥
- हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥
- हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।

पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्‌।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥
- हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।

धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥
- हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।

वैनतेय सोमं पिव सोमं पिवतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥
- हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्‌॥
- इस सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती, वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गंधमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम्‌॥
- हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें।

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्‌।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम॥
- भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, माधवप्रिया, भगवान अच्युत की प्रेयसी, क्षमा की मूर्ति, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ।

महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्‌॥
- हम महादेवी लक्ष्मी का स्मरण करते हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मी हम पर कृपा करें, वे देवी हमें सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करें।

चंद्रप्रभां लक्ष्मीमेशानीं सूर्याभांलक्ष्मीमेश्वरीम्‌।
चंद्र सूर्याग्निसंकाशां श्रिय देवीमुपास्महे॥
- जो चंद्रमा की आभा के समान शीतल और सूर्य के समान परम तेजोमय हैं उन परमेश्वरी लक्ष्मीजी की हम आराधना करते हैं।

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाभिधाच्छ्रोभमानं महीयते।
धान्य धनं पशु बहु पुत्रलाभम्‌ सत्संवत्सरं दीर्घमायुः॥
- इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है।
॥ इति श्रीलक्ष्मी सूक्तम्‌ संपूर्णम्‌ ॥
पंडित आशु बहुगुणा
मोबाइल नं-9760924411

Friday 20 August 2021

सिद्ध महामृत्युञ्जयमालामन्त्रः

सिद्ध महामृत्युञ्जयमालामन्त्रः -
ध्यानम् -
ध्यायेन्मृत्युञ्जयं साम्बं नीलकण्ठं चतुर्भुजम् ।
चन्द्रकोटिप्रतीकाशं पूर्णचन्द्रनिभाननम् ॥ १॥
बिम्बाधरं विशालाक्षं चन्द्रालङ्कृतमस्तकम् ।
अक्षमालाम्बरधरं वरदं चाभयप्रदम् ॥ २॥
महार्हकुण्डलाभूषं हारालङ्कृतवक्षसम् ।
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं फालनेत्रविराजितम् ॥ ३॥
व्याघ्रचर्मपरीधानं व्यालयज्ञोपवीतिनम् ।
पार्वत्या सहितं देवं सर्वाभीष्टवरप्रदम् ॥ ४॥
१.  ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः हौं हैं हां ।
ॐ मृत्युञ्जयाय नमश्शिवाय हुं फट् स्वाहा ॥
२.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय चन्द्रशेखराय
जटामकुटधारणाय, अमृतकलशहस्ताय,
अमृतेश्वराय सर्वात्मरक्षकाय ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां  ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय,
महामृत्युञ्जयाय सर्वरोगारिष्टं निवारय
निवारय, आयुरभिवृद्धिं कुरु कुरु आत्मानं रक्ष रक्ष,
महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
३.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जथेश्वराय पार्वतीमनोहराय
अमृतस्वरूपाय कालान्तकाय करुणाकराय गङ्गाधराय । ॐ हां
हौं नं मं शिं वं यं हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः
जुं सः जुं पालय पालय । महामृत्युञ्जयाय सर्वरोगारिष्टं
निवारय निवारय सर्वदुष्टग्रहोपद्रवं निवारय निवारय, आत्मानं
रक्ष रक्ष, आयुरभिवृद्धिं
कुरु कुरु महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
४। ॐ नमो भगवते महामृत्युजयेश्वराय जटामकुटधारणाय
चन्द्रशेखराय श्रीमहाविष्णुवल्लभाय, पार्वतीमनोहराय,
पञ्चाक्षर परिपूर्णाय, परमेश्वराय, भक्तात्मपरिपालनाय,
परमानन्दाय परब्रह्मपरापराय । ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं
हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय ।
महामृत्युञ्जयाय लं लं लौं इन्द्रद्वारं बन्धय बन्धय ।
आत्मानं रक्ष रक्ष, सर्वग्रहान् बन्धय बन्धय स्तम्भय
स्तम्भय सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय, दीर्घायुष्यं कुरु
कुरु । ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
५.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय,
कालकालसंहाररुद्राय,व्याघ्रचर्माम्बरधराय,
कृष्णसर्पयज्ञोपवीताय, अनेककोटिब्रह्मकपालालङ्कृताय ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं
हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय । महामृत्युञ्जयाय रं
रं रौं अग्निद्वारं बन्धय बन्धय, आत्मानं रक्ष रक्ष ।
सर्वग्रहान्बन्धय बन्धय । स्तम्भय स्तम्भय, सर्वरोगारिष्टं
निवारय निवारय । अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु ।
ॐ नमो भगवते मृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
६.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय त्रिनेत्राय
कालकालान्तकाय  आत्मरक्षाकराय लोकेश्वराय अमृतस्वरूपाय ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं हुं
जुं सः जुं सः जुं पालय पालय महामृत्युञ्जयाय हं हं हौं
यमद्वारं बन्धय बन्धय आत्मानं रक्ष रक्ष, सर्वग्रहान्
बन्धय बन्धय स्तम्भय स्तम्भय सर्वरोगारिष्टं निवारय
निवारय महामृत्युभयं निवारय निवारय अरोगदृढगात्र
दीर्घायुष्यं कुरु कुरु । ॐ नमो भगवते मृत्युञ्जयेश्वराय
हुं फट् स्वाहा ॥
७.  ॐ नमो भगवते मृत्युञ्जयेश्वराय त्रिशूल डमरुकपाल
मालिकाव्याघ्रचर्माम्बरधराय, परशुहस्ताय, श्रीनीलकण्ठाय
निरञ्जनाय, कालकालान्तकाय, भक्तात्मपरिपालकाय,
अमृतेश्वराय । ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां । ॐ
श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय महामृत्युञ्जयाय
षं षं षौं निरृतिद्वारं बन्धय बन्धय । आत्मानं रक्ष
रक्ष । सर्वग्रहान्बन्धय बन्धय । स्तम्भय स्तम्भय ।
महामृत्युजयेश्वराय अरोगदृढ गात्रदीर्घायुष्यं कुरु कुरु ।
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
८.  ॐ नमो भगवते महामृत्युजयेश्वराय महारुद्राय
सर्वलोकरक्षाकराय चन्द्रशेखराय कालकण्ठाय आनन्दभुवनाय
अमृतेश्वराय कालकालान्तकाय करुणाकराय कल्याणगुणाय
भक्तात्मपरिपालकाय ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं । 
पालय पालय महामृत्युजयेश्वराय पं पं पौं
वरुणद्वारं बन्धय बन्धय । आत्मानं रक्ष रक्ष । 
सर्वग्रहान् स्तम्भय स्तम्भय । महामृत्युञ्जयमूर्तये रक्ष रक्ष ।
सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय ।
 महामृत्युभयं निवारय निवारय । महामृत्युञ्जयेश्वराय ।
अरोगदृढगात्रदीर्घायुष्यं कुरु करु । 
ॐ नमो भगवते मृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
९.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय गङ्गाधराय
परशुहस्ताय पार्वतीमनोहराय भक्तपरिपालनाय परमेश्वराय
परमानन्दाय । ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां । ॐ श्लीं
पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय,
महामृत्युञ्जयाय यं यं यौं वायुद्वारं बन्धय बन्धय, 
आत्मानं रक्ष रक्ष । सर्वग्रहान् बन्धय बन्धय,
स्तम्भय स्तम्भय, महामृत्युञ्जयमूर्तये रक्ष रक्ष
सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय, महामृत्युजयेश्वराय
अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु ।
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
१०.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय चन्द्रशेखराय
उरगमणिभूषिताय शार्दूलचर्माम्बरधराय, सर्वमृत्युहराय
पापध्वंसनाय आत्मरक्षकाय ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं
हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय ।
महामृत्युञ्जयाय सं सं सौं कुबेरद्वारं बन्धय बन्धय ।
आत्मानं रक्षं रक्ष । सर्वग्रहान् बन्धय बन्धय । स्तम्भय
स्तम्भय । महामृत्युञ्जयमूर्तये रक्ष रक्ष । सर्वरोगारिष्टं
निवारय निवारय । महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्र
दीर्घायुष्यं कुरु कुरु । ॐ नमो भगवते महामृत्युजयेश्वराय
हुं फट् स्वाहा ॥
११.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय सर्वात्मरक्षाकराय
करुणामृतसागराय पार्वतीमनोहराय अघोरवीरभद्राट्टहासाय
कालरक्षाकराय अचञ्चलस्वरूपाय प्रलयकालाग्निरुद्राय
आत्मानन्दाय सर्वपापहराय भक्तपरिपालनाय पञ्चाक्षरस्वरूपाय
भक्तवत्सलाय परमानन्दाय । ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं
हौं हां । ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय
महामृत्युञ्जयाय । शं शं शौं ईशानद्वारं बन्धय बन्धय,
स्तम्भय स्तम्भय, शं शं शौं ईशानमृत्युञ्जय मूर्तये
आत्मानं रक्ष रक्ष, सर्वग्रहान् बन्धय बन्धय स्तम्भय
स्तम्भय । शं शं शौ ईशानमृत्युञ्जय मूर्तये रक्ष
रक्ष सर्वरोगारिष्टं निवारय, निवारय, महामृत्युभयं निवारय
निवारय । महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्रदीर्घायुष्यं
कुरु करु । ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट्
स्वाहा ॥
१२.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय
आकाशतत्वभुवनेश्वराय अमृतोद्भवाय नन्दिवाहनाय
आकाशगमनप्रियाय गजचर्मधारणाय कालकालाय भूतात्मकाय
महादेवाय भूतगणसेविताय (आकाशतत्त्वभुवनेश्वराय)
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं
पालय पालय महामृत्युञ्जयाय टं टं टौं
आकाशद्वारं बन्धय बन्धय आत्मानं रक्ष रक्ष 
सर्वग्रहान्बन्धय बन्धय । स्तम्भय स्तम्भय ।
टं टं टौं परमाकाशमूर्तये महामृत्युञ्जयेश्वराय रक्ष रक्ष । 
सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय, महामृत्युभयं निवारय निवारय । 
महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु । 
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
१३.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय महारुद्राय कालाग्नि  
रुद्रभुवनाय महाप्रलयताण्डवेश्वराय अपमृत्युविनाशनाय
कालकालेश्वराय कालमृत्यु संहारणाय अनेककोटिभूतप्रेतपिशाच
ब्रह्मराक्षसयक्षराक्षसगणध्वंसनाय आत्मरक्षाकराय
सर्वात्मपापहराय ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय
महामृत्युञ्जयाय क्षं क्षं क्षौं अन्तरिक्षद्वारं
बन्धय बन्धय आत्मानं रक्ष रक्ष, सर्वग्रहान् बन्धय, बन्धय,
स्तम्भय स्तम्भय ।
क्षं क्षं क्षौं चिदाकाशमूर्तये महामृत्युञ्जयेश्वराय रक्ष रक्ष ।
 सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय । 
महामृत्युभयं निवारय निवारय ।
महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु । 
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
१४.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय सदाशिवाय
पार्वतीपरमेश्वराय महादेवाय सकलतत्वात्मरूपाय
शशाङ्कशेखराय तेजोमयाय सर्वसाक्षिभूताय
पञ्चाक्षराय पश्चभूतेश्वराय परमानन्दाय परमाय
परापराय परञ्ज्योतिःस्वरूपाय । 
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय, 
महामृत्युञ्जयाय हं हां हिं हीं हैं हौं
अष्टमूर्तये महामृत्युञ्जय मूर्तये आत्मानं रक्ष रक्ष 
सर्वग्रहान्बन्धय बन्धय स्तम्भय स्तम्भय
महामृत्युञ्जयमूर्तये रक्ष रक्ष सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय
सर्वमृत्युभयं निवारय निवारय, 
महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्रदीर्घायुष्यं कुरु कुरु ।
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
१५.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय लोकेश्वराय
सर्वरक्षाकराय चन्द्रशेखराय गङ्गाधराय नन्दिवाहनाय
अमृतस्वरूपाय अनेककोटिभूतगणसेविताय कालभैरव कपालभैरव
कल्पान्तभैरव महाभैरवादि अष्टत्रिंशत्कोटिभैरवमूर्तये
कपालमालाधर खट्वाङ्गचर्मखड्गधर परशुपाशाङ्कुशडमरुक
त्रिशूल चाप बाण गदा शक्ति भिण्डि मुद्गरप्रास परिघा शतघ्नी
चक्रायुधभीषणाकार सहस्रमुख दंष्ट्राकरालवदन विकटाट्टहास
विस्फाटित ब्रह्माण्डमण्डल नागेन्द्रकुण्डल नागेन्द्रवलय नागेन्द्रहार
नागेन्द्र कङ्कणालङ्कृत महारुद्राय मृत्युञ्जय त्र्यम्बक
त्रिपुरान्तक विरूपाक्ष विश्वेश्वर वृषभवाहन विश्वरूप
विश्वतोमुख सर्वतोमुख महामृत्युञ्जयमूर्तये आत्मानं रक्ष रक्ष,
महामृत्युभयं निवारय निवारय, रोगभयं उत्सादय उत्सादय,
विषादिसर्पभयं शमय शमय, चोरान् मारय मारय,
सर्वभूतप्रेतपिशाच ब्रह्मराक्षसादि सर्वारिष्टग्रहगणान्
उच्चाटय उच्चाटय ।
मम अभयं कुरु कुरु । मां सञ्जीवय सञ्जीवय ।
मृत्युभयात् मां उद्धारय उद्धारय । शिवकवचेन मां रक्ष रक्ष ।
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं ।
पालय पालय महामृत्युञ्जयमूर्तये आत्मानं रक्ष रक्ष ।
सर्वग्रहान् निवारय निवारय । महामृत्युभयं निवारय निवारय ।
सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय ।
महामृत्युञ्जयेश्वराय अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु ।
ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा ॥
१६.  ॐ नमो भगवते महामृत्युञ्जयेश्वराय अमृतेश्वराय
अखिललोकपालकाय आत्मनाथाय सर्वसङ्कट
निवारणाय पार्वतीपरमेश्वराय । 
ॐ हां हौं नं मं शिं वं यं हौं हां ।
ॐ श्लीं पं शुं हुं जुं सः जुं सः जुं पालय पालय ।
महामृत्युञ्जयेश्वराय हं हां हौं जुं सः जुं सः जुं
मृत्युञ्जयमूर्तये आत्मानं रक्ष रक्ष सर्वग्रहान् निवारय निवारय ।
महामृत्युञ्जयमूर्तये सर्वसङ्कटं निवारय निवारय
सर्वरोगारिष्टं निवारय निवारय । महामृत्युभयं निवारय निवारय । 
महामृत्युञ्जयमूर्तये सर्वसङ्कटं निवारय निवारय
सकलदुष्टग्रहगणोपद्रवं निवारय निवारय । 
अष्ट महारोगं निवारय निवारय । सर्वरोगोपद्रवं निवारय निवारय ।
हैं हां हं जुं सः जुं सः जुं महामृत्युञ्जय मूर्तये
अरोगदृढगात्र दीर्घायुष्यं कुरु कुरु । दारापुत्रपौत्र
सबान्धव जनान् रक्ष रक्ष, धन धान्य कनक भूषण
वस्तु वाहन कृषिं गृह ग्रामरामादीन् रक्ष रक्ष ।
सर्वत्र क्रियानुकूलजयकरं कुरु कुरु आयुरभिवृद्धिं कुरु कुरु । 
जुं सः जु सः जुं सः महामृत्युञ्जयेश्वराय हुं फट् स्वाहा । ॐ ॥ 
          ॐ मृत्युञ्जयाय विद्महे भीमरुद्राय धीमहि ।
                    तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।
इति महामृत्युञ्जयमालामन्त्रः सम्पूर्णः ।

दुकान की उन्नति हेतु सटीक उपाय

दुकान की उन्नति हेतु उपाय
घर या व्यापार स्थल के मुख्य द्वार के एक कोने को गंगाजल से धो लें और वहां स्वास्तिक की स्थापना करें और उस पर रोज चने की दाल और गुड़ रखकर उसकी पूजा करें। साथ ही उसे ध्यान रोज से देखें और जिस दिन वह खराब हो जाए उस दिन उस स्थान पर एकत्र सामग्री को जल में प्रवाहित कर दें। यह क्रिया शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार को आरंभ कर ११ बृहस्पतिवार तक नियमित रूप से करें। फिर गणेश जी को सिंदूर लगाकर उनके सामने लड्डू रखें तथा ÷जय गणेश काटो कलेश' कहकर उनकी प्रार्थना करें, घर में सुख शांति आ जागी।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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मैं केवल आपकी जन्मकुंडली देख कर ही आपकी समस्याओं का समाधान कर सकता हूं। यह मेरा व्हाट्सएप नंबर भी है।
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मुजफ्फरनगर UP

प्रतिदिन इस विधि से करें भगवान शिव की पूजा

प्रतिदिन इस विधि से करें भगवान शिव की पूजा
 भगवान शिव की पूजा का बड़ा ही महत्व है। एक लोटा जल चढ़ा देने से प्रसंन्न होने वाले भगवान शिव की पूजा बड़ी-बड़ी बाधाओं को दूर कर देती है। तो आइये हम आपको बताते हैं कि प्रतिदिन भगवान शिव की किस विधि से पूजा करें। भगवान भोलेनाथ के पूजन में इन बातों का विशेष ध्यान रखें। सर्वप्रथम गणेश पूजन करें। भगवान गणेश को स्नान कराएं। वस्त्र अर्पित करें। गंध, पुष्प, अक्षत अर्पित करें। अब भगवान शिव का पूजन शुरु करें। गृहस्थ जीवन में भगवान शिव की पारद प्रतिमा का पूजन सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। सफेद आक या स्फटिक की प्रतिमा का पूजन से भी उत्तम फल की प्राप्ति होती है। सबसे पहले जिस मूर्ति में भगवान शिव की पूजा की जानी है। उसे अपने पूजा घर में स्थान दें। मूर्ति में भगवान शिव का आवाहन करें। भगवान शिव को अपने घर में सम्मान सहित स्थान देें। अब भगवान शिव को स्नान कराएं। स्नान पहले जल से फिर पंचामृत से और वापिस जल से स्नान कराएं।

अब भगवान को वस्त्र पहनाएं। वस्त्रों के बाद आभूषण और फिर यज्ञोपवित (जनेऊ) पहनाएं। अब पुष्पमाला पहनाएं। सुगंधित इत्र अर्पित करें। अब तिलक करें। तिलक के लिए अष्टगंध या चंदन का प्रयोग करें। अब धूप व दीप अर्पित करें। भगवान शिव को धतूरा, आक के फूल विशेष प्रिय है। बिल्वपत्र अर्पित करें। 11 या 21 चावल अर्पित करें। श्रद्धानुसार घी या तेल का दीप

पूजन सामग्री
देव मूर्ति के स्नान के लिए तांबे का पात्र, तांबे का लोटा, दूध, अर्पित किए जाने वाले वस्त्र । चावल, अष्टगंध, दीपक, तेल, रुई, धूपबत्ती, चंदन, धतूरा, अकुआ के फूल, बिल्वपत्र, जनेऊ, फल, मिठाई, नारियल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद व शक्कर), सूखे मेवे, पान, दक्षिणा में से जो भी हो।

सकंल्प लें
पूजन शुरू करने से पहले सकंल्प लें। संकल्प करने से पहले हाथों मेे जल, फूल व चावल लें। सकंल्प में जिस दिन पूजन कर रहे हैं उस वर्ष, उस वार, तिथि उस जगह और अपने नाम को लेकर अपनी इच्छा बोलें। अब हाथों में लिए गए जल को जमीन पर छोड़ दें। 

आवाहन
ऊँ साम्ब शिवाय नमः आव्हानयामि स्थापयामि कहते हुए मूर्ति पर चावल चढ़ाएं। आवाहन का अर्थ है कि भगवान शिव को अपने घर में आने का बुलावा देना।

आसन
ऊँ साम्ब शिवाय नमः आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि कहते हुए आसन दें। आसन का अर्थ है कि भगवान शिव को घर के पूजा घर में विराजने के लिए आसन दिया है।

पाद्यं
ऊँ साम्ब शिवाय नमः पादयो : पाद्यं समर्पयामि कहते हुए पैर धुलाएं।

अर्घ
आचमनी में जल, पुष्प, चावल लें। ऊँ साम्ब शिवाय नमः हस्तयोः अर्घं समर्पयामि कहते हुए हाथों को धुलाएं।

आचमन
ऊँ साम्ब शिवाय नमः आचमनीयम् जलं समर्पयामि कहते हुए आचमन के लिए जल छोड़े। आचमन का अर्थ होता है मुख शुद्धि करना।

पंचामृत से स्नान कराना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः पंचामृत स्नानं समर्पयामि कहते हुए पंचामृत से नहलाएं। पंचामृत का अर्थ है कि दूध, दही, शक्कर, शहद व घी का मिश्रण। इन पांचों चीजों से भगवान को नहलाना।

शुद्ध जल से स्नान कराना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि। कहते हुए शुद्ध जल से स्नान कराएं।

वस्त्र अर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः वस्त्रोपवस्त्रम् समर्पयामि कहते हुए वस्त्र अर्पित करें।

गन्ध अर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः गन्धं समर्पयामि। चंदन, अष्टगंध इत्यादि सुगंधित द्रव्यों को लगाएं।

पुष्प अर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः पुष्पं समर्पयामि कहते हुए आक, धतुरा, चंपा के पुष्प चढ़ाएं।

बिल्व पत्र अर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः बिल्वपत्रं समर्पयामि कहते हुए बिल्व पत्र अर्पित करें।

अक्षत
ऊँ साम्ब शिवाय नमः अक्षताम् समर्पयामि। कहते हुए 11 या 21 चावल अर्पित करें। अक्षत का अर्थ है आखा। ध्यान रखें कि अक्षत टूटे हुए न हों।

धूप दिखाना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः धूपम् आघर्पयामि कहते हुए धूप दिखाएं। अपने हाथों से धूप पर से हाथ फिरा कर शिव पर छाया करें।

दीप दिखाना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः दीपम् दर्शयामि। कहते हुए दीपक दिखाएं। अपने हाथों से दीपक पर से हाथ फिरा कर भगवान शिव पर छाया करें।

आरती करें
ऊँ साम्ब शिवाय नमः आरार्तिक्यम् समर्पयामि कहते हुए आरती अर्पित करें। 

प्रदक्षिणा
भगवान शिव की परिक्रमा करें। शास्त्रों में भगवान शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करने का उल्लेख किया गया है। जलाधारी का लंधन नहीं किया जाता है। परिक्रमा करने के बाद भगवान शिव की मूर्ति के सामने यह कहते हुए प्रदक्षिणा समर्पित करें। 
ऊँ साम्ब शिवाय नमः प्रदक्षिणा समर्पयामि।

पुष्पांजलि अर्पित करें
ऊँ साम्ब शिवाय नमः पुष्पांजलि समर्पयामि कहते हुए हाथ में लिए पुष्पों को भगवान शिव को समर्पित कर दें।

नेवैद्य अर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः नेवैद्यम् निवेदयामि कहते हुए पंचामृत का भोग लगाएं। 

फल समर्पित करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः फलम् समर्पयामि कहते हुए फल अर्पित करें। 

मिठाई का भोग लगाएं
ऊँ साम्ब शिवाय नमः मिष्ठान्न भोजनम् समर्पयामि कहते हुए मीठा भोजन मिठाई अर्पित करें। 

पंचमेवा समर्पयामि
ऊँ साम्ब शिवाय नमः पंचमेवा भोजनम् समर्पयामि कहते हुए पंचमेवा अर्पित करें।

आचमन करना
ऊँ साम्ब शिवाय नमः नेवैद्यांति जलं आचमनम् समर्पयामि कहते हुए आचमन के लिए जल छोड़े। भगवान को नेवैद्य अर्पित करने के बाद मुख शुद्धि के लिए आचमन करवाया जाता है।

ताम्बूल
ऊँ साम्ब शिवाय नमः तांबूल समर्पयामि कहते हुए पान अर्पित करें। भगवान को पान का भोग लगाएं।

द्रव्य दक्षिणा समर्पित करें
ऊँ साम्ब शिवाय नमः यथाशक्ति द्रव्य दक्षिणा समर्पयामि कहते हुए दक्षिणा समर्पित करें।

क्षमा-प्रार्थना
क्षमा-प्रार्थना पूजन में रह गई किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगे। 
जन्म कुंडली आप के जीवन में प्रकाश ला सकती है। अगर किसी का जन्म दिन , जन्म समय और जन्म स्थान एकदम ठीक है। तो किसी भी विद्वान से अपनी कुंडली के बारे में गणना
 जरुर कराएँ। जन्म कुंडली
के अनुसार कार्य करने से जीवन में प्रायः सफलता मिलती है। कर्मो के अनुसार अच्छे – बुरे फल मिलते है। वैदिक विधियों द्वारा किया गया उपाय कभी खाली नहीं जाता है। अच्छे कर्मों से आप अपनी किस्मत बना भी सकते है। और बुरे कर्म करके उसे ख़राब भी कर सकते है।
श्रीराम ज्योतिष सदन
भारतीय वैदिक ज्योतिष  मंत्र यंत्र तंत्र एवं नवग्रह रत्न परामर्शदाता ।।
पंडित आशु बहुगुणा
मोबाइल नं और व्हाट्सएप नंबर है।--9760924411

सिद्ध श्रीदुर्गादेविकवचम्

श्रीदुर्गादेविकवचम् 
श्रीगणेशाय नमः ।
ईश्वर उवाच ।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिदम् ।
पठित्वा पाठयित्वा च नरो मुच्येत सङ्कटात् ॥ १॥ पठित्वा धारयित्वा

अज्ञात्वा कवचं देवि दुर्गामन्त्रं च यो जपेत् ।
स नाप्नोति फलं तस्य परं च नरकं व्रजेत् ॥ २॥

इदं गुह्यतमं देवि कवचं तव कथ्यते ।
गोपनीयं प्रयत्नेन सावधानवधारय ॥ ३॥

उमादेवी शिरः पातु ललाटे शूलधारिणी ।
चक्षुषी खेचरी पातु कर्णौ चत्वरवासिनी ॥ ४॥ च द्वारवासिनी

सुगन्धा नासिके पातु वदनं सर्वधारिणी । सर्वसाधिनी
जिह्वां च चण्डिकादेवी ग्रीवां सौभद्रिका तथा ॥ ५॥

अशोकवासिनी चेतो द्वौ बाहू वज्रधारिणी ।
कण्ठं पातु महावाणी जगन्माता स्तनद्वयम् ॥ ६॥

हृदयं ललितादेवी उदरं सिंहवाहिनी ।
कटिं भगवती देवी द्वावूरू विन्ध्यवासिनी ॥ ७॥

महाबला च जङ्घे द्वे पादौ भूतलवासिनी ।
एवं स्थिताऽसि देवि त्वं त्रैलोक्ये रक्षणात्मिका । त्रैलोक्यरक्षणात्मिके
रक्ष मां सर्वगात्रेषु दुर्गे देवि नमोऽस्तुते ॥ ८॥

इत्येतत्कवचं देवि महाविद्या फलप्रद ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स हि तीर्थफलं लभेत् ॥ ९॥

यो न्यसेत् कवचं देहे तस्य विघ्नं न क्वचित् ।
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो भयं तस्य न विद्यते ॥ १०॥

॥ इति श्रीकुब्जिकातन्त्रे दुर्गाकवचम् सम्पूर्णम् ॥

Thursday 19 August 2021

त्रैलोक्य-विजय श्रीनृसिंह कवच


जय जय श्रीनरसिंह देव
त्रैलोक्य-विजय श्रीनृसिंह कवच
।। पूर्व-पीठिका : श्री नारद उवाच ।।
इन्द्रादि-देव-वृन्देश ! ईश्वर, जगत्-पते ! महा-विष्णोर्नृसिंहस्य, कवचं ब्रूहि मे प्रभो !
यस्य प्रपठनाद् विद्वांस्त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।१
।। श्री प्रजापतिरुवाच ।।
श्रृणु नारद ! वक्ष्यामि, पुत्र-श्रेष्ठ, तपोधन ! कवचं नृसिंहस्य तु, त्रैलोक्य-विजयाभिधम् ।।
यस्य पठनाद् वाग्मी, त्रैलोक्य-विजयी भवेत् । स्रष्टाऽहं जगतां वत्स ! पठनाद् धारणाद् यतः ।।
लक्ष्मीर्जगत्-त्रयं पाति, संहर्ता च महेश्वरः । पठनाद् धारणाद् देवाः बभूवुश्च दिगीश्वराः ।।
ब्रह्म-मन्त्र-मयं वक्ष्ये, भ्रान्त्यादि-विनिवारकं । यस्य प्रसादाद् दुर्वासास्त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।
पठनाद् धारणाद् यस्य, शास्ता च क्रोध-भैरवः ।।
त्रैलोक्य-विजयस्यास्य, कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, नृसिंहो देवता विभुः ।
क्ष्रौं वीजं, हुं शक्तिः, फट् कीलकं, ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।।
।। मूल-पाठ ।।
विनियोगः- ॐ अस्य त्रैलोक्य-विजय-नाम श्रीनृसिंह-कवचस्य श्रीप्रजापतिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीनृसिंहः देवता, क्ष्रौं वीजं, हुं शक्तिः, फट् कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीप्रजापति-ऋषये नमः शिरसि, गायत्री-छन्दसे नमः मुखे, श्रीनृसिंह-देवतायै नमः हृदि, क्ष्रौं वीजाय नमः गुह्ये, हुं शक्तये नमः नाभौ, फट् कीलकाय नमः पादयोः ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
ॐ उग्र-वीरं महा-विष्णुं, ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं, मृत्यु-मृत्युं नमाम्यहम् ।।१
क्ष्रौं वीजं मे शिरः पातु, चन्द्र-वर्णो महा-मनुः । कण्ठं पातु ध्रुवं क्ष्रौं हृद्, भगवते चक्षुषी मे ।
नरसिंहाय च ज्वाला-मालिने पातु कर्णकम् ।।२
दीप्त-दंष्ट्राय च तथाऽग्नि-नेत्राय च नासिकां । सर्व-रक्षोघ्नाय तथा, सर्व-भूत-हिताय च ।।३
सर्व-ज्वर-विनाशाय, दह-दह पद-द्वयम् । रक्ष-रक्ष वर्म-मन्त्रः, स्वाहा पातु मुखं मम ।।४
ॐ रामचन्द्राय नमः, पातु च हृदयं मम । क्लीं पायात् पार्श्व-युग्मं च, तारो नमः पदं ततः ।।५
नारायणाय नाभिं च, आं ह्रीं क्रों क्ष्रौं चैव हुं फट् । षडक्षरः कटिं पातु, ॐ नमो भगवतेऽयम् ।।६
वासुदेवाय च पृष्ठं, क्लीं कृष्णाय ऊरु-द्वयं । क्लीं कृष्णाय सदा पातु, जानुनी च मनूत्तमः ।।७
क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलाङ्गाय नमः पायात् पद-द्वयं । क्ष्रौं नृसिंहाय क्ष्रौं चैव, सर्वाङ्गे मे सदाऽवतु ।।८
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं वत्स ! सर्व-मन्त्रौघ-विग्रहं । तव स्नेहान्मया ख्यातं, प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।।
गुरु-पूजां विधायाथ, गृह्णीयात् कवचं ततः । सर्व-पुण्य-युतो भूत्वा, सर्व-सिद्धि-युतो भवेत् ।।
शतमष्टोत्तरं चास्य, पुरश्चर्या-विधिः स्मृता । हवनादीन् दशांशेन, कृत्वा साधक-सत्तमः ।।
ततस्तु सिद्ध-कवचः, पुण्यात्मा मदनोपमः । स्पर्द्धामूद्धूय भवने, लक्ष्मीर्वाणि वसेत ततः ।।
पुष्पाञ्जल्यष्टकं दत्त्वा, मूलेनैव पठेत् सकृत् । अपि वर्ष-सहस्राणां, पूजायां फलमाप्नुयात् ।।
भूर्जे विलिख्य गुटिकां, स्वर्णस्थां धारयेद् यदि । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ, नरसिंहो भवेत् स्वयम् ।।
योषिद्-वाम-भुजे चैव, पुरुषो दक्षिणे-करे । बिभृयात् कवचं पुण्यं, सर्व-सिद्धि-युतो भवेत् ।।
काक-वन्ध्या च या नारी, मृत-वत्सा च या भवेत् । जन्म-वन्ध्या नष्ट-पुत्रा, बहु-पुत्र-वती भवेत् ।।
कवचस्य प्रसादेन, जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । त्रैलोक्यं क्षोभयेत् सदा, त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।
भूत-प्रेत-पिशाचाश्च, राक्षसा दानवाश्च ये । तं दृष्ट्वा प्रपलायन्ते, देशाद् देशान्तरे ध्रुवम् ।।
यस्मिन् गृहे च कवचं, ग्रामे वा यदि तिष्ठति । तद्-देशं तु परित्यज्य, प्रयान्ति ह्यति-दूरतः ।।
।। इति ब्रह्म-संहितायां त्रैलोक्य-विजयं नाम नृसिंह-कवचम् ।।

‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ के अनुसार उक्त ‘श्रीनृसिंह कवच’ का १०८ पाठ करने से इसका ‘पुरश्चरण’ होता है । दशांश अर्थात् ११ पाठ द्वारा ‘हवन’ और एक-एक पाठ द्वारा ‘तर्पण’, ‘मार्जन’ कर एक ब्राह्मण को भोजन कराने से यह ‘कवच-स्तोत्र’ सिद्ध हो जाता है । तब इसका प्रयोग कर विविध प्रकार की कामनाओं की पूर्ति की जा सकती है । कामनाओं का उल्लेख ‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ में किया गया है । यहाँ दिये गये ‘यन्त्र’ को भोज-पत्र पर लिखकर ‘ताबीज’ के रुप में कण्ठ़ या भुजा में धारण करने से अनेक कामनाओं की पूर्ति होती है ।

Wednesday 18 August 2021

कुमारीस्तोत्रआनन्दभैरवी उवाच

कुमारीस्तोत्र
आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महाभैरव ! अब कुमारी की अत्यन्त दुर्लभ पूजा कहती हूँ । व्याधि वर्ग विहीन कन्या पूजन से साधक को भूमण्डल में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥१॥

हे वीरों के अधिपाधिप ! हे महादेव - ! अब उसका प्रकार सुनिए , कन्यापूजन के लिए ( शाक्त ) महापीठ अथवा देवालय समुचित स्थान माना गया है ॥२॥

सुन्दरी , परमानन्दवर्द्धिनी , जयदयिनी , कालरात्रिस्वरूपा एवं रक्ताङ्ग रञ्जिता कन्या श्री गौरी का स्वरूप हैं ॥३॥

चाहे वह कन्या देवकुल में उत्पन्न हो अथवा राक्षस कुल में , चाहे नरों के उत्तम कुल में , चाहे नटी कन्या , चाहे हीन जाति की कन्या , चाहे कापालिक की कन्या ही क्यों न हों । चाहे धोबी की कन्या , चाहे नापित की कन्या , गोपाल की कन्या , ब्राह्मण की कन्या , शूद्र की कन्या , वैश्य की कन्या , वैद्य की कन्या अथवा चाण्डालकन्या ही क्यों न हों , किं वा वे जिस किसी आश्रम में स्थित कन्या ही क्यों न हों , चाहे अपने सुहद् ‍ वर्ग की कन्या ही क्यों न हों , उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपने घर लाकर अध्यात्म परायण

( शक्ति स्वरुपा ) मान कर उनका अत्यन्त आनन्दपूर्वक पूजन करना चाहिए ॥४ - ७॥

हे वरदान देने वाले ! हे देवेन्द्र ! हे परमानन्दसौन्दर्य ! हे कारणानन्दविग्रह ! अब क्रमशः सुनिए । जो शुद्ध भक्तिपूर्वक मेरी पूजा प्रतिदिन करते हैं , उन्हें अवश्य ही कुमारी पूजन कर उनको भोजन कराना चाहिए ॥८ - ९॥

चाहे सूर्य की पूजा , चाहे चन्द्रमा की पूजा , चाहे अग्नि की ही पूजा करने वाला क्यो न हो , सभी भावों में कन्या का पूजन प्रशस्त माना गया है । कन्या के पूजन से , कन्या से संभाषण से और कन्या के भोजन से मनुष्य का कल्याण होता है ॥१०॥

कन्या पूजन से मैं प्रसन्न होती हूँ क्योंकि उनमें देवता गुप्त रुप से निवास करते है । सभी लोकों के द्वारा पूजित , महान् तेजस्वी तथा ब्रह्मचारी मेरे पुत्र बाल भैरव देव की जो अभीष्ट हैं , वह कुमारी विविध प्रकार के दिव्य पूजन से देवों के द्वारा पूजित हैं ॥११ - १२॥

कुमारी कन्यका , सर्वज्ञा एवं जगदीश्वरी कही जाती हैं । सुरेश्वर ( = इन्द्र ) गण भी पूजा के लिए गुप्त रुप से निवास करने वाली भूमिस्वरूपा महादेवी भोजन आदि अभीष्ट से अर्घ्य और मालादि द्र्व्यों से सन्तुष्ट होकर प्रसन्न रहने वाली कन्या को समस्त लोक से लाकर उनका पूजन करते हैं ॥१३ - १४॥

कुमारी देवनायिका का रोना अर्थात् असन्तुष्ट होना , व्यर्थ , नहीं होता है अतः सभी श्रेष्ठ लोग सरस्वती स्वरूपा ( द्र० ६ . ९६ ) कन्या का पूजन करते हैं । शिव भक्त , विष्णु भक्त तथा अन्य देवता भक्त , किं बहुना , समस्त मनुष्यों द्वारा कन्या पूजित हुई हैं , इसलिए बुद्धिमान् साधक को कन्या का पूजन अवश्य करना चाहिए ॥१५ - १६॥

कन्या पूजन से साधक पूजा प्राप्त करता है , कन्या पूजन से श्री की प्राप्ति होती है , धन प्राप्त होता है और पृथ्वी मिलती है । कन्या पूजन से लक्ष्मी प्राप्त होती है , सरस्वती प्राप्त होती है , महान् तेज मिलता है और दस महाविद्यायें प्रसन्न होती हैं । किं बहुना समस्त देवता कन्या पूजन से प्रसन्न होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१७ - १८॥

कन्या पूजन से बाल भैरव ( श्री बटुक ) ब्रह्मा , इन्द्र , ब्रह्मवेता ब्राह्मण , रुद्र , देवगण , विष्णुरूप वैष्णव अवतार , द्विभुजा वाले वैष्णव जन , ( स्वारोचिषा आदि ) मनु से शोभित , अन्य दिक्पाल एवं देवता , अनेक विद्या से युत्त चराचर गुरु , कूटनीति से युक्त दानव और अपवर्ग मेंज स्थित रहने वाले जो जो जन हैं वे सभी संतुष्ट होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१९ - २१॥

हे देव ! यदि कन्या पूजन से मैं संतुष्ट होती हूँ तो अन्य लोगों की बाल ही क्या ? साधक कुमारी पूजन कर समस्त त्रैलोक्य को अपने वश में सकता है ॥२२॥

कन्या पूजन से शीघ्र ही महाशान्ति प्राप्त होती हैं , संपूर्ण पुण्य तथा समस्त फल प्राप्त होते हैं । तन्त्र और मन्त्र में कहे गये समस्त पुण्य क्षण मात्र में प्राप्त हो जाते हैं ॥२३॥

( कुमारी ) मन्त्र से संपुटित ( मन्त्र ) का जप करने से साधक समस्त सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । हे सुरसुन्दर ! जिन जिन विधानों के प्रकार को मैं कहती हूँ उसे अवश्य करना चाहिए । उसमें भेद बुद्धि कदापि न करे ॥२४ - २५॥

श्रीभैरव ने कहा --- हे शङ्करपूजिते ! हे मेरे कुल के समस्त भावों मैं प्रविष्ट कराने वाली ! हे भैरवि ! हे प्राणवल्लभे ! हे परमानन्द ! यदि मुझ आपका स्नेह पुञ्ज हो तो अब कुमारी के बीज मन्त्र के भेदों को मुझे बताइए ॥२४ - २६॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे नाथ ! अब शाक्तों के हित के लिए कुमारी पूजन में प्रयोग किए जाने वाले महामन्त्र को मुझ से

सुनिए । ये महामन्त्र सिद्ध मन्त्र हैं इसमें संशय नहीं । इस मन्त्र की कृपा होने पर बुद्धिमान् साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और अन्त में देवी पद को प्राप्त कर लेता है । हे आनन्दभैरव ! यह सत्य हैं ॥२७ - २८॥

इस लोक में अवश्य ही साधक को सुख संपत्ति प्राप्त होती है और यह मन्त्र मधुमती विद्या को प्रसन्न करने वाला है , हे शङ्कर ! ऐसा विश्वास करो ॥२९॥

वाग्भव ( ऐं ) से समस्त पुर क्षुब्ध हो जाता है । माया बीज ( हीं ) में आठ गुना फल होता है , श्रीबीज ( श्रीं ) से श्री की प्राप्ति तथा माया बीज से शत्रु का नाश होता है । भैरव बीज ( ? ) से देवताओं के समान खेचरता ( आकाश गमन ) प्राप्त होता है । हे नाथ ! वस्तुतः मैं ही सदा कुमारिका हूँ और आप सदैव कुमार हैं ॥३० - ३१॥

चाहे १०८ की संख्या में चाहे एक ही कन्या का पूजन करना चाहिए । ये कन्यायें पूजित होने पर सब प्रकार का फल देती हैं । किन्तुअ अपामानित होने पर जला देती हैं ॥३२॥

कुमारी साक्षात् योगिनी हैं । कुमारी साधाम् पर देवता ( महाशाक्ति स्वरुपा ) हैं । अतः कुमारी के सन्तुष्ट होने पर असुर , अष्टनाग , दुष्टग्रह , भूत , वेताल , गन्धर्व , डाकिनी , यक्ष , राक्षस तथा अन्य देवता , किं बहुना , हे भैरव ! समस्त भूः भुवः स्वः रुप त्रिलोकी समस्त पृथिव्यादि तत्त्व , चराचरात्मक समस्त ब्रह्माण्ड , ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र एवं ईश्वर तथा सदाशिव आदि सभी देवगण कुमारी पूजन करने वाले साधक पर प्रसन्न हो जाते हैं ॥३३ - ३६॥

हे भैरव ! निधि अर्थात ९ संख्यक कुमारी का पूजन करना चाहिए । पाद्य , अर्घ्य धूप , कुंकुंम , शुभकारक चन्दन आदि पदार्थ भक्तिपूर्वक कुमारी को निवेदन करना चाहिए । पूजा के आदि में मध्य में अन्त में तीन प्रदक्षिणा करे । फिर सुवर्ण , रजत तथा मोती से संयुक्त दक्षिणा देनी चाहिए ॥३६ - ३८॥

विधि पूर्वक दक्षिणा देने के बाद क्रमशः कुमारियों का विवाह भी कर देना चाहिए । ऐसा करने से ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाता है । पुण्य काल में जितनी ही कन्या का दान करता है , उसे भुक्ति मुक्ति , अन्य फल , सौभाग्य तथा सारी संपत्ति प्राप्त हो जाती है ॥३९ - ४०॥

कन्या दान करने वाला साधक त्रिनेत्र भगवान् सदाशिव का रुप धारण कर रुद्रलोक में निवास करता है । करोड़ों सहस्त्र तीर्थ का तथा सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल उसे प्राप्त हो जाता है ॥४१॥

जो कन्या का विवाह कर देता है शीघ्र ही उसके फल को साधक प्राप्त करता है । वह बालुका सागर में रहने वाले जितने बालू की संख्या होती है उतने हजार वर्षों तक एक एक कुल का उद्धार कर रुद्रलोक में पूजा प्राप्त करता है । हे भैरव ! इसलिए अपने उन उन इष्ट देवताओं की प्रीति के लिए बुद्धिमान् साधक कन्यादान कर मुक्ति प्राप्त करे ॥४२ - ४४॥

श्रेष्ठ साधक उन उन वर्ण वाली कन्याओं में उन उन देवताओं की बुद्धि कर ( द्र० . ५ , ९६ - १०० ) एवं दिये जाने वाले वर में शिव की बुद्धि कर तथा पूर्ण रूप से शिव का ध्यान कर कन्यादान करे अथवा सर्वांग सुन्दर , तेजोमय , यश , कान्त बाल भैरव रूप , बटुकेश महादेव का वर रुप में वरण करे ॥४४ - ४६॥

त्रैलोक्यसुन्दरी , नानालङ्कार से विभूषित , नम्राङ्गी श्रेष्ठ महाविद्या का प्रकाश देने वाली , मन्द मन्द हास्य करने वाली , महानन्द से परिपूर्ण ह्रदय वाली , कल्याणकारिणी , मङ्गल स्वरुपा , पूर्ण चन्द्रानना कन्या में बालरुपा ( त्रिपुर ) भैरवी का द्वादश पत्र कमल में ध्यान कर दान करने के लिए लावे और उन उन मन्त्रों से उनका दान भी करे ॥४७ - ४९॥

इस बात को सुन कर महावीर तथा मायारहित बालारूपी भैरव ने परमानन्द स्वरूपा महाभैरवी से पुनः जिज्ञासा की ॥४० - ५०॥

आनन्दभैरव ने कहा --- हे महाभैरवी ! हे प्रिये ! कुमारी कुलतत्त्व के ज्ञान के लिए मन्त्रार्थ , जपक्रम , यजनादि के प्रकार , भोजनादि का क्रम , होमादि की प्रक्रिया , प्रत्येक का स्तोत्र तथा कुमारी कवच क्रमशः हमें बताइए । जिस क्रम से कुमारी परदेवता महाविद्या निर्जन स्थान में साधक के आगे स्वयं प्रगट हो कर स्वयं महावाक्य का प्रतिपादन करें वह बलिका चारुनयना किस प्रकार और किस कारण से प्रसन्न होती हैं ? हे आनन्दभैरवी ! उस प्रकार को आप कहिए ॥५० - ५४॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे शम्भो ! अब कुमारी कुल के मन्त्रों को कहती हूँ उन्हें सुनिए । जिसके जानने मात्र से उत्तम साधक धरणी पति हो जाता है । कुमारी यजन के प्रभावा से साधक गुरु रुप में प्रतिष्ठित हो जाता है ॥५४ - ५५॥

एक वर्षा वरा सन्ध्यादि नाम वाली कुमारियों से प्रारम्भ कर ( १६ वर्ष वाली अम्बिका ) स्वरुप कन्याओं के महामन्त्रों को और क्रमपूर्वक सभी के मन्त्रों के चैतन्य सिद्धि की सक्त्रिया को भी हे महाप्रभो ! श्रवण कीजिए ॥५६॥

श्रेष्ठ सुन्दरी नारी कुलोत्पन्न रत्नालङ्कार संयुक्त चूडी़ और वस्त्रादि से सुशोभित कन्या को लाकर वाग्भव ( ऐं ) बीज के सहित तत्तन्नाम से , हे नाथ ! जल प्रदान करे ॥५७ - ५८॥

उत्तम साधक उन उन कन्याओं में उन उन देवियों की भावना , करते हुये पूजन करे । जल प्रदान करने के बाद मायाबीज

’ हरी सन्ध्यायै नमः अर्घ्य समर्पयामि ’ इस मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे । पुनः माया बीज ’ हीं सन्ध्यायै नमः पुषाणि समर्पयानि ’ इस मन्त्र से कुमारी को पुष्प समर्पित करे ॥५९ - ६०॥

तदनन्तर सदाशिव के मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) से उत्तम धूप दीप प्रदान कर षडङ्गमन्त्र से इस प्रकार न्यास करे ।

षडङ्गन्यास --- हे आनन्द रुप वाले ! हे महादेव ! उस षडङ्गन्यास के प्रकार को सुनिए । महातेजोमय शुभ्र स्वरुप का ध्यान कर ह्रदय पर दाहिना हाथ रखकर धीमान् ‍ साधक को मन्त्र पढा़ना चाहिए । हे शङ्कर ! अब उस मन्त्र को सुनिए । सर्वप्रथम वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर माया ( ह्रीं ) लक्ष्मी बीज ( श्रीं ) कूर्च ( हूं ) का उच्चारण करे ॥६१ - ६३॥

फिर विसर्ग और विन्दु से युक्त प्रेत बीज ( हंसोः ) का उच्चारण कर ’ कुल कुमारिके ’ पद का उच्चारण करे । तदनन्तर ’ ह्रदयाय नमः ’ कहकर ह्रदय का स्पर्श करे । मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ’ ऐं ह्रीं श्रीं हूँ हंसोः कुलकुमारिके ह्रदयाय नमः ’ । इसके बाद शिरः स्थान में शुक्ल वर्ण सर्वमय बीज ( ॐ ) का ध्यान करे । वाग्भव से युक्त हकार , वाग्भव से युक्त वकार , फिर माया ( ह्रीं ), फिर लक्ष्मी ( श्रीं ), फिर वाग्भव ( ऐं ), फिर दो ठ अर्थात् वहिनजाया ( स्वाहा ) इतना उच्चारण कर शिरः प्रदेश में दाहिने हाथ से स्पर्श कर न्यास करे ॥६४ - ६७॥

तदनन्तर शिखा में काले अञ्जन के समूह के समान काले वर्ण का ध्यान कर ’ कुमारी कुल ’ की सिद्धि के लिए मन्त्र साधक इस मन्त्र से न्यास करे । प्रथम प्रणव ( ॐ ) का उच्चारण करे । उसके बाद वहिन सुन्दरी ( स्वाहा ) का उच्चारण करे । फिर ’ शिखायै वषट् ’ का उच्चारण कर शिखा स्थान में न्यास करे ॥६७ - ६९॥

विमर्श --- यथा --- ॐ स्वाहा शिखायै वषट्।

इसके बाद कवच के मध्य में ( दोनों बाहु ) में महाबलवान् अत्यन्त तेजस्वी , सुन्दर , सूर्योदयसे प्रथम होने वाले अरूण के समान लाल वर्ण का ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर , फिर ’ कुल ’ शब्द , फिर ’ वागीश्वरि ’ पद , फिर ’ कवचाय ’ पद , तदनन्तर तारक ब्रह्मा ( हुं ) का उच्चारण कर दोनों बाहु में न्यास करें। यहाँ तक कवचन्यास के अक्षर समूह को कहा गया ॥६९ - ७१॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुल वागीश्वरि कवचाय हुँ ।

इसके बाद नेत्रत्रय में महाप्रभा वाले रक्त वर्ण के करोड़ों जवा मण्डल मण्डित महाबीज का जो करोड़ों सूर्य में विराजित है उसका ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर फिर ’ कुलेश्वरि ’ पद फिर नेत्रत्रयाय वौषट् ’ का उच्चारण कर नेत्रत्रय का न्यास करे ॥७२ - ७४॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुलेश्वरि नेत्रत्रयाय वौषट् ।

फिर मन्त्रज्ञ साधक बायें हाथ पर दाहिने हाथ की मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों से करोड़ों सूर्य की किरण समूहों के समान प्रभा वाले महाकाश में उत्पन्न महानग्र शब्द का ध्यान क्रा प्रथम माया बीज ( हीं ) फिर ’ अस्त्राय ’ पद . फिर पान्त ठान्त वर्ण ( फट् ‍ ) महामन्त्र कर उच्चारण दो ताली देवे ॥७४ - ७६॥

विमर्श --- यथा --- हीं अस्त्राया फट् ‍ ।

इसके बाद कुमारी के ह्रदयाकाश में परिवार का ध्यान कर मन्त्रज्ञ यत्नपूर्वक ध्यान कर भेषजरुप अमृत धारा से उनका पूजन करे । तदनन्तर बटुक भैरव का पूजन कर उनका तर्पण करे ॥७७ - ७८॥

क्रमशः देवताओं के साथ परिवा का पूजन कर , तदनन्तर वाग्भव ( ऐं ), फिर सिद्धजयाय ’ पद , फिर ’ पूर्व ’ पद , फिर ’ वक्त्राय नमः ’ से पूर्व मुख , इसके बाद वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर ’ जयाय ’ शब्द , फिर चतुर्थ्यन्त उत्तरवक्त्र ( उत्तरवक्त्राय ), फिर नमः पद का उच्चारण कर उत्तर मुख का पूजन करे ॥७९ - ८१॥

विमर्श --- पूर्वमुख के लिए मन्त्र है - ऐं सिद्धजायाय पूर्ववक्त्राय नमः ’ । उत्तरमुख के लिए मन्त्र है - ’ ऐं जयाय उत्तरवक्त्राय नमः ’ ।

फिर वाग्भव ( ऐं ), माया ( हीं ) और श्रीबीज ( श्रीं ) का यत्नपूर्वक उच्चारण करे । कुब्जिके पश्चिम - वक्त्राय नमः ’ से पश्चिम वक्त्र पूजन करे । तदनन्तर बाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर ’ कालिके ’ पद का उच्चारण कर ’ दक्षवक्त्राय ’ शब्द के अन्त में ’ नमः ’ शब्द का उचारण करे ॥८१ - ८२॥

विमर्श --- पश्चिममुख के लिए मन्त्र है -’ ऐं हीं श्रीं कुब्जिके पश्चिमवक्त्राय नमः ’ । दक्षिणमुख के लिए मन्त्र है - ऐं कालिके दक्षवक्त्राय नमः ’ ।

हे नाथ ! यहाँ तक हमने कुमारी मन्त्रों को कहा । हे कुलेश्वर ! इन मन्त्राक्षरों का उच्चारण कर उन उन मुखों का पूजन करे । फिर भास्कर , चन्द्रमा , दिक्पाल एवं सन्ध्यादि का पूजन करे ॥८३ - ८४॥

फिर वीरभद्रा , महाकाली , कुल में गमन करने वाली कौलिनी , अष्टादशभुजा काली तथा चतुर्वर्गा देवी का पूजन करे ॥८५॥

अनेक प्रकार के भोज्यान्न से युक्त नैवेद्य आदि जैसे दूध , दही , पक्वान्न , पके हुये उत्तमोत्तम फल , तत्तत्कालों में उपयोग योग्य फल , शर्करा , मधुमिश्रित पञ्चतत्त्व ( पञ्चामृत ), अपना कल्याण बढा़ने वाला कुलद्रव्य और अनेक प्रकार के नानाविध नैवेद्य निवेदित करे । फिर अनेक प्रकार के सुगन्ध से मिश्रित शीतल जल लाकर बुद्धिमान् ‍ साधक उन कन्याओं को प्रदान करे ॥८६ - ८८॥

इसके बाद अपना हित करने वाला अत्यन्त दुर्लभ कुमारी का महामन्त्र अथवा अपने इष्टदेवता का मन्त्र जपने से साधक सभी सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । यदि प्राण वायु के धारण करने में समर्थ हो तो प्राणायाम करे । अन्त में निम्नलिखित कुमारी स्तोत्र का पाठ कर साष्टाङ्र प्रणाम करे ॥८९ - ९१॥

परम भाग्य को देने वाली कुल कामिनी को नमस्कार करता हूँ । कुमार साधकों के लिए आनन्द प्रदान करने वाली , समस्त सिद्धियों को देने वाली , आनन्द स्वरुपिणी कुमारी को नमस्कार करता हूँ ॥९२॥

ध्यान - मूँगा की गुटिका के समानद अत्यन्त स्वच्छ स्वरूप वाली स्वर्णमय परिधान से अलंकृत हीरे का आभूषण धारण करने वाली भुवनेश्वरी स्वरुपा कुमारी की मैं सेवा करता हूँ ॥९३॥

इस मन्त्र से न्यास कर तारिणी स्वरुपा कुमारी का पूजन करे । फिर साधकोत्तम शिव गणेश का पूजन कर उन्हें भी प्रणाम करे ॥९४॥

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति
१॰ क्रूर से क्रूर ग्रह-शान्ति में, शमी-वृक्ष की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े कर, गूलर-पाकर-पीपर-बरगद की समिधा के साथ ‘गायत्री-मन्त्र से १०८ आहुतियाँ देने से शान्ति मिलती है।

२॰ महान प्राण-संकट में कण्ठ-भर या जाँघ-भर जल में खड़े होकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने से प्राण-रक्षा होती है।

३॰ घर के आँगन में चतुस्र यन्त्र बनाकर १ हजार बार गायत्री मन्त्र का जप कर यन्त्र के बीचो-बीच भूमि में शूल गाड़ने से भूत-पिशाच से रक्षा होती है।

४॰ शनिवार को पीपल के वृक्ष के नीचे गायत्री मन्त्र जपने से सभी प्रकार की ग्रह-बाधा से रक्षा होती है।

५॰ ‘गुरुचि’ के छोटे-छोटे टुकड़े कर गो-दुग्ध में डुबोकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र पढ़कर हवन करने से ‘मृत्यु-योग’ का निवारण होता है। यह मृत्युंजय-हवन’ है।

६॰ आम के पत्तों को गो-दुग्ध में डुबोकर ‘हवन’ करने से सभी प्रकार के ज्वर में लाभ होता है।

७॰ मीठा वच, गो-दुग्ध में मिलाकर हवन करने से ‘राज-रोग’ नष्ट होता है।

८॰ शंख-पुष्पी के पुष्पों से हवन करने से कुष्ठ-रोग का निवारण होता है।

९॰ गूलर की लकड़ी और फल से नित्य १०८ बार हवन करने से ‘उन्माद-रोग’ का निवारण होता है।

१०॰ ईख के रस में मधु मिलाकर हवन करने से ‘मधुमेह-रोग’ में लाभ होता है।

११॰ गाय के दही, दूध व घी से हवन करने से ‘बवासीर-रोग’ में लाभ होता है।

१२॰ बेंत की लकड़ी से हवन करने से विद्युत्पात और राष्ट्र-विप्लव की बाधाएँ दुर होती हैं।

१३॰ कुछ दिन नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने के बाद जिस तरफ मिट्टी का ढेला फेंका जाएगा, उस तरफ से शत्रु, वायु, अग्नि-दोष दूर हो जाएगा।

१४॰ दुःखी होकर, आर्त्त भाव से मन्त्र जप कर कुशा पर फूँक मार कर शरीर का स्पर्श करने से सभी प्रकार के रोग, विष, भूत-भय नष्ट हो जाते हैं।

१५॰ १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप कर जल का फूँक लगाने से भूतादि-दोष दूर होता है।

१६॰ गायत्री जपते हुए फूल का हवन करने से सर्व-सुख-प्राप्ति होती है।

१७॰ लाल कमल या चमेली फुल एवं शालि चावल से हवन करने से लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१८॰ बिल्व -पुष्प, फल, घी, खीर की हवन-सामग्री बनाकर बेल के छोटे-छोटे टुकड़े कर, बिल्व की लकड़ी से हवन करने से भी लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१९॰ शमी की लकड़ी में गो-घृत, जौ, गो-दुग्ध मिलाकर १०८ बार एक सप्ताह तक हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२०॰ दूध-मधु-गाय के घी से ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२१॰ बरगद की समिधा में बरगद की हरी टहनी पर गो-घृत, गो-दुग्ध से बनी खीर रखकर ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२२॰ दिन-रात उपवास करते गुए गायत्री मन्त्र जप से यम पाश से मुक्ति मिलती है।

२३॰ मदार की लकड़ी में मदार का कोमल पत्र व गो-घृत मिलाकर हवन करने से विजय-प्राप्ति होती है।

२४॰ अपामार्ग, गाय का घी मिलाकर हवन करने से दमा रोग का निवारण होता है।

विशेषः- प्रयोग करने से पहले कुछ दिन नित्य १००८ या १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप व हवन करना चाहिए।

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